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क्या राहुल गांधी इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?

राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना लगभग तय ही था. जब पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव की घोषणा हुई, उससे भी बहुत पहले से. हालांकि अभी सिर्फ नामांकन पत्र ही दाखिल हुए हैं, कई औपचरिकताएं बाकी हैं, लेकिन अब यह सब ज्यादा महत्व नहीं रखता, क्योंकि इस मैदान में अब वे अकेले ही हैं. एक दूसरी तरह से देखें, तो कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी उपाध्यक्ष पद पर रहते हुए इस समय वही भूमिका निभा रहे हैं, जो पार्टी अध्यक्ष को निभानी चाहिए. स्वास्थ्य या किन्हीं अन्य निजी कारणों से पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी अब पहले की तरह सक्रिय नहीं हैं.

गुजरात में चल रहे विधानसभा चुनावों को ही देखें, तो वहां के तूफानी दौरे पार्टी के बड़े नेताओं में सिर्फ राहुल गांधी ही कर रहे हैं. सिर्फ भूमिका और सक्रियता के स्तर पर ही नहीं, बल्कि पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में स्वीकार्यता के लिहाज से भी वे इस समय देश के सबसे पुराने और दूसरे बड़े राजनीतिक दल के सबसे बड़े नेता तो हैं ही. और बात सिर्फ कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की ही नहीं है, विरोधी दलों के सर्वोच्च स्तर के नेता इस समय जिस तरह उन पर टिप्पणियां कर रहे हैं, वह यही बताता है कि उन्हें सभी ने कांग्रेस के सबसे बड़े नेता के रूप में स्वीकार कर लिया है.

बेशक, उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने की टाइमिंग पर सवाल जरूर उठाए जा सकते हैं. लेकिन यह भी सच है कि उन्हें जब भी अध्यक्ष बनाया जाता, टाइमिंग का सवाल उठना ही था. इतना जरूर है कि इस समय इसे गुजरात चुनाव से जोड़कर देखा जाएगा. हालांकि पार्टी के लिए यही उपयुक्त समय भी है, क्योंकि चुनाव के बाद अगर उन्हें अध्यक्ष बनाया जाता, तो उसे चुनाव की सफलता-असफलता से जोड़कर देखा जाता. उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया जाना भले ही एक औपचारिकता हो, लेकिन उनके सामने जो चुनौतियां खड़ी हैं, बहुत महत्वपूर्ण हैं.

सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि उन्हें उन लक्ष्यों की ओर बढ़ना है, जो पिछले कुछ साल में पार्टी के हाथ से फिसल गए हैं. बहुत से उस दौर में ही फिसले हैं, जब वे खुद पार्टी के उपाध्यक्ष थे. वे उस दौर में पार्टी में सक्रिय हुए हैं, जिसे कांग्रेस का पतझड़ काल कहा जा सकता है. पतझड़ के इस घनीभूत दौर से पार्टी को नई बहार की ओर ले जाना फिलहाल तो असंभव सा दिखता है. राजनेताओं की असली परीक्षा असंभव को संभव बनाने में ही होती है. खुद राहुल गांधी भी समझते होंगे कि यह बहुत आसान नहीं है. वह भी उस दौर में, जब देश का राजनीतिक यथार्थ काफी बदल चुका है.

देश के बड़े राज्यों में कांग्रेस जिस जमीन पर खड़ी होती थी, वह अब उसके पांवों के नीचे से खिसक चुकी है. यानी पुरानी स्थिति पर पहुंचने के लिए कांग्रेस को नए सिरे से अपनी जमीन तैयार करनी है.उम्मीद है कि इन चुनौतियों के साथ ही राहुल गांधी को यह एहसास भी होगा कि सोशल मीडिया पर चलने वाली छवि निर्माण की लड़ाई में उनकी पार्टी न सिर्फ काफी पिछड़ चुकी है, बल्कि उसे एक हद तक शिकस्त भी मिल चुकी है.

खुद राहुल गांधी को उपहास का पात्र बनाने के यहां नित नए प्रयास होते हैं और पार्टी उनका माकूल जवाब देने में नाकाम रही है. अब पार्टी अध्यक्ष के तौर पर उन्हें अपना कद इतना बढ़ाना होगा कि ये सारे उपहास बौने पड़ जाएं. कांग्रेस अगले या उससे अगले आम चुनाव में सत्ता में आती है या नहीं, हमारे लिए यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है. भले ही कांग्रेस विपक्ष में रहे, लेकिन एक अखिल भारतीय दल के रूप में अगर वह मजबूत होती है, तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत होगा. क्या राहुल गांधी इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?

सौदामिनी (अंतिम भाग) : क्या यही जिंदगी रह गई थी सौदामिनी की

रईस दद्दा ने सौदामिनी के लालनपालन में कहीं कोताही नहीं की थी लेकिन अनुशासन में बंधी वह न ज्यादा पनप पाई न ही पढ़लिख पाई. मृदुल जैसा सच्चा प्रेमी मिला लेकिन छीन लिया गया. आदित्य के पल्ले से बांध दी गई जिस ने पत्नी होने का उसे अधिकार कभी दिया ही नहीं. सास ने घर की मानमर्यादा के नाम पर उस की जबान बंद कर दी. क्या सौदामिनी ने अपने साथ होते अन्याय के आगे हथियार डाल दिए?

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सौदामिनी (पहला भाग)

कोई एक बरस बाद राय साहब ने अपनी लाड़ली बेटी को पीहर बुलवा भेजा था. रोजरोज बेटी को मायके बुलाने के पक्ष में वे कतई नहीं थे. आदित्य के साथ सजीधजी सौदामिनी मायके आई तो राय साहब कृतकृत्य हो उठे. रुके नहीं थे आदित्य, बस औपचारिकता निभाई और चले गए. राय साहब ने भी कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी थी. धनदौलत की तुला पर बेटी की खुशियों को तोलने वाले दद्दा ने उस के अंतस में झांकने का प्रयत्न ही कब किया था? जितने दिन सौदामिनी पीहर में रही, अम्मा, बाबूजी रोज उसे बुलवा भेजते थे. वह कभी कुछ नहीं कहती थी. बस, अपने खयालों में खोई रहती. आखिर एक दिन अम्मा ने बहुत कुरेदा तो वह पानी से भरे पात्र सी छलक उठी, ‘मेरी इच्छाअनिच्छा, भावनाओं, संवेदनाओं को जाने बिना, क्या मेरे जीवन में ठुकराया जाना ही लिखा है, चाची? एक ने ठुकराया तो दूसरे के आंगन में जा पहुंची. अब आदित्य ने ठुकराया है तो कहां जाऊं?’

अम्मा और बाबूजी ने विचारविमर्श कर के एक बार दद्दा को बेटी के जीवन का सही चित्र दिखलाना चाहा था. वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बाद भी दद्दा न चौंके, न ही परेशान हुए. वैसे भी ब्याहता बिटिया को घर बिठा कर उन्हें समाज में अपनी बनीबनाई प्रतिष्ठा पर कालिख थोड़े ही पुतवानी थी. उन्होंने सौदामिनी को बहुत ही हलकेफुलके अंदाज में समझाया, ‘पुरुष तो स्वभाव से ही चंचल प्रकृति के होते हैं. हमारे जमाने में लोग मुजरों में जाया करते थे. अकसर रातें भी वहीं बिताते थे और घर की औरत को कानोंकान खबर नहीं होती थी. शुक्र कर बेटी, जो आदित्य ने अपने संबंध का सही चित्रण तेरे सामने किया है. अब यह तुझ पर निर्भर करता है कि तू किस तरह से उस को अपने पास लौटा कर लाती है.’

पिता द्वारा आदित्य का पक्ष लिया जाना उसे बुरा नहीं लगा था, बल्कि इस बात की तसल्ली दे गया था कि जैसे भी हो, उसे अपनी ससुराल में ही समझौता करना है.

समय धीरेधीरे सरकने लगा था. सौदामिनी को समय के साथ सबकुछ सहने की आदत सी पड़ने लगी थी. भीतर उठते विद्रोह का स्वर, कितना ही बवंडर मचाता, संस्कारों की मुहर उस के मौन को तोड़ने में बाधक सिद्ध होती.

इसी तरह 2 वर्ष बीत गए. सौदामिनी का हर संभव प्रयत्न व्यर्थ ही गया. आदित्य उस के पास लौट कर नहीं आए. स्नेह के पात्र की तरह आदमी घृणा के पात्र को एक नजर देखता अवश्य है, पर आदित्य के लिए उस की पत्नी मात्र एक मोम की गुडि़या थी, संवेदनाओं से कोसों दूर, हाड़मांस का एक पुतलाभर.

कभी कभी जीवन में इंसान को जब कोई विकल्प सामने नजर नहीं आता तो उस का सब्र सारी सीमाएं तोड़ कर ज्वालामुखी के लावे के समान बह निकलता है. ऐसा ही एक दिन सौदामिनी के साथ भी हुआ था. घर से बाहर जा रहे आदित्य का मार्ग रोक कर वह खड़ी हुई, ‘किस कुसूर की सजा आप मुझे दे रहे हैं? आखिर कब तक यों ही मुंह मोड़ कर मुझ से दूर भागते रहेंगे?’

‘सजा कुसूरवार को दी जाती है सौदामिनी, तुम ने तो कुसूर किया ही नहीं, तो फिर मैं तुम्हें कैसे सजा दे सकता हूं? मैं ने सुहागरात को ही तुम से स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि हमारा विवाह मात्र एक समझौता है. तुम चाहो तो यहां रहो, न चाहो तो कहीं भी जा सकती हो. मेरी ओर से तुम पूर्णरूप से स्वतंत्र हो.’

उस रात आदित्य का स्वर धीमा था, पर इतना धीमा भी नहीं था कि हवेली की दीवारों को न भेद सके. एक कमरे से दूसरे कमरे का फासला ही कितना था. दीवान साहब के कानों में आदित्य का एकएक शब्द पिघले सीसे के समान उतरता गया. अपना ही खून इतना बेगैरत हो सकता है? क्या उन की बहू परित्यक्ता का सा जीवन बिताती आई है? इस की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी.

उन्होंने पत्नी को बुला कर कई प्रश्न किए, पर कोई भी उत्तर संतोषजनक नहीं लगा था. तारिणी पूर्णरूप से बेटे की ही पक्षधर बनी रही थीं. दीवान साहब ने सौदामिनी को पीहर लौट जाने का सुझाव दिया था. वह वहां भी नहीं गई.

तब जीवन की हर समस्या की ओर व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाले दीवान साहब ने बहू को आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया. दबी, सहमी सौदामिनी के लिए यह प्रस्ताव अप्रत्याशित सा ही था. बस, यही सोचसोच कर कांपती रही थी कि बरसों पहले छोड़ी गई किताब और कलम पकड़ने में कहीं हाथ कांपे तो क्या करेगी?

पर दृढ़निश्चयी दीवान साहब के आगे उस की एक भी न चली. उधर तारिणी ने सुना, तो घर में हड़कंप मच गया. पूरी हवेली की व्यवस्था ही चरमरा कर रह गई थी. इतने बरसों बाद बहू को पोथी का ज्ञान करवाना क्या उचित था? पर पति के सामने उन की आवाज घुट कर रह गई.

सौदामिनी की मेहनत, लगन और निष्ठा रंग लाई. उस का मनोबल बढ़ा, व्यक्तित्व में निखार आया. अब लोग उस की तरफ खिंचे चले आते थे, आदित्य का स्थान अब गौण हो चला था.

पत्नी के इस परिवर्तन पर आदित्य परेशान हो उठा था. वैसे भी पुरुष, नारी को अपने ऊपर या अपने समकक्ष कब देखना चाहता है. यदि चाहेअनचाहे पत्नी या उस के संबंधियों के प्रयास से ऐसा हो भी जाता है तो पुरुष की हीनभावना उसे उग्र बना देती है. ऐसा ही यहां भी हुआ था जो थोड़ाबहुत मान पति के अधीनस्थ हो कर उसे मिल रहा था, वह भी छिनता चला गया. पर सौदामिनी रुकी नहीं, आगे ही बढ़ती गई.

अमेरिका में उस के पत्र मुझे नियमित रूप से मिलते रहे थे. मन में राहत सी महसूस होती.

उधर दीवान साहब की दशा दिनपरदिन गिरती चली गई. बहू का दुख घुन के समान उन के शरीर को खाता जा रहा था. हर समय वे खुद को सौदामिनी का दोषी समझते. उस का जीवन उन्हें मझधार में फंसी हुई उस नाव के समान लगता, जिस का कोई किनारा ही न हो. भारीभरकम शरीर जर्जरावस्था में पहुंचता गया, जबान तालू से चिपकती गई. एक दिन देखते ही देखते उन के प्राणपखेरू उड़ गए और सौदामिनी अकेली रह गई.

उस दिन उसे लगा, वह रिक्त हो गई है. ऐसा कोई था भी तो नहीं, जो उस के दुख को समझ पाता. जिस कंधे का सहारा ले कर वह आंसुओं के चंद कतरे बहा सकती थी, वह भी तो स्पंदनहीन पड़ा था.

पिता की मृत्यु के बाद आदित्य पूर्णरूप से आजाद हो गया था. तेरहवीं की रस्म के बाद ही सूजी को घर में ला कर वह मुक्ति पर्व मनाने लगा था. सूजी उस के दिल की स्वामिनी तो थी ही, पूरे घर की स्वामिनी भी बन बैठी. घर की पूर्ण व्यवस्था पर उस का ही वर्चस्व था.

संवेदनशील सौदामिनी विस्मित हो पति का रवैया निहारती रह गई. आदित्य का व्यवहार धीरेधीरे उसे परेशान नहीं, संतुलित करता गया. उस में निर्णय लेने की शक्ति आ गई थी.

अपने आखिरी पत्र में उस ने मुझे लिखा था…

‘सारे रस्मोंरिवाजों के बंधनों को तोड़ कर एक दिन मैं आजाद हो जाऊंगी. नासूर बन गए जुड़ाव की लहूलुहान पीड़ा से तो मुक्ति का सुख ज्यादा आनंददायक होगा. लगता है, वह समय आ गया है. अगर जिंदा रही तो जरूर मिलूंगी.

तुम्हारी सौदामिनी.’

उस के बाद वह कहां गई, मैं नहीं जानती थी. दद्दा को भी मैं ने कई पत्र लिखे थे, पर उन्होंने तो शायद दीवान साहब की मृत्यु के बाद बेटी की सुध ही नहीं ली थी. बेटी को अपनी चौखट से विदा कर के ही उन के कर्तव्य की इतिश्री हो गई थी.

सामने मेज पर रखी चाय बर्फ के समान ठंडी हो चुकी थी. गुमसुम सी बैठी सौदामिनी से मैं ने प्रश्न किया, ‘‘दीवान साहब के घर से निकल कर तुम कहां गईं, कहां रहीं?’’

सौदामिनी गंभीर हो उठी थी. उस के माथे पर सिलवटें सी पड़ गईं. ऐसा लगा, उस के सीने में जो अपमान जमा है, एक बार फिर पिघलने लगा है.

‘‘तनु, अतीत को कुरेद कर, वर्तमान को गंधाने से क्या लाभ? उन धुंधली यादों को अपने जीवन की पुस्तक से मैं फाड़ चुकी हूं.’’

‘‘जानती हूं, लेकिन फिर भी, जो हमारे अपने होते हैं और जिन्हें हम बेहद प्यार करते हैं, उन से कुछ पूछने का हक तो होता है न हमें. क्या यह अधिकार भी मुझे नहीं दोगी?’’

आत्मीयता के चंद शब्द सुन कर उस की आंखें भीग गईं. अवरुद्ध स्वर, कितनी मुश्किल से कंठ से बाहर निकला होगा, इस का अंदाजा मैं ने लगा लिया था.

‘‘जिस समय आदित्य की चौखट लांघ कर बाहर निकली थी, विश्वासअविश्वास के चक्रवात में उलझी मैं ऐसे दोराहे पर खड़ी थी, जहां से एक सीधीसपाट सड़क मायके की देहरी पर खत्म होती थी. पर वहां कौन था मेरा? सो, लौटने का सवाल ही नहीं उठता था.

‘‘आत्महत्या करने का प्रयास भी कई बार किया था, पर नाकाम रही थी. अगर जीवन के प्रति जिजीविषा बनी हुई हो तो मृत्युवरण भी कैसे हो सकता है? इतने बरसों बाद अपनी सूनी आंखों में मोहभंग का इतिहास समेटे जब मैं घर से निकली थी तो मेरे पास कुछ भी नहीं था, सिवा सोने की 4 चूडि़यों के. उन्हें मैं ने कब सुनार के पास बेचा, और कब ट्रेन में चढ़ कर यहां माउंट आबू पहुंच गई, याद ही नहीं. यहांवहां भटकती रही.

‘‘ऐसी ही एक शाम मैं गश खा कर गिर पड़ी. पर जब आंख खुली तो अपने सामने श्वेत वस्त्रधारी, एक महिला को खड़े पाया. उस के चेहरे पर पांडित्य के लक्षण थे. उस के हाथ में ढेर सारी दवाइयां थीं. मिसरी पगे स्वर में उस ने पूछा, ‘कहां जाना है, बहन? चलो, मैं तुम्हें छोड़ आती हूं.’

‘‘किसी अजनबी के सामने अपना परिचय देने में डर लग रहा था. वैसे भी अपने गंतव्य के विषय में जब खुद मुझे ही कुछ नहीं मालूम था तो उसे क्या बताती. उस के चेहरे पर ममता और दया के भाव परिलक्षित हो उठे थे. मेरे आंसुओं को वह धीरेधीरे पोंछती रही. उस ने मुझे अपने साथ चलने को कहा और यहां इस आश्रम में ले आई.

‘‘कई दिनों से बंद पड़े एक कमरे को उस ने भली प्रकार से साफ करवाया, रोजमर्रा की जरूरी चीजों को मेरे लिए जुटा कर वह मेरे पास ही बैठ गई. कुछ देर बाद उस ने मेरे अतीत को फिर से कुरेदा तो मैं ने हिचकियों के बीच सचाई उसे बता दी.

‘‘उस का नाम श्यामली था. एक दिन वह बोली, ‘यों कब तक अंधेरे में मुंह छिपा कर बैठी रहोगी, सौदामिनी. जब जीवन का हर द्वार बंद हो जाए तो जी कर भी क्या करेगा इंसान?

‘‘‘जीवन एक अमूल्य निधि है, इसे गंवाना कहां की अक्लमंदी है? केवल भावनाओं और संवेदनाओं के सहारे जीवन नहीं जीया जा सकता. जीविकोपार्जन के लिए कुछ न कुछ साधन जुटाने पड़ते हैं.’

‘‘श्यामली इसी आश्रम की संचालिका थी. बरसों पहले उस ने और उस के डाक्टर पति ने इस आश्रम को स्थापित किया था. वह मुझे इसी आश्रम में बने एक स्कूल में ले गई. इधरउधर छिटकी, बिखरी कलियों को समेट कर एक कक्षा में बिठा कर पढ़ाना शुरू किया तो लगा, पूर्ण मातृत्व को प्राप्त कर लिया है. घर के बाहर कुछ सब्जियां वगैरा उगा ली थीं. समय भी बीत जाता, खर्च में भी बचत हो जाती.

‘‘दिन तो अच्छा बीत जाता था. शाम को अकेली बैठती तो गहरी उदासी के बादल चारों ओर घिर आते थे. श्यामली अकसर मुझे अपने घर बुलाती, पर कहीं जाने का मन ही नहीं करता था.

‘‘कई आघातों के बाद जीवन ने एक स्वाभाविक गति पकड़ ली थी. सहज होने में कितना भी समय क्यों न लगा हो, जीवन मंथर गति से चलने लगा था. अतीत की यादें परछाईं की तरह मिटने लगी थीं. उसी वातावरण में रमती गई, तो जीवन रास आने लगा.

‘‘इधर एक हफ्ते से श्यामली मुझ से मिली नहीं थी. मैं अचरज में थी कि वह इतने दिनों तक अनुपस्थित कैसे रह सकती है. कभी उस के घर गई नहीं थी. इसलिए कदम उठ ही नहीं रहे थे. पर जब मन न माना तो मैं उसी ओर चल दी.

‘‘दरवाजा श्यामली ने ही खोला था. मुझे देख कर उस के चेहरे पर स्मित हास्य के चिह्न मुखर हो उठे थे. उसे देख कर मुझे अपने अंदर कुछ सरकता सा महसूस हुआ. पहले से वह बेहद कमजोर लग रही थी.

‘‘उस ने आगे बढ़ कर मेरे कंधे पर हाथ रखा और अंदर ले गई. पालने में एक बालक लेटा हुआ था. मानसिक रूप से उस का पूर्ण विकास अवरुद्ध हो गया है, ऐसा मुझे महसूस हुआ था. पूरे घर में शांति थी.

‘‘‘पिछले कुछ दिनों से मेरे पति की तबीयत अचानक खराब हो गई. आजकल रोज अस्पताल जाना पड़ता है,’ उस ने बताया.

‘‘क्या कहते हैं, डाक्टर?’

‘‘‘उन्हें कैंसर है,’ उस का स्वर धीमा था.

‘‘कुछ देर बाद उस के पति के कराहने का स्वर सुनाई दिया, तो वह अंदर चली गई. साथ ही, मुझे भी अपने पीछे आने को कहा.

‘‘दुर्बल शरीर, खिचड़ी से बेतरतीब बाल, लंबी दाढ़ी…पर मैं उसे एक पल में पहचान गई थी. सामने मृदुल मृत्युशय्या पर लेटा था. सैलाब के क्षणों में जैसे समूची धरती उलटपलट जाती है, वैसे ही मेरे अंतस में भयावह हाहाकार जाग उठा था. वक्त ने कैसा क्रूर मजाक किया था, मेरे साथ? अतीत के जिस प्रसंग को मैं भूल चुकी थी, वर्तमान बन कर मेरे सामने खड़ा था. वितृष्णा, विरक्ति, घृणा जैसे भाव मेरे चेहरे पर मुखरित हो उठे थे. उस की पीड़ा देख कर मेरे चेहरे पर संतोष का भाव उभर आया.

‘‘‘अगर तुम यहां मृदुल के पास कुछ समय बैठो, तो मैं आश्रम का निरीक्षण कर आऊं?’ श्यामली ने मुझे वर्तमान में धकेला था.

‘‘‘हांहां, तुम निश्चिंत हो कर जाओ, मैं यहीं पर हूं.’

‘‘श्यामली के जाने के बाद वातावरण असहज हो उठा था. मैं अपनेआप में सिमटती जा रही थी. मृदुल की मुंदी हुई आंखें हौलेहौले खुलने लगी थीं. उस के हावभाव में बेहद ठंडापन था. झील जैसी शांत शीतल छाया बिखेरती निगाहें उठा कर उस ने मुझे देखा और अपने पास रखी कुरसी पर बैठने को कहा. फिर हौले से बोला, ‘तुम यहां, इस शहर में?’

‘‘‘और अगर यही प्रश्न मैं तुम से करूं तो? मृदुल, क्या सपनों के राजकुमार यों ही जिंदगी में आते हैं? अगर श्यामली से ही ब्याह करना था तो मुझ से प्रेम ही क्यों किया था? मुझे तो अकेले जीने की आदत थी.’ रुलाई को बमुश्किल संयत करते हुए मैं ने पूछा तो उस ने अपनी कांपती मुट्ठी में मेरी दोनों हथेलियों को कस कर पकड़ लिया.

‘‘उस के स्पर्श में दया, ममता और अपनत्व के भाव थे. वह हौले से बोला, ‘क्या दोषारोपण के सारे अधिकार तुम्हारे ही पास हैं? मुझे लगता है तुम ने उतना ही सुना और समझा है, जितना शायद तुम ने सुनना और समझना चाहा है. अपने इर्दगिर्द की सारी सीमाएं तोड़ दो और फिर देखो, क्या कोई फरेब दिखता है, तुम्हें?’

‘‘मैं उसे एकटक निहारती रही. अपना सिर पीछे दीवार से टिका कर उस ने आंखें बंद कर लीं. उन बंद आंखों के पीछे बहुतकुछ था, जो अनकहा था.

‘‘आखिर मृदुल ने खुद ही मौन बींधा, ‘तुम्हारे पिता राय साहब बड़े आदमी थे. वहां का रुख तक वे अपने अनुसार मोड़ने में सिद्धहस्त थे. यह मुझ से ज्यादा शायद तुम समझती होगी. जिन दिनों मैं तुम्हारे पास आया करता था, मेरे भैया की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. डाक्टर ने दिल का औपरेशन करने का सुझाव दिया था. देखा जाए तो भारत में न डाक्टरों की कमी है, न ही अस्पतालों की, पर तुम्हारे पिता ने उस समय मुझे भैया को ले कर अमेरिका में औपरेशन करने का सुझाव दिया था.

‘‘‘तुम तो जानती हो, मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, पर राय साहब ने आननफानन सारी तैयारी करवा कर 2 टिकट मेरे हाथ में पकड़वा दिए थे. उस समय मेरा मन उन के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो उठा था.

‘‘‘तुम सोच रही होगी, मैं तुम से मिलने क्यों नहीं आया? मैं तुम्हारे घर गया था, पर तब तक तुम ननिहाल जा चुकी थीं. कुछ ही दिन बीते तो अमेरिका में तुम्हारे ब्याह की खबर सुनी थी. तुम्हारे पिता के प्रति मन घृणा से भर उठा था. शतरंज की बिसात पर 2 युवा प्रेमियों को मुहरों की तरह प्रयोग कर के कितनी कुशलता से उन्होंने बाजी जीत ली थी. फिर तुम ने भी तो सच को समझने का प्रयास ही नहीं किया.’

‘‘छोटे बालक की तरह वह सिसकता रहा. अतीत की धूमिल यादें, एक बार फिर मानसपटल पर साकार हो उठी थीं. झूठी मानमर्यादा और सामाजिक प्रतिष्ठा की दुहाई देने वाले मेरे पिता को, 2 युवा प्रेमियों को अलग करने से क्या मिला? मृदुल को तो फिर भी गृहस्थी और पत्नी का सुख मिला था. लुटती तो मैं ही रही थी. कितनी देर तक पीड़ा के तिनके हृदयपटल से बुहारने का प्रयास करती रही थी, पर बरसों से जमी पीड़ा को पिघलने में समय तो लगता ही है.

‘‘घर पहुंच कर सुख को मैं कोसने लगी कि मृदुल से क्यों मिली. मृगतृष्णा ही सही, आश्वस्त तो थी कि उस ने मुझे छला है. धोखा दिया है. अब तो घृणा का स्थान दया ने ले लिया था. उस से मिलने को मन हर समय आतुर रहता. उस के सान्निध्य में, कुंआरे सपने साकार होने लगते. यह जानते हुए भी कि मैं अंधेरी गुफा की ओर बढ़ रही हूं, खुद को रोक पाने में अक्षम थी.

‘‘एक दिन मेरे अंतस से पुरजोर आवाज उभरी, ‘यह क्या कर रही है तू? जिस महिला ने तुझे जीवनदान दिया, जीने की दिशा सुझाई, उसी का सुखचैन लूट रही है. मृदुल तेरा पूर्व प्रेमी सही, अब श्यामली का पति है. फिर तू भी तो आदित्य की ब्याहता पत्नी है. श्यामली के जीवन में विष घोल रही है?’

‘‘मन ने धिक्कारा, तो पैरों में खुदबखुद बेडि़यां पड़ गईं. श्यामली से भी मैं दूर भागने लगी थी. अपने ही काम में व्यस्त रहती. मन उचटता तो गूंगेबहरे, विक्षिप्त बच्चों के पास जा पहुंचती. इस से राहत सी महसूस होती थी. श्यामली संदेशा भिजवाती भी, तो बड़ी ही सफाई से टाल जाती.

‘‘एक रात श्यामली के घर से करुण क्रंदन सुनाई दिया था. मन हाहाकार कर उठा. दौड़ती हुई मैं श्यामली के पास जा पहुंची, लोगों की भीड़ जमा थी.

‘‘पाषाण प्रतिमा बनी श्यामली पति के सिरहाने गुमसुम सी बैठी थी. पास ही, उस का बेटा लेटा हुआ था. सच, पुरुष का साया मात्र उठ जाने से औरत कितनी असहाय हो उठती है. मुझे जिंदगी ने छला था तो उसे मौत ने.

‘‘उस दिन के बाद मैं प्रतिदिन श्यामली के पास जाती. घंटों उस के पास बैठी रहती. उस की खामोश आंखों में मृदुल की छवि समाई हुई थी.

‘‘पति की मौत का दुख घुन की तरह उस के शरीर को बींधता रहा था. उस की तबीयत दिनपरदिन बिगड़ने लगी थी. वह अकसर कहती, ‘मृदुल बहुत नेक इंसान थे. जीवन के इस महासागर में, उन्हें बहुत कम समय व्यतीत करना है, यह शायद वे जानते थे. उन्होंने कभी किसी को चोट नहीं पहुंचाई, कभी किसी को दुख नहीं दिया. पर अब मुझे जीवन की तल्खियों से जूझने के लिए अकेला क्यों छोड़ गए?’

‘‘जब निविड़ अंधकार में प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती, तब आदमी जिंदगी की डोर झटक कर तोड़ देने को मजबूर हो जाता होगा. श्यामली का जीवन भी ऐसा ही अंधकारपूर्ण हो गया होगा, तभी तो एक दिन चुपके से उस ने प्राण त्याग दिए थे और जा पहुंची थी अपने मृदुल के पास.

‘‘मृदुल की मृत्यु के बाद मैं उसी के घर में उस के साथ रहने लगी थी. हर समय उस का बेटा मेरे ही पास रहता. हर समय उस के मुख पर एक ही प्रश्न रहता कि उस के बाद उस के बेटे का क्या होगा? मैं उसे धीरज बंधाती, उस का मनोबल बढ़ाती, पर वह भीतर ही भीतर घुटती रहती.

‘‘‘जीने का मोह ही नहीं रहा,’ उस ने एक दिन बुझीबुझी आंखों से कहा था, ‘एक बात कहूं? मेरी मृत्यु के बाद इस आश्रम और मेरे बेटे मानव का दायित्व तुम्हारे कंधों पर होगा,’ उसे मेरी हां का इंतजार था, ‘हमारा रुपयापैसा, जमापूजीं तुम्हारी हुई सौदामिनी…’

‘‘मैं चुप थी. क्या इतना बड़ा उत्तरदायित्व मैं संभाल सकूंगी? मन इसी ऊहापोह में था.

‘‘फिर थोड़ा रुक कर वह बोली, ‘मृत्युवरण से कुछ समय पूर्व ही मृदुल ने अपने और तुम्हारे संबंधों के बारे में मुझे सबकुछ बता दिया था. यह भी कहा था कि अगर मुझे कुछ हो जाए तो मानव का दायित्व मैं तुम्हें सौंप दूं. उन की अंतिम इच्छा क्या पूरी नहीं करोगी? एक बार हां कह दो, तो चैन से इस संसार से विदा ले लूं.’

‘‘मन कृतकृत्य हो उठा था. साथ ही, मृदुल का मेरे प्रति अटूट विश्वास इस अवधारणा से मुक्त कर गया था कि सप्तपदी और विवाह का अनुष्ठान तो मात्र एक मुहर है जो 2 इंसानों को जोड़ता है. असल तो है, मन से मन का मिलन.

‘‘मानव का उत्तरदायित्व लेने से हिचकिचाहट तो हुई थी. एक बार फिर समाज और इस के लोग मेरे सामने आ गए थे. मन कांपा था, लोग अफवाहें फैलाएंगे. फिकरे कसेंगे, पर एक झटके से मन पर नियंत्रण भी पा लिया था. सोचा, जिस समाज ने हमेशा घाव ही दिए, उस की चिंता कर के इस बच्चे का जीवन क्यों बरबाद करूं? मृदुल के विश्वास को क्यों धोखा दूं?’’

आसमान पर चांद का टुकड़ा कब खिड़की की राह कमरे में दाखिल हो गया, हम दोनों को पता ही नहीं चला. मैं उठ कर बाहर आई, तो चांद मुसकरा रहा था.

कसक

रह गई कसक बाकी

बीते दिन की

मिल चुकी खाक में

उम्मीदें अपनी सारी

रह गई बाकी

याद उस की सारी

रह गई खाली

प्रीत की झोली अपनी

न चाह कर भी

छूट गया साथ उस का

मिन्नतें भी लाख कीं

मिल सका न संग उस का

नहीं रहा कुछ भी

अख्तियार अपना वक्त पे

भर रहा वक्त ही

अतीत के जख्म सारे

रही कसकभर इतनी

गुजरी नहीं उस के संग

जिंदगी अपनी.

– जयकृष्ण भारती

मनमाना शासन और लड़खड़ाती देश की अर्थव्यवस्था

सरकारी प्रयोगों के कारण देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाने लगी है. पहले नोटबंदी, फिर कालेधन का हल्ला और अब जीएसटी के भूत के कारण उत्पादक शक्ति व्यापार संभालने में लग रही है. नेता और अफसर शायद खुश हो रहे होंगे कि उन्होंने आखिर जनता को नचा कर रख दिया और स्वच्छ सरकार बनाने का असली प्रसाद चखा दिया है.

हर देश में हमेशा ऐसा हुआ है कि जब किसी विशेष नीति को ले कर कोई दल या नेता सत्ता में आया तो उस ने अर्थव्यवस्था पर पहला हाथ डाला और आम जनता का जीना दूभर हो गया. ऐसा हर राजनीतिक दल या नेता कहता रहा कि कुछ दिनों के कष्ट झेल लो, फिर सब ठीक हो जाएगा.

रूस में 1917 में जब श्रमिकों और किसानों की क्रांति हुई, तो ऐसा ही हुआ. कामधंधे बंद हो गए. खेत सूख गए. व्यापार ठप हो गए, भुखमरी बढ़ गई पर कम्युनिज्म फलनेफूलने लगा. चीन में माओत्से तुंग की लाल क्रांति के बाद यही हुआ और कभी लेट हंड्रेड फ्लावर्स ब्लूम तो कभी सांस्कृतिक क्रांति के जुमले परोस कर चीन की शक्ति को नष्ट किया गया.

अफ्रीका के अधिकांश देश जो यूरोप के अधीन थे, क्रांतियों के बाद दशकों तक भुखमरी, अकाल, गृहयुद्ध, अराजकता को भोगते रहे जबकि क्रांतियों के सूत्रधार लगभग तानाशाह बने रहे या उन्हें हटा कर कोई और तानाशाह बना. ऐसा ही दक्षिण अमेरिका में हुआ.

भारत में सांस्कृतिक क्रांति लाए जाने के नाम पर भ्रष्टाचार, कालेधन व हिंदूविरोधी नीतियों के खिलाफ सरकार का बनना तब बेहद सुखद लगा था पर अब पूरा देश प्रयोगशाला बन गया है और जनता पर तरहतरह के प्रयोग किए जा रहे हैं. एक तरफ वंदेमातरम, योग, भारत माता का गुणगान थोपा जा रहा है तो दूसरी ओर जीएसटी, कठोर कंपनी कानून, नोटबंदी, आधार नंबर का बंधन जबरन गले में लटकाए जा रहे हैं. आज आम व्यापारी ही नहीं, आम आदमी भी इन खानापूर्तियों को पूरा करने में लगा है. आर्थिक मोरचे पर प्रगति के नाम पर जो भी दिखावटी टोटके किए जा रहे हैं वे देश को भारी पड़ेंगे, यह अभी से दिख रहा है.

संतोष इस बात का किया जा सकता है कि कल तक की महाशक्तियां जैसे अमेरिका, ब्रिटेन और रूस के शासक भी कुछ इसी तरह के मनमाने फैसलों से अपने देशों का नाश कर रहे हैं. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के फैसले हमारे देश की तरह के बेसिरपैर के हैं और ब्रिटेन का यूरोपीय साझा बाजार समझौता तोड़ना घातक है. रूस के व्लादिमीर पुतिन अपने बाहुबल पर उतर रहे हैं और रूसी अर्थव्यवस्था व उद्योग सिसक रहे हैं. इन देशों की हालत देख कर भारत को अपने पैरों की पीड़ा का एहसास कम हो रहा है.

दुनिया के और बहुत से देश अपने शासकों या वोटरों के बहुमत के कारण मूर्खतापूर्ण रास्ते पर चल रहे हैं और यही हमारे देश पर छा रहे काले बादलों के बारे में संतोष की बात है.

वसीयत का पैसा जब पहले ही बेटे बेटियों में बांटना हो

महीपत के 1 बेटी और 1 बेटा थे. दोनों भाई बहन एक साथ पले बढे़ थे. उन में कोई मतभेद भी नहीं था. महीपत ने अपनी पत्नी लक्ष्मी की मौत के बाद वसीयत तैयार कराई और उस में अपनी बेटी को भी बराबर का अधिकार दिया. महीपत की मौत के बाद उस की सारी प्रौपर्टी 2 हिस्सों में बंटनी थी. भाई शिवम को बहन रश्मि से कोई दिक्कत नहीं थी. उसे अपने बहनोई दिवाकर से समस्या थी.

पिता की मौत के बाद दिवाकर का महीपत खानदान में दखल बढ़ गया था. दिवाकर की निगाह एक होटल पर थी जो महीपत अपने बेटे शिवम के नाम पर ही बना कर गए थे. बहन रश्मि भी यही चाहती थी कि होटल भाई शिवम के पास ही रहे. दिवाकर को यह बात पसंद नहीं थी.

उस ने पत्नी पर दबाव बनाना शुरू किया कि वह होटल पर भी अपना अधिकार मांगे. पिता की वसीयत के आधार पर होटल पर उस का आधा अधिकार है.

शिवम होटल पर बहन को हिस्सा देने को तैयार नहीं था. ऐसे में मामला कोर्ट में गया. कानूनी रूप से बहन का होटल पर अधिकार था पर मानसिक रूप से शिवम और बहन रश्मि इस के लिए तैयार नहीं थे. ऐसे में वसीयत होने के बाद भी दोनों भाईबहनों के बीच रिश्ते खराब नहीं हुए.

आपसी रिश्तों को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हर मातापिता अपनी जायदाद का बंटवारा सही तरह से अपनी ही जिंदगी के दौरान करें. वसीयत से पहले ही अपने पैसों व जायदाद का बंटवारा कर दें. इस में कुछ आर्थिक दबाव जरूर पड़ता है पर बाद की मुकदमेबाजी और रिश्ते खराब होने से बच जाता है.

कानून खडे़ करते हैं विवाद

वसीयत को ले कर कानून कहता है कि रजिस्टर्ड और गैररजिस्टर्ड में कोई भेद नहीं है. सरकार ने वसीयत के बाद होने वाले झगड़ों से बचने के लिए प्रावधान बनाया है कि केवल रजिस्टर्ड वसीयत ही मान्य है. अलगअलग राज्यों में इस के अलगअलग नियमकायदे हैं. उत्तर प्रदेश में खेती की जमीन के बदलाव में रजिस्टर्ड वसीयत ही मान्य है. अगर मसला कोर्ट में जाता है तो वहां रजिस्टर्ड और गैररजिस्टर्ड में कोई भेद नहीं है.

भारतीय कानून के अलावा यहां पर अविभाजित हिंदू परिवार कानून भी लागू होता है. जिस के तहत अलग तरह के बंटवारे का प्रावधान है. कानून यह भी मानता है कि अगर आप अपनी पैतृक जायदाद का बंटवारा करते हैं तो उस में उत्तराधिकार कानून के तहत ही हिस्सेदारी देनी होगी. अपनी स्वअर्जित जायदाद का बंटवारा ही आप अपनी वसीयत के अनुसार कर सकते हैं.

वसीयत के अलावा अगर अपनी जायदाद का बंटवारा करना है तो जमीन या मकान की रजिस्ट्री कराना ही सब से मुफीद तरीका होता है. इस से लोग बचते हैं, क्योंकि जायदाद की रजिस्ट्री कराने में सरकारी खर्च यानी स्टांप ड्यूटी देनी पड़ती है. लोगों को यह अनावश्यक बोझ लगता है. दूसरे कई बार माता पिता को इस बात का भी भय होता है कि जायदाद लेने के बाद बच्चे बुढ़ापे में सेवा करेंगे या नहीं. इसलिए वे बंटवारे की सारी जिम्मेदारी वसीयत पर छोड़ कर जाते हैं. वसीयत उन के न रहने पर ही मान्य होती है. ऐसे में मरने के बाद परिवार में झगडे़ शुरू हो जाते हैं. इन झगड़ों से बचने का एक ही जरिया है कि अपने पैसों और जायदाद का बंटवारा वसीयत से पहले ही कर के जाएं.

वसीयत से पहले बंटवारा

जायदाद चल और अचल 2 तरह की होती है. चल संपत्ति में पैसा आता है. इस के बंटवारे का सब से अच्छा जरिया यह है कि जिसे आप देना चाहते हो उस के नाम पर बैंक में अपना सहखाता खोलें. कई बार बैंक खाते में नौमिनी बनाने के बाद भी उत्तराधिकार कानून के तहत विवाद खडे़ कर दिए जाते हैं. ऐसे में सब से सरल रास्ता यही है कि आप बैंक में सहखाता खोलें और उस के जरिए ही पैसों का बंटवारा करें.

अगर एक से अधिक संतान हैं तो यह रास्ता ही सब से सरल होगा, जिस में किसी भी तरह की वसीयत की समस्या नहीं रहेगी. कई बार पिता के न रहने के बाद मां बेटी या मां और बेटे के बीच भी संबंध खराब हो जाते हैं. पत्नी, पुत्र और पुत्री स्वाभाविक उत्तराधिकारी होते हैं. उन में से बिना सहमति के किसी एक को पैसा देना सरल नहीं है. सहखाते के जरिए ही बिना किसी विवाद के पैसा दिया जा सकता है. केवल बैंक बचत खाता ही नहीं, दूसरी बचत योजनाओं में भी सह खातेदार प्रक्रिया ही सब से सरल होती है.

अगर अचल संपत्ति यानी मकान, जमीन, फैक्टरी का बंटवारा करना हो तो उस का भी बंटवारा वसीयत के अनुसार सरलता से नहीं हो पाता. पैतृक  जायदाद में बेटा बेटी और पत्नी का स्वाभाविक अधिकार होता है. ऐसे में इन में अगर किसी एक को देना हो तो जायदाद की रजिस्ट्री कराना ही सब से सरल तरीका होता है.

वसीयत के जरिए अगर किसी एक को अपनी जायदाद देना चाहते हैं तो दूसरा पक्ष विवाद खड़ा कर सकता है. भारत में न्याय पाने के लिए सालोंसाल भटकना पड़ता है. ऐसे में अगर पूरी तरह से मजबूत बंटवारा न हो तो कानून की किसी न किसी धारा के तहत परिवाद यानी मुकदमा दर्ज हो ही जाता है.

ऐसे में जरूरी है कि आपसी बंटवारा सहमति से न हो रहा हो तो वसीयत से पहले ही उस का सही बंटवारा कर दें. सरकार को चाहिए कि इस तरह के बंटवारों के जरिए जो जायदाद परिवार में ही किसी और के नाम हो रही हो उस की स्टांप ड्यूटी में राहत दी जाए.

सरकार को इस दिशा में कुछ प्रभावी कदम उठाने चाहिए. अगर कोई व्यक्ति अपनी जायदाद उपहार भी देना चाहे तो दोनों तरफ से सरकार को टैक्स देना पड़ता है. यही वजह है कि लोग वसीयत से पहले जायदाद के बंटवारे की पहल नहीं करते जिस से उत्तराधिकार कानून के तहत ही उन की जायदाद का स्थानांतरण होता है.

अभी हमारे समाज में बेटियों को पिता की जायदाद में हक देने का रिवाज नहीं है. कानून से बेटियों को पिता की जायदाद में हक मिल गया है. यह पेंच भाईबहन के बीच आपसी रिश्तों को खराब करने वाला होता है.

ऐसे में जरूरी है कि बंटवारे को वसीयत के बाद के झगड़ों से दूर रखते हुए पहले ही निबटा दिया जाए. तभी भाईबहन के बीच स्वाभाविक संबंध बने रह सकते हैं. आम धारणा यह बन गई है कि  वसीयत अंतिम समय में किसी न किसी तरह के भौतिक दबाव के तहत तैयार कराई जाती है. उस समय यह फैसला वसीयत करने वाले के विवेक पर नहीं होता. जिस का लाभ कानून दूसरे पक्ष को देता है जहां से विवाद शुरू हो जाता है.

अगर वसीयत के पहले सामान्य कानून के तहत जायदाद का बंटवारा हो तो बाद में विवाद नहीं होगा. पिता अपनी बात बेटा और बेटी दोनों को समझा सकता है, जिस से उन के बाद के संबंध मधुर रह सकते हैं. इसलिए जरूरी है कि वसीयत करने के लिए रखे पैसों को पहले ही बेटाबेटी को दे दें.

सूदखोरों के मकड़जाल में न फंसें, जीना हो जाएगा बेहाल

संस्कारधानी के नाम से प्रसिद्ध मध्य प्रदेश के महाकौशल इलाके के प्रमुख शहर जबलपुर में मिठाइयों की एक पुरानी और मशहूर दुकान चंद्रकला स्वीट्स है. सालों पहले चंद्रकला स्वीट्स एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी पर धीरेधीरे यह बड़ी और आधुनिक हो गई. पिछले 10 वर्षों से इस दुकान का संचालन कपिल गोकलानी कर रहे हैं जिन्हें जमाजमाया पुश्तैनी व्यवसाय मिला था.

शुरुआत में तो कपिल अपने पिता की तरह सफलतापूर्वक दुकान संभालते रहे पर साल 2013 में उन्हें कारोबार बढ़ाने के लिए कुछ रुपयों की जरूरत पड़ी तो उन्होंने बजाय बैंकों से कर्ज लेने के सरल रास्ता यानी शौर्टकट चुना और परिचित कारोबारियों से ब्याज पर पैसा ले लिया. किसी भी शहर में कारोबारियों के बीच ब्याज पर लाखों का लेनदेन कतई हैरत की बात नहीं है. चंद्रकला स्वीट्स की साख और कारोबार देखते हुए कपिल के कारोबारी दोस्तों ने उसे जरूरत के मुताबिक पैसा दे दिया.

कपिल को सपने में भी अंदाजा नहीं था कि शहर के जिन करोड़पति दोस्तों को वह अपना हमदर्द समझ रहा है वे उस के कारोबार को ब्याज की शक्ल में दीमक बन कर चाट जाएंगे. जब पानी सिर से गुजरने लगा और कंगाली की नौबत आने लगी तो 8 अक्तूबर को कपिल ने हिम्मत जुटा कर जबलपुर के ओमती थाने में सूदखोरों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई.

अपनी रिपोर्ट में कपिल ने लिखा कि मिक्की इलैक्ट्रौनिक्स के संचालक दीपक भाटिया के अलावा दूसरे नामी बिल्डर्स और कारोबारी संजय खत्री, इंद्रजीत सिंह कोहली, पराग ग्रोवर, सनी जग्गी और जेके जग्गी जबरन उसे धमका रहे हैं. कोरे स्टांप पेपरों पर उस से सिर्फ दस्तखत ही नहीं बल्कि उन्होंने कई कोरे चैक भी दस्तखत करवा कर अपने पास रख लिए थे. ये कथित आरोपी लगातार उसे धमकी दे रहे थे कि अगर वक्त पर ब्याज नहीं दिया तो वे लोग उस के पिता की जायदाद अपने नाम करा लेंगे.

जानकर हैरानी होती है कि 4 साल पहले लिए 50-60 लाख रुपयों के कर्ज पर ये सूदखोर कपिल से कोई 2 करोड़ रुपए ब्याज के एवज में वसूल चुके थे और इतना ही नहीं उन्होंने जबलपुर के अलगअलग इलाकों में स्थित कपिल के नाम की 4 दुकानें और आदर्श नगर स्थित एक मकान अपने नाम करवा लिया था.

ब्याज पर उधार लेने के बाद कुछ महीने तो कपिल ईमानदारी से किस्तें चुकाता रहा पर इस के बाद उसे समझ आया कि जल्दबाजी में उस ने बहुत महंगे ब्याज पर कर्ज ले लिया है. जितना यानी 8-10 लाख रुपए के करीब महीने में वह मिठाई की दुकान से कमाता है वह सब इन सूदखोरों की तिजोरियों में चला जाता है. इस पर भी मूल रकम ज्यों की त्यों बनी हुई थी, लेकिन कोरे चैक और स्टांप पर दस्तखत कर वह कानूनीतौर पर फंस चुका था. इन सूदखोरों के चंगुल में नैतिक रूप से तो वह उसी दिन फंस चुका था जिस दिन उस ने कारोबार बढ़ाने के लालच में बगैर सोचेसमझे लाखों रुपए ब्याज पर ले लिए थे.

कपिल के मुताबिक जब आरोपियों को लगने लगा कि ब्याज चुकाना भी उसे मुश्किल पड़ रहा है तो उन्होंने उसे पैसा कमाने का आसान रास्ता क्रिकेट पर सट्टा लगाने का सुझाव दिया. ब्याज के दलदल में धंसे और एक झटके में बहुत सा पैसा कमाने के लालच में आए कपिल को लगा कि अगर एक दांव भी सटीक बैठ गया तो एक बार में ही न केवल ब्याज चुकता हो जाएगा बल्कि मूल भी अदा हो जाएगा.

महंगा पड़ा लालच

यह लालच भी कपिल को महंगा पड़ा. सट्टे के लालच में इन्हीं सूदखोरों से उस ने जो 50 लाख रुपए लिए थे वे एक झटके में डूब गए. यह रकम तो और भी महंगे ब्याज पर दी गई थी.

अब कपिल पूरी तरह सूदखोरों के चंगुल में फंस चुका था. वे उसे जायदाद हड़पने के साथसाथ जान से मरवा देने की धमकी भी दे रहे थे. कपिल इन रसूखदार कारोबारियों की पहुंच और इन के कानून से भी लंबे हाथों से वाकिफ था इसलिए जितना बन पड़ा ब्याज देता रहा.

जब अति हो गई तो हिम्मत जुटाते वह रिपोर्ट लिखाने थाने पहुंचा. कपिल को फंसाने के लिए इन्हीं हमदर्दों ने कुछ दिन पहले ही ओमती थाने में उस के खिलाफ झूठी रिपोर्ट दर्ज करा दी थी जिस से वह और दबा रहे. हालांकि उस की शिकायत पर 2 आरोपी गिरफ्तार तो हुए, लेकिन जल्द ही कपिल की सांसे यह देख कर फूलने लगीं कि ये सूदखोर खुली हवा में घूम रहे हैं.

गिरफ्तारी के डर से बाकी आरोपी फरार हो गए थे लेकिन पुलिस ने गिरफ्तार आरोपियों को यह कहते छोड़ दिया कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस के मुताबिक ऐसे मामलों में किसी भी आरोपी को गिरफ्तार करने के बजाय उसे नोटिस दे कर कोर्ट में हाजिर होने के लिए कहा जाता है. इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का ही पालन किया गया है.

अब प्रियअप्रिय कुछ भी हो लेकिन इस हाइप्रोफाइल मामले ने सूदखोरों की देशभर में जमीन में गहरे तक धंसी जड़ें दिखा दी हैं कि वे आज भी हैं. बस, सूदखोरों की पोशाक, हुलिया और लेनदेन का तरीका बदल गया है. जो रकम देना जानता है वह उसे वसूलने की कूवत भी रखता है. रही बात कानून की तो देश में ऐसा कोई कानून कभी नहीं बन पाया जो कैक्टस की तरह उगे सूदखोरों पर कोई अंकुश लगा पाए यानी जबतक कपिल गोकलानी जैसे जरूरतमंद और लालची लोग हैं तब तक ये सूदखोर भी वजूद में रहेंगे और ऐसी कई वजहें हैं जिन के चलते इन का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता.

यत्रतत्र सर्वत्र और वीभत्स

होशंगाबाद जिले का एक छोटा सा कस्बा है सोहागपुर जहां आएदिन कोई न कोई किसान, व्यापारी या छोटामोटा नौकरीपेशा आदमी खुदकुशी कर लेता है. आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में सूदखोरों की तादाद सैकड़ों में है. ये सूदखोर चलअचल संपत्ति और मकान व जमीनजायदाद वगैरह गिरवी रख कर महंगे ब्याज पर जरूरतमंदों को पैसा देते हैं. इस कसबे में कई लोग कंगाली की कगार पर हैं. यहां के एक युवा समाजसेवी रतन उमरे की मानें तो सूदखोरी का लाइसैंस मध्य प्रदेश साहूकारी अधिनियम की धारा 1954 के तहत आसानी से मिल जाता है.

लेकिन गैर लाइसैंसधारी सूदखोरों की तादाद कहीं ज्यादा है. रतन बताते हैं कि हालांकि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितने लाइसैंस और कितने गैरलाइसैंसधारी सूदखोर हैं, क्योंकि इन की जांच कभी नहीं होती. रतन के मुताबिक सूदखोरी कइयों की रोजीरोटी का जरिया बन चुकी है. अगर वक्त पर ब्याज न मिले तो ये लोग गरीबों का रहना मुश्किल कर देते हैं. इस पर भी दिक्कत यह है कि इन के संबंध राजनेताओं और अफसरों से होते हैं, क्योंकि चुनाव के वक्त ये भारीभरकम चंदा राजनीतिक पार्टियों को देते हैं और अपने कर्जदारों पर मनचाही पार्टी या उम्मीदवार को वोट देने के लिए दबाव भी बनाते हैं.

पैसों की जरूरत हर किसी को पड़ती है. बीमारी में, पढ़ाई के लिए, शादीब्याह के लिए या फिर फसल के लिए. पर बड़ी दिक्कत अब यह दिखने लगी है कि लोग जुए, सट्टे, नशे व अय्याशी के लिए ब्याज पर कर्ज लेने लगे हैं.

लोग इन के जाल में फंसे रहे इस बाबत अब सूदखोर नएनए प्रपंच रचने लगे हैं. ओडिसा, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों के कोलमाइंस वाले इलाकों के मजदूरों और छोटे कर्मचारियों को जुए व शराब की लत लगाने में ये सूदखोर पीछे नहीं रहते.

इन से एक बार जिस ने पैसा ले लिया फिर वह कभी बगैर बिके या मरे इन के शिकंजे से नहीं निकल पाता. कई दफा तो मरने के बाद दूसरी पीढ़ी इन का कर्ज चुकाती रहती है. ‘मदर इंडिया’ फिल्म के एक किरदार सूदखोर लाला जिसे चरित्र अभिनेता कन्हैयालाल ने जीवंत किया था, को आज भी शिद्दत से याद किया जाता है. वजह, कई सुक्खी लाला आज भी मौजूद हैं.

सूदखोरों की कोई तयशुदा ब्याज दरें नहीं होतीं, बल्कि ये लेने वाले की जरूरत पर निर्भर करती है. आमतौर पर इन की ब्याज दर 10 से ले कर हैरतअंगेज तरीके से 40 फीसदी तक होती है वह भी वार्षिक नहीं बल्कि मासिक यानी अगर कोई जरूरतमंद किसी सूदखोर से 1 लाख रुपए लेता है तो लिखित या मौखिक करार के मुताबिक वह हर महीना 8 हजार से ले कर 40 हजार रुपए तक ब्याज देता है.

न देने पर दबंग सूदखोर कर्जदार की जमीनजायदाद हड़प लेते हैं. महिलाओं के गहने पोटली में बांध कर भर ले जाते हैं. और तो और बरतन तक भी नहीं छोड़ते. इन कामों के लिए खुद सीधे झगड़े में पड़ने के बजाय सूदखोर अब पगार पर गुंडे पालने लगे हैं. कपिल गोकलानी से तो ये ब्याज में मिठाई तक ले रहे थे. विलाशक अपना दिया पैसा वसूलना हर किसी का हक है पर अफसोस की बात अनापशनाप ब्याज की चट्टान है जिस के नीचे दब कर कोई बाहर नहीं आ पाता.

कुछ नहीं बिगड़ता इन का

शहरी इलाकों के सूदखोर कर्जदारों के एटीएम कोरी दस्तखत की हुई चैकबुक और जमीनजायदाद के असल कागज भी रख लेते हैं जिस से लेने वाला फंसा रहे. बड़ी रकम की ये लोग स्टांप पेपर लिखापढ़ी करवा लेते हैं यानी बचने का कोई मौका नहीं देते. अब से कुछ महीने पहले जबलपुर के ही जगदीश चौधरी नाम के शख्स की हत्या का शक सूदखोरों पर गया था, लेकिन इस से सूदखोर खत्म नहीं हो गए और न ही सूदखोरी खत्म हो गई, उलटे उन की दहशत और बढ़ गई.

मध्य प्रदेश में किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं के मद्देनजर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सूदखोरी कानून में बदलाव की बात कही थी, पर आज तक पुराना कानून चला आ रहा है जिस में सूदखोरों को अनापशनाप छूट मिली हुई है. साल 2014 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी मौजूदा कानून को बदलने की बात कही थी पर वहां भी कुछ नहीं बदला.

बीती 24 अक्तूबर को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलानीसामी को भी ऐसी घोषणा करना पड़ी थी कि कलैक्टर और पुलिस कमिश्नरों को निर्देश दिए गए हैं कि वे सूदखोरों के खिलाफ कार्यवाही करें.

पर बचना तो खुद पड़ेगा

जो सूदखोर सरकार चलाते हों और खुद के बचाव के लिए किसी न किसी राजनीतिक दल के कुछ न कुछ होते हों, उन्हें कोई रोक पाएगा ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं. जरूरत तो इस बात की है कि लोग खुद इन से बच कर रहें.

सूदखोरी बैंकिंग व्यवस्था और कार्यप्रणाली को ठेंगा दिखाता उस से भी बड़ा सिस्टम है जिसे पुलिसिया प्रशासनिक और राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ रहता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली भले ही फ्लौप नोटबंदी और भस्मासुर बनती जीएसटी को आर्थिक क्रांति बताते गाल बजाते रहें पर हकीकत में ऐसे फैसलों का सूदखोरों पर कोई फर्क नहीं पड़ता जो आम लोगों की गाढ़ी कमाई को मुफ्त के भाव चाट रहे हैं.

जरूरत और उम्मीद कभी दिल्ली से इस आवाज के आने की है कि आज रात 12 बजे से सूदखोर और सूदखोरी खत्म, क्योंकि इन की वजह से हर साल लाखों लोग खासतौर से किसान बेमौत मरते हैं और करोड़ों लोगों को सुरसा के मुंह जैसा ब्याज चुकाना पड़ रहा है.

पर चूंकि ऐसा कुछ होगा नहीं इसलिए सूदखोरों के मकड़जाल से बचने का इकलौता रास्ता यही है कि इन से पैसा लिया ही न जाए. फिर भले ही कोई अस्पताल या घर में दम तोड़ दे, बेटी का विवाह न हो पाए या फिर बेटे की पढ़ाई के लिए फीस का इंतजाम न हो.

वह पैसा जिसे ले कर चुकाना जीतेजी मुमकिन न हो उसे न लेना ही बेहतर है. निश्चित रूप से यह सूदखोरी के सामने हथियार डालने जैसी बात है, क्योंकि कोई बैंक या सरकार आधी रात को सेलाइन की बोतल और अस्पताल की फीस के लिए कर्ज नहीं देते. मुसीबत के वक्त अपने सगे फोन उठाना बंद कर देते हैं और यारदोस्त कन्नी काटने लगते हैं.

इतना जरूर हर कोई कर सकता है कि जरूरत के वक्त के लिए बचत करे, लालच और शौर्टकट के पैसे से दूर रहे और जरूरत बड़ी हो तो बेहतर है कि बजाय सूदखोरों से कर्ज लेने के औनेपौने में गहने या जायदाद बेच दी जाए.

कपिल गोकलानी जैसा करोड़पति कारोबारी इसी गैरजरूरी जरूरत और लालच के चलते सूदखोरों के हत्थे चढ़ कर कंगाली की कगार पर खड़ा है उस से सबक तो सीखा ही जा सकता है.

ऐसे बचें

  • सूदखोरों  से ब्याज के बाबत स्पष्ट बात करें. ये लोग बात तो 10 फीसदी सालाना की करते हैं पर लिखापढ़ी वार्षिक के बजाय मासिक की करते हैं.
  • पहले से टाइप की हुई लिखापढ़ी बगैर पढ़े और बिना सोचेसमझें दस्तखत न करें, यह कोई बैंक का छपा हुआ फार्म नहीं होता.
  • कभी भी कोरे कागज या स्टांप पेपर पर दस्तखत न करें.
  • नशा, जुआ, सट्टा और वेश्यावृत्ति से खुद को बचाएं.
  • कोरे दस्तखत किए गए चैक तो हरगिज न दें. वजह, आजकल चैक बाउंस होने का कानून काफी सख्त हो गया है और बैंक को किसी ग्राहक की मजबूरी से कोई मतलब नहीं होता.
  • गवाह अपने रखने की कोशिश करें.
  • जमीनजायदाद या जेवरात गिरवी रखें तो उन का अनुमानित वर्तमान बाजार मूल्य जरूर दर्ज कराएं.
  • अदा किए गए प्रत्येक भुगतान की रसीद अवश्य लें और ब्याज का भुगतान अकाउंट पेयी चैक से करें जिस से सनद रहे.
  • अगर सूदखोर नाजायज ब्याज के लिए खुद या गुर्गों के जरिए डराए या धमकाए तो पुलिस के पास जाने में देर न करें. वक्त पर यानी पहली दफा ही यह ऐक्शन न लेने पर वह आप पर हावी होता चला जाता है.
  • अपना एटीएम व उस का पासवर्ड किसी सूदखोर को कतई न दें और याद रखें कि ली गई रकम पर आप ब्याज देते हैं, उस लिहाज से सूदखोर आप पर कोई एहसान नहीं करता है. इसलिए उस से डरें नहीं न ही किसी किस्म का लिहाज करें.
  • अगर सूदखोर जमीनजायदाद की नीलामी की धौंस दे तो भी न डरें. इस की शिकायत भी पुलिस और दूसरे अधिकारियों से करें.

अब कौन कहेगा ‘मेरे पास मां है’

अपने समय के मशहूर रोमांटिक अभिनेता शशि कपूर का 79 वर्ष की उम्र में लंबी बीमारी के बाद सोमवार 4 दिसंबर को मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में शाम पांच बजकर 20 मिनट पर निधन हो गया. शशि कपूर पिछले कई वर्षों से व्हील चेअर पर थे. किडनी की बीमारी के चलते रविवार की शाम को उन्हे मुंबई के अंधेरी स्थित कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

जब शशि कपूर ने अंतिम सांसे लीं, उस वक्त उनके पास उनके बड़े बेटे कुणाल कपूर मौजूद थे. जबकि उनकी बेटी संजना कपूर और छोटा बेटा करण कपूर मुंबई से बाहर थे, पर देर रात तक यह दोनों मुंबई पहुंच गए. मंगलवार, 5 दिसंबर को दोपहर 12 बजे मुंबई में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.

शशि कपूर के निधन के साथ ही कपूर खानदान यानी कि स्व. पृथ्वीराज कपूर की दूसरी पीढ़ी का अंत हो गया, जबकि उनकी तीसरी व चौथी पीढ़ी बौलीवुड में अभिनय के क्षेत्र में कार्यरत है. स्व. पृथ्वीराज कपूर के सबसे बड़े बेटे राज कपूर, मंझले बेटे शम्मी कपूर और शशि कपूर सबसे छोटे बेटे थे. नियति का खेल भी निराला रहा. पृथ्वीराज कपूर के बाद उनके बड़े बेटे राज कपूर, फिर मंझले बेटे शम्मी कपूर और अब सबसे छोटे बेटे शशि कपूर का देहांत हुआ है.

अब कौन कहेगा ‘‘मेरे पास मां है’

शशि कपूर के देहांत की खबर से सिर्फ बौलीवुड ही नहीं, बल्कि शशि कपूर के लाखों प्रशंसक भी गम में डूब गए. हर किसी की जुबान पर सिर्फ एक सवाल है कि, अब कौन कहेगा कि ‘मेरे पास मां है.’ यूं तो हर कलाकार के उनकी सफलतम फिल्मों के कुछ संवाद उनके प्रशंसकों को हमेशा याद रहते हैं, मगर शशि कपूर के अनेक संवाद ऐसे हैं, जो कि उनके हर प्रशंसक की जुबान पर हैं. मगर उन संवादों में से फिल्म ‘दीवार’ में दो सगे भाईयों में से एक माफिया डान बने विजय वर्मा का किरदार निभाते हुए अमिताभ बच्चन अपने छोटे भाई व पुलिस इंस्पेक्टर रवि वर्मा का किरदार निभा रहे शशि कपूर से एक मोड़ पर कहते हैं कि उनके पास ‘बंगला,गाड़ी…वगैरह है..’’ तब रवि वर्मा यानी शशि कपूर उनसे कहते हैं-‘‘मेरे पास मां है.’’ जिसे सुनकर विजय वर्मा निरुत्तर हो जाते हैं. फिल्म ‘‘दीवार’’ का शशि कपूर का यह संवाद हर भारतीय के दिल में समा गया था. तब से मौके बेमौके लोग इस संवाद को अपनी निजी जिंदगी में दोहराते रहते हैं. यही वजह है कि आज शशि कपूर के इस संसार से विदा लेते ही लोगों के जेहन में पहला सवाल यही उठा कि अब कौन कहेगा ‘मेरे पास मां है’.

शशि कपूर ने खुद बनायी थी अपनी राह

इन दिनों बौलीवुड में नेपोटिजम का मुद्दा गर्माया हुआ है, जबकि पृथ्वीराज कपूर ने कभी भी बौलीवुड में आगे बढ़ने के लिए अपने बेटों की मदद नहीं की. 18 मार्च 1938 के दिन कलकत्ता, अब कोलकाता में जन्मे बलबीर पृथ्वीराज कपूर यानी कि शशि कपूर ने जब 1944 में बाल कलाकार के रूप में अभिनय करियर की शुरुआत की थी. उस वक्त उनके पिता पृथ्वीराज कपूर ने कहा था कि शशि कपूर खुद संघर्ष करें, मेहनत करें और अपनी मेहनत व प्रतिभा के बल पर अभिनेता बनें. शशि कपूर ने अपने पिता के इस कथन को गांठ बांध लिया था. पर वह अपने पिता का काफी सम्मान करते थे.

पिता के सम्मान में पृथ्वी थिएटर

अपने पिता के सपनों को याद रखते हुए शशि कपूर थिएटर से जुड़े. इतना ही नहीं शशि कपूर ने अपने पिता के सपनों को पूरा करने और थिएटर की बेहतरी, थिएटर से नई नई प्रतिभाओं को जुड़ने की प्रेरणा देने के मकसद से अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के नाम पर मुंबई में जुहू इलाके में ‘‘पृथ्वी थिएटर’’ की शुरुआत की, जहां पर हर दिन नए नए रंगकर्मी और कलाकार अपने नाटकों का प्रक्षेपण करते रहते हैं.

इस पृथ्वी थिएटर पर अपने नाटकों का मंचन करते हुए कई प्रतिभाएं सिनेमा व टीवी की दुनिया में नित नई उंचाइयां छूती रही हैं और आज भी छू रही हैं. इतना ही नहीं सिनेमा के कई दिग्गज कलाकार भी इस पृथ्वी थिएटर पर अपने नाटकों मंचन करते हैं. शुरुआत में खुद शशि कपूर इस पृथ्वी थिएटर की देखभाल किया करते थे. वह हर रंगकर्मी के सुख दुःख सुना करते थे. उसके बाद यह जिम्मेदारी उनकी बेटी संजना कपूर ने निभाना शुरू किया. जब संजना कपूर की वाल्मीक थापर के शादी हो गयी, तब से इस जिम्मेदारी का निर्वाह शशि कपूर के बड़े बेटे कुणाल कपूर बड़ी शिद्दत के साथ कर रहे हैं. यही वजह है कि देश का हर रंगकर्मी शशि कपूर की मौत से गमगीन है?

हीरो बनने से पहले ही की विदेशी लड़की जेनिफर केंडल से विवाह

यूं तो शशि कपूर ने महज दस साल की उम्र में ही बाल कलाकार के रूप में अपने बड़े भाई राज कपूर के बचपन के किरदारों को फिल्मों में निभाना शुरू किया था, पर 16 साल की उम्र में वह अपने पिता के थिएटर जुड़ गए. जब वह 18 वर्ष के थे, तब भारत की यात्रा पर आयी एक ब्रिटेन की नाट्य मंडली ‘शेक्सपियेराना’ से जुड़ गए. जहां उन्हे इस नाट्यमंडली के मालिक की बेटी जेनिफर केंडल से प्यार हो गया और 1958 में दोनों ने शादी कर ली. जिनसे उनके दो बेटे कुणाल कपूर व करण कपूर तथा एक बेटी संजना कपूर हैं. 1984 में जेनिफर कपूर की मौत हो गयी थी. उसके बाद से उनकी दुनिया अभिनय, पृथ्वी थिएटर व अपने बच्चों तक ही सीमित होकर रह गयी थी.

विवाह के बाद किस्मत खुली

ब्रिटिश नागरिक जेनिफर केंडल से विवाह रचाने के बाद शशि कपूर की किस्मत ने जबरदस्त पलटा खाया. 1959 में उन्होंने कुछ फिल्मों में बतौर सहायक निर्देशक काम किया. फिर 1961 में उन्हे बी आर चोपड़ा निर्मित तथा उनके भाई यश चोपड़ा निर्देशित फिल्म ‘‘धर्म पुत्र’’ में माला सिन्हा के साथ हीरो बनकर आने का मौका मिला. इस फिल्म को बाक्स आफिस पर सफलता नहीं मिली, मगर इसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया. राष्ट्रपति ने इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के रजत पदक से नवाजा. फिर बिमल राय की फिल्म ‘‘प्रेमपत्र’’ की, पर इसे भी सफलता नहीं मिली. इसके बाद ‘मेंहदी लगी मेरे हाथ’, ‘बेनजीर’ व ‘हालीडे इन बांबे’ सहित उनकी करीबन नौ फिल्में बाक्स आफिस पर सफलता दर्ज नहीं कर सकी.

‘वक्त’ ने बदला उनका वक्त

‘धर्मपुत्र’ की असफलता के बावजूद बी आर चोपड़ा ने 1965 में अपनी मल्टीस्टारर फिल्म ‘‘वक्त’’ में बलराज साहनी, राज कुमार, सुनील दत्त, साधना, शर्मिला टैगोर के साथ ही शशि कपूर को भी अभिनय करने का अवसर दिया. इस फिल्म में अभिनय करना शशि कपूर के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. बलराज साहनी व राज कुमार जैसे कलाकारों के समक्ष खड़े रहना हर कलाकार के बस की बात नहीं थी. इसके अलावा इस फिल्म में उनके साथ सुनील दत्त भी थे. यहां याद रखना होगा कि सुनील दत्त के करियर की पहली फिल्म ‘‘पोस्ट बाक्स 999’’ में शशि कपूर ने बतौर सहायक निर्देशक काम किया था.

खैर, शशि कपूर ने कड़ी मेहनत की और इस फिल्म की सफलता के साथ ही लोगों ने इस फिल्म में शशि कपूर द्वारा निभाए गए विजय उर्फ मुन्ना के किरदार को भी काफी पसंद किया. इतना ही नहीं इस फिल्म को अलग अलग कैटेगरी में कुल सात फिल्मफेअर अवार्ड भी मिले. इसी साल नंदा के साथ उनकी फिल्म ‘‘जब जब फूल खिले’’ तथा ‘‘प्यार किए जा’ ने भी धूम मचायी.

बहरहाल, फिल्म ‘वक्त’ से शशि कपूर का वक्त ऐसा बदला कि फिर उन्होंने करीबन बीस वर्ष तक बौलीवुड में रोमांटिक हीरो के रूप में अपना एकक्षत्र राज्य कायम रखा. बतौर हीरो उन्होंने 170 फिल्में की, जिसमें ‘36 चौरंगी लेन’, ‘चोर मचाए शोर’, ‘दीवार’, ‘कभी कभी’, ‘त्रिशूल’, ‘सुहाग’, काला पत्थर’,  ‘विजेता’, ‘जुनून’, ‘दिल ने पुकारा’, ‘कन्यादान’, उनकी कुछ चर्चित फिल्में हैं.

1998 में उन्होंने दो अंग्रेजी भाषा की फिल्में ‘‘जिन्ना’’ व ‘‘साइडस्ट्रीट’’ की. इसके बाद वह किसी भी फिल्म में नजर नही आए. मगर वह अपने पृथ्वी थिएटर पर हर दिन नाटक देखने जाते रहे हैं.

रोमांटिक और चाकलेटी हीरो ही नहीं, हरफनमौला कलाकार

बौलीवुड के सर्वाधिक हैंडसम और अति खूबसूरत शशि कपूर को लोग ‘चाकलेटी चेहरे’ वाला कलाकार कहते थे. शशि कपूर के ही वक्त में चाकलेटी हीरो शब्द इजाद हुआ था. शशि कपूर एकमात्र ऐसे कलाकार रहे हैं, जिन्हें सर्वाधिक सफल व अलग तरह के रोमांटिक हीरो की संज्ञा दी जाती रही. जबकि शशि कपूर ने रोमांटिक किरदारों के अलावा हास्य, एक्शन, नाटकीय किरदार भी निभाए. वह अपने समय के ऐसे कलाकार रहे हैं, जिन्होंने हिंदी के अलावा हौलीवुड फिल्में और अंग्रेजी सिनेमा भी किया. अंग्रेजी भाषा में खुद भी फिल्में बनायी. पर शशि कपूर ने रोमांटिक हीरो के रूप में जो अमिट छाप छोड़ी, वह कोई अन्य नहीं छोड़ पाया.

अमिताभ, शर्मिला, राखी के साथ सबसे ज्यादा फिल्में

शशि कपूर और अमिताभ बच्चन की जोड़ी को फिल्मों मे सर्वाधिक पसंद किया गया. इन दोनों ने ‘सुहाग’, ‘दो और दो पांच’, ‘अजूबा’, ‘दीवार’, ‘कभी कभी’ , ’शान’, ‘सिलसिला’, ‘बांबे टाकीज’, ‘नमक हलाल’, ‘जानेमन’, ‘त्रिशूल’ जैसी फिल्में की. राखी के साथ दस, शर्मिला टैगोर के साथ 12, नंदा के साथ ग्यारह यादगार फिल्में की.

व्यावसायिक फिल्मों की कमायी को कला फिल्मों में गंवाया

शशि कपूर पर विदेशी सिनेमा के अलावा कलात्मक सिनेमा का काफी प्रभाव रहा. उन्होंने मुंबईया मसाला फिल्मों में अभिनय कर जमकर पैसा कमाया. पर इस धन का उपयोग उन्होंने ‘पृथ्वी थिएटर’ को संवारने के अलावा अपनी मनपंसद कलात्मक फिल्मों के निर्माण में करते रहे.

शशि कपूर ने सबसे पहले 1978 में फिल्म ‘‘जुनून’’ का निर्माण किया था. उसके बाद ‘कलयुग’, 36 चौरंगी लेन’, ‘विजेता’, ‘उत्सव’ और ‘अजूबा’ का निर्माण किया. शशि कपूर ने 1991 में अति महंगी फिल्म ‘‘अजूबा’’ का निर्माण किया था, जिसमें अमिताभ बच्चन भी थे. इस फिल्म की असफलता से उन्हे इतना नुकसान हुआ कि वह पूरी तरह से टूट गए. उसके बाद वह 1993 में अंग्रेजी भाषा की फिल्म ‘इन कस्टडी’ में नजर आए थे. फिर एक विदेशी टीवी पर मिनी सीरीज की. 1998 के बाद वह अभिनय व फिल्म निर्माण से पूरी तरह से दूर हो गए.

पत्नी व भाई की मौत ने तोड़ दिया

1984 में पत्नी जेनिफर की मौत, उसके बाद 1988 में बडे़ भाई राज कपूर की मौत के बाद शशि कपूर खुद को बड़ा अकेला महसूस करने लगे और पृथ्वी थिएटर की जिम्मेदारी बेटी संजना को सौंप एकांतवास की जिंदगी जीने लगे थे. पर कलात्मक इंसान कब तक चुप रहता. तो उन्होंने 1991 में ‘अजूबा’ फिल्म का निर्माण किया. इस फिल्म के डूबने से उनकी आर्थिक कमर भी टूट गयी.

उसके कुछ दिनों बाद सडक पर चलते हुए वह एक नाले में इस तरह गिरे कि उनके शरीर की कई हड्डियां टूट गयी. ब्रीच कैंडी अस्पताल में कई माह गुजारने के बाद वह व्हील चेयर पर ही अपने घर पहुंचे. उसके बाद उन्होंने लोगों और पत्रकारों से मिलना जुलना बंद कर दिया. पर सुबह वह पृथ्वी थिएटर पर नाटक देखने पहुंच जाया करते थे. उनके जन्मदिन पर पूरा कपूर खानदान इकट्ठा होता था. उनके हर जन्मदिन पर धर्मेंद्र जरूर पहुंचते थे. शशि कपूर के जन्मदिन पर यदि अमिताभ बच्चन मुंबई में हुए तो वह भी उन्हें बधाईयां देने जरूर पहुंचते थे.

व्हील चेयर पर ही मिले उन्हें 2 बड़े सरकारी सम्मान

जीवन भर कला की सेवा करते रहे शशि कपूर जब व्हील चेयर पर पहुंच गए, तब सरकार ने उन्हें याद किया. 2011 में पद्मभूषण और 2015 में सिनेमा के सबसे बडे़ सम्मान दादा साहेब फालके अवार्ड से सम्मानित किया. वैसे उन्हें अपनी फिल्मों के लिए सबसे पहला राष्ट्रीय पुरस्कार 1979 में मिला था. और कुल तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. इसके अलावा फिल्मफेयर सहित कई पुरस्कार भी उन्हें मिले.

शशि कपूर की अधूरी तमन्ना

फिल्म ‘‘अजूबा’’ बनाने से पहले शशि कपूर की तमन्ना दिलीप कुमार को लेकर एक फिल्म बनाने की थी. उन्होंने इस फिल्म के लिए पटकथा भी तैयार कर ली थी. लेकिन पहले ‘अजूबा’ की वजह से हुए घाटे और बाद में स्वास्थ्य का साथ ना मिलने की वजह से उनकी यह तमन्ना अंत तक अधूरी रही.

अमिताभ बच्चन और शशि कपूर

यूं तो शशि कपूर उम्र में अमिताभ बच्चन से पांच साल बडे थे. मगर लगभग हर फिल्म में शशि कपूर ने अमिताभ बच्चन के छोटे भाई का ही किरदार निभाया. इन दोनों कलाकारों के बीच काफी अच्छी दोस्ती रही है. 80 के दशक में बौलीवुड में कहा जाता था कि  दोनों के बीच एक एग्रीमेंट हो चुका हैं कि दो हीरो वाली फिल्में यह दोनों एक साथ करेंगे. जब कोई निर्माता इनमें से किसी एक के पास फिल्म का आफर लेकर जाता था तो यह दोनों उस एग्रीमेंट की कापी उस निर्माता को दिखा दिया करते थे. यही वजह है कि इन दोनों की जोड़ी ने एक साथ 11 फिल्में की.

लोग बताते हैं कि जब अमिताभ बच्चन संघर्ष कर रहे थे तब शशि कपूर ने उनकी काफी मदद की थी. यहां तक कि एक बार यह दोनों मुंबई कें बांदरा इलाके में उस वक्त के सीराक हाटल में दसवीं मंजिल पर एक साथ शूटिंग कर रहे थे उसी वक्त अमिताभ बच्चन को दमा का अटैक पडा था. तब शशि कपूर ने ही उन्हें पकड़कर पीछे खींचा था अन्यथा वह काफी नीचे गिर सकते थे.

अनिल कपूर के करियर में शशि कपूर का योगदान

शशि कपूर की ही तरह अनिल कपूर ने भी बौलीवुड के साथ साथ कुछ हौलीवुड फिल्मों में अभिनय किया है. शशि कपूर की ही तरह वह भी  फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं. पर बहुत कम लोगों को पता होगा कि अनिल कपूर आज जिस मुकाम पर हैं, वह अपने करियर में शशि कपूर का बहुत बड़ा योगदान मानते हैं.

कुछ दिन पहले मीडिया के सामने खुद अनिल कपूर ने कहा था -‘‘मेरे करियर में शशि कपूर साहब का बहुत बड़ा योगदान रहा है. जब मैं सेंट जेवीयर्स कालेज में पढाई कर रहा था, उन दिनों एक समारोह में शशि कपूर मुख्य अतिथि  बनकर आए थे. इसी समारोह में मैंने एक नाटक में अभिनय किया था, जिसके लिए कालेज द्वारा दिलीप कुमार के नाम पर स्थापित पुरस्कार से मुझे नवाजा गया था. मुझे बेहतरीन कलाकार का यह पुरस्कार शशि कपूर के हाथों ही मिला था. इस नाटक को देखकर शशि कपूर काफी खुश हुए थे. मुझे पुरस्कार देने के बाद वह जहां जाते थे मेरे बारे में बात करते थे. मेरी तारीफ करते थे. उस समय इंडस्ट्री के काफी बडे लोगों से उन्होंने कहा कि एक अच्छा कलाकार आ रहा है.’’

अनिल कपूर ने आगे कहा -‘‘फिर जब मैंने फिल्मों में अभिनय करने के लिए संघर्ष करना शुरू किया तो मुझे पहली फिल्म ‘तू पायल मैं गीत’ मिली थी. इसमें मुझे शशि कपूर के टीनएजर उम्र यानी कि 15 साल की उम्र का किरदार निभाने का मौका मिला था. मुझे अच्छी तरह से याद है कि यह किरदार एक संगीतकार के बेटे का था जो कि खुद एक गायक बनना चाहता है. मैंने इसमें अभिनय किया था. मगर दुर्भाग्य की बात यह रही कि यह फिल्म कभी रिलीज ही नही हो पायी. उसके बाद मुझे कभी भी शशि कपूर के साथ काम करने का मौका नही मिला.

अब ओला कराएगी आपको साइकिल की सवारी

कैब सर्विस मुहैया करानेवाली कंपनी ओला और कुछ स्टार्टअप्स अब देश में साइकिल रेंटल सर्विस शुरू करने की तैयारी में हैं. ओला कंपनी अपने इस साइकिल रेंटल सर्विस को ओला पेडल के नाम से आईआईटी कानपुर कैंपस में टेस्ट कर रही है. स्टूडेंट्स ओला ऐप के जरिए जिस तरह से कैब बुक करते हैं, उसी तरह से साइकल भी किराए पर ले सकते हैं.

ओला के एक एग्जिक्युटिव ने बताया, ‘पूरे कैंपस में 500-600 साइकिलें उपलब्ध हैं. उन्होंने कहा कि आईआईटी कानपुर में पेश की गई ओला की मौजूदा साइकिलों में बेहतर सिक्योरिटी फीचर्स नहीं हैं, लेकिन कुछ समय बाद इसके लिए क्यूआर कोड और जीपीएस ट्रैकिंग की व्यवस्था की जाने की उम्मीद है.

आईआईटी कानपुर में यूजर्स को ट्रायल रन के तहत 30 मिनट के लिए साइकिल की सवारी मुफ्त मुहैया कराई जा रही है. पहले 30 मिनट की मुफ्त सवारी के बाद अगले 30 मिनट के लिए कास्ट फिलहाल सिर्फ 5 रुपये है.’

ओला के बयान में कहा गया है, ‘हमें देश के तमाम कैंपसों और शहरों में ओला पेडल में लोगों की काफी दिलचस्पी देखने को मिल रही है. हम आनेवाले हफ्तों में अपने आफर का दायरा बढ़ाने को लेकर काम कर रहे हैं.’

कंपनी के प्लान से वाकिफ एक शख्स ने कहा कि अगर यह प्रोजेक्ट सफल रहा, तो आनेवाले समय में ओला इस सर्विस का और भी ज्यादा बेहतर वर्जन पेश कर सकता है. युवाओं के बीच साइकल के लोकप्रिय होने की गुंजाइश है.

फेसबुक अब क्विकर और ओएलएक्स को देगा टक्कर

सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर हाल ही में कई नए फीचर्स जोड़े गए हैं. जैसे की अब यूजर्स फेसबुक के जरिए खाना आर्डर कर सकते हैं और ब्लड डोनेशन से जुड़ी जानकारी भी पा सकते हैं. अब फेसबुक अपने यूजर्स की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए और भी कई नए फिचर्स लेकर आ रहा है.

इस फीचर के तहत यूजर्स ओएलएक्स और क्विकर की तरह फेसबुक पर भी अपना सामान बेच सकेंगे. फेसबुक के इस फीचर की फिलहाल टेस्टिंग चल रही है. इस आने वाले नए फीचर का नाम फेसबुक मार्केटप्लेस रखा जाएगा.

आपको बता दें कि भारत से पहले 2016 में ही यह फीचर कई देशों में लौन्च किया जा चुका है. फेसबुक द्वारा दी गई रिपोर्ट के मुताबिक प्रति महीने 450 मिलियन यूजर्स इस फीचर का इस्तेमाल करते हैं.

फेसबुक ने आधिकारिक तौर पर इस फीचर के बारे में बताया है की -‘हम चाहते हैं कि लोग आसानी से एक ही प्लेटफार्म पर सामान को खरीद और बेच सकें, इसलिए हम भारत में मार्केटप्लेस की टेस्टिंग कर रहे हैं. फिलहाल इस फीचर की मुंबई में टेस्टिंग चल रही है.

मुंबई के फेसबुक यूजर्स इस एप के जरिए सामान को आसानी से बेच सकते हैं. इसके लिए बस उन्हें फेसबुक में दिए गए मार्केटप्लेस बटन पर क्लिक करना होगा और आगे आने वाले विकल्पों का चयन करना होगा.

फेसबुक का यह नया फिचर लौंच होने के बाद ओएलएक्स और क्विकर जैसी वेबसाइट्स को कड़ी टक्कर देगा. हालांकि, फीचर में एक कमी कही जा सकती है और वो यह है की इस फीचर्स से सामान पेश किया जा सकेगा लेकिन फेसबुक के जरिए डिलीवरी और पेमेंट जैसी कोई सुविधा नहीं दी जाएगी.

श्रीलंकाई टीम पर भड़के सौरव गांगुली ने कहा, बैटिंग के वक्त कहां था मास्क?

भारत और श्रीलंका के बीच दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान पर खेला जा रहा टेस्ट मैच खेल के दूसरे दिन दिल्ली प्रदूषण को लेकर काफी चर्चा में रहा. यह टेस्ट मैच अपने खेल से ज्यादा दिल्ली के पोल्यूशन को लेकर तब सुर्खियों में आ गया, जब श्रीलंकाई टीम के खिलाड़ी खेल के मैदान पर अपने चेहरों पर मास्क लगाकर उतरे.

मालूम हो कि भारत और श्रीलंका के बीच टेस्‍ट सीरीज के आखिरी मैच के दूसरे दिन फिरोज शाह कोटला मैदान पर खूब ड्रामा हुआ. भारतीय पारी घोषित होने से पहले मैदान पर कई नाटकीय मोड़ आए. दिन के दूसरे सत्र में पांच से ज्यादा श्रीलंकाई खिलाड़ी प्रदूषण के कारण मैदान पर मास्क पहन कर उतरे.

श्रीलंका के तेज गेंदबाजों ने जब सांस लेने में तकलीफ की शिकायत की और बोलिंग करने से मना कर दिया, तो मैदान पर अंपायर्स और खिलाड़ियों ने काफी मंत्रणा की. श्रीलंकाई टीम ऐसे माहौल में क्रिकेट खेलने को तैयार नहीं थी. इस दौरान खेल रुका रहा.

दूसरे सत्र में 123वें ओवर में भारत जब पांच विकेट खोकर 509 रनों पर था तभी श्रीलंकाई गेंदबाज लाहिरू गमागे को सांस लेने में परेशानी हुई और खेल रोका गया. तकरीबन 15 मिनट तक खेल रुका रहा.

श्रीलंकाई टीम के द्वारा मैदान पर की जा रही ऐसी हरकत को देखकर पूर्व भारतीय कप्‍तान सौरव गांगुली काफी नाराज हैं. सौरव गांगुली ने श्रीलंकाई टीम पर एक सवाल खड़ा किया कि जब श्रीलंकाई खिलाड़ियो को दिल्‍ली के प्रदूषण से तकलीफ हो रही थी तो वे बल्‍लेबाजी के समय मास्‍क पहनकर मैदान पर क्‍यों नहीं आए?

गांगुली ने एक हिन्दी न्यूज चैनल से बात करते हुए कहा, “विराट और टीम मैनेजमेंट को लगा कि गेम उनके हाथ से निकल रहा है, उनका वक्‍त जाया हो रहा है इसलिए उन्‍होंने डिक्‍लेयर कर दिया. विराट अपनी एकाग्रता खो बैठे, और आउट हो गए. लेकिन जब श्रीलंका बल्‍लेबाजी करने आई तो मैंने उन पांचों बल्‍लेबाजों के मुंह पर कोई मास्‍क नहीं देखा जो क्रीज पर रहे और अगर आप पवेलियन की तरफ देखें जहां वे बैठे थे, वहां भी किसी ने कोई मास्‍क नहीं लगा रखा था. इसलिए, मुझे नहीं समझ आता कि इतनी जल्‍दी सबकुछ कैसे बदल गया.”

पूर्व कप्‍तान ने आगे कहा, “अगर गामगे और लकमल को मास्‍क के साथ दौड़ रहे थे तो एंजेलो मैथ्‍यूज भी सिंगल और डबल ले रहे थे. ये तो एक ही बात है. मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा चौंकाया वह थी कि उन्होंने मास्‍क पहना और उसका बतंगड़ भी बना दिया. ये बेहद परेशान करने वाली बात है, पर मुझे उम्‍मीद है कि इसके पीछे उनकी कोई बुरी भावना नहीं है.”

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