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जाति के आधार पर नेताओं के लिए जनता के वोट लेना भले ही आसान काम हो, पर सरकार बनाने के बाद जातियों में बैलैंस बनाए रखना मुश्किल काम होता है. यही वजह है कि बहुमत से सरकार बनाने वाले दलों को 5 साल में ही हार का सामना करना पड़ता है. अब जातीयता राजनीतिक दलों को भी लंबे समय तक टिक कर राज नहीं करने देती है.

वोट लेते समय राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक बराबरी बनाए रखना भले ही आसान काम हो, पर सरकार चलाते समय इस को बनाए रखना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से लेकर योगी आदित्यनाथ की सामाजिक बराबरी तक यह बारबार साबित होता दिख रहा है.

उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले की तिलोई विधानसभा सीट से विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह और योगी सरकार में आवास राज्यमंत्री सुरेश पासी के बीच छिड़ी लड़ाई इस का ताजा उदाहरण है. सुरेश पासी जगदीशपुर विधानसभा सीट से विधायक हैं और वे उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं. तिलोई और जगदीशपुर विधानसभा इलाके आसपास हैं.

अपनी राजनीति को मजबूत बनाए रखने के लिए विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह और मंत्री सुरेश पासी एकदूसरे के इलाकों में दखलअंदाजी भी करते रहते हैं. अपने दबदबे को बढ़ाने के लिए कई बार आमने सामने भी आ जाते हैं. सबसे अहम बात यह है कि दोनों ही भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं.

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मंत्री होने के चलते सुरेश पासी के पास ज्यादा हक हैं. सरकारी नौकर भी विधायक से ज्यादा मंत्री की बात को अहमियत देते हैं.

सुरेश पासी भले ही जगदीशपुर से चुनाव लड़ते हों, पर उनका अपना निजी घर तिलोई विधानसभा इलाके में पड़ता है. लगातार 3 बार से गांव की प्रधानी सुरेश पासी के परिवार के पास ही रही है. ऐसे में सुरेश पासी को तिलोई इलाके में भी पैरवी करनी पड़ती है. इस के चलते तिलोई के विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह के साथ उनकी होड़ सी बन जाती है.

एक ही पार्टी में होने के बाद दोनों नेताओं के बीच किसी किस्म का तालमेल नहीं है. दोनों के बीच झगड़ा इस कदर बढ़ गया था कि विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह ने अपने पद से इस्तीफा तक देने का मन बना लिया. इसके बाद वे प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिले.

विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह की नाराजगी के चलते अमेठी की पुलिस सुपरिटैंडैंट पूनम का वहां से तबादला कर दिया गया. वे विधायक और मंत्री के बीच तालमेल बनाने में नाकाम रही थीं. भाजपा के सामने यह पहला मामला है जो खुल कर सामने आ गया है.

वैसे, पूरे प्रदेश में ऐसे तमाम मामले हैं जहां नेताओं की जमीनी लैवल पर अलग अलग खेमेबंदी है.

भाजपा ने विधानसभा चुनाव के समय अलग अलग दलों और जातीय नेताओं को अपने साथ जोड़ा था, अब इनको साथ लेकर चलना मुश्किल हो रहा है. इन नेताओं की आपसी खेमेबंदी का नुकसान पार्टी को चुकाना पड़ सकता है.

बहुत से विधायक और मंत्री अपने चहेते लोगों को पार्टी में अहम पदों पर बिठाना चाहते हैं. जातीय आधार पर देखें तो पता चलता है कि भाजपा हमेशा से ही अगड़ी जातियों की पार्टी रही है. ऐसे में अगड़ी जाति के नेता अपनी अलग अहमियत चाहते हैं.

भाजपा ने वोट के लिए दलित और पिछड़े तबके के नेताओं को पार्टी से जोड़ा था. चुनाव के बाद अब जमीनी लैवल पर इनके बीच तालमेल बनाए रखना मुश्किल काम हो गया है. जातीय आधार पर सब से ज्यादा परेशानी दलित तबके को हो रही है. उसके नेता से लेकर कार्यकर्ता तक को ज्यादा अहमियत नहीं मिल रही है. भाजपा में हिंदू धर्म को मानने वालों की तादाद ज्यादा है. वे लोग दलितों के साथ तालमेल नहीं बना पा रहे हैं और भाजपा बारबार इस मुद्दे को दबाने में लगी रहती है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और संगठन मंत्री सुनील बंसल पार्टी कार्यकर्ताओं को परिवारवाद से दूर रहने और आपसी तालमेल बनाए रखने की बात समझाते हैं. इसके बाद भी नेता किसी न किसी मुद्दे को लेकर सामने आ ही जाते हैं. ऐसा केवल भाजपा के ही साथ नहीं हुआ है. इस के पहले बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को भी इसी बात का शिकार होना पड़ा था.

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साल 2007 में बसपा सुप्रीमो मायावती ने ब्राह्मणदलित गठजोड़ के साथ सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति तैयार की थी, जिस में दलितों के साथ साथ कई अगड़ी जातियों ने भी बसपा का साथ दिया था. इसके बल पर मायावती को पहली बार बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला था.

सरकार बनाने के बाद बसपा इस बैलैंस को बनाए रखने में नाकाम रही, जिस से सरकार के मंत्रियों और कार्यकर्ताओं के बीच दूरियां बढ़ने लगीं.

जो दलित तबका कभी बसपा का मजबूत खंभा होता था, वह खुद पार्टी से दूर जाने लगा. इसके चलते बसपा को विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में ही करारी हार मिली थी. बसपा की ही तरह समाजवादी पार्टी के साथ भी यही हुआ था. पिछड़ों के बेस वोट के बाद मुसलिमों और अगड़ों को साथ लेकर सपा ने साल 2012 में बहुमत की सरकार बना ली थी.

अखिलेश यादव की युवा इमेज और मुलायम सिंह यादव की संगठन कूवत भी सरकार के समय जातीय बैलैंस साधने में नाकाम रही थी. इस से अलग अलग जातियों के नेता सपा से नाराज हो गए. सबसे ज्यादा परेशानी में अतिपिछड़े और दलित नेता थे. उनको लग रहा था कि अखिलेश सरकार में उनकी सुनी नहीं जा रही है. ऐसे में जब 2014 के लोकसभा चुनाव आए तो यह तबका भाजपा के पक्ष में खड़ा हो गया और सपा को करारी हार देखनी पड़ी.

2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने भी अपने कैडर वोट के अलावा दलित और पिछड़ों को पार्टी के साथ जोड़ने में कामयाबी तो हासिल करली, पर अब इनको एकसाथ लेकर चलना भारी पड़ रहा है. भाजपा का मुख्य अगड़ा वोट बैंक पार्टी से खुश नहीं है खासकर बनिया और ब्राह्मण तबका.

भाजपा ने बाहरी नेताओं को भी पार्टी में शामिल किया है. ये नेता भाजपा के पुराने नेताओं के साथ सहज भाव से एक नहीं हो पा रहे हैं. इस का खमियाजा पार्टी को आने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है.

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