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बल्लेबाज को इस तरह आउट होते नहीं देखा होगा आपने

क्रिकेट के मैदान पर आए दिन कई अजीबोगरीब कारनामे होते रहते हैं लेकिन यहां हम आपको जिस घटना के बारे में बताने जा रहे हैं वो शायद ही पहले कभी हुई हो. भारतीय बल्लेबाज युवराज सिंह ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से एक वीडियो पोस्ट किया है, जिसमें अंपायर के उंगली उठाने पर एक बल्लेबाज जो कि साफ तौर पर नौट आउट था, वह पवेलियन लौट जाता है.

ताज्जुब की बात तो ये है कि वीडियो में ना गेंद बल्लेबाज के बल्ले पर लगी, ना ही गेंदबाज और ना ही विकेटकीपर ने किसी भी तरह की अपील की फिर भी अंपायर ने बल्लेबाज को आउट दे दिया. गेंद और बल्ले में जब मुलाकात हुई ही नहीं तो आउट कैसे? सोशल मीडिया पर यह सवाल उठने लगे… विपक्षी टीम ने आउट की अपील भी नहीं की और अंपायर ने आउट कैसे दे दिया..?

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दरअसल, यह 2007 में खेले गए एक प्रदर्शनी मैच का वीडियो है. उस मैच की शर्त यह थी कि अगर किसी ओवर की ऐसी दो गेंदें जो खेली जा सकती थीं, लेकिन बल्लेबाज बिना कोई शौट खेले उन गेंदों को छोड़ देता है, तो अंपायर उस बल्लेबाज को आउट दे सकता है. और इसी वजह से वीडियो में दिख रहे बल्लेबाज को आउट दिया गया.

आपको बता दें कि युवराज सिंह काफी समय से टीम इंडिया से बाहर चल रहे हैं. उन्होंने अपना आखिरी वनडे मैच 30 जून 2017 को वेस्टइंडीज के खिलाफ खेला था. इस मैच में उन्होंने 55 गेंदों में 39 रन बनाए, जिसमें 4 चौके शामिल थे. वो फिलहाल क्रिकेट पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और भारतीय टीम में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

धर्म और समाज में बंटता त्योहार, क्या है इसकी असल वजह

यदि हम बात करें मनाए जाने वाले त्योहारों की तो सारे त्योहार आपस में प्यार व खुशी का संदेश ही देते हैं. रक्षाबंधन भाईबहन का प्यार, दीवाली बुराई पर अच्छाई की जीत, होली खुशी व उल्लास के लिए मानते हैं. इस के अलावा कुछ अन्य त्योहार जैसे पोंगल, बैसाखी आदि खेती से संबंधित त्योहार हैं, जो यह दर्शाते हैं कि जब काम का वक्त था जम कर काम किया और जब फसल पकी तो खुशियां मनाओ जोकि एक तरह से व्यवस्थित रहने का तरीका भी है. लेकिन इन खूबसूरत त्योहारों को धर्म, समाज व भाषा में बंटते देख मन बड़ा ही व्यथित हो जाता है.

यह मेरा धर्म यह तुम्हारा धर्म

कुछ वर्षों पहले की बात है. मैं हैदराबाद में तबादले के कारण गई थी. वहां एक अपार्टमैंट में नवरात्र स्थापना यानी कि गुड़ी पड़वा मनाया जाना था. उस के पहले ही अपार्टमैंट के 2 गुटों में विवाद हो गया. एक गुट जो वर्षों से अपार्टमैंट में इस त्योहार को अपने तौर पर मना रहा था और सारे लोग उस में शामिल भी हो रहे थे, वहीं दूसरा गुट आ गया और काफी झगड़े के बाद यह तय हुआ कि इसे बतुकम्मा के नाम से और उसी के रीतिरिवाजों के हिसाब से मनाया जाए. खैर काफी बहस के बाद उसे बतुकम्मा के नाम से मनाया गया. आकर्षक फूलों की सजावट हुई, पंडितों को बुलाया गया, पूजापाठ हुए और केबल टीवी पर उस का लाइव प्रसारण भी हुआ. यह सब हुआ अपनेआप को मानने वाले गुट के जमा किए पैसों और मैनेजमैंट से.

इस तरह के त्योहारों को लोग अलगअलग नाम से मानते हैं, लेकिन इस को मनाने के पीछे चाहे सब का उद्देश्य एक ही है, लेकिन अपने पंडितों के बताए रीतिरिवाजों और अपने जाति, भाषा या क्षेत्र का अहं जब तक शांत न हो कुछ लोगों को त्योहार का मजा ही नहीं आता.

अब कोई उन लोगों से यह पूछे कि ये रीतिरिवाज और धर्म आया कहां से? तो शायद किसी को पता नहीं होगा. सही माने में तो असली रीतियां भी किसी को पता नहीं लेकिन जो पंडित ने बताया वह सब किया और उस के एवज में पंडित को भारी दक्षिणा मिली.

गणपति के लिए चंदा इकट्ठा किया गया तो कुछ पंजाबी लोगों ने यह कह चंदा देने से इनकार कर दिया कि हमारी लोहड़ी तो नहीं मनाते यहां. दोनों में एक खटास धर्म के नाम पर पड़ गई जबकि कहने को धर्म एक ही था.

ऐसे में यह सवाल अहम है कि हम धर्म, राज्य, जाति, भाषा के नाम पर त्योहारों को क्यों अलग करते हैं? त्योहार मनाने के पीछे सिर्फ खुशी के भाव नहीं, बल्कि सभी से मिलेंजुलें, अच्छे परिधान पहनें, लजीज पकवान बनाएं और चेहरे पर मुसकान बिखेरें. लेकिन उस में भी हमारे धर्म, समाज, भाषा पहरेदार बन कर खड़े हो जाते हैं.

त्योहारों में अगर इन झगड़ों से किसी का भला होने वाला है तो सिर्फ पंडेपुजारियों का और धर्म व समाज के ठेकेदारों का.

धर्म की बेलें जहां फलों से लदने लगती हैं वहीं हमारे धर्मगुरु मठाधीश अपने धर्म की तूती बजाने निकल पड़ते हैं और उन के चेले अलगअलग युक्तियों से उन का प्रचार करते हैं.

ऐसे ही धर्म व समाज के ठेकेदार अपने मठों में खुशीखुशी दूसरे धर्मों के नेताओं की चिलम भरते हैं. बस उन्हें उन धर्मगुरुओं से कुछ फायदा चाहिए. जहां अपने चेलों को दूसरे धर्म के खिलाफ भड़काते हैं, वहीं स्वयं जरा से फायदे के लिए दूसरे धर्म के ठेकेदारों को अपने आयोजनों में स्टेज पर मालाएं पहनाते हैं. रही बात समाज की तो समाज तो स्वयं संस्कृति का मुखौटा ओढ़े इस पल इधर तो उस पल उधर रहता है जैसे ही कोई पैसे वाला या कोई अन्य ताकत अपने हाथ में ले कर समाज में दाखिल होता है उसी के हिसाब से समाज के नियम, कानून बदल जाते हैं.

धार्मिक आयोजन में यदि कोई सरकारी ताकत हाथ में हो तो कहने ही क्या. पूरी सोसायटी उस के त्योहार को अपना मानने लगती है, चाहे पीठ पीछे बुराई करेंगे पर सामने सब मुसकान बिखेरते उस में शामिल होने के लिए तत्पर रहेंगे.

स्वयं के फायदे के लिए नहीं है त्योहार

अभी पिछले वर्ष की ही बात है. कुछ विदेशी वस्तुओं के प्रेमी लोग भी होते हैं. बस ऐसी ही महिला को एक विदेशी महिला से दोस्ती बढ़ाते देखा. थोड़े दिन बाद ही उसे क्रिसमस ट्री डैकोरेशन के लिए बच्चों समेत विदेशी महिला के घर जाते देखा. जबकि वह महिला स्वयं आए दिन पूजापाठ कराने के लिए पंडितों को घर में बुलाती रहती. आज सत्यनारायण कथा तो कल वट सावित्री व्रत. और सिर्फ जो रीत वह निभाए वही सही होती, अन्य सभी महिलाएं उसे जबरन मानें वरना जो न मानें उस का पत्ता कट.

बड़े व्यवसाई की पत्नी हैं तो दूसरी महिलाएं भी उस के घर हर तीजत्योहार मनाने सजधज कर चल देतीं. उन्हीं पिछलग्गू महिलाओं में से एक के मुंह से पीठ पीछे से बोलते सुना, ‘‘विदेशी वस्तुओं के चक्कर में मैडम क्रिसमस भी मनाने लगीं और उस फिरंगी से दोस्ती भी बढ़ा ली.’’

इस वर्ष भी कुछ नए विचारों के लोगों ने गणपति पूजा पर विभिन्न पदार्थों को ले कर गणेश की प्रतिमा बनाई. किसी ने मिट्टी की बनाई जिस में खाद व बीज भी मिला दिए ताकि पूजा के बाद उसे सीधे गमले में लगा दिया जाए. न तो उस के पैरों में आने की संभावना और न ही प्रदूषण. कहने को तो बड़ा नेक विचार पर पंडितों ने उस में कमी ढूंढ़ ली कि फिर विसर्जन कैसे होगा?

वहीं किसी  ने चौकलेट के गणपति बनाए ताकि पूजा के बाद उसे दूध में मिला दिया जाए और वह दूध गरीब बच्चों को पिला दिया जाए.

कुछ महिलाओं के इस पर विचार सुने- किसी ने कहा चौकलेट की बिक्री का तरीका है, तो किसी ने कहा जिस गणपति की पूजा करो उसे ही दूध बना कर पी जाओ, ये कैसी गलत विधि है पूजा की. यहां सोचने की बात यह है कि त्योहार में खुशियां ढूंढ़ें और बांटें भी. आपस में एकदूसरे की कमियां न ढूंढ़ें.

नकारें नहीं अपनाएं

अकसर देखा गया है एक ही भाषा के लोग जब अपने उत्सव मनाते हैं, तो उन के रीतिरिवाज, पहनावा, खानपान सब एक जैसा ही होता है. ऐसे में यदि कोई एक महिला दूसरी भाषा की हो तो उसे शामिल कर लेने में कोई बुराई तो नहीं. उसी उत्सव को वह अपने हिसाब से मना ले आप सभी के साथ और आप भी उस नई महिला की रीतियां अच्छी लगें तो अपना लें. लेकिन नहीं, हमारे यहां तो अपनी भाषा के लोग मिलते ही दूसरे को झट से नकार दिया जाता है. जबकि भाषा तो सिर्फ संचार का माध्यम होती है. आप अपनी बात किसी को कह सकें, भाषा का औचित्य वहीं तक है, लेकिन उस को ले गुटबाजी करना और त्योहार में भी आपस में बंट जाना कहां तक सही है?

और तो और हमारा सोशल मीडिया भी इस में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. जैसे ही कोई त्योहार आता है, पहले से ही सोशल मीडिया उस उत्सव से संबंधित पोस्ट शेयर करने लगता है और फिर गुहार लगाता है कि इस वर्ष फलां उत्सव कुछ ऐसे मनाएं, वैसे मनाएं और लाइक करें.

कोई भी धर्म, भाषा, जाति और समाज पीछे नहीं. सभी अपनीअपनी मार्केटिंग में लगे हुए हैं और भोलीभाली भीड़ की मिट्टी में अपने नाम का झंडा गाड़ कर अपनी साख जमाने की कोशिश कर रहे हैं. उसे अपनी राजनीति का शिकार बना रहे हैं.

कभीकभी तो ऐसा महसूस होता है कि यदि ये ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ’ का नारा न लगाएं तो जैसे इन का धर्म अभी नष्ट ही हो जाएगा. जो उन्मादी लोग ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ’ का नारा लगा रहे हैं और धर्म के नाम पर लोगों को बांट रहे हैं उन्हें धर्म का इस्तेमाल करना पूरापूरा आता है.

जब वोट डालने के लिए लोगों को फुसलाने की बात होती है, तो धर्म ही सब से ज्यादा कारगर साबित होता है. प्रकृति के नियमों का फायदा धर्म के दुकानदार उठा रहे हैं. प्रकृति ने तो सब को आजाद किया है. पशुपक्षी, नदीझरने, पहाड़पत्थर उन का तो कोई धर्म नहीं, कोई समाज नहीं, लाखों करोड़ों सालों से बस अपनाअपना कार्य कर रहे हैं.

नदी कभी नहीं पूछती कि ऐ झरने तू पहले बता कि किस पहाड़ से बह कर आया है वरना मैं तुझे अपने में नहीं समाऊंगी. और वह स्वयं सब झरानों का काफिला ले सागर के हृदय में समा जाती है. पहाड़ से टूटी चट्टान भी लुढ़क कर जहां रुक जाए, बस वही उस का ठिकाना हो जाता है. कोई पहाड़ उसे धकेलता नहीं. हवा अपना रुख मनमुताबिक तय करती है. आसमान, तारे, चांद, सूरज सब ही तो हैं जो हर धर्म, समाज को यथा योग्य कुछ दे रहे हैं.

सिर्फ हम मनुष्यों को ही धर्म, समाज, जाति, भाषा की आवश्यकता क्यों है? क्यों हम किसी पंडेपुजारी के बिना अपनी मनपसंद की पूजा नहीं कर सकते? यदि करें तो ये समाज के लोग तिरस्कृत क्यों करने लगते हैं? जबकि वे स्वयं नियम बनाते और स्वयं ही तोड़ते हैं.

ये सत्ता पिपासु लोग हैं. उन्हें डर है कि यदि लोग अपनी सुविधानुसार ऐसा करने लगेंगे तो उन की अहमियत कम हो जाएगी.

वैबसाइट्स के जरीए लूट रहे पाखंडी, इनका शिकार होने से बचें

पिछले कुछ सप्ताहों से हमारी पीपल्स फौर ऐनिमल्स की टीम उन धार्मिक औन लाइन वैबसाइटों को खंगाल रही थी, जिन में हिंदू धर्म के नाम पर बकवास भरी हुई है. जब से मुझे हठजोड़ी के बारे में पढ़ने को मिला है, जिसे चमत्कारी तावीज के नाम पर बेचा जा रहा है जो असल में गोह चमकी मौनिटर लिजर्ड का लिंग है और जिसे साइटों पर सेहत, धन, वशीकरण आदि पाने का उपाय मान कर बेचा जा रहा है, हम इसी बकवास के बेचे जाने के बारे में ढूंढ़ रहे हैं.

सियार सिंघी एक गीदड़ सींग के नाम पर बेची जा रही है. पहली बात गीदड़ वाइल्ड लाइफ प्रोटैक्शन एक्ट 1972 के अंतर्गत संरक्षित प्राणी है. दूसरी बात यह है कि सियार या गीदड़ के सींग होता ही नहीं है. लेकिन यह दावा किया जाता है कि जब गीदड़ सिर नीचा कर हुआंहुआं किए चीखता है तो उस के सिर पर एक सींग उग आता है और तभी उसे मारा जाए और यह सींग बालों सहित निकाल लिया जाए तो बाल हमेशा उगते रहेंगे. आप को उसे बस सिंदूर में रखना होगा.

इस से दुष्टात्माओं को दूर रखा जा सकता है. आप को पंडों को बुला कर इसे बीच में रख कर हवन कराना होगा और उस पर जो खर्च होगा, वह सहना होगा वरना यह चमत्कारी सींग काम न करेगा.

सिर्फ अंधविश्वास

यह बेहूदगी सिर्फ हिंदुओं में ही नहीं है. वरन मुसलमानों और बौद्धों में भी है. श्रीलंका में अनपढ़ लोग इस का तावीज बना कर इसे गले में पहनते हैं ताकि वे जुए में जीत सकें. नेपाल के थारू आदिवासियों में अंधविश्वास है कि अगर यह साथ हो तो अंधेरे में भी देखा जा सकता है और औरतों को वश में करा जा सकता है.

बंगाल में हठजोड़ी की तरह इसे तिजोरियों में रखा जाता है ताकि धनदौलत दिन दूनी रात चौगुनी हो जाए. यह बात दूसरी है कि जब तिजोरी के सामने पूजा की जाती है तो शातिर लोग पुजारी बन कर पैसा ही उड़ा कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं.

कुछ साइटों पर दावा किया जा रहा है कि बाइबिल में लिखा है कि सियारी शैतान की मां है और यदि सिंघी को साथ रखा जाए तो शैतान की मां शैतान को दूर रखती है.

घट रही है संख्या

सुनहरे सियार की 13 प्रजातियां होती थीं, जिन में से अब 7 बची हैं. यह कुत्ते की तरह वन पशु है, जो फल, कीड़े, पक्षी, चूहे आदि खा कर जिंदा रहता है. आमतौर पर नर मादा व बच्चे साथ एक परिवार की तरह झुंड में रहते हैं. पंचतंत्र में इन्हें होशियार व अक्लमंद जानवर मान कर इन पर कहानियां लिखी गई हैं. सियारों की आवाज को कईर् जगह शुभ भी माना जाता है.

सियारों को मार कर खाया भी जाता है पर इन की घटती संख्या का बड़ा कारण यह काल्पनिक सींग है. अब पुलिस इन वैबसाइटों को बंद कर के इन्हें चलाने वालों को पकड़ने की कोशिश कर रही है.

न फसें मायाजाल में

इस तिलिस्मी हड्डी के बहुत से गुण बताए जाते हैं, बशर्ते आप सही पूजा करवा लें. धन मिलेगा, केस जीतोगे, जीवनसाथी के साथ सुख पाओगे, स्वास्थ्य लाभ होगा, संपत्ति मिलेगी, डिप्रैशन समाप्त हो जाएगा. यही नहीं इस से बहुत सी गंभीर बीमारियां जैसे मानसिक रोग, औटिज्म, खाने में गड़बड़, पागलपन आदि भी दूर होंगी.

आप को बस सिंघी सामने रख कर मंत्र पढ़ने होंगे. इन वैबसाइटों पर अलगअलग धर्मों में अलगअलग मंत्र भी सुझाए गए हैं- मुमकरया कुरु कुक नम:, ओम पद्माश्रिम, ओम हरीओम.

पूर्व दक्षिण उत्तर पश्चिम, अधिक तरल पदार्थ सभी जन्य आज्ञाकारी कुरुकुरु नम: वगैरह पढ़ना जरूरी है. 1 बार नहीं 21 से 108 बार ये मंत्र जपने होंगे. और हां यदि इसी साइट पर बिक रही चमत्कारी मणियों की माला नहीं खरीदी तो यह सियार सिंघी काम नहीं करेगी.

महज बकवास है

मुसलमानों को बताया जाता है कि अल्लाह ने इस में खास ताकत भरी है. कुछ साइटों पर पैसा कमाने की और भी तरकीबें भी ठूंसी गई हैं. इन्हीं साइटों में बताया गया है कि इसे सियार सिंघी को पारे में रखने से इस की ताकत बढ़ जाती है और यह सिंघी पारे को खा लेती है.

यदि 21वीं सदी में भी लोग इस तरह की बकवास पर विश्वास करेंगे तो वे धनवान हों न हों पर बेचने वाले जरूर हो रहे हैं.

मेड नहीं लाइफलाइन कहिए : इनसे बेहतर तालमेल कैसे बनाएं

जिम में संध्या के साथ ट्रेडमिल पर वाक करते समय मैं ने शौपिंग का प्लान बना लिया. घर जा कर नहाई, नाश्ता किया और तभी संध्या का फोन आ गया. कहने लगी कि एक घंटा देरी से निकलेंगे. आज कामवाली नहीं आई है. थोड़ा रसोई और घर साफ कर लूं या फिर कल चलेंगे. यह बताते हुए वह बहुत दुखी थी और कह रही थी कि मेड छुट्टी लेती है, तो पहले से बताती भी नहीं.

मैं भी क्या करती एक घंटा देर से चलने के लिए राजी हो गई, क्योंकि अगले दिन मेरा डाक्टर का अपौइंटमैंट था. लेकिन अब हमारे पास शौपिंग के लिए समय कम था क्योंकि बच्चे स्कूल से आएं उस से पहले हमें वापस घर लौट कर आना था.

अनेक समस्याएं

अगले दिन मेरी कामवाली देरी से आई, लेकिन मुझे डाक्टर के पास जाना था, तो मैं बैडरूम लौक कर के घर की चाबी पड़ोसी के घर दे कर गई ताकि कामवाली आए तो ह रसोई और बाकी घर साफ कर दे. मुझे उसे अकेले घर में छोड़ना ठीक नहीं लग रहा था. पर मजबूरी थी क्योंकि हम एकल परिवारमें रहते हैं. यह समस्या आज लगभग हर घर में है. जहां नौकरियों और तबादलों के चलते संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, वहीं कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है. बच्चे, बूढ़े और जवान सभी घर में नौकरों पर निर्भर हैं.

साफसफाई करने से खाना बनाने तक का, बच्चा पालने से ले कर बुजुर्गों की देखभाल का काम घरों में कामवालियां कर रही हैं. जहां इन से सुविधाएं मिल रही हैं, वहीं इन से काम करवाने में अनेक समस्याएं भी हैं.

मेड और मैडम एकदूसरे के पूरक

मुंबई में रहने वाली रिया कहती हैं, ‘‘जब मैं गर्भवती थी. मेरे घर में काम करने वाली लड़की ने मेरा बहुत ध्यान रखा. जो काम मैं ने उसे नहीं दिया था, वह भी वह अपनेआप कर देती और सिर्फ इतना ही नहीं मेरी बेटी के जन्म के बाद जब मैं काम में व्यस्त होती तो वह उस के साथ खेलती और जब कभी मुझे बाहर का काम होता तो वह मेरे साथ जाती ताकि वह मेरी बेटी को संभाल ले और मैं अपना काम शांति से कर सकूं.

उस का व्यवहार देख कर हम ने उसे घर के सदस्य का दर्जा दिया. हमारे घर रिश्तेदार भी आते तो उसे फैमिली मैंबर जैसा सम्मान देते.

‘‘मैं स्वयं भी उस की पारिवारिक जरूरतों का खयाल रखती. हम दोनों एकदूसरे के पूरक हो गए. कुछ वर्षों में जब उस का विवाह हुआ तो हम ने उसे बेटी की तरह विदा किया और उस के परिवार की आर्थिक मदद भी की.’’

परिस्थिति के हाथों मजबूर हैदराबाद की रहने वाली कोमल कहती हैं, ‘‘मैं ने अपनी कामवाली को घर के सदस्य जैसा रखा. लेकिन जब दूसरी बेटी पैदा होने के बाद उसे रातदिन घर में रहने का काम दिया तो वह घर में चोरी करने लगी. शुरुआत रसोई में खाने की चीजें चुराने से की और धीरेधीरे उस की हिम्मत बढ़ने लगी.

‘‘एक दिन मौका पा कर उस ने मेरी अलमारी से सोने की चूडि़यां चुरा लीं. पुलिस में शिकायत की तो उस के बाद से मेरे घर में एक भी कामवाली काम करने के लिए तैयार नहीं थी.’’ तबादले के कारण चेन्नई गई मोहिनी कहती हैं, ‘‘भाषा सब से पहली समस्या है.

यहां हिंदीभाषी कामवालियां बहुत कम हैं, इसलिए डिमांड में हैं. उन का दिमाग सातवें आसमान पर रहता है. इसलिए थोड़ी तमिल सीख ली है.

‘‘कमर्शियल एरिया होने के कारण आसपास के अपार्टमैंट में कामकाजी महिलाएं ज्यादा हैं. अकसर एनआरआई यहां किराए पर रहने आतेजाते रहते हैं. कामवालियां बहुत डिमांड में हैं इसलिए आएदिन काम छोड़ कर चली जाती हैं. एक घर का काम छोड़ें तो 4 घरों में इन की डिमांड होती है. ‘‘विदेशों में हाथ से काम कर के आए लोगों के लिए कामवालियां एक लग्जरी है. इसलिए वे न सिर्फ उन्हें मुंहमांगी कीमत देते

हैं, बल्कि उन के खूब नखरे भी उठाते हैं. दिनबदिन इन की डिमांड बढ़ती जा रही है और उस का वे खूब फायदा भी उठा रही हैं. समय पर काम पर नहीं आना तो जैसे इन की आदत बन गई है.’’

पढ़ीलिखी हो मेड

यह समस्या आजकल आम महिलाओं के साथ है. सभी को घर में एक अच्छी, साफसुथरी, ईमानदार और समय पर आने वाली कामवाली की आवश्यकता है. लेकिन ये सभी गुण एक ही महिला में होना बहुत मुश्किल है.

आज की तारीख में ये हर घर की लाइफलाइन हैं, तो ऐसे में यह कोशिश होनी चाहिए कि चाहे तनख्वाह ज्यादा देनी पड़े लेकिन थोड़ी पढ़ीलिखी व अच्छे स्तर की मेड रखी जाए.

समस्या है तो समाधान भी

समस्याएं हैं तो समाधान भी हमें ही ढूंढ़ने पड़ेंगे. आखिर ऐसा क्या किया जाए कि हमें अच्छी कामवालियां मिलें. गौर फरमाइए कुछ पौइंट्स पर:

वे भी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं, उन्हें स्कूल भेज कर ही वे काम पर आ सकती हैं. समय पर पहुंचने के चक्कर में कई बार वे भूखी ही घर से निकल जाती हैं. कम से कम 1 कप चाय तो मैडम उन्हें पिला दें. वे यही आस रखती हैं.

वे भी अपने परिवार के साथ वक्त बिताना चाहती हैं. उन के बच्चे भी कभीकभी बीमार होते हैं या कभीकभी वे खुद भी. इसलिए उन के लिए भी पर्याप्त छुट्टियों का प्रावधान हो.

जिस तरह मैडम कभी बाहर जाती हैं तो वे टाइम ऐडजस्ट करती हैं. उसी तरह कभीकभी उन के लिए भी यह ऐडजस्टमैंट किया जाए. वे दफ्तर में नहीं घरों में काम करती हैं. कभी उन्हें भी पर्सनल काम होते हैं और वे छुट्टी भी नहीं खत्म करना चाहती हैं.

उन से अमानवीय व्यवहार न किया जाए. उन के साथ बोलचाल की भाषा सम्मानजनक हो.

कई बार मैडम घूमने के लिए एक सप्ताह या महीना भर बाहर जाती हैं. ऐसे में कामवाली की छुट्टियां और उन के पैसे न काटे जाएं. आखिर उन का घरखर्च आप के द्वारा दी गई तनख्वाह से ही चलता है.

क्योंकि इन की तनख्वाह बहुत कम है, इसलिए इन्हें तनख्वाह सही समय पर दी जाए.

यदि आप की कामवाली ईमानदार और अच्छे व्यवहार वाली है, तो उसे उस व्यवहार के बदले भी कुछ मिले वरना अच्छे व बुरे में क्या फर्क रह जाएगा.

महीना खत्म होने से पहले इन का पर्स खाली हो जाता है. लेकिन पेट की भूख सब को सताती है. अत: कभीकभी ऐडवांस या कुछ मदद की जाए.

प्राकृतिक आपदाएं जैसे बाढ़, सूखा, भूकंप आदि में इन के घर तहसनहस हो जाते हैं, इसलिए ऐसी आपदाओं के समय इन के घरों को बसानेबनाने हेतु मदद की जाए.

साल में एक बार इन्हें बोनस जरूर दिया जाए ताकि वे अपने खानेपीने के खर्च के अलावा अपनी जरूरत का कुछ सामान भी खरीद सकें.

घरों में काम करने वाली बाइयों के लिए पीएफ या मैडिकल इंश्योरैंस जैसी कोई सुविधा नहीं होती जबकि दूसरे और्गेनाइज्ड सैक्टर में लेबर के लिए यह सुविधा होती है. इस के लिए दवा आदि के पैसे दे दिए जाएं.

कई बार देखा गया है कि मैडम इन के काम से संतुष्ट न हो या जरूरत न हो तो दूसरी ढूंढ़ कर इन्हें काम से निकाल देती हैं, जिस से इन के खर्च पर असर पड़ता है. यदि ऐसा हो तो इन्हें कुछ अतिरिक्त रुपए दे कर निकाला जाए ताकि इन के घरखर्च पर बुरा असर न पड़े.

परफौर्मैंस दें टिकट लें : चुनावी सेल का खेल

जब से अंगरेजी के ‘परफौर्मैंस’ शब्द ने हिंदी के बाल पकडे़ हैं, तब से सड़क से ले कर संसद तक सब एकदूसरे से इस के सिवा कुछ और मांग ही नहीं रहे हैं. इस शब्द का मतलब चाहे पता हो या न हो, वे संसद में हर एक से ईमानदारी, देशभक्ति, त्याग, जनसेवा मांगने के बदले ‘परफौर्मैंस’ को मांगतेमांगते अपना गला सुखाए जा रहे हैं, तो घर में बाप अपने बेटे से ‘परफौर्मैंस’ पर ‘परफौर्मैंस’ मांगते हुए दिमागी बुखार किए जा रहा है, ‘‘अस्पताल में जब औक्सिजन नहीं मिलेगी, तो निकलेगी सारी हेकड़ी. देख बेटा, कुछ भी ले ले, पर मुझे ‘परफौर्मैंस’ चाहिए बस. जो करना है कर, जैसे करना है कर…’’

चाहे बेटा अपनी जवानी को दांव पर लगा कर बाप को कितना भी अच्छा कर के क्यों न दिखा दे, पर एक असंतुष्ट बाप है कि उस से रत्तीभर भी संतुष्ट नहीं होता है, ठीक पार्टी के बाप की तरह. उसे सबकुछ करने के बाद भी लग रहा है कि उस का बेटा और तो सबकुछ दे रहा है, पर ‘परफौर्मैंस’ वैसी नहीं दे रहा, जैसी उसे देनी चाहिए.

अरे बापजी, अब बेटे को मार डालोगे क्या? अरे भैयाजी, पार्टी वर्कर को अब मार डालोगे क्या? पार्टी में रह कर उन्हें भी कुछ खाने दो. हमाम में तनिक नंगा नहाने दो, वरना कल को हमाम ही बंद हो गए, तो नंगे नहाने की इच्छा मन में ही दबी रह जाएगी.

जनसेवक हो कर अपने बाथरूम में नंगे नहाए, तो क्या नहाए? नंगे नहाने का जो सामूहिक मजा हमाम में है, वैसा अकेले बाथरूम में नहाने में कहां? पार्टी के हिसाब से तनिक ढील दें, अपने हिसाब से थोड़ीबहुत ही सही, इन्हें भी जीने दो, खानेपीने दो. बंदा जब हराम की खाएगा, तभी तो पार्टी का झंडा शान से उठा कर चल पाएगा.

भैयाजी आए थे. वे बहुत गुस्से में थे. गुस्से में रहना उन का भाव है, उन का स्वभाव है. यह दूसरी बात है कि जब उन के क्लास लगाने के दिन थे, उन दिनों क्लास से तो छोडि़ए, वे स्कूल से ही महीनोंमहीनों गायब रहते थे. उन का बाप आ कर मास्टर साहब के आगे अपनी नाक रगड़ कर उन का रीएडमिशन करा जाता था बेचारा. वे नहीं सुधरे तो नहीं सुधरे.

बेचारे बाप की नाक रगड़रगड़ कर नाक से ‘क’ रह गई. पर अब वे जहां भी जाते हैं, पार्टी वर्करों की क्लास पर क्लास लगाते हैं. जब देखो, क्लास लगाने में बिजी. जब देखो, पूरे दमखम के साथ क्लास लगाने में मस्त.

कल उन्होंने आते ही मेरी क्लास ली. गुस्सा आने से पहले ही वे मुझ पर बरसते हुए बोले, ‘‘और… यह क्या चल रहा है सब?’’

‘‘भैयाजी, पार्टी का नाम कमा रहा हूं. ईवीएम में अपने ‘टच’ के लिए जनता के बीच अपने को दिनरात खपा रहा हूं.’’

‘‘पार्टी का नाम कमा रहे हो या पार्टी की नाक पर बैठ कर अपना नाम कमा रहे हो?’’ वे भादों के घन समान गरजे. हुंकार ऐसी कि क्लास के बाहर उन की पार्टी के नेताओं को भी सुनाई दी, तो वे अपना बोरियाबिस्तर इकट्ठा करने की सोचने लगे.

भैयाजी भैयाजी हैं या बब्बर शेर, यह उन्हें भी नहीं मालूम. बस, आदमी होने के बाद भी बब्बर शेर हो, तो हम जैसे गीदड़ों पर दहाड़ ही लेते हैं.

‘‘यह क्या अनापशनाप सुन रहा हूं तुम्हारे बारे में?’’ उन्होंने पानी का गिलास खुद पीने के बदले मेरी ओर बढ़ाया, तो मैं परेशान.

‘‘आप को कहीं से गलत जानकारी मिली होगी भैयाजी. मैं तो तनमन से पार्टी को समर्पित हो कर सोएसोए भी जनहित में काम कर रहा हूं,’’ मैं ने अपने दोनों हाथ जोड़े. वे शांत होने के बदले और दहाड़े. लगा कि कहीं कोई जरूर बहुत बड़ी गड़बड़ है, क्योंकि छोटीमोटी गड़बड़ तो पार्टी में दिनरात चलती रहती है.

असल में हम पार्टी में रह कर देश की लड़ाई उतनी नहीं लड़ते, जितनी अपनेअपने वजूद की लड़ाई लड़ते रहते हैं.

‘‘तो बताओ, तुम ने इन सालों में क्याक्या किया? अपना रिपोर्टकार्ड दिखाओ? वे तो कह रहे हैं कि… देखो बंधु, हमें ‘परफौर्मैंस’ चाहिए बस. वे दे सकते हो तो दो, वरना अगले चुनाव में अपना टिकट साफ हुआ समझो,’’ वे घुड़के.

‘‘भैयाजी, इन सालों में मैं ने पार्टी की कसम, अपने लिए कुछ नहीं किया. अपना कोई भी रिश्तेदार सरकारी नौकरी में नहीं लगाया, न ही किसी अपने गधे रिश्तेदार का डाक्टरी में एडमिशन दिलाया. न ही अपना कहीं कोई एक भी प्लाट खरीदा. किसी कंपनी में मैं ने अपनी बीवीबच्चों के नाम से कोई गुपचुप साझेदारी भी नहीं की.

‘‘इतना ही नहीं, मैं ने कभी किसी कारोबारी को भी नहीं धमकाया. किसी बलात्कारी को नहीं बचाया. अपने घर की रोटी को छोड़ कर मैं ने किसी का टुकड़ा तक नहीं खाया.

‘‘बाहर के बैंक में तो छोडि़ए, मेरा अपने देश के बैंक में भी वही एक पुराना खाता चल रहा है. यकीन नहीं है तो… जोकुछ मेरे पास है, सब पार्टी जौइन करने के वक्त का है. यह जो मैं ने कुरतापाजामा पहन रखा है, वह भी ससुराल वालों का दिया हुआ है.

‘‘मैं और बीवी एक ही चप्पल पहनते हैं. यह सब बस इसलिए कि… जनता में जो हमारी पार्टी की इमेज खराब हो चुकी है, उसे एक बार फिर बनाया जाए…’’

‘‘यही तो शिकायत आई है तुम्हारी. इन्हीं बातों को ले कर तो पार्टी हाईकमान तुम से नाराज हैं. पार्टी दफ्तर में तुम्हारी शिकायतें लगातार आ रही हैं कि बंदा… अरे, हम राजनीति में जनकल्याण करने को थोडे़ ही आते हैं. हम तो बस नारा जनकल्याण का लगाते हैं और जनता के पैसे पर सरेआम डांसरों के साथ मंचों पर झूमतेगाते हैं.

‘‘हम राजनीति में आ कर जनता की भलाई नहीं करते, बल्कि अपने कल्याण के लिए पैदा हुए जीव हैं. हमें तीनों लोकों में राज करना है, इसलिए जनता की सोचने के बदले पार्टी की सोचो. पार्टी है तो हम हैं.

‘‘ऐसा सुनहरी मौका फिर नहीं मिलने वाला. विपक्ष को हमेशाहमेशा के लिए चित करना है. अगर अगली बार भी टिकट चाहते हो, तो पार्टी के लिए जीजान से काम करो बरखुरदार, पार्टी के लिए.

‘‘जनता को तो स्वर्ग में भी भेज दो, तो भी वह भूख, भय, भ्रष्टाचार ही चिल्लाती रहेगी. हमें साम, दाम, दंड, भेद जैसे भी हो, पार्टी के लिए ‘परफौर्मैंस’ चाहिए बस. लोकतंत्र में जवाबदेही जनता के लिए नहीं, पार्टी के लिए ही बनती है.

‘‘अगली दफा फिर टिकट लेना हो तो… आज का लोकतंत्र सिविक सैंस का नहीं, पार्टी  परफौर्मैंस का है मेरे भोले कार्यकर्ताजी, समझे तो ठीक, वरना टिकट कटा.’’

‘‘मैं सब समझ गया भैयाजी…’’ और मेरी क्लास खत्म हुई.

सफेद बाल मुरदाबाद : रिटायरमेंट से पहले की कहानी

जैसे ही उन के जनरल प्रोविडैंट फंड के कागज आए, वैसे ही वे दफ्तर की फाइलों की ओर से भी लापरवाह हो गए. ऐसी लापरवाही कि फाइलों से उन का जैसे कभी कोई रिश्ता ही न रहा हो. उन की मेज पर फाइलों का ढेर हर रोज उन के कद से ऊंचा होता जा रहा था, पर वे बेफिक्र. जो आएगा, वह उन के इकट्ठा किए गए गंद में सड़ता रहेगा.

वे सुबह ठुमकठुमक करते दोपहर के 12 बजे तक दफ्तर पहुंचते और जिस किसी को भी सीट पर तनिक गरदन उठाए देखते, उसी के पास गपें मारने हो लेते. किसी का उन के साथ गपें मारने का मन हो या न हो, इस से उन्हे कोई लेनादेना न होता.

जिन फाइलों की उलटापलटी की बदौलत उन्होंने बाबू होने के बाद भी शहर में 4-4 प्लौट खरीदे, बीसियों कंपनियों के हिस्से खरीदे, उन फाइलों से उन की बेरुखी देखने के काबिल थी.

जैसे ही 1 बजता, वे सब से पहले कैंटीन में आ जाते और इंतजार करते रहते कि कोई आए, तो वे उस को 4 बजे तक जैसेतैसे अपनी गपों में लगाए रखें.

आज उन के जाल में शायद मेरा फंसना लिखा था. दफ्तर आतेआते बिल्ली रास्ता काट गई थी, सो जान तो मैं पहले ही गया था कि आज दफ्तर में कुछ अनहोनी होगी, पर मेरे साथ इतना बुरा होगा, ऐसा मैं ने कभी नहीं सोचा था.

कैंटीन में फंसा मैं जब भी उन के पास से उठने की नाकाम कोशिश करता, तो वे कुछ खाने को मंगवा देते और सरकारी लालची कबूतर एक बार फिर पेट भरा होने के बाद भी दाने के लालच में उन के जाल में जा फंसता.

जब मेरा पेट हद से ज्यादा भर गया, तो और मेरे कान उन की बेहूदा बातें सुन कर पक गए, तो मैं ने कैंटीन के दरवाजे की ओर देखा कि कोई दफ्तर से चाय पीने आता, तो मैं उसे इन के हवाले कर इन से छुटकारा पाता.

पर जब दफ्तर से कोई आता न दिखा, तो सच कहूं कि पहली बार मुझे अपने हाल पर रोना आया और मैं ने उन को हद से ज्यादा झेलने के बाद उन से यों ही पूछ लिया, ‘‘मोहनजी, अब रिटायरमैंट के बाद आप का क्या करने का इरादा है? रिटायरमैंट के बाद आप को कोई याद आए या न आए, पर आप की सीट पर काम कराने आने वाले आप को बेहद याद आएंगे. बेचारों को आप ने इस तरह निचोड़ा है कि अगले कई जनमों तक अगर वे इसी देश में पैदा होंगे, तो किसी सरकारी दफ्तर में जाने से पहले सौ बार सोचेंगे.’’

‘‘करूंगा क्या? अब इश्कविश्क करने से तो रहा. घुटने तो घुटने, दिल तक को गठिया हो गया है. यह तो थोड़ाबहुत दफ्तर में…

अब बीवी की सेवा करूंगा, ताकि मरने से पहले उस के कर्ज से छुटकारा पा जाऊं. बेचारी ने किसी भी मन से सही, मेरी बहुत सेवा की है. कहीं ऐसा न हो कि अगले जनम में भी उसी से पाला पड़े,’’  कह कर उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, मानो उन के मुंह में किसी ने नीम के पत्तों का गिलास भर रस उड़ेल दिया हो.

‘‘अगर बुरा न मानो, तो मैं आप को रिटायरमैंट के बाद ए बेहतर धंधे की सलाह दे सकता हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘यार प्रदीप, बहुत कर लिया दफ्तर में रहते हुए धंधा. यह 35 सालों तक मैं ने धंधे के सिवा और किया ही क्या है?’’

‘‘मेरी मानो, तो अपने महल्ले में मोबाइल रीचार्ज की दुकान खोल लेना. सारा दिन आराम से कट जाएगा और इस बहाने जाती जवानी भी रुक जाएगी.’’

‘‘हमारे महल्ले में पहले से ही 4-4 रिटायरी इस धंधे में जमे हैं. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि…’’

‘‘तो ऐसा करो कि हेयर डाई की दुकान खोल लेना. वैसे भी मैं ने नोट किया है कि ज्योंज्यों हम जैसों की उम्र के बंदों के गाल अंदर को धंसते जा रहे हैं, वे सिर से ऐसे दिखते हैं मानो उन के सिर पर अभीअभी बाल आने शुरू हुए हैं. आज के सिर हैं कि उन्हें अपने पर एक भी सफेद बाल पसंद ही नहीं.

‘‘आज के जमाने का कोई सब से बड़ा दुश्मन है, तो वे हैं सफेद बाल. आज का आदमी उतना परेशान किसी से नहीं, जितना इन सफेद बालों से है. वह मौत का सामना खुशी से कर सकता है, पर सफेद बालों के आगे अपनेआप को बहुत कमजोर पाता है.

‘‘आदमी को उतनी परेशानी रोटी न मिलने पर भी नहीं होती, जितनी परेशानी आईने के आगे खड़े हुए अचानक सिर पर एक सफेद बाल दिखने पर होती है. सिर में एक सफेद बाल दिखते ही उसे लगता है, मानो उस पर मुसीबतों का एक पहाड़ नहीं टूटा, बल्कि कई टूट पड़े हैं,’’ किसी बाबा की तरह उपदेश देते हुए मेरा गला सूख गया था, सो पानी का घूंट ले कर मैं ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘मोहनजी, इधर सफेद बाल सिर में दिखा और उधर डाई बनानेबेचने वालों की फसल कटनी शुरू. कई तो मैं ने ऐसे भी देखे हैं, जो सिर पर बाल न होने के बाद भी गंजे सिर पर ही कालिख मल लेते हैं.

‘‘ये अपने साहब देखे? सिर के तो सिर के, छाती तक के बाल काले कर के दफ्तर आने लगे हैं, ताकि अपनी शर्ट के बटन दिसंबर में भी खुले रख कर खुद को जवान होने के एहसास में डुबोए रहें. उन के दाढ़ीमूंछों के रंगे बालों को देख कर तो नौजवानों के ओरिजनल काले बालों तक को शर्म आ जाती है.

‘‘मैं जब आप की बेटी की शादी में गया था, तो अपनी दादी की उम्र की आप की महल्ले वालियों के रंगे बालों को देख कर दंग रह गया था. लगा था, आप का महल्ला तो जैसे जवानों का महल्ला हो. उन के बूढ़ी होने का पता तब चला था, जब वे कमर पर हाथ रख कर जैसेतैसे वरवधू को आशीर्वाद देने के लिए उठी थीं.

‘‘सच कहूं, आज के आदमी के पास रोटी के लिए पैसे हों या न हों, पर वह बाल डाई करने के लिए पैसे का जोड़तोड़ कर ही लेता है.

‘‘मेरा बस चले तो मैं टांगों तक के सफेद बाल रंग कर ही सांस लूं. आने वाले दिनों में देखना जो बिना डाई किए बालों के मरेंगे, उन्हें स्वर्ग के तो स्वर्ग के नरक तक के ताले नहीं खुलेंगे मिलेंगे. पता है पिछले हफ्ते अपने महल्ले में क्या हुआ था?’’

‘‘क्या हुआ था?’’ यह पूछते हुए मोहनजी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘महल्ले के सौ साल के एक बुजुर्ग गुजर गए.’’

‘‘तो क्या डाक्टरों के मरा बताने के बाद भी वे दोबारा जिंदा हो उठे?’’

‘‘नहीं, अब हम डाक्टरों पर विश्वास कम ही करते हैं… जब उन्हें देवभूत लेने आए, तो उन के सफेद बालों को देख कर उन्हें ले जाने से साफ मुकरते हुए बोले, ‘माफ करना, हम इन्हें नहीं ले जा सकते.’

‘‘गाड़ी अपनी कर दें क्या भैया? तुम ऊपर बिल अपना दे देना,’’ हम ने उन के आगे गिड़गिड़ाते हुए कहा. सभी को अपनेअपने घर जाने को देर जो हो रही थी. अब यहां लोगों के पास जिंदों के लिए वक्त नहीं, तो मरे हुए के साथ कौन रहे?

‘‘देवभूतों ने चाय पीतेपीते कहा. ‘ये नहीं चलेंगे. नरक में भी नहीं,’

‘‘क्यों नहीं चलेंगे? सौ साल का बंदा ऊपर ही तो चलता है.’’

‘‘यह सुन कर वे बोले, ‘तो ऐसा करो, अगर तुम इन से छुटकारा पाना चाहते हो, तो पहले इन के सफेद बाल डाई कराओ. साहब तक को सफेद बाल वालों से सख्त नफरत है.

‘‘‘जब हम कोई सफेद बाल वाली आत्मा ले जाते हैं, तो वे हमें न सुनने लायक गालियां यह कहते हुए देने लग जाते हैं कि मृत्युलोक से क्या गंद उठा लाए. कितनी बार कहा कि खूबसूरती भी कोई चीज होती है कि नहीं?’’’

इतना सुन कर मोहनजी ने मेरी पीठ थपथपाई और खुद ही मेरे पास से उठ कर मंदमंद मुसकराते हुए घर की ओर हो लिए.

सोने की खरीदफरोख्त पर सरकार का तानाशाही हमला

सोने के गहने खरीदने का हक हर औरत का एक बुनियादी हक है. यह न केवल उस के व्यक्तित्व को बल देता है, यह वह संपत्ति है जिसे वह पति, सास, बच्चों से छिपा कर रख सकती है, चुपचाप खरीद कर आड़े समय बेच सकती है. जिस औरत के पास सोना है, स्वाभाविक है या तो उस ने अपनी कमाई से खरीदा होगा या पति अथवा पिता की कमाई से.

काले धन पर अंकुश लगाने के नाम पर अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी को यह हक वोटरों ने हरगिज नहीं दिया कि वे औरतों के इस मूलभूत हक को छीन लें. अब जो नियम आयकर और सोने की बिक्री के लिए बने हैं उन में क्व50 हजार की सोने की खरीद से ज्यादा पर खरीदार महिला को घर का पूरा चिट्ठा दुकानदार को देना होगा ताकि वह सैकड़ों अफसरों की फाइलों में जमा हो सके. औरत की निजी प्राइवेट सुरक्षा को कानून की एक कलम से कुचल दिया गया है.

यह असल में औरतों के आर्थिक बलार की श्रेणी सा है. आज नकदी तो सुरक्षित है ही नहीं, अब सोना भी औरत की सुरक्षा नहीं रहा है. नोटबंदी के बाद सरकार की हिम्मत बढ़ गई है कि वह औरतों की साडि़यों के पीछे छिपी नकदी को या तो रंगीन कागज बना सके या उसे बदलवाने के लिए लाइनों में खड़ा होने को मजबूर कर सके और उस की छिपी संपत्ति का रहस्य खुलवा सके. ऊपर से सोने की खरीदफरोख्त पर तानाशाही हमला कर के सरकार ने नादिर शाह की लूट को भी कम कर दिया है, तब कम से कम जमीन में गड़ा धन तो बचा था पर अब सरकार ने उसे भी बेकार कर दिया है.

इस त्योहार के सीजन में भी सोने की बिक्री पहले से आधी रह गई है यानी औरतों की आर्थिक सुरक्षा एकदम कम हो गई है. औरतों को इस से मतलब नहीं कि उन के पिता या पति ने पैसा पूरा टैक्स दे कर कमाया है या नहीं. उन के हाथ में पैसा और उस से खरीदा जेवर उन की शान भी बढ़ाता है, उन्हें सुरक्षा भी देता है. आज इन औरतों को मनमाने तानाशाही कानूनों के कारण नकली गहने पहनने पड़ रहे हैं और उन का जीवन स्तर का प्रदर्शन करने का अवसर छीन लिया गया है.

ज्यादातर औरतों को इस कानून का अभिप्राय अभी समझ नहीं आया है कि सोना आज भी सुरक्षा की सब से बड़ी गारंटी है और औरतें ही नहीं दुनिया की सारी सरकारें भी सोने के भंडार अपनी अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के रूप में रखती हैं. आम औरत से यह अधिकार छीनना अत्याचार है.

अगर नहीं की सस्ते इयरफोन से तौबा, तो हो जाएंगे बहरे

हममें से अधिकांश लोग महंगे इयरफोन खरीदने से बचते हैं और ज्यादातर लोग तो सड़क के किनारों पर लगी दुकानों से ही सस्ते हेडफोन या इयरफोन खरीद लेते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि आखिर क्यों ब्रांडेड इयरफोन पर 400-500 या इससे ज्यादा रुपए खर्च किया जाए जबकि सड़क किनारे यह सिर्फ 50 या 100 रुपए में ही आसानी से मिल रहा है. सस्ते इयरफोन की साउंड क्वालिटी भी इतनी खराब नहीं है. लेकिन आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यदि आप भी इस तरह के इयरफोन का इस्तेमाल कर रहे हैं तो यह सौदा आपको काफी महंगा पड़ सकता है. जी हां, अगर आप बहरेपन का शिकार नहीं होना चाहते तो अपनी यह आदत जल्द हा बदलें. चलिये आज हम आपको बताते हैं कि सस्ते इयरफोन से आखिर क्या परेशानी हो सकती है और आप कैसे अपने सुनने की क्षमता को इसके इस्तेमाल से खो सकते हैं.

स्ट्रीट साइड इयरफोन में आमतौर पर बहुत अधिक डिस्टार्शन होता है. यानी सीधी भाषा में कहें, तो आप जो आवाज सुनना चाहते हैं, वह साफ नहीं सुनाई देती है. इसके लिए आप गाने का वौल्यूम तेज कर देते हैं, ताकि आपको आवाज साफ सुनाई दे और इसका नतीजा आपके सुनने की क्षमता पर पड़ता है. तेज आवाज से आपके कान के पर्दे स्थायी रूप से खराब हो सकते हैं. आवाज सुनने की अधिकतम सीमा 85 डेसिबल है. लिहाजा, जब आप इससे तेज आवाज में लंबे समय तक गाना सुनते हैं, तो आपके कानों पर इसका असर पड़ता है और आपके सुनने की क्षमता में धीरे धीरे कमी आ जाती है.

एमपी3 प्लेयर के साथ सड़क के किनारे मिलने वाले औसत दर्जे के इयरफोन की आवाज 115 डेसिबल तक जा सकती है. रोजाना 15 मिनट तक इतनी तेज आवाज में गाने सुनने से कान में स्थाई रूप से क्षति हो सकती है.

सस्ते इयरफोन बनाने वाले इसके उत्पादन में अधिक समय और मेहनत नहीं करते हैं. इनकी फिटिंग भी खराब होती है. लिहाजा आवाज को साफ सुनने के लिए आपको आवाज तेज करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जो लंबे समय में आपके सुनने की क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित करती है. ऐसे में आपको सस्ते इयरफोन को छोड़कर अच्छे क्वालिटी के इयरफोन को अपनाना चाहिये ताकि आप अपने कानों को इस समस्या से बचा सकें.

उड़ने में सक्षम टैक्सियों के विकास के लिए उबर ने मिलाया नासा से हाथ

उड़ने वाली टैक्सियों के बारे में आपने काफी सुना होगा. लेकिन अगर यह सच हो जाए तो कैसा रहेगा, सोचिये जरा? आपको लग रहा होगा कि हम ये क्या कह रहे हैं तो आपकी जानकारी के लिए बता दें कि एप से टैक्सी बुक करने की सुविधा देने वाली कंपनी उबर (UBER) ने उड़ने में सक्षम टैक्सियों के विकास की संभावनाएं तलाशने के लिए अमेरिका के प्रमुख अंतरिक्ष संगठन नासा (NASA) से हाथ मिलाया है.

अगर सब कुछ सही रहा तो आपका यह ख्वाब जल्द ही हकीकत में तब्दील हो जाएगा और आप जल्द ही फ्लाइंग टैक्सी में सफर कर सकेंगे.

उड़ान भरने वाली टैक्सी से यात्रा करने के उन टैक्सियों का किराया पहले जैक्सा के किराये जितना ही होगा, यानी कि इसका किराया सामान्य टैक्सी यात्रा के किराये के बराबर ही रखा जाएगा. इसका मतलब यह हुआ कि किसी प्रकार का अतिरिक्त चार्ज दिये बगैर ही आप जल्द ही इस उड़ने वाली टैक्सी की सेवा ले सकेंगे.

उबर ने एक बयान में कहा, ‘उबर एयर पायलट योजना में लास एंजिलिस भी भागीदार होगा. इससे पहले डलास फोर्ट-वर्थ, टेक्सास और दुबई इसमें शामिल हो चुके हैं.

उबर ने ने आगे कहा कि नासा की यूटीएम (मानवरहित यातायात प्रबंधन) परियोजना में उबर की भागीदारी कंपनी के 2020 तक अमेरिका के कुछ शहरों में उबर एयर की विमान सेवा एक्सपेरिमेंट के तौर पर शुरू करने के लक्ष्य को पाने में मदद करेगी.

आपको बता दें कि उबर नासा के साथ अन्य तरह की संभावनाओं को भी तलाश रहा है इसी के साथ शहरी हवाई यातायात के नए बाजार को लेकर भी उसने खुला रुख अपना रखा है.

तो इसलिए बिहारी बाबू ने आज तक नहीं देखी ‘शोले’ और ‘दीवार’

बौलीवुड एक्टर शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने बौलीवुड करियर की शुरुआत सपोर्टिंग रोल निभाते हुए की थी लेकिन जल्द ही वह बड़े पर्दे पर खलनायक के तौर नजर आने लगे. उन्होंने कई फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई लेकिन उनकी एक्टिंग को देखते हुए और दर्शकों के बीच उनके लिए बढ़ते हुए प्यार को देखते हुए निर्देशक निर्माताओं को उन्हें हीरो की भूमिका में दिखाना पड़ा और इस तरह वह खलनायक से नायक बन गए. उन्होंने अपने फिल्मी करियर में कई फिल्मों में काम किया लेकिन दीवार और शोले फिल्म में काम न कर पाने का अफसोस उन्हें आज भी है.

शत्रुघ्न ने कहा, ‘ये फिल्में ना करने का अफसोस मुझे आज भी है लेकिन इस बात की खुशी है कि इन्हीं फिल्मों ने मेरे दोस्त को स्टार बना दिया. यह फिल्में ना करना मेरी गलती थी और इस गलती को ध्यान में रखते हुए मैंने कभी भी इन दोनों फिल्मों को नहीं देखा.’

अपने मशहूर डायलाग ‘खामोश’ को लेकर सिन्हा ने कहा, ‘अब लगता है कि हम सब खामोश हो गए हैं. देश में जो माहौल चल रहा है, उसमें सब कोई खामोश है.’

वहीं, फिल्मों में विलन के रोल से अपनी पहचान बनाने पर शत्रुघ्न ने कहा, ‘मैंने खलनायक के रोल निभाकर कुछ अलग किया. मैं पहला विलन था जिसके पर्दे पर आते ही तालियां बजती थीं. ऐसा कभी नहीं हुआ था. विदेशों के अखबारों में भी यह आया कि पहली बार हिंदुस्तान में एक ऐसा खलनायक आया है जिस पर तालियां बजती हैं. अच्छे-अच्छे विलन आए लेकिन कभी किसी का तालियों से स्वागत नहीं हुआ. यही तालियां मुझे निर्माताओं और निर्देशकों तक ले गईं.’

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