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एकादशियों की ऊलजलूल कथाएं बनाम लूट का साधन

पुरोहिताई पुस्तकों में एकादशी व्रत का बहुत महत्त्व बताया गया है. इस व्रत का पुण्य ट्रांसफरेबल है, जिस के बल पर पीढि़यों से नरक में पड़े हुए व्रती के पुरखे स्वर्ग पहुंच जाते हैं. मध्य व उत्तर भारत के गांवों में पुरोहित लोग प्रति एकादशी को भिक्षा लेने घरघर जाते हैं.

भाल पर तिलक लगाए और दोनों कंधों पर खोली (   झोली) लटकाए पंडितजी ‘आज ग्यारस हो गई भाई’ कहते हुए दालान या आंगन के चबूतरे पर बैठ जाते हैं. गृहिणी सब काम छोड़ कर थाली में आटादाल, नमकमिर्च आदि रख कर पंडितजी को देती हैं व पैर पड़ती हैं. पंडितजी दिया हुआ सामान खोली में भर कर दूसरे घर पहुंच जाते हैं. आजकल मोबाइल से बुकिंग भी होने लगी है.

एकादशी व्रत उद्यापन पूजा के लिए ब्राह्मण की औनलाइन बुकिंग कराई जा सकती है. इस की कीमत 6,000 रुपए से 10,000 रुपए तक है. बेंगलुरु में मिलने वाली यह सेवा फलफूल के साथ 8,300 रुपए एडवांस में देने पर मिलती है.

2 पंडित आते हैं, सारा सामान लाते हैं. दिल्ली में 11,000 रुपए में एक पंडित यह सेवा दे रहा है, सामग्री सहित 21,000 रुपए लेता है.

ग्यारस से कैसे पाप मुक्त

आप ने अकसर किसी पार्टी या पंगत में स्त्री व पुरुषों को कहते सुना होगा कि ‘आज मेरी ग्यारस है.’ इस का अर्थ यह हुआ आज मैं अन्न ग्रहण नहीं करूंगा.

इस व्रत को विधवाएं अधिक करती हैं. इस का कारण यह है कि मृतक (पति) के दशाकर्म (मृत्यु के 10 दिनों बाद) परिवार की ‘शुद्धि’ के नाम पर पंडित से कराई जाने वाली लूट की धार्मिक रस्म की पूजा के बाद चढ़ावे का सामान समेटते हुए विधवा से पंडितजी कहते हैं, ‘भगवान की इच्छा को कोई रोक नहीं सकता, अब बहन तुम को प्रत्येक ग्यारस का व्रत रखना है ताकि तुम्हारे पुण्य के प्रताप से पति की भटकती हुई आत्मा का उद्धार (स्वर्ग जाना) हो जाए.’

विधवा जानकार की भी यह कहानी ही है, दूसरों से कहने पर व्रत रख कर अपने पुण्य के बल (पुण्य ट्रांसफर कर) पर पति को स्वर्ग भेजेगी.

वर्ष में 12 माह (किसी वर्ष अधिक लौंद मास) होते हैं. प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष को मिला कर 24 ग्यारसें होती हैं. अधिक मास होने पर 26 होती हैं. अंधविश्वासी हिंदू सभी ग्यारसों का व्रत रखते हैं.

‘एकादशी व्रत कथा’ नामक पुस्तक में पंडितों ने 26 एकादशियों की कथाएं लिखी हैं और उन के अलगअलग नाम दिए हैं. अधिकांश कथाओं का महत्त्व कृष्ण (विष्णु भगवान) से कहलवाया है. कुछ कथाएं ब्रह्मा, नारद, अंगिरा व वशिष्ठ आदि ऋषिमुनियों से भी कहलवाई हैं. जब भगवान, ब्रह्मा और ऋषिमुनि कहेंगे तो विश्वास करना ही पड़ेगा.

प्रत्येक कथा में व्रत रखने के साथ व्रती को विष्णु भगवान (कृष्ण) की पूजा और रात्रि जागरण बताया है. इस व्रत के पुण्य से व्रती के पितरों का उद्धार होता है, सौभाग्य (स्त्रियों के लिए) धन संपत्ति, पुत्र की प्राप्ति होती है. सुखशांति और प्रत्येक काम में सफलता मिलती है. अंत समय में व्रती विष्णु भगवान के विमान या गरुड़ पर सवार हो कर स्वर्ग जाता है, जहां इंद्रादि देवता उस का स्वागत करते हैं.

लेकिन मृत्यु के समय विष्णु का विमान या गरुड़ तभी आएगा जब पुराहितों व ब्राह्मणों को दान देंगे व मालपुआ खिलाएंगे. हर एकादशी की कथा में ब्रह्मभोज कराने का उल्लेख है. समग्र रूप से व्रती घर, स्वर्ण आभूषण, चांदीपीतल के बरतन, हाल ही ब्याही हुई बछड़ा सहित कपिला गाय, पंडित व पंडितानी को कपड़े, शृंगार-सामान, सात प्रकार का अनाज, बिस्तर सहित शैया, दूधदही, घी, शहद, जूते आदि पंडितों को दान करे व शक्ति अनुसार दक्षिणा दे. पुरोहित व ब्राह्मणी की पूजा कर उन का चरणामृत (पैरों का धोवन) पान कर विदा करे.

अब पंडित लोग कैश ही चाहते हैं. सभी एकादशियों की कथा छोटे से लेख में न संभव है और न उचित. कुछ एकादशियों की कथा अति संक्षेप में प्रस्तुत है ताकि धर्मभीरु लोगों को मालूम हो कि धर्म के धंधेबाज बेसिरपैर की काल्पनिक कथाओं को गढ़ कर किस प्रकार उन को लूट रहे हैं. इसी धंधे को चलाने के लिए  हिंदूहिंदू के नारे लगवाए जाते हैं.

दैत्य आतंक व दुर्दशा

‘एकादशी महात्म्य’ पुस्तक में सब से पहले मार्ग (अगहन) माह कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा दी गई है. पंडितजी (पुस्तक लेखक) ने इस का नाम ‘उत्पन्ना’ दिया है. यह कथा भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सुनाई है. कथा इस प्रकार है-

सतयुग में नाड़ीजंग नामक एक दैत्यराज था. उस की राजधानी चंद्रवती नामक नगरी थी. नाड़ीजंग का पुत्र मुरे दैत्य बहुत प्रतापी था. कथा कहती है कि उस ने पूरे विश्व को जीत कर इंद्र आदि सब देवताओं को देवलोक से निकाल दिया. देवता अपनी रक्षा के लिए शिवजी के पास जाते हैं पर शिवजी उन को विष्णु के पास भेज देते हैं.

देवताओं ने विष्णु के पास जा कर मुरे दैत्य का आतंक और अपनी दुर्गति सुनाई. उन्होंने विष्णु से कहा कि वह (मुरे) इंद्र, अग्नि, यम, वरुण, चंद्र व सूर्य बन कर पूरी पृथ्वी को तपा रहा है. मेघ बन कर जल वर्षा रहा है. सो, आप उसे मार कर हमारी रक्षा कीजिए.

इंद्र व देवताओं की प्रार्थना पर विष्णु अपना सुदर्शन चक्र ले कर मुरे दैत्य को मारने के लिए चल देते हैं. मुरे दैत्य से लड़तेलड़ते विष्णु थक जाते हैं. अपनी थकावट दूर करने के लिए वे बद्रिका आश्रम की एक गुफा में विश्राम करते हैं. इधर, विष्णु से लड़ने के लिए मुरे दैत्य भी पहुंच जाता है. शयन करते हुए विष्णु के शरीर में से एक कन्या प्रगट होती है. वह मुरे से लड़ती है और उसे मार डालती है.

जब विष्णु जागे तो उन्होंने मुरे दैत्य को मरा पाया. वे सोच में पड़ गए कि इसे किस ने मारा. इतने में कन्या हाथ जोड़ कर कहती है, ‘हे भगवन, यह दैत्य आप को मारने को तैयार था, तब मैं ने आप के शरीर से उत्पन्न हो कर इस का वध कर दिया.’ तब विष्णु भगवान प्रसन्न हो कर उस से वर मांगने को कहते हैं. इस पर कन्या कहती है, ‘हे भगवन, मु   झे यह वर दीजिए कि जो मेरा व्रत करे उस के समस्त पाप नष्ट हो जाएं.’

कन्या के वर मांगने पर विष्णु बोले, ‘हे कन्या, तेरा नाम ‘एकादशी’ होगा. जो मनुष्य तेरा व्रत करेंगे उन के समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे और अंत में स्वर्ग जाएंगे.’ कथा के अनुसार, एकादशी को उत्पन्न कर विष्णु भगवान अंतर्धान हो गए.

इस कथा पर कई प्रश्न उठते हैं. देवता तो करामाती और पावरफुल हैं. वे विमानों में यात्रा करते हैं, अनेक रूप बदल लेते हैं और अदृश्य हो जाते हैं. फिर एक अदना से दैत्य से क्योंकर हारे? मुरे दैत्य सूर्य, अग्नि, चंद्र, मेघ आदि कैसे बन जाता था? विष्णु ईश्वर हैं, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान हैं, फिर मुरे दैत्य को क्यों नहीं मार सके? उन को यह भी पता नहीं पड़ा कि मुरे कैसे मरा? कन्या विष्णु के शरीर में से कैसे निकली? वह ‘एकादशी’ कैसे बनी? पंडितजी यदि महीनों, दिनों व अन्य तिथियों की उत्पत्ति भी बता देते तो पुरोहितों के धंधे (धर्म के) में और इजाफा हो जाता.

माघ शुक्ल पक्ष (जया) एकादशी की कथा

इस कथा में कृष्ण से कहलाया गया है कि एक समय इंद्र ने अप्सराओं के साथ रमण किया. थक जाने के बाद वह उन को नचाने लगा. नाचगाने में पुष्पवती नामक अप्सरा और माल्यवान नामक गंधर्व भी थे. नाचते समय वे दोनों कामातुर हो जाते हैं जिस से दोनों का मन नाचगाने में नहीं लगा. इसे इंद्र ताड़ गए और उन्होंने अपना अपमान सम   झ कर दोनों को श्राप दिया कि मृत्युलोक में जा कर पिशाच बनो.

श्राप के प्रभाव से दोनों पिशाच योनि को प्राप्त हुए. एक दिन उन को कुछ भी खाने को नहीं मिला. उस दिन माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी थी. ठंड के दिन थे. दोनों ने परस्पर चिपक कर एक पेड़ के नीचे रात्रि व्यतीत की. द्वादशी के दिन सुबह दोनों अलग हुए तो पुष्पवती सुंदर अप्सरा और माल्यवान गंधर्व के रूप में दिखे.

कथा के अनुसार, यह एकादशी का प्रभाव था क्योंकि अन्नाभाव के कारण उस दिन दोनों को भूखा रहना पड़ा था. सुंदर वस्त्र पहन कर दोनों स्वर्ग पहुंचे तो इंद्र ने उन का स्वागत किया और कहा कि यह एकादशी का प्रभाव है.

हिंदू संस्कृति के रक्षक सिनेमा के भद्दे पोस्टर देख कर पूरे देश में हुल्लड़ मचाते हैं. लेकिन इस कथा में कितना नंगापन है जिसे पंडेपुरोहित नयन नचा कर और हाथ मटका कर महिलाओं के बीच में पढ़ते हैं. इसे कमाल ही कहा जाएगा कि (जया) एकादशी के दिन कुछ खाना न मिला तो उसे व्रत मान लिया गया और उस का तत्काल सुफल भी मिल गया. जबकि, भूखे व्यक्तियों को यह पता ही नहीं है कि आज एकादशी है.

चैत्र कृष्ण पक्ष (पाप मोचनी) एकादशी की कथा

इस एकादशी की कथा कृष्ण ने लोमस ऋषि से सुनी है. कथा के अनुसार प्राचीन काल में चेत्ररथ नामक वन में अप्सराएं रहती थीं. उसी वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी ऋषि भी तपस्या करते थे. मंजुघोषा नामक अप्सरा मेधावी ऋषि पर मोहित हो जाती है. मेधावी ऋषि को कामातुर करने के लिए उस ने अपनी, ‘भौंहों को धनुष बनाया, कटाक्ष (चितवन) को डोरी, नेत्रों को संकेत  (तीर का फल) और कुचों को लक्ष्य (निशान) बना कर मेधावी ऋषि को कामातुर कर दिया. काम के वशीभूत हो कर ऋषि उस के साथ रमण करने लगे.’

मेधावी ऋषि 57 वर्ष 7 माह 3 दिन तक रमण करते रहे. समय का ज्ञान होने पर वे अप्सरा को श्राप देते हुए कहते हैं, ‘रे दुष्टे, तू ने मेरे तप को नष्ट कर दिया, इसलिए तू पिशाचनी बन जा.’

मंजुघोषा पिशाचनी हो कर मुनि से पूछती है, ‘आप मु   झे श्रापमुक्ति का उपाय बताइए.’

इस पर मुनि ने कहा, ‘तू चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की (पाप मोचनी) एकादशी का व्रत कर. इस से तेरे सब पाप नष्ट हो जाएंगे और तू सुंदर स्त्री बन जाएगी.’ उस ने पाप मोचनी एकादशी का व्रत किया. व्रत के प्रभाव से उस के सब पाप नष्ट हो गए और वह सुंदर स्त्री बन गई. च्यवन ऋषि के कहने से मेधावी ने भी इस एकादशी का व्रत किया और पापमुक्त हो गए.

अश्लीलताभरी कथाएं

बताइए, कथा कितनी अश्लील है. ऋषि 57 वर्ष 7 माह 3 दिन तक लगातार कैसे रमण करते रहे? क्या दोनों को भूखप्यास नहीं लगी होगी? समय की गणना कैसे की होगी? फिर तो लोग परस्त्री और परपुरुष गमन करें तथा इस एकादशी का व्रत रख, पाप से छुटकारा पाएं. कुकर्म दूर करने का इस से सस्ता नुस्खा क्या हो सकता है. वहीं यदि कालेज के लड़केलड़कियां नयन लड़ाएं तो हम पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बता कर उन को बदनाम करते हैं. धन्य है कथा लेखक और कथावाचक, वे भी धन्य हैं जो ऐसी अश्लील कथाओं पर विश्वास कर व्रत रखती हैं.

यह बात दूसरी है कि राष्ट्रपति को सरकारी संसद और सरकारी मंदिर में भी प्रवेश के समय नहीं बुलाया जाता क्योंकि ये सारी पूजाएं असल में द्विजों के लिए ही होती हैं, हालांकि अब दूसरे भी करने लगे हैं. इस में पैसा बनता है और वोट भी मिलते हैं, इसलिए कोई सवाल नहीं उठाता.

हमारे देश की राष्ट्रपति एक महिला हैं. 10 वर्षों से देश की जनता को मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है. महंगाई आसमान छू रही है. अगर कोई पंडित, राष्ट्रपति से देवशयनी एकादशी का व्रत रखने को कह देता तो जनता को ये दुर्दिन न देखने पड़ते.

इन सब कथाओं में बराबर कहा जाता है कि केवल व्रत व पूजा से स्वर्ग नहीं मिलने वाला. व्रती को पंडित के लिए भूमि, स्वर्ण, हाल की ब्याही हुई बछड़ा सहित गाय, शैया, घी आदि दान देने से ही स्वर्ग की गारंटी है.

दुकान चलाते पंडे

सभी कथाओं का सार यह निकला कि एकादशी का व्रत रखने से व्यक्ति भिखारी से धनी बन जाता है, स्त्रियों का सौभग्य अमर रहता है, पुत्र की प्राप्ति होती है, बीमारियां दूर होती हैं और समस्त पाप नष्ट हो कर अंत में स्वर्ग मिलता है.

अगर ये कथाएं सही होतीं तो आज एक भी हिंदू गरीब न होता और न पुत्रहीन, अंधा, बहरा, विकलांग व बीमार भी कोई नहीं दिखता. सौभाग्य का जहां तक प्रश्न है, समाज में विधवाएं ही अधिक मिलेंगी और विधुर कम. जबकि, स्त्रियां ही अधिक व्रत रखती हैं.

साधुसंत व पंडेपुरोहित प्रत्येक एकादशी का व्रत रखते हैं. पर इन की मृत्यु के बाद विष्णु का विमान या गरुड़ को आते किसी ने नहीं देखा. वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष का कोनाकोना छान मारा पर स्वर्ग कहीं भी नहीं दिखा.

प्रत्येक एकादशी व्रत में पंडोंपुरोहितों को भोजन कराने व दानदक्षिणा देने से ही मरने के बाद स्वर्ग मिलना बताया जाता है. इस का अर्थ यह हुआ कि भोलेभाले और धर्मभीरु हिंदुओं को और उन के वोट पाने के लिए ही ये व्रतकथाएं आज भी कराई जाती हैं. जब एकादशी के व्रत रखने से समस्त कुकर्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं तो व्यक्ति कुकर्म करने से क्यों डरेगा. सो, क्या ये व्रतकथाएं पापों को बढ़ावा नहीं देती हैं?

सम   झ में नहीं आता है कि लोग सदियों से इन अश्लील, बेसिरपैर और तर्कहीन कथाओं पर कैसे विश्वास करते आ रहे हैं? समस्या यह है कि विदेशों में बसे भारतीय मूल के हिंदू वहीं भी ये सब करतेकरवाते हैं और वहां भी पंडित मजे से दुकानें चला रहे हैं.

पाइल्स के मरीज शरमाएं नहीं, सलाह लें

सुस्त जीवनशैली, मानसिक तनाव, नींद के कम होते घंटे और मसालेदार जंक फूड के प्रति लगाव इस सदी में ज्यादातर स्वास्थ्य समस्याओं के पीछे के कुछ मूल कारण हैं. बवासीर उन समस्याओं में से सब से आम है. बवासीर या पाइल्स को मैडिकल भाषा में हेमराइड्स के नाम से जाना जाता है.

यह एक ऐसी स्थिति है जिस में गुदा (ऐनस) के अंदरूनी और बाहरी क्षेत्र व मलाशय (रेक्टम) के निचले हिस्से की शिराओं में सूजन आ जाती है. इस की वजह से ऐनस के अंदर और बाहर या किसी एक जगह मस्से जैसी स्थिति बन जाती है, जो कभी अंदर रहते हैं और कभी बाहर भी आ जाते हैं.

करीब 70 फीसदी लोगों को जीवन में किसी न किसी वक्त पाइल्स की समस्या रहती है. उम्र बढ़ने के साथसाथ पाइल्स की समस्या बढ़ सकती है. अनेक स्टडीज सुझाती हैं कि 45 से 65 साल के बीच की उम्र में, दुनियाभर के देशों में, हर दूसरे व्यक्ति को यह क्रोनिक बीमारी उन के जीवन में कभीकभी होती है. बड़ी संख्या में महिलाएं गर्भावस्था के दौरान बवासीर का अनुभव करती हैं.जो लोग चाय, जंक फूड के आदी होते हैं, जिन्हें कब्ज और तनाव रहता है, उन्हें यह बीमारी होने की ज्यादा आशंका रहती है.

लक्षण पहचान

निम्न संकेतों से पता लगाया जा सकता है कि बवासीर हो गई है-

– ऐनस के इर्दगिर्द एक कठोर गांठ जैसी महसूस हो सकती है. इस में ब्लड हो सकता है, जिस की वजह से इस में काफी दर्द होता है.

– टौयलेट के बाद भी ऐसा महसूस होना कि पेट साफ नहीं हुआ है.

– मलत्याग के वक्त लाल चमकदार रक्त का आना.

– मलत्याग के वक्त म्यूकस यानी चिपचिपे तरल पदार्थ का आना और दर्द का एहसास होना.

– ऐनस के आसपास खुजली होना व उस क्षेत्र का लाल होना और सूजन आ जाना.

बवासीर के प्रकार

अंदरूनी पाइल्स : ऐनस के अंदर हलकी सूजन होती है जो कि दिखाई भी नहीं देती. मरीज मलत्याग के वक्त या जोर लगाने पर खून आने की शिकायत करता है. सूजन बढ़ने लगती है और मलत्याग के वक्त जोर लगाने पर खून के साथ मस्से बाहर आ जाते हैं, लेकिन हाथ से अंदर करने पर वे वापस चले जाते हैं.

तीसरी तरह की स्थिति गंभीर होती है. इस में सूजन वाला हिस्सा या मस्सा बाहर की ओर लटका रहता है और उसे उंगली की मदद से भी अंदर नहीं किया जा सकता. ये बड़े होते हैं और हमेशा बाहर की ओर निकले रहते हैं. अंदरूनी पाइल्स को ही खूनी बवासीर कहा जाता है.

बाहरी पाइल्स : इसे मैडिकल भाषा में पेरिएनल हेमाटोमा कहा जाता है. इस में छोटीछोटी गांठें या सूजन ऐनस की बाहरी परत पर होती हैं. इन में बहुत ज्यादा खुजली होती है. अगर इन में रक्त भी जमा हो जाए तो दर्द होता है. इस में तुरंत इलाज की जरूरत होती है.

मलाशय और गुदा में नसें जब मुड़ जाती हैं, उन में सूजन आ जाती है और वे फूल जाती हैं तो वे बवासीर को जन्म देती हैं. पाइल्स के मरीजों को खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जैसे कि रेशे युक्त भोजन खाना चाहिए.

करेले का रस, खूब सारा सलाद व मौसमी खाना भी बवासीर के मरीजों के लिए लाभदायक होता है. इस के अलावा फलों में केला, नारियल आंवला, अंजीर, पपीता इत्यादि खाना भी इस में फायदेमंद होता है.

पाइल्स के मरीजों को खूब सारा पानी पीना चाहिए. लस्सी पीना भी फायदेमंद होता है. भोजन करने के बाद अमरूद खाने से भी फायदा होता है. पालक, गाजर, मूली, तुरई, टमाटर, लौकी इत्यादि सब्जियां भी खा सकते हैं. नियमित व्यायाम करना चाहिए और मलत्याग के दौरान बहुत ज्यादा जोर नहीं लगाना चाहिए.

पाइल्स के मरीजों को कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है, जैसे तेज मिर्च, मसालेदार खाने से परहेज करना चाहिए. इस के अलावा मांस, मछली, अंडे, उरद की दाल, खटाई, अचार, आलू, बैगन इत्यादि से भी बचना चाहिए. डब्बाबंद भोजन भी बवासीर के मरीजों के लिए हानिकारक होता है. पाइल्स के मरीजों को चाय व कौफी भी कम कर देनी चाहिए.

बवासीर लाइलाज नहीं है. बस, जरूरत है कि बीमारी होने पर शरमाएं नहीं, तुरंत डाक्टर की सलाह लें. और हां, ध्यान रखें कि औपरेशन इस बीमारी का इलाज नहीं है. उस के बिना भी इस बीमारी से नजात पाई जा सकती है.

आम न समझें गले की खिचखिच को

सर्दीजुकाम के साथ गला खराब होना, गले में खराश, कुछ भी खानेपीने में तकलीफ, लगातार खांसी आना आदि गले से जुड़ी समस्याएं हैं जिन्हें लोग साधारण समझ कर अनदेखा कर देते हैं. हालांकि इन समस्याओं की अनदेखी कभीकभी गंभीर रोग को आमंत्रण देना साबित हो सकती है. इन गंभीर रोगों में से एक गले का कैंसर है जिस का अगर समय पर इलाज न किया जाए तो रोगी के बोलने की क्षमता के खोने के साथसाथ उस के पूरे शरीर मैं कैंसर फैल सकता है.
कैसे होता है गले का कैंसर : गले की सांस लेने, बोलने और निगलने के लिए प्रयोग में आने वाली कोशिकाएं असामान्य रूप से विभाजित होना शुरू हो जाती हैं और फिर नियंत्रण से बाहर आ जाती हैं. तब गले का कैंसर होता है. ज्यादातर गले का कैंसर मुखगुहा से शुरू हो कर ग्रसनी तक फैलता है.
महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह कैंसर अधिक पाया जाता है क्योंकि धूम्रपान पुरुषों में आम है. यदि धूम्रपान और तंबाकू सेवन के साथ मद्यपान किया जाता है तो गले के कैंसर की संभावना अधिक बढ़ जाती है.

गले के कैंसर के कारण : अत्यधिक धूम्रपान, तंबाकू सेवन और मद्यपान भेजने में प्रोटीन व विटामिन की कमी.

लक्षण

– भोजन निगलने में कठिनाई या दर्द
– लगातार गले में खराश
– गले में गांठ महसूस होना
– गले में दर्द या सूजन
– गले में बढ़े हुए लिम्फ नोड्स (लसीका पर्व)
– लगातार खांसी
– घबराहट या सांस लेने पर आवाज आना
– अचानक वजन घटना
– खांसने पर खून आना

निदान : चिकित्सक गले की जांच करते हैं. जांच में कुछ असामानताएं पाई जाती हैं तो चिकित्सक बायोप्सी के लिए गले के ऊतक का नमूना भेजते हैं. बायोप्सी की रिपोर्ट से चिकित्सक कैंसर की पुष्टि करते हैं. उस के बाद सीटी स्कैन द्वारा ट्यूमर के स्थान का पता लगाया जाता है. साथ ही, यह भी पता लगाया जाता है कि क्या ट्यूमर शल्य चिकित्सा द्वारा हटाया जा सकता है.

डाक्टर कैंसर के चरणों का वर्णन करने के लिए संख्या का प्रयोग करते हैं. चरण 1-2 में ट्यूमर आसपास के ऊतकों में अंदर तक दाखिल नहीं हुए होते जबकि चरण 3-4 में ट्यूमर आसपास के ऊतकों के पार व्याप्त हो जाते हैं.
पीईटी स्कैन कैंसर के फैसले की सीमा निर्धारण का नवीनतम अरिक्त परीक्षण है. इस परीक्षण की मदद से यह पता लगाया जाता है कि क्या कैंसर लिम्फ नोट्स (लसीका पर्व) के साथसाथ शरीर के अन्य भागों में फैल गया है.

गले के कैंसर की चिकित्सा : गले के कैंसर की चिकित्सा इस बात पर निर्भर करती है कि कैंसर कितनी दूरी तक फैला है. गले के कैंसर के प्रारंभिक दौर के लिए विकिरण चिकित्सा और शल्य चिकित्सा प्रयोग में लाई है. तीसरेचौथे चरण के गले कैंसर के लिए कीमोथेरैपी चिकित्सा, सर्जरी और विकिरण चिकित्सा भी की जाती है.
गले के कैंसर के लिए लैरिजक्टोमी यानी स्वरयंत्र अच्छेदन सब से आम सर्जरी है. इस के अतिरिक्त ग्रसनी या उस के हिस्से को सर्जरी से हटाने की प्रक्रिया को कैरिजैक्टोमी यानी ग्रसनी उच्छेदन कहा जाता है. इस सर्जरी की जरूरत तब पड़ती है जब कैंसर कोशिकाएं स्वरयंत्र या ग्रसनी से परे लिम्फ नोड्स में फैल जाती हैं.
सर्जरी से रोगी की बोलने की क्षमता प्रभावित होती है, बोलने की क्षमता दोबारा प्राप्त करने के लिए रोगी को विशेष तकनीकों की जरूरत पड़ती है.

गले में खराश

अगर आप को पानी पीने या अन्य तरल पदार्थ निगलने में कठिनाई हो, मुंह से सांस लेने में कठिनाई हो, सांस लेने पर आवाज आती हो, अत्यधिक लार टपकती हो. 101 डिगरी फारेनहाइट से अधिक बुखार हो तो आप गले की खराश या ग्रसनीशोध यानी गले के इंफैक्शन से पीड़ित हैं.
इंफैक्शन की वजह से गले में खराश पैदा होती है. ऐसा वायरल और बैक्टीरियल इंफैक्शन के कारण होता है. अगर गले की खराश 2 हफ्ते से अधिक रहे तो उसे अनदेखा न करें. बारबार होने वाली खराश या इंफैक्शन हृदय के वौल्व और किडनी द्वारा रक्त की शुद्धीकरण की प्रक्रिया पर असर पड़ता है. इसे नेफ्राइटिस कहते हैं, जिस की वजह से किडनी कुछ समय के लिए फेल हो सकती है.

ज्यादातर केसों में इस का उपचार हो जाता है लेकिन बारबार गले का इंफैक्शन गुर्दे को फेल भी कर सकता है. इसी तरह गले का इंफैक्शन हृदय के वौल्व पर भी असर डालता है. जिस की वजह से वौल्व सिकुड़ जाते हैं और उन की कंपन गति कमजोर हो जाती है और खून के संचालन में बाधा आती है. ऐसा ज्यादातर बाईं तरफ के वौल्व में होता है. जिसे माइट्रल या एओरटिक कहते हैं.

गले की खराश का निदान

– बुखार की दवाइयों के साथ एंटीबायोटिक दवाओं का भी पूरा कोर्स करें.
– इंफैक्शन की रोकथाम के लिए वैक्सीन भी लगवा सकते हैं.
– खानपान का पूरा ध्यान दें. विटामिन ‘सी’ का भरपूर सेवन करें.
– वायु प्रदूषण से बचें.
– हाथों को बारबार धोएं.
-अत्यधिक ठंडे और तैलीय पदार्थों का प्रयोग न करें.
-निर्जलीकरण को रोकने के लिए खूब पानी पिएं.
– भाप लें.
– गरम पानी से गरारा करें.
-जब तक संक्रमण पूरी तरह खत्म न हो जाए, दवाइयां बंद न करें.

सेहत और समाज पर इंस्टाग्राम रील्स का दुष्प्रभाव

वैसे तो सोशल मीडिया का हर प्लेटफौर्म देखने वालों की सेहत से खिलवाड़ कर रहाहै पर ‘इंस्टाग्राम’ सबसे खराब सोशल मीडिया प्लेटफौर्म साबित हो रहा है. खासतौर पर इस पर जिस तरह की रील्स बन रही हैंवे गलत कटैंट दे रही हैं. सोशल मीडिया पर जल्दी सफल होने के लिए गलत तरह के कटैंट दिखाए जा रहे हैं. देखने वाले अच्छे कंटैंट नहीं देखते. इसके लिए लोग गलत कटैंट बनाकर अपलोड कर रहे हैं. ‘इंस्टाग्राम’ ऐसे कटैंट को रोक नहीं रहा. वह इनको ज्यादा प्रमोट करता है. इसलिए लोग तेजी के साथ गलत कटैंट बना रहे हैं.

यही वजह है कि ‘इंस्टाग्राम’ सबसे खराब सोशल मीडिया प्लेटफौर्म के रूप में अपनी पहचान बनाता जा रहा है. यह मानसिक सेहत पर बुरा असर डालता है. खासकर, रील्स का ऐसा नशा होने लगा है कि एक बार आप देखना शुरू करते हैं तो एक के बाद एक देखते जाते हैं.

ऐसे में टाइम कैसे बरबाद होता है, यह पता ही नहीं चलता. छोटेछोटे बच्चों को भी इसका शौकहोने लगा है जबकि जानकार लोग कहते हैं कि छोटे बच्चों को इंटरनैट और मोबाइल नहीं देना चाहिए. इसके चलते शारीरिक सक्रियता कम होने लगती है और मानसिक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है.

सोशल मीडिया के प्रभावों को लेकर किया गया एक सर्वे कहता है, ‘इंस्टाग्राम’ को मानसिक सेहत के लिए बेहद खराब सोशल मीडिया साइट माना गया है जबकि दूसरे नंबर पर स्नैपचैट है.’

इस सर्वे में लोगों से यूट्यूब,इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, फेसबुक और ट्विटर का उनके स्वास्थ्य पर पड़े प्रभाव से जुड़े कई सवाल किए गए थे. सोशल मीडिया का सेहत पर खराब प्रभाव पड़ रहा है. सोशल मीडिया का सबसे अधिक इस्तेमाल युवावर्ग के लोग करते हैं, इसलिए युवाओं पर इसका असर ज्यादा पड़ सकता है. ‘इंस्टाग्राम’ के बारे में जो सबसे बड़ी समस्या बताई गई है वह यह है कि यह महिलाओं के बौडीलुक को लेकर उन्हें इनसिक्योर बना देता है. इस से फोटोशौप्ड फोटो और वीडियो का प्रयोग ज्यादा होने लगा है. अच्छे फोटो डालने के चक्कर में लोग अकेले ही तसवीरें क्लिक करते हैं और फिर उन्हें पोस्ट करने से पहले अच्छी दिखने के लिए अलगअलग तरह के फिल्टर का प्रयोग करते हैं. फिल्टर की और बिना फिल्टर की फोटो की तुलना करने में उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.

कंटैंट को ज्यादा से ज्यादा लोग देखें, इसके लिए नग्नता और गंदेगंदे शब्दों का प्रयोग किया जाता है. गालीगलौज के अलावा मारपीट जैसे कंटैंट परोसे जाते हैं जो सेहत के साथ ही साथ समाज को भी गलत राह पर ले जाते हैं. एक को देखकर दूसरा भी उसी राह पर चलता है. जो भी वीडियो या फोटो अपलोड हो रहा है उसको एडिट करने या उसको रोकने का कोई उपाय नहीं दिखता. ऐसे में सोशल मीडिया का यह कटैंट सेहत के साथ ही साथ समाज को भी खराब कर रहा है.

जान न पहचान ये मेरे मेहमान

मेरा शहर एक जानामाना पर्यटन स्थल है. इस वजह से मेरे सारे रिश्तेदार, जिन्हें मैं नहीं जानता वे भी जाने कहांकहां के रिश्ते निकाल कर मेरे घर तशरीफ का टोकरा निहायत ही बेशर्मी से उठा लाते हैं. फिर बड़े मजे से सैरसपाटा करते हैं. और हम अपनी सारी, यानी गरमी, दीवाली व क्रिसमस की छुट्टियां इन रिश्तेदारों की सेवा में होम कर देते हैं. एक दिन मेरे बाप के नाना के बेटे के साले का खत आया कि वे इस बार छुट्टियां मनाने हमारे शहर आ रहे हैं और अगर हमारे रहते वे होटल में ठहरें तो हमें अच्छा नहीं लगेगा. लिहाजा, वे हमारे ही घर में ठहरेंगे.

मैं अपने बाल नोचते हुए सोच रहा था कि ये महाशय कौन हैं और मुझ से कब मिले. इस चक्कर में मैं ने अपने कई खूबसूरत बालों का नुकसान कर डाला. पर याद नहीं आया कि मैं उन से कभी मिला था. मेरी परेशानी भांपते हुए पत्नी ने सुझाव दिया, ‘‘इन की चाकरी से बचने के लिए घर को ताला लगा कर अपन ही कहीं चलते हैं. कभी कोई पूछेगा तो कह देंगे कि पत्र ही नहीं मिला.’’ ‘‘वाहवाह, क्या आइडिया है,’’ खुशी के अतिरेक में मैं ने श्रीमती को बांहों में भर कर एक चुम्मा ले लिया. फिर तुरतफुरत ट्रैवल एजेंसी को फोन कर के एक बढि़या पहाड़ी स्टेशन के टिकट बुक करवा लिए.

हमारी दूसरे दिन सुबह 10 बजे की बस थी. हम ने जल्दीजल्दी तैयारी की. सब सामान पैक कर लिया कि सुबह नाश्ता कर के चल देंगे, यह सोच कर सारी रात चैन की नींद भी सोए. मैं सपने में पहाड़ों पर घूमने का मजा ले रहा था कि घंटी की कर्कश ध्वनि से नींद खुल गई. घड़ी देखी, सुबह के 6 बजे थे. ‘सुबहसुबह कौन आ मरा,’ सोचते हुए दरवाजा खोला तो बड़ीबड़ी मूंछों वाले श्रीमानजी, टुनटुन को मात करती श्रीमतीजी और चेहरे से बदमाश नजर आते 5 बच्चे मय सामान के सामने खड़े थे. मेरे दिमाग में खतरे की घंटी बजी कि जरूर चिट्ठी वाले बिन बुलाए मेहमान ही होंगे. फिर भी पूछा, ‘‘कौन हैं आप?’’

‘‘अरे, कमाल करते हैं,’’ मूंछ वाले ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहा, ‘‘हम ने चिट्ठी लिखी तो थी…बताया तो था कि हम कौन हैं.’’ ‘‘लेकिन मैं तो आप को जानता ही नहीं, आप से कभी मिला ही नहीं. कैसे विश्वास कर लूं कि आप उन के साले ही हैं, कोई धोखेबाज नहीं.’’

‘‘ओए,’’ उन्होंने कड़क कर कहा, ‘‘हम को धोखेबाज कहता है. वह तो आप के बाप के नाना के बेटे यानी मेरी बहन के ससुर ने जोर दे कर कहा था कि उन्हीं के यहां ठहरना, इसलिए हम यहां आए हैं वरना इस शहर में होटलों की कमी नहीं है. रही बात मिलने की, पहले नहीं मिले तो अब मिल लो,’’ उस ने जबरदस्ती मेरा हाथ उठाया और जोरजोर से हिला कर बोला, ‘‘हैलो, मैं हूं गजेंद्र प्रताप. कैसे हैं आप? लो, हो गई जानपहचान,’’ कह कर उस ने मेरा हाथ छोड़ दिया. मैं अपने दुखते हाथ को सहला ही रहा था कि उस गज जैसे गजेंद्र प्रताप ने बच्चों को आदेश दिया, ‘‘चलो बच्चो, अंदर चलो, यहां खड़ेखड़े तो पैर दुखने लगे हैं.’’

इतना सुनते ही बच्चों ने वानर सेना की तरह मुझे लगभग दरवाजे से धक्का दे कर हटाते हुए अंदर प्रवेश किया और जूतों समेत सोफे व दीवान पर चढ़ कर शोर मचाने लगे. मेरी पत्नी और बच्चे हैरानी से यह नजारा देख रहे थे. सोफों और दीवान की दुर्दशा देख कर श्रीमती का मुंह गुस्से से तमतमा रहा था, पर मैं ने इशारे से उन्हें शांत रहने को कहा और गजेंद्र प्रताप व उन के परिवार से उस का परिचय करवाया.

परिचय के बाद वह टुनटुन की बहन इतनी जोर से सोफे पर बैठी कि मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई. सोचा, ‘आज जरूर इस सोफे का अंतिम संस्कार हो जाएगा.’ पर मेरी हालत की परवा किए बगैर वह बेफिक्री से मेरी पत्नी को और्डर दे रही थी, ‘‘भई, अब जरा कुछ बढि़या सी चायवाय हो जाए तो हम फ्रैश हो कर घूमने निकलें. और हां, जरा हमारा सामान भी हमारे कमरे में पहुंचा देना. हमारे लिए एक कमरा तो आप ने तैयार किया ही होगा?’’ हम ने बच्चों के साथ मिल कर उन का सामान बच्चों के कमरे में रखवाया.

उधर कुढ़ते हुए पत्नी ने रसोई में प्रवेश किया. पीछेपीछे हम भी पहुंचे. शयनकक्ष में अपने पैक पड़े सूटकेसों पर नजर पड़ते ही मुंह से आह निकल गई. मेहमानों को मन ही मन कोसते सूटकेसों को ऐसा का ऐसा वापस ऊपर चढ़ाया. ट्रैवल एजेंसी को फोन कर के टिकट रद्द करवाए. आधा नुकसान तो यही हो गया. श्रीमती चाय ले कर पहुंची तो चाय देखते ही बच्चे इस तरह प्यालों पर झपटे कि 2 प्याले तो वहीं शहीद हो गए. अपने टी सैट की बरबादी पर हमारी श्रीमती अपने आंसू नहीं रोक पाई तो व्यंग्य सुनाई पड़ा, ‘‘अरे, 2 प्याले टूटने पर इतना हंगामा…हमारे घर में तो कोई चीज साबुत ही नहीं मिलती. इस तरह तो यहां बातबात पर हमारा अपमान होता रहेगा,’’ उठने का उपक्रम किए बिना उस ने आगे कहा, ‘‘चलो जी, चलो, इस से तो अच्छा है कि हम किसी होटल में ही रह लेंगे.’’

मुझ में आशा की किरण जागी, लेकिन फिर बुझ गई क्योंकि वह अब बाथरूम का पता पूछ रही थीं. साबुन, पानी और बाथरूम का सत्यानाश कर के जब वे नाश्ते की मेज पर आए तो पत्नी के साथ मेरा भी दिल धकधक कर रहा था. नाश्ते की मेज पर डबलरोटी और मक्खन देख कर श्रीमतीजी ने नौकभौं चढ़ाई, ‘‘अरे, सिर्फ सूखी डबलरोटी और मक्खन? मेरे बच्चे यह सब तो खाते ही नहीं हैं. पप्पू को तो नाश्ते में उबला अंडा चाहिए, सोनू को आलू की सब्जी और पूरी, मोनू को समोसा, चिंटू को कचौरी और टोनी को परांठा. और हम दोनों तो इन के नाश्ते में से ही अपना हिस्सा निकाल लेते हैं.’’ फिर जैसे मेहरबानी करते हुए बोले, ‘‘आज तो आप रहने दें, हम लोग बाहर ही कुछ खा लेंगे और आप लोग भी घूमने के लिए जल्दी से तैयार हो जाइए, आप भी हमारे साथ ही घूम लीजिएगा. अनजान जगह पर हमें भी आराम रहेगा.’’

हम ने सोचा कि ये लोग घुमाने ले जा रहे हैं तो चलने में कोई हरज नहीं. झटपट हम सब तैयार हो गए.

बाहर निकलते ही उन्होंने बड़ी शान से टैक्सी रोकी, सब को उस में लादा और चल पड़े. पहले दर्शनीय स्थल तक पहुंचने पर ही टैक्सी का मीटर 108 रुपए तक पहुंच चुका था. उन्होंने शान से पर्स खोला, 500-500 रुपए के नोट निकाले और मेरी तरफ मुखातिब हुए. ‘‘भई, मेरे पास छुट्टे नहीं हैं, जरा आप ही इस का भाड़ा दे देना.’’ भुनभुनाते हुए हम ने किराया चुकाया. टैक्सी से उतरते ही उन्हें चाय की तलब लगी, कहने लगे, ‘‘अब पहले चाय, नाश्ता किया जाए, फिर आराम से घूमेंगे.’’

बढि़या सा रैस्तरां देख कर सब ने उस में प्रवेश किया. हर बच्चे ने पसंद के अनुसार और्डर दिया. उन का लिहाज करते हुए हम ने कहा कि हम कुछ नहीं खाएंगे. उन्होंने भी बेफिक्री से कहा, ‘‘मत खाइए.’’ वे लोग समोसा, कचौरी, बर्गर, औमलेट ठूंसठूंस कर खाते रहे और हम खिसियाए से इधरउधर देखते रहे. बिल देने की बारी आई तो बेशर्मी से हमारी तरफ बढ़ा दिया, ‘‘जरा आप दे देना, मेरे पास 500-500 रुपए के नोट हैं.’’

200 रुपए का बिल देख कर मेरा मुंह खुला का खुला रह गया और सोचा कि अभी नाश्ते में यह हाल है तो दोपहर के खाने, शाम की चाय और रात के खाने में क्या होगा? फिर वही हुआ, दोपहर के खाने का बिल 700 रुपए, शाम की चाय का 150 रुपए आया. रात का भोजन करने के बाद मेरी बांछें खिल गईं. ‘‘यह तो पूरे 500 रुपए का बिल है और आप के पास भी 500 रुपए का नोट है. सो, यह बिल तो आप ही चुका दीजिए.’’

उन का जवाब था, ‘‘अरे, आप के होते हुए यदि हम बिल चुकाएंगे तो आप को बुरा नहीं लगेगा? और आप को बुरा लगे, भला ऐसा काम हम कैसे कर सकते हैं.’’ दूसरे दिन वे लोग जबरदस्ती खरीदारी करने हमें भी साथ ले गए. हम ने सोचा कि अपने लिए खरीदेंगे तो पैसा भी अपना ही लगाएंगे और लगेहाथ उन के साथ हम भी बच्चों के लिए कपड़े खरीद लेंगे. पर वह मेहमान ही क्या जो मेजबान के रहते अपनी गांठ ढीली करे.

सर्वप्रथम हमारे शहर की कुछ सजावटी वस्तुएं खरीदी गईं, जिन का बिल 840 रुपए हुआ. वे बिल चुकाते समय कहने लगे, ‘‘मेरे पास सिर्फ 500-500 रुपए के 2 ही नोट हैं. अभी आप दे दीजिए, मैं आप को घर चल कर दे दूंगा.’’

फिर कपड़ाबाजार गए, वहां भी मुझ से ही पैसे दिलवाए गए. मैं ने कहा भी कि मुझे भी बच्चों के लिए कपड़े खरीदने हैं, तो कहने लगे, ‘‘आप का तो शहर ही है, फिर कभी खरीद सकते हैं. फिर ये बच्चे भी तो आप के ही हैं, इस बार इन्हें ही सही. फिर घर चल कर तो मैं पैसे दे ही दूंगा.’’ 3 हजार रुपए वहां निकल गए. अब वे खरीदारी करते थक चुके थे. दोबारा 700 रुपए का चूना लगाया. इस तरह सारी रकम वापस आने की उम्मीद लगाए हम घर पहुंचे.

घर पहुंचते ही उन्होंने घोषणा की कि वे कल जा रहे हैं. खुशी के मारे हमारा हार्टफेल होतेहोते बचा कि अब वे मेरे पैसे चुकाएंगे, लेकिन उन्होंने पैसे देने की कोई खास बात नहीं की.

दूसरे दिन भी वे लोग सामान वगैरह बांध कर निश्ंिचतता से बैठे थे और चिंता यह कर रहे थे कि उन का कुछ सामान तो नहीं रह गया. तब हम ने भी बेशर्म हो कर कह दिया, ‘‘भाईसाहब, कम से कम अपनी खरीदारी के रुपए तो लौटा दीजिए.’’ उन्होंने निश्ंिचतता से कहा, ‘‘लेकिन मेरे पास अभी पैसे नहीं हैं.’’

आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया, ‘‘पर आप तो कह रहे थे कि घर पहुंच कर दे दूंगा.’’ ‘‘हां, तो क्या गलत कहा था. अपने घर पहुंच भिजवा दूंगा,’’ आराम से चाय पीते हुए उन्होंने जवाब दिया.

‘‘उफ…और वे आप के 500-500 रुपए के नोट?’’ मैं ने उन्हें याद दिलाया. ‘‘अब वही तो बचे हैं मेरे पास और जाने के लिए सफर के दौरान भी कुछ चाहिए कि नहीं?’’

हमारा इस तरह रुपए मांगना उन्हें बड़ा नागवार गुजरा. वे रुखाई से कहते हुए रुखसत हुए, ‘‘अजीब भिखमंगे लोग हैं. 4 हजार रुपल्ली के लिए इतनी जिरह कर रहे हैं. अरे, जाते ही लौटा देंगे, कोई खा तो नहीं जाएंगे. हमें क्या बिलकुल ही गयागुजरा समझा है. हम तो पहले ही होटल में ठहरना चाहते थे, पर हमारी बहन के ससुर के कहने पर हम यहां आ गए, अगर पहले से मालूम होता तो यहां हमारी जूती भी न आती…’’ वह दिन और आज का दिन, न उन की कोई खैरखबर आई, न हमारे रुपए. हम मन मसोस कर चुप बैठे श्रीमती के ताने सुनते रहते हैं, ‘‘अजीब रिश्तेदार हैं, चोर कहीं के. इतने पैसों में तो बच्चों के कपड़ों के साथ मेरी 2 बढि़या साडि़यां भी आ जातीं. ऊपर से एहसानफरामोश. घर की जो हालत बिगाड़ कर गए, सो अलग. किसी होटल के कमरे की ऐसी हालत करते तो इस के भी अलग से पैसे देने पड़ते. यहां लेना तो दूर, उलटे अपनी जेब खाली कर के बैठे हैं.’’

इन सब बातों से क्षुब्ध हो कर मैं ने भी संकल्प किया कि अब चाहे कोई भी आए, अपने घर पर किसी को नहीं रहने दूंगा. देखता हूं, मेरा यह संकल्प कब तक मेरा साथ देता है.

VIDEO : कार्टून लिटिल टेडी बियर नेल आर्ट

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ठंडक का एहसास : पद और सत्ता के नशे में चूर नेता क्यों बाद में परेशान थें?

पद और सत्ता के नशे में चूर व्यक्ति सब का शोषण करता जाता है पर कभी न कभी तो बुराई का अंत होता ही है. ऐसे व्यक्ति को जब अपने किए की सजा मिलती है तो जाने कितनों की छाती को ठंडक पहुंचती है… हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी.

जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य. ‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में…’’ चाचाजी ने कहा. ‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’ ‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’ ‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं…’’ ‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा सम?ादार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न…

हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही सम?ा में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मु?ो अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’ चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सच?ाठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं.

सच है कहां? वह तो बेचारा कहीं दम तोड़ चुका नजर आता है. एक ‘नोबल प्रोफैशन’ माना जाने वाला पेशा भी आज के युग में ‘नोबल’ नहीं रह गया तो इस पेशे से तो उम्मीद भी क्या की जा सकती है. दोपहर को हम धूप सेंक रहे थे तभी पुराने कपड़ों के बदले नए बरतन देने वाली चली आई. उम्रदराज औरत है. साल में 2-3 बार ही आती है. कह सकती हूं अपनी सी लगती है. बरतन देखतेदेखते मैं ने हालचाल पूछा. पिछली बार मैं ने 2 जरी की साडि़यां उसे दे दी थीं. उस की बेटी की शादी जो थी. ‘‘शादी अच्छे से हो गई न रमिया… लड़की खुश है न अपने घर में?’’ ‘‘जी, बीबीजी, खुश है…कृपा है आप लोगों की.’’

‘‘साडि़यां उसे पसंद आई थीं कि नहीं?’’ फीकी सी हंसी हंस गरदन हिला दी उस ने. ‘‘साडि़यां तो थानेदार ने निकाल ली थीं बीबीजी. आदमी को अफीम का इलजाम लगा कर पकड़ लिया था. छुड़ाने गई तो टोकरा खुलवा कर बरतन भी निकाल लिए और सारे कपड़े भी. पुलिस वालों ने आपस में बांट लिए. तब हमारा बड़ा नुकसान हो गया था. चलो, हो गया किसी तरह लड़की का ब्याह, यह सब तो हम गरीबों के साथ होता ही रहता है.’’ उस की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गई थी. लोगों की उतरन क्या पुलिस वालों ने आपस मेें बांट ली. इतने गएगुजरे होते हैं क्या ये पुलिस वाले? सहसा मेरे मन में कुछ कौंधा. कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र के घर कोई उत्सव था और उस के घर हूबहू मेरी वही जरी की साड़ी पहने एक महिला आई थी. मित्र ने मु?ो उस से मिलाया भी था. उस ने बताया था कि उस के पति पुलिस में हैं. तो क्या वह मेरी साड़ी थी? कितनी ठसक थी उस औरत में.

क्या वह जानती होगी कि उस ने जिस की उतरन पहन रखी है, उसी के सामने ही वह इतरा रही है. ‘‘कौन से थाने में गई थी तू अपने आदमी को छुड़ाने?’’ ‘‘बीबीजी, यही जो रेलवे फाटक के पीछे पड़ता है. वहां तो आएदिन किसी न किसी को पकड़ कर ले जाते हैं. जहान के कुत्ते भरे पड़े हैं उस थाने में. कपड़ा, बरतन न निकले तो बोटियां चबाने को रोक लेते हैं. मां पसंद आ जाए तो मां, बेटी पसंद आ जाए तो बेटी…’’ ‘‘कोई कुछ कहता नहीं क्या?’’ ‘‘कौन कहेगा और किसे कहेगा. उस से ऊपर वाला उस से बड़ा चोर होगा. कहां जाएं हम…बस, उस मालिक का ही भरोसा है. वही न्याय करेगा. इनसान से तो कोई उम्मीद है नहीं.’’ आसमान की तरफ देखा रमिया ने तो मन अजीब सा होने लगा मेरा.

क्या कोई इतना भी नीचे गिर सकता है. थाली की रोटी तोड़ने से पहले इनसान यह तो देखता ही है कि थाली साफसुथरी है कि नहीं. लाख भूखा हो कोई पर नाली की गंदगी तो उठा कर नहीं खाई जा सकती. रमिया से ऐसा कहा तो उस की आंखें भर आईं. ‘‘पेट की भूख और तन की भूख मैलीउजली थाली नहीं देखती बीबीजी. हम लोगोें की हाय उन्हें दिनरात लगती है. अब देखना है कि उन्हें अपने किए की सजा कब मिलती है.’’ उस थानेदारनी के प्रति एक जिज्ञासा भाव मेरे मन में जाग उठा. एक दिन मैं अपनी उसी मित्र से मिलने गई. बातोंबातों में किसी बहाने उस का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘उस की साड़ी बड़ी सुंदर थी. मेरी मां के पास भी ऐसी ही जरी की साड़ी थी. पीछे से उसे देख कर लग रहा था कि मेरी मां ही खड़ी हैं. कैसे लोग हैं…इस इलाके में नएनए आए हैं…वे कोई नई किट्टी शुरू कर रही थीं और कह रही थीं कि मैंबर बनना चाहें तो…तुम कैसे जानती हो उन्हें?’’ ‘‘उन का बेटा मेरे राजू की क्लास में है. ज्यादा जानपहचान नहीं करना चाहती हूं मैं…इन पुलिस वालों के मुंह कौन लगे. अब राजू ने बुला लिया तो मैं क्या कहती. तुम किट्टी के चक्कर में उसे मत डालना. ऐसा न हो कि उस की किट्टी निकल आए और बाकी की सारी तुम्हें भरनी पड़े. उस की हवा अच्छी नहीं है. शरीफ आदमी नहीं हैं वे लोग. औरत आदमी से भी दो कदम आगे है. मुंह पर तो कोई कुछ नहीं कहता पर इज्जत कोई नहीं करता.’’ अपनी मित्र का बड़बड़ाना मैं देर तक सुनती रही. अपने राजू की उन के बेटे के साथ दोस्ती से वे परेशान थीं. ‘‘कापीकिताब लेने अकसर उस का लड़का आता रहता है. एक दिन राजू ने मना किया तो कहने लगा कि शराफत से दे दो, नहीं तो पापा से कह कर अंदर करवा दूंगा.’’ ‘‘क्या सच में ऐसा…?’’

मेरी हैरानी का एक और कारण था. ‘‘इन पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मैं तो परेशान हूं उस के लड़के से. अपनी कुरसी का ऐसा नाजायज फायदा…सम?ा में नहीं आता कि राजू को कैसे सम?ाऊं. बच्चा है कहीं कह देगा कि मेरी मां ने मना किया है तो…’’ एक बेईमान इनसान अपने आसपास कितने लोगों को प्रभावित करता है, यह मु?ो शीशे की तरह साफ नजर आ रहा था. एक चरित्रहीन इनसान अपनी वजह से क्याक्या बटोर रहा है. बदनामी और गंदगी भी. क्या डर नहीं लगता है आने वाले कल से? सब से ज्यादा विकार तो वह अपने ही लिए संजो रहा है. कहांकहां क्याक्या होगा, जब यही सब प्रश्नचिह्न बन कर सामने खड़ा होगा तब उत्तर कहां से लाएगा.

सच है, अपने दंभ में मनुष्य क्याक्या कर जाता है. पता तो तब चलता है जब कोई उत्तर ही नहीं सू?ाता. वक्त की लाठी में आवाज नहीं होती और जब पड़ती है तब सूद समेत सब वापस भी कर देती है. कहने को तो हम सभ्य समाज में रहते हैं और सभ्यता का ही कहांकहां रक्त बह रहा है, हमें सम?ा में ही नहीं आता. अगर दिखाई दे भी जाए तो हम उस से आंखें फेर लेते हैं. बुराई को पचा जाने की कितनी अच्छी तरह सीख मिल चुकी है हमें. गरीब बरतन वाली की पीड़ा और उस जैसी औरों पर गिरती थानेदार की गाज ने कई दिन सोने नहीं दिया मु?ो. क्या हम पढ़ेलिखे लोग उन के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी मानसिकता इतनी नपुंसक है कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा हमें जरा सा भी नहीं रुलाती? अगर ऊंचनीच का भेद मिटा दें तो एक मानवीय भाव तो जागना ही चाहिए हमारे मन में. अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी.

समाज इतना गंदा हो चुका है कि अपनी चादर को ही बचा पाना आज आसान नहीं रहा. दिन निकलता है तो उम्मीद ही नहीं कर सकते कि रात सहीसलामत आएगी कि नहीं. फूंकफूंक कर पैर रखो तो भी कीचड़ की छींटों से बचाव नहीं हो पाता. क्या करें हम? अपना मानसम्मान ही बचाना भारी पड़ता है और किसी को कोई कैसे बचाए. मेरे पति जिस विभाग में कार्यरत हैं वहां हर पल पैसों का ही लेनदेन होता है. पैसा लेना और पैसा देना ही उन का काम है. एक ऐसा इनसान जिसे दिनरात रुपयों में ही जीना है, वही रुपए कब गले में फांसी का फंदा बन कर सूली पर लटका दें पता ही नहीं चल सकता. कार्यालय में आने वाला चोर है या साधु…सम?ा ही नहीं पाते. कैसे कोई काम कर पाए और कैसे कोई अपनी चादर दागदार होने से बचाए? आज ईमानदारी और बेईमानी का अर्थ बदल चुका है.

आप लाख चोरी करें, जी भर कर अपना और सामने वाले का चरित्रहनन करें. बस, इतना खयाल रखिए कि कोई सुबूत न छोड़ें. पकड़े न जाएं. यहीं पर आप की महानता और सम?ादारी प्रमाणित होती है. कच्चे चोर मत बनिए. जो पकड़ा गया वही बेईमान, जो कभी पकड़ा ही न जाए वह तो है ही ईमानदार, उस पर कैसा दोष? इसी कुलबुलाहट में कितने दिन बीत गए. ‘कबिरा तेरी ?ोपड़ी गल कटियन के पास, करन गे सो भरन गे तू क्यों भेया उदास’ की तर्ज पर अपने मन को सम?ाने का मैं प्रयास करती रही. बुराई का अंत कब होगा…कौन करेगा…किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था मु?ो. एक शाम मु?ो जम्मू से फोन आया : ‘‘आप के शहर में कर्फ्यू लग गया है. क्या हुआ…आप ठीक हैं न?’’ मेरी बहन का फोन था. ‘‘नहीं तो, मु?ो तो नहीं पता.’’ ‘‘टीवी पर तो खबर आ रही है,’’

बहन बोली, ‘‘आप देखिए न.’’ मैं ने ?ाट से टीवी खोला. शहर का एक कोना वास्तव में जल रहा था. वाहन और सरकारी इमारतें धूधू कर जल रही थीं. रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी. रेलों की आवाजाही ठप थी. एक विशेष वर्ग पर ही सारा आरोप आ रहा था. शहर के बाहर से आया मजदूर तबका ही मारकाट और आगजनी कर रहा था. एसएसपी सहित 12-15 पुलिसकर्मी भी घायल अवस्था में अस्पताल पहुंच चुके थे. मजदूरों के एक संगठन ने पुलिस पर हमला कर दिया था. मैं ने ?ाट से पति को फोन किया. पता चला, उस तरफ भी बहुत तनाव है. अपना कार्यालय बंद कर के वे लोग बैठे हैं. कब हालात शांत होेंगे, कब वे घर आ पाएंगे, पता नहीं. बच्चों के स्कूल फोन किया, पता चला वे भी डी.सी.

के और्डर पर अभी छुट्टी नहीं कर पा रहे क्योंकि सड़कों पर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. दम घुटने लगा मेरा. क्या सभी दुबके रहेंगे अपनेअपने डेरों में. पुलिस खुद मार खा रही है, वह बचाएगी क्या? अपनी सहेली को फोन किया. कुछ तो रास्ता निकले. उस का बेटा राजू भी अभी स्कूल में ही है क्या? ‘‘क्या तुम्हें कुछ भी पता नहीं है? कहां रहती हो तुम? मैं ने तो राजू को स्कूल जाने ही नहीं दिया था.’’ ‘‘क्यों, तुम्हें कैसे पता था कि आज कर्फ्यू लगने वाला है?’’ ‘‘उस थानेदार की खबर नहीं सुनी क्या तुम ने? सुबह उस की पत्नी और बेटे का अधकटा शव पटरी पर से मिला है. थानेदार के भी दोनों हाथ काट दिए गए हैं. भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया था.’’ काटो तो खून नहीं रहा मु?ा में. यह क्या सुना रही है मेरी मित्र? वह बहुत कुछ और भी कहतीसुनती रही. सब जैसे मेरे कानों से टकराटकरा कर लौट गया.

जो सुना उसे तो आज नहीं कल होना ही था. सच कहा है किसी ने, अपनी लड़ाई सदा खुद ही लड़नी पड़ती है. रमिया की सारी बातें याद आने लगीं मु?ो. हम तो उस के लिए कुछ नहीं कर पाए. हम जैसा एक सफेदपोश आदमी जो अपनी ही पगड़ी बड़ी मुश्किल से बचा पाता है किसी की इज्जत कैसे बचा सकता है. यह पुलिस और मजदूर वर्ग की लड़ाई सामान्य लड़ाई कहां है, यह तो मानसम्मान की लड़ाई है. सब को फैलती आग दिखाई दे रही है पर किसी को वह आग क्यों नहीं दिखती जिस ने न जाने कितनों के घर का मानसम्मान जला दिया? थानेदारनी और उस के बच्चे का अधकटा शव तो अखबार के पन्नों पर भी आ जाएगा, उन का क्या, जिन की पीड़ा अनसुनी रह गई.

क्या करते गरीब लोग? तरीका गलत सही, सही तरीका है कहां? कानून हाथ में ले लिया, कानून है कहां? सुलगती आग एक न एक दिन तो ज्वाला बन कर जलाती ही. ‘‘शुभा, तू सुन रही है न, मैं क्या कह रही हूं. घर के दरवाजे बंद रखना, सुना है वे घरों में घुस कर सब को मारने वाले हैं. अपना बचाव खुद ही करना पड़ेगा.’’ फोन रख दिया मैं ने. अपना बचाव खुद करने के लिए सारे दरवाजेखिड़कियां तो बंद कर लीं मैं ने लेकिन मन की गहराई में कहीं विचित्र सी मुक्ति का भाव जागा. सच कहा है उस ने, अपना बचाव खुद ही करना पड़ता है. अपनी लड़ाई हमेशा खुद ही लड़नी पड़ती है. यह आग कब थमेगी, मु?ो पता नहीं, मगर वास्तव में मेरी छाती में ठंडक का एहसास हो रहा था.

पिता: नव्या को कब हुआ अपनी गलती का एहसास?

‘दीदी, पापा अब इस दुनिया में नहीं रहे.’ सुबह-सुबह नव्या के मोबाइल पर उस के छोटे भाई प्रतीक का फोन आया. नव्या की आंख से दो आंसू ढुलक कर उस के गालों को भिगो गए. आज नव्या बिलकुल अनाथ हो गई थी. मां को तो इस दुनिया से गए 4 साल हो गए. बस, एक पापा का ही सहारा था. अब वे भी चले गए.

पर दिल के एक कोने में थोड़ी राहत भी मिली. इसी बहाने उन को अपने अकेलेपन से मुक्ति मिली और नव्या को उन की चिंता से. मम्मी के जाने के बाद पापा बिलकुल अकेले हो गए थे. एक सख्त, मजबूत इंसान को कमजोर, असहाय, लाचार, इंसान में बदलते देखा था नव्या ने. कभीकभी तो उसे यकीन नहीं होता था जिन पापा की आंख में बचपन से आज तक आंसू की एक बूंद नहीं देखी, अब फोन पर बात करतेकरते जराजरा सी बात पर रो पड़ते हैं. नव्या कितना समझाती थी उन्हें, पर वे तो एक मासूम बच्चे से बन गए थे. सच में तो उन की ताकत मां थी, उन के जाते ही कितना कमजोर बन गए, नव्या ने महसूस किया था.

नव्या ने अपने 2 जोड़ी कपड़े बैग में डाले और पापा को अंतिम विदा देने चल दी. उस के पति टूर पर गए थे, वे वहीं से पहुंच जाएंगे. नव्या ने उन्हें फ़ोन कर बता दिया था. टैक्सी उन्होंने ही बुक करा दी थी. नव्या गाड़ी में बैठ गई. गाड़ी अपनी गति से दौड़ रही और नव्या पापा की यादों में दौड़ रही. कितनी बार तो नव्या झल्ला भी जाती थी,

‘क्या पापा बिना बात के रोने लग जाते हो, थोड़ा तो हिम्मत से काम लो.’कितनी बार वह पापा को बहाना बना कर फोन रख देती, क्योंकि मालूम था वे अपना अकेलापन और दुखड़ा ही बताएंगे. नव्या थक जाती थी सुनसुन कर. कभीकभी तो फोन करने में भी घबराहट होती थी. हर थोड़े दिनों में पापा उसे अपने पास बुलाते तो वह कहती,

‘पापा, अब मेरी दोहरी जिम्मेदारी है, मैं जब मन हो तब उठ कर नहीं आ सकती.’ पर सच में तो अब तो वह फुरसत में भी वहां नहीं जाना चाहती थी क्योंकि जो मायका मां के होने पर उस के लिए सुकून व आराम की जगह होती थी, जहां सारी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिलती, अब मां के नहीं होने पर वह घर काटने को दौड़ता. फिर पापा तो जैसे उस के आने का इंतजार करते,

‘बेटा, मेरी कमीज का बटन टूट गया, मेरे चश्मे का शायद नंबर बढ़ गया, आंखें चैक करा दे, घर के परदे कितने गंदे हो रहे हैं, बदल दे,’ आदि सब से खीझ होने लगती उसे.उस को लगता, पापा से कहे, ‘भाई आता है तो भाभी और भैया से क्यों नहीं कहते.’ पर मन मार कर रह जाती कहीं उन को बुरा न लग जाए. वे तो जैसे नव्या के आने का ही इंतजार करते थे और उस के सामने बिलकुल बच्चे बन जाते थे. इन थोड़े से दिनों में नव्या से अपनी सारी फरमाइशें पूरी करवाना चाहते थे.

नव्या ने अपने मन के कोने में एक बात दबा रखी थी, जिस को खुद भी झूठलाती और भूल से भी दिल में नहीं लाना चाहती. पर आज जब पापा नहीं रहे तो वह बात भी जेहन में आ ही गई. कभीकभी तो उसे लगता था की काश, मां की जगह पापा… ऐसा नहीं कि वह अपने पापा से प्यार नहीं करती थी, बहुत ज्यादा, पर वह उन को इतना असहाय नहीं देख सकती. फिर मां से वह कितनी ही बातें कर सकती थी, पापा से नहीं कर सकती. याद हैँ उसे जब मां थी तो कितना गुस्सा करती थी-

‘तुम बाप व बेटी पता नहीं क्या खिचड़ी पकाते हो, मुझ से तो मेरी बेटी बात ही नहीं करती.’ सच किसी के खोने पर क्यों उस की कमी लगती हैँ, गर उस के होने पर यह एहसास रहे तो बाद में कुछ मलाल तो न रहे.सच में उम्र के इस दौर में औरत तो फिर भी घरगृहस्थी में समय बिता लेती है, रो कर अपना दुख दूर कर लेती है पर आदमी तो बिलकुल असहाय ही हो जाता है. वह घर का ऐसा फालतू सामान बन जता है जिस के होने या न होने से शायद किसी को फर्क ही न पड़े.

अपनी सोच में डूबी कब उस का घर आ गया, पता ही नहीं चला. घर में बहुत भीड़ जमा थी. नातेरिश्तेदार सब इकट्ठे थे. नव्या पापा को इतना शांत देख कितना दुखी थी. कहां तो उस के आते ही कितनी बातें ले कर बैठ जाते, जो इतने समय से इकट्ठी कर के रखते थे. मां के बाद नव्या से ही तो वे अपने दिल का हाल कहते थे.

पापा के दाहसंस्कार के बाद घर में भैया, भाभी, नव्या और उस के पति रह गए. नव्या के भाई ने पापा की एक डायरी और कुछ चीजें जिन में उन की पुरानी घड़ी जो नव्या ने उन के जन्मदिन पर उन्हें दी थी, (कब से बंद पड़ी है पर पापा ने कितना संभाल कर रखा हैँ), नव्या की बचपन की गुड़िया, ( कितनी जिद करी थी उस ने इस गुड़िया के लिए, मां ने डांटा भी कि कितनी महंगी है, पर पापा ने उस को ला कर दी थी) वह सब नव्या को दी. पापा की इच्छा थी कि यह उसे ही दे.

एक बार नव्या को लगा भी कि क्या बेकार की चीजें हैं, वह कहां तक संभालेगी, फिर भी उस ने पापा कि अमानत समझ अपने बैग में रख लिया. बारह दिन बिता वह अपने घर आ गई. कुछ दिनों बाद जब वह अपना बैग खाली कर रही थी तो पापा की डायरी हाथ लग गई. उत्सुकता में उसे खोला. मां के जाने के बाद रोज़ वे मां को एक खत लिखते थे-

‘प्यारी सुमन, तुम तो मुझे छोड़ गईं पर नव्या के रूप में खुद को मुझे सौंप गई. जब भी उसे देखता हूं तो लगता है तुम मेरे पास हो. तुम मेरा खयाल रखती थीं तो अब वह मेरा ख़याल रखती है. पर आजकल थोड़ा व्यस्त रहती है. फ़ोन पर भी उस से सही से बात नहीं हो पाती है. कितना कुछ होता है कहने को, पर उस की व्यस्तता के कारण उस को बता ही नहीं पाता.’

नव्या के दिल में हूक सी उठी. पापा वह कहा आप से सही से बात करती थी. उस को तो झल्लाहट होती थी आप से बात करते. उस ने आगे पढ़ना शुरू किया-‘कितना सोचता हूं उसे परेशान न करूं पर क्या करूं, उस से नहीं कहूंगा तो किस से कहूंगा. इस बार वह आएगी तो उस से गाजर का हलवा बनवाऊंगा. तुम्हारे जाने के बाद तो वह स्वादिष्ठ हलवा खाने को नहीं मिला. तुम्हारे हाथों का जादू है उस के हाथों में. आज उस से शिकायत भी करूंगा फोन पर. कितने दिन हो गए उसे घर आए. अब बहू को तो बातबात पर परेशान नहीं कर सकता न. वैसे तो वह भी मेरा बहुत ध्यान रखती है पर नव्या को तो हक से कह सकता हूं जैसे तुम से कहता था. तुम्हारी तरह वह भी झल्लाती है मुझ पर. फिर भी मुझे पता है मुझ से बहुत प्यार करती है.

‘और हां, तुम्हारे होते जिन बातों की तरफ मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया या यों कह लो कभी जरूरत ही नहीं पड़ी, आज तुम्हारे बगैर मैं तिलतिल घुटता हूं. तुम तो जानती हो अब मेरे पैसों का सारा हिसाबकिताब तुम्हारा बेटा देखता है क्योंकि बैंक दूर है और इस उम्र में मुझ से यह सब संभलता भी नहीं है. वह ही मेरे हाथ में कभी थोड़ेबहुत पैसे रख देता है क्योंकि बाकी मेरी जरूरत तो वह बिना कहे पूरी कर ही देता है. और अब अकेले मुझ बुड्ढे के खर्चे भी कहां हैं.

‘तुम थीं, तो जरूरत होने पर अपने बेटे से हक से पैसे मांग लेती थी पर मुझे झिझक होती है. पर कभीकभी दिल में हूक उठती है जब तुम्हारी बेटी और नवासे को तीजत्योहार पर कुछ नहीं भिजवा पाता हूं. उन के हाथ में थोड़े पैसे भी नहीं रख पाता हूं. जानता हूं नव्या की ससुराल में कोई कमी नहीं और हमारे जवाईजी भी बहुत ही अच्छे हैं पर एक बेटी को अपने मायके से आए सामान की जिंदगीभर आस रहती है चाहे उस की ससुराल कितनी भी संपन्न हो. इसीलिए सच कहूं तो शर्म के कारण तीजत्योहार पर मैं ने उसे फ़ोन करना ही बंद कर दिया. और वह सोचती है कि मां होती तो ध्यान रखती, पापा शायद इन बातों को नहीं समझते. पर मैं ने सोच लिया मेरा एक हिस्सा नव्या के तीजत्योहार के लिए सुरक्षित कर के जाऊंगा ताकि जब मैं भी इस दुनिया में न रहूं, फिर भी हमारी बेटी को उस के मायके का हक मिलता रहे.’

नव्या एकएक शब्द पढ़ फूटफूट कर रो रही. सच कितनी खुदगर्ज हो गई वह, केवल उस ने अपनी मजबूरी देखी, अपना दुख देखा. पापा कितने अकेले हो गए, कितना कुछ कहना चाहते थे. पर उस के पास उन से बात करने का भी समय नहीं था. छोटे बच्चे के रूप में उन को नव्या का सहारा चाहिए था, पर वह सहारा भी कहां बन पाई. नव्या उस डायरी को अपने सीने से लागए फूटफूट कर रो रही, काश, ऐसे पापा को सीने से लगाया होता जब उन को जरूरत थी.

लेखिका-रीशा गुप्ता

मेरी पत्नी ने हमें झूठे दहेज कानून में फंसा दिया, मुझे समझ नहीं आ रहा, क्या करें ?

सवाल

मैं विवाहित पुरुष हूं. मेरा विवाह हुए 4 वर्ष हो गए हैं. शादी के बाद से ही पत्नी का मेरे प्रति व्यवहार क्रूरतापूर्ण था. वह बात बात पर मुझे परेशान करती थी. हर समय कोई न कोई डिमांड करती और कहती, मांग पूरी करो वरना तुम्हें व तुम्हारे परिवार को दहेज विरोधी कानून में फंसवा दूंगी. बातबात पर पुलिस स्टेशन में झूठी शिकायत कर के परेशान करना उस की दिनचर्या बनने लगी. परेशान हो कर मैं ने तलाक का केस फाइल कर दिया तो उस ने सचमुच में हमें झूठे दहेज कानून में फंसा दिया. मुझे समझ नहीं आ रहा, क्या करें, इस मुसीबत से कैसे निकलूं? सलाह दें.

जवाब

दरअसल, 498ए दहेज प्रताड़ना कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया था लेकिन आज यह कानून, कवच बनने के बजाय हथियार बन गया है जो कानूनी आातंक का रूप ले रहा है. आप की पत्नी की तरह अनेक पत्नियां इस कानून का दुरुपयोग पतिपत्नी के बीच के अहं, पारिवारिक विवाद, अलग रहने की इच्छा, संपत्ति में हक की चाहत आदि के लिए करती हैं. झूठे मुकदमे दर्ज करवाने के मामले अब बहुत सुनने में आ रहे हैं जो न केवल निराधार होते हैं बल्कि उन के पीछे गलत इरादे होते हैं. ऐसे मुकदमे दर्ज कराने का मकसद पैसा कमाना भी होता है. लेकिन अगर आप सही हैं तो डरे नहीं और पत्नी के खिलाफ सुबूत इकट्ठा करें. वैसे भी,

2 जुलाई, 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने दहेज से जुड़े श्वेता किरन के मामले में निर्णय सुनाते हुए कहा है कि 498ए कानून के अंतर्गत की गई शिकायत में कोई भी गिरफ्तारी तब तक नहीं हो सकती जब तक कोई 2 सुबूत या गवाह उपलब्ध न हों. ऐसा निर्णय इसलिए दिया गया ताकि असंतुष्ट व लालची पत्नियां इस कानून का दुरुपयोग न कर सकें और न ही पति को ब्लैकमेल कर सकें.

क्या जस्टिस खन्ना होंगे देश के अगले मुख्य न्यायाधीश

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लोकसभा चुनाव में अपनी आम आदमी पार्टी का प्रचार करने के लिए अंतरिम जमानत देने वाली बेंच के जज संजीव खन्ना की चर्चा बतौर सुप्रीम कोर्ट के अगले चीफ जस्टिस के रूप में होने लगी है. संजीव खन्ना वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं. सीजेआई चंद्रचूड़ का कार्यकाल नवंबर 2024 को पूरा हो रहा है, माना जा रहा है कि उनके बाद जस्टिस खन्ना 10 नवंबर 2024 से 13 मई 2025 तक सीजेआई के रूप में न्यायालय का दायित्व संभालेंगे.

बताते चलें कि वर्तमान में दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति के अधिकांश मामले जस्टिस संजीव खन्ना की ही अदालत में फैसले का इंतजार कर रहे हैं. बीते दो सालों से इस शराब नीति ने दिल्ली सरकार का चैन छीन रखा है. आप पार्टी के कई बड़े नेता शराब नीति मामले में जेल में बंद हैं. दिल्ली शराब घोटाले में दो केस चल रहे हैं. एक केस सीबीआई ने दर्ज किया था और दूसरा केस ईडी की तरफ से दर्ज किया गया था. दोनों जांच एजेंसियों ने दिल्ली शराब नीति मामले में कई कार्रवाइयां की हैं. पिछले वर्ष पार्टी और उसके वरिष्ठ नेताओं की कानूनी लड़ाइयों में असफलताओं का अंबार लगा रहा है, कुछ अपवादों को छोड़कर, विभिन्न अदालतों और विभिन्न न्यायाधीशों ने कई मौकों पर उन्हें राहत देने से इनकार कर दिया है. जानकार मानते हैं कि इसके पीछे केंद्रीय सत्ता का भारी दबाव काम कर रहा है. इंडिया गठबंधन को कमजोर करने और केजरीवाल सरकार को घेरने, तोड़ने और बदनाम करने में शराब घोटाला मामला इस लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के हाथ में सबसे बड़ा हथियार है. इस घोटाले की चर्चा भाजपा हर मंच से करती है और केजरीवाल और उनकी सरकार को महाभ्रष्ट का तमगा पहनाती है.

इस तथाकथित घोटाले के कई मामले शीर्ष अदालत में पहुंचे, जहां न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के नेतृत्व वाली पीठों ने रोस्टर के अनुसार उनकी सुनवाई की. कौन सा न्यायाधीश किस मामले की सुनवाई करेगा इसका रोस्टर भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा तय किया जाता है. दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से संबंधित कानूनी कार्यवाही न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के समक्ष चल रही है, अतः यह कहना उचित ही होगा कि आम आदमी पार्टी के राजनीतिक भविष्य की चाबी उनके पास है. दिल्ली की जनता और आम आदमी पार्टी को उन से इंसाफ मिलने की उम्मीद है.

जस्टिस संजीव खन्ना करीब पांच साल पहले जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट में जज बने थे. वह जस्टिस हंसराज खन्ना के रिश्तेदार हैं, जिन्होंने आपातकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जज के पद से इस्तीफा दे दिया था. जस्टिस संजीव खन्ना का जन्म 14 मई 1960 को हुआ था और उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की. उनके पिता, न्यायमूर्ति देव राज खन्ना, 1985 में दिल्ली उच्च न्यायालय से न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए, जबकि उनकी माँ, सरोज खन्ना दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम कॉलेज में हिंदी व्याख्याता थीं. संजीव खन्ना ने वर्ष 1983 में दिल्ली की जिला अदालत में प्रैक्टिस शुरू की थी और फिर दिल्ली हाईकोर्ट और ट्रिब्यूनल्स में वकालत की. उन्होंने संवैधानिक कानून, डायरेक्ट टैक्स, मध्यस्थता और कमर्शियल मामलों, कंपनी लॉ, भूमि कानून, पर्यावरण और प्रदूषण कानून एवं चिकित्सकीय लापरवाही से जुड़े केस में वकालत की है. उन्होंने दिल्ली न्यायिक अकादमी, दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र और जिला अदालत मध्यस्थता केंद्रों जैसे संस्थानों में सक्रिय रूप से योगदान दिया. उन्होंने आपराधिक कानून मामलों में अतिरिक्त लोक अभियोजक के रूप में दिल्ली सरकार में भी काम किया. न्यायमूर्ति खन्ना करीब सात साल तक दिल्ली के आयकर विभाग के वरिष्ठ स्थायी वकील भी रहे. 2004 में, उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय में नागरिक कानून मामलों के लिए दिल्ली के स्थायी वकील के रूप में नियुक्त किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बनने से पहले, जस्टिस खन्ना 2005 से 14 वर्षों तक दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहे.

सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मौजूद जस्टिस खन्ना की डिटेल्स के मुताबिक, उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में एडीशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर और कई आपराधिक मामलों में कोर्ट की तरफ से न्याय मित्र के रूप में बहस की थी. टैक्सेशन के मामलों में उन्हें काफी महारत हासिल है और उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के लिए सीनियर स्टैंडिंग काउंसिल के रूप में सात साल तक काम किया है.

जस्टिस खन्ना को जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में उनकी नियुक्ति पर काफी विवाद भी हुआ था क्योंकि उम्र और अनुभव में उनसे वरिष्ठ 33 जजों के लाइन में होने के बावजूद उन्हें सीधे सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया था. मगर यह नियुक्ति उनकी काबिलियत को देखते हुए की गयी थी.

अप्रैल 2024 में जस्टिस खन्ना ने वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीटी) और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में डाले गए वोटों के क्रॉस-वेरिफिकेशन से जुड़ी याचिका को खारिज कर दिया था. यह मामला भी काफी चर्चा में रहा. उन्होंने अपने फैसले में ईवीएम की पवित्रता और देश के चुनाव आयोग पर भरोसे को लेकर विस्तार से लिखा है. मार्च में जस्टिस खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े कानून पर रोक लगाने से जुड़ी याचिका को भी खारिज कर दिया था. उन्होंने कहा था कि इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए रोक लगाना सही नहीं है. हालांकि अदालत ने जल्दबाजी में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सरकार की आलोचना भी की.

बीते दिनों लोकसभा चुनाव की दुदुम्भी बजने से ठीक पहले चुनावी बांड की वैधता मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने जो फैसला दिया वह भाजपा के गले की हड्डी साबित हुआ. एसबीआई पर इतने कोड़े फटकाये कि किस राजनीतिक पार्टी को कितना चन्दा मिला और कहाँ कहाँ से मिला, इसकी पूरी जानकारी बैंक कोर्ट के पटल पर रखने को मजबूर हुआ. सुप्रीम कोर्ट के सभी पांचों जजों ने एक राय से चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. यह ऐतिहासिक फैसला देने वाली बेंच में जस्टिस संजीव खन्ना भी शामिल थे. चुनावी प्रक्रिया में ‘सफाई’ को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पीछे तीन महीने की अथक मेहनत लगी. सुप्रीम कोर्ट के 232 पेज के फैसले में सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने 158 पेज लिखे और बाकी जस्टिस संजीव खन्ना ने लिखे थे.

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