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त्वचा कैंसर से ऐसे बचें, वरना भुगतना पड़ेगा खामियाजा

हर वर्ष त्वचा कैंसर के तकरीबन 10 लाख से ज्यादा मामले सामने आते हैं. त्वचा कैंसर का मतलब एबनौर्मल ग्रोथ औफ सैल्स होता है. इस में सैल्स का डिवीजन होता है. जहां जरूरत नहीं है वहां त्वचा असामान्य रूप से विभाजित होने लगती है जिस के कारण त्वचा कैंसर होता है.

त्वचा कैंसर का उपचार थोड़ा मुश्किल है पर इस से बचने के लिए कोशिश की जाती है. मुख्यरूप से 3 टाइप के त्वचा कैंसर होते हैं :

– बेसल सैल्स

– स्क्वैमस सैल्स कार्सिनोमा

– मेलेनोमा

भारत में बेसल सैल्स व स्क्वैमस सैल्स कौमन हैं जबकि मेलेनोमा आस्ट्रेलिया व यूएसए में ज्यादा होता है. यह पराबैगनी किरणों के संपर्क में आने के कारण होता है. वैसे मेलेनोमा कैंसर के कई कारण होते हैं, जैसे जिस के शरीर में इम्यूनिटी पावर कम होगी उसे मेलेनोमा कैंसर का अधिक खतरा होता है. एचआईवी से पीडि़त लोगों में इम्यूनिटी पावर कम होती है, इसलिए उन में इस बीमारी का सब से अधिक खतरा रहता है. अगर आप अपनी बौडी का एक्सरे कई बार करवाते हैं तो आप भी इस की चपेट में आ सकते हैं.

मेलेनोमा कैंसर तेजी से फैलता है. अगर शरीर में हलका घाव हो तो वह तेजी से बढ़ने लगता है. मेलेनोमा का रंग काले व गुलाबी रंग से मिल कर बनने वाले बैगनी कलर का होता है. शरीर के हर घाव को मेलेनोमा कैंसर न समझें, इलाज तुरंत शुरू कर दें.

जहां तक बेसल सैल्स की बात है तो यह कम फैलता है. यदि चेहरे का घाव लंबे समय से है और वह ठीक नहीं हो रहा है, तो जल्द ही किसी चिकित्सक से मिलें. अगर ऐसा नहीं करते हैं तो यह कैंसर का रूप ले सकता है.

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इन्हें न करें नजरअंदाज

एक्जिमा टाइप की बीमारी या फिर कुहनी, घुटने, हथेली का घाव ठीक न हो रहा हो या फिर शरीर में मस्से का रंग व साइज बदलने लगे तो इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. चेहरे में लालपन होना भी खतरे से खाली नहीं. कोई भी धब्बा 6 हफ्ते तक अगर ठीक न हो तो इसे हलके में न लें.

किसे है ज्यादा खतरा

– जिस की त्वचा का रंग गोरा हो.

– जो धूप के संपर्क में ज्यादा रहता हो.

– जो ऊंचाई वाले पहाड़ी इलाके में रहता हो.

– एड्स के मरीजों को.

– आनुवंशिक यानी घर में पहले भी किसी को यह बीमारी रही हो.

– रेडिएशन से इलाज करवाने वालों को.

– जिसे अधिक पिंपल्स निकलते हों.

– जिन्हें एक्जिमा हो.

– जो ज्यादा कैमिकल के संपर्क में रहता हो.

बचें कैसे

– कोशिश करें कि घर से बाहर निकलने पर शरीर कपड़ों से ढका हुआ हो.

– जिन दवाओं से एलर्जी हो उन्हें कहीं लिख कर रखें और खाने से बचें.

– ऐंटीबायोटिक दवाओं से बचें. डाक्टर के परामर्श के बाद ही ऐंटीबोयोटिक दवाओं को लें.

– 30-40 वर्ष की आयु के बाद साल में एक बार त्वचा की जांच जरूर करवाएं.

– अल्ट्रावौयलेट रेज से बचने के लिए सनस्क्रीन क्रीम का इस्तेमाल करें. चाहे सर्दी हो या गरमी, जब भी बाहर निकलें तो क्रीम लगा कर ही निकलें. याद रहे सनस्क्रीन क्रीम का असर मात्र 6 घंटे तक ही होता है. आप चाहें तो क्रीम को साथ रख सकते हैं.

पता कैसे चलता है

त्वचा के प्रभावित हिस्से की बायोप्सी से ही त्वचा कैंसर का पता चलता है. यह कितनी गहराई तक है, का पता लगा कर इस का इलाज किया जाता है. ऊपरी परत का कैंसर फ्रीज कर के निकाला जाता है. जो कैंसर गहराई तक है उसे मौज सर्जरी के माध्यम से ठीक करते हैं. कैंसर की गहराई नीचे तक हो तो रेडिएशन या कीमोथेरैपी के जरिए इस का इलाज किया जाता है.

आजकल नई तकनीक यानी बायोलौजिकल थेरैपी के जरिए कैंसर का इलाज किया जा रहा है. इस का प्रयोग उन दवाइयों के लिए किया जाता है जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा कैंसर की कोशिकाओं पर आक्रमण करती हैं. यह ज्यादातर कैंसर की शुरुआती अवस्था में की जाती है.

(लेख दिल्ली स्थित लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल में त्वचा विभाग के डायरैक्टर एवं प्रोफैसर डा. विजय कुमार गर्ग से बातचीत पर आधारित.)

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स्तन कैंसर : घबराएं नहीं, जांच कराएं और इन लक्षणों पर ध्यान दें

स्तन कैंसर, स्तन कोशिकाओं के असामान्य विकास का परिणाम है. इस का कोई विशेष कारण ज्ञात नहीं है कि स्तन की मांसपेशी क्यों असामान्य रूप से बढ़ने लग जाती हैं. भारत में स्तन कैंसर बहुत ही सामान्य है. उस के बाद फेफड़ों का कैंसर है. स्तन कैंसर से पीड़ित मरीजों की संख्या के निरंतर बढ़ने का कारण है अज्ञानता.

यह रोग प्रारंभिक अवस्था में पता चल जाने पर न तो जानलेवा होगा न ही उपचार के परे. अधिकांश रूप में स्तन में गांठ  ही प्रथम लक्षण हो सकता है, परंतु इस के अलावा कई अन्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए.

इन 5 लक्षणों पर विशेष ध्यान दें-

स्तन में सूजन व गांठ :  यह एक प्रारंभिक लक्षण है. यदि स्तन का आकार बढ़ने लगे तो अवश्य डाक्टर से सलाह लें.

स्तन से स्राव :  यह भी एक सामान्य लक्षण है. प्रत्येक स्तनस्राव दूध नहीं होता है. रक्तमिश्रित या पानी जैसा स्राव होने पर स्तन को दबाना नहीं चाहिए. डाक्टर से संपर्क करना चाहिए.

स्तन पर गड्ढा/त्वचा का निकलना: यदि स्तन की चमड़ी असामान्य प्रतीत हो या रंग में परिवर्तन अथवा मोटा, खुरदरा महसूस हो, जैसे नारंगी का छिलका तो बिना समय गंवाए डाक्टरी सलाह लें.

निपल असामान्य हो जाएं : स्तन के निपल यदि अंदर चले जाएं या वे असामान्य प्रतीत हों तो अवश्य जांच करवाएं क्योंकि कैंसर की कोशिकाओं के विकसित होने पर निपल में असामान्य बदलाव 7 प्रतिशत मरीजों में देखा गया है. स्तन का रंग लाल या सूजा हुआ या निपल के चारों ओर का चर्म बदला हुआ हो सकता है.

स्तन में पीड़ा : स्तन कैंसर से पीडि़त मरीजों का असामान्य लक्षण है स्तन में पीड़ा होना. लोगों में ऐसा भ्रम है कि स्तन की गांठ केवल उसी स्थान पर पीड़ा का कारण होगी, परंतु यह सत्य नहीं है. संपूर्ण स्तन में पीड़ा का अनुभव हो सकता है. ऐसा महसूस हो सकता है मानो कोई फोड़ा रिस या टपक रहा हो. इस पीड़ा को हलके में न लें. तुरंत जांच करवाएं.

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उपरोक्त 5 बातों का ध्यान रखने से स्तन कैंसर प्रथम स्तर पर पता किया जा सकता है जिस का उपचार संभव है.

अपने शरीर में होने वाले स्तन व उदर में दर्द, मासिकधर्म का उस पर किस प्रकार प्रभाव होता है, इस पर स्वयं ध्यान दें जिस से आप अपने शरीर में होने वाले असामान्य लक्षण को स्वयं अनुभव कर सकें. नियमितरूप से डाक्टर से स्तन की जांच करवाएं चाहे वह सामान्य ही क्यों न हो. यह माह की एक तारीख या मासिकधर्म का प्रथम दिन स्वयं निर्धारित करें और शीशे के सामने खड़े हो कर अपने स्तन की जांच (गांठ के लिए) करें, अवलोकन करें.

स्तन में बदलाव उम्र के साथ मासिकधर्म के समय व गर्भावस्था में भी होता है. यों तो स्तन कैंसर का कोई निश्चित कारण नहीं, फिर भी कुछ रिस्क फैक्टर्स होते हैं.

– बढ़ती उम्र या 50 साल से ज्यादा.

– घरपरिवार निकटसंबंधी (जिन का रक्त से संबंध हो) यदि स्तन कैंसर से ग्रसित हो.

– यदि सगी बहन, मां या मौसी को स्तन कैंसर हो तो 2-3 गुना संभावना बढ़ जाती है.

– कुछ विशेष जींस भी स्तन कैंसर के लिए जिम्मेदार पाए गए हैं.

– जिन महिलाओं के स्तन में गांठ या अंडेदानी में गांठ या कैंसर हो उन में बढ़ती उम्र के साथ स्तन कैंसर हो सकता है.

इस के अलावा कम उम्र में मासिकधर्म का आरंभ हो जाना, देर से मासिकधर्म बंद होना (मेनोपौज), गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन अधिक समय तक करना ये सभी कैंसर होने के खतरे के कारण हैं.

बांझपन या बच्चे को जन्म न देना, बढ़ती उम्र में बच्चे को जन्म देना, बच्चे को स्तनपान न कराना इत्यादि भी स्तन कैंसर होने की संभावना को कई गुना बढ़ा देते हैं.

जो गांठ छूने से सख्त हो या जिस के किनारे टेढ़ेमेढ़े या असामान्य हों, ज्यादातर उन में कैंसर होता है.

– निपल के आकार में परिवर्तन.

– स्तनपीड़ा जो मासिकधर्म के बाद  भी रहे.

– स्तनगांठ जो मासिकधर्म से अप्रभावित रहे या समाप्त न हो.

– स्तन में नई गांठ बन जाना.

– स्तन से (सामान्यतया एक से) स्राव (पानी, लाल, भूरा या पीला).

– स्तन की चमड़ी का लाल होना, सूजन, खुजली या जख्म का होना.

– गले की हड्डी या बगल में गांठ होना.

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बाद के लक्षण

– निपल का अंदर की ओर मुड़ जाना या धंस जाना.

– स्तन का आकार बढ़ जाना.

– स्तन की ऊपरी सतह पर छोटेछोटे गड्ढे बन जाना.

– पुरानी स्तनगांठ के आकार में वृद्धि.

– जननांगों में पीड़ा होना.

– बिना कारण वजन का घटना व कमजोरी महसूस करना.

– बगल में गांठ का बड़ा हो जाना.

– स्तन पर नीली नसों का उभरना.

उपरोक्त किसी भी लक्षण से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि यथाशीघ्र डाक्टर से सलाह करनी चाहिए.

जीवनशैली या दिनचर्या भी कैंसर का कारण बन सकती है, जैसे भोजन जिस में वसा (फैट) की मात्रा प्रचुर हो, अलकोहल का सेवन इत्यादि.

स्तन कैंसर की जांच

डाक्टर द्वारा स्तन की जांच, मैमोग्राफी, अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन या बायोप्सी करानी चाहिए. प्रारंभिक अवस्था में रोग का निदान आसान होता है व आयु पर प्रभाव भी कम पड़ता है.

जब कैंसर एडवांस स्टेज पर फैल गया हो तो औपरेशन, कीमोथेरैपी, हार्मोनल थेरैपी और रेडियो थेरैपी के इलाज उपलब्ध हैं. इलाज कैंसर की स्टेज पर निर्भर करता है.

जागरूकता जरूरी

सामान्य जनता में ज्ञान की कमी इस का प्रथम कारण है. कोई भी कैंसर यदि प्रारंभिक अवस्था में पता चल जाए तो जीवन व धन दोनों का रक्षण हो सकता है. महिलाओं में जागरूकता होनी आवश्यक है.

दूसरा कारण, दवाओं का महंगा होना है. तीसरा कारण, लंबे समय तक का इलाज है. चौथा कारण, लास्ट स्टेज में कैंसर के इलाज में कीमोथेरैपी/ रेडियोथेरैपी होती है. जिस से लाल रक्त हीमोग्लोबिन कम होता है. सो, नियमित रूप से कई बार खून की जांच करवानी पड़ती है. कैंसर कोई संक्रमिक (छूत का) रोग नहीं है. यह लाइलाज भी नहीं हैं, इसलिए घबराना नहीं चाहिए.

(लेखिका मूलचंद अस्पताल, नई दिल्ली में वरिष्ठ चिकित्सक व स्त्रीरोग विशेषज्ञ हैं.)

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शराबबंदी को ठेंगा दिखाता नाजायज मतलबी बंधन

प्रदेश में शराबबंदी के बावजूद शराब माफिया, अपराधियों और पुलिस वालों के बीच अनोखा महागठबंधन तैयार हो गया है और वह शराबबंदी कानून को ठेंगा दिखा रहा है. इस की एक छोटी सी बानगी 11 अक्तूबर, 2017 को देखने को मिली, जब अरवल पुलिस ने शराब का एक कंसाइनमैंट पकड़ा. मामले की जांच के लिए केस को आर्थिक अपराध इकाई यानी ईओयू को सौंप दिया गया. ईओयू ने अपना काम शुरू किया. उसे सूचना मिली थी कि 12 अक्तूबर को उसी कंसाइनमैंट की डिलीवरी सीतामढ़ी में होने वाली है. पुलिस ने छापा मारने की तैयारी की. सीतामढ़ी पुलिस को अलर्ट रहने को कहा गया.

इसी बीच रून्नीसैदपुर थाने के दारोगा अवनी भूषण सिंह ने शराब माफिया अजीत राय के मोबाइल फोन पर मैसेज भेजा, ‘अभी रेड होगी.’ उस के बाद दारोगा साहब ने फोन कर के अजीत राय को सावधान रहने की हिदायत भी दी.

अजीत राय पर शराबबंदी कानून तोड़ने समेत हत्या, रंगदारी वसूलने समेत कई केस पहले ही दर्ज हैं. तकरीबन आधा दर्जन मामलों में वह चार्जशीट किया जा चुका है.

दारोगा अवनी भूषण सिंह को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि वह पहले से ही ईओयू के रडार पर है.

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शराब माफिया को छापामारी की सूचना देने के कुछ ही देर बाद साल 2009 बैच के दारोगा अवनी भूषण सिंह समेत शराब माफिया को दबोच लिया गया.

बिहार में यह इस तरह का पहला मामला है जब ईओयू ने शराब माफिया और पुलिस के गिरोह का भंडाफोड़ किया है.

11 अक्तूबर को ही अरवल जिले के कलेर थाने के थानेदार को शराब के एक कंसाइनमैंट की जानकारी मिली. रात के 8 बज कर 35 मिनट पर थानेदार ने पुलिस टीम के साथ पटनाऔरंगाबाद हाईवे-98 पर एक मिनी ट्रक को रोका.

हरियाणा के रजिस्ट्रेशन नंबर वाले उस ट्रक में शराब की 4320 बोतलें लदी हुई थीं. ट्रक पर सवार कुलदीप सिंह और केशव देव को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने बताया कि शराब से लदे इस मिनी ट्रक को हाजीपुर में डिलीवरी देनी थी.

ईओयू की टीम ट्रक के साथ हाजीपुर पहुंची. हाजीपुर पहुंचने के बाद शराब माफिया ने ट्रक को मुजफ्फरपुर चलने को कहा. मुजफ्फरपुर से पहले ही तुर्की ब्लौक के पास एक स्कौर्पियो गाड़ी ने ट्रक को रुकने के लिए कहा. ट्रक के रुकते ही उस में सवार ईओयू की टीम ने स्कौर्पियो में सवार 5 लोगों को दबोच लिया.

गिरफ्तार लोगों के नाम अजीत कुमार, अजय कुमार, सुजीत कुमार, संजीव कुमार और सुरेंद्र कुमार सिंह है. सुरेंद्र दिल्ली का रहने वाला है.

बिहार में शराबबंदी के बाद भी शराब का चोरीछिपे  गैरकानूनी धंधा चल रहा है. जो शराब पीना चाहता है, उस के घर पर शराब की डिलीवरी हो रही है. 500 रुपए की कीमत वाली शराब की बोतल के लिए पियक्कड़ों को डेढ़ से 2 हजार रुपए तक चुकाने पड़ते है. पुलिस ने अब तक शराब के जिन धंधेबाजों को पकड़ा है, उन लोगों ने कबूल किया है कि झारखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा से शराब बिहार पहुंचती रही है.

शराबबंदी कानून को ठेंगा दिखा कर अपना गैरकानूनी धंधा चलाने के लिए शराब माफिया हर तरह की तिकड़म लड़ा रहे हैं. जब शराब से लदे बड़े ट्रकों को पुलिस ने पकड़ना शुरू किया तो छोटी गाडि़यों में शराब की खेप लाने का काम शुरू कर दिया गया. मिनी ट्रक, कारें, आटोरिकशा यहां तक कि स्कूटी में भर कर भी शराब ढोई जाने लगी है.

पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक, शराब की खेप को बिहार की सीमा के बाहर बड़े पैमाने पर जमा कर के रखा गया है. वहीं से डिमांड के हिसाब से शराब की खेप की होम डिलीवरी की जा रही है.

पहले गोपालगंज जिले के रास्ते गैरकानूनी तरीके से शराब बिहार की सीमा में घुसाई जा रही थी. उस रूट पर जब पुलिस की धरपकड़ तेज हो गई

तो अब अरवलजहानाबाद रूट को शराब माफिया ने अपना सेफ जोन बना लिया है.पुलिस की आंखों में धूल झोंकने के लिए शराब की खेप को इधरउधर घुमाने के बाद तय अड्डे तक पहुंचाया जाता है. पुलिस की मिलीभगत के बगैर माफिया का काम आसान नहीं हो सकता है.

भोजपुर के एक शराब माफिया को गिरफ्तार करने के बाद जब ईओयू ने उस से पूछताछ की तो उस ने हैरान करने वाली बातें बताईं. उस ने बताया कि पटना से शराब की खेप को वह अपनी बोलेरो गाड़ी में रखता और पटना से भोजपुर के बीच पड़ने वाले हर पुलिस थाने में चढ़ावा चढ़ाता चला जाता था.

एक खेप ले जाने पर उसे थानों में तकरीबन 20 से 25 हजार रुपए चढ़ाने पड़ते थे और एक खेप से उस की कमाई 2 लाख रुपए से ज्यादा की हो जाती थी.

शराब की खेप के तय जगह पर पहुंचने के बाद तुरंत उस की डिलीवरी नहीं की जाती है. इस के लिए 10-15 घंटों का समय लगता है. खेप के पहुंचने के बाद धंधेबाज रेकी करते हैं. वे दूर रह कर उस पर नजर रखते हैं.

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हर तरह से निश्चिंत होने के बाद ही शराब की खेप को ठिकाने लगाने का काम शुरू किया जाता है. अगर लोकल पुलिस को दानदक्षिणा दे दी गई होती है तो बेरोकटोक डिलीवरी हो जाती है.

पिछले दिनों अरवलपटना से सटे दानापुर ब्लौक में जब शराब से लदा एक ट्रक पहुंचा तो उसे लेने के लिए कोई भी नहीं पहुंचा. धंधेबाजों को पता चल गया था कि ईओयू ने शराब की खेप को पकड़ने के लिए वहां पहले से ही जाल बिछा रखा था. तकरीबन 12 घंटे के बाद शराब के धंधेबाज जब पूरी तरह से निश्चिंत हो गए कि अब कोई खतरा नहीं है तो वे गाड़ी के पास पहुंचे. पर इतनी सावधानी बरतने के बाद भी वे ईओयू के जाल में फंस गए, क्योंकि ईओयू ने अपनी टीम को बदल दिया था.

पिछले साल 1 अप्रैल से बिहार को पूरी तरह से ‘ड्राई स्टेट’ बनने के बाद ही राज्य के सीमा पार के इलाकों में शराब के कई बाजार सज चुके थे.

बिहार से सटे नेपाल के इलाकों में तो शराब का धंधा कई गुना बढ़ चुका है, वहीं बिहार से सटे झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल वगैरह राज्यों के बौर्डर पर भी शराब का धंधा फलफूल रहा है.

शराबबंदी के बाद ही कई रिटायर्ड सरकारी अफसरों ने कहा था कि सरकार का यह फैसला तभी कामयाब होगा जब सरकारी अफसर और मुलाजिम पूरी ईमानदारी से सरकार का साथ देंगे. ज्यादातर राज्यों में सरकारी अफसरों और जनता की मदद नहीं मिलने की वजह से शराबबंदी नाकाम साबित हुई है.

रिटायर्ड मुख्य सचिव वीएस दुबे कई मौके पर कहते रहे हैं कि शराब पर पूरी तरह से रोक लगाना सरकार का काफी अच्छा फैसला है. पर यह तभी कामयाब हो सकेगी, जब पुलिस दारोगा और आबकारी दारोगा पर पूरी तरह जवाबदेही डाली जाएगी. गैरकानूनी शराब की तस्करी को रोकने के लिए पड़ोसी राज्यों की सीमा पर ठोस निगरानी तंत्र बनाने होंगे.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पता था कि उन के शराबबंदी के फैसले को सब से ज्यादा खतरा पुलिस से ही है, इसलिए उन्होंने हर थाने के थानेदारों से लिखित शपथपत्र ले लिया था कि उन के इलाके में चोरीछिपे शराब बिकते, खरीदते या पीते पाई जाती है तो सीधे थानेदार ही जवाबदेह होंगे.

इस के बावजूद भी पुलिस के कई लोग शराब माफिया और दूसरे अपराधियों के साथ मिल कर शराबबंदी कानून को तोड़ने में लगे हुए हैं.

देशी शराब है सब से बड़ी सिरदर्द

बिहार में शराबबंदी के बाद चोरीछिपे गैरकानूनी तरीके से देशी शराब बनाने और बेचने पर रोक लगाना सरकार के लिए हमेशा मुश्किल रहा है. पिछले अगस्त महीने में गोपालगंज जिले के खजूरबन्नी गांव में देशी शराब पीने की वजह से 17 लोगों की मौत हो गई थी.

शराब पर पाबंदी के बाद भी कोई तगड़ा नैटवर्क है, जो यह जहर बांट रहा है और कानून की धज्जियां उड़ा रहा है. इस गैरकानूनी काम को करने वालों की पीठ पर या तो किसी बड़े नेता का हाथ है या पुलिस के अफसरोंमुलाजिमों की मिलीभगत है.

महुआ की चुलाई दारू को बनाने के लिए महुआ और गुड़ को मिला कर सड़ाया जाता है. उसे खुले आकाश के नीचे 2-3 दिनों तक रखा जाता है. उस के बाद से उस में बदबू आनी शुरू हो जाती है. उसे चूल्हे पर रख कर खौलाया जाता है. इस दौरान उस की भाप को ढक कर दूसरे बरतन में चुलाई यानी टपकाई जाती है. वही महुआ दारू का रूप ले लेता है. उस में ज्यादा नशा पैदा करने के लिए नौसादर मिला दिया जाता है. ज्यादा नौसादर मिला देने से महुआ की शराब अकसर जहरीली हो जाती है. वहीं देशी दारू बनाने के लिए चावल और गन्ने के छोआ को मिला कर 3-4 दिनों तक फूलनेसड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है. जब उस में सड़न और बदबू पैदा हो जाती है, तो उसे गरम कर के छान लिया जाता है. उस के बाद उस में स्पिरिट मिला कर देशी दारू बना दी जाती है.

बिहार के उत्पाद मंत्री विजेंद्र यादव कहते हैं कि कुछ लोग शराबबंदी को नाकाम करने में लगे हुए हैं. पर इसे कामयाब बनाने के लिए गांवगांव में शराब के खिलाफ लोगों को जागरूक करने की मुहिम चलाई जा रही है.

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जातीय स्वाभिमान ने बढ़ाई बेकारी, कैसे आगे बढ़ेगा देश का युवा

गांवों में बहुत सारे लोगों को जातीय स्वाभिमान के नाम पर उन के पुश्तैनी पेशे से दूर कर दिया गया है. अपने पेशे से दूर हुए लोगोंके लिए रोजगार का कोई दूसरा रास्ता न मिलने से गांवों में बेकारी बढ़ गई है. वहां से रोजगार के लिए शहर आए ये लोग यहां के बढ़ते खर्च और अपनी कमाई के बीच बढ़ते फर्क के चलते गुजरबसर नहीं कर पा रहे हैं.

साल 1990 के बाद से ही देश की राजनीति में जाति और धर्म का दखल तेजी से बढ़ गया. इस के चलते वोट के लिए तरहतरह के लालच राजनीतिक दलों ने जनता को दिए. इन में सब से बड़ा लालच जातीय स्वाभिमान का था.

भारतीय समाज में कई ऐसे पेशे थे, जो जाति से जुड़े थे. कुछ पेशे मजबूरी वाले थे, तो कुछ कारीगरी की मिसाल भी थे.

राजनीतिक दलों ने जातीय स्वाभिमान के नाम पर इन धंधों को छोड़ने के लिए सामाजिक लैवल पर बदलाव शुरू कर दिया. इस से काफी हद तक समाज में बदलाव नजर आने लगा. सामाजिक जागरूकता के चलते ही  ऐसे धंधों से लोग अलग हो गए, जो जाति से जुड़े थे.

जातीय स्वाभिमान के जरीए राजनीतिक दलों ने समाज में चेतना तो जगा दी, पर जो लोग बेरोजगार हो गए, उन के लिए कोई रोजगार मुहैया नहीं कराया. ऐसे में अपने पेशेवर धंधे छोड़ने वाले ये लोग मजदूर बन कर रह गए.

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छोटेछोटे वे धंधे, जो कभी गांव में रोजगार का जरीया होते थे, अब दूसरे कारोबारियों के पाले में चले गए. जो लोग अपना धंधा करते थे, वे अब कारोबारियों के यहां ठेके पर काम करने वाले मजदूर बन कर रह गए.

गांवों में रोजगार का एक बड़ा साधन लकड़ी और लोहे का कारोबार था. लकड़ी और लोहे से तैयार होने वाली कई चीजें बना कर बाजार में बेची जाती थीं. यह काम गांव में खास जाति के लोग करते थे. जातीय स्वाभिमान के नाम पर इन लोगों ने गांव में यह काम करना बंद कर दिया.

कारीगर हो गए मजदूर

इस के 2 नुकसान हुए. पहला तो यह कि ये लोग दूसरों के कारखाने में काम करने वाले मजदूर बन कर रह गए. दूसरा, ये लोग अपनी नई पीढ़ी को इस रोजगार की बारीकियां नहीं सिखा पाए. ऐसे में आने वाली पीढ़ी को कोई जानकारी नहीं हो सकी.

अगर इन लोगों के लिए सरकार ने किसी कामधंधे का इंतजाम किया होता तो शायद अपना पेशेवर धंधा छोड़ कर ये लोग नौकरी कर के गुजारा कर सकते थे. ऐसे में ये लोग वापस उसी धंधे में चले गए, वह भी मजदूर बन कर.

ऐसे धंधों की लंबी लिस्ट है, जिन को पहले जातीय स्वाभिमान के रूप में छोड़ दिया गया, फिर उसी धंधे में मजदूर बन कर काम करने को लोग मजबूर हुए. बाल काटने और दाढ़ी बनाने से जुड़ा धंधा भी ऐसा ही है.

इस काम के माहिर लोगों ने गांव में यह काम करना छोड़ दिया. ये लोग रोजगार के लिए शहर आ गए. यहां किसी दूसरी जाति के आदमी ने एक सैलून बनवा दिया. उस में ये लोग काम करने लगे. इन को प्रति ग्राहक के हिसाब से ही पैसा मिलने लगा.

यही हाल बुनकरों, साड़ी कारीगरों, पावरलूम पर काम करने वालों का भी हुआ. इस की वजह से छोटेछोटे शहरों में यह धंधा बंद हो गया. अब यह धंधा बड़ी फैक्टरी में होने लगा. ये कारीगर यहां मजदूर की तरह से दिनरात काम करने लगे.

पहले बुनकार साडि़यां खुद तैयार करते और बेचते थे. अब वे केवल साड़ी तैयार करते हैं. उन को बेच कर मोटा मुनाफा कारोबारी की जेब में जाने लगा है.

विज्ञान के जरीए हुई तरक्की ने भी कारोबारी के लिए तमाम सहूलियतें पैदा कर दीं. मशीनों से काफी काम होने लगा, जिस से हाथों से काम करना बंद होने लगा.

रोजगार का इंतजाम नहीं

कारीगरी में मशीनों के इस्तेमाल ने कुशल कारीगरों को बेरोजगार बनाने का काम किया. कारोबारी ने अपने मुनाफे के हिसाब से कारीगरों का इस्तेमाल करना शुरू किया. मशीनों के इस्तेमाल से धीरेधीरे लोगों के हाथ से रोजगार जाने लगा. अब वे वापस जब अपने गांव की तरफ आने लगे, तो यहां भी हालात बदल चुके थे.

गांवों में होने वाले छोटेछोटे रोजगार बंद हो चुके थे. अब यहां भी फैक्टरी में बना माल ही बिकने लगा था. इस की लागत भी बढ़ चुकी थी.

यह सही है कि जातीयता के नाम पर ऐसे कई बहुत से काम भी होते थे, जो सही नहीं थे. इन से दूर होने के बाद अगर लोगों को सही रोजगार मिल जाता तो शायद यह स्वाभिमान बना रहता.

सरकारों ने भी लोगों के रोजगार के ऊपर ध्यान नहीं दिया. सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन का फायदा केवल कुछ परिवारों तक ही सिमट कर रह गया.

गांवों में पढ़ाई का लैवल लगातार नीचे गिरता गया, जिस से शहरी बच्चों और गांव के बच्चों के बीच दूरी बढ़ गई. गांव के बच्चे रोजगार की दौड़ में पिछड़ते चले गए.

गांवों में खेती रोजगार का एक बड़ा जरीया है. जातीय स्वाभिमान के नाम पर पहले खेतों से मजदूर दूर हो गए. ये लोग कामधंधे के लिए अपना गांव छोड़ कर दूरदराज के प्रदेशों में जा कर खेती का काम करने लगे. खेती में मजदूरों की आत्मनिर्भरता को कम करने के लिए अलगअलग तरह की मशीनें आ गईं. इस  वजह से अब मजदूरों की छंटनी वहां भी होने लगी. ऐसे में ये लोग वापस गांव आए तो यहां भी खेतों में मजदूरों की खपत कम हो गई थी.

गांवों में अपनी जमीन न होने के चलते ये लोग अब मजदूरी करने लगे. ऐसे में गांव छोड़ने का भी कोई फायदा नहीं हुआ. यही नहीं, सफाई का काम करने वाले लोगों ने अपने पुश्तैनी काम को जातीय स्वाभिमान के नाम पर छोड़ दिया. अब वे ऐसे ठेकेदारों के बंधुआ मजदूर हो गए हैं, जो इस पेशे को कारोबार बना कर काम करने लगे हैं.

जातीय स्वाभिमान के नाम पर राजनीतिक दलों की सोच केवल वोट लेने तक सिमटी रही है. अगर सरकारों ने रोजगार और नौकरी के मौके बनाए होते तो अपने पुश्तैनी धंधों को छोड़ने वालों को फायदा होता.

सरकार ने कभी ऐसा कोई काम नहीं किया. ऐसे में अपना रोजगार छोड़ कर लोग मजदूर हो गए. अपने पुश्तैनी धंधों से नाखुश लोगों ने नई पीढ़ी को भी उस कारीगरी से दूर रखा. नई पीढ़ी के लिए नौकरियां नहीं थीं. ऐसे में वे केवल मजदूर बन कर रह गई. छोटीबड़ी हर तरह की नौकरियों में लगातार कमी आती जा रही है.

प्राइवेट सैक्टर में जो काम थे, वे भी धीरेधीरे सरकारी नीतियों के चलते बंद होते जा रहे हैं. छोटे कारखानों और कारोबारियों का काम बंद होने से मजदूरी भी बंद हो गई है. खेतों में काम मशीनों से होने लगा. प्राइवेट सैक्टर के प्रभावित होने से बेरोजगारी ज्यादा बढ़ गई है.

नौजवानों में बेरोजगारी

भारत में ऐसे नौजवानों की तादाद तेजी से बढ़ती जा रही है, जो केवल सरकारी नौकरियों की चाह रखते हैं. ऐसे नौजवान पढ़ेलिखे भले ही हों, पर इन में किसी भी तरह की कुशलता नहीं है.

ज्यादातर नौजवान नकल के सहारे पास हुए हैं. ये नौकरियों में होने वाले कंपीटिशन में भी कोई असर नहीं छोड़ पाते हैं. सेना और रेलवे में नौकरियों की कमी होने से बड़ी तादाद में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है.

सरकारी नीतियां ऐसी हैं, जिस से नए उद्योगधंधे पनप नहीं रहे. केंद्र सरकार ने लोगों को ट्रेंड करने का काम शुरू किया. 3 साल में ऐसे ट्रेंड लोगों में से कितनों को रोजगार दिया जा सका है, यह पता नहीं है.

अगर चुनाव में बेरोजगारी एक मुद्दा बन जाए तो किसी भी दल के लिए मुसीबत बन सकती है. यही वजह है कि सभी दल नौजवानों को बेरोजगारी के मुद्दे से दूर रखने के लिए जाति और धर्म के स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया करते हैं. वे कतई नहीं चाहते कि नौजवानों में रोजगार की बात मुद्दा बन सके.

आज हर दल को अपना प्रचार करने के लिए ऐसे नौजवानों की जरूरत है, जो उस के साथ जुड़ कर काम करने लगे.

अगर इन नौजवानों को नौकरी और कामधंधे से जोड़ा गया. तो वे किसी दल के मुफ्त के कार्यकर्ता नहीं बन सकेंगे. रोजगार की कमी में वे नेता के आगेपीछे घूमेंगे और जिंदाबादमुरदाबाद के नारे लगाएंगे. ऐसे में बेरोजगार नौजवान राजनीतिक दलों के ऐसे कार्यकर्ता हैं, जिन को केवल जातिधर्म का लौलीपौप दे कर बहलाया जा सकता है.

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कहां गया नजीब, बेटे की तलाश में दरदर भटक रही मां

15 अक्तूबर, 2016 की रात दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से गायब हुए छात्र नजीब अहमद का आज तक कोई अतापता नहीं लग सका है. बेबस मां फातिमा नफीस पिछले कई महीनों से नजीब के साथी छात्रों के सहारे दिल्ली में दरदर की खाक छान रही हैं.

फातिमा नफीस देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से भी गुहार लगा चुकी हैं, लेकिन नतीजा अभी तक ढाक के तीन पात है. राष्ट्रपति को दी गई अपनी अर्जी में फातिमा नफीस ने मामले की जांच सरकारी और राजनीतिक दखल से परे रख कर कराने की मांग की है. उन्होंने जेएनयू प्रशासन, दिल्ली पुलिस और सीबीआई के काम करने के तरीके पर भी सवाल उठाए हैं.

फातिमा नफीस का आरोप है कि जब वे मामले की रिपोर्ट दर्ज कराने संबंधित थाने में गईं, तो पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट लिखने से आनाकानी की. बाद में जब जेएनयू छात्रसंघ और गवाहों ने अपने बयान समेत लिखित शिकायत की, तब जा कर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की.

मामले की जांच कर रही सीबीआई ने 14 नवंबर, 2017 को दिल्ली हाईकोर्ट को सौंपी गई अपनी स्टेटस रिपोर्ट में पुलिसिया जांच पर कई सवाल खड़े किए हैं. सीबीआई ने पुलिस द्वारा 16 नवंबर, 2016 को हिरासत में लिए गए उस आटोरिकशा चालक से भी गहन पूछताछ की, जो कथित रूप से नजीब को जेएनयू से जामिया मिल्लिया इसलामिया ले गया था. आटोरिकशा चालक पुलिस को दिए गए अपने बयान से साफ मुकर गया. उस का कहना था कि उस ने ऐसा पुलिस के दबाव में आ कर बोला था.

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गौरतलब है कि दिल्ली हाईकोर्ट के निर्देश पर सीबीआई ने इसी साल 16 मई को नजीब अहमद के मामले की जांच अपने हाथ में ली थी. इस से पहले जांच दिल्ली पुलिस के जिम्मे थी, जो कदम दर कदम नाकाम रही.

सीबीआई ने अदालत को बताया कि मामले से जुड़े 9 संदिग्ध छात्रों के मोबाइल फोन जब्त किए गए हैं, जिन की फौरैंसिक जांच रिपोर्ट आना बाकी है.

दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर व जस्टिस आईएस मेहता की 2 सदस्यीय खंडपीठ का मानना था कि जांच के दौरान सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट को ओपन कोर्ट करने की जरूरत महसूस नहीं होती. सीबीआई ने भी नजीब की मां के वकील को स्टेटस रिपोर्ट की कौपी देने से इनकार कर दिया है.

अदालत में सुनवाई के दौरान सीबीआई काउंसिल निखिल गोयल ने बताया कि सभी 9 संदिग्ध छात्रों के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स की जांच हो चुकी है, सिर्फ रिपोर्ट आना बाकी है. इस के बाद सीबीआई ने मांग की है कि मामले की इनचैंबर प्रोसीडिंग की जाए, जिस पर अदालत ने 21 दिसंबर, 2017 की सुनवाई के दौरान विचार करने का अश्वासन दिया है.

वहीं दूसरी तरफ अतिरिक्त मुख्य मैट्रोपौलिटन मजिस्ट्रेट समर विशाल की अदालत ने सीबीआई की उस अर्जी को विचार के लिए स्वीकार कर लिया है, जिस में आरोपी छात्रों का लाई डिटैक्शन टैस्ट कराने की मांग की गई है.

गौरतलब है कि जेएनयू के माहीमांडवी होस्टल के कमरा नंबर 106 में रहने वाला नजीब अहमद स्कूल औफ बायोटैक्नोलौजी का छात्र था. बताते हैं कि 15 अक्तूबर, 2016 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कुछ समर्थक छात्रों के साथ नजीब का झगड़ा हुआ था और उसी रात वह लापता हो गया.

सूचना पा कर उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले से आईं मां फातिमा ने इस बात की एफआईआर दिल्ली के वसंतकुंज नौर्थ थाने में दर्ज कराई. 6 नवंबर, 2016 को नजीब की गुमशुदगी को ले कर छात्रों ने उस की मां फातिमा और दूसरे परिवार वालों के साथ विरोधप्रदर्शन किया, तो पुलिस ने फातिमा समेत बड़ी तादाद में छात्रों को हिरासत में ले लिया, जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया. साथ ही, ऐलान हुआ कि जो भी शख्स नजीब के मामले में कोई कारगर सुराग देगा, उसे 5 लाख रुपए का इनाम दिया जाएगा.

इसी बीच यूनिवर्सिटी द्वारा बिठाई की गई जांच कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की कि नजीब से हुए झगड़े के लिए अखिल भारतीय विधार्थी परिषद के समर्थक छात्र जिम्मेदार हैं. जेएनयू की सिक्योरिटी और वार्डन ने अपनी लिखित टिप्पणी में कहा कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के समर्थकों ने नजीब को पीटा था. लेकिन आरोप यह है कि यूनिवर्सिटी की जांच समिति की रिपोर्ट साजिशन बदल दी गई.

खुद के हाईटैक होने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस जांच के नाम पर महज खानापूरी करती रही. कभी वह यूनिवर्सिटी की तलाशी लेती तो कभी माहीमांडवी होस्टल की. साथ ही, उस ने यह भी शिगूफा छोड़ा कि नजीब आईएसआईएस में शामिल हो गया है.

जब दबाव बढ़ा, तो नजीब को खोजने के लिए घोषित इनामी रकम 10 लाख रुपए कर दी गई. साल 2017 की शुरुआत में यानी 22 जनवरी, 2017 को पुलिस ने एक नौजवान को नजीब के परिवार से फिरौती मांगने के आरोप में गिरफ्तार किया. हालांकि कोई सुबूत न होने के चलते उसे बाद में छोड़ दिया गया.

अफसोस की बात यह है कि देश की भरोसेमंद संस्था सीबीआई की जांच प्रक्रिया भी ढीली रही है. 6 महीने से ज्यादा गुजर चुके हैं, लेकिन अभी तक सिर्फ उस की स्टेटस रिपोर्ट ही अदालत के सामने आई है. 7 महीने का समय दिल्ली पुलिस पहले ही बरबाद कर चुकी है.

दरअसल, नजीब की गुमशुदगी सिर्फ सीबीआई और दिल्ली पुलिस प्रशासन की नाक का सवाल नहीं है, बल्कि यह देश की राजधानी से जुड़ा वह मामला है, जिस के चलते केंद्र सरकार की इज्जत भी दांव पर है.

सवाल यह है कि नजीब कहां है, किस हाल में है, किस के कब्जे में है, किस के दबाव में है, जो वह सामने नहीं आ रहा है, नेताओं ने भी नजीब मामले में चुप्पी साध रखी है. सिर्फ राज्यसभा सदस्य शरद यादव ने ही सीबीआई दफ्तर पर विरोध प्रदर्शन के दौरान फातिमा नफीस के आंसू पोंछे, बाकी को सांप सूंघ गया.

हालात की गंभीरता का अंदाजा लगाइए कि एक मां पिछले कई महीनों से अपने लापता लाड़ले की बाट जोह रही है, जिसे उस ने न जाने कितनी मुसीबतें सह कर पालापोसा, भविष्य बनाने की गरज से अपनी नजरों से दूर कर दिल्ली पढ़ने के लिए भेजा और आज उसी जिगर के टुकड़े को तलाशते तलाशते उस की आंखें पथराने को हैं. यह तो भला हो नजीब के उन साथी छात्रों का, जिन्होंने फातिमा का हाथ थाम रखा है, वरना हमारी व्यवस्था ने नकारेपन की सारे हदें लांघ रखी हैं.

किसी ने कभी सोचा कि दिल्ली में एक आदमी के रहनेखाने और इधरउधर पैरवी करने में हर महीने कितनी रकम खर्च होती है? एक गरीब परिवार के लिए यह हालत कितनी दुखदायी होती है, समझना आसान है. लेकिन हमारी व्यवस्था की बागडोर संभालने वाले इस से अनजान बने हुए हैं.

हमारे नेता भले ही हालात की नजाकत को समझें, लेकिन सच यही है कि नजीब मामले पर देशभर के लोगों की नजर हैं. यही नहीं, उन की आंखों में कई सवाल भी हैं, जिन्हें समझना कोई मुश्किल काम नहीं है. नजीब की किसी भी हाल में बरामदगी ही इन तमाम सवालों का जवाब है.

सीबीआई को चाहिए कि वह जल्द से जल्द मामले का परदाफाश करे, कुसूरवारों को सजा मिले, जिस से फातिमा नफीस और उन के बेटे के साथ इंसाफ हो सके.

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ढकी दिशाएं

घरों को डुबो के, जगमग करें

गला घोंट जैसे, दवा को कहें

ये बातें सिखाने से क्या हो गया

जंगल, जमीं और पहाड़ खो गया

बहती नदी, नहीं रुकरुक के

जीवन बचा क्या, घुटघुट के

ये हवाओं को किस ने रोका है

दिशाओं को ढक के टोका है

विज्ञान चढ़ कर चंदा पे खड़ा

डीजल के इंजन, राकेट उड़ा

लकड़ी में अब तक धुआं ही नहीं

उन्हें लगता कुछ हुआ ही नहीं

भूखा तवा, है खाली चूल्हा

मुर्दे खड़े, जिंदे पड़े

पांचतारे व्यवस्था का क्या फायदा

धड़कन ये हलचल का क्या कायदा

बिखरे अपने, बिछुड़े सपने

खाली नजारे, हल्ला मचा रे

ऐसे में घर बसाने का क्या फायदा

जंगल, जमीं जब पहाड़ खो गया

उठ ये बिरादर, जमीं को जगा

लगा ये पता, कौन धोखा है

ये हवाओं को किस ने रोका है

दिशाओं को ढक के टोका है.

– राजेंद्र तिवारी राजू     

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तमन्ना बुझीबुझी सी है

दिल में कोई चुभन दबी सी है

जिंदगानी में कुछ कमी सी है

हर तरफ कैसी तीरगी सी है

क्यों तमन्ना बुझीबुझी सी है

हूबहू आप सा है वो चेहरा

और आदत भी आप की सी है

था चमन में बहार का आलम

आज रंगत उड़ीउड़ी सी है

बात अब वो नहीं रही तुझ में

तेरे जलवों में कुछ कमी सी है

मंजिलों की तलाश है लेकिन

कोशिशों में अभी कमी सी है

वह बदलता है रंग पलपल में

उस की फितरत न आदमी सी है

कारवां से बिछुड़ गए हिमकर

और यह राह अजनबी सी है.

– हिमकर श्याम

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राजनीति, कानून, अपराध

2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले के मामले में सीबीआई के फैसले से एक बात साफ हो गई है कि एक सरकारी संस्था की जांच की रिपोर्ट का मतलब कोई यह न निकाले कि दोषी वास्तव में अपराधी हैं. जयललिता और लालू प्रसाद यादव यदि अदालतों द्वारा अपराधी माने गए तो इसलिए ज्यादा कि उन के वकीलों की सफाई कमजोर थी, न कि मामला वास्तव में गंभीर था.

बिहार-झारखंड के चारा घोटाले में फंसेबंधे और अपराधी घोषित हुए लालू प्रसाद यादव का अपराध अभी पूरी तरह न्यायिक प्रक्रिया से नहीं गुजरा है. सरकारी कामकाज आमतौर पर इस तरह होते हैं कि मंत्री, अफसर और नौकरशाही अपने को बचा कर चलते हैं. अदालतें, खासतौर पर पहली ट्रायल कोर्ट, मामले को किस तरह देखती हैं और अपील में क्या होता है, इस के हजारों नमूने फैसलों की रिपोर्टों में दबे हैं.

सुप्रीम कोर्ट हर साल बीसियों मामलों में ट्रायल कोर्ट द्वारा अपराधी घोषित किए लोगों को अपराधमुक्त करती है क्योंकि बयानों से स्पष्ट हो जाता है कि ट्रायल के समय माहौल कुछ और होता है जब अभियुक्त भी ज्यादा गंभीर नहीं होता. एक बार अपराधी घोषित हो जाने के बाद उसे होश आता है और वह बचाव के उपाय ढूंढ़ता है. लालू प्रसाद यादव का चैप्टर अभी बंद नहीं हुआ है.

लालू प्रसाद यादव दूध के धुले हैं, यह नहीं कहा जा रहा पर यह जरूर है कि देश का सामाजिक गठन इस तरह का है कि अदालतों को जीभर के राजनीतिक स्वार्थ के उपयोग में लाया जाता है.

लालू प्रसाद यादव ने बिहार के विकास में कोई उल्लेखनीय काम किया है, ऐसा नहीं. पर उन के बाद आए नीतीश कुमार अपनी साफसुथरी छवि

के बाद भी ढीलेढाले और भाजपा की पैरोकारी करते नजर आ रहे हैं. वे जिन नरेंद्र मोदी से उन्हें हाथ तक मिलाना पसंद नहीं था, उन के सान्निध्य में रहने के बहाने ढूंढ़ने में लगे हैं.

बिहार को अब नई पीढ़ी के नेता चाहिए. लालू और नीतीश दोनों अब निरर्थक हो गए हैं. राजनीति को नए चेहरे चाहिए युवा बिहार के लिए, उसे सदियों की दलदल से निकालने के लिए.

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भगवा रंग की राजनीति से क्या जनता का भला हो पाएगा

‘पार्टी विद अ डिफरैंस’ की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी अब बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की तर्ज पर रंगों को ले कर राजनीति कर रही है. भाजपा केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश को भगवा रंग में रंगा देखना चाहती है. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद सरकार के हर काम में भगवा रंग छाया है.

सरकारी प्रचारप्रसार से ले कर सरकारी बिल्डिंग तक के रंग बदलने लगे हैं. मुख्यमंत्री आवास, मुख्यमंत्री सचिवालय, सूचना विभाग की प्रचार सामग्री से ले कर थाने की इमारत के रंग यहां तक कि परिवहन महकमे की बसों के रंग भी बदले गए हैं.

उत्तर प्रदेश में इस से पहले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी पार्टी के रंग में प्रदेश को रंगने का काम किया था. उस समय भाजपा इस बात की बुराई करती थी. अब वह  खुद पार्टी के भगवा रंग में पूरे प्रदेश को रंग रही है तब उस का कहना यह है कि भगवा ऊर्जा का रंग होता है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ संत समाज से हैं. वे भगवा कपड़े पहनते हैं. जब वे मुख्यमंत्री बने तो उन के सरकारी आवास को उन के रहनसहन के हिसाब से बनाया जाने लगा. हवनपूजन कर के मुख्यमंत्री आवास ही नहीं, बल्कि उस के सामने की सड़क तक को शुद्ध किया गया. इस के लिए गोरखपुर से खासतौर पर पुजारी बुलाए गए.

योगी आदित्यनाथ संत हैं, ऐसे में यह बात जनता ने स्वीकार कर ली. इस के बाद मुख्यमंत्री सचिवालय और सरकारी बसों के रंग बदले गए. सरकारी प्रचार और दूसरे आयोजनों की कलर स्कीम बदल दी गई. इस के बाद हर सरकारी काम में भगवा रंग का असर पड़ने लगा. जहां भी नया रंगरोगन शुरू हुआ, भगवा रंग छा गया.

बुराई से बदल गया रंग

उत्तर प्रदेश के विधानसभा भवन के एक तरफ भाजपा का प्रदेश कार्यालय है, जिस की बाहरी दीवार भगवा रंग में रंगी है. बीच में विधानसभा का नया लोकभवन है, जो राजस्थानी पत्थर से बना है. इस के आगे उत्तर प्रदेश हज कमेटी का भवन है, जिस की दीवार सफेद रंग से रंगी थी. 3 जनवरी, 2018 को नए साल में इस की दीवार को भगवा रंग में रंग दिया गया. हज कमेटी का संबंध मुसलिम समाज से है. ऐसे में भगवा रंग रंगने की बुराई होने लगी.

भाजपा के मुसलिम नेताओं ने भी यह कहना शुरू कर दिया कि भगवा रंग ऊर्जा का रंग है. इस में कोई हर्ज नहीं. भाजपा में शामिल तमाम मुसलिम नेता भगवा रंग में रंग चुके हैं. भगवा गमछा और सदरी इन के पहनावे की खास पोशाक बन गई है.

समाज के दूसरे तबके में हज कमेटी के दफ्तर को भगवा रंग में रंगने की बुराई शुरू हो गई. भाजपा के रणनीतिकारों ने भी इस को सही कदम नहीं माना. ऐसे में दूसरे दिन भगवा रंग को वापस सफेद किया गया. सरकार ने इस मुद्दे पर कोई बातचीत नहीं की. यह कह कर सफाई दी कि रंगरोगन करने वाले ठेकेदार ने गलती से इसे कर दिया था.

यह बात हजम होने वाली नहीं है. लोकसभा चुनाव से ले कर विधानसभा और निकाय चुनाव तक भाजपा को केवल हिंदुत्व का ही साथ काम आया है. यह हिंदुत्व का ही उभार था जिस के दबाव में जनता नोटबंदी, जीएसटी और महंगाई जैसे मुद्दों को छोड़ भाजपा को वोट दे आई. ऐसे में भाजपा पूरे देश में इस भगवा रंग का प्रचार करना चाहती है. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चुनावी प्रचार में उत्तर प्रदेश से बाहर प्रमुखता के साथ बुलाया गया. गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में वे पार्टी के स्टारप्रचारक बन गए. योगी सरकार में मुख्यमंत्री के प्रभाव का पूरा देश गवाह है, ऐसे में बिना सरकार की जानकारी में आए हज कमेटी की दीवार सफेद से भगवा कैसे हो सकती है? यह विचार का विषय है.

अलग होती हैं पार्टी और सरकार

इस देश का संविधान पार्टी और सरकार को अलग मानता है. संविधान मानता है कि चुनाव लड़ने के बाद जीत कर सरकार बनाने वाले विधानसभा सदस्य देश और प्रदेश की जनता का खयाल रखने वाले होते हैं. उन के लिए पार्टी और गैरपार्टी का कोई मतलब नहीं होता है. उन को सभी को समान नजर से देखना चाहिए. जनता को भी सरकार पर पूरा हक होता है. यही वजह है कि किसी भी सरकार में उस का रंग अलग होता है.

हाल के कुछ सालों में अलगअलग दलों ने पार्टी के रंग में सरकार को रंगने का प्रयास शुरू किया. उस समय उन सरकारों की भरपूर आलोचना भी हुई. भाजपा भी इस बात की समर्थक थी कि सरकार और पार्टी का रंग अलग होना चाहिए.

उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्त और राजनाथ सिंह की सरकारें रही हैं. उन के समय में सरकार पर कभी भगवा रंग नहीं चढ़ा. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद सरकार पर भगवा रंग चढ़ने लगा, जो किसी भी तरह से संविधान के अनुकूल नहीं कहा जा सकता है.

जिस बात के लिए भाजपा कभी सपा व बसपा को गलत बताती थी, आज खुद उसी राह पर है. भाजपा इस बात को समझती है कि देश में केवल एक वर्ग का साथ ले कर वह सरकार कायम नहीं रख पाएगी. इस कारण ही वह मुसलिम कानून में सुधार कर खुद को उदारवादी दिखना चाहती है. तीन तलाक कानून से ले कर मदरसों में शिक्षा के आधुनिकीकरण के पीछे यही सोच साफ दिखती है.

भाजपा एक तरफ हिंदुत्व में पुरानी सनातनी कानून की पक्षधर दिखती है तो दूसरी तरफ मुसलिमों में वह उदारवादी सोच के साथ दिखना पसंद करती है. ये विरोधी काम एकसाथ करना कठिन है. इस को बनाए रखने के लिए ही वह भगवा रंग का सहारा ले रही है, जिस से उसे हिंदुत्व को ले कर कुछ कहना न पड़े और लोगों को भगवा में हिंदुत्व का उभार दिखता रहे.

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दिव्या खोसला के विरोध के बावजूद फिल्म का हिस्सा बनी रहेंगी यामी गौतम

कुछ दिन पहले सूत्रों पता चला था कि ‘‘टी सीरीज’’ की दिव्या खोसला कुमार ने अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ की सह निर्माण कंपनी ‘‘क्रियाज इंटरटेनमेंट’’ की प्रेरणा अरोड़ा से साफ साफ कह दिया था कि फिल्म से पुलकित सम्राट की तथाकथित प्रेमिका यामी गौतम को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए. और तब माना गया था कि यामी गौतम की फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ से छुट्टी हो जाएगी.

मगर ऐसा कुछ नहीं हो पाया. वास्तव में फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ के निर्देशक श्री नारायण सिंह ने यामी गौतम को बचा लिया. श्री नारायण सिंह ने साफ कर दिया कि फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ में यामी गौतम सेकंड लीड के रूप में जुड़ी रहेंगी. इस फिल्म में शाहिद कपूर के साथ मुख्य हीरोईन श्रद्धा कपूर हैं. बिजली चोरी पर आधारित इस फिल्म में शाहिद कपूर और यामी गौतम वकील की भूमिकाओं में हैं.

उधर यामी गौतम ने कहा है- ‘‘मैं श्री नारायण सिंह निर्मित फिल्म ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ में शाहिद कपूर के साथ सेकंड लीड कर रही हूं. इस फिल्म में मैं वकील की भूमिका निभाने वाली हूं’’.

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फिल्म जुनूनियत और सनम रे में पुलकित और यामी ने एक दूसरे के अपोजिट काम किया था. दोनों फिल्में टी-सीरीज के बैनर तले बनीं थी.

इस दौरान दोनों एक्टर्स के बीच में अफेयर की खबरों ने जोर पकड़ना शुरू किया. इस दौरान यामी ने इस खबर को मात्र अफवाह बताया. वहीं यामी ने एक इवेंट के दौरान इसका जिम्मेदार फिल्म प्रोडक्शन की टीम को ठहराया.

दरअसल, टी सीरीज के हेड भूषण कुमार की पत्नी दिव्या खोसला कुमार और यामी गौतम का सामना साल 2016 में फिल्म ‘सनम रे’ के एक प्रमोशन इवेंट पर हुआ था.

इस प्रमोश्नल इवेंट में यामी से पुलकित सम्राट और उनके अफेयर के बारे में जब सवाल पूछा गया तो यामी ने कहा कि ये खबर फिल्म की प्रोडक्शन टीम की तरफ से आई है. वहीं यामी ने कहा कि इस बारे में उन्हें कुछ नहीं पता.

इसके बाद दिव्या को ये बात अच्छी नहीं लगी कि यामी ने इस खबर के लिए टीम पर सीधे-सीधे उंगली उठाई है. फिल्म रिलीज के बाद टी सीरीज ने यामी को फिर कोई फिल्म औफर नहीं की. इसके बाद साल 2016 में ही आई फिल्म जुनूनियत के दौरान भी एक्ट्रेस यामी फिल्म को ज्यादा प्रमोट करती नजर नहीं आईं थीं. यही वजह है कि टीसीरीज अब यामी से डिमांड कर रहा है कि इस विवाद पर वह उनसे माफी मांगे.

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