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15 फायदे ब्रैस्ट फीडिंग के, आप भी जरूर जानिए

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आजकल की अधिकतर मांओं को बच्चे को फीड कराना मुश्किल काम लगता है जबकि बच्चे के जन्म के बाद मां का दूध बच्चे के लिए सब से अधिक फायदेमंद होता है. मां के दूध से बच्चे की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है. यह दूध बच्चे के लिए अमृत समान होता है.

इसी बात को ध्यान में रखते हुए ‘वर्ल्ड फीडिंग वीक’ के अवसर पर मुंबई के ‘वर्ल्ड औफ वूमन’ की स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञा डा. बंदिता सिन्हा कहती हैं कि ब्रैस्ट फीडिंग को ले कर आज भी शहरी महिलाओं में जागरूकता कम है, जबकि ब्रैस्ट फीडिंग कराने से ब्रैस्ट कैंसर की संभावना भी कम हो जाती है. जिन महिलाओं ने कभी ब्रैस्ट फीडिंग नहीं कराई होती है, उन में ब्रैस्ट कैंसर का रिस्क बढ़ जाता है.

एक अध्ययन में पाया गया कि जिन महिलाओं को ब्रैस्ट कैंसर मेनोपौज के बाद हुआ है, उन्होंने कभी ब्रैस्ट फीडिंग नहीं कराई थी. जबकि जिन महिलाओं ने 30 से पहले की उम्र में स्तनपान करवाया है वे 30 की उम्र पार कर स्तनपान करवा चुकी महिलाओं से ब्रैस्ट कैंसर से अधिक सुरक्षित हैं. इसलिए मां बन चुकी हर महिला को स्तनपान कराना जरूरी है और उसे यह समझ लेना चाहिए कि इस से बच्चा तंदुरुस्त होता है और साथ ही मां का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है. स्तनपान के 15 निम्न फायदे हैं:

•  यह सब से गुणकारी दूध होता है. इस में पाया जाने वाला प्रोटीन और एमिनो ऐसिड बच्चे की ग्रोथ के लिए अच्छा होता है. यह बच्चे को कुपोषण के शिकार होने से बचाता है.

•  ब्रैस्ट मिल्क बैक्टीरिया मुक्त और फ्रैश होने की वजह से बच्चे के लिए सुरक्षित होता है. जबजब मां बच्चे को दूध पिलाती है, बच्चे को ऐंटीबायोटिक दूध के जरीए मिलता है, जिस से बच्चा किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचता है.

•  फीडिंग से मां और बच्चे के बीच प्यार भरा रिश्ता बनता जाता है, जिस से बच्चा मां की निकटता का एहसास करता है.

•  बच्चे के जन्म के बाद मां के स्तनों से निकलने वाला पहला दूध कोलोस्ट्रम कहलाता है, जिस में ऐंटीबायोटिक की मात्रा सब से अधिक होती है, जो बच्चे की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है. इस के अलावा यह दूध बच्चे की अंतडि़यों और श्वसन प्रक्रिया को भी मजबूत बनाता है.

•  ब्रैस्ट मिल्क हड्डियों को अच्छी तरह ग्रो करने और मजबूत बनाने में सहायक होता है.

•  यह दूध ‘सडन इन्फैंट डैथ सिंड्रोम’ को कम करने में भी मदद करता है.

•  जन्म के बाद बच्चे की प्रारंभिक अवस्था काफी नाजुक होती है. ऐसे में मां का दूध आसानी से पच जाता है, जिस से उसे कब्ज की शिकायत नहीं होती.

•  मां के लिए भी इस के फायदे कम नहीं. ब्रैस्ट फीडिंग कराने से प्रैगनैंसी के दौरान बढ़ा मां का वजन धीरेधीरे कम होता जाता है.

•  इतना ही नहीं ब्रैस्ट फीडिंग से महिला में यूटरस का संकुचन शुरू हो जाता है. डिलिवरी के बाद ब्लीडिंग अच्छी तरह हो जाती है, जिस से महिला को ब्रैस्ट और ओवेरियन कैंसर का खतरा कम हो जाता है.

•  पोस्टपार्टम डिप्रैशन का खतरा मां के लिए कम हो जाता है.

•  ब्रैस्ट फीडिंग से ब्रैस्ट की सुंदरता में कोई फर्क नहीं पड़ता, यह मात्र एक भ्रम है.

•  अधिक उम्र में बच्चा होने पर भी अगर महिला सही तरह से स्तनपान कराती है तो कैंसर के अलावा मधुमेह, मोटापा और अस्थमा जैसी बीमारियों से भी अपनेआप को बचा सकती है.

•  स्तनपान 1 साल से अधिक समय तक कराने से मां और बच्चा दोनों ही स्वस्थ रह सकते हैं.

•  जो बच्चे 6 महीने तक लगातार ब्रैस्ट फीड पर निर्भर होते हैं उन की इम्युनिटी अधिक होती है.

•  मां का दूध नवजात के लिए सर्वोत्तम है.

कला की आजादी खत्म हुई है : राजीव निगम

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स्टैंडअप कौमेडियन के रूप में मशहूर हुए हास्य कलाकार राजीव निगम ने कई शो लिखे और किए हैं. कानपुर के राजीव निगम को लोगों को हंसाना बहुत पसंद है,लेकिन उनके पिता चाहते थें कि वे डौक्टर बने और इसके लिए वे अपनी संपत्ति बेच भी सकते थें, ऐसे में राजीव ने सोचा कि एक डौक्टर और हास्य कलाकार में कोई फर्क नहीं होता, दोनों ही अच्छी सेहत के लिए काम करते हैं.

इसलिए उन्होंने इस क्षेत्र में कदम रखा और उनकी पहली कामयाबी ‘मुवर्स एंड शेकर्स’ थी, जिसके लिए उन्होंने शेखर सुमन के साथ लिखने का काम किया है. उनके परिवार में उनकी पत्नी अनुराधा निगम और उनके दो बच्चे यशराज (11 वर्ष) और देवराज (7 वर्ष) हैं, जो उन्हें हमेशा सहयोग देते हैं. उनसे भी वे बहुत सारी चीजें सीखते हैं. अभी वे स्टार प्लस की एक कौमेडी शो ‘’हर शाख पे उल्लू बैठा है” में चैतू लाल की मुख्य भूमिका निभा रहे है. उनसे बातें करना मजेदार था.

प्र. इस शो से जुड़ने की वजह क्या है?

कौमेडी मैं सालों से कर रहा हूं, लेकिन ह्यूमर वाली कोई शो नहीं है, जबकि ह्यूमर हर व्यक्ति के लिए अच्छा होता है. इस शो में देश की समस्या को दिखाने की कोशिश की जा रही है, जिसे हम व्यक्त नहीं कर पाते और दिल में होती है.

प्र.कौमेडी का सफ़र कैसे शुरू हुआ?

कौमेडी मुझे बचपन से पसंद था. मुझे याद आता है कि कौलेज के दौरान इलेक्शन कैम्पेन में काम करने के दौरान कुछ पैसे मिल जाते थे, जिसमें मुझे माइक से उस पार्टी के लिए प्रचार करना पड़ता था. इस काम के साथ-साथ मैं अपनी क्रिएटिविटी भी निखारता रहता था. मुझे हर चुनाव में काम मिल जाता था, इससे मुझे उन नेताओं को नजदीक से समझना भी आसान था.

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आज जो मैं यह शो कर रहा हूं, उसमें मेरे सारे वही अनुभव काम आ रहे हैं. इसी तरह सफर शुरू हुआ और धीरे-धीरे यहां तक पहुंच गया. मैंने अपना करियर एक लेखक के रूप में शुरू किया था, पोलिटिकल सेटायर मैं लिखता रहा. ‘मुवर्स एंड शेकर्स’ मेरा पहला काम था, इसके बाद ‘लाफ्टर चैलेन्ज’ में काम करते हुए भी मैंने पोलिटिकल सेटायर को हमेशा कायम रखा.

प्र. आपकी प्रेरणा कौन है?

जब मैं घर से निकला था, तो कुछ भी नहीं था, पर आज यहां हूं. कौमेडियन होने के लिए एक अच्छा ह्यूमन बीइंग होना चाहिए. ऐसा मैं कौमेडियन जौनी लीवर में पाता हूं और वही मेरे प्रेरणास्रोत है.

प्र.कानपुर से मुंबई कैसे आना हुआ? कितना संघर्ष था?

21 वर्ष की उम्र में साल 1994 मैं कानपुर से मुंबई काम की तलाश में आया था. उस समय बहुत मुश्किल दौर था. इतने सारे चैनल और मोबाइल नहीं थे, इतना काम नहीं होता था, लेकिन विचार बहुत आते थे.

कम्युनिकेशन अच्छी होने की वजह से आज संघर्ष कम हो गया है, काम मिलने की संभावनाएं अधिक हो चुकी है, लेकिन तब ये सब मुश्किल था. काम होने के बावजूद भी किसी व्यक्ति से जुड़ने में समय लग जाता था. रहने, खाने, पीने सब में समस्या थी. मैंने पास रहने वाले पान वाले से अनुरोध किया था कि मेरे कौल आने पर मुझे बता दे. कई बार वह बता देता था, कभी भूल भी जाता था, पर मैंने उस दौरान लिखना जारी रखा, जो भी मन में आता था, उसे लिख लेता था. वही लिखावट को मैंने शो में प्रयोग किया. शो हिट होने से एक के बाद एक काम मिलता गया.

संघर्ष के इस दौर में मेरे एक मित्र जो किंग्स सर्किल में सैलून चलाते थे, उन्होंने काफी हेल्प किया. साल डेढ़ साल संघर्ष में ही बीत गया. कभी काम मिला कभी नहीं, परिवार से सहयोग तब नहीं था, पर मेरे अंदर एक जूनून था. कुछ समय संघर्ष के बाद मैं कानपुर वापस चला गया. कानपुर के बिठुर में, मैं एक कवि सम्मेलन देखने गया था, वहां कवि नहीं आया था, ऐसे में मुझे उस सम्मेलन को सम्हालने के लिए कहा गया, मैंने वहां जो कुछ भी किया, दस हज़ार लोग खुश हो गए, इससे मुझमें प्रेरणा जगी और मैं इस क्षेत्र में आ गया.

प्र. टीवी इंडस्ट्री में स्टैंड अप कौमेडियन का काम कर आप कितने संतुष्ट है?

मैं अपने काम से बहुत अधिक संतुष्ट नहीं हूं, स्टैंड अप कौमेडियन की भी कई कैटेगरी होती है. कुछ तो इंटरनेट से लेकर उसे ही तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने पेश कर देते है. जबकि असल में एक स्टैंड अप कौमेडियन समाज के रियल चीजो को देखकर उन्हें एक मजेदार रूप में पहुंचाता है, पर टीवी में खुलकर काम करने का मौका नहीं मिलता. ये खुलकर काम करने की विधा है. यहां पाबन्दी होती है, आप जो चाहे उसे कह नहीं सकते, अगर कह भी दिया, तो आगे जाकर उसे काट दिया जाता है. इस तरह जो मजा मैंने उसे बनाते वक़्त लिया है, वह पूरी तरह से दर्शकों तक नहीं पहुंच पाती.

प्र. आजकल हर चीज पर विरोध होने लगा है, इससे हास्य कला कितनी प्रभावित होती है?

केवल कौमेडी ही नहीं, हर बात पर आजकल विरोध हो रहा है. आज समाज असहिष्णु हो चुका है और इसे करने वाले काफी लोग है. हर एक पार्टी आती है और अपनी पीठ थपथपाती है और अलग-अलग बातें करती है. लोग भी बहुत दुविधा में पड़ जाते है कि वे जाएं तो जाएं कहां और किसके संग? ये समस्या है.

मैंने एक संवाद लिखा और मैंने नरेन्द्र मोदी की आवाज में एक व्यक्ति से बुलवाया, लेकिन उन्हें लोग इतना मानते है कि लोगों को उनकी आवाज को लेने से आपत्ति हुई और अंत में उसे हटाना पड़ा. हमने तो सिर्फ उनकी आवाज को प्रयोग किया था, बाकी तो सामान्य बातें कर रहा था. इसके बावजूद समस्या आई.

कला की आज़ादी इससे ख़त्म हुई है, लेकिन कैसे हुआ, ये समझना मुश्किल है. पहले ऐसा नहीं था, कई शो में तो मैंने डायरेक्टली अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, सोनिया गांधी, लालू यादव आदि के स्वर का प्रयोग किया और तब कुछ भी नहीं हुआ. इससे ऐसा लगता है कि ह्यूमर, सेटायर, कौमेडी में जहां हमें आगे बढ़ने की जरुरत थी, 20 साल बाद भी हम नीचे आ गएं और ये हम सबका दुर्भाग्य है.

प्र. कौमेडी में दो अर्थ वाले शब्दों के प्रयोग को कितना सही मानते है?

ये हर लोग की सोच पर निर्भर करती है. कुछ इसे पसंद करते है कुछ नहीं. हर चीज का बाज़ार है. मै ‘बिलो द बेल्ट’ कौमेडी नहीं करता. मेरे पास अच्छी और हंसाने वाली कौमेडी है तो मुझे ये सब करने की कोई जरुरत नहीं.

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प्र. नये लोगों को इस क्षेत्र में आने के लिए क्या सलाह देते है?

ये क्षेत्र अब काफी कठिन हो गया है, पहले जैसे कुछ चुटकुले सुना दिए और आप हास्य कलाकार बन गए, अब ऐसा नहीं है. अभी आपको पूरी शोध के साथ औब्जरवेशन करना पड़ेगा, जागरूक रहना पड़ेगा, बहुत सारे लोगों से सीखना पड़ेगा और पूरी तैयारी से आना पड़ेगा. कच्ची पक्की तैयारी से नहीं.

प्र. ‘भारत विकास के पथ पर है’, इस बात को चैतू लाल के शब्दों में कैसे कहेंगे?

भारत का विकास हो रहा है, अगर मुझे समय मिलेगा, तो विकास को दिखाऊंगा. विकास हमारे घर के पीछे रहता है और दो गाड़िया ले चुका है और उसका व्यवसाय भी बढ़ रहा है, ऐसे में कहा जा सकता है कि विकास कहीं हो रहा है.

परी : धन व समय की बर्बादी से बचें

फिल्म की टैग लाइन बताती है कि यह परी लोक की कथा नहीं है. मगर फिल्म की टैग लाइन यह नहीं कहती कि इस फिल्म को देखने के लिए समय व पैसा बर्बाद न करें. सुपरनेच्युरल पौवर वाली हौरर फिल्म में शुरू से अंत तक जंगल, रात का अंधेरा, खून, शैतान, गंदगी, जंजीरो में बंधी औरतों के अलावा कुछ नहीं है. कहानी के नाम पर पूरी फिल्म शून्य हैं. फिल्मकार ने जबरन डरावनी आवाजें डालने की कोशिश की है,मगर दर्शक डरने की बजाय हंसता है.

फिल्म की कहानी शुरू होती है कोलकाता से, जहां अरनब (परमब्रता चटर्जी) शादी के लिए पियाली को  देखने जाता है. पियाली (रिताभरी चक्रवर्ती) डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर इंटर्नशिप कर रही है. वापसी में वह अपने माता पिता से कह देता है कि उसे लड़की पसंद है. तभी कार के सामने एक बूढ़ी औरत आ जाती है और उसकी मौत हो जाती है. पता चलता है कि वह रुखसाना (अनुष्का शर्मा) की मां है, जिसे उसकी मां जंगलों के बीच में एक झोपड़े के अंदर लोहे की जंजीर से बांधकर रखती है. रुखसाना की मां की अंतिम क्रिया में रुखसाना की अरनब मदद करता है. उसके बाद वह रुखसाना को उसके घर पर छोड़ देता है. पता चलता है कि अस्पताल का एक कर्मचारी उस बुढ़िया के शरीर पर निशान देखकर प्रोफेसर (रजत कपूर)को खबर करता है. फिर प्रोफेसर अपने कुछ आदमियों के साथ रुखसाना को मारने पहुंचता है, पररुखसाना वहां से भागकर अरनब के घर पहुंच जाती है.

अरनब उसे अपने घर में कुछ समय रहने के लिए कह देता है. अरनब, रुखसाना के व्यवहार से अचंभित है. पर धीरे धीरे दोनों एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं. प्रोफेसर, अरनब को समझाता है कि रुखसना औलाद चक्र की अंतिम शैतान है. वह इफीरात /बुरी आत्मा की बेटी है, जो कि अपनी नस्ल को आगे बढ़ाना चाहती है. यह उससे प्यार करेगी, एक माह के अंदर ही बच्चे को जन्म देगी और अरनब को खत्म कर देगी. यहशैतान है, मगर इंसान की तरह रहते हैं. इनके अंदर जहर होता है. यह गुस्से में अपना जहर दूसरे इंसान को काटकर उगलते हैं. यदि ऐसा न करें, तो यह खुद अपने जहर से मर जाएं.

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पहले अरनब को यकीन नहीं होता. पर रुखसाना की बनायी एक तस्वीर को वह गूगल पर खोजता है, अब अरनब, प्रोफेसर के हाथों रुखसाना को सौंपता है. पर प्रोफेसर मारा जाता है. रुखसाना एक बच्चे को जन्म देती है, उसके बाद सारा सच अरनब को बताकर अपने जहर से खुद मर जाती है. मरने से पहले रुखसाना बता देती है कि उसका बच्चा पवित्र है, उसमें शैतानी अंश नहीं है.

निर्देशक व पटकथा लेखक के तौर पर प्रोसित राय फिल्म व कहानी के साथ न्याय करने में बुरी तरह से विफल रहे हैं. इंटरवल से पहले तो दर्शक समझ ही नहीं पाता कि आखिर यह सब हो क्या रहा है? पूरी कहानी मूर्खतापूर्ण ही है. लेखक व निर्देशक ने फिल्म की कहानी का संदर्भ बांगलादेश के जन्म के समय की घटना को उठाकर उसमें शैतानी पक्ष जोड़ कर हौरर फिल्म बनाने का असफल प्रयास किया है. क्योंकिफिल्मकार अपनी कहानी के साथ दर्शक को ठोस सच का यकीन नहीं दिला पाता. बल्कि एक अच्छी प्रेम कहानी का भी दुःखद अंत दिखाकर डरावनी नहीं, बल्कि एक उदास फिल्म बना डाली.

हम अपने पाठकों को बांगलादेश के जन्म के समय की उस घटना के बारे में याद दिला देते हैं. 1971 से पहले पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था. 1971 के युद्ध में जब पूर्वी पाकिस्तान, बांगलादेश बना, उस वक्त पाकिस्तानी सैनिकों ने बांगलादेश की औरतों सेशारीरिक संबंध बनाते हुए वहां पर पाकिस्तानी नस्ल को बढ़ाने का अभियान चलाया था. इसका  पता चलते ही बांगलादेश के एक संगठन ने ऐसी औरतों की तलाश कर उनके गर्भ को गिराना शुरू किया था.

फिल्म ‘‘परी’’ के निर्देशक प्रोसित राय और निर्माता व अभिनेत्री अनुष्का शर्मा की सोच पर हंसी आती है. इनके लिए 21वीं सदी में भी बिजली की गड़गड़ाहट, दरवाजों के चरमराने की आवाज, अति गंदे चेहरे व खोपड़ी में काला बुरखा पहने औरतें, खून आदि का होना यानी कि हौरर फिल्म हो गयी.

फिल्म में अरनब और पियाली के बीच एक संवाद है कि ‘हर इंसान के अंदर राक्षस का अंश होता है?’ यदि फिल्मकार ने इस बात को भी ठीक से फिल्म में पिरोया होता, तो शायद परी अच्छी फिल्म बन जाती.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो अनुष्का शर्मा ने खून की प्यासी रुखसाना के किरदार को अपनी तरफ से निभाने का प्रयास जरूर किया है,मगर फिल्म की कहानी, पटकथा व उनके किरदार को इतना घटिया लिखा गया है, कि उनकी मेहनत रंग नहीं ला पाती. फिल्म में अनुष्का शर्मा चमगादड़ की की तरह उछलते, कूदते, उड़ते, खिड़की पर उलटा लटके, कुत्ते को काटते हुए दिखायी देती हैं, मगर उस वक्त भी दर्शक के शरीर में  सिहरन/ कंपकपी पैदा नहीं होती. फिर भी अनुष्का शर्मा इस बात के लिए बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने कुछ नया करने का प्रयास किया है.

परमब्रता चक्रवर्ती के अरनब के किरदार को लेखक ने कोई तवज्जो नहीं दी, तो फिर वह बेचारे क्या करते? कुछ दृश्यों में अनुष्का शर्मा व परमब्रता चटर्जी के बीच की केमिस्ट्री खूबसूरत लगती है. रजत कपूर ने बुरी आत्मा की तलाश में जुटे बांगलादेशी प्राफेसर के किरदार को सही ढंग से निभाया है. कैमरामैन बधाई के पात्र हैं. गीत संगीत बेकार है.

दो घंटे 14 मिनट की अवधि की फिल्म ‘‘परी’’ का निर्माण अनुष्का शर्मा ने किया है. फिल्म के निर्देशक प्रोसित राय, लेखक प्रोसित राय व अभिषेक बनर्जी, संगीतकार अनुपम राय तथा कलाकार हैं-अनुष्का शर्मा, परमब्रता चटर्जी, रजत कपूर, रिताभरी चक्रवर्ती, मानसी मुलतानी व अन्य.

जान लेने वाली पत्नियां : प्राणों की प्यारी अब प्राणों की प्यासी हो चली हैं

VIDEO : बिजी वूमन के लिए हैं ये ईजी मेकअप टिप्स

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प्राणों की प्यारी अब प्राणों की प्यासी हो चली हैं. शादी के बाद बहुत सी लड़कियां घरेलू हिंसा डीवी ऐक्ट 2005 के ब्रह्मास्त्र से लैस होकर अपनी ससुराल पहुंचने लगी हैं. 498 की धारा का गुणगान आज तकरीबन हर लड़की वाला करता है और लड़के वाले चुप रहते हैं, उदास भी.

जहां वर पक्ष सीधा सरल होता है, लड़के वाले शरीफ होते हैं, वहां लड़के के सीधेपन को तेज लड़की कई तरह से अस्त्र बनाकर हालात को अपने हक में मोड़ लेती है. कुछ लड़कियां जिन के मायके में अफेयर होते हैं, वे ससुराल में एक पल भी नहीं रहना चाहती हैं और बिना वजह ससुराल वालों को घरेलू हिंसा व दहेज को लेकर सताने का इलजाम लगा कर अपने मायके की राह पकड़ लेती हैं.

कुछ लड़कियों को मां के बिना रहना नहीं भाता. मां के संग सोने वाली लड़कियां हर चौथे दिन मायके चली जाती हैं. वे हनीमून मना कर मायके लौटे जाती हैं. उनका शादी के प्रति इतना ही शौक होता है जो 1-2 बार ससुराल आकर पूरा हो जाता है.

बहुत सी लड़कियां अपने मायके के पड़ोस से इतनी रमी होती हैं कि ससुराल का माहौल उन्हें अकेलापन ही देता है. वे किसी भी हालात में मायके की ओर दौड़ लगाती हैं. उन्हें ससुराल या पति से कभी कोई मोह नहीं होता.

कुसुम शादी ही नहीं करना चाहती थी. वजह, उसे अपने भाई के बेटे रिंकू से लगाव था. शादी में देरी हो चुकी थी और कुसुम पूरी तरह से भतीजे की मां बन गई थी. भाई ने कुसुम के इसी सम्मोहन का फायदा उठा कर उसे उस के पति के खिलाफ करके हमेशा के लिए उस की गृहस्थी तोड़ दी.

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महज 7 महीने के छोटे से वैवाहिक जीवन में कुसुम ने 14-15 बार मायके की ओर दौड़ लगाई थी. जब वह ससुराल में होती थी तो उस की मां रातदिन अपने नाती रिंकू के रोने की बात फोन पर बताकर उस को ससुराल में नहीं रहने देती थी. कुसुम को उस की मां हमेशा अपनी तबीयत का दुखड़ा बताकर बुलाती थी. कुसुम की गोद में रिंकू को डालकर वह उस का भावनात्मक शोषण करती थी.

इस तरह से मां ने एक पल भी कुसुम को ससुराल में चैन से अपने पति विनीत के साथ नहीं रहने दिया. इस से विनीत डिप्रैशन में चले गया तो मां ने नई चाल चली. वह कुसुम को सिखाने लगी कि तेरा आदमी नामर्द है, उसे छोड़ दे.

इसी बीच विनीत की मां ने कुसुम की मां को उसका घर मरम्मत कराने के लिए कुछ पैसा दे दिया. रिश्तों के बीच पैसा आते ही नए रिश्ते में खटास आ गई.

कुसुम का भाई विमल जुआ खेलता था. वह हर महीने विनीत के सीधेपन का फायदा उठाकर उसकी मां से पैसे की मांग करता था. वैसे तो लड़के वाले मांग करते हैं, पर यहां विनीत की मां से कुसुम का भाई पैसे की डिमांड करने लगा था.

आखिर में हारकर विनीत की मां ने पैसे की डिमांड बाबत विमल के खिलाफ शिकायत कर दी तो विमल ने कुसुम को मायके बुला लिया और विनीत व उस के मांबाप पर फर्जी डीवी ऐक्ट लगा कर उनका जीना दूभर कर दिया.

खुद ही पैसा दे कर अपने ऊपर लगाए गए इस झूठे इलजाम का तोड़ विनीत की मां इसलिए नहीं ढूंढ़ पा रही थीं कि बिना लिखापढ़ी किए उन्होंने बहू के मायके वालों को रुपए दे दिए थे. अब वे घरेलू हिंसा के फर्जी मामले में फंसी हैं. कोर्ट हमेशा लड़की की बात सुनती है. लड़के वालों को कुसूरवार समझा जाता है. इन्हीं बातों व कानून का फायदा उठाकर कुसुम का जुआरी भाई अब ठहाके लगा रहा है.

इस तरह की बातों से आज कितने ही परिवार बस नहीं पा रहे हैं. लड़की के लालची भाइयों

की नजर अब बहन की ससुराल की जायदाद पर टिकी होती है. जो सीधेसादे ससुराल वाले होते हैं उनको लड़की के भाई ब्लैकमेल कर लेते हैं.

इसी तरह ग्वालियर का एक परिवार भी तब सांसत में आ गया था जब बहू ने अपने पति से कहा कि वह सास ससुर से अलग रहेगी. बेचारा मनीष मां बाप पर ही निर्भर था और उन का लाड़ला भी था.

नई बीवी ने मनीष पर जब ज्यादा दबाव बनाया तो वह कुछ भी नहीं कर सका. बीवी मायके जाकर रहने लगी और पति व सास ससुर पर दहेज के नाम पर सताने का मामला दायर कर दिया.

बेचारे मांबाप की जान सांसत में देख कर मनीष ने एक सुसाइड नोट लिखा और अपनी जान दे दी. वह खुदकुशी कर के अपनी छोटी सी वैवाहिक जिंदगी का अंत कर गया. उसे लगा कि उस की पत्नी को उस में या उस के माता पिता में कोई दिलचस्पी नहीं है. वे लोग कब तक उसकी पत्नी को मनाएंगे.

एक तरफ तो मातापिता का प्यार, दूसरी तरफ नई बीवी का हठ, तीसरी तरफ 498 की हिटलरशाही धारा, जिससे निकलने की राह सीधेसादे मनीष को नहीं सूझी और उस ने अपनी जिंदगी खत्म करके ऐसी शादी व कानूनी आतंक को विराम दे दिया जिस में फंसने के बाद बाहर निकलने की राह उस मासूम लड़के के पास नहीं थी.

आसान नहीं सामाजिक बराबरी, जातियों में बैलैंस बनाए रखना मुश्किल

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जाति के आधार पर नेताओं के लिए जनता के वोट लेना भले ही आसान काम हो, पर सरकार बनाने के बाद जातियों में बैलैंस बनाए रखना मुश्किल काम होता है. यही वजह है कि बहुमत से सरकार बनाने वाले दलों को 5 साल में ही हार का सामना करना पड़ता है. अब जातीयता राजनीतिक दलों को भी लंबे समय तक टिक कर राज नहीं करने देती है.

वोट लेते समय राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक बराबरी बनाए रखना भले ही आसान काम हो, पर सरकार चलाते समय इस को बनाए रखना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से लेकर योगी आदित्यनाथ की सामाजिक बराबरी तक यह बारबार साबित होता दिख रहा है.

उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले की तिलोई विधानसभा सीट से विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह और योगी सरकार में आवास राज्यमंत्री सुरेश पासी के बीच छिड़ी लड़ाई इस का ताजा उदाहरण है. सुरेश पासी जगदीशपुर विधानसभा सीट से विधायक हैं और वे उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं. तिलोई और जगदीशपुर विधानसभा इलाके आसपास हैं.

अपनी राजनीति को मजबूत बनाए रखने के लिए विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह और मंत्री सुरेश पासी एकदूसरे के इलाकों में दखलअंदाजी भी करते रहते हैं. अपने दबदबे को बढ़ाने के लिए कई बार आमने सामने भी आ जाते हैं. सबसे अहम बात यह है कि दोनों ही भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं.

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मंत्री होने के चलते सुरेश पासी के पास ज्यादा हक हैं. सरकारी नौकर भी विधायक से ज्यादा मंत्री की बात को अहमियत देते हैं.

सुरेश पासी भले ही जगदीशपुर से चुनाव लड़ते हों, पर उनका अपना निजी घर तिलोई विधानसभा इलाके में पड़ता है. लगातार 3 बार से गांव की प्रधानी सुरेश पासी के परिवार के पास ही रही है. ऐसे में सुरेश पासी को तिलोई इलाके में भी पैरवी करनी पड़ती है. इस के चलते तिलोई के विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह के साथ उनकी होड़ सी बन जाती है.

एक ही पार्टी में होने के बाद दोनों नेताओं के बीच किसी किस्म का तालमेल नहीं है. दोनों के बीच झगड़ा इस कदर बढ़ गया था कि विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह ने अपने पद से इस्तीफा तक देने का मन बना लिया. इसके बाद वे प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिले.

विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह की नाराजगी के चलते अमेठी की पुलिस सुपरिटैंडैंट पूनम का वहां से तबादला कर दिया गया. वे विधायक और मंत्री के बीच तालमेल बनाने में नाकाम रही थीं. भाजपा के सामने यह पहला मामला है जो खुल कर सामने आ गया है.

वैसे, पूरे प्रदेश में ऐसे तमाम मामले हैं जहां नेताओं की जमीनी लैवल पर अलग अलग खेमेबंदी है.

भाजपा ने विधानसभा चुनाव के समय अलग अलग दलों और जातीय नेताओं को अपने साथ जोड़ा था, अब इनको साथ लेकर चलना मुश्किल हो रहा है. इन नेताओं की आपसी खेमेबंदी का नुकसान पार्टी को चुकाना पड़ सकता है.

बहुत से विधायक और मंत्री अपने चहेते लोगों को पार्टी में अहम पदों पर बिठाना चाहते हैं. जातीय आधार पर देखें तो पता चलता है कि भाजपा हमेशा से ही अगड़ी जातियों की पार्टी रही है. ऐसे में अगड़ी जाति के नेता अपनी अलग अहमियत चाहते हैं.

भाजपा ने वोट के लिए दलित और पिछड़े तबके के नेताओं को पार्टी से जोड़ा था. चुनाव के बाद अब जमीनी लैवल पर इनके बीच तालमेल बनाए रखना मुश्किल काम हो गया है. जातीय आधार पर सब से ज्यादा परेशानी दलित तबके को हो रही है. उसके नेता से लेकर कार्यकर्ता तक को ज्यादा अहमियत नहीं मिल रही है. भाजपा में हिंदू धर्म को मानने वालों की तादाद ज्यादा है. वे लोग दलितों के साथ तालमेल नहीं बना पा रहे हैं और भाजपा बारबार इस मुद्दे को दबाने में लगी रहती है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और संगठन मंत्री सुनील बंसल पार्टी कार्यकर्ताओं को परिवारवाद से दूर रहने और आपसी तालमेल बनाए रखने की बात समझाते हैं. इसके बाद भी नेता किसी न किसी मुद्दे को लेकर सामने आ ही जाते हैं. ऐसा केवल भाजपा के ही साथ नहीं हुआ है. इस के पहले बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को भी इसी बात का शिकार होना पड़ा था.

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साल 2007 में बसपा सुप्रीमो मायावती ने ब्राह्मणदलित गठजोड़ के साथ सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति तैयार की थी, जिस में दलितों के साथ साथ कई अगड़ी जातियों ने भी बसपा का साथ दिया था. इसके बल पर मायावती को पहली बार बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला था.

सरकार बनाने के बाद बसपा इस बैलैंस को बनाए रखने में नाकाम रही, जिस से सरकार के मंत्रियों और कार्यकर्ताओं के बीच दूरियां बढ़ने लगीं.

जो दलित तबका कभी बसपा का मजबूत खंभा होता था, वह खुद पार्टी से दूर जाने लगा. इसके चलते बसपा को विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में ही करारी हार मिली थी. बसपा की ही तरह समाजवादी पार्टी के साथ भी यही हुआ था. पिछड़ों के बेस वोट के बाद मुसलिमों और अगड़ों को साथ लेकर सपा ने साल 2012 में बहुमत की सरकार बना ली थी.

अखिलेश यादव की युवा इमेज और मुलायम सिंह यादव की संगठन कूवत भी सरकार के समय जातीय बैलैंस साधने में नाकाम रही थी. इस से अलग अलग जातियों के नेता सपा से नाराज हो गए. सबसे ज्यादा परेशानी में अतिपिछड़े और दलित नेता थे. उनको लग रहा था कि अखिलेश सरकार में उनकी सुनी नहीं जा रही है. ऐसे में जब 2014 के लोकसभा चुनाव आए तो यह तबका भाजपा के पक्ष में खड़ा हो गया और सपा को करारी हार देखनी पड़ी.

2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने भी अपने कैडर वोट के अलावा दलित और पिछड़ों को पार्टी के साथ जोड़ने में कामयाबी तो हासिल करली, पर अब इनको एकसाथ लेकर चलना भारी पड़ रहा है. भाजपा का मुख्य अगड़ा वोट बैंक पार्टी से खुश नहीं है खासकर बनिया और ब्राह्मण तबका.

भाजपा ने बाहरी नेताओं को भी पार्टी में शामिल किया है. ये नेता भाजपा के पुराने नेताओं के साथ सहज भाव से एक नहीं हो पा रहे हैं. इस का खमियाजा पार्टी को आने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है.

कलाकार के तौर पर श्रीदेवी की अधूरी रही यह तमन्ना

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300 फिल्मों में अभिनय करते हुए श्रीदेवी ने अपने अभिनय के नित नए रंग पेश किए थें. उन्होंने ‘सदमा’ सहित कुछ फिल्मों में जिस तरह के किरदार निभाए थें, उस तरह के किरदार बिरले कलाकार ही निभा सकते हैं. उन्होंने कई विविधता पूर्ण किरदार निभाएं.

उनके नृत्य का तो हर कोई दीवाना रहा है. अपने अभिनय से हर किसी के दिलों में कभी न मिटने वाली छाप छोड़कर इस संसार से जा चुकी हैं. मगर कलाकार के तौर पर उनकी हास्य किरदार निभाने की इच्छा अधूरी ही रह गई.

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जी हां, कुछ समय पहले जब श्रीदेवी से हमारी बात हुई थी, तब हास्य की चर्चा चलने पर हमने उनसे पूछा था कि, ‘क्या अब वह हास्य किरदार निभाना पसंद करेगी? ’तब श्री देवी ने कहा था – ‘‘आपने तो मेरे मन की बात छीन ली. मैं भी यही सोच रही थी कि यदि सब कुछ अच्छा रहा, तो मैं अगली फिल्म में कौमेडी करूंगी.’’

अफसोस श्रीदेवी को अगली किसी फिल्म में हास्य भूमिका निभाने का अवसर मिलता, उससे पहले ही वह चिरनिद्रा में हमेशा के लिए सो गईं और हास्य किरदार निभाने की उनकी इच्छा अधूरी रह गयी.

इस छोटे बच्चे की गेंदबाजी पर फिदा हुए वसीम अकरम

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विश्व क्रिकेट में पाकिस्तान की पहचान बल्लेबाजी से ज्यादा गेंदबाजी में रही है. मोहम्मद निसार से लेकर शोएब अख्तर तक ऐसे गेंदबाज रहे हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े गेंदबाजों में अपना खौफ पैदा किया. इस फेहरिस्त में वसीम अकरम, वकार युनूस, इमरान खान ऐसे हैं नाम है, जिनके सामने बल्लेबाजी करते हुए बड़े से बड़ा बल्लेबाज भी कांपने लगता था. अब भी अगर पाकिस्तान क्रिकेट टीम पर नजर डाली जाए तो आज भी पाकिस्तान की पहचान गेंदबाजों के लिए ही होती है.

बता दें कि अधिकारिक रूप से दर्ज की गई सबसे तेज गति से डाली गई गेंद की गति 161.3 किलोमीटर प्रति घंटा (100.2 मीटर प्रति घंटा) थी और यह गेंद 2003 के क्रिकेट विश्व कप में इंग्लैंड के खिलाफ एक मैच के दौरान पकिस्तान के शोएब अख्तर के द्वारा डाली गई थी. इस गेंद पर खेलने वाले बल्लेबाज निक नाईट थे, जिन्होंने लेग साइड हिट किया था.

पर शोएब अख्तर, इमरान खान और वसीम अकरम ऐसे गेंदबाज रहे हैं, जिन्होंने पाकिस्तान क्रिकेट को दुनिया में एक अलग पहचान दिलाई है. वसीम अकरम, शोएब अख्तर और शाहिद अफरीदी ऐसे खिलाड़ी हैं, जो अपने देश के टैलेंट को पहचान कर उन्हें आगे भी लाना चाहते हैं.

सोशल मीडिया पर एक पाकिस्तानी बच्चे का वीडियो वायरल हो रहा है. इस वीडियो में यह बच्चा गेंदबाजी करता नजर आ रहा है. इस बच्चे की गेंदबाजी इतनी शानदार है, जिसे देखकर खुद वसीम अकरम भी फिदा हो गए हैं.

फैजान रमजान नाम के एक टि्वटर यूजर ने अपने टि्वटर अकाउंट पर वसीम अकरम, शाहिद अफरीदी, शोएब मलिक और रमीज राजा को टैग करते हुए इस वीडियो को शेयर किया है. वीडियो शेयर करते हुए फैजान ने लिखा है- मुझे अभी यह वीडियो मिला. नहीं जानता यह बच्चा कौन है, लेकिन इस बच्चे की शानदार गेंदबाजी पर आपके विचार जानना चाहता हूं.

फैजान के इस ट्वीट को सबसे पहले वसीम अकरम ने लाइक किया और उसके बाद इस वीडियो को शेयर करते हुए लिखा- कहां है यह लड़का? हमारे देश की रगो में यह शानदार टैलेंट बसा हुआ है और हमारे पास ऐसा कोई प्लेटफौर्म नहीं है. जहां हम ऐसे बच्चों को खोज सकें. यह वक्त है कुछ करने का. इसके साथ ही उन्होंने एक हैशटैग भी दिया. #TheFutureOfCricketIsWithOurYouth.

गौरतलब है कि कुछ साल पहले पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने नई प्रतिभाओं को खोजने के लिए एक तरीका ईजाद किया था. पीसीबी ने अपनी वेबसाइट के जरिए ऐसी प्रतिभाओं को खोजने की एक मुहिम भी चलाई थी. पीसीबी ने योजना बनाई थी कि वह एक वेबसाइट बनाएंगे जहां युवा क्रिकेटर अपनी बल्लेबाजी और गेंदबाजी के वीडियो यहां अपलोड कर सकते थे.

आज मिल कर

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चलो, आज मिल कर

एक जख्म कुरेदा जाए

और यादों को

बक्से से निकाला जाए

नया कोई रंग फिर

तेरी तसवीर पे डाला जाए

और उस ख्वाब के

माने निकाले जाएं

समय नापने को

सिक्के उछाले जाएं

बहकने दो खुद को

आज न संभाला जाए

तुम्हें पा लेने की जो

हसरतें की थीं हम ने

आज उन हसरतों को

जाम में डुबोया जाए

एक लमहे को फिर से

थामा जाए

एक उम्र को

फिर से बिताया जाए

सांस में सांस मिला कर

जो गीत बने

उन गीतों को मिल के

गुनगुनाया जाए

फिर से उलझाई जाए

माथे की लट तेरी

फिर उंगलियों से

बारबार सुलझाया जाए.

– अमरदीप

नरेंद्र मोदी की मनोरंजक थ्योरी और पकौड़ा राजनीति के माने

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वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान देश की जनता बड़े मुग्धभाव से नरेंद्र मोदी की तरफ देखती थी. वे कांग्रेसी नेताओं से बेहतर, लच्छेदार भाषण देते थे, उम्मीदें बंधाते थे और सब्जबाग दिखाने के तो वे विशेषज्ञ हैं. तब लगता था कि कोई जादूगर पाशा या जादूगर सरकार मंच पर है जो अपनी छड़ी घुमाएगा और देखते ही देखते

देश की तकदीर बदल जाएगी. खेत लहलहाने लगेंगे, उत्पादन चारगुना बढ़ जाएगा, बैंक खातों में नोट बरसने लगेंगे, आतंकी सहम कर भाग जाएंगे और इस से भी ज्यादा अहम बात यह, कि हर हाथ के लिए काम होगा. यानी कोई बेरोजगार नहीं रहेगा.

उस दौरान नरेंद्र मोदी बड़े फख्र से खुद को जब चाय वाला कहते थे तो जनता उन पर बलिहारी जाती थी कि देखो, इतने नीचे से वे इतने ऊंचे तक आ गए यानी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन गए. नतीजतन, देशवासियों ने उन के हाथों में देश सौंप कर बेफिक्र होते अच्छे दिनों का इंतजार करने लगे.

उन के प्रधानमंत्रित्वकाल के 4 वर्ष बीत जाने के बाद भी अच्छे दिन नहीं आए तो अब लोगों को शक हो रहा है कि यह कैसा जादू है जिस के चलते सबकुछ उलटापुलटा हो रहा है, किसान पहले से ज्यादा खुदकुशी करने लगे हैं. जो नोट बड़े जतन से अपने खर्चों में से कटौती कर बचा कर रखे थे वे तक नोटबंदी के चलते छू हो गए थे. जीएसटी के कारण कारोबारी बेकार होते जा रहे हैं. आतंकी देश के सैनिकों की खुलेआम हत्याएं करने लगे हैं जिस से शहीदों की तादाद बढ़ रही है, यह तो हमारी सेना की देशभक्ति और पे्रम है कि वह विद्रोह तो दूर की बात है, कोई एतराज भी दर्ज नहीं कराती. फसलों की पैदावार तो कहीं बढ़ी नहीं और नौजवान थोक में बेरोजगार हो कर हताशा का शिकार हो चले हैं.

2 आरजू में और 2 साल इंतजार में कटे, लेकिन इस दौरान बुरा यह हुआ कि जनता का ब्लडप्रैशर कभी लो और कभी हाई होने लगा कि अब आगे क्या होगा. होने के नाम पर कुछ नहीं होना, यह तो सभी को समझ आ गया पर न होने के नाम पर अब क्या होगा, यह सोचसोच कर लोग हैरानपरेशान हैं.

नरेंद्र मोदी ने जनता की नब्ज टटोली तो वे चिंता में पड़ गए जो नए बजट को देख गश खाने लगी थी. ऐसे में एक दिन  उन का ध्यान पकौड़ों की तरफ गया तो वे अपने सुनहरे अतीत में खो गए जिसे सिगमंड फ्रायड जैसे मनोविज्ञानी अतीत और बचपन में जीना कहते रहे हैं.

हर कोई जानता है कि यह पकौड़ा एक परंपरागत भारतीय व्यंजन है जो बेसन व तेल के मिश्रण से तैयार किया जाता है. छोटे साइज का पकौड़ा, पकौड़ी कहलाता है. इसे आलू, प्याज, पनीर सहित गिलकी व पालक तक से बनाया जाता है. भारतीय इसे बड़े चाव से खाते हैं.

होली के दिनों में भांग के पकौड़े खाने का रिवाज है, जिन के सेवन से लोग 2014 के सम्मोहित दौर में पहुंच जाते हैं. भांग का पकौड़ा बड़ा असरकारी होता है. फागुन के मदमस्त माहौल में तो इस का असर हजारगुना तक बढ़ जाता है.

पकौड़े की एक खूबी यह है कि इसे एक बार खाओ तो मन नहीं भरता. लिहाजा, लोग ठूंसठूंस कर पकौड़े खाते हैं और दूसरे दिन स्वच्छ भारत अभियान पर पलीता लगाते नजर आते हैं. आयुर्वेदिक चूर्णों की बिक्री में पकौड़ों के सेवन का बड़ा योगदान है.

देश के बेरोजगार होते नौजवानों की चिंता का हल प्रधानमंत्रीजी को यों ही पकौड़े में नहीं दिख गया कि उन्होंने युवाओं को पकौड़ा बेचने का मशवरा दे डाला. पकौड़ा बेचने की सलाह पर व्यापक और देशव्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं और इतनी हुईं कि अगर पकौड़े में चेतना होती तो वह घबरा कर खुदकुशी कर लेता. देश की सारी समस्याएं पकौड़े में सिमट कर रह गईं. जनता ने अभी राफेल डील के बाबत मुंह खोला ही था कि उस में पकौड़े ठूंस दिए गए.

जो राजनीति कल तक चायमय थी, वह पकौड़ामय हो गई. पकौड़े पर शोध होने लगे लेकिन इधर युवाओं को यह मशवरा नागवार गुजरा कि हम डिगरी ले कर पकौड़ा बेचने जैसा क्षुद्र उद्यम क्यों करें, यह तो शर्म की बात है. इस पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बिदकते युवाओं को समझाया कि पकौड़े बेचना कोई शर्म की बात नहीं. वे नहीं बता पाए कि यह फख्र की बात कैसे है. चूंकि पार्टी के मुखिया ने कहा था, इसलिए इसे बाद में तरहतरह से जगहजगह कई भाजपाई दरबारियों ने दोहराया कि पकौड़ा बेचना शर्म या हर्ज की बात नहीं.

हम ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं जिस से नौकरियां और रोजगार के मौके पैदा हों, यह बात शीर्ष नेताद्वय ने बड़े फागुनी अंदाज से कही थी कि अगर नौकरीरोजगार नहीं मिल रहे तो पकौड़े बेचो. यह इन की गलती नहीं थी, बल्कि मौसम की थी, होली के महीनाभर पहले से ही मानवदिल हंसीमजाक के लिए मचलने जो लगता है.

राजनीति का एक अलिखित सिद्धांत है कि जब सत्तापक्ष हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है तब विपक्ष सुस्त पड़ जाता है. इधर मोदी और शाह ने पकौड़ा उछाला, तो विपक्ष ने उसे लपक कर पकड़ लिया. तरहतरह की दिलचस्प बयानबाजियां हुईं. जगहजगह सार्वजनिक रूप से पकौड़े तल कर विरोध जताया गया. पकौड़ामय हो चले देश को एक काम मिल गया. सोशल मीडिया के सूरमा पोर्न साइट्स और धर्म को भूलभाल कर पकौड़े को ले कर पोस्ट डालने लगे. पकौड़े ने इतनी प्रसिद्धि अपने उद्भव के बाद कभी हासिल नहीं की थी जितनी साल 2018 के फरवरी महीने में की.

इन महावीरों ने साल 2018-19 के बजट को पकौड़ा बजट घोषित कर दिया. बुद्धिजीवी और विद्वान भी पकौड़ाचिंतन में व्यस्त हो गए. कइयों ने तो पकौड़े पर सब्सिडी की मांग कर डाली और कुछ लोग पकौड़े को भी आधार से लिंक करने की बात करने लगे. एक पोस्ट में तो पकौडे़ बनाने का राष्ट्रीय व्यावसायिक चित्रण यह बताते किया गया कि पकौड़ा बेचने का आइडिया मोदी ने दिया, इस के लिए गैस रिलायंस वाला अंबानी देगा, फौर्च्यून का तेल अडानी देगा और रामदेव पंतजलि का बेसन मुहैया कराएगा.

कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी अपना ज्ञान बघारा कि जब सभी लोग पकौड़े बेचने लगेंगे तो उन्हें खरीदेगा कौन और क्या पकौड़े के स्टौल (हकीकत में ठेला या खोमचा) लगाने के लिए सरकार कर्ज देगी. पकौड़ा व्यवसाय को ले कर लोग आशान्वित भी हैं कि मुमकिन है ज्यादा पकौड़े बेचने वाले को सरकार पद्मश्री दे.

धर्म के जानकारों ने धर्मग्रंथ छान मारे पर किसी वेदपुराण, संहिता या उपनिषद में पकौडे़ का जिक्र नहीं मिला. फिर भी, उन्होंने मान लिया कि पकौड़ा सनातनी व्यंजन है. इधर, पूछा यह भी जा रहा है कि पकौड़े न खाने वालों को कहीं राष्ट्रद्रोही तो करार नहीं दिया जाएगा और क्या भगवा रंग के पकौड़े बनाने, खाने व बेचने वालों को देशभक्त का खिताब दिया जाएगा?

कुछ अदूरदर्शी लोगों की राय यह है कि जल्द ही बाबा रामदेव पंतजलि  बेसनी पकौड़ा लौंच कर सकते हैं क्योंकि वे मैदा के घोर दुश्मन हैं. नई पीढ़ी पिज्जा, चाउमीन और नूडल्स खा कर अपनी सेहत खराब कर रही है, उस से बचने का एकमात्र तरीका पकौड़ा है जो आखिरकार एक आयुर्वेदिक पकवान है. इस का इकलौता आधार यह है कि इसे पीढि़यों से देश खा रहा है और अफ्रीका या यूरोप ने अभी पकौड़े पर अपनी दावेदारी नहीं जताई है.

हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर जल्द ही कोई प्रदेश पकौड़े की बढ़ती लोकप्रियता देख अपनी दावेदारी इस पर ठोक दे. रसगुल्ला ओडिशा की डिश है या पश्चिम बंगाल की, यह तय करने में अदालतों को पसीने आ गए थे.

हरहर पकौड़ा, घरघर पकौड़ा के लगते नारों के बीच अच्छी बात यह है कि पकौड़ा एक धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद से मुक्त व्यंजन है. पकौड़े का वंशवाद से भी कोई संबंध नहीं है. मायावती जैसी नेत्री यह आरोप नहीं लगा सकतीं कि चूंकि पकौड़ा मनुवाद का प्रतीक है, इसलिए इसे प्रोत्साहन दिया जा रहा है. वामपंथी भी पकौड़े पर खामोश रहने को विवश हैं, क्योंकि इस का सामंतवाद, जमींदारी  या शोषण से कोई संबंध अभी तक सामने नहीं आया है. पकौड़ा दिल्ली के छोलेकुलचे और भठूरों के खिलाफ भी कोई साजिश नहीं है.

पकौड़े की राजनीति के अपने अलग नजरिए हैं. लोग जिस दिलचस्पी से पकौड़ापकौड़ा खेल रहे हैं, मुमकिन है इसे प्रसाद के रूप में देवीदेवताओं को चढ़ाया जाने लगे. कुछ शिक्षाविदों की राय है कि पकौड़ा निर्माण और विपणन को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए, जिस से देश का भविष्य स्वावलंबी बने. देश के बच्चे अब डाक्टर, इंजीनियर या साइंटिस्ट बनने के सपने नहीं देखते, बल्कि वे पकौड़ाबाज बनने की ख्वाहिश पालने लगे हैं. ऐसे में देश का भविष्य वाकई उज्ज्वल है, यही कहा जाएगा.

नरेंद्र मोदी वाकई अतिमानव हैं जो देश का मनोरंजन करने के लिए नईनई तरकीब पेश करते रहते हैं. उन के सामने कर्नाटक, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनावों की चुनौती है. उन्हें देश को विश्वगुरु भी बनाना है. उन के चिंतन में बाधा डाल  रहे लोग पकौड़ाचिंतन में व्यस्त हो गए हैं, यह किसी उपलब्धि से कम बात नहीं.

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भाजपा को देंगी चुनौती

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गुजरात विधानसभा और राजस्थान उपचुनावों के बाद भारतीय जनता  पार्टी को अपना जनाधार टूटता दिखने लगा है. 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहरा पाना सब से बड़ी चुनौती होगी. निकाय चुनाव में प्रदेश के कसबों और गांवों में भाजपा को पहले जैसे वोट नहीं मिले. भाजपा लगातार यह प्रयास कर रही है कि उस के खिलाफ विपक्ष एकजुट हो कर मुकाबले में न आए. भाजपा को पता है कि अपने दम पर पूरे देश में कांग्रेस का लोकसभा चुनाव में उतरना उस के संगठन की क्षमता से बाहर है. ऐसे में कांग्रेस अलगअलग प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल कर के चुनाव मैदान में उतरेगी. भाजपा ने लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सब से बड़ी जीत हासिल की है. उस के बाद नगर निगम के चुनावों में सब से अधिक मेयर भाजपा के चुने गए हैं. ऐसे में अब भाजपा के पास कोई बहाना नहीं है कि प्रदेश का विकास क्यों नहीं हो पाया.

परेशानियों से जूझ रही है जनता

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के विकास को पटरी पर लाने में असफल रहे हैं. प्रदेश की जनता कई तरह की परेशानियों से जूझ रही है. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित की जाने वाली हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं में 10 लाख छात्रों ने परीक्षा छोड़ दी. योगी सरकार इसे अपनी सफलता के रूप में देख रही है जबकि हकीकत में यह योगी सरकार के लिए सब से बड़ा संकट साबित होने वाला है.

योगी सरकार का तर्क है कि नकल पर नकेल कसने के कारण छात्रों ने परीक्षा छोड़ी. इन छात्रों के साथ उन के परिवारों का तर्क यह है कि कक्षा में छात्रों को सही तरीके से पढ़ाया ही नहीं गया. हाईस्कूल और इंटर के छात्रों की संख्या बहुत है. इस परीक्षा का असर परीक्षाफल पर भी पड़ेगा. पास होने वाले छात्रों की संख्या कम होगी. उन के नंबर कम आएंगे. समाजवादी पार्टी की सरकार ने हाईस्कूल और इंटर के बच्चों से किया अपना वादा पूरा नहीं किया था. उन को पूरी तरह से लैपटौप और टैबलेट नहीं दिए थे. सपा को चुनाव में इस की कीमत चुकानी पड़ी.

योगी सरकार का एक और फैसला खनन नीति को ले कर है. इस की वजह से घर बनाने में प्रयोग होने वाली बालू और मोरंग बहुत महंगी हो गई है. एक तरफ सरकार सब को घर देने की बात कर रही है वहीं दूसरी तरफ घर बनाने में लगने वाली सामग्री महंगी होती जा रही है. गांव का किसान अपने खेतों को नुकसान पहुंचा रहे छुट्टा जानवरों से परेशान है. गांवों में इस को ले कर झगड़े तक हो रहे हैं. सरकार के पास इस का कोई उपाय नहीं है. वह तरहतरह की हवाहवाई योजनाएं फाइलों में तैयार कर रही है. ऐसे में सब से बड़ा प्रभाव उस जनता पर पड़ रहा है जो गांवों में रहती है. गांव और कसबे के लोगों को यह लग रहा है कि यह सरकार बड़ी और ऊंची जातियों के प्रभाव में है.

धर्म के नाम पर लोकसभा और विधानसभा में भाजपा को वोट देने वाला वर्ग खुद को ठगा महसूस कर रहा है. सहारनपुर दंगा इस की मिसाल बना. इस के बाद कासगंज में हुए दंगे से साफ हो गया कि योगी सरकार प्रदेश में जिस अपराधमुक्त वातावरण की बात कर रही थी उस में वह सफल नहीं हुई. सरकार ‘पुलिस एनकांउटर’ नीति से अपराध को खत्म करने की दिशा में चल रही है.

बदलते समीकरण

2014 के लोकसभा चुनाव और 2019 के आगामी लोकसभा चुनाव की स्थिति में काफी अंतर है. उस समय देश में कांग्रेस के विरोध में वातावरण बना हुआ था. लोगों को भाजपा नेता नरेंद्र मोदी से चमत्कार की उम्मीद थी. नोटबंदी और जीएसटी से साफ हो गया कि केंद्र सरकार ने किसी भी फैसले को लागू करने से पहले कोई तैयारी नहीं की. नोटबंदी से क्या लाभ हुए, यह बताने में सरकार असफल रही. जीएसटी में एक देश एक टैक्स की बात कही गई पर 5 तरह के स्लैब के साथ जीएसटी लागू हुआ. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है. भाजपा के लिए अपनी सीटों को बचाने की चुनौती है.

सपाकांग्रेस गठबंधन का आधार

उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटों में से केवल 7 सीटें विपक्ष के पास हैं.

72 लोकसभा सीटें भाजपा और उस के सहयोगी दलों के पास हैं. भाजपा के लिए इन 72 लोकसभा सीटों को दोबारा हासिल करना बड़ी चुनौती है. तब तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में भी रहते हुए भाजपा को ढाई साल का समय हो चुका होगा. तब उत्तर प्रदेश सरकार की नाकामियां भी सामने होंगी.

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में नई शुरुआत करनी है. सपा के पास 5 लोकसभा सीटें हैं तो कांग्रेस के पास केवल 2 सीटें हैं. 2017 में विधानसभा चुनाव सपाकांग्रेस ने साथ मिल कर लड़े थे. लेकिन उस में दोनों को कोई खास सफलता नहीं मिली थी. विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा नेता अखिलेश यादव के बीच कोई तालमेल नहीं दिखा. अखिलेश यादव ने यह कहा था कि वे दोस्ती नहीं तोड़ते हैं. इस बात से यह साफ है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस एकसाथ खड़ी होंगी.

अखिलेश और राहुल की जोड़ी के लिए अच्छी बात यह है कि अब उन के पास अपनी पार्टियों की सीधी कमान है. दोनों ही अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. 2017 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी अपने घरेलू विवाद में फंसी थी और राहुल गांधी पूरी तरह से पार्टी की कमान नहीं संभाल पाए थे. ऐसे में अब उन के लिए काम करना सरल है.

धीरेधीरे एक बड़ा वर्ग यह भी मान रहा है कि भाजपा केवल हिंदुत्व यानी पाखंडी दुकानदारी को आगे रख कर ही लड़ाई जीतने की कोशिश में रहती है. हिंदुत्व के तहत धुव्रीकरण का प्रयास भाजपा लोकसभा चुनाव में भी करेगी. अयोध्या का राममंदिर विवाद इस का सब से बड़ा माध्यम बन सकता है. कांग्रेस और सपा अगर खुद को भाजपा के इस जाल से बाहर निकालने में सफल रहे तो दोनों दलों के लिए लोकसभा चुनाव बेहतर साबित हो सकते हैं.

भाजपा के पास चुनावी मैनेजमैंट बहुत बेहतर है पर उस के पास जमीनी स्तर पर जनाधार वाला नेता नहीं है. यही वजह है कि भाजपा को एक मुख्यमंत्री और 2 उपमुख्यमंत्री के बल पर अपना काम करना पड़ रहा है. सत्ता में रहने के कारण विधायक, सांसद और कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा से परेशान हैं. कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि उन की बातें सुनी नहीं जा रहीं. नौकरशाही सरकार पर पूरी तरह हावी है. ऐसे में केवल भगवा रंग के सहारे लोकसभा चुनाव में पार पाना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा.

सपा के लिए अब तक मुश्किल यह थी कि प्रमुख विपक्षी बहुजन समाज पार्टी तालमेल के पक्ष में नहीं रहती थी. ऐसे में 4 बड़े दल अलगअलग चुनाव लड़ते थे. उत्तर प्रदेश में मायावती की दलित राजनीति अब कमजोर हो चली है.

दलित धर्म के नाम पर भाजपा के पक्ष में खड़े होते हैं पर सामाजिक स्तर पर भाजपा के साथ उन का कोई तालमेल नहीं है. ऐसे में दलित के लिए सपाकांग्रेस के पक्ष में खड़ा होना मुफीद लगता है. सपा में अब तक होने वाले फैसलों में मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव और तमाम बड़े नेताओं का प्रभाव होता था. अब सभी फैसले केवल अखिलेश के होते हैं. ऐसे में किसी पहल के लिए उन को दूसरे नेताओं के समर्थन और आलोचना की चिंता नहीं है. कमोबेश यही हालत कांग्रेस की है. अब राहुल गांधी के हाथ में पार्टी की कमान है.

भाजपा में शाहमोदी की जोड़ी ने पूरी पार्टी को अपने कब्जे में कर रखा है. वहां सारे फैसले उन के ही होते हैं. विपक्ष का आरोप है कि उत्तर प्रदेश में अदृश्य मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा कार्यालय से सरकार चलाई जा रही है. ऐसे में पार्टी के तमाम नेता चुनावी समय में असहयोग कर सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव के परिणाम 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों को भी प्रभावित करेंगे. अगर कांग्रेससपा की जोड़ी लोकसभा चुनावों में भाजपा को मात दे पाई तो विधानसभा चुनावों में वह सब से प्रबल दावेदार हो सकती है. कांग्रेस के लोगों से बात करने पर पता चलता है कि गुजरात चुनावों में जिस तरह से भाजपा के खिलाफ लामबंदी का परिणाम देखने को मिला उस से कांग्रेस हर प्रदेश में इसे प्रयोग में लाएगी.

इसी साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव होने हैं. भाजपा की रणनीति यह बन रही है कि इन राज्यों के चुनावों के साथ ही वह लोकसभा चुनाव भी करा दे, जिस से विपक्ष संभल न पाए और भाजपा इस का लाभ उठा कर चुनाव जीत ले. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें हैं. ऐसे में यहां सरकार बचाना कठिन काम है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सब से कमजोर प्रदेश हैं. अगर 3 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मात मिली तो उत्तर प्रदेश में उसे लोकसभा की 72 सीटें हासिल करना बहुत मुश्किल

हो जाएगा. कांग्रेससपा भले ही अभी साथसाथ न दिख रही हों पर लोकसभा चुनाव में वे भाजपा को रोकने के लिए आपसी समझ बना चुकी हैं. समय आने पर यह सामने दिखेगा.

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