Download App

जिंदगी के बाद भी दलितों पर होता जुल्म

‘दलित भाइयों पर अत्याचार मत करो. अगर गोली मारनी है, तो उन्हें नहीं मुझे मारो…’ जैसी जज्बाती और किताबी अपील प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद के एक जलसे में की थी. उस का उलटा असर यह हुआ कि देशभर में दलित अत्याचारों की बाढ़ सी आ गई. दलितों पर कहर ढाने के लिए दबंग धर्म के नाम पर तरहतरह के नएनए तरीके ईजाद करते रहते हैं. गौरक्षा इन में से एक है. लेकिन मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में तो दबंगों ने सारी हदें पार करते हुए ऐसा नजारा पेश किया था कि इनसानियत भी कहीं हो तो वह भी शर्मसार हो उठे.

लाश को भी नहीं बख्शा

ताजा मामला मुरैना जिले की अंबाह तहसील के गांव पाराशर की गढ़ी का है. 10 अगस्त, 2016 को इस गांव में एक दलित बाशिंदे बबलू की 25 साला बीवी पूजा की मौत हुई थी.

अपनी जवान बीवी की बेवक्त मौत का सदमा झेल रहा बबलू उस वक्त सकते में आ गया, जब दबंगों ने पूजा की लाश को श्मशान घाट में नहीं जलाने दिया. इस पर बबलू हैरान रह गया और दबंगों के सामने गिड़गिड़ाता रहा कि वह लाश को कहां ले जा कर जलाए, पर दबंगों का दिल नहीं पसीजा. उन्होंने बबलू को डांटफटकार कर भगा दिया कि जो करना है सो कर लो, पर एक दलित औरत की लाश श्मशान घाट में जलाने की इजाजत हम नहीं दे सकते.

मौत के कुछ घंटे बीत जाने के बाद घर में पड़ी लाश भी भार लगने लगती है, इसलिए बबलू की हालत अजीब थी कि बीवी की लाश का क्या करे. पाराशर की गढ़ी गांव में एक नहीं, बल्कि 3-3 श्मशान घाट हैं, पर तीनों पर रसूखदारों का कब्जा है, जिन में कोई दलित अंतिम संस्कार नहीं कर सकता. बबलू को बुजुर्गों ने मशवरा यह दिया कि बेहतर होगा कि पूजा की लाश को किसी खेत में जला दो. इस पर बबलू फिर गांव वालों के पास गया और बीवी की मिट्टी ठिकाने लगाने के लिए सभी जमीन वालों से 2 गज जमीन मांगी, पर किसी को उस पर तरस नहीं आया. जब इस भागादौड़ी में पूरे 24 घंटे गुजर गए और लाश गलने लगी, तो बबलू घबरा उठा और थकहार कर बुझे मन से उस ने पूजा की लाश का दाह संस्कार अपने घर के सामने बनी कच्ची सड़क पर किया. यह वही हिंदू धर्म है, जिस में किसी शवयात्रा के निकलते वक्त लोग सिर झुका कर किनारे हो जाते हैं और मरने वाले की अर्थी की तरफ देख कर हाथ जोड़ते हैं. लेकिन अगर शवयात्रा किसी दलित की हो, तो नफरत से मुंह फेर लेते हैं. गांवों में यह नजारा आम है, जिस के तहत मरने के बाद भी दलितों से ऊंची जाति वालों की नफरत खत्म नहीं होती, उलटे उन्हें तंग करने के लिए श्मशान में भी जगह नहीं दी जाती.

इस हकीकत पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कहा था कि अब गांव में एक घाट एक श्मशान होगा, दलितों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा. अकेले ग्वालियरचंबल इलाके की नहीं, बल्कि देशभर के गांवों की यही हालत है कि दलितों के घर कोई मौत हो, तो उन्हें लाश बड़ी जाति वालों की तरह श्मशान में जलाने की सहूलियत नहीं है. इस का मतलब तो यह हुआ कि धर्म मानता है कि आत्मा भी दलित होती है और किसी ऊंची जाति वाले की आत्मा को दलित की आत्मा छू गई, तो वह भी अपवित्र हो जाएगी. लेकिन हकीकत तो यह है कि इस तरह की ज्यादतियां दलितों को दबाए रखने के लिए जानबूझ कर की जाती हैं, जिस से वे दबंगों के सामने सिर नहीं उठा पाएं.

पाराशर की गढ़ी गांव की तरह दलितों को अपने वालों की लाश अपनी ही जमीन पर जलानी पड़ती है, लेकिन दिक्कत बबलू जैसे 95 फीसदी दलितों की होती है, जिन के पास अपनी जमीन नहीं होती. लिहाजा, वे लाश को किसी जंगल में या गांव के बाहर सरकारी जमीन पर जलाने के लिए मजबूर होते हैं.

कब्जा करने की मंशा

पाराशर की गढ़ी गांव के तीनों श्मशानों में केवल ऊंची जाति वालों की लाशें जलती हैं, पर हैरानी की बात यह है कि श्मशान की जमीनों पर दबंगों का कब्जा है और वे शान से इन जमीनों पर खेती करते हैं. उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है. पूजा की लाश को जगह न देने पर जब ज्यादा होहल्ला मचा, तो आला अफसर भागेभागे पाराशर की गढ़ी गांव गए और हालात का जायजा लिया. मुरैना के कलक्टर विनोद शर्मा और एसपी विनीत खन्ना ने फौरीतौर पर श्मशान घाट की जमीनों पर फैसिंग करवा दी, जो तय है कि जो कुछ दिनों या महीनों में हट जाएगी और दबंग फिर से इस सरकारी जमीन पर काबिज हो जाएंगे. मंदिर बना कर जमीनें हड़पना आम बात है. इसी तर्ज पर अब श्मशानों की जमीनों पर भी ऊंची जाति वाले कब्जा करने लगे हैं. जिस तरह मंदिरों में पूजापाठ के लिए दलितों को दाखिल नहीं होने दिया जाता, ठीक उसी तरह श्मशानों में भी उन्हें जलाने की इजाजत नहीं है.

पाराशर की गढ़ी गांव में तहकीकात करने गए अफसर कुरसियों पर बैठे दलित बबलू की दास्तां सुनते रहे और बबलू समेत और दलित नीचे जमीन पर बैठे रिरियाते रहे. प्रशासन ने बात सुनी, लेकिन किसी दोषी दबंग के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की. यह बात इस रिवाज को शह देने वाली नहीं तो क्या है? ऐसा ही एक मामला इसी साल अप्रैल के महीने में नरसिंहपुर जिले की करेली तहसील में सामने आया था. वंदेसुर गांव के एक गरीब बुजुर्ग की मौत के बाद उस के घर वाले लाश को जलाने श्मशान घाट ले गए, तो दबंगों ने उन्हें लाश समेत वहां से भगा दिया था. इस पर मरने वाले के भांजे गोपाल मेहरा ने हल्ला मचाया, तो गाडरवारा के तहसीलदार संजय नागवंशी गांव पहुंचे और मामले की जांच कर यह बयान दिया कि कायदेकानूनों के तहत कुसूरवारों पर कार्यवाही की जाएगी. दरअसल, वंदेसुर गांव की श्मशान घाट की 3 एकड़ जमीन पर दबंगों भानुप्रताप राजपूत और छत्रसाल राजपूत का कब्जा है. इस मामले में भी मरे बुजुर्ग का अंतिम संस्कार तालाब किनारे सड़क पर किया गया था. इन उजागर हुए मामलों से जाहिर सिर्फ इतना भर होता है कि जीतेजी तो दलित दबंगों का कहर झेलते ही हैं, पर मरने के बाद भी उन्हें बख्शा नहीं जाता.

गांव में पंचायती राज कहने भर की बात है, नहीं तो असल राज दबंगों का चलता है, जो श्मशान तक की जमीनें हथिया लेते हैं और दलितों की लाश को नहीं जलाने देते. समस्या श्मशान घाटों की कमी की नहीं, बल्कि छुआछूत और दबंगई की है, जिस के तहत ऊंची जाति वाले श्मशान तक में छुआछूत मानते हैं. वे अगर दलितों को श्मशान में लाश जलाने की इजाजत दे देंगे, तो जमीनों पर बेजा कब्जा नहीं कर पाएंगे. ज्यादातर दलितों के पास जमीनें नहीं हैं, इसलिए लाशों को ठिकाने लगाने के लिए वे यहांवहां भटकते रहते हैं. हालत यह है कि कुएं और नदी ऊंची जाति वालों के कब्जे में हैं, सड़कें उन के लिए हैं, मंदिर उन के लिए हैं और श्मशान घाट भी उन्हीं के हैं. ऐसे में भाईचारे और बराबरी की बात मजाक ही लगती है.

भारत की ओलिंपिक स्टार: साक्षी और सिंधु

पदक को लक्ष्य बना कर दिनरात मेहनत में जुट कर, मोबाइल और नैट से दूरी बना कर व अपना पसंदीदा भोजन तक त्याग कर जहां सिंधु ने ओलिंपिक में रजत पदक का सफर तय किया वहीं पुरुष प्रधान मानसिकता की खिलाफत झेलने के बावजूद कुश्ती में कांस्य पदक जीत कर देश का नाम ऊंचा करने वाली साक्षी मलिक ने दिखा दिया है कि कड़ी मेहनत और खेलों के प्रति जुनून से ही मंजिल पाई जा सकती है. आज दोनों हमारे किशोरों व युवाओं के लिए आदर्श बन गई हैं.

बचपन से ही दूसरों से अलग थी सिंधु

जिस उम्र में आमतौर पर बच्चियां रस्सीकूद, सांपसीढ़ी और दूसरे खेलों में व्यस्त रहती हैं, उस उम्र में सिंधु खिलाड़ी बनने का सपना देखने लगी थी. खेल तो उस के खून में रचाबसा था, क्योंकि उस के पिता पी वी रमन्ना और मां पी विजया राष्ट्रीय स्तर के वौलीबौल खिलाड़ी थे. खेल कौशल की बदौलत वे देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार, अर्जुन अवार्ड से सम्मानित हो चुके थे.

घर में रखे अर्जुन पुरस्कार की ट्रौफी से सिंधु को गहरा लगाव था. दिन में जब भी मौका मिलता वह उसे कपड़े से साफ करना न भूलती. इस ट्रौफी ने सिंधु के लिए प्रेरणा का काम किया और उस ने फैसला कर लिया कि वह खेलों की दुनिया को बतौर कैरियर अपनाएगी.

रमन्नाविजया जिन की खेलों के कारण लवमैरिज हुई थी, बेटी की जिद के आगे झुक गए. उन्होंने सोचा कि एकदो साल में पढ़ाई के साथ खेलों को ज्यादा समय देने में सिंधु का सारा भूत उतर जाएगा, लेकिन हुआ उलटा, वह दोनों में अव्वल रहने लगी. अब मातापिता के पास कुछ कहने का मौका नहीं था. बेटी ने आगे बढ़ने की जिद की तो उन्होंने घर से 56 किलोमीटर दूर गोपीचंद बैडमिंटन अकादमी में उस का दाखिला करा दिया. तब सिंधु महज 8 वर्ष की थी.

स्कूल और अकादमी के रोजाना लंबे सफर से सिंधु जरा भी परेशान नहीं हुई. कड़ी मेहनत, खेल के प्रति समर्पण, समय पर ट्रेनिंग में आने से उस ने कोच गोपीचंद का भी दिल जीत लिया. बेसिक ट्रेनिंग के बाद उस ने प्रतियोगिताओं में उतरने की बात गोपी को बताई तो उसे मूक सहमति मिल गई. 10 साल की उम्र में अपने पहले टूरनामैंट, अखिल भारतीय रैंकिंग टूरनामैंट में उतरी और युगल वर्ग का स्वर्ण पदक जीत लिया. यह एक छोटी शुरुआत थी. इस के बाद उस ने कई टूरनामैंट जीते.

अपने 13वें वसंत में पहुंचने के साथ सिंधु पूरी तरह से परिपक्व हो चुकी थी. पांडिचेरी में राष्ट्रीय सबजूनियर चैंपियनशिप में वह चैंपियन बनी. इस के बाद पुणे में अखिल भारतीय रैंकिंग टूरनामैंट में फिर खिताब झोली में डाला. स्कूल के नैशनल खेलों (अंडर 19) में सिंधु बड़ी पहचान बना चुकी थी. सिंधु अब अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में उतरने का मन बना चुकी थी. उसे जल्दी ही 2009 में अपना जलवा दिखाने का मौका मिल गया. कोलंबो में आयोजित सबजूनियर एशियाई चैंपियनशिप उस के लिए एक बड़ा मंच था, क्योंकि चीनी खिलाडि़यों से दोदो हाथ करने का इस से बेहतर मौका कहां मिलने वाला था.

सिंधु ने अपने कैरियर के इस अंतर्राष्ट्रीय सफर में निराश नहीं किया और कांस्य पदक हथिया लिया. इस के बाद जूनियर विश्व चैंपियनशिप में वह क्वार्टर फाइनल में पहुंची. इसी प्रदर्शन की बदौलत सिंधु को उबेर कप में भाग लेने वाली भारतीय टीम की सदस्य बनने का मौका मिला.

वर्ष 2012 हैदराबाद की इस बाला के लिए नई सौगात ले कर आया. अपने शानदार प्रदर्शन से उस ने अंतर्राष्ट्रीय जगत में बड़ी पहचान बनाई. अहम बात यह रही कि सिंधु 17 साल की उम्र में शीर्ष 20 खिलाडि़यों में जगह बनाने में सफल रही. इस के बाद उसे भारत की जूनियर साइना नेहवाल कहा जाने लगा. उस ने एशिया यूथ अंडर-19 का खिताब जीता.

इस के बाद सिंधु ने दो बार विश्वचैंपियनशिप में कांस्य पदक जीत कर इतिहास रच दिया. इस दौरान सिंधु ने लंदन ओलिंपिक की चीनी खिलाड़ी को जमीन चटाई. चीन के दूसरे खिलाडि़यों को भी परास्त किया. इस प्रदर्शन की बदौलत सिंधु पद्मश्री जैसे बड़े सम्मान से सम्मानित हुई. उस समय चोट के कारण सिंधु को कुछ समय कोर्ट से बाहर भी रहना पड़ा, लेकिन 2015 में उस ने शानदार वापसी की.

मकाउ ओपन और मलयेशिया मास्टर्स खिताब ने उस का ऐसा आत्मविश्वास बढ़ाया कि पहले रियो ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई किया और फिर ऐसा इतिहास रच दिया जो अब तक कोई भी भारतीय महिला खिलाड़ी नहीं रच पाई है. लंदन में साइना ने कांस्य पदक जीता था, लेकिन सिंधु ने 4 साल बाद एक कदम आगे बढ़ते हुए रजत पदक जीता. स्पेन की कैरोलीना मारिन के खिलाफ खेला गया फाइनल जिस अंदाज में खेला गया था, उस से सिंधु का कद और बढ़ गया है. इस प्रदर्शन की बदौलत भारत सरकार ने 21 साल की इस बाला को राजीव गांधी खेल रत्न से नवाजा है.

पी वी सिंधु का विजयी अंतर्राष्ट्रीय सफरनामा

2011 – इंडोनेशिया इंटरनैशनल.

2013 – मलयेशिया मास्टर्स.

2013 – मकाउ ओपन.

2014 – मकाउ ओपन.

2015 – मकाउ ओपन.

2016 – मलयेशिया मास्टर्स.

पुरस्कार

अर्जुन अवार्ड, पद्मश्री, राजीव गांधी खेल रत्न.

पी वी सिंधु के खेल की मुख्य विशेषता उस का विरोधी के खिलाफ आक्रामक रवैया है. उस के यहां तक के सफर में उस के मातापिता की अहम भूमिका रही है. उन्होंने बड़ी कुरबानी दी है. इस पदक से हमारे युवाओं को प्रेरणा मिलेगी.

– गोपीचंद (कोच)

साक्षी की जिद के आगे हारा समाज

पीवी सिंधु की तरह साक्षी मलिक भी बचपन से ही कुछ अलग करने का सपना देखा करती थी. बेहद चुलबुली, नटखट, शरारती साक्षी जल्दी ही गंभीर बन गई. जिस राज्य में अभी भी लड़कियों के प्रति लोगों की मानसिकता न बदली हो, ऐसे राज्य से प्रधान खेल कुश्ती को अपनाने में साक्षी को कितना जूझना पड़ा होगा यह बताने की जरूरत नहीं. 10 साल की उम्र में कुश्ती को बतौर कैरियर अपनाने की जिद कर बैठी साक्षी के मातापिता, नातेरिश्तेदार और गांव वाले हैरान थे. इसलिए खूब विरोध हुआ.

जाट बिरादरी के इस परिवार में साक्षी के पक्ष में एक अकेला शख्स उस के साथ खड़ा था. वह थे उस के अपने दादा राम. राम खुद अपने जमाने में पहलवानी किया करते थे, इसलिए उन की खुद की इच्छा थी कि उन के परिवार से कोई कुश्ती से जुड़े. उन्होंने खुद ही शुरूशुरू में घर पर ही साक्षी को बेसिक ट्रेनिंग देनी शुरू की. जब उन्हें लगा कि अब उन का काम समाप्त हो गया है, तो 12 साल की अपनी पोती को गांव मोखरा से रोहतक के छोटू राम स्टेडियम के अखाडे़ ले आए.

वहां ईश्वर दहिया कुश्ती कोच थे. वहां सब से बड़ी दिक्कत यह थी कि लड़कियां नहीं थीं. फिर भी कोच ने साहसिक कदम उठाते हुए साक्षी को दांवपेंच सिखाने शुरू किए. स्थानीय लोगों ने काफी विरोध किया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.

रोहतक में प्रशिक्षण के साथ साक्षी ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, क्योंकि घर वालों ने इसी शर्त पर उसे कुश्ती की इजाजत दी थी. साक्षी के पिता डीटीसी में बस कंडैक्टर थे और मां आंगनवाड़ी वर्कर थीं. इसलिए वे ज्यादा समय नहीं निकाल पाते थे. धीरेधीरे साक्षी का आत्मविश्वास बढ़ता गया. वह खुद ही बाहर टूरनामैंट में जाने लगी. राज्य स्तर के टूरनामैंट में उतरने के बाद उसे नैशनल चैंपियनशिप में खेलने का मौका मिल गया. इस के बाद वह नैशनल कैंप के लिए चुनी गई, जहां उसे अपनी प्रतिभा को निखारने का सुनहरा मौका मिला.

लड़कियों का नैशनल कैंप ज्यादातर उत्तर प्रदेश में लगता था, इसलिए अपने प्रदेश हरियाणा को छोड़ कर साक्षी वहां चली आई. घर से लगातार दूरियां बढ़ती चली गईं, लेकिन उस में कुछ करने का जुनून था, इसलिए वारत्योहार, नातेरिश्तेदारी, शादीब्याह का मोह पूरी तरह से छोड़ दिया और कड़ी मेहनत में जुट गई.

साक्षी की मेहनत जल्दी ही रंग लाई. वह देश की अच्छी महिला पहलवानों में गिनी जाने लगी. इसलिए उस के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में जाने के दरवाजे खुल गए. उसे 2010 की जूनियर विश्व कुश्ती चैपियनशिप में उतरने का मौका मिल गया. वह 58 किलो वर्ग में उतरी और उस ने किसी को निराश नहीं किया व कांस्य पदक ले कर लौटी. वर्ष 2014 में डेव शुल्ज अंतर्राष्ट्रीय चैंपियनशिप के स्वर्ण पदक ने साक्षी के इरादे और मजबूत कर दिए.

ग्लास्को राष्ट्रमंडल (2014) खेलों में उस ने अपने को श्रेष्ठ साबित किया. भले ही ताशकंद विश्व चैंपियनशिप में उस का सफर क्वार्टर फाइनल में समाप्त हो गया, लेकिन एशिया चैंपियनशिप (2015) जो कतर में हुई थी में कांस्य पदक (60 किलोवर्ग में) जीतने में सफल रही. यह सारा अनुभव रियो ओलिंपिक क्वालिफाई टूरनामैंट में काम आया. वह क्वालिफाई करने में सफल हुई.

रियो ओलिंपिक में देश के लिए पहला कांस्य पदक जीत कर साक्षी ने इतिहास रच दिया है. इस ऐतिहासिक सफलता के बाद साक्षी राजीव गांधी खेल रत्न सम्मान पाने की सूची में शामिल हो गई है. रेलवे में कार्यरत हरियाणा की यह लाडो जल्दी ही दुलहन बनने जा रही है, लेकिन कुछ और साल कुश्ती को देना चाहती है. कुल मिला कर साक्षी की सफलता ने यह संदेश दिया है कि अगर कोई युवा सीमित साधन रहते बेहतर करने की ठान ले तो अपनी मंजिल को छू सकता है.                

साक्षी के स्वर्ण पदक

2011-स्वर्ण, जूनियर नैशनल.

2011-स्वर्ण, जूनियर एशिया.

2012-स्वर्ण, जूनियर नैशनल.

2012-स्वर्ण, जूनियर एशिया.

2013-स्वर्ण, सीनियर नैशनल.

2014-स्वर्ण, देन सतलज.

2014-स्वर्ण, औल इंडिया

औरतें खुद को कम न आंकें: कनिका कपूर

मशहूर गीत ‘चिट्टियां कलाइयां…’ और ‘बेबी डौल…’ गाने वाली खूबसूरत गायिका कनिका कपूर की जिंदगी काफी उतारचढ़ाव से गुजर चुकी है. वे 18 साल की उम्र में अपने म्यूजिक के शौक को छोड़ कर शादी कर के पति के साथ लंदन चली गई थीं, पर 3 बच्चों की मां बनने के बाद यह शादी नहीं टिकी और फिर कनिका को अपने बचपन के शौक को ही आमदनी का जरीया बनाते हुए वापस बौलीवुड का रुख करना पड़ा. पेश हैं, कनिका कपूर से हुई बातचीत के खास अंश :

लखनऊ से लंदन और फिर लंदन से बौलीवुड में आ कर म्यूजिक में कैरियर बनाना. अपने इस सफर को आप किस रूप में देखती हैं?

इस सफर को ले कर जब मैं सोचती हूं, तो खुशी कम दुख ज्यादा होता है. लखनऊ के साधारण परिवार की लड़की, जिस की 18 साल की उम्र में शादी हो जाती है. वह लंदन जाती है, जहां वह एक साधारण पारिवारिक जिंदगी जीती है. 3 बच्चों की मां बनती है. उसे लगता है कि उस की जिंदगी कामयाब हो गई.

सबकुछ सही चल रहा होता है कि अचानक उस की जिंदगी में भूचाल आ जाता है. उसे पति से अलग होना पड़ता है. तब रोजमर्रा के खर्च उस के सामने कई सवाल खड़े करते हैं. वह अपने बचपन के म्यूजिक के शौक को आमदनी का जरीया बनाने का फैसला लेती है.

कुछ समय बाद पति से तलाक हो जाता है और उस का म्यूजिक का कैरियर शुरू हो जाता है. ‘बेबी डौल…’ गाने के हिट होने के बाद से मुझे पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी.

मेरे पति ही मेरे साथ धोखाधड़ी कर रहे थे. मुझे बेइज्जत कर रहे थे. मैं ने अपनी शादी की 10वीं सालगिरह पर उन से तोहफे के तौर पर कहा कि मुझे डायमंड नहीं चाहिए, मुझे अपना एक गाना रेकौर्ड करना है. उन्होंने हां कह दिया. मैं ने एक संगीतकार को पकड़ा और काम शुरू किया.

इसी बीच पता चला कि मेरे पति एक पाकिस्तानी और वह भी शादीशुदा औरत के साथ समय बिताते हैं.  एक दिन वह औरत मेरे सामने आई और उस ने मुझ से कहा कि हिम्मत है, तो अपने पति को मुझ से दूर ले जाओ. मैं ने उस औरत के पति से भी बात की, पर बात नहीं बनी. इस के बाद मेरे और मेरे पति राज के बीच हर दिन झगड़े होने लगे. मेरा स्टूडियो जाना बंद हो गया.

फिर एक दिन मेरे एक दोस्त ने मुझे सलाह दी कि सूफी गीत ‘जुगनी जी…’ का रीमिक्स गाया जाए. मैं ने वह किया और उसे यूट्यूब पर डाल दिया.

यूट्यूब पर इस गाने के आ जाने के बाद मेरे कैरेक्टर पर हमला बोला गया. अफवाह फैलाई गई कि मैं अपने अंकल की उम्र के शख्स के साथ डेटिंग कर रही हूं. सोशल मीडिया के मेरे दोस्तों ने मुझ से कन्नी काट ली.

मैं ने उस वक्त बहुतकुछ सीखा. मेरे पति ने मेरे सामने तलाक का प्रस्ताव रख दिया. मजबूरन मुझे तलाक स्वीकार करना पड़ा. उस के बाद एकता कपूर ने ‘बेबी डौल…’ गाने के लिए बुलाया और एक नई राह बन गई.

आप की शादी के बाद की शुरुआती जिंदगी तो अच्छी रही होगी?

जी हां, शादी के चंद साल ही अच्छे गुजरे थे. हम लंदन के सैंट्रल पार्क में बहुत बड़े घर में रहते थे. हमारे पास धन, शोहरत सबकुछ था. मेरी जिंदगी में यह सबकुछ इतनी जल्दी मिला था कि मैं कुछ समय तक अपने पति की ज्यादती सहती रही. उन्होंने मान लिया था कि मुझे ये सारी सुविधाएं दे कर सताने का हक पा लिया है. मगर तलाक से पहले के 2 साल में मैं ने बहुतकुछ सीखा और उस ने मेरी जिंदगी बदल कर रख दी.

आज मैं शादी के बाद वाली कनिका नहीं हूं. अब मैं लंदन में एक छोटे से मकान में अपने एक बेटे व 2 बेटियों के साथ रहती हूं.

आप ने कम उम्र में ही म्यूजिक को अपना कैरियर बनाने का फैसला क्यों ले लिया था?

देखिए, उस वक्त म्यूजिक मेरा शौक था, पेशा नहीं बना था. शादी के बाद अपनी वैवाहिक जिंदगी को खुशहाल बनाए रखने के लिए और परिवार वालों की इच्छा की इज्जत करते हुए म्यूजिक छोड़ दिया था. मुझे इस में कुछ गलत भी नहीं लगा था. हर लड़की को शादी के बाद वही काम करना चाहिए, जो उस की ससुराल वालों को पसंद हो.

एक समय तक म्यूजिक के अलबमों की खूब बिक्री होती थी, पर अब तो म्यूजिक बिकता ही नहीं है? क्यों?

इस की 2 वजहें हैं. पहली बात तो यह कि अब म्यूजिक के क्षेत्र में तमाम लोग आ गए हैं. गायक और संगीतकारों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ी है, जिस का असर म्यूजिक पर पड़ना लाजिमी है. दूसरी बात यह है कि अब म्यूजिक भी डिजिटल हो गया है, जिस के चलते गायक अपने सिंगल गाने ही इंटरनैट वगैरह पर रिलीज कर रहे हैं. आखिर दर्शक क्याक्या सुनेगा और क्याक्या देखेगा?

आजकल जो औरतें अपनी जिंदगी में काफी उतारचढ़ाव से गुजर रही हैं, उन्हें कोई संदेश देना चाहेंगी?

औरतें खुद को कम न आंकें. लोगों की दकियानूसी बातों को नजरअंदाज कर अपने मुकाम की ओर बढ़ते रहना चाहिए. हमारे देश में एक औरत के हर कदम पर लोग बहुत जल्दी फैसला सुनाने लगते हैं, पर वह उस औरत की लगन और मेहनत की ओर नहीं देखते.

पहले आप मौडलिंग भी करती थीं. अब मौडलिंग कर रही हैं या नहीं?

मैं ने पहले ही कहा है कि मैं आमदनी के लिए इस ढंग के भी कुछ काम कर लिया करती थी, पर अब सारा ध्यान म्यूजिक पर है. मैं ने ज्यादातर मौडलिंग रैंप शो में की है और वह भी गायिका के तौर पर.

प्राइवेट म्यूजिक अलबम को ले कर कोई योजना है?

मैं एक प्राइवेट म्यूजिक अलबम की तैयारी कर रही हूं, जिस में डांस को ध्यान में रख कर गीत होंगे. कुछ सूफी गीत भी होंगे.

आप सिंगल मदर हैं. आप के बच्चे लंदन में रहते हैं और आप मुंबई में. ये सब कैसे मैनेज करती हैं?

मेरे माता पिता व भाई की मदद से सबकुछ मुमकिन हो पा रहा है. अगर मुझे मेरे परिवार की मदद न मिलती, तो मैं यह सब न कर पाती.            

कंधों तथा बांहों में अकसर दर्द रहता है. कई बार उंगलियां भी सुन्न सी महसूस होती हैं. यह क्या हो सकता है.

सवाल

मेरी उम्र 55 वर्ष है. मुझे कंधों तथा बांहों में अकसर दर्द रहता है. साथ ही कई बार उंगलियां भी सुन्न सी महसूस होती हैं. यह क्या हो सकता है?

जवाब

इस की अपने डाक्टर से जांच करवाएं. ये कई चीजों के लक्षण हो सकते हैं, जिन में बहुत संभव है कि यह कई वर्षों से चला आ रहा सर्वाइकल डिस्क डिजैनरेशन का मामला हो. रीढ़ के जोड़ की 7 हड्डियां जैल जैसे पदार्थ से भरी डिस्क से अलग होती हैं. वक्त के साथ ये हड्डियां घिसने और कमजोर पड़ने लगती हैं. इस से डिस्क के बीच दूरी कम हो जाती है और नसों पर चुभन भरा दबाव पड़ने लगता है जिस वजह से नसें कमजोर पड़ जाती हैं और दर्द तथा सुन्नता बढ़ने लगती है.

इस समस्या से 50 वर्ष से अधिक उम्र के लगभग 60% लोग प्रभावित हैं. इसे रक्तनलिकाओं की नसों पर दबाव (थोरेसिस आउटलेट सिंड्रोम) भी कहा जाता है यानी दर्द कंधे तक फैल जाता है. डाक्टर आप की पूर्ण जांच कराने के बाद इमेजिंग टैस्ट (एक्स रे या एमआरआई) कराने की सलाह देगा. इस का इलाज अमूमन ओटीसी दवाएं और फिजियोथेरैपी ही है. बहुत कम मामलों में सर्जरी की सलाह दी जाती है.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

मेरी उम्र 21 साल है. कमर के ऊपरी हिस्से में दर्द रहता है. मुझे तत्काल क्या करना चाहिए.

सवाल

मेरी उम्र 21 साल है. सेना में नौकरी करने के कारण मुझे कई सारी शारीरिक गतिविधियां करनी पड़ती हैं. कई बार गिर भी जाता हूं और कमर के ऊपरी हिस्से में दर्द होने लगता है. मुझे तत्काल क्या करना चाहिए?

जवाब

कमर के ऊपरी हिस्से में कई कारणों से दर्द होता है और लगातार बने रहने पर इस की जांच करानी चाहिए और फिर इलाज भी उसी के मुताबिक होना चाहिए. आप तत्काल वे काम करना छोड़ दें, क्योंकि इस से आप की इंजरी बढ़ सकती है. पहले 2-3 दिन इस पर बर्फ लगाएं.

आपात स्थिति के लिए हमेशा फ्रिज में आइस बैग रखें. ऐसा उन परिवारों को भी करना चाहिए जिन के बच्चे खेलते हैं. अधिक सूजन से बचने के लिए कंप्रैशन के तौर पर एक इलास्टिक सपोर्ट बैल्ट लगाएं. पीठ दर्द की स्थिति में ऐलिवेशन संभव न भी हो लेकिन नीचे लेट जाएं और कोशिश करें कि इंजरी की तरफ से बचते हुए सब से आरामदेह स्थिति में लेटें. दर्द यदि 5 दिन से अधिक समय तक रहता है तो डाक्टर से मिलें.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

दीपिका को अब केवल अफवाहों का सहारा

एक बार किसी ने कहा था कि अफवाहों के बल पर अभिनय करियर की नैय्या पार नहीं की जा सकती. मगर बेचारी दीपिका पादुकोण को तो महज अफवाहों का ही सहारा है. पर अफसोस की बात यह है कि दीपिका पादुकोण अपने प्रचारक या अपने बिजनेस मैनेजर अथवा अपने किसी शुभचिंतक की सलाह पर जो भी अफवाह रूपी गुब्बारा उड़ाती हैं, उसकी हवा दो दिन में ही निकल जाती है और उनका दांव हर बार खाली जाता है.

फिल्म ‘‘बजीराव मस्तानी’’ के बाद से दीपिका पादुकोण के करियर पर ग्रहण लगा हुआ है. दीपिका इस ग्रहण से छुटकारा पाने के लिए प्रयासरत हैं. आए दिन वह किसी न किसी तरह की खबर को फैला या अफवाह उड़ाकर खुद को मीडिया में सुर्खियों में रखने का असफल प्रयास करती जा रही हैं. अफसोस यही है कि उनकी सारी खबरे या अफवाहें ज्यादा समय तक टिक नही पाती. इतना ही नहीं इस तरह खुद को सुर्खियों में बनाए रखने के बावजूद उन्हे फिल्म भी नहीं मिल पा रही है.

अभी दो दिन पहले कुछ अंग्रेजी अखबारों में खबर छपी थी कि दीपिका पादुकोण अब फिल्म निर्देशक श्रीराम राघवन के निर्देशन में हर्षवर्धन कपूर के साथ एक रोमांचक फिल्म करने जा रही हैं. मगर दो दिन में ही इस खबर की भी पोल खुल गयी.

जब ‘‘सरिता’’ पत्रिका ने इस खबर को लेकर फिल्म निर्देशक श्रीराम राघवन से संपर्क करने की कोशिश की, तो पता चला कि उन्होंने इस खबर के संदर्भ में मीडिया से दूरी बना रखी है. मगर उनके अति नजदीकी सूत्रों ने दावा किया कि श्रीराम राघवन ने हर्षवर्धन कपूर से जरूर अपनी आगामी रोमांचक फिल्म को लेकर बात की है और हर्षवर्धन कपूर ने इस फिल्म को ‘भावेष जोशी’’ की शूटिंग खत्म करने के बाद करने की बात कही है. मगर श्रीराम राघवन और दीपिका पादुकोण के बीच किसी फिल्म को लेकर कोई चर्चा भी हुई है, इसकी पुष्टि करने को कोई तैयार नहीं है.

सलमान के साथ क्यों काम करना चाहती हैं ऐश्वर्या

जब से ऐश्वर्या राय बच्चन ने कुछ शर्तों के साथ सलमान खान के साथ फिल्म करने की मंशा जाहिर की है, तब से बौलीवुड में लोग आश्चर्यचकित हैं. हर किसी को पता है कि सलमान खान और ऐश्वर्या राय के बीच क्या रिश्ते रहे हैं और इस रिश्ते में किस तरह की कड़वाहट आयी थी. इसी के चलते अभिषेक बच्चन के साथ शादी करने के बाद  ऐश्वर्या राय बच्चन ने सलमान खान के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखा. लेकिन एक बहुत पुरानी कहावत है ‘मजबूरी में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है.’ ऐश्वर्या राय बच्चन के अति नजदीकी सूत्रों की माने तो ऐश्वर्या राय बच्चन भी इसी कहावत के अनुसार काम कर रही हैं.

वास्तव में अभिषेक बच्चन के साथ विवाह करने के बाद से ऐश्वर्या राय बच्चन का करियर निरंतर पतन की ओर ही अग्रसर रहा. इतना ही नहीं उनके पति अभिषेक बच्चन का करियर भी ठीक से आगे नहीं बढ़ पाया. एक बेटी आराध्या की मां बनने के पांच साल बाद ऐश्वर्या राय ने अपने करियर की नई शुरुआत फिल्म ‘‘जज्बा’’ के साथ की. इस फिल्म में वह सहनिर्माता भी थी. उन्हे उम्मीद थी कि इस फिल्म से उनके करियर को गति मिल जाएगी. लेकिन इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर पानी भी नहीं मांगा.

इसके बाद प्रदर्शित फिल्म ‘‘सरबजीत’’ की कमजोर कड़ी ऐश्वर्या राय बच्चन साबित हुई. परिणामतः उनके करियर पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लग गया. अभिनय करियर के गडमड होते ही उनके हाथ से इंडोर्समेंट निकलने शुरू हो गए. उधर उनके पति अभिषेक बच्चन भी बिना काम के घर पर बैठे हुए हैं.

अब ऐश्वर्या राय के सामने समस्या थी कि वह किसी तरह अपने अभिनय करियर को पटरी पर लाएं. यही सोचकर ऐश्वर्या राय बच्चन ने करण जोहर के निर्देशन में मल्टीस्टार फिल्म ‘‘ऐ दिल है मुश्किल’’ कर ली. और उन्होंने इस फिल्म में कई बोल्ड व किसिंग सीन दे डाले. सूत्रों का दावा है कि इन दृश्यों के बाहर आने के साथ ही अब ऐश्वर्या राय बच्चन को अपने घर के अंदर ही अमिताभ बच्चन की नाराजगी झेलनी पड़ रही है. हालात ऐसे हो गए हैं कि अब ऐश्वर्या राय बच्चन को मजबूरन फिल्म ‘‘ऐ दिल है मुश्किल’’ को प्रमोट करने से दूरी बनाने का निर्णय लेना पड़ा.

तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी अभिनेता फवाद खान की वजह से ‘ऐ दिल है मुश्किल’ का प्रदर्शन अधर में लटक गया है. इस फिल्म के बाद कहने के लिए तो ऐश्वर्या राय बच्चन ने प्रहलाद कक्कड़ की फिल्म ‘‘हैप्पी एनीवर्सरी की है. जिसकी शूटिंग खत्म हो चुकी है. इसमें उनके साथ उनके पति अभिषेक बच्चन व सुष्मिता सेन हैं. यह फिल्म 2016 में ही प्रदर्शित होने वाली थी, पर फिलहाल इस फिल्म का भविष्य भी पता नहीं. वैसे फिल्म ‘‘हैप्पी एनीवर्सरी’’ के निर्माता गौरंग दोषी की दूसरी फिल्म ‘‘आंखे 2’’ अमिताभ बच्चन कर रहे हैं.

इस तरह से ऐश्वर्या राय बच्चन के पास इन दिनों एक भी फिल्म नहीं है. उनके पास खुद को खबरों में बनाए रखने के लिए भी कुछ नहीं है. जबकि बौलीवुड जैसे शो बिजनेस में कलाकार का हमेशा सुर्खियों में रहना जरूरी माना जाता है. इतना ही नहीं वह कई इंडोर्समेंट खो चुकी हैं. ऐसे में अपने आपको सुर्खियों में बनाए रखने के लिए तथा नई फिल्म पाने के लिए कुछ तो शगूफा छोड़ना ही पड़ेगा. यही सोचकर ऐश्वर्या राय बच्चन ने सलमान खान के साथ फिल्म करने की इच्छा जाहिर करते हुए शर्त रख दी कि यदि अच्छा निर्देशक और अच्छी पटकथा होगी, तो वह सलमान खान के साथ काम करना चाहेंगी.

आज की तारीख में सलमान खान ही सफलतम अभिनेता हैं. इसलिए उनके नाम पर दांव लगाना ज्यादा बेहतर रहा. इससे वह एक बार खबरों में छा गयी. यदि कोई फिल्म मिल गयी, तो सोने पे सुहागा हो जाएगा. रहा सलमान खान के साथ फिल्म करने की, तो शर्त पूरी होनी चाहिए. अब शर्त ऐसी है जो कि कभी पूरी नहीं हो सकती..क्योंकि एक बेहतरीन व सफल निर्देशक हर कलाकार की  नजर में अच्छा हो, यह जरूरी नहीं. इसी तरह एक पटकथा हर कलाकार को पसंद आ जाए, यह जरूरी नही..बहरहाल, हमारी नजर इस बात पर टिकी हुई है कि ऐश्वर्या राय बच्चन ने जो तीर छोड़ा है, वह उनकी सोच के अनुरुप सही निशाने पर लगता है या नहीं.

तीसरे टेस्ट में करुण नायर लेंगे धवन की जगह

कर्नाटक के युवा बल्लेबाज करुण नायर को चोटिल शिखर धवन की जगह न्यूजीलैंड के खिलाफ आठ अक्टूबर से इंदौर में होने वाले तीसरे टेस्ट मैच के लिए भारतीय टीम में शामिल किया गया है.

नायर ने भारत के लिए दो वनडे इंटरनैशनल खेले हैं उन्हें कोलकाता में खेले गए दूसरे टेस्ट मैच में शिखर धवन के बाएं अंगूठे में फ्रैक्चर के कारण टीम में शामिल किया गया है.

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने इसकी पुष्टि की है. बीसीसीआई के सचिव अजय शिर्के ने एक बयान में कहा, 'अखिल भारतीय सीनियर चयन समिति ने चोटिल शिखर धवन की जगह करुण नायर को टीम में शामिल किया है. बाएं हाथ में फ्रैक्चर हो जाने के कारण वह न्यूजीलैंड के खिलाफ होने वाले तीसरे टेस्ट मैच में नहीं खेल पाएंगे.'

धवन को दूसरे टेस्ट मैच में ट्रेंट बोल्ट की गेंद पर चोट लग गई थी. भारत ने यह टेस्ट मैच 178 रनों से जीत सीरीज में 2-0 की बढ़त ले ली है.

अब फेसबुक पर बेच पाएंगे अपना पुराना सामान

सोशल मीडिया वेबसाइट Facebook ने एक नया आनलाइन ‘मार्केटप्लेस’ शुरू किया. इसकी मदद से फेसबुक यूजर्स आपस में खरीद-फरोख्त कर संकेंगे. इस नए फीचर से फेसबुक क्रेग्सलिस्ट जैसे स्थानीय आनलाइन बिक्री प्लेटफार्म के साथ प्रतिस्पर्धा में आ गया है. इसके साथ ही यह इबे जैसे मार्केटप्लेस के विकल्प की पेशकश करेगी.

फेसबुक ने एक पोस्ट में लिखा है कि इस नये फीचर की मदद से कंपनी उसे औपचारिक रूप दे रही है जो कि फेसबुक ग्रुप के जरिए लोग वर्षों से कर रहे हैं. कंपनी की प्राडक्ट मैनेजर केरी कू ने लिखा है,‘ यह गतिविधि फेसबुक ग्रुप में शुरू हुई और तेजी से बढ़ी. हर महीने 45 करोड़ से अधिक लोग खरीदोफरोख्त ग्रुपों में आते जाते हैं.’

फेसबुक ने कहा है कि कई सदस्य पहले ही फेसबुक समूह बनाकर ऐसा करते थे. अब फेसबुक ने इस नए प्रोग्राम के जरिये बेचने और खरीदने को औपचारिक तौर पर लॉन्च कर दिया है. प्रोडक्ट मैनेजर मैरी क्यू ने ब्लॉग पोस्ट में लिखा है, ‘आजकल फेसबुक में लोग कुछ अन्य तरीकों से एक दूसरे से जुड़ रहे हैं. वे एक दूसरे को सामान खरीद बेच रहे हैं.’

उन्होने बताया कि लगभग 45 करोड़ लोग हर महीने फेसबुक में अपना सामान खरीदते बेचते हैं. इस नए फीचर से लोगों को और मदद मिलेगी. इस नए फीचर में लोग अपनी लोकेशन, अपनी पसंद और बजट के हिसाब से सामान चुन पाएंगे.

व्हॉट्सएप्प में कैसे भेजें बड़ी फाइल?

व्हॉट्सएप्प पर आप फाइलों को आसानी से शेयर कर सकते हैं. ये फीचर 2016 में ही व्हॉट्सएप्प ने प्रोवाइड किया है, लेकिन अगर आपका ब्राउजर, वेब वर्जन को सपोर्ट नहीं कर रहा है, तो आपके सामने मुश्किल खड़ी हो सकती है.

इन 8 स्टेप्स की मदद से आप अपनी मुश्किल को आसान बना सकते हैं.

स्टेप 1: ड्रॉपबॉक्स एप्प को इंस्टॉल करें. अपना एकाउंट बनाएं और इसमें अपने करंट एकाउंट से लॉगइन करें.

स्टेप 2: अगला, अपनी एंड्रॉयड डिवाइस पर क्लाउडसेंड को इंस्टॉल करें और सुनिश्चित करें कि एप्प आपकी सभी फाइलों को एक्सेस करने की परमिशन दे रही है या नहीं.

स्टेप 3: ड्रॉपबॉक्स एप्प पर वापस लौटने के लिए, आपको सभी फाइल को एक्सेस करने के लिए क्लाउडसेंड के लिए ऑथराइजेशन प्रदान करने की आवश्यकता होती है. आप देखेंगे कि एप्प उसी नाम से दूसरे फोल्डर को क्रिएट कर देती है.

स्टेप 4: अब हम फाइलों को भेजने की प्रक्रिया शुरू करते हैं. अपने फाइल मैनेजर में, फाइल को ब्राउज करें कि आप फाइल भेजना चाहते हैं, जब तक कि आपको क्लाउडसेंड का ऑप्शन नहीं दिख जाता है.

स्टेप 5: क्लाउडसेंड को सेलेक्ट करने पर, सेलेक्टेड फाइल, ठीक उसी नाम के साथ ड्रॉपबॉक्स में फोल्डर के लिए अपलोडेड कर दी जाएगी.

स्टेप 6: क्लाउडसेंड एप्प, फाइल साइज के लिए कोई निश्चित प्रतिबंध नहीं लगाती है. यह यूजर्स को दो तरीके से शेयर करने के लिए अलॉउ करती है. या तो फाइल को सीधे शेयर किया जा सकता है या दिये गये लिंक से संदर्भित लिंक से शेयर किया जायें.

स्टेप 7: शेयर बटन पर क्लिक करते हुए, आपको शेयर करने के लिए कई विकल्प सामने दिखेंगे कि आपको कहां और किस प्लेटफॉर्म पर शेयर करना है.

स्टेप 8: अंत में, व्हॉट्सएप्प को सेलेक्ट करें और जिनको भी भेजना हो, उनके नाम पर टिक मारते जायें. सभी को फाइल सेंड हो जायेगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें