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राफेल डील: रिलायंस-दसॉल्ट ने बनाया ज्वाइंट वेंचर

देश में निजी रक्षा उद्योग के क्षेत्र में एक बड़ा करार हुआ है. इसके तहत राफेल लड़ाकू विमान बनाने वाली कंपनी दसॉल्ट एविएशन एवं अनिल अंबानी की अगुवाई वाले रिलायंस समूह ने संयुक्त रणनीतिक उपक्रम स्थापित करने का ऐलान किया है.

इस उपक्रम को राफेल विमानों के लिए बड़ा भारत में निर्माण सामग्री का बड़ा ऑर्डर मिलने की संभावना है. इससे रक्षा निर्माण में निजी क्षेत्र में रोजगार बढ़ेंगे. यह उपक्रम लड़ाकू विमान सौदे के तहत 22,000 करोड़ रुपये के ‘ऑफसेट’ अनुबंध को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा.

भारत से खरीद होगी

भारत और फ्रांस ने 23 सितंबर को 36 लड़ाकू विमानों की खरीद के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते में 50 फीसदी का ऑफसेट अनुबंध का प्रावधान है जिसका मतलब यह हुआ कि सौदे की आधी राशि की सामग्री भारत में निर्मित होगी.

यानी दसॉल्ट एविएशन या इससे जुड़ी कंपनियां इसे भारत से खरीदेगी. इसी कड़ी में रियालंस एयरोस्पेस ने एक संयक्त उपक्रम को मंजूरी दी है.

दसॉल्ट-रिलायंस एयरोस्पेस

रियायंस समूह के बयान के मुताबिक संयुक्त उपक्रम दसॉल्ट-रिलायंस एयरोस्पेस के नाम से होगा. नागपुर में रिलायंस एयरोस्पेस पार्क स्थापित कर रहा है, जहां राफेल के लिए सामग्री तैयार होगी. यह सामग्री क्या होगी इसका ब्योरा जल्द तैयार होगा. साथ ही अभी स्पष्ट नहीं है कि इस उपक्रम को कितना बड़ा ऑर्डर मिलेगा. लेकिन रिलायंस समूह का दावा है कि वह इसमें एक अहम भागीदार होगा. सौदे के बाद यह पहला साझा उपक्रम है.

भागीदारी में क्या-क्या

दसॉल्ट और रिलायंस के बीच प्रस्तावित रणनीतिक भागीदारी में स्वदेशी रूप से डिजाइन, विकसित एवं विनिर्मित (आईडीडीएम) के तहत परियोजनाओं के विकास पर जोर होगा. आईडीडीएम कार्यक्रम रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर की एक नई पहल है.

विमानों का सौदा

लड़ाकू विमानों का यह सौदा 7.87 अरब यूरो (करीब 59,000 करोड़ रुपये) का है. राफेल सौदे में अन्य कंपनियां फ्रांस की एमबीडीए तथा थेल्स शामिल हैं. इसके अलावा सैफरान भी ऑफसेट बाध्यता का हिस्सा है.

प्रौद्योगिकी साझेदारी

ऑफसेट अनुबंध में प्रौद्योगिकी साझेदारी की भी बात है जिस पर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के साथ चर्चा हो रही है. इसके साथ ही बड़े भारतीय कार्यक्रम का विकास होगा जिससे पूरे एयरोस्पेस क्षेत्र को लाभ होगा.

मेक इन इंडिया को गति मिलेगी

बयान के अनुसार, नया संयुक्त उपक्रम दसॉल्ट रिलायंस एयरोस्पेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया और कुशल भारत अभियान को गति देगा. बता दें कि रिलायंस समूह रक्षा क्षेत्र में जनवरी 2015 में आया. ऐसे में यह समझौता समूह के लिए उत्साहजनक है.

जियो को टक्कर देने आया ‘वोडाफोन प्ले’

दूरसंचार बाजार में ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए वोडाफोन ने अपने ग्राहकों के लिए एक और शानदार ऑफर की पेशकश की है.

जी हां, अब वोडाफोन की सिम प्रयोग करने वाले ग्राहकों के लिए कंपनी की ओर से ‘वोडाफोन प्ले’ तीन महीने तक मुफ्त में देने की पेशकश की है. यह एप वीडियो, मूवी, टीवी शो और म्यूजिक की पेशकश करती है.

कंपनी ने बयान में कहा कि उसने अपने सभी ग्राहकों को 31 दिसंबर, 2016 तक वोडाफोन प्ले की पेशकश मुफ्त में करने का फैसला किया है.

वोडाफोन इंडिया के निदेशक वाणिज्यिक संदीप कटारिया ने कहा कि लोग अब अपने स्मार्टफोन पर अधिक से अधिक वीडियो देख रहे हैं और संगीत सुन रहे हैं. कई एप डाउनलोड करने के बजाय उन्हें सिर्फ वोडाफोन प्ले डाउनलोड करना होगा, जिसमें उनकी मनोरंजन की जरूरत के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ सामग्री उपलब्ध होगी.

गौरतलब है कि इससे पहले भी कंपनी अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए कई ऑफर पेश कर चुकी है. पिछले माह वोडाफोन ने डाटा वार में शामिल होकर 250 रुपए में 1 जीबी 4जी डाटा रि‍चार्ज कराने पर 9 जीबी 4जी डाटा फ्री देने का एलान किया था.

आपको बता दें कि कंपनी की ओऱ से दिए गए इस ऑफर के तहत 1 जीबी या उससे ज्‍यादा का रि‍चार्ज करने पर 9 जीबी का 4जी डाटा फ्री दि‍या जा रहा है. यानी वोडाफोन 250 रुपए में कुल 10 जीबी 4जी डाटा देगा. यह ऑफर भी 90 दिन के लिए है. कंपनी का यह ऑफर 26 सि‍तंबर से शुरू हो गया है और 31 दि‍संबर तक जारी रहेगा.

निपटा लें बैंक के काम, हो सकती है कैश की किल्लत

त्यौहारों का मौसम आ चुका है. दशहरा, दिवाली, छठ जैसे त्यौहारों को लेकर बजारों में रौनक है. लोग शॉपिंग में व्यस्त है. ऐसे में हमारी सलाह है कि आप अपने लिए घर में कैश का इंतजाम 7 अक्टूबर से पहले कर लें.

दरअसल बैकों में लगातार 5 दिनों की छुट्टियां शुरू हो जाएंगी. ऐसे में आपको कैश की किल्लत का सामना करना पड़ सकता है. इसलिए बेहतर है कि आप घर में पहले से ही कैश का इंताजम कर लें ताकि आपकी खरीदारी में खलल ना पड़ें.

बैकों की छुट्टियां

कैश के साथ-साथ अगर आपको बैंक से संबंधित कोई भी काम करना है तो उसे निपटा लें, क्योंकि 8 से 12 अक्टूबर के बीच बैंक बंद रहेंगे. आपको बता दें कि इसके अलावा इस महीने चार दिन और बैंक बंद रहेंगे. पांच दिन लगातार बैंक बंद रहने से एटीएम में कैश की किल्लत हो सकती है.

कब से कब तक बैंक रहेंगे बंद

 – छुट्टियों की शुरुआत 8 अक्तूबर से होगी, क्योंकि उस दिन महीने का दूसरा शनिवार है.

– 9 अक्तूबर को रविवार की छुट्टी है, इसलिए बैंक बंद रहेंगे.  

– 10 अक्तूबर को रामनवमी की छुट्टी है.

– 11 अक्टूबर को दशहरा की छुट्टी है. अक्तूबर को मोहर्रम की छुट्टी रहेगी.

इसके अलावा 16 अक्तूबर को फिर रविवार पड़ रहा है.  29 को चौथा शनिवार होने के कारण छुट्टी रहेगी, जबकि 30 अक्तूबर को दीवाली है, तो 31 को गोवर्धन पूजा की छुट्टी के कारण बैंक बंद रहेंगे. ऐसे में अक्टूबर में बैंक 11 दिन बंद रहेंगे.

हिंदी पत्रकारिता: अर्थ का अनर्थ न करें

आज हम कोई भी हिंदी अखबार उठा कर देखते हैं तो सभी में खबर लिखने के तरीके और भाषा का इस्तेमाल करते हुए कई पत्रकार यहां तक कि टीवी चैनल्स पर भी ऐसी गलतियां देखने को मिलती हैं. खबरों के प्रस्तुतिकरण को ले कर अखबारों व टैलीविजन चैनल्स में बाकायदा नियम हैं, लेकिन फिर भी गड़बडि़यां लगातार होती रहती हैं. छोटाबड़ा हर पत्रकार इस तरह की गलतियां या चूक कर ही देता है. इन गलतियों से खबर तो हास्यास्पद हो जाती है और कई बार तो वह अपना अर्थ भी खो देती है.

यहां ऐसी ही कुछ गलतियों के बारे में बताया जा रहा है. जो पत्रकारों से अकसर अनजाने में हो रही हैं जो युवा पत्रकारिता में प्रवेश करने जा रहे हैं या करने की इच्छा रखते हैं, उन्हें भी इन छोटीछोटी गलतियों के प्रति सतर्क रहना चाहिए ताकि न सिर्फ खबर सही रूप में लोगों के सामने जाए, बल्कि उन की पत्रकारिता में भी एक नई धार पैदा हो सके.

‘बताया’ और ‘कहा’ में अंतर समझें

इस वाक्य पर गौर कीजिए, ‘याकूब कुरैशी ने अखबार से बातचीत में बताया कि अमेरिका मुसलमानों का दुश्मन है.’

अकसर पत्रकार खबर लिखते या टैलीविजन पर पढ़ते समय ‘बताया’ और ‘कहा’ में भेद करना भूल जाते हैं. ‘बताया’ शब्द का इस्तेमाल तब होता है जब वक्ता कोई जानकारी देता है. जैसे कांग्रेस के प्रवक्ता ने बताया कि उन की पार्टी के संगठनात्मक चुनाव दिसंबर में होंगे.

अमूमन पहले से प्रचारित या अस्तित्व में आ गई बात के लिए ‘बताया’ शब्द नहीं आएगा. अमेरिका मुसलमानों का दुश्मन है, यह किसी की निजी राय है. यह कोई जानकारी नहीं है. इसलिए यहां ‘बताया’ के स्थान पर ‘कहा’ शब्द का प्रयोग होना चाहिए.

मृतक को जिंदा न करें

एक वाक्य देखिए, ‘बदमाशों ने अंधाधुंध फायरिंग की, जिस में कैलाश की मौके पर ही मौत हो गई. मृतक के परिजनों ने बताया कि मृतक घटना से कुछ ही देर पहले बेटी की शादी के लिए बाजार से खरीदारी कर के आया था. बदमाशों को देख कर मृतक ने भागने की भी कोशिश की, मगर विफल रहा.’

अकसर पत्रकार खबर में लिखते हैं कि मृतक यह कर रहा था या मृतक ने ऐसा किया. आखिर मरा हुआ व्यक्ति कैसे कुछ कर सकता है. भूतकाल की घटनाओं के वर्णन में मृतक शब्द का इस्तेमाल बिलकुल गलत है.

यहां हम मृतक का नाम ही इस्तेमाल करें, जैसे, ‘कैलाश के परिजनों ने बताया कि वह घटना से कुछ ही देर पहले बेटी की शादी के लिए बाजार से खरीदारी कर के आया था.’

पूरा होने से पहले ही वाक्य खत्म

यह वाक्य देखिए, ‘रामदीन बहुत तेज दौड़ा. जबकि वह बुखार में तप रहा था.’

कई पत्रकार ऐसे वाक्य लिखते हैं जिन के पूरा होने से पहले ही उन में पूर्णविराम लग जाता है. यहां वाक्य ‘तप रहा था’ पर खत्म हुआ, लेकिन जबकि से पहले भी पूर्णविराम लगा दिया गया. ‘जबकि’, ‘जो’, ‘लेकिन’, ‘जिन का’ जैसे वाक्यों को जोड़ने वाले शब्दों से पहले कभी भी पूर्णविराम नहीं होना चाहिए. इन से पहले कौमा यानी अर्द्धविराम का इस्तेमाल कीजिए या फिर कुछ भी मत लगाइए.

‘रामदीन बहुत तेज दौड़ा, जबकि वह बुखार से तप रहा था.’

ने, के, का, से बहुत परेशान करते हैं

वाक्यों को जोड़ने वाले ये अक्षर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिन का इंट्रो लिखते वक्त गलत इस्तेमाल करने से अकसर पूरा वाक्य ही गड़बड़ा जाता है.

यह वाक्य देखिए, ‘कार्यक्रम के उद्घाटन अवसर पर मुख्य अतिथि ने संस्था के पूर्व सदस्यों को सम्मानित भी किया गया.’ अकसर पत्रकार लंबे वाक्य में ‘ने’ अक्षर के पूरक शब्द ‘किया, दिया आदि’ का ध्यान नहीं रख पाते और ‘गया’ शब्द अतिरिक्त लगा देते हैं. ऐसा ही ‘के’, ‘का’ और ‘से’ के इस्तेमाल में होता है.

इसीलिए कोई वाक्य लिखते समय उस के शुरू और अंत में यह जरूर देखना चाहिए कि ‘ने’, ‘के’, ‘का’, ‘से’ आदि का बाकी शब्दों से तारतम्य सही बैठ रहा है या नहीं.

आयोजन आज है या कल, पता ही नहीं चलता

जब भी किसी खबर में तारीख या दिन का उल्लेख होता है तो कई पत्रकार गलती कर जाते हैं. उदाहरण के रूप में शनिवार 16 अप्रैल की शाम को एक पत्रकार खबर लिख रहा है. खबर में यह जानकारी दी जानी है कि क्रिकेट प्रतियोगिता सोमवार 18 अप्रैल से शुरू होगी.

अकसर पत्रकार लिख जाते हैं, ‘आयोजक ने आज प्रैस कौन्फ्रैंस में जानकारी दी कि क्रिकेट प्रतियोगिता कल से शुरू होगी.’ अखबार चूंकि अगले दिन यानी रविवार सुबह पाठक के पास पहुंचता है, इसलिए इसे पढ़ कर भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है कि प्रतियोगिता रविवार से शुरू होगी या सोमवार से. बेहतर यही है कि हम खबर में आज या कल के बजाय दिन और तारीख का इस्तेमाल करें.

जैसे, ‘आयोजक ने शनिवार को प्रैस कौन्फ्रैंस में जानकारी दी कि क्रिकेट प्रतियोगिता सोमवार 18 अप्रैल से शुरू हो रही है.’ शीर्षक यानी हैडिंग को हम उस दिन के हिसाब से लगाते हैं जिस दिन अखबार पाठक के हाथ में जा रहा होता है. अखबार रविवार सुबह पहुंचेगा तो हम हैडिंग में सोमवार के लिए कल का इस्तेमाल कर सकते हैं.

मौत कभी संदिग्ध नहीं होती

अकसर अखबारों के शीर्षक में लिख दिया जाता है, ‘सुभाष नगर में श्रमिक की संदिग्ध मौत.’ वास्तव में मौत तो हो गई. उस में तो कोई संदेह है ही नहीं. संदिग्ध तो हालात, स्थितियां, परिस्थितियां होती हैं. इसलिए संदिग्ध मौत के बजाय संदिग्ध हालात में मौत, संदिग्ध परिस्थितियों में मौत लिखा जाना चाहिए.

तत्त्वावधान का नहीं है विधान

कोई भी व्यक्ति साधारण बोलचाल में तत्त्वावधान शब्द का इस्तेमाल नहीं करता. फिर भी कई खबरों के इंट्रो में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है, जबकि इस से आसानी से बचा जा सकता है. द्वारा शब्द भी बोलचाल का नहीं है, पर कभीकभी इस से बचा नहीं जा सकता, लेकिन तत्त्वावधान से आसानी से बचा जा सकता है.

अकसर लिखा जाता है, ‘देशभक्ति कार्यक्रम का आयोजन महल्ला समिति के तत्त्वावधान में किया जा रहा है.’ इसे बड़ी आसानी से हम यों लिख सकते हैं, ‘देशभक्ति कार्यक्रम महल्ला समिति करा रही है या महल्ला समिति की तरफ से कार्यक्रम हो रहा है.’

‘इस अवसर पर’ और ‘उन्होंने कहा’ से बहुत लगाव है ये 2 शब्द ऐसे हैं, जिन का किसी खबर में बारबार और बेवजह इस्तेमाल होता है. बारबार उन्होंने कहा, उन्होंने कहा, लिख कर यह बात फलां व्यक्ति कह रहे हैं, लेकिन एक पैराग्राफ में सिर्फ एक बार ‘उन्होंने कहा’ लिखने से यह तो नहीं हो जाएगा कि उस बात को कोई और व्यक्ति कहने लगेगा. इसलिए एक पैरा में एक ही बार,’ उन्होंने कहा, का इस्तेमाल करें. ‘इस अवसर पर’ को भी एक ही बार इस्तेमाल करना चाहिए.

गलत किया तो महंगा तो पड़ेगा ही

2 शब्द हैं, ‘महंगा पड़ना’ इन्हें हम जानेअनजाने खूब इस्तेमाल करते हैं. जैसे, ‘मनचलों को महंगा पड़ा लड़की छेड़ना’, ‘चोरों को पुलिस लाइन में घुसना महंगा पड़ा.’ इस तरह नकारात्मक बातों में ‘महंगा पड़ा’ शब्द का प्रयोग असंगत है.

अगर कोई लड़की छेड़ने चला है यानी गलत काम करने चला है तो उसे तो यह काम महंगा पड़ना ही है. यह तो किसी क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. कोई अच्छा काम करने चले और उस में नुकसान उठाना पड़ जाए, तब हमें कहना चाहिए कि उसे यह काम महंगा पड़ा.

किसी को पहाड़ पर नहीं चढ़ाना है

अखबारों में किसी अतिथि या मुख्य वक्ता के नाम का किसी खबर में जब दोबारा छोटे रूप में इस्तेमाल होता है तो भी ‘श्री’ या ‘श्रीमती’ शब्द का इस्तेमाल नहीं होता. जैसे ‘श्री सिंह’ या ‘श्री यादव’ ने कहा के बजाय ‘यादव ने कहा’ ही लिखा जाता है. इस के बावजूद कई पत्रकार ऐसा नहीं करते. वे बारबार नाम से पहले ‘श्री’ लगाते हैं.

बलात्कार पीडि़ता का नाम नहीं देना है

बलात्कार की खबर में पीडि़ता की पहचान छिपाई जानी चाहिए यानी न सिर्फ उस का नाम बल्कि उस के परिजनों का नाम भी नहीं दिया जाता है. अनेक अखबार छेड़खानी जैसी खबरों में भी इस नियम का पालन करते हैं, लेकिन पर्याप्त निगरानी के

अभाव में उन में काम करने वाले पत्रकार इन नियमों का अकसर उल्लंघन करते हैं.

अधिकारी का काम है निरीक्षण करना

ज्यादातर अखबारों में किसी अधिकारी के वक्तव्य से हैडिंग बनाने से परहेज बरतने का नियम है. इसीलिए अधिकारी का वक्तव्य या उस का नाम हैडिंग में तभी होना चाहिए जब वह कोई फैसला ले या ठोस कार्यवाही करे. खबर के अंदर भी अधिकारी या अतिथि के गुणगान से बचना चाहिए. भाषण में ‘ये होना चाहिए’ जैसी सतही चीजों को कम कर के ठोस बातों, फैसलों पर फोकस करना चाहिए.

ये सब लिखित, अलिखित नियम होने पर भी अनेक पत्रकार अधिकारियों के निरीक्षण पर हैडिंग लगाते हैं और उन का अनावश्यक भाषण छापते हैं. अरे भई, निरीक्षण करना तो अधिकारी का काम है, उसे तो वह करेगा ही.

आरोपी से भी पूछ लीजिए

‘क’ ने ‘ख’ पर कोई आरोप लगाया. हम ने ‘क’ के सारे आरोप छाप दिए और ‘ख’ से उस का पक्ष पूछा ही नहीं. ऐसा सभी अखबारों के पत्रकार खूब कर रहे हैं. ऐसी खबरों से बचा जाना चाहिए. ‘ख’ की प्रतिक्रिया लिए बिना कुछ विशेष परिस्थितियों में तब खबर दी जा सकती है जब किसी अथौरिटी (पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी या संस्था, सरकार) ने ‘ख’ के खिलाफ कोई कार्यवाही कर दी हो. कार्यवाही नहीं हुई, ‘ख’ का पक्ष भी नहीं लिया जा सका और खबर महत्त्वपूर्ण भी है यानी उसे रोका नहीं जा सकता. ऐसी स्थिति में हम आरोपी यानी ‘ख’ की पहचान गुप्त रख कर खबर दे सकते हैं.

नामजद है तो क्या हुआ

राष्ट्रीय स्तर पर बड़े मामलों में पुलिस में रिपोर्ट दर्ज होने पर आरोपी का नाम खूब छपता है. स्थानीय स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण मामलों में ऐसा होता है. ऐसा इसलिए होता है कि बड़े मामले गंभीर और पुख्ता किस्म के होते हैं. इस के बनिस्पत हर छोटेछोटे मामले में केवल नामजद रिपोर्ट होना ही आरोपी का नाम देने के लिए पर्याप्त नहीं है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर लोग अनेक झूठे मुकदमे दर्ज कराते हैं और उन में वे नाम भी लिखवाते हैं जो मौके पर थे ही नहीं. इसीलिए सामान्य स्थितियों में गिरफ्तारी होने या हिरासत में लेने से पहले नामजद व्यक्ति का नाम नहीं देना चाहिए. इस नियम के बावजूद अखबारों में धड़ल्ले से रिपोर्ट में नामजद लोगों के नाम छपते हैं.

अरे भई, बाप की क्या गलती है

कोई युवक यदि किसी अपराध में पकड़ा गया तो पुलिस कार्यवाही में उस के पिता का नाम भी दर्ज होता है, लेकिन खबर में अभियुक्त के पिता का नाम नहीं घसीटना चाहिए. पिता का उस अपराध में कोई दोष नहीं होता, इसलिए पिता का नाम नहीं देना चाहिए. हां, उस का पेशा दे सकते हैं. जैसे, ‘नामी बिल्डर का बेटा चेन झपटते दबोचा गया.’ इस नियम का पालन भी ज्यादातर अखबारों में नहीं होता.

हंगामा, सनसनी, हड़कंप, घेराव, हाहाकार का पीछा छोड़ें

इन भारी शब्दों को पत्रकारों ने इतना हलका बना दिया है कि हर खबर में इन का इस्तेमाल बहुतायत से होता है. किसी महल्ले में थोड़ी देर बिजली नहीं आई तो हाहाकार मच जाता है. यदि कयामत जैसी चीज आ जाएगी तो आप क्या मचाएंगे? फोटोग्राफर के कहने पर प्रदर्शन कर रहे कुछ लोगों ने हाथ उठा कर दोचार नारे क्या लगा दिए, खबर में तुरंत हंगामा हो जाता है. हर खबर सनसनी फैला देती है या फिर हड़कंप मचा देती है. फोटो में 4 छुटभैए नेता अफसर के सामने बैठ कर बात कर रहे होते हैं और खबर व फोटो परिचय बताता है कि अफसर का घेराव किया गया.

गड़बड़ कर देती हैं ‘इ’ और ‘ई’

अंगरेजी के जिन शब्दों के अंत में इ या उ की ध्वनि निकलती है, उन में आमतौर पर उन के दीर्घ रूप का इस्तेमाल किया जाता है. जैसे आई, माई, हाई. इसी तरह यदि इ अक्षर किसी शब्द के बीच में आता है तो ज्यादातर वह छोटी इ के रूप में ही लिखा जाता है. जैसे, ड्राइवर, साइकिल, लाइन आदि. लगभग सभी अखबारों में इस तरह के शब्दों को ले कर बहुत अराजकता की स्थिति है. एक ही अखबार में हमें ‘ड्राईवर’भी देखने को मिलता है और ‘ड्राइवर’ भी. वर्तनी को ले कर तो खैर अखबारों में बिलकुल भी एकरूपता नहीं है. कुछ शब्दों को हर अखबार अलगअलग तरीके से इस्तेमाल कर रहा है. इस पर भी अलग से विचार की जरूरत है. वैसे दिल्ली प्रैस ने वर्तनी को ले कर एक मानक बनाया है, इस का इस्तेमाल अगर बाकी प्रकाशन संस्थान भी करें तो हिंदी की वर्तनी संबंधी सारी गड़बडि़यां दूर हो सकती हैं.                                       

कुछ और नियम

–       किसी व्यक्ति की उम्र बताने के लिए पूरा वाक्य इस्तेमाल नहीं होता. उम्र कोष्ठक में (45) लिखी जाती है. ‘वह 85 वर्ष के थे’ जैसे पूरे वाक्य का इस्तेमाल विशिष्ट व्यक्तियों की उम्र बताने में ही किया जाता है.

–       इकाई यानी एक अंक की संख्या हमेशा शब्दों में लिखनी चाहिए. जैसे एक, दो, पांच, नौ. इस के बाद की संख्याएं अंकों में लिखें जैसे 10, 11, 15 आदि.

–       10वीं, 5वीं, 21वीं के स्थान पर दसवीं, पांचवीं, इक्कीसवीं का ही प्रयोग करना चाहिए. हां, हैडिंग में 10वीं, 5वीं लिखा जा सकता है.

–       हैडिंग में द्वारा और व शब्द के इस्तेमाल से बचना चाहिए, क्योंकि ये दोनों ही शब्द बोलचाल के दौरान इस्तेमाल नहीं होते. खबर में भी द्वारा से बचना चाहिए, हालांकि हर बार ऐसा हो नहीं पाता.     

सपने मनीषा के

हिंदी फिल्म ‘आखिर कब तक’ में अपनी ऐक्टिंग की छाप छोड़ने वाली मनीषा सिंह पेशे से टैक्सटाइल इंजीनियर हैं. मौडलिंग के जरीए वे फिल्मों में आईं. आज वे हिंदी फिल्मों के साथसाथ मराठी और तेलुगु फिल्में भी कर रही हैं. उन्होंने टैलीविजन पर भी सीरियल किए हैं, जिन में ‘तारक मेहता का उलटा चश्मा’ खास है. दिल्ली में मनीषा सिंह जब एक टैक्सटाइल कंपनी में काम कर रही थीं, तब वहां उन्हें मौडलिंग के कुछ औफर मिले. नौकरी करने के साथसाथ उन्होंने यह काम भी शुरू किया, जो लोगों को पसंद आया. इस के बाद मनीषा सिंह ऐक्टिंग के क्षेत्र में आ गईं और कई टैलीविजन सीरियल भी किए. यहीं से उन्हें फिल्मों में काम करने का औफर मिला. दक्षिण भारत की फिल्मों के भी कई औफर आए. अब उन की मराठी और हिंदी फिल्में भी बन रही हैं, जिन में ‘ट्विस्ट पे ट्विस्ट’ और ‘लव इन हैवन’ खास हैं.

क्या आप को हिंदी, दक्षिण भारतीय और मराठी फिल्मों के बीच तालमेल करने में कोई परेशानी तो नहीं आती है? इस सवाल पर मनीषा सिंह कहती हैं, ‘‘मैं बहुत सरल स्वभाव की हूं. ऐसे में सभी के साथ तालमेल हो जाता है. मुझे अच्छा काम करना है. इसी आधार पर परिवार वालों का सपोर्ट मिला.

‘‘फिल्म ‘आखिर कब तक’ दहेज की समस्या पर बनी है. इस में केवल दहेज से होने वाली लड़कियों की परेशानियों को ही नहीं दिखाया गया है, बल्कि दहेज के चलते अब लड़कों को भी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. आज अच्छे लड़के देखे व पसंद किए जाते हैं. पहले केवल लड़कियों को ही देखा जाता था, पर अब लड़कों को भी लड़की वालों की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है.’’ मनीषा सिंह आर्मी परिवार से हैं. लिहाजा, फिल्मों में आने में कोई परेशानी तो नहीं हुई? इस सवाल पर वे कहती हैं कि उन का परिवार खुले विचारों का है. कैरियर बनाने में उन का बड़ा सहयोग मिलता रहा है. वे अच्छा काम करने की कोशिश में हैं. फिल्म छोटीबड़ी कोई भी हो सकती है, पर कहानी और किरदार अहम होते हैं. अब उन का फोकस हिंदी फिल्मों पर है. मनीषा सिंह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की रहने वाली हैं. उन की शुरुआती पढ़ाई वहीं हुई. कानपुर से पौलिटैक्निक कर के वे टैक्सटाइल इंजीनियर बनीं. भोजपुरी उन की बोली है. वे उस का पूरा सम्मान करती हैं. पर उन्हें भोजपुरी फिल्मों में काम करना कतई पसंद नहीं है. उन का परिवार भी नहीं चाहता कि वे भोजपुरी फिल्मों में काम करें. फिल्म और मौडलिंग के बाद अगर समय मिले और अच्छे फैशन शो का औफर मिले, तो वे उस में काम करती रहेंगी.

प्यार में सैक्स जरूरी नहीं: कृति खरबंदा

कन्नड़ और तेलुगू फिल्मों से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली पंजाबी गर्ल कृति खरबंदा फिल्म ‘राज रिबूट’ में मुख्य भूमिका निभा रही हैं. 3 साल की उम्र में उन्होंने मौडलिंग शुरू की थी. धीरेधीरे यही शौक उन्हें फिल्मों की ओर ले आया. कृति पढ़ाई पूरी करने के बाद फिल्मों में आईं, क्योंकि उन के मातापिता चाहते थे कि वे अपनी शिक्षा पूरी करें. वे बेंगलुरु की सब से काबिल वुमन और देश की हौटैस्ट नायिका मानी जाती हैं. यह फिल्म उन की डेब्यू है. कृति से बात करना रोचक था, क्योंकि वे हर बात का जवाब बेझिझक देती हैं. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के मुख्य अंश :

फिल्मों में आने की प्रेरणा कहां से मिली?

वैसे तो मैं दिल्ली की हूं पर मेरा पालनपोषण बेंगलुरु में हुआ. बचपन से ही हिंदी फिल्में देखने का शौक था. अंगरेजी फिल्में मैं पसंद नहीं करती थी. 14 साल की उम्र में मेरी सहेलियां मुझे ‘ड्रामा क्वीन’ कह कर पुकारती थीं. उन का कहना था कि तुझे तो फिल्मों में होना चाहिए. मौडलिंग तो मैं करती थी, लेकिन तब मैं ने सोचा नहीं था कि फिल्में करूंगी. मैं ने 3 साल की उम्र से मौडलिंग शुरू की थी. विज्ञापन अधिक करती थी. रैंप पर चलने का शौक तो था पर मेरी हाइट कम है इसलिए हो नहीं पाया. इस के बाद मुझे ‘मिस इंडिया’ बनने का शौक चढ़ा, क्योंकि मुझे ‘क्राउन’ पहनने की इच्छा थी. फिर मैं ने स्कूल के कई कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू कर दिया. मैं ने राजस्थानी फोक डांस सीखा. सालसा की ट्रेनिंग ली, ये सारी चीजें मैं ने शौकशौक में सीखीं. ऐक्ट्रैस बनूंगी ऐसा कभी नहीं सोचा था.

जब मैं 15 साल की थी तब मुझे एक कन्नड़ मूवी का औफर मिला जो एक बहुत बड़े स्टार के साथ थी. मां ने मना कर दिया था. उस समय उन्होंने 50 हजार रुपए का औफर दिया था जो मेरे लिए बड़ी बात थी. इतने सपने देख लिए थे कि लगा, पूरी दुनिया खरीद लूंगी. लेकिन मां के मना करने पर मैं ने काम नहीं किया. इस के बाद 17 साल की उम्र में फिर औफर आया जो तेलुगू फिल्म ‘बोनी’ से था.

पहले तो मुझे मजाक लगा और लगा कि मेरे परिवार वाले मना करेंगे, लेकिन इस बार तो मां ही नहीं दादी ने भी मुझे बड़े परदे पर देखने की इच्छा जताई. मैं हैरान रह गई और मुझे वह फिल्म मिली. मैं ने इस फिल्म में अभिनय किया और फिर 2-3 साल बे्रक ले कर अपनी पढ़ाई पूरी की. इस के अलावा मैं ने ज्वैलरी डिजाइनर का डिप्लोमा कोर्स व फैशन डिजाइनिंग का औनलाइन कोर्स किया. मुझे क्रिएटिव फील्ड में जाने की बहुत इच्छा थी. साउथ की करीब 13 फिल्मों में मैं ने काम किया है.

‘राज रिबूट’ फिल्म के बारे में बताएं?

मैं एक विज्ञापन के लिए मुंबई में शूटिंग कर रही थी. तभी मुझे इस फिल्म का औफर मिला. इस फिल्म में मुझे सोलो काम करने का मौका मिला है.

फिल्म में अंतरंग दृश्य करने में कितना सहज हो पाती हैं?

इस फिल्म में वैसा कोई दृश्य नहीं है. केवल 2 किस सीन्स इमरान और गौरव अरोड़ा के साथ हैं. लव मेकिंग सीन्स नहीं हैं. किसी भी फिल्म में मैं इंटीमेट सीन्स नहीं कर सकती. मैं ने कई फिल्मों को इसलिए मना कर दिया, क्योंकि उन में बिकिनी पहननी थी. मैं ऐसे सीन्स में कंफर्टेबल नहीं हूं. मेरी फिगर भी ऐसी नहीं है कि मैं बिकिनी पहनूं. मेरे हिसाब से ऐसा पहनावा उन्हें ही अच्छा लगता है जिन की बौडी और पर्सनैलिटी दोनों ही उन का साथ दें. मैं कोई भी ऐसी ड्रैस नहीं पहनती जो मुझे सूट न करे.

इमरान हाशमी और गौरव अरोड़ा के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?

साउथ और यहां का फिल्मी पैटर्न काफी अलग है. मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी ताकि मेरे कोस्टार को बारबार रीटेक न देना पड़े. मुझे अपना चरित्र निभाना काफी कठिन लग रहा था, क्योंकि यह मेरी उम्र के हिसाब से ‘मैच्योर’ था. मैं ने किसी को फौलो नहीं किया. निर्देशक की सुनी. गौरव अरोड़ा के साथ अभिनय करने का अनुभव बहुत अच्छा था. वे कोई भी दृश्य बड़ी सहजता से कर लेते हैं. इस से मुझे भी किरदार निभाने में आसानी हुई.

आप किस में अधिक विश्वास रखती हैं रिलेशनशिप में या शादी में?

मेरा शुरू से ही शादी में विश्वास रहा. शादी का अपना अलग महत्त्व है. मैं प्यार करना जानती हूं और खुद भी वैसी ही आशा रखती हूं. मेरे हिसाब से मेरा पार्टनर ईमानदार हो, मेरे परिवार की भी केयर करे.

क्या प्यार में सैक्स जरूरी है?

कभी भी नहीं, शारीरिक अनुकूलता एक समय के बाद खत्म हो सकती है, कम हो सकती है, लेकिन प्यार और दोस्ती हमेशा कायम रहती है. इसलिए जरूरी नहीं प्यार में सैक्स हो.

खाली समय में क्या करती हैं?

मैं 25 दिन तक शूट करती हूं. इस के बाद जो समय बचता है उस दौरान मैं घर में रहती हूं. कुकिंग का मुझे बहुत शौक है. मैं खाली समय में कुकिंग भी करती हूं.

कितनी फैशनेबल हैं और कितना मेकअप करना पसंद करती हैं?

घर पर मैं सिंपल रहती हूं. बाहर निकलने पर अच्छी ड्रैस पहनती हूं. मेकअप अधिक पसंद नहीं, पर अभिनय के हिसाब से करना पड़ता है.

किस बात से गुस्सा आता है?

छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता है. मेरे साथ या मेरे सामने अगर कोई गलत बात करे, तो मुझ से सहन नहीं होता.

कोई ऐसी फिल्म, जिसे आप ने बारबार देखा हो?

‘सोचा न था’ और ‘रहना है तेरे दिल में’ फिल्में कई बार देखी हैं. इस के अलावा मुझे हर तरह की फिल्में देखना और उन में अभिनय करना पसंद है.              

भाषा उड़ान की

सन 1966 की एक सुबह कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर्स कालेज के प्रिंसिपल के कक्ष के बाहर खड़े 16 वर्षीय, दुबलेपतले किशोर ने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी और सहमते हुए अंदर आने की अनुमति मांगी. प्रिंसिपल ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर अंदर आने को कहा. सकुचाते हुए लड़के ने बताया कि वह यहां बीकौम में ऐडमिशन पाने की मंशा से आया था. वह धीरेधीरे, हिचकिचाते हुए अपनी बात कहे जा रहा था. वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि प्रिंसिपल ने उसे बीच में टोक कर कहा कि ऐडमिशन ज्यूरी पहले ही तुम्हें ऐडमिशन न देने का फैसला कर चुकी है. मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकता.

लेकिन वह छात्र जानता था कि ज्यूरी ने उसे ऐडमिशन न देने का फैसला प्रिंसिपल के कहने पर ही लिया था. सेंट जेवियर्स कालेज देश के सब से प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में शुमार है. वहां अमूमन अमीर घरों के महंगे स्कूलों में पढ़ चुके, फर्राटेदार अंगरेजी बोलने वाले छात्रों को ही ऐडमिशन मिलता था. सादुलपुर, राजस्थान का रहने वाला यह छात्र कोलकाता के चितपुर इलाके में किराए के घर में रहता था. यह छात्र फर्राटेदार तो क्या हलकीफुलकी अंगरेजी भी नहीं बोल पाता था, क्योंकि पिछले 8 वर्ष से वह श्री दौलतराम नोपानी नामक स्कूल में हिंदी माध्यम से पढ़ाई कर रहा था. इसीलिए सेंट जेवियर्स कालेज का प्रिंसिपल उसे प्रवेश देने से कतरा रहा था.

उस के बाकी फ्रेंड्स को तो अन्य कालेजों में प्रवेश मिल चुका था, लेकिन उस पर तो सेंट जेवियर्स कालेज में दाखिला लेने की धुन सवार थी. प्रिंसिपल के दरवाजे पर दस्तक देने का यह क्रम अगले कई दिनों तक चलता रहा. आखिरकार प्रिंसिपल ने अन्य अध्यापकों से सलाहमशवरा किया और फिर बेमन से ही सही, उसे ऐडिमिशन दे दिया. उन्हें यकीन था कि यह लड़का परेशान हो कर खुद ही कालेज छोड़ देगा.

वह लड़का बेहद शर्मीला और अंतर्मुखी था. उसे अन्य छात्रों के साथ घुलनेमिलने में काफी दिक्कतें आईं. अंगरेजी ठीक से न बोल पाने के कारण एक समय वह हीनभावना से घिर गया था, लेकिन उस ने हार नहीं मानी. परीक्षा में जब उस ने अकाउंट्स और गणित में शतप्रतिशत अंकों के साथ प्रथम स्थान प्राप्त किया तो वही प्रिंसिपल, जो उस को ले कर शुरू में आशंकित थे, उस के मुरीद हो गए. और तो और, ग्रैजुएशन के तुरंत बाद उन्होंने उस लड़के को सेंट जेवियर्स कालेज में लैक्चरर की नौकरी देने का प्रस्ताव भी उस के सामने रखा लेकिन उस ने प्रस्ताव ठुकरा दिया. वह अपने पिता के कारोबार में उन का हाथ बंटाने लगा. साथ ही वह पढ़ाई भी करता रहा. वह दिन में काम करता और शाम को कोलकाता विश्वविद्यालय में फाइनैंस और मार्केटिंग की पढ़ाई करता. आज वही छात्र लक्ष्मी निवास मित्तल के नाम  से दुनियाभर में मशहूर है. जी हां, लंदन में रहने वाले पद्मविभूषण से सम्मानित लक्ष्मी निवास मित्तल दुनिया की सब से बड़ी इस्पात और खनन कंपनी आर्सेलर मित्तल के मालिक हैं और दुनिया के सब से धनी लोगों में गिने जाते हैं. उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और आज उसी हिम्मत के बलबूते पर इतनी ऊंचाई तक पहुंचे हैं.

जगमोहन मुंद्रा

नोपानी विद्यालय में मित्तल से 2 साल सीनियर थे जगमोहन मुंद्रा. एक पारंपरिक राजस्थानी परिवार में पलेबड़े मुंद्रा ने 9वीं तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम से की थी. वे अंगरेजी बोलने वालों से जितना खौफ खाते थे, उतना ही उन का आदर भी करते थे. उस समय उन्हें देख कर कोई नहीं कह सकता था कि यह शख्स आगे चल कर हिंदी के साथसाथ हौलीवुड में कई अंगरेजी फिल्मों का लेखन और निर्देशन भी करेगा. 2011 में 63 वर्ष की आयु में अपने जीवन के अंत तक वे फिल्मी दुनिया में काफी सक्रिय थे. मुंद्रा ने एक बार कहा था, ‘‘मैं हमेशा बड़े सपने देखा करता था. मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मेरी शुरुआती शिक्षा हिंदी में होने की वजह से उन सपनों को वास्तविकता में बदलने की मेरी क्षमता किसी भी प्रकार से प्रभावित हुई हो.’’

मुंद्रा का यह विश्वास तब और पुख्ता हुआ जब उन्होंने प्रतिस्पर्धा का सामना कर आईआईटी मुंबई जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान में प्रवेश पाया. उन्होंने एक भेंटवार्त्ता में कहा था, ‘‘मेरे विभाग में अलगअलग राज्यों से आए छात्र थे. उन में से एक छात्र बिहार से था जिस की अंगरेजी के नाम पर घिग्गी बंध जाती थी, लेकिन परीक्षा में उस ने अपनी प्रतिभा का ऐसा जौहर दिखाया कि अच्छे से अच्छे लोग भी उस का लोहा मान गए. आईआईटी के उन दिनों ने विनम्रता का एक बहुत अहम सबक मुझे सिखाया.’’

मुंद्रा ने आगे चल कर अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय से एमएस की डिग्री ली और बाद में डौक्टरेट प्राप्त किया. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में 1 साल अध्यापन करने के बाद वे 1979 में पूरी तरह फिल्म निर्माण से जुड़ गए.

सुष्मिता सेन

9वीं कक्षा तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम से करने वाली सुष्मिता सेन का नाम देश की सफल हस्तियों में शुमार है. सुष्मिता सेन ने 1994 में केवल 18 साल की उम्र में मिस यूनिवर्स का खिताब जीता था. स्पर्धा के निर्णायक प्रश्नोत्तर राउंड में उन्होंने अंगरेजी में मार्मिक जवाब दे कर निर्णायकों को स्तब्ध कर दिया. उन्हें मिस यूनिवर्स चुन लिया गया, जबकि 16 साल की उम्र तक  उन का अंगरेजी से दूरदूर तक कोई संबंध नहीं था, लेकिन फिर भी उन्होंने सफलता हासिल की. वे बताती हैं कि जब उन्हें अंगरेजी में बहुत खराब अंक मिले तो उन्होंने अपनी अंगरेजी भाषा पर कमांड अच्छी करने का मन बना लिया. यह काम काफी कठिनाइयों से भरा था और अपना आत्मविश्वास बनाए रखना बेहद जरूरी था. इसलिए अंगरेजी सीखने में सुष्मिता ने दिनरात एक कर दिया. उस मेहनत का नतीजा आज दुनिया के सामने है. सुष्मिता न केवल पत्रकारिता में डिग्री हासिल कर चुकी हैं बल्कि वे अंगरेजी में कविताएं भी लिखती हैं.

उदय प्रकाश अरोड़ा

उत्तर प्रदेश के बस्ती, मुरादाबाद तथा सीतापुर के हिंदी माध्यम स्कूलों में पढ़े उदय प्रकाश अरोड़ा आज ग्रीको भारतीय इतिहास के शीर्ष विद्वानों में जाने जाते हैं. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और स्नाकोत्तर डिग्रियां प्राप्त कीं और कई किताबें लिखीं, जिन का संदर्भ ग्रंथों (रेफरेंस बुक्स)  के तौर पर आज भी व्यापक उपयोग हो रहा है.

अशोक वाजपेयी

प्रसिद्ध कवि तथा समीक्षक अशोक वाजपेयी ने हिंदी माध्यम से पढ़ाई कर के न सिर्फ साहित्य की दुनिया में बड़ा नाम कमाया, बल्कि एक सफल आईएएस अधिकारी के अपने 26 वर्ष के कार्यकाल में कई नामचीन साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थानों की नींव भी रखी. हिंदी में शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद सागर, मध्य प्रदेश में पलेपढ़े अशोक वाजपेयी ने काफी परिश्रम से अंगरेजी भी सीखी. वे बताते हैं कि उन का विश्व साहित्य से परिचय अंगरेजी अनुवादों के माध्यम से ही हुआ. इसी कारण वे सदा अंगरेजी के ऋणी रहेंगे. वाजपेयी ने आगे चल कर दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफन कालेज से एमए किया और कुछ साल अध्यापन भी किया. उन के शब्दों में, ‘‘मैं अंगरेजी नहीं बोल पाता था लेकिन मैं ने रेनू मारिया रिल्का और कई अन्य प्रमुख कवियों को अनुवादों के जरिए पढ़ा था.’’

अंगरेजी का अपना लहजा ठीक करने के लिए भी उन्होंने काफी मेहनत की. वे कभी विदेश में नहीं पढ़े. पहली बार भारत से बाहर ही 32 वर्ष की आयु में गए, लेकिन उन के अंगरेजी उच्चारण में कैंब्रिज अंगरेजी का पुट झलकता है.

सत्य नारायण बंसल

जयपुर से 80 किलोमीटर दूर एक गांव में जन्मे और हिंदी में शिक्षा प्राप्त करने वाले सत्य नारायण बंसल आज बार्कलेज वैल्थ मैनेजमैंट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) हैं. उन के गांव के स्कूल की इमारत नहीं थी. वहां 5वीं तक की ही शिक्षा उपलब्ध थी. अगली कक्षाओं की पढ़ाई के लिए दूसरे गांव पैदल जाना पड़ता था. शिक्षक अकसर गायब रहते थे, इसलिए विद्यार्थियों को खुद ही पढ़ाई करनी पड़ती थी. जीवन का सब से बड़ा सपना यही होता था कि किसी बैंक में क्लर्क की नौकरी मिल जाए, पर सत्य नारायण बंसल अपने सपनों को बंधक बनाने वालों में से नहीं थे. बहुत जद्दोजेहद के बाद उन्होंने सीए की पढ़ाई पूरी की और बैंकिंग के क्षेत्र में कैरियर बनाया. वे कहते हैं, ‘‘चुनौती से बेहतर शिक्षा हो ही नहीं सकती.’’

पवन कुमार गोयनका

महिंद्रा ऐंड महिंद्रा के कार्यकारी निदेशक डा. पवन कुमार गोयनका ने भी चुनौतियों को अवसरों में बदलने में एक मिसाल कायम की है. मध्य प्रदेश के एक मध्यवर्गीय राजस्थानी परिवार में जन्मे गोयनका की स्कूली शिक्षा कोलकाता के एक हिंदी माध्यम विद्यालय में हुई. वे अंगरेजी में बेहद कमजोर थे लेकिन वह उन की प्रगति को बाधित नहीं कर सकी. उन्होंने आईआईटी कानपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में गैजुएशन करने के पश्चात अमेरिका के कौर्नेल विश्वविद्यालय से मास्टर्स और डौक्टरेट की डिग्री अर्जित की और डेट्रौइट में जनरल मोटर्स से अपना कैरियर आरंभ किया. वे बताते हैं कि आरंभ में उन की अंगरेजी इतनी खराब थी कि जनरल मोटर्स को उन्हें 14 हफ्ते की संवाद कौशल प्रशिक्षण की ट्रैनिंग के लिए भेजना पड़ा था. 1993 में वे महिंद्रा ऐंड महिंद्रा से जुड़े और सफलता के शिखर पर पहुंचे.

जगदीप डांगी

मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के एक छोटे से गांव में रहने वाले जगदीप डांगी की कहानी भी कम प्रेरणाप्रद नहीं है. हिंदी में शिक्षा प्राप्त करने वाले डांगी को हिंदी ब्राउजर विकसित करने का श्रेय जाता है. काफी कम उम्र में पोलियो ने उन का एक पांव और एक आंख लील ली थी. किंतु अपनी शारीरिक कमजोरी को उन्होंने अपने संकल्प की राह में नहीं आने दिया. एक अत्यंत साधारण किसान परिवार से आने वाले डांगी ने अथक परिश्रम से कंप्यूटर साइंस में ग्रैजुएशन की और अगले 4 साल भाषा सेतु नामक प्रकल्प के जरिए अंगरेजी जानने वालों के लिए इंटरनैट की चमत्कारी दुनिया के दरवाजे खोलने की कोशिश में दिनरात एक कर दिया. हिंदी ब्राउजर के साथसाथ शब्दकोश व अनुवादक जैसे सौफ्टवेयर भी तैयार किए. वे कहते हैं, ‘‘मैं ने जब कालेज जाना शुरू किया, तो मुझे न तो प्राध्यापकों की बताई चीजें समझ आती थीं, न ही मैं अपने सहपाठियों से बात कर सकता था. यहीं से मेरे जेहन में हिंदी सौफ्टवेयर की कल्पना जागी. मैं ने देखा कि अधिकांश लोगों की समस्या प्रौद्योगिकी नहीं, बल्कि उसे उन की पहुंच से दूर ले जाने वाली भाषा है. मैं ने किताबें और पत्रिकाएं पढ़ीं और इंटरनैट की मदद से प्रोग्रामिंग लैंग्वेजेज का अध्ययन किया. प्रादेशिक भाषाओं में कंप्यूटिंग से ही इंटरनैट क्रांति को सर्व समावेशी बनाया जा सकता है.’’

आनंद कुमार

पटना निवासी आनंद कुमार की कहानी विख्यात है. कुमार के साधारण परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे उन्हें महंगे स्कूलों में पढ़ा पाते. कुमार ने एक हिंदी माध्यम स्कूल में पढ़ाई की. बाद में उन के भीतर गणित की ऐसी दिलचस्पी जागी कि वे अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं और जर्नलों में लेख और शोधपत्र भेजने लगे. आगे उन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय से एक कोर्स के लिए सम्मति प्राप्त हुई, लेकिन एक बार फिर घरेलू दिक्कतों के कारण वे उस अवसर से वंचित रह गए. तब उन्होंने रामानुज स्कूल औफ मैथेमैटिक्स की शुरुआत की, उन गरीब लेकिन गुणी विद्यार्थियों के लिए जिन के पंख हालात ने काट दिए थे. अबुल कलाम आजाद शिक्षा पुरस्कार के विजेता आनंद कुमार पिछले एक दशक से भी अधिक समय से हर साल 30 विद्यार्थियों को आईआईटी प्रवेश परीक्षाओं के लिए प्रशिक्षण और इस तरह अपना भविष्य बनाने, संवारने का मौका देते आ रहे हैं.

कहानी टौपर्स की

जुलाई, 2015 में घोषित चार्टर्ड अकाउंटैंसी की परीक्षा के परिणामों में 75.75त्न अंकों के साथ पूरे देश के 42,847 परीक्षार्थियों में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाली दिल्ली की 25 वर्षीय शैली चौधरी भी हिंदी माध्यम स्कूल से ही पढ़ी हैं. दिसंबर, 2013 में आयोजित कंपनी सैक्रेटरी परीक्षा में अपने पहले प्रयास में ही न केवल उत्तीर्ण होने वाली, बल्कि पूरे देश में प्रथम आने वाली अंबिकापुर, छत्तीसगढ़ निवासी श्रुति गोयल भी बारियों ग्राम की एक हिंदी माध्यम स्कूल की ही उपज हैं.

महेशलता, दक्षिण चौबीस परगना के एक पटसन कामगार के बेटे जफर अली ने कोलकाता के खिद्दरपोर के हिंदी माध्यम स्कूल से पढ़ाई की, न केवल हाजरा लौ कालेज से कानून में ग्रैजुएशन कर सफलतापूर्वक पूरी की बल्कि 2014 की न्यायिक सेवा परीक्षा में पश्चिम बंगाल में 45वां स्थान भी प्राप्त किया.

आज के इस युग में भाषा एक साधन भी है और एक शस्त्र भी. सफलता के ऐसे उदाहरणों को देख कर कहना होगा कि हमारी विकास यात्रा में भाषा कोई बेड़ी नहीं, मात्र एक सहज पड़ाव है.                                             

रियो ओलिंपिक: खोखलेपन पर इतराता देश

सिंधु, साक्षी, दीपा, पदक के भूखे भारत को ये 3 खिलाड़ी मिल गई हैं, लेकिन इन के त्याग, समर्पण और दमखम का अंदाजा न तो भारत की सरकार व जनता को है और न ही कौरपोरेट घरानों को. हम सब की समझ खेलों को ले कर उथली है. तभी तो सब शोभा न देने वाले बयानों के साक्षी बनते हैं या तो कड़ी आलोचना करते हैं या फिर मक्खी की तरह उन की कामयाबी पर भिनभिनाने लगते हैं.

बेशक इन तीनों के साथसाथ ललिता बाबर, जोकि 3 हजार मीटर बाधा दौड़ फाइनलिस्ट है, ने भी कमाल किया है, लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि हम खेलों के लिहाज से बेहद खराब चरित्र वाले देश से हैं. आज जो ब्रैंड जीतने वाले पर सबकुछ निछावर कर रहे हैं, उन्हीं ने एक साल पहले सिंधु का मजाक उड़ाया था. ओलिंपिक ऐथलीट ओ पी जैशा को 42 किलोमीटर की मैराथन के दौरान देश की तरफ से पानी तक मुहैया नहीं कराया गया. नतीजतन, वह रेस पूरी होते ही बेहोश हो गई और इधर, पटियाला में हैंडबौल की नैशनल प्लेयर पूजा को इसलिए खुदकुशी करनी पड़ी, क्योंकि माली तंगी के चलते उसे होस्टल की सहूलत नहीं मिल पाई.

पटियाला में नैशनल लैवल की हैंडबौल खिलाड़ी पूजा की खुदकुशी सरकार और समाज के लिए बेहद शर्म की बात है. इस से यह भी साफ हो जाता है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाला देश रियो ओलिंपिक में एक स्वर्ण पदक भी क्यों नहीं जीत पाया. एक कांस्य और एक रजत पदक पर ही देश इतरा रहा है. जिस देश में नैशनल लैवल के एक खिलाड़ी को होस्टल की फीस नहीं भर पाने की वजह से खुदकुशी करनी पड़े वह देश ओलिंपिक जैसे विश्वस्तरीय मुकाबले में सम्मानजनक जगह कैसे हासिल कर सकता है?

बीए सैकंड ईयर की छात्रा और हैंडबौल खिलाड़ी पूजा को महज 3,720 रुपए जमा नहीं करवा पाने के कारण कोच ने होस्टल में कमरा देने से मना कर दिया. इस से पूजा इतनी हताशनिराश हुई कि उस ने खुदकुशी का रास्ता चुन लिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम खून से लिखा खत भी छोड़ गई.

हालांकि खुदकुशी करना किसी भी समस्या का हल नहीं है. कहा भी गया है कि जान है, तो जहान है. इस के बावजूद पूजा ने जो कदम उठाया, उस ने सरकार और समाज को कठघरे में खड़ा कर दिया है. इस से साफ है कि ओलिंपिक में रजत और कांस्य पदक जीतने वाली महिला खिलाडि़यों पर करोड़ों रुपयों की बौछार करने वाली सरकारें खिलाडि़यों की आगे बढ़ने में मदद नहीं करतीं. खेल संघ और स्कूलकालेज भी खिलाडि़यों की मदद करने के बजाय उन्हें निराश करते ही नजर आते हैं और फिर सरकार में बैठे नुमाइंदे कहते फिरते हैं कि अभिभावक अपने बच्चों को खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित नहीं करते, जबकि सच तो यह है कि सरकार और खेल संघ जब तक खेल प्रतिभाओं को संभालने और संवारने की जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब तक उन का मनोबल नहीं बढ़ने वाला.

गौरतलब है कि भारत एक भावुकजज्बाती देश है, लेकिन लोगों की शुभकामनाओं के बलबूते पदक जीते जाते तो भारत ओलिंपिक में काफी आगे होता. लिहाजा, आज जो लोग, संगठन और सरकारें सिंधु, साक्षी और दीपा कर्माकर पर इनामों की बारिश कर रही हैं, उन्हें यह उदारता खेलों के लिए माहौल बनाने और उस की सही तैयारी में दिखानी चाहिए थी.

ओलिंपिक और भारत को ले कर फौरी बयानबाजी से आगे की बात करें तो ओलिंपिक में भारत के पिछड़ने की वजह भी साफ समझ में आ जाती है. आज हमारे प्रधानमंत्री देश के बाहर घूमघूम कर भले ही यह बात कहते हैं कि भारत आज जिस गति से तरक्की कर रहा है, उस से पूरी दुनिया की निगाहें हमारी तरफ हैं. लेकिन खेलों में हम पिछड़ रहे हैं.

खेल में क्यों पिछड़ा भारत

इंटरनैशनल इकोनौमिक सर्वे एजेंसियों से ले कर कई वैश्विक संगठन भारत को इस उम्मीद के साथ देख रहे हैं कि माली नजरिए से यहां की जमीन काफी उपजाऊ है, लेकिन ओलिंपिक जैसे गौरवशाली इवैंट में हमारे खिलाडि़यों के प्रदर्शन ने हमारी साख और हैसियत की कलई खोल दी है, जिस में एक भी स्वर्ण नहीं है, जबकि इस बार 119 खिलाडि़यों का बड़ा दल ओलिंपिक के लिए रवाना हुआ था. पदक तालिका में 67वें स्थान पर टिकी हमारी हैसियत देश में खेलों को ले कर कई विरोधाभासी तथ्यों की ओर इशारा करती है.

पिछले दिनों चीन की एक सरकारी वैबसाइट में तार्किक तौर पर इस सत्यापन के लिए खबर छपी थी कि भारत ओलिंपिक में फिसड्डी है. वैबसाइट के मुताबिक, पिछले 3 ओलिंपिक एथेंस-2004, बीजिंग-2008 व लंदन-2012 को देखें तो भारत ने अपनी आबादी के लिहाज से जितने मैडल जीते हैं, उस हिसाब से वह देशों की प्रदर्शन सूची में आखिरी नंबर पर आता है.

इस की वजह टटोलते हुए वैबसाइट ने कर्नाटक और राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में किए गए एक सर्वे का हवाला दिया है. ग्रामीणों से पिछले एक दशक में सुनी सब से अच्छी नौकरी के बारे में पूछा गया. इस पर जो जवाब आए, उन में सौफ्टवेयर इंजीनियर, आर्किटैक्चर, डाक्टर और वकीलों का तो जिक्र था, लेकिन खेलों को ले कर कोई जिक्र नहीं था. इस की एक जाहिर वजह क्रिकेट तो है ही, लेकिन दूसरी और भी कई वजहें हैं.

हम चीनी वैबसाइट का हवाला न भी लें तो यह बात तो साफ है कि हमारे यहां खेलों को तरजीह न के बराबर दी जाती है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की स्थायी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन महज 3 पैसे खेलों पर खर्च हो रहे हैं, जबकि बात करें ओलिंपिक में लगातार अपने को अव्वल साबित कर रहे अमेरिका की तो उस ने औसतन 74 करोड़ रुपए खर्च किए हैं अपने ऐथलीटों को रियो में पदक जिताने लायक बनाने में. भारत के पड़ोसी और हर लिहाज से प्रतियोगी चीन में खर्च का यह आंकड़ा 47 करोड़ रहा है.

जाहिर है कि बगैर तैयारी और खिलाडि़यों की तंदुरुस्ती व प्रैक्टिस पर माली निवेश के ओलिंपिक में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद बेमानी है, बहुत पीछे न भी जाएं तो बीते ढाई दशक के उदारीकरण में इस देश में आईटी से ले कर रीयल इस्टेट तक वर्टिकल ग्रोथ की भले ही कई चमकदार कहानियां दोहराई जाती रही हैं, लेकिन इस ने खेलों और युवाओं के स्वाभाविक साझे को तो बुरी तरह तहसनहस कर ही दिया है.

भूले नहीं हैं लोग कि इसी देश में स्कूलों में फुटबौल, कबड्डी, वौलीबौल से ले कर दौड़, कुश्ती और तैराकी के कई खेल नियमित गतिविधियों का हिस्सा थे. ये कुछ निजी स्कूलों में होता हो, ऐसा भी नहीं था. असल में सार्वजनिक निकायों की तरह सरकारी स्कूलों की बदहाली ने भी सबकुछ चौपट कर के रख दिया है. इस की जगह जिस सनक और ललक ने ली है, उस ने युवा प्रतिभा को सैक्स, सक्सैस और सैंसैक्स के तिघेरे में बांध कर रख लिया है.

आज भारत भले ही दुनिया का सब से युवा देश है, लेकिन ये तथ्य ओलिंपिक जैसे इवैंट में अपना कोई दमखम नहीं दिखा पाए तो यह सरकार व समाज के लिए वाकई बड़ी चिंता का कारण होना चाहिए.

आज जो लोग टीवी चैनलों से ले कर सोशल मीडिया तक रियो ओलिंपिक में भारत को पिछली बार से भी गिरने की बातें करने में लगे हैं, उन से यह पूछा जाना चाहिए कि ओलिंपिक में भारत को सब से ज्यादा सम्मान दिलाने वाले मेजर ध्यानचंद को यदि आज तक भारत रत्न के लायक नहीं समझा गया तो इस का बुरा कितने लोगों को लगा.

साल 1928 से ले कर 2016 तक भारत ने अब तक कुल 28 पदक ओलिंपिक में जीते हैं, जिन में 11 पदक अकेले हौकी के बूते आए हैं.

मतलब, जिस खेल के बूते पूरे विश्व के सब से बड़े खेल आयोजन में हम सब से ज्यादा कामयाब रहे हैं, वह आज की तारीख में देश का सब से लोकप्रिय खेल नहीं बन सका है. हौकी महासंघ अपनी गुटबाजी साधने में लगा है, तो हौकी खिलाड़ी अपने कैरियर को भाग्य भरोसे मान रहे हैं. यही हाल दूसरे खेलों व संघों का है. उन से जुड़े खिलाड़ी और ऐथलीट भी लगन और उत्साह से भरपूर तो हैं, लेकिन उन के अभ्यास, संसाधन और प्रशिक्षण के लिए ऐसा कोई पुख्ता बंदोबस्त नहीं है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय क्या मामूली स्तर पर भी हम संतोषजनक कह सकें.

नूराकुश्ती में चित हुआ देश

नैशनल डोपिंग एजेंसी यानी नाडा और नरसिंह यादव व सुशील कुमार की नूराकुश्ती के चलते कुश्ती में पदक जीतने का सपना चारों खाने चित हो गया. जिन 2 पहलवानों सुशील कुमार और नरसिंह यादव पर देश अब तक लगातार नाज करता आ रहा था, डोपिंग मामले के बाद दुनियाभर में हमारी हालत बेहद विवादित और शर्मनाक हुई है.

पिछले साल सितंबर माह में विश्व सीनियर कुश्ती चैंपियनशिप में सुशील कुमार ने किनारा किया, नरसिंह प्रवीण राणा पर भारी पड़ा और इस चैंपियनशिप में नरसिंह कांस्य पदक जीत कर ओलिंपिक कोटा हासिल करने वाला पहलवान बन गया. उस समय कुश्ती महासंघ के आला अधिकारियों ने ओलिंपिक प्रतियोगिता को यह कह कर दबा दिया कि देश ने सिर्फ 74 किलोग्राम भार वर्ग में कोटा हासिल किया है. ओलिंपिक में कौन जाएगा यह कुश्ती फैडरेशन तय करेगी.

इस दौरान सुशील कुमार भी अभ्यास में जुटे रहे और नरसिंह यादव भी. मई में विवाद तब बढ़ा जब कुश्ती फैडरेशन ने अपनी पुरानी परंपराओं का हवाला देते हुए नरसिंह के ही ओलिंपिक में जाने का ऐलान कर दिया, लेकिन यह फैसला सुशील कुमार को पसंद नहीं आया और मामला हाईकोर्ट तक जा पहुंचा.

तालीमी लैवल पर फेल खेल और खिलाड़ी

ओलिंपिक में हमारी जो दुर्गति हुई है या अब तक होती आई है, वह मौजूदा हालात में तो जारी ही रहेगी. हमारे देश में खेलखिलाडि़यों के लिए कोई बड़ी योजनाएं नहीं हैं. पदक विजेता खिलाड़ी तैयार करने में कम से कम 10 से 12 साल लगते हैं. वह खिलाड़ी किनकिन हालातों से गुजरता है, उस पर कोई गौर नहीं करता. हमारे देश का जो ऐजुकेशन सिस्टम है, उस में भी कोई नहीं झांकता. वहां महज किताबी रेस होती है, जबकि खेलों के प्रति गंभीरता स्कूल स्तर से ही पैदा होती है, क्योंकि ऐथलीट, जिमनास्ट या तैराक आदि बचपन से ही तैयार करने होते हैं.

तालीम केंद्रों को युवाशक्ति का असीम स्रोत ऐसे ही नहीं कहा जाता. इस का ताजा नमूना पेश किया है रियो ओलिंपिक में सब से ज्यादा तमगों पर कब्जा जमाने वाले अमेरिका यूनिवर्सिटीज ने. अमेरिका के 500 से ज्यादा खिलाडि़यों की टीम में से ज्यादातर किसी न किसी यूनिवर्सिटी से ताल्लुक रखते हैं. अमेरिका की यूनिवर्सिटी औफ जार्जिया से 11 खिलाड़ी रियो ओलिंपिक का हिस्सा बने. रियो ओलिंपिक में सब से ज्यादा दबदबा रहा यूनिवर्सिटी औफ कैलिफोर्निया का. इस के विभिन्न कैंपसों से कुल 44 छात्रों ने ओलिंपिक में हिस्सा लिया. इस के अलावा पेंसिलवेनिया से 13, औरेगन से 12 व यूनिवर्सिटी औफ वाशिंगटन से 11 खिलाडि़यों ने ओलिंपिक में हिस्सा ले कर अपने खेल का जौहर दिखाया.

वहीं हमारे खिलाड़ी कालेजयूनिवर्सिटीज में तैयार होने के बजाय खेल एसोसिएशन और फैडरेशन से जूझते रहते हैं. वहां भी खेल से ज्यादा खेल पर राजनीति हावी है. हौकी का ही हाल देख लें, कभी इस में हमारा परचम लहराता था, आज पिछड़े हुए हैं. सही कदम की कमी और नीतिगत खामियों से हमारे खेलखिलाड़ी पैंदे में हैं. शुरुआत स्कूली स्तर से हो तभी नतीजों में सुधार हो सकता है.

नेपाल: अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए

नेपाल में पिछले एक दशक से भी अधिक वक्त से जिस तरह की राजनीतिक अराजकता रही, उसका सार्वजनिक खर्च पर काफी बुरा असर पड़ा है. शांति प्रक्रिया शुरू होने के बाद कई सरकारें तो जबर्दस्त सियासी उठापटक के कारण वक्त पर बजट तक पेश नहीं कर सकीं. फिर विभिन्न मंत्रालयों में राजनीतिक मतभेद रहा और स्थानीय स्तर पर भी काफी असहमतियां रहीं. सत्ता में तेजी से बदलाव के कारण भी सरकार की प्राथमिकताओं में स्थिरता नहीं रही.

कुल मिलाकर, आलम यह रहा कि एक के बाद दूसरी सरकारें बजट में आवंटित रकम को प्रभावी तरीके से खर्च करने में नाकाम रहीं. इस तरह, ज्यादातर रकम यूं ही रह गई. इस साल हालात कुछ बेहतर हुए हैं. इस साल सालाना बजट तय वक्त से लगभग डेढ़ महीने पहले ही घोषित हो गया था. इसने यह पता चला कि देश की बड़़ी पार्टियों की मिल-जुलकर काम करने की क्षमता पहले से सुधरी है.

जिस समय बजट को जारी किया गया था, उससे यह उम्मीद जगी थी कि बजट राशि वक्त पर और प्रभावी तरीके से खर्च होगी. लेकिन दुर्योग से यह न हो सका. पुरानी आदत और नौकरशाही की काहिली अब भी दूर नहीं हुई है, इस कारण आवंटित राशि को खर्च करने में रुकावट बनी हुई है. मौजूदा वित्त वर्ष को शुरू हुए लगभग तीन महीने होने को आ गए, मगर सरकार कुल बजट का 0.9 फीसदी राशि ही खर्च कर सकी है. यही रफ्तार रही, तो वित्त मंत्रालय के लिए पहले चार महीने में पूंजीगत बजट की 32 प्रतिशत राशि खर्च करने का लक्ष्य हासिल करना असंभव हो जाएगा.

यह स्थिति नेपाल की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ नहीं है. देश की पनबिजली, सिंचाई परियोजनाओं, हवाई अड्डों व सड़कों के निर्माण में निवेश निजी क्षेत्र को आकर्षित करने और रोजगार पैदा करने के लिहाज से काफी महत्व रखता है. इसके अलावा, वित्त वर्ष के शुरुआती महीनों में पूंजीगत व्यय में कमी न सिर्फ आर्थिक कुप्रबंधन के जोखिम पैदा करता है, बल्कि बाद के महीनों में इसकी वजह से भ्रष्टाचार की आशंकाएं भी बढ़ जाती हैं. इसलिए सरकार सार्वजनिक खर्च के स्तर को सही बनाने के लिए तुरंत तमाम जरूरी कदम उठाए.

 

पाक को पछाड़ भारत बना टेस्ट टीम नंबर 1

कोलकाता में खेले गए दूसरे टेस्‍ट में न्‍यूजीलैंड को हराकर टीम इंडिया फिर टेस्‍ट रैंकिंग में शीर्ष पर काबिज हो गई है. कोलकाता में मिली यह शानदार जीत बेहद खास है. प्रबल प्रतिद्वंद्वी पाकिस्‍तान को पीछे छोड़ते हुए विराट की ब्रिगेड ने यह उपलब्धि हासिल की है.

सीरीज के अंतर्गत कानपुर में हुए पहले टेस्‍ट में भी टीम इंडिया ने जीत हासिल की थी. दूसरे मैच में जीत के बाद टीम इंडिया तीन टेस्‍ट की सीरीज में 2-0 से आगे हो गई है.

गौरतलब है कि इंग्‍लैंड के खिलाफ टेस्‍ट सीरीज में अपने बेहतर प्रदर्शन के बाद पाकिस्‍तान ने टीम इंडिया को बारीक अंतर से पीछे छोड़कर शीर्ष रैंकिंग हासिल की थी.

कानपुर में अपने 500वें टेस्ट मैच में जीत के बाद भारत, पाकिस्तान से आईसीसी टेस्ट गदा हासिल करने से केवल एक जीत दूर था. इस उपलब्धि को उसने कोलकाता में मिली जीत से हासिल कर लिया.

न्यूजीलैंड के खिलाफ तीन टेस्ट मैचों की सीरीज शुरू होने के वक्‍त भारत अपने धुरविरोधी से केवल एक अंक पीछे था. टीम इंडिया के लिहाज से बात करें तो घरेलू मैदान पर इसे अभी तक पिछले 13 मैचों में हार का सामना नहीं करना पड़ा है, उसने इनमें से 11 में जीत दर्ज की हैं और दो ड्रॉ खेले हैं. भारतीय टीम ने इस सफर की शुरुआत दिसंबर 2012 में इंग्लैंड के खिलाफ सीरीज में 1-2 से हार के बाद की थी.

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