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ट्रिपल तलाक विशेष : दर्द ने बढ़ाया हौसला

खूबसूरत आतिया साबरी एक अजीब सजा से रूबरू हो रही थी. शौहरबीवी के रिश्तों के उस के जज्बातों पर वक्त के साथ बंदिश लग चुकी थी. यह रिश्ता अब ऐतबार के काबिल भी नहीं रह गया था. रिश्तों की डोर पूरी तरह टूट चुकी थी और जिंदगी गमजदा हो गई थी. लेकिन वह अपनी 2 मासूम बेटियों की मुसकराहटों व शरारतों से खुश हो कर गम को हलका करने की कोशिश करती थी.

21 अगस्त, 2017 की शाम को आतिया के चेहरे पर भले ही चिंता की लकीरें थीं, लेकिन आंखों में उम्मीदों के चिराग रोशन थे. उसे देख कर पिता मजहर हसन ने बेटी के नजदीक आ कर पूछा, ‘‘क्यों परेशान है आतिया? तेरे इरादे नेक हैं और तू इंसाफ के लिए लड़ रही है. देखना तुम लोगों की मुहिम जरूर रंग लाएगी.’’

‘‘सोचती तो मैं भी यही हूं. आप तो जानते हैं, यह लड़ाई मैं सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि उन बहनों के लिए भी लड़ रही हूं, जो 3 तलाक के बाद जिल्लत की जिंदगी जी रही हैं. मैं सोचती हूं कि किसी को भी तलाक का ऐसा दर्द न झेलना पड़े.’’

‘‘जो होगा, ठीक ही होगा. बस, उम्मीद का दामन थामे रहो.’’ मजहर ने बेटी को समझाया तो आतिया की आंखों में चमक आ गई.

‘‘मुझे पूरी उम्मीद है अब्बू, अदालत औरतों के हक में फैसला दे कर इस 3 तलाक से निजात दिला देगी. कल का दिन शायद मेरे लिए खुशियां ले कर आए.’’ आतिया ने आत्मविश्वास भरे लहजे में कहा.

अब्बू से थोड़ी देर बात कर के आतिया सोने के लिए अपने कमरे में चली गई. उस की 2 मासूम बेटियां सादिया व सना तब तक सो चुकी थीं.

आतिया उत्तर प्रदेश के शहर सहारनपुर के नई मंडी कोतवाली के मोहल्ला आली की रहने वाली थी. वह तलाक पीडि़ता थी और उस ने इंसाफ के लिए देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी थी. वह देश की उन 5 मुसलिम महिलाओं में से एक थी, जो 3 तलाक के खिलाफ जंग लड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई थीं.

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उन के मामलों पर लंबी सुनवाई हुई थी और फैसले के लिए 22 अगस्त की तारीख तय की गई थी. 5 जजों की संविधान पीठ को मुसलिम धर्म में शरीयत कानून के तहत दिए जाने वाले 3 तलाक पर फैसला सुनाना था. इस तरह के तलाक के खिलाफ देशभर में मुसलिम महिलाओं की लगातार आवाजें उठ रही थीं.

अगले दिन अदालत ने अपना फैसला सुनाया तो आतिया और उस के परिवार की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. अदालत ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 3 तलाक की 14 सौ साल पुरानी प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करार देते हुए खारिज कर दिया था. जजों की संविधान पीठ ने इस प्रथा को कुरान-ए-पाक के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ और शरीयत कानून का उल्लंघन बताया.

आतिया को इसलिए और भी खुशी हुई थी, क्योंकि वह भी इस लड़ाई का एक हिस्सा थी. दरअसल, उस की जिंदगी दुख के पहाड़ से टकराई थी. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस शख्स को ताउम्र उस का साथ देना था, वह एक दिन उसे अकेला छोड़ देगा. आतिया अपनी मां मुन्नी व 3 बड़े भाइयों की लाडली थी.

आतिया विवाह के लायक हुई तो उस के घर वालों को उस के विवाह की चिंता हुई. वे चाहते थे कि उस का विवाह किसी अच्छे घर में हो, ताकि उस की जिंदगी खुशियों से आबाद रहे. उस के पिता मजहर मूलरूप से हरिद्वार जिले के सुलतानपुर गांव के रहने वाले थे. करीब 25 साल पहले वह सहारनपुर आ कर बस गए थे. उन के नातेरिश्तेदार वहीं आसपास रहते थे.

मजहर मियां ने रिश्ते की तलाश भी वहीं शुरू कर दी. खोजबीन के बाद उन्होंने बेटी का रिश्ता हरिद्वार के खानपुर थाना क्षेत्र के गांव जसोदरपुर निवासी सईद अहमद के बेटे वाजिद अली के साथ तय कर दिया. सारी बातें तय होने के बाद 25 मार्च, 2012 को उन्होंने आतिया का निकाह वाजिद के साथ कर दिया.

निकाह के बाद आतिया की जिंदगी खुशियों से भर गई. उस ने अपने भविष्य को ले कर तमाम ख्वाब देखे थे. एक साल बाद उस ने बेटी को जन्म दिया. यह उस का पहला बच्चा था. इस से सभी को खुश होना चाहिए था, लेकिन आतिया को पहली बार अहसास हुआ कि बेटी के जन्म से न सिर्फ उस का पति, बल्कि ससुराल के अन्य लोग भी खुश नहीं थे. वे लोग बेटे के ख्वाहिशमंद थे.

आतिया ससुराल वालों के रवैये पर हैरान तो थी, लेकिन उस ने सोचा कि यह सब वक्ती बातें हैं, जो वक्त के साथ खत्म हो जाएंगी. एक साल कब बीत गया, पता ही नहीं चला. आतिया दोबारा गर्भवती हुई. इस बार उस के ससुराल वालों को भरोसा था कि बेटा ही होगा. एक दिन वाजिद ने कहा भी, ‘‘मुझे उम्मीद है कि इस बार तुम बेटे को ही जन्म दोगी?’’

उस की बात सुन कर आतिया को हैरानी हुई. उस ने जवाब में कहा, ‘‘तुम जानते हो वाजिद, यह सब इंसान के हाथ में नहीं होता. लड़का हो या लड़की मैं दोनों में कोई फर्क महसूस नहीं करती. बच्चे गृहस्थी के आंगन के फूल होते हैं.’’

उस की बात पर वाजिद ने नाखुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी सोच चाहे जो भी हो, लेकिन मैं बेटे की ख्वाहिश रखता हूं.’’

आतिया बहस नहीं करना चाहती थी. लिहाजा वह खामोश हो गई. लेकिन वह मन ही मन परेशान थी कि यह किस तरह की सोच है, जो बेटियों से परहेज किया जाता है. अपने शौहर की सोच उसे अच्छी नहीं लगी.

सन 2015 में आतिया ने एक और बेटी को जन्म दिया. इस पर उस की ससुराल में जैसे तूफान आ गया. कोई भी इस बात से खुश नहीं था. न उस का शौहर और न उस के घर वाले. आतिया ने सोचा कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा, लेकिन यह उस की भूल थी. सभी लोग उसे ताना मारने लगे. उन के तेवर भी बदल चुके थे.

इस के बाद ससुराल वाले दहेज को ले कर भी आतिया को ताना देने लगे थे. आतिया को सब से बड़ा झटका उस दिन लगा, जब वाजिद ने उस से तल्ख लहजे में कहा, ‘‘बेटी को जन्म दे कर तूने मेरे कंधे झुका दिए हैं.’’

उस की बात पर आतिया को गुस्सा आ गया. उस ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप? कहीं अपने बच्चों के जन्म से भी किसी के कंधे झुकते हैं? आप को खुश होना चाहिए कि 2 बेटियों के पिता हैं. हम इन्हें पढ़ालिखा कर काबिल बनाएंगे.’’

‘‘यह सब ख्याली बातें हैं आतिया, तुम मेरी बात नहीं समझोगी.’’

‘‘मैं आप की सारी बातें समझती हूं.’’ आतिया ने भी तल्खी से जवाब दिया.

‘‘तुम्हें जो सोचना है, सोचती रहो. लेकिन सच यह है कि सिर बेटों से ही ऊंचा होता है.’’

आतिया की सोच और भावनाओं का किसी पर कोई असर नहीं हुआ. फलस्वरूप वक्त के साथ घर में कलह बढ़ती गई. पति की तानेबाजियों ने तल्खियों को और भी बढ़ा दिया. छोटीछोटी बातों पर कई बार विवाद बढ़ता तो आतिया के साथ मारपीट भी हो जाती. पानी सिर से ऊपर जाने लगा था.

आतिया ने ये बातें अपने मायके वालों को बताईं तो उन्होंने उसे सब्र से काम लेने की सलाह दी. लेकिन जब यह आए दिन की बात हो गई तो आतिया के मातापिता ने जा कर वाजिद व उस के घर वालों को समझाने की कोशिश की. इस से कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा, लेकिन जल्दी ही जिंदगी फिर से पुराने ढर्रे पर आ गई.

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धीरेधीरे आतिया की परेशानियों का सिलसिला बढ़ता गया. 12 नवंबर, 2015 को आतिया के साथ हद दर्जे तक मारपीट की गई. उस की तबीयत खराब होने लगी तो उसे उस के हाल पर छोड़ दिया गया. उसे यहां तक कह दिया गया कि वह चाहे तो ससुराल छोड़ कर जा सकती है.

अब आतिया को अपनी जान का खतरा महसूस होने लगा था. उसे जहर दे कर मारने की साजिश की जा रही थी. इसलिए अगले दिन वह दोनों बेटियों के साथ मायके चली आई. उस की हालत देख कर घर में सभी को धक्का लगा. आतिया ने आपबीती सुनाई तो उन्हें लगा कि बेटी जिंदा बच गई, यही बड़ी बात है.

आतिया को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया. वह मानसिक व शारीरिक कमजोरी से उबर आई तो उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. आतिया के साथ ज्यादती हुई थी, इसलिए उस ने पुलिस में जाने का मन बना लिया. ऐसा ही उस ने किया भी. उस ने स्थानीय थाने में अपनी ससुराल वालों के खिलाफ मारपीट व दहेज उत्पीड़न की तहरीर दे दी.

चंद रोज ही बीते थे कि आतिया की जिंदगी में भूचाल आ गया. वाजिद ने 10 रुपए के स्टांप पेपर पर लिख कर तलाकनामा भिजवा दिया. तलाक की तारीख 2 नवंबर लिखी गई थी. दरअसल, ससुराल पक्ष के लोगों को पता चल चुका था कि आतिया पुलिस में शिकायत दर्ज करा रही है, इसलिए उन्होंने चालाकी बरतते हुए तारीख पहले की लिखी थी.

आतिया को उम्मीद नहीं थी कि नौबत यहां तक आ जाएगी. वह महिलाओं को तलाक देने की मुसलिम धर्म की इस परंपरा के खिलाफ थी. वाजिद ने बेटियां पैदा होने और दहेज के लिए उसे सताया और फिर छुटकारा पाने के लिए एकतरफा तलाक भी भेज दिया.

धार्मिक कानून ऐसे तलाक को मान्यता देता था, इसलिए आतिया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी. जबकि वह इस तरह की तलाक प्रक्रिया के खिलाफ थी. मामूली बातों पर दिए जाने वाले तलाक के किस्से वह सुनती आई थी. सारे हक मर्द के पास थे. वह जब चाहे, बीवी को अपनी जिंदगी से निकाल सकता था.

आतिया ने सोच लिया था कि वह खामोश नहीं बैठेगी, बल्कि अपने उत्पीड़न और तलाक के खिलाफ आवाज उठाएगी. उधर पुलिस ने उस की तहरीर के आधार पर मुकदमा दर्ज कर लिया. दिसंबर महीने में पुलिस ने आतिया के पति व ससुर को गिरफ्तार कर के जेल भेज दिया. आतिया ने दोनों मासूम बेटियों में खुशियां ढूंढीं और तलाक को चुनौती देने की ठान ली.

आतिया का एक भाई रिजवान सामाजिक कार्यकर्ता था और फरीदी विकास समिति नामक संस्था चलाता था. उस ने भी इस लड़ाई में आतिया का साथ दिया. आतिया तलाक के खिलाफ थी, यह बात नातेरिश्तेदारों और समाज के लोगों को पता चली तो उन्होंने उसे मजहब का वास्ता दे कर समझाया. लेकिन आतिया उन की बात मानने को तैयार नहीं थी.

आतिया के मातापिता व घर वालों को भी लोगों ने समझाने की कोशिश की. लेकिन उन की नजर में आतिया कुछ गलत नहीं कर रही थी. उस की जिंदगी जिस तरह दोराहे पर आ गई थी, उस से वह भी आहत थे और इंसाफ चाहते थे.

आतिया ने ऐसी महिलाओं से मिलना शुरू किया, जो तलाक पीडि़ता थीं. उन की कहानियां उसे विचलित कर जाती थीं. उस ने मुसलिमों के बड़े धार्मिक केंद्र दारुल उलूम देवबंद में पति के तलाक के खिलाफ अर्जी लगाई. लेकिन उन्होंने तलाक को जायज ठहराया और धार्मिक कानून का हवाला भी दिया.

दरअसल, वाजिद वहां से अपने दिए तलाक के बारे में पहले ही फतवा ले चुका था. इस के बावजूद आतिया यह सब मानने को तैयार नहीं थी. क्योंकि उसे धोखे से तलाक दिया गया था. सारे हक एकतरफा थे यानी उस की रजामंदी के कोई मायने नहीं थे.

खास बात यह थी कि वाजिद इस बीच दूसरा निकाह भी कर चुका था. जब दारुल उलूम देवबंद से भी उसे निराशा मिली तो उस ने समाज से टकराते हुए 3 तलाक की परंपरा को बदलने के लिए न्यायालय की दहलीज तक पहुंचाने का मंसूबा बना लिया. 3 तलाक का मुद्दा देश के कई हिस्सों में बहस को जन्म दे रहा था और मुसलिम महिलाएं इस परंपरा के खिलाफ खड़ी हो रही थीं.

आतिया ने दिसंबर, 2016 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी, जिसे स्वीकार कर लिया गया. 3 तलाक एक बड़ा मुद्दा बना ही हुआ था और कुछ याचिकाएं पहले से ही अदालत में थीं. देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था, जब मुसलिम महिलाओं ने 3 तलाक के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया था.

सुनवाई पर आतिया अदालत जाती रही. 3 तलाक का मामला चूंकि संवेदनशील और धार्मिक था, इसलिए सुनवाई के लिए अलगअलग धर्म के 5 जजों का समूह बना कर उन्हें 3 तलाक की सुनवाई और फैसले का जिम्मा दिया गया. इस के बाद ही अदालत ने सभी मामलों को जोड़ कर एक साथ सुनवाई कर के 22 अगस्त को फैसला सुना दिया.

आतिया कहती है कि अदालत के फैसले के बाद मुसलिम महिलाओं के लिए आजादी के दरवाजे खुल गए हैं. मामूली बातों पर भी तलाक को हथियार बना कर औरत से छुटकारा पाने की मनमानी वाली मानसिकता से उन्हें निजात मिलेगी और उत्पीड़न बंद होगा.

आतिया अपने पिता के घर रह रही है. वह अपनी बेटियों को पढ़ालिखा कर आगे बढ़ाना चाहती हैं. उस के पिता कहते हैं, ‘मैं ने बेटी के दर्द को करीब से महसूस किया है. समाज में किसी और बेटी के साथ नाइंसाफी न हो, इस लड़ाई का यही मकसद था.’

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन ही तलाक

झारखंड के हजारीबाग में एक गांव है चितरपुर. 8 जून, 2012 को इस गांव की फातिमा सुरैया का निकाह बादमगांव के कैफी आलम से हुआ था.

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फातिमा का कहना है कि निकाह के समय 2 लाख रुपए नकद, 6 लाख रुपए के जेवरात और 2 लाख रुपए का अन्य सामान दहेज में दिया गया था. शादी के एक साल बाद फातिमा एक बेटी की मां बनी. उस के जन्म के 6 माह बाद फातिमा से कहा गया कि वह अपने मायके से 5 लाख रुपए लाए, उसे जमीन खरीदनी है.

वह पैसा लाई भी, लेकिन कैफी आलम ने जमीन अपने नाम खरीद ली. इस के कुछ दिनों बाद वह फातिमा के मायके वालों से 2 लाख रुपए की और मांग करने लगा. पैसे नहीं मिले तो ससुराल वाले सुरैया को प्रताडि़त करने लगे. सुरैया फिर भी सहती रही.

23 अगस्त को सब कुछ ठीक था. सुबह को सुरैया ने पति के साथ नाश्ता भी किया. लेकिन शाम को वह घर आया तो अचानक तीन बार तलाक कह कर उसे बेटे के साथ घर से निकाल दिया, साथ ही कहा भी, ‘थाना कोर्टकचहरी जहां भी जाना हो, जाओ.’

सुरैया अपने मायके चली गई. मायके वालों ने कैफी और उस के घर वालों को समझाने की काफी कोशिश की. लेकिन बात नहीं बनी. वे लोग रांची के अंजुमन कमेटी में गए, लेकिन कमेटी ने 20 दिनों बाद निर्णय लेने की बात कही.

आखिर सुरैया ने थाना कड़कागांव में अपने ससुर फकरे आलम, सास रोशन परवीन, ननद सुबैया आलम और ननदोई परवेज मलिक के खिलाफ दहेज के लिए प्रताडि़त करने की रिपोर्ट दर्ज करा दी. फैसला तो एक दिन पहले ही आ गया था. अब शायद सुरैया को राहत मिले.

3 तलाक के चक्कर में जान तक लगा दी दांव पर

जिला बरेली के आंवला क्षेत्र के गांव कुड्डा की रहने वाली 3 तलाक पीडि़ता अजरुन्निसा जिल्लत की जिंदगी से इतनी तंग आ गई थी कि 12 मई, 2017 को उस ने जिलाधिकारी कार्यालय के बाहर आत्मदाह की कोशिश की. उस ने अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल लिया था, गनीमत यह रही कि आग लगाने से पहले वहां मौजूद सिपाहियों ने उसे बचा लिया.

घटना से 4 महीने पहले ही अजरुन्निसा का निकाह बरेली के सीबीगंज निवासी तौफीक से हुआ था. शादी के बाद से तौफीक उस पर गलत काम के लिए दबाव डाल रहा था. वह नहीं मानी तो तौफीक उस के साथ मारपीट करने लगा. इस से भी उस का मन नहीं भरा तो शादी के 2 महीने बाद उस ने 3 बार तलाक कह कर अजरुन्निसा को घर से निकाल दिया.

इस के बाद अजरुन्निसा ने न्याय के लिए थाने से ले कर अधिकारियों तक के यहां गुहार लगाई. धर्म के ठेकेदारों के पास भी गई, पर हर जगह निराशा ही मिली. अंतत: उस ने आत्मदाह करने का फैसला किया. बहरहाल, वह बच तो गई, पर उसे न्याय कहीं से नहीं मिला. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भी वह न्याय की मुंतजिर है.

ट्रिपल तलाक विशेष : मिली एक और आजादी

बात सन 1978 की है. शाहबानो नामक एक महिला थीं, जिन के 5 बच्चे थे. 3 तलाक के तहत बिना किसी खास वजह के उन के पति ने उन्हें तलाक दे दिया था. पति द्वारा इस तरह खुद से अलग कर देने के बाद शाहबानो के पास अपने और बच्चों के गुजरबसर करने का कोई जरिया नहीं रहा.

दूसरा कोई चारा न देख शाहबानो ने अदालत से गुहार लगाई कि उसे पति से गुजारे के लिए पैसा दिलाया जाए. यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा. इस सब में 7 साल का लंबा समय गुजर गया.

अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने भादंसं की धारा 125 के तहत जो निर्णय लिया, उस के बारे में यह भी कहा कि यह निर्णय हर किसी पर लागू होता है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो. अपने निर्णय के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाहबानो को गुजारे के लिए खर्च दिया जाए. लेकिन इस फैसले का जो स्वागत होना चाहिए था, वह नहीं हुआ.

भारत के रूढि़वादी मुसलमानों ने इस का विरोध करते हुए कहा कि यह निर्णय उन की संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप है. इस में उन्हें असुरक्षा का भाव नजर आया. इस निर्णय को ले कर तमाम नेताओं ने भी विरोध प्रदर्शन किए. इस के बाद इस मामले की वजह से मुसलिमों ने आल इंडिया पर्सनल लौ बोर्ड नाम से अपनी एक संस्था बनाई. इस संस्था के कारकुनों ने इस निर्णय के खिलाफ देश के प्रमुख शहरों में आंदोलन करने की धमकी दी.

उन दिनों देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे, जिन्होंने इस बोर्ड के पदाधिकारियों की सभी शर्तें मान लीं. उस समय इस निर्णय को धर्मनिरपेक्षता के एक अहम उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया था. सन 1986 में कांग्रेस (आई) पार्टी ने, जिसे संसद में बहुमत प्राप्त था, इस मुद्दे पर मसौदा तैयार कर के एक कानून बनाया, जिस ने शाहबानो वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया.

इस कानून के अनुसार, हर वह आवेदन, जो किसी तलाकशुदा महिला के द्वारा भादंसं की 1973 की धारा 125 के तहत देश की किसी भी कोर्ट में विचाराधीन है. इस कानून के लागू होते ही इसी कानून के अंतर्गत निपटाया जाएगा. चूंकि सरकार को पूर्ण बहुमत प्राप्त था, इसलिए धर्मनिरपेक्ष निर्णय को उलटने वाला मुसलिम महिला तलाक अधिकार सरंक्षण कानून 1986 आसानी से पास हो गया.

तय हुआ कि अब आगे यही कानून हर लिहाज से मान्य होगा. इस कानून के कारणों एवं प्रयोजनों की चर्चा करें तो यह बात सामने आई कि जब एक मुसलिम तलाकशुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुजारा नहीं कर सकती, तो न्यायालय उन सगेसंबंधियों को उसे उस की जरूरत के हिसाब से खर्चा देने का आदेश कर सकता है, जो मुसलिम कानून के अनुसर, उस की संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं.

यहां ‘इद्दत’ का मतलब भी जान लेना जरूरी है. इद्दत का मतलब मुसलमानों में शौहर के मरने अथवा उस के द्वारा बीवी को तलाक देने के बाद का वह समय, जिस में विधवा अथवा तलाकशुदा औरत दूसरी शादी नहीं कर लेती.

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बहरहाल, हम बात कर रहे हैं सन 1986 में बने कानून की. इस के तहत यह प्रावधान रखा गया कि अगर मुसलिम औरत के ऐेसे संबंधी नहीं हैं अथवा वे उसे उस के गुजारे लायक खर्च देने की स्थिति में नहीं हैं तो वक्फ बोर्ड को औरत के गुजारे की जिम्मेदारी उठाने का आदेश दिया जाएगा.

इस तरह पति द्वारा गुजाराभत्ता देने का उत्तरदायित्त्व इद्दत के समय तक के लिए सीमित कर दिया गया. लेकिन मर्दों ने इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया. 3 तलाक का सिलसिला उसी तरह जारी रहा. भारत में मुसलिम औरतों को कोई राहत नहीं मिली.

इसलाम में तलाक के कई स्वरूप हैं. इन के तहत कुछ की पहल स्त्रियों और कुछ की पुरुषों की तरफ से की जाती है. समय और स्थान के अनुसार, इसलाम में तलाक का बदला रूप भी पाया गया है. पहले तलाक में शरिया का इस्तेमाल किया जाता था. शरिया पारंपरिक इसलामी नीतियों पर चलती है, जो विभिन्न इसलामी कानूनी संस्थाओं में विभिन्न तरह की होती है.

पारंपरिक इसलामी नीति इसलामी ग्रंथों मसलन कुरान और हदीस से बनाई गई है. इन कानूनों की प्रणाली में अलगअलग इसलामी कानूनी संस्थाओं द्वारा नईनई चीजें जोड़ी जाती रही हैं. ये चीजें मुफ्तियों द्वारा निर्देशित और नियंत्रित होती हैं. ये मुफ्ती ही अक्सर इसलामी कानून न मानने वाले के खिलाफ अपना फतवा जारी करते हैं.

3 तलाक की बात करें तो यह मुसलिम समाज में वह जरिया था, जिस में एक मुसलमान पुरुष अपनी बीवी को 3 बार तलाक कह कर अपने निकाह को किसी भी समय रद्द कर सकता था. इस तरह से होने वाले तलाक से शादी पूरी तरह खत्म हो जाती थी. इस के बाद अगर वही आदमी अपनी बीवी से फिर से शादी करना चाहे तो बीवी को ‘हलाला’ की प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता था. उस के बाद ही उनकी शादी हो सकती थी.

‘हलाला’ एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिस में तलाकशुदा औरत को किसी दूसरे मुसलमान पुरुष से शादी कर के उस के साथ कुछ दिन रह कर पत्नी धर्म निभाना पड़ता था. इस के बाद उस से तलाक ले कर वह अपने पुराने शौहर से निकाह कर सकती थी. 3 तलाक को प्राय: ‘तलाक उल बिद््दत’ भी कहा जाता था.

दुनिया में ऐसे भी तमाम बुद्धिजीवी हैं, जिन्होंने 3 तलाक को गैरइसलामिक घोषित करवाने के प्रयास किए हैं. उन का कहना है कि कुरान में इस तरह के तलाक का कहीं जिक्र नहीं है. शौहर और बीवी को तलाक से पहले कम से कम 3 महीने तक एक साथ रहना चाहिए और इस बीच अगर इरादा न बदले और तलाक लेने की स्थिति बनी रहे तो कानूनी सलाह से ही तलाक लिया जाना चाहिए. शौहर अपनी बीवी को तुहर (मासिक धर्म के बाद पवित्रता वाले समय) में ही तलाक दे सकता है. नियम था कि इस के पहले 3 महीनों में उन्हें अपने तमाम शुभचिंतकों, रिश्तेदारों की मदद से अपनी शादी को बचाने की कोशिश करनी चाहिए.

जो भी हो, पुरुष के 3 बार तलाक कह देने भर से हमेशा के लिए तलाक हो जाता था. पहले शौहर अपनी बीवी को सामने खड़ी कर के 3 बार तलाक कह देता था तो दोनों का वैवाहिक रिश्ता टूट जाता था. आज के आधुनिक दौर में यह काम फोन, टैक्स्ट मैसेज, फेसबुक, स्काइप और ईमेल वगैरह से भी होने लगा था. चूंकि इसलामी नियम में इसे कानूनन सही माना जाता था, इसलिए ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती गईं.

इस सब से पुरुषों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन उन औरतों को परेशानी हो रही थी, जो आर्थिक रूप से पूरी तरह अपने शौहर पर निर्भर थीं. उन्हें इस तरह के तलाक से जिंदगी में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था. आर्थिक परेशानियों के साथ वे भावनात्मक रूप से भी टूट जाती थीं.

ऐसी महिलाओं को किसी भी तरह से निर्वाह का जरिया नहीं मिल पाता था. ये औरतें अकसर अकेली पड़ जाती थीं. इन के पास अपने बच्चों को पालने का कोई साधन तक नहीं रहता था. ऐसे अधिकतर मामलों में 3 तलाक के बाद आदमी अपने बच्चों की, खासकर बेटियों की जिम्मेदारी कभी नहीं लेता था.

मुसलिम समाज की तमाम महिलाएं इसी डर में अपनी जिंदगी गुजार देती थीं कि न जाने कब उन का शौहर 3 शापित शब्द कह दें. क्योंकि इस के बाद उन की जिंदगी खत्म होने के कगार पर आ जाती थी.

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मुसलिम शौहर केवल 3 बार तलाक कह कर कभी भी अपनी शादी को तोड़ सकता था. भारत से पहले दुनिया के 22 देश ऐसे थे, जहां 3 तलाक की मान्यता खत्म कर दी गई थी. दुनिया का पहला देश मिस्र था, जहां 3 तलाक को पहली बार बैन किया गया था. हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी इस मामले में हम से आगे रहा. वहां सन 1956 में ही 3 तलाक खत्म कर दिया गया था.

हिंदुस्तान में भी अब बदलाव नजर आने लगा था. लेकिन गुजारेभत्ते के मामले में शाहबानो के फैसले के विरोध में राजीव गांधी सरकार के कानून से बनी बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के दंश को यह देश झेल चुका था. लेकिन अब समय बदल चुका था. इलैक्ट्रौनिक एवं सोशल मीडिया के इस बदलते दौर में मुस्लिम महिलाओं के साथ समूचे समुदाय में काफी सकारात्मक मंथन होने लगा था.

इस सब का परिणाम यह रहा कि कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने देश के सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि ‘3 तलाक, निकाह, हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं से मुसलिम महिलाओं के सामाजिक स्तर और गरिमा को ठेस पहुंचती है. साथ ही उन्हें वो सारे मौलिक अधिकार भी नहीं मिल पाते, जिन्हें हमारा संविधान हमारे लिए लागू करता है.

सर्वोच्च न्यायालय में अपना लिखित मत देने से पहले सरकार ने कहा था कि ये सभी प्रथाएं मुसलिम महिलाओं को बराबरी का हक देने से रोकती हैं.

इस पर टिप्पणी करते हुए औल इंडिया मुसलिम पर्सनल लौ बोर्ड की ओर से कहा गया था कि कुछ लोग इस तरह का माहौल बनाने में लगे हैं कि इस मामले की सुनवाई समाज में तलाक की संख्या बढ़ रही है. लेकिन विश्व भर में इसलामी विद्वानों द्वारा इस की खिलाफत लगातार की जा रही है.

सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को गंभीरता से लिया. इस सिलसिले में 16 अक्तूबर, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने स्वत:संज्ञान ले कर जनहित याचिका दायर करने का आदेश दे दिया. तभी इसी तरह का एक मामला सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय में गया.

बात फैली तो सब से पहले उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली शायरा बानो ने 3 तलाक के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपनी अपील दायर कर दी. याचिका में संबंधित मुद्दों पर प्रकाश डालने के अलावा शायरा ने अपने बारे में बताया था कि उस ने समाजशास्त्र में एमए किया था. सन 2001 में उस की शादी हुई और 10 अक्तूबर, 2015 को 3 बार तलाक कह कर उस के पति ने उस से रिश्ता तोड़ लिया. अब वह स्कूल जाने वाले बेटे और बेटी के साथ अपने मांबाप के यहां रह रही है. उन्हीं की मदद से वह दिल्ली आई थी और एडवोकेट बालाजी श्रीनिवासन से मिल कर कोर्ट में केस दायर कर दिया था.

शायरा की याचिका स्वीकार होने के बाद सुनवाई शुरू होते ही 4 अन्य मुस्लिम महिलाओं ने भी इसी तरह की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर कर दीं. वे थीं जयपुर राजस्थान की रहने वाली बिजनैस ग्रैजुएट आफरीन रहमान, उत्तर प्रदेश के सहारनपुर की रहने वाली आतिया साबरी, अंग्रेजी से एमए की डिग्री हासिल करने वाली उत्तर प्रदेश के रामपुर की रहने वाली गुलशन परवीन और पश्चिम बंगाल के हावड़ा की रहने वाली इशरत जहां.

शादी के 15 सालों बाद एक दिन अचानक  दुबई से इशरत के पति का फोन आया और उस ने फोन पर ही तलाक…तलाक…तलाक… कह कर उसे अपनी जिंदगी से निकाल दिया. इस के कुछ दिनों बाद ही पति ने दूसरी शादी कर ली थी.

गुलशन परवीन एक निजी स्कूल में टीचर थीं. उस के गर्भवती होने पर ससुराल वालों ने उसे मायके भेज दिया, जहां 8 महीने बाद उस ने बेटे को जन्म दिया. बच्चे को ले कर ससुराल लौटी तो पति ने उस के साथ मारपीट शुरू कर दी.

बाद में पति ने 3 तलाक का सहारा लेते हुए उस से रिश्ता तोड़ लिया. इसी तरह आफरीन रहमान और आतिया साबरी को उन के पतियों ने खत के जरिए तलाक दे दिया था. इस के बाद ये महिलाएं अपनीअपनी याचिकाओं के साथ देश की सर्वोच्च न्यायालय में पहुंची थीं.

इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की खंडपीठ ने की. केंद्र की ओर से कहा गया कि सभी पर्सनल कानून संविधान के दायरे में हों. शादी, तलाक संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकार को भी एक नजर से देखा जाना चाहिए. माननीय जजों ने 11 मई, 2017 से 18 मई, 2017 तक लगातार इस मामले में सभी पक्षों की दलीलें सुनीं.

सर्वोच्च न्यायालय की ओर से 2 मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया कि 3 तलाक क्या इसलाम का मौलिक हिस्सा है? इस के बिना क्या इसलाम का स्वरूप बिगड़ जाएगा? पुरुषों को प्राप्त 3 तलाक का आधार क्या मुसलिम महिलाओं के समानता और सम्मान के अधिकार के विरुद्ध हैं?

इस प्रकरण में जहां केंद्र सरकार का रवैया खासा उत्साहजनक था, वहीं इंडियन मुसलिम पर्सनल लौ बोर्ड के अलावा अन्य संगठन जमीयत उलेमा ए हिंद के पदाधिकारियों ने अदालत में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि मुसलिम महिलाओं की हालत एक ऐसी असहाय चिडि़या जैसी है, जिसे सुनहरी बाज हमेशा दबोचने की फिराक में रहता है. इस पर सरकार की ओर से कहा गया कि यहां मुसलिम पुरुषों एवं महिलाओं के बीच के टकराव की बात हो रही है.

बहरहाल, 22 अगस्त, 2017 को पीठासीन जजों ने इस मुद्दे पर अपनी अलगअलग राय कुछ इस तरह से व्यक्त की.

चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर का कहना था कि 3 तलाक धार्मिक प्रथा का हिस्सा है. संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत इसे संरक्षण प्राप्त है. लिहाजा न्यायपालिका इस में हस्तक्षेप नहीं कर सकती. इस मामले में सरकार को पहल करते हुए कानून बनाना चाहिए.

दूसरी ओर जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस रोहिंटन एफ नरीमन एवं जस्टिस यू्.यू. ललित ने उक्त दोनों जजों की राय से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि यह असंवैधानिक है, इसलिए इसे निरस्त किया जाए.

इस के बाद उसी दिन सर्वोच्च न्यायालय ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मुसलिम समाज में एक बार में 3 तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) की इस 14 सौ साल पुरानी प्रथा को खारिज कर दिया. ऐसा संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 का उल्लंघन करार देते हुए किया गया था.

इस प्रथा की रोक पर सहमति के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार को 6 महीने के भीतर इस संबंध में कानून बनाने का निर्देश दिया गया.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भारतीय मुसलिम समाज की महिलाओं में खुशी की लहर दौड़ गई है. बहुत सी महिलाओं को तो यहां तक कहते सुना गया है कि भारत को 1947 के अगस्त माह में आजादी मिली थी, उन्हें एक तरह से यह दूसरी आजादी मिली है. देश आजाद होने के भले ही 70 साल बाद सही, पर मिली अगस्त में ही है.

ट्रिपल तलाक विशेष : आज भी आधे अधूरे हैं नीलोफर के सवालों के जवाब

कहानी की शुरुआत एक उर्दू मैगजीन के औफिस से होती है. एक हसीन नौजवान शायरा नीलोफर गुस्से में तमतमाई औफिस में दाखिल होती है और एक कर्मचारी से एडीटर का पताठिकाना पूछती है. उस कर्मचारी के मुंह में पान की पीक भरी थी. वह इशारा कर के उसे चपरासी के साथ एडीटर के कमरे की तरफ भेज देता है.

चपरासी जब नीलोफर का विजिटिंग कार्ड एडीटर को देता है तो वह एक मुलाजिम पर किसी बात पर गुस्सा हो रहा होता है और उसी गुस्से में कार्ड अंगुलियों पर घुमाते हुए बोलता है, ‘‘जाओ, कह दो मेरे पास वक्त नहीं है.’’

बाहर खड़ी नीलोफर यह सब सुनती है तो उस का पारा और चढ़ जाता है और वह गुस्से में धड़ाम से दरवाजा धकेलने की बेअदबी करने से खुद को नहीं रोक पाती और कमरे में पहला कदम रखते ही लगभग चिल्लाती है, ‘‘वक्त तो मेरे पास भी नहीं है जनाब.’’

हैदर जैसे ही उस गुस्ताख आवाज और लड़की को देखने के लिए नजर उठाता है तो ऐसे चौंकता है, मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो. ठीक यही हालत नीलोफर की भी था, जो गुस्सा भूल कर हैदर को इस तरह अपलक देख रही थी, मानो उसे यकीन न हो रहा हो.

चंद लमहे दोनों सुधबुध खो कर बिना पलक झपकाए एकदूसरे को देखते रहते हैं. और जब खुद पर यकीन हो जाता है कि वे कोई ख्वाब नहीं देख रहे हैं तो सहज होने की कोशिश करते हैं. हैदर मुलाजिम को कमरे से बाहर भेज देता है और चपरासी को चायनाश्ता लाने का हुक्म देता है. इस दौरान उस की हड़बड़ाहट देखने काबिल होती है.

नीलोफर अदब से उसे आदाब करती है और वह भी उसे पूरी इज्जत से बैठाता है. हैदर को इस बात पर कुदरती तौर पर हैरानी होती है कि इतने बड़े नवाब खानदान की बहू यूं आ कर 50 रुपए फीस के लिए झिकझिक करेगी. नीलोफर हैदर को बताती है कि वह नाम बदल कर नज्में लिखती है और इसी शहर के एक गर्ल्स हौस्टल में रहती है. यह सुन कर हैदर और भी ज्यादा चकरा जाता है.

थोड़ी देर में दोनों सहज हो जाते हैं और फिर शुरू होता है बातचीत का सिलसिला, जिस में हैदर नीलोफर को बड़ी बेतकल्लुफी से बताता है कि कालेज के दिनों में वह उस पर मरता था और उसे इंप्रैस करने के लिए उस ने क्याक्या नहीं किया था. वह आगे बताता है कि कालेज के पहले ही दिन नीलोफर यानी उस की चर्चा हुई थी तो लड़के कह रहे थे कि नीलोफर है तो बला की खूबसूरत, लेकिन किसी को घास तक नहीं डालती.

इस पर हैदर ने एक दोस्त सैफ से शर्त लगाई थी और 10 रुपए जीत गया था. नीलोफर यह जान कर चकित होती है कि हैदर उसे चाहने लगा था तो उस ने कभी अपनी चाहत का इजहार क्यों नहीं किया. हालांकि एक दफा गुलाब का फूल ले कर वह उस के घर तक भी गया था, पर अल्हड़ नीलोफर ने उसे झिड़क कर भगा दिया था. इस के बाद मायूस हैदर ने उसे भूल जाने में ही बेहतरी समझी. यह दीगर बात है कि वह उसे कभी भूल नहीं पाया.

हैदर नीलोफर को बताता है कि शर्त में जीते 10 रुपए और कभी उस की किताब से गिरा गुलाब का फूल आज भी उस के पास सलामत है. और तो और नीलोफर को पटाने के लिए उस ने एक सितार भी खरीदा था, लेकिन जिस दिन उसे मालूम हुआ कि उस नीली आंखों वाली नीलोफर की शादी किसी नवाब से होने जा रही है तो उस ने दूसरी यादों की तरह उस सितार को भी हमेशा के लिए सहेज कर एक कोने में रख दिया, साथ ही उस ने उस का नाम ही नीलोफर रखा था.

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अपनी बात सुना कर जब वह नीलोफर से उस के बारे में पूछता है तो वह सुबकने लगती है. फिर धीरेधीरे कई मुलाकातों में अपनी दर्दभरी दास्तां बयान करती है, जिसे सुन कर हैदर का दिल दर्द से भर जाता है.

जहां से तुम्हारी कहानी खत्म होती है, वहीं से मेरी कहानी शुरू होती है. नीलोफर हैदर को बताती है कि कालेज की पढ़ाई पूरी होने के बाद उस की शादी वसीम से तय हो गई थी. वसीम एक नामी नवाब खानदान का वारिस था, जिसे वह बचपन से जानती थी और चाहती भी थी. वसीम विदेश से वापस लौटा तो उन दोनों की शादी धूमधड़ाके से हो गई.

शादी के दूसरे दिन ही वसीम को तार के जरिए इत्तला मिली कि उसे एक फाइवस्टार होटल का कौंट्रैक्ट मिल गया है. यह सुन कर वह मारे खुशी के झूम उठा और नीलोफर को अपने लिए लकी मानने लगा. महत्त्वाकांक्षी वसीम रोमांटिक तो था, लेकिन बहुत सारा पैसा कमा लेना चाहता था, इसलिए शादी के बाद वह अपने कारोबार में इस तरह तल्लीन हो गया कि नीलोफर के लिए उस के पास वक्त ही नहीं रहा.

वह नीलोफर से अकसर वादा करता रहता कि आज फिल्म देखने चलेंगे या किसी होटल में साथसाथ लंच करेंगे. यह सुन कर नीलोफर खुश हो जाती थी, लेकिन वसीम कभी वक्त पर नहीं आता तो वह झल्लाने लगती थी. फिर भी वसीम हर बार प्यार से उसे मना लेता था.

जब वे हनीमून मनाने मुंबई गए, तब भी वसीम अपनी कारोबारी मीटिंगों में उलझा रहा और वह फाइवस्टार होटल में अकेली पड़ी उस का इंतजार करती रही.

इसी दौरान वसीम के घर वाले यानी नीलोफर के सासससुर और ननद व उस के बच्चे हज पर चले गए तो वह और भी तनहा हो गई. अब बड़ी हवेली में घर का बुजुर्ग नौकर जुम्मन भर रह गया था, जो उसे छोटी दुलहन कह कर पुकारता था. रोजाना डायरी लिखने की शौकीन नीलोफर अपनी तनहाई का दर्द पन्नों पर उतारती थी.

एक दिन उस वक्त हद हो गई, जब देर रात वसीम शराब पी कर आया. इस पर नीलोफर ने ऐतराज जताया और मरजी न होते हुए शौहर की मांग पर सैक्स करने से मना कर दिया. इस के लिए वसीम ने उसे खासी खरीखोटी सुनाई. उस रात दोनों में खूब तकरार हुई और नीलोफर दूसरे कमरे में जा कर सो गई. नशे में धुत वसीम अपने बिस्तर पर लुढ़क गया.

सुबह जब नीलोफर जागी तो रेडियो चालू करने पर 18 अक्तूबर की तारीख सुन उसे याद आया कि आज तो बड़ा मुबारक दिन है. एक साल पहले इसी दिन वसीम से उस की शादी हुई थी.

नीलोफर तय कर लेती है कि आज सारे गिलेशिकवे भूल जाएगी. रात की बात भूल कर वह जुम्मन मियां के हाथ से चाय की ट्रे ले कर खुद वसीम को चाय देने जाती है और प्यार से वसीम को जगाती है. वसीम दोहराता है कि आज उस की जिंदगी का सब से भाग्यशाली दिन है, क्योंकि आज ही के दिन नीलोफर उस की शरीकेहयात बनी थी.

प्यारभरी बातें करतेकरते दोनों तय करते हैं कि अब कभी लड़ाईझगड़ा नहीं करेंगे और प्यार से रहेंगे. औफिस जातेजाते वसीम उसे बताता है कि उस ने आज शाम हवेली में शादी की पहली सालगिरह की बड़ी दावत रखी है और वह वक्त पर घर आ जाएगा.

नीलोफर दिन भर सजतीसंवरती है और पार्टी की तैयारियां करती है. उस की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. शाम ढलते ही मेहमानों के आने का सिलसिला शुरू हो गया, पर वसीम आदतन वक्त पर नहीं आया. घंटे दो घंटे तो नीलोफर ने सब्र किया, पर मेहमानों के बारबार वसीम के दावत में न होने के जवाब पर झूठ बोलतेबोलते वह झल्लाने लगी. पार्टी में कालेज के जमाने का दोस्त सैफ भी आया था, जो अब एक मैगजीन का एडीटर बन गया था.

जब मेहमान ज्यादा ताने मारने लगते हैं तो गुस्साई नीलोफर बगैर कुछ कहेसुने ऊपर जा कर अपने कमरे में बंद हो जाती है और शौहर की व्यस्तता को कोसती है. नीचे दावत में सैफ और एक अन्य औरत के भड़काने पर मेजबान के न होने को अपनी बेइज्जती समझ मेहमान बगैर खाना खाए चले जाते हैं. सालगिरह का केक ज्यों का त्यों रखा रह जाता है.

देर रात वसीम वापस आता है तो जुम्मन से उसे पता चलता है कि मेहमान बगैर खाना खाए ही चले गए हैं. वसीम को नीलोफर की यह हरकत नागवार गुजरती है. उसे लगता है कि बीवी ने जानबूझ कर उस के नवाबी खानदान की बेइज्जती करा दी है.

कमरे में जा कर वह नीलोफर से सफाई मांगता है तो पहली दफा वह ऊंची आवाज में उस के हर सवाल का सधा जवाब देती है. दोनों में खूब झगड़ा होता है. वसीम अपनी गलती नहीं मानता और नीलोफर के माफी न मांगने पर उसे ‘तलाक तलाक तलाक’ कह कर हवेली से निकाल देता है.

अपनी कहानी सुना कर नीलोफर सिसकने लगती है तो हैदर उसे सांत्वना देते हुए पूछता है कि वह बजाय अपने घर यानी मायके जाने के हौस्टल में क्यों रहती है? इस पर नीलोफर जवाब देती है कि शौहर के घर के अलावा दुनिया की कोई भी चारदीवारी औरत के लिए घर नहीं हो सकती. यह जवाब सुन कर हैदर निरुत्तर हो जाता है.

वह मन ही मन नीलोफर से शादी करने का फैसला कर लेता है. नीलोफर भी उस की सादगी और रोमांटिक अंदाज पर फिदा हो जाती है. बढ़ती मेलमुलाकातों के दौरान प्यार का इजहार होता है और शादी की बात भी हो जाती है.

लेकिन शादी के पहले ही नीलोफर सैफ की मैगजीन में नौकरी कर लेती है. मिठाई ले कर वह यह खबर हैदर को सुनाने जाती है तो वह अचकचा उठता है, क्योंकि वह जानता था कि सैफ अच्छा आदमी नहीं है. वह अव्वल दरजे का लंपट है. लेकिन वह नीलोफर से सीधे उस के यहां नौकरी करने के लिए मना नहीं कर पाता.

हैदर को मिठाई खिला कर नीलोफर उस के दफ्तर से चली जाती है, लेकिन अपना चश्मा वहीं भूल जाती है. अपने दफ्तर में बदनीयत सैफ जानबूझ कर नीलोफर को देर रात तक काम के बहाने बैठाए रखता है और सभी मुलाजिमों के चले जाने के बाद अकेले में उस की इज्जत लूटने की कोशिश करता है. इत्तफाक से नीलोफर का चश्मा लौटाने आया हैदर वक्त पर पहुंच जाता है और नीलोफर को सैफ के चंगुल से बचा लेता है.

जल्द ही दोनों शादी का फैसला कर लेते हैं. इस बीच नीलोफर की याद में तड़पते हुए पछता रहा वसीम उसे वापस पाने की हर मुमकिन कोशिश करता है, लेकिन नीलोफर उस की बातें सुन कर नहीं पसीजती. एक बार वसीम के बुलावे पर वह हवेली गई भी, लेकिन जल्द ही वापस भी लौट गई. उस वक्त नशे में धुत हवेली में पड़ा वसीम एक पुरानी गजल सुन रहा था.

जुम्मन नीलोफर से वापस आने की गुजारिश करता है, पर नीलोफर का दोटूक जवाब सुन कर वह खामोश रह जाता है कि आज जिस चौराहे पर मैं खड़ी हूं, वहां से कोई भी रास्ता इस घर की तरफ नहीं आता.

मायूस वसीम इमाम से मिलता है और नीलोफर से दोबारा शादी के बारे में पूछता है. इस पर इमाम उसे हलाला का हवाला दे कर बताता है कि नीलोफर को उस से दोबारा शादी करने से पहले किसी गैदमर्द से शादी करनी होगी और बाकायदा बीवी की तरह उस के साथ कुछ वक्त गुजारना होगा. अगर उस का वह शौहर नीलोफर को तलाक देने पर तैयार हो जाए, तभी वह उस से शादी करने का हकदार होगा.

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हैदर और नीलोफर की शादी में वसीम तोहफा ले कर पहुंचता है और उसे मुबारकबाद देता है, तभी बिजली चली जाती है. बिजली ठीक कराने हैदर खुद जाता है तो वसीम नीलोफर से कहता है कि तुम ने शादी करने का ठीक फैसला लिया, अब जल्द से घर वापस आ जाओ, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.

नीलोफर उसे समझाने की कोशिश करती है कि यह उस की गलतफहमी है कि वह अब भी उसे चाहती है और हलाला के लिए शादी कर रही है. वह अपनी बात सख्ती से वसीम को समझा पाती, इस के पहले ही बिजली और हैदर दोनों आ जाते हैं, लिहाजा वह चुप हो जाती है.

शादी के बाद हैदर के घर आ कर नीलोफर को सुकून मिलता है. हैदर बेहद रोमांटिक होने के साथसाथ उस का खयाल रखने वाला शौहर भी है, जो उस की हर पसंदनापसंद का खयाल रखता है.

नीलोफर साफसाफ महसूस करती है कि वसीम के पास उस के लिए वक्त नहीं होता था, पर हैदर के पास उस के लिए मुकम्मल वक्त है. जैसा घर और शौहर उसे चाहिए था, दूसरी शादी के बाद ठीक वैसा ही मिल गया.

दोनों हनीमून मनाने मुंबई पहुंचते हैं तो इत्तफाक से उन्हें उसी होटल और उसी कमरे में जगह मिलती है, जहां पहली शादी के बाद वसीम और उसे मिली थी. यहां तक कि होटल का स्टाफ भी नीलोफर को पहचान लेता है कि वह करीब 2 साल पहले भी अपने शौहर के साथ यहां आई थी.

नीलोफर की हालत अजीब हो जाती है. उसे रहरह कर वसीम के साथ वहां गुजारा वक्त याद आने लगता है. हालांकि उस के दिल में अब वसीम के लिए कुछ भी नहीं था, मगर यादें आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं.

घर वापस आ कर वह इन तमाम वाकयों को आदतन सिलसिलेवार डायरी में लिखती जाती है. एक दिन हैदर उस की डायरी पढ़ लेता है. बीवी का लिखा यह जुमला उस के चेहरे की रंगत उड़ा देता है कि औरत अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलती.

इस डायरी को पढ़ने के बाद हैदर के मन में शक पैदा हो जाता है कि नीलोफर उस से शादी करने और इतना प्यार देने के बाद भी वसीम को भूल नहीं पाई है. नीलोफर उस का पहला प्यार थी, इसलिए उसे एकदम इस बात पर यकीन भी नहीं होता.

अपनी तसल्ली के लिए वह एक मनगढं़त कहानी उसे सुना कर क्लाइमैक्स पूछता है कि एक लड़की थी, जो एक लड़के से बेहद प्यार करती थी. दोनों की सगाई हो चुकी थी, लेकिन लड़का मिलिटरी में था और जंग के चलते उस के मरने की खबर आई.

कुछ दिनों बाद लड़की की शादी दूसरे लड़के से तय हो जाती है. दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं, लेकिन तभी पता चलता है कि उस का मंगेतर मरा नहीं था, बल्कि जिंदा था. ऐसी स्थिति में एक अजीब सी उलझन पैदा हो जाती है. हैदर नीलोफर से पूछता है कि ऐसे में लड़की को किस लड़के को चुनना चाहिए. नीलोफर कुछ सोच कर जवाब देती है कि पहले लड़के को.

इस जवाब को सुन कर हैदर सन्न रह जाता है और समझता है कि नीलोफर अभी भी वसीम को चाहती है. उस ने उसे महज हलाला की रस्म अदा करने के लिए उस से शादी की है. वह मन ही मन दोनों के रास्ते से हटने का फैसला ले लेता है.

नीलोफर के जन्मदिन पर वह बतौर तोहफा वसीम को सामने ला कर खड़ा कर देता है तो वह सन्न रह जाती है. हैदर के यह कहने पर कि तुम्हीं ने तो उस कहानी का क्लाइमैक्स तय किया था. नीलोफर समझ जाती है कि हैदर एक ऐसी गलतफहमी का शिकार हो गया है, जो अब दूर होने वाली नहीं है.

इधर दरियादिली दिखाते हुए हैदर उसे शरई तौर पर आजाद करने की बात कहता है तो वह और भी तिलमिला उठती है.

वह हैदर और वसीम दोनों से कहती है कि आप मर्दों ने औरत को समझ क्या रखा है, जेब में रखा नोट या पलंग, जो जब चाहा बदल लिया. औरत क्या जायदाद होती है, जो जब चाहा, दूसरे को दे दिया. वसीम ने तलाक गाली की तरह दिया तो हैदर तोहफे की तरह दे रहा है. क्या औरत की मरजी और वजूद के कोई मायने नहीं हैं.

इसी गुस्से में वह एक सवाल और पूछती है कि जब निकाह औरत की मरजी से होता है तो तलाक उस की बिना मरजी के कैसे हो सकता है? नीलोफर के बेबस गुस्से के सवालों के जवाब न तो वसीम के पास थे और न ही हैदर के पास.

निकाह, तलाक और शरीयत के खेल में औरत के वजूद और हैसियत को तलशते सवालों के जवाब बीती 22 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले में सिमटे हैं, जो अभी पूरी तरह साफ नहीं हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने 3 तलाक के रिवाज को नाजायज बताते हुए संसद को इस बाबत कानून बनाने का निर्देश दिया तो निर्मातानिर्देशक बलदेव राज चोपड़ा की साल 1982 में प्रदर्शित ‘निकाह’ फिल्म की इस कहानी की याद हो आई, जो स्वाभाविक बात थी. इस फिल्म में वसीम की भूमिका में दीपक पाराशर, हैदर की भूमिका में राजबब्बर और नीलोफर के किरदार को पाकिस्तानी मूल की नायिका और गायिका सलमा आगा ने निभाया था.

बहुत सी सत्यकथाओं के बीच निकाह फिल्म की यह कहानी उन से ज्यादा प्रभावी साबित हुई थी, जब भारत सहित पाकिस्तान में भी कट्टरवादी इस फिल्म के विरोध में सड़कों पर उतर आए थे.

किसी को अंदाजा नहीं था कि एक कुरीति पर प्रहार करती फिल्म ‘निकाह’ इतनी हिट साबित होगी. इस की वजह इस की कास्टिंग बेहद कमजोर मानी जा रही थी और हकीकत में थी भी. फिर भी फिल्म को इसलिए पसंद किया गया, क्योंकि यह एक कुरीति के विरुद्ध कटु सत्य बयां करती थी.

‘निकाह’ के सफल होने की वजह एक ज्वलंत सामाजिक समस्या को बेहद सटीक अंदाज में पेश किया जाना था. प्रसिद्ध लेखिका अचला नागर द्वारा लिखित इस कहानी में तलाकशुदा औरत की बेबसी को सलमा आगा ने जीवंत कर दिया था.

मर्दों का समाज पर किस हद तक दबदबा है, यह भी फिल्म ने साबित किया था. क्योंकि परेशानी एक नहीं, बल्कि लाखों नीलोफरों की है, जो तलाक तलाक तलाक के बुरे दौर से गुजरती हैं तो कहीं की नहीं रह जातीं, न घर की न घाट की.

चूंकि फिल्म थी, इसलिए इस का अंत सुखद था. नहीं तो आमतौर पर ऐसा होता नहीं है कि कोई वसीम अपनी गलती और खुदगर्जी स्वीकार ले. 3 लफ्ज तलाक के कह कर बीवी को अपनी जिंदगी और घर से निकाल देना कोई मर्दानगी की नहीं, बल्कि सामाजिक तौर पर शर्मिंदगी और जलालत की बात है.

बी.आर. चोपड़ा की इस फिल्म में कई और भी दिलचस्प बातें थीं. मसलन पहली बार चरित्र अभिनेता इफ्तिखार ने नौकर का रोल किया था, नहीं तो वह अकसर पुलिस इंसपेक्टर, डाक्टर या जज के रोल में ही दिखाई देते थे.

दूसरे चोपड़ा साहब ने इस फिल्म का नाम पहले ‘तलाक तलाक तलाक’ रखा था, जिस पर उन के नजदीकी मुसलिम दोस्त ने चिंता जताते हुए कहा था कि ऐसे तो एक दिन में लाखों तलाक हो जाएंगे, क्योंकि मुसलमान दर्शक जब यह फिल्म देख कर घर पहुंचेंगे और बीवी के पूछने पर फिल्म का नाम बताएंगे तो वे ‘तलाक तलाक तलाक’ कहेंगे और शरीयत के मुताबिक उन का तलाक हो जाएगा. इस पर बी.आर. चोपड़ा ने फिल्म का नाम ‘निकाह’ रख दिया था.

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‘निकाह’ फिल्म के गाने आज 35 साल बाद भी शिद्दत से गाए और गुनगुनाए जाते हैं, जिन में सलमा आगा ने भी आवाज दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सलमा आगा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई भी दी थी और इस फैसले को औरतों के हक में राहत देने वाला बताया था.

35 सालों तक नीलोफर के सवाल जवाब तलाशते रहे, जिन्हें अब कानूनी जामा संसद पहनाएगी. इस पर विवाद और बहस जारी है. अपने हक की लड़ाई लड़ती औरतें अपनी दास्तां बयान कर रही हैं, पर क्या यह इतना आसान है? इस सवाल का जवाब बेहद निराशाजनक तरीके से न में निकलता है.

80 के दशक के एक शिक्षित मुसलमान परिवार में तलाक बड़ी आसानी से दे दिया जाता था तो अशिक्षित तबके में क्या कुछ नहीं होता होगा, इस का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि मर्द अपने दबदबे और शरीयत का किस तरह फायदा उठा रहे थे.

दहेज कानून के बाद भी दहेज हत्याएं जारी हैं, बहुएं जलाई जा रही हैं. ऐसे में क्या नए प्रस्तावित कानून के मसौदे से उम्मीद रखी जाए? तलाक के मुकदमे सालोंसाल चलते हैं, जिस का खामियाजा और तनाव मियांबीवी दोनों को भुगतना पड़ता है.

असल में फसाद की जड़ धर्म और कानून दोनों हैं. कानून बना तो मुसलिम औरतें और मर्द दोनों सालोंसाल अदालत के चक्कर काटते 3 तलाक के दिनों को याद करेंगे कि इस से बेहतर तो वही था. अगर भाग कर वे धर्म की शरण लेने को विवश होंगे तो यह उस कानून की हार होगी, जिस पर आज देश भर में जश्न मनाया जा रहा है.

औरत किसी कानून के बना देने से मुसीबतों से छुटकारा नहीं पा सकती, यह कहने और स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए. जब तक तलाक नहीं हो जाता, तब तक उस से कोई दूसरी शादी नहीं कर सकता. ऐसे में उस की हैसियत क्या होगी, कौन उसे छत और रोटी देगा, इस पर कानून शायद ही कुछ बोले या करे.

नीलोफर के सवालों के मुकम्मल जवाब अभी भी नहीं मिले हैं और न ही मिलने की उम्मीद है, क्योंकि समाज और धर्म पर कब्जा और दबदबा तो मर्दों का ही था, है और रहेगा. बहस तलाक के तरीके पर हो रही है, औरत की हैसियत सुधारने पर हर कोई खामोश है.

इन महिलाओं पर नहीं चलता इराकी शरीयत का कानून

इराक ऐसा मुसलिम देश है, जहां शरीयत कानून चलता है, जिस की वजह से वहां की महिलाओं पर तमाम पाबंदियां हैं. मसलन वे बिना बुरका पहने नहीं निकल सकतीं, इधरउधर घूम नहीं सकतीं, मर्दों के साथ पार्टियां नहीं कर सकतीं. वहीं दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है, जिस पर ये पाबंदियां लागू नहीं होतीं.

यह तबका है उच्चवर्ग का. उन के घर की महिलाएं चाहे जिस तरह का कपड़ा पहनें, जहां मन हो वहां आएंजाएं, बिना बुरका पहने घूमें, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं है. यही नहीं, वे शराब और सिगरेट भी पीती हैं, कोई कुछ नहीं कहता.

एक ही देश में भेदभाव के आधार पर शरीयत का कानून लागू करने वाली बात अजीब सी लगती है. जब शरीयत का कानून लागू होता है तो वह सभी के साथ होना चाहिए, इस में भेदभाव कैसा. बंदिशों की वजह से अनेक महिलाएं घुटघुट कर जी रही हैं. एक सामाजिक संस्था ने महिलाओं का सर्वे किया तो जानकारी मिली कि 17 फीसदी महिलाएं मानसिक परेशानियों से जूझ रही हैं. ये वही महिलाएं हैं, जिन पर शरीयत का कानून थोपा गया है.

ये आंकड़े पता चलने के बाद सन 2003 में कुछ सामाजिक संस्थाएं पिछड़े तबके की महिलाओं को आजादी दिलाने के लिए आगे आईं. संस्थाओं का कहना था कि अमीर घरानों की लड़कियों और महिलाओं की तरह पिछड़े वर्ग की लड़कियों और महिलाओं को भी आजादी मिले.

अमीर घरों की लड़कियां बुरका पहनना तो दूर की बात, वे आधुनिक फैशन के कपड़े पहन कर महंगी गाडि़यों में घूमने निकलती हैं. उन की आधुनिकता देख कर हर कोई यही समझेगा कि ये शरीयत का कानून वाले देश की नहीं, बल्कि अमेरिका या आस्ट्रेलिया की हैं.

इंस्टाग्राम पर richkidsofiraq नाम से चलने वाले एकाउंट पर जब आप इन उच्चवर्ग की लड़कियों, महिलाओं के फोटो देखेंगे तो यकीनन आप चौंक जाएंगे. जब इन लड़कियों पर कोई प्रतिबंध नहीं तो पिछड़े वर्ग की लड़कियों को सामाजिक और धार्मिक प्रतिबंधों में क्यों जकड़ कर रखा गया है.

तरक्की की राह पर लतीफपुर : श्वेता सिंह

चूल्हेचौके तक सिमटी रहने वाली देश की तमाम महिला प्रधानों को एक बार लखनऊ के लतीफपुर गांव जरूर जाना चाहिए. शहरी माहौल में पलीबढ़ी श्वेता सिंह ने 2 सालों में ही वहां प्रधानी के वे हुनर दिखा दिए, जो पिछले 200 सालों में नहीं दिखाई दिए थे. लाठीगोली के लिए सुर्खियों में रहने वाली यह पंचायत अब तरक्की के लिए वाहवाही बटोर रही है. जब श्वेता सिंह प्रधान चुनी गई थीं, तब सभी को लगा था कि वे भी दूसरी महिला प्रधानों की तरह रबड़ स्टैंप साबित होंगी. लेकिन पिछले 2 सालों में ही यह गांव लखनऊ का ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश का सब से तरक्कीशुदा गांव बन गया है. इस का पूरा क्रेडिट श्वेता सिंह को जाता है.

पेश हैं, श्वेता सिंह के साथ हुई बातचीत के खास अंश:

यह बदलाव कैसे मुमकिन हुआ?

हम ने शुरुआत में ही गांव की तरक्की पर काम करना शुरू कर दिया था. मुझे पूरा भरोसा था कि एक बार तरक्की की बात शुरू होने से बाकी परेशानियां पीछे छूट जाएंगी.

अब लतीफपुर को हंसतेखेलते लोगों का गांव बनाया जा रहा है. ऐसा गांव जहां फिटनैस के लिए जिम के इंतजाम किए जा रहे हैं. खेलने के लिए आधा स्टेडियम बन कर तैयार है. खेतीबारी करने वालों को काम पर लगाने के लिए हरा चारा उत्पादन केंद्र बनाया जा रहा है.

आप अपने बारे में कुछ बताएं?

मेरा जन्म एक अफसर पिता के घर में हुआ. मेरा मूल गांव वाराणसी के करीब सकलडीहा में है. पिता के तबादलों के चलते कभी हरदोई, कभी खटीमा तो कभी किसी दूसरे शहर में मेरा बचपन बीता. लखनऊ के आईटी कालेज से ग्रेजुएशन करने के बाद मैं ने कंम्यूटर में ग्रेजुएशन तक तालीम हासिल की. कंप्यूटर में एमसीए की पढ़ाई चल ही रही थी कि मैं ने टैलीकौम सैक्टर की एक बड़ी कंपनी में उपभोक्ता मामलों का काम संभाल लिया था. मैं साल 2008 में एक किसान की बहू क्या बनी, शहरी चकाचौंध से मेरा वास्ता टूटता चला गया.

विदा हो कर पहली बार मैं जिस रास्ते से लग्जरी कार में बैठ कर लतीफपुर आई थी, बरसात में वह सड़क नाले में तबदील हो गई. गंदे पानी में घुटने तक डूब कर रास्ता तय करने की गांव वालों की दुश्वारियां देख कर मैं दुखी हो उठी. ये वे पल थे जिन्होंने लतीफपुर की समस्याओं के खिलाफ मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था.

आप ने ग्राम प्रधानी का चुनाव कैसे लड़ा?

कुछ ही समय में मैं वहां के रहनसहन को मोटेतौर पर जान चुकी थी. गीतसंगीत को हथियार बना कर मैं औरतों की सेना तैयार कर चुकी थी. साल 2015 में लतीफपुर प्रधान का पद महिला के लिए रिजर्व्ड किया गया था. मैं ने परचा भरा और निकल पड़ी वोट मांगने.

यह वह मौका था जब मैं गांव की तमाम मुसीबतों से रूबरू हो रही थी. ऊबड़खाबड़ सड़कें, सड़कों पर बहता नालियों का गंदा पानी और शाम होते ही छा जाने वाला घना अंधेरा. गांव के बहुत से मर्दों में शराब पीने की लत, बदहाल पढ़ाईलिखाई, औरतों के साथ होती घरेलू हिंसा ने मुझे झकझोर दिया था. वोटर लिस्ट में 165 फर्जी नामों की फेहरिस्त भी कम बड़ी चुनौती नहीं थी. ब्लौक से ले कर इलैक्शन कमीशन तक दस्तक दे कर लिस्ट में बदलाव तो करा दिया, पर इस बात से प्रशासन चिढ़ गया. गुंडों को शह दे कर मुसीबतें पैदा की जाने लगीं, पर सरकारी पुलिस से ज्यादा हमारी औरतों की सेना कारगर रही.

चुनाव जीतने के बाद गांव की तरक्की कैसे शुरू हुई?

गांव की कुल 58 गलियों में से 49 गलियां पक्की बन चुकी हैं. बिजली के खंभों की तादाद 71 से बढ़ कर 83 हो गई है. झुके खंभे सीधे खड़े हैं और लटकते तार बाकायदा सीना तान चुके हैं. 40 से ज्यादा सोलर स्ट्रीट लाइटें सड़कों को रोशन कर रही हैं. शाम होते ही खुद जल जाने वाली ये लाइटें सुबह सूरज की रोशनी आते ही अपनेआप बुझ जाती हैं. गांव वालों के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं है.

सोलर लाइट से चलने वाला आरओ सिस्टम हर घंटे 500 लिटर मिनरल वाटर मुहैया करा रहा है. मवेशियों को साफ पानी के लिए चरही बनाने का काम जारी है. कम्यूनिटी किचन के साथ कम्यूनिटी टौयलेट को बनाने का काम भी किया जा रहा है. ग्राम पंचायत की आमदनी के लिए जापान की बुद्धा निपुन कंपनी के साथ मैंगो हनी प्रोडक्शन सैंटर बनाया गया है. लतीफपुर में बनाए जाने वाले शहद का चसका जापानियों को लगता जा रहा है.

ट्रैक्टर, ट्रौली, रोटावेटर, लैवलर, वाटर टैंकर, रोड़ी मिक्सर और वाइब्रेटर जैसे उपकरणों से पंचायत को अच्छाखासा किराया भी मिल रहा है. प्लास्टिक की कुरसियां और सोलर जनरेटर सब के काम आ रहे हैं. मुझे प्रदेश सरकार द्वारा ‘रानी लक्ष्मीबाई वीरता अवार्ड’ समेत कई गैरसरकारी अवार्ड भी मिल चुके हैं.

हर शहर की भीड़ से अलग है मुंबई की भीड़, ये है वजह

वाणिज्यिक दृष्टि से देश का अहम राज्य महाराष्ट्र देशीविदेशी घुमंतुओं को आकर्षित करने में भी खास है. इस राज्य में दर्शनीय स्थलों की कमी नहीं है. मायानगरी के नाम से मशहूर मुंबई की चमक और यहां के समुद्री किनारे इस प्रदेश की शान हैं.

महाराष्ट्र अपने विविध पहाड़ों, मनोरम समुद्र तटों और कई प्रकार के संग्रहालयों के अलावा स्मारकों और किलों के लिए भी जाना जाता है. इस की राजधानी मुंबई है जो देश की आर्थिक राजधानी के रूप में जानी जाती है.

मुंबई

आलीशान होटलों,  बहुमंजिला इमारतों, झुग्गीझोपडि़यों और बस्तियों से भरी महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई की भीड़ दूसरे हर शहर की भीड़ से अलग है. इस भीड़ में हर व्यक्ति अकेला और स्वतंत्र दिखाई देता है. यहां साथसाथ चलने वाले लोग अगले ही पल बेहिचक अकेले हो जाने की आसान तैयारी में मिलते हैं. यहां साथ रहने का अर्थ है दूसरे को पूरी आजादी देना. कहा जाता है कि जो आदमी मुंबई में रह कर भी पारंपरिक जीवन जीना चाहता है उसे मुंबई पीछे ही नहीं छोड़ देती बल्कि अपने तेज मिजाज से दूर भगा देती है.

‘26/11’ के होटल ताज पर आतंकी हमलों के बाद मुंबई कुछ अधिक चुस्तदुरुस्त दिखाई देने लगी है.

दर्शनीय स्थल

कोलाबा इलाके में समुद्रतट से जुड़ा यह स्थल मुंबई के बहुत ही खूबसूरत हिस्से के रूप में मशहूर है. 1911 में ब्रिटिश राजा के शाही आगमन के स्मारक द्वार के रूप में सागरतट पर बनाया गया भव्य गेटवे औफ इंडिया कलात्मक है. यह 1924 में बन कर तैयार हुआ था. यहां के खुले माहौल में दुनियाभर के सैलानी टहलते और सुस्ताते हैं. दिनभर यहां से छोटीबड़ी और दोमंजिला नौकाएं लोगों के काफिले को ले कर ऐलीफैंटा और मांडवा टापुओं तक आतीजाती हैं. अपनी शानोशौकत के लिए प्रसिद्ध ताजमहल पैलेस होटल गेटवे के सामने ही मौजूद है.

मुंबई में घूमने के लिए  एक काला घोड़ा क्षेत्र है जहां कलासंग्रह, चित्रदीर्घाएं और प्रतिमाएं हैं. इस के अलावा यहां मरीन ड्राइव, चौपाटी और मालबार हिल्स हैं जो सागरतट से जुड़े हैं. सूर्यास्त और उस के बाद जगमगाने वाली रोशनियों को देखने के लिए ये अच्छे स्थान हैं. प्रेमी जोड़ों के लिए ये जगहें काफी सुकून भरी हैं. नरीमन रोड पर सैंट थौमस चर्च भव्य और कलात्मक है. महात्मा गांधी से संबंधित मणि भवन संग्रहालय, डा. भाऊ दाजी लाड म्यूजियम, पिं्रस औफ वेल्स संग्रहालय और जहांगीर आर्ट गैलरी औफ मौडर्न आर्ट देखने लायक हैं. इन के अलावा जीजामाता उद्यान व नरीमन पौइंट, गोरेगांव, चौपाटी और जुहू बीच पर्यटकों को खूब लुभाते हैं.

गेटवे औफ इंडिया से नौकाओं द्वारा ऐलीफैंटा और मांडवा टापुओं पर जा कर वहां से शाम को लौटा जा सकता है. वरली के नेहरू प्लैनेटोरियम में जा कर अंतरिक्ष जगत को निकट से देखना बेहद रोमांचक और अनोखा अनुभव है. गोरेगांव में फिल्मसिटी यानी बौलीवुड में जा कर फिल्मी दुनिया को परदे के पीछे से भी देखा जा सकता है.

यों तो मुंबई में हर तरह के भोजन मिलते हैं. पर महाराष्ट्रियन, गुजराती थाली के अलावा वड़ा पाव, मकई की पैटीज, आइसक्रीम खास है.

लंबी छुट्टी पर निकले हों तो मुंबई से औरंगाबाद के रास्ते एलोरा और अजंता की सुंदर व अनोखी गुफाएं भी देखने लायक हैं.

कैसे जाएं और कहां ठहरें: मुंबई देश के मुख्य स्थानों से वायुमार्ग, रेलमार्ग और सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है. साथ ही हर शहर में मुंबई जाने और रहने के लिए रिजर्वेशन की सुविधा मौजूद है. जनवरी का महीना मुंबई में जाने का सब से अच्छा समय माना जाता है. यहां महंगे व सस्ते हर तरह के होटल मौजूद हैं. अधिकांश बजट होटल और गैस्टहाउस कोलाबा में गेटवे औफ इंडिया के निकटवर्ती इलाकों में हैं.

माथेरान

मुंबई से केवल 110 किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक खूबसूरती से भरा यह छोटा सा हिल स्टेशन माथेरान गरमियों में घूमने के लिए सब से उत्तम स्थान है. यह समुद्रतल से लगभग 800 मीटर की ऊंचाई पर है. यहां वाहन वर्जित हैं इसीलिए मुंबई की भीड़भाड़ भरी जिंदगी से दूर सुकून के कुछ पल बिताने के लिए माथेरान उपयुक्त स्थान है.

माथेरान का सब से नजदीकी रेलवे स्टेशन है नरेल. मुंबई से माथेरान जाने के लिए सुबह का समय अच्छा रहता है. दादर स्टेशन से करजत जाने वाली लोकल ट्रेन पकड़ कर 2 घंटे में नरेल स्टेशन पहुंचा जा सकता है. स्टेशन से बाहर निकलने पर टौय ट्रेन सब से मुख्य आकर्षण है. नरेल में छोटी लाइन है जो माथेरान तक जाती है. पहाड़ों पर चढ़तीउतरती इस टौय टे्रन में बैठ कर ढाई घंटे की यात्रा में खूबसूरत प्राकृतिक नजारों का आनंद उठाया जा सकता है. ट्रौली से भी यहां तक पहुंचा जा सकता है. अगर आप को जल्दी मंजिल तक पहुंचने की चाहत है तो आप टैक्सी स्टैंड से टैक्सी भी पकड़ सकते हैं. रास्ता काफी घुमावदार है.

छोटे से शहर में पूरे साल पर्यटकों का तांता लगा रहता है. घाटियों में फैला कोहरा, हवा में तैरते बादल, भीगाभीगा मौसम एक अलग ही समां पैदा करता है. अक्तूबर से मई का समय सब से अच्छा मौसम होता है.

यहां निजी वाहन ले जाने की अनुमति नहीं है. चाहें तो दस्तूरी नाका तक गाड़ी ला सकते हैं. आगे जाने के लिए सिर्फ 3 तरीके है : पैदल, घोड़े या फिर हाथरिकशा. माथेरान में प्रवेश के लिए प्रवेश शुल्क है फिर चाहे वह रेलवे स्टेशन से हो या दस्तूरी नाका से, इस मामूली प्रवेश शुल्क के बाद ही आप शहर में प्रवेश कर सकते हैं. माथेरान में होटलों की भरमार है. अगर आप पीक सीजन में जा रहे हैं तो होटल बुकिंग पहले करवा लेना बेहतर है.

प्रकृतिप्रेमियों के लिए माथेरान किसी तोहफे से कम नहीं. चारों तरफ हरियाली है. यहां पपीहा, मैना, किंगफिशर और मुनिया जैसे पंछी हैं. बंदर भी यहां खूब हैं.

माथेरान का एक अन्य आकर्षण है वैली क्रौसिंग, जिस में रस्सियों की मदद से 2 पहाडि़यों के बीच की खाई को  पार किया जाता है. पर्यटकों को यह खूब भाता है.

महाबलेश्वर

मुंबई से 64 किलोमीटर दक्षिणपूर्व में और सतारा नगर के पश्चिमोत्तर में स्थित महाबलेश्वर एक खूबसूरत सैरगाह है.

यहां की हरियाली इस पर्यटन स्थल की खूबसूरती को और अधिक बढ़ा देती है. यहां जाने का अच्छा समय अक्तूबर से जून है. मध्य जून से सितंबर तक भारी वर्षा की वजह से यह हिल स्टेशन बंद रहता है. यह स्थान वायुमार्ग, रेलमार्ग और सड़कमार्ग से जुड़ा है. निकटतम हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन से यह 24 किलोमीटर की दूरी पर है. अधिकतर पर्यटक यहां बस द्वारा ही जाना पसंद करते हैं. मुंबई से सड़क द्वारा करीब 6 घंटे में महाबलेश्वर पहुंचा जा सकता है.

महाराष्ट्र पर्यटन विभाग द्वारा महाबलेश्वर एवं पंचगनी में आवास की अच्छी व्यवस्था है. जाने से पहले ठहरने की बुकिंग पहले कर लेना बेहतर है.

यहां करीब 30 से अधिक पौइंट हैं. सनसेट पौइंट, सनराइज पौइंट, विल्सन पौइंट और लौडविक पौइंट इन में प्रमुख हैं. इस के अलावा माउंट मैकम, कैथलिक चर्च, प्रतापगढ़ किला आदि भी देखने योग्य चीजें हैं. यहां अधिकतर नवविवाहित जोड़े हनीमून के लिए आते हैं. यह स्थान स्ट्राबेरी और मलबेरी के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है.

वेन्ना झील महाबलेश्वर का प्रमुख आकर्षण है. ?ाल के चारों तरफ घने पेड़ हैं. पर्यटकों को यहां झील में नाव की सवारी अच्छी लगती है.

महाबलेश्वर के सभी दर्शनीय स्थलों को घूमने के लिए आप प्राइवेट बसों या निजी वाहनों का सहारा ले सकते हैं.

यहां एक और खूबसूरत सैरगाह पंचगनी है. यहां के स्कूल पूरे देश में प्रसिद्ध हैं. महाबलेश्वर का तापमान ठंडा है इसलिए वहां जाते वक्त ऊनी कपड़े ले जाना कभी न भूलें. इसे स्वास्थ्यवर्धक पर्यटन स्थल के नाम से भी जाना जाता है.

चमत्कारों से कमाई नहीं होती

आप की लौटरी निकल आई है. आप को एक अनजान दक्षिण अमेरिकी अमीर ने अपना वारिस बना दिया है. आप को हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने डाक्टरेट की मानद उपाधि देने का फैसला किया है. आप विश्वविख्यात संस्था द्वारा ब्रैंड ऐंबैसेडर नियुक्त किए गए हैं. इस तरह के मोबाइल मैसेज और ईमेल व्यक्तियों को मिलते हैं. जो जरा समझदार हैं वे तुरंत उन्हें डिलीट कर देते हैं पर उन की संख्या कम नहीं जो फंस जाते हैं.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के एक प्रोफैसर इस तरह के ईमेल के चक्कर में फंस गए कि उन्हें एक बेऔलाद जरमन ने अपना वारिस चुना है. बस, उन्हें अपना अकाउंट नंबर देना है, पासपोर्ट की कौपी देनी है, 2-4 दस्तावेज देने हैं और पैसा उन्हें मिल जाएगा. अब जो लोग चमत्कारों में विश्वास करते हैं वे इस अवसर को कैसे हाथ से जाने दें. वे हां करते हैं तो पता चलता है कि उन्हें दूसरे किसी देश में एक वकील करना होगा जो कुछ सौ डौलर की फीस लेगा.

फीस दे दी गई तो नई मांग आ जाती है कि उन का लाखों डौलर का भुगतान तैयार है पर बैंक को पैसे संभालने के खर्च देने होंगे जो किसी अकाउंट नंबर में डालने हैं. इस प्रोफैसर ने 25 लाख रुपए इसी आशा में दे दिए कि वह तो करोड़ों का मालिक बनने वाला है. अंत में पता चला कि वह तो ठगा गया. इस मामले में किसी ने उस से मिलने की कोशिश कर ली तो एक पकड़ा गया वरना ज्यादातर मामलों में कोई पकड़ा भी नहीं जाता.

गुप्त खजाने की खोज की कहानियों के आधार पर यहां भी चालाक लोग पूजापाठ और यहां तक कि मासूम बच्चों की बलि तक करा डालते हैं. जो इस बात में विश्वास करते हैं कि पैसा टपकता है, कमाया नहीं जाता, वे आसानी से फंस जाते हैं.

चमत्कारों से कमाई नहीं होती, यह सिद्धांत हरेक को मालूम होना चाहिए. पैसा मेहनत का हो तो ही फलता है. हराम की या चोरी की कमाई कुछ लोग ही पचा सकते हैं, शरीफ तो बिलकुल नहीं. इसलिए शरीफों को इन चक्करों में पड़ने पर भारी नुकसान ही होता है.

बाबा ब्लैकशिप : दर्शकों को अपनी तरफ नहीं खींचती ये फिल्म

भ्रष्ट राजनेता की करतूतों के साथ प्रेम कहानी को पेश करने वाली फिल्म ‘‘बाबा ब्लैकशिप’’ कहीं से भी दर्शकों को अपनी तरफ नहीं खींचती है.

फिल्म ‘‘बाबा ब्लैकशिप’’ की कहानी गोवा में रहने वाले बाबा (मनीष पौल) से शुरू होती है. जो कि एक आर्ट शिक्षक से आर्ट डीलर बने ब्रायन मोरिस उर्फ सांता (अन्नु कपूर) की बेटी एंजिला मोरिस (मंजरी फड़नवीस) से प्यार करता है. दोनों शादी करना चाहते हैं, मगर सांता ऐसा नहींहोने देना चाहते. उनकी नजर में एक काजू बेचने वाले की कमाई कुछ नहीं हो सकती. बाबा इस बात से अनजान है कि एंजिला के पिता मशहूर पेटिंग चुराकर, उनकी नकल वाली पेटिंग बनाकर मौलिक पेटिंग के रूप में बेचकर लोगों को ठगते रहते हैं.

उधर बाबा अब तक अपने पिता चारूदत्त शर्मा (अनुपम खेर) को अपनी मां की डांट खाते ही देखते आए हैं. शर्मा जी घर पर बर्तन धोते व बुनाई करते नजर आते हैं. लेकिन बाबा का पच्चीसवां जन्मदिन उनकी जिंदगी में उथल पुथल मचा कर रख देता है. अपने 25वें जन्मदिन पर बाबा को उसके पिता बताते हैं कि वह सर्वाधिक चर्चित हिटमैन यानी कि हत्याएं करने में माहिर चार्ल्स हैं. इतना ही नही शर्मा बताते हैं कि पैसा लेकर हत्या करने का यह धंधा उनका काफी पुश्तैनी धंधा है. इस धंधे में वह 12 पीढ़ी के नुमाइंदे हैं और अब तेरहवीं पीढ़ी यानी कि बाबा भी यही धंधा करेगा. पर बाबा इंकार कर देता है, वह कहता है कि वह तो काजू की दुकान पर ही बैठेगा, क्योंकि उसे एंजिला मोरिस से शादी करनी है.

चारूदत्त शर्मा पैसे का सौदा होने पर आधा पैसा एडवांस में लेकर हत्या करते हैं, बाकी पैसा हत्या होने के बाद लेते हैं. लेकिन वह सामने वाले से कहते हैं कि वह पैसा वह रेलवे स्टेशन पर बने लाकर में रख दे. लाकर कुछ इस तरह से है कि उस लाकर का पिछले दरवाजे के लाकर का नंबर अलग है, तो पीछे वाले दरवाजे पर चाभी लगाकर वह पैसा निकालते रहते हैं. इस तरह वह लोगों के सामने नहीं आते हैं.

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उधर राज्य के भ्रष्ट गृहमंत्री उप्पल (मनीष वाधवा) वास्तव में सबसे बडे़ खिलाड़ी हैं. वह हैं राज्य के गृहमंत्री, मगर ड्रग्स का अवैध कारोबार वही चला रहे हैं, जिसका मैनेजर उन्होंने कमाल (बी.शांतनु) को बना रखा है. गृहमंत्री की पत्नी लड़कियों की तस्करी से जुड़ी हुई हैं. कमाल,गृहमंत्री उप्पल का इशारा पाते ही अपने छोटे भाई जमाल से सामने वाली की हत्या करवा देता है. उप्पल इस बात से परेशन रहते हैं कि आने वाले चुनाव के लिए फंड कैसे आए, तथा वह ईमानदार एसीपी शिवराज (के के मेनन) से भी परेशान हैं.

उप्पल का आदमी जब ड्रग्स की बडी खेप लेकर गोवा एयरपोर्ट पर उतरता है, तो एसीपी शिवराज उसके पीछे पड़ जाता है, पर वह किसी तरह से बचकर अपने घर पहुंच जाता है. अब गृहमंत्री उप्पल, कमाल से कहते हैं कि किसी मंजे हुए हिटमैन को ठेका देकर उस ड्रग्स को लाने वाले की हत्या करवा दें. चारूदत्त शर्मा को यह ठेका मिलता है. चारूदत्त अपने बेटे बाबा को अपने साथ लेकर जाते हैं और उप्पल के आदमी के घर में बम फिट कर देते  हैं.

इधर, एसीपी शिवराज, कमाल व जमाल का पीछा करते हुए गृहमंत्री उप्पल के घर पहुंच जाता है. वह कमाल व जमाल को ड्रग्स के अवैध कारोबार से जुड़े होने के आरोप में गिरफ्तार करना चाहता है. एसीपी कहता है  कि वह गिरफ्तारी की जगह उप्पल का घर नहीं दिखाएगा. पर उप्पल कहते हैं कि उन्हे अपनी सैलरी चाहिए, तो सैल्यूट करके वापस चला जाए.

इधर हर बार चुनाव से पहले उप्पल को चुनावी फंड के रूप में धन राशि देने वाले उद्योगपति डैनियल ने उन्हे आंख दिखाना शुरू कर दिया है. वह चाहता है कि पहले उप्प्ल उसकी एक फाइल को पास कर दे, तब वह पैसा दे. अब उप्पल एक चाल चलता है. वह कमाल से कहकर चारूदत्त शर्मा को डैनियल र् आर्ट डीलर मोरिस की हत्या करने की सुपारी दिलवाता है, और एसीपी शिवराज के हाथों चारूदत्त उर्फ चार्ल्स को गिरफ्तार करवाकर खुद को लोगों की नजर में अच्छा साबित करना चाहता है. मगर बाबा की समझदारी से बाबा, मोरिस, चारूदत्त शर्मा व एसीपी शिवराज मिलकर नई चाल चलते हैं, जिसमें कमाल व डैनियल के साथ ही गृहमंत्री उप्पल भी मारे जाते हैं.

विश्वास पंड्या की निर्देशकीय कमजोरी और कमजोर पटकथा, बेसिर पैर की कहानी के चलते बेहतरीन व प्रतिभाली कलाकारों के उत्कृष्ट अभिनय के बावजूद फिल्म ऐसी नहीं है कि दर्शक अपनी गाढ़ी कमाई इसे देखने के लिए खर्च करे. निर्देशक ने ज्वलंत व बेहतरीन विषय की ऐसी की तैसी कर डाली. कहानी में इतने सारे ट्रैक हैं, कि दर्शक भी पूरी तरह से कन्फ्यूज हो जाता है. फिल्म का क्लायमेक्स भी बड़ा अजीब सा है. फिल्म को एडीटिंग टेबल पर भी कसने की जरुरत थी. कुछ सीन तो सीरियल का अहसास कराते हैं.

फिल्म का गीत संगीत आकर्षित नहीं करता. फिल्म गोवा की पृष्ठभूमि पर है, पर एक गाना 90 के दशक का पंजाबी गीत रखा गया है. यह बड़ा अजीब सा लगता है.

फिल्म को हास्य व प्रेम कहानी वाली फिल्म के रूप में प्रचारित किया गया, मगर रोमांस भी ठीक से उभर नहीं पाता. एक रोमांटिक गाना है,वह भी जबरन ठूंसा हुआ लगता है.

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मनीष पौल पहली बार बेहतरीन अभिनय करते हुए नजर आए, उनकी कौमिक टाइमिंग भी जबरदस्त है. मगर उनका किरदार भी सही ढंग से उभरता नहीं है. अन्नू कपूर, अनुपम खेर, मनीष वाधवा व के के मेनन अपनी बेहतरीन अदाकारी से भी इस फिल्म को तहस नहस होने से नहींबचा पाते हैं. क्योंकि पटकथा के स्तर पर इन कलाकारों को कोई मदद नहीं मिलती है. मंजरी फड़नवीस के किरदार के साथ भी न्याय नहीं हुआ है. बी.शांतनु अपनी छोटी भूमिका में भी प्रभाव डालने में सफल रहते हैं.

एक घंटे 51 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘बाबा ब्लैकशिप’’ के लेखक निर्देशक विश्वास पंड्या, लेखक संजीव पुरी, संगीतकार रोशन बालू व गौरव दास गुप्ता, कलाकार हैं – मनीष पौल, मंजरी फड़नवीस, के के मेनेन, अन्नू कपूर, अनुपम खेर, मनीष वाधवा, बी.शांतनु व अन्य.

पुरानी इमारतों और मीनारों में इतिहास को संजोए है ‘आंध्र प्रदेश’

यहां भले ही आप को पहाड़ी राज्यों की तरह ठंडी वादियां न मिलें लेकिन यहां आप को देखने के लिए प्रकृति के नए नजारे अवश्य मिलेंगे. आंध्र प्रदेश में भले ही गरमी का मौसम रहे लेकिन यहां की नदियां, हरेभरे पहाड़, घाट, प्राकृतिक व ऐतिहासिक स्थल, अभयारण्य, जलप्रपात और प्राचीन स्मारक पर्यटकों का मन मोह लेते हैं.

राज्य में खासकर हैदराबाद, विजयवाड़ा, विशाखापट्टनम, वारंगल, तिरुपति शहरों के निकट कई पर्यटन स्थल स्थित हैं. इन शहरों के पास हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन भी मौजूद हैं. हैदराबाद सरकार के पर्यटन विभाग की ओर से चलाई जा रही बसों से भी कई स्थलों की सैर कर सकते हैं. बसों के साथ पर्यटन विभाग के द्वारा बनाए गए होटल व डोरमैट्री में आप को अच्छा भोजन और शयन की सुविधा मिलेगी.

हैदराबाद का शाही अंदाज : नवाबों का शहर लखनऊ तो है ही लेकिन हैदराबाद का भी शाही अंदाज किसी से कम नहीं है. इस नवाबशाही शहर के चारमीनार, गोलकुंडा, निजाम का चौमहल्ला पैलेस और कुतुबशाही समाधियों की सृजनशील पारसी निर्माण कला को देख आप चकित रह जाएंगे. इस के अलावा हुसैन सागर, चेर्वू, रामोजी फिल्म सिटी भी यहां के रमणीक पर्यटन स्थल हैं. हैदराबाद के आसपास के इलाकों में आप शहरी और ग्रामीण जीवन दोनों का अनुभव ले सकते हैं.

हैदराबाद के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए नगर में पर्यटन विभाग की ओर से 1 या 2 दिन का पैकेज भी उपलब्ध है.

दर्शनीय स्थल 500 साल की पुरानी स्मृतियों को सहेजे 1591 में बनी चारमीनार यहां का पहला दर्शनीय स्थल है. अरब शैली में निर्मित 49 मीटर ऊंची यह मीनार एक रमणीक यादगार स्थल माना जाता है. यहां का गोलकुंडा किला देश में प्रसिद्ध बादशाही किलों में अग्रणी है. कहा जाता है कि निजाम काल का अमूल्य कोहिनूर हीरा भी यहीं मिला था. खास बात यह है कि जीपीएस वीडियो के जरिए पर्यटक सारे किलों की चरित्र गाथाओं को देख सकते हैं. किले की खास विशेषता यह है कि अगर किले के पहले राजद्वार पर अगर ताली बजाएं तो इस की आवाज 41 मीटर ऊंचाई पर बने राजदरबार तक सुनाई देती है. यह निर्माण कला का एक अद्भुत नमूना है.

विश्व का सब से बड़ा संग्रहालय सालारजंग भी यहां का प्रमुख दर्शनीय स्थल है. यह संग्रहालय एक अकेले व्यक्ति द्वारा जुटाई सामग्री से बनाया गया है. यहां पर लगी प्राचीनकाल की 5 फुट की घड़ी को देखने के लिए पर्यटक जरूर आते हैं.

शहर से 20 किलोमीटर दूर भारत का सब से बड़ा व सुंदर ‘नेहरू जूलोजिकल पार्क’ स्थित है. 300 एकड़ में फैले इस पार्क में 3 हजार से भी ज्यादा पशुपक्षियों की प्रजातियां हैं. इस से आगे 35 किलोमीटर की दूरी पर 1666 एकड़ में फैली रामोजी फिल्म सिटी है. इसे विश्व का बड़ा फिल्म निर्माण स्थल माना जाता है.

तेलंगाना जिलों में सुंदर स्थल : हैदराबाद से 150 किलोमीटर की दूरी पर 3 तेलंगाना जिलों में अनेक दर्शनीय स्थल मौजूद हैं. शहर से 100 किलोमीटर दूर नलगोंडा जिले में नागार्जुन सागर की यात्रा की जा सकती है. यात्रा के साथ ही बोटिंग का मजा भी ले सकते हैं. इस के अलावा यहां मिट्टी से बना नागार्जुन सागर डैम भी स्थित है.

आंध्र प्रदेश का चरित्र दर्शाने वाली पुरासंपदाओं से भरपूर शहर है वारंगल. 12वीं सदी में काकतीय वंश के राजाओं ने राजधानी के रूप में ओरूगल्लु नाम से इस शहर का निर्माण किया था. काकतीय किले की अनुपम छटा, सुंदर शिल्प व निर्माण कला देखते ही बनती है.

महबूबनगर जिले में भी प्राकृतिक दर्शनीय स्थल है. यहां हजारों साल पुराना ‘पिल्लला मर्री’ नाम का एक विशाल बरगद का वृक्ष है. यह वृक्ष 3 एकड़ में फैला हुआ है, जिस के नीचे हजारों की संख्या में लोग विश्राम करते हैं.

विशाखापट्टनम : यह हैदराबाद से 572 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है विशाखापट्टनम. बच्चे हों या बड़े या फिर हनीमून कपल्स, सभी यहां आ कर पर्यटन का लुत्फ उठाते हैं.

ठंडी हवाओं से भरे समुद्र के किनारे पर एक रामकृष्ण बीच है, जहां सैर करते समय आप का रोमरोम प्रफुल्लित हो जाएगा. यहां नौसेना का सबमैरिन म्यूजियम भी दर्शनीय है.

अगर आप को ट्रैकिंग, जलक्रीड़ाओं, विंड सर्फिंग का आनंद लेना है तो आप विशाखापट्टनम से 8 किलोमीटर दूर ऋषिकोंडा जा सकते हैं. पर्यटन विभाग की ओर से यहां ठहरने की उचित व्यवस्था की गई है.

यहां का कैलासगिरी पर्वत कुदरत की खूबसूरती को आत्मसात कराने वाला एक सुंदर पर्यटक स्थल है. 375 मीटर के रोप-वे पर चलते समय शहर को देखना अविस्मरणीय अनुभव होता है.

पंचदाली के नजारे : यह विशाखापट्टनम से 52 किलोमीटर दूरी पर ‘पंचदाली’ नामक पर्यटन स्थल बहुत प्रसिद्ध है. हरियाली युक्त यहां का भौगोलिक वातावरण काफी अच्छा है. यहां से 260 किलोमीटर दूर ‘चित्रकूट जलप्रपात’ देखने में बेहद खूबसूरत दिखता है. इस को यहां का मिनियेचर नियागरा फौल्स भी कहा जाता है.

समुद्र से 3200 फुट ऊंचाई पर पर्वत के बीच स्थित अरकु वैली मन को मोहित कर देती है. यहां पर हजारों वर्ष पुरानी गुफाएं भी हैं. अरकु वैली जाने के लिए पहाड़ों के अंदर से 46 सुरंगों को रेल द्वारा पार किया जाया जाता है.

जलयान का मजा : विशाखापट्टनम से 170 किलोमीटर दूर स्थित ‘भद्राचलम’ पर्यटकों का पसंदीदा स्थल है. सरकार द्वारा चलाई गई बसों से आप पोचवरम् तक जा कर वहां से गोदावरी पर ‘पापिकोंडलु’ जलयान की सैर कर सकते हैं. यह पर्यटन विभाग की ओर से पैकेज के रूप में उपलब्ध है. इस के साथ ही ‘बैंबू हट’ में ठहरना भी पैकेज में शामिल है.

हार्सली हिल्स : हैदराबाद से 640 किलोमीटर व तिरुपति क्षेत्र से 150 किलोमीटर दूर पर स्थित ‘हार्सली हिल्स’ पर आप जा कर छुट्टियों का भरपूर मजा ले सकते हैं. यहां 1226 मीटर ऊंचाई पर ठहरने की उचित व्यवस्था है. इस पहाड़ी पर ट्रैकिंग करने का मजा ही कुछ और है. यहां से 120 किलोमीटर दूर एक सुंदर द्वीप ‘श्रीहरिकोटा’ है. यहां?भारत का अंतरिक्ष केंद्र भी स्थित है. इस के पास ही ‘नेलपट्टू’ पक्षी अभयारण्य में दुर्लभ किस्म के पशुपक्षियों को देखना आनंददायी है.

विजयवाड़ा का मजेदार डिजनीलैंड : 250 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के किनारे पर स्थित विजयवाड़ा  प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर माना जाता है. शहर से 8 किलोमीटर पर डिजनीलैंड भी है जो बच्चों व बड़ों को आकर्षित करता है. कृष्णा नदी पर भवानी द्वीप देखने की बेहतरीन जगह है. इस द्वीप पर आप स्वीमिंग व फिश्ंिग आदि का आनंद ले सकते हैं.

यहां पर लगभग सभी स्थलों पर दक्षिण भारतीय पकवान उपलब्ध होते हैं. ठहरने के लिए यात्री निवास आसानी से उपलब्ध हैं. टैक्सी के दाम भी बाकी राज्य और महानगरों की तुलना में बहुत कम हैं.

देर किस बात की, गुजरात की खुशबू को आप भी समेट लीजिए

अमिताभ बच्चन रेडियो और टैलीविजन पर विज्ञापन ‘खुशबू गुजरात की’ में पर्यटकों का मन मोह रहे हैं या नरेंद्र मोदी का प्रचार कर रहे हैं, उस बात को भूल जाएं और एक बार गुजरात अवश्य घूमने जाएं. अमिताभ बच्चन जब गिर के जंगल कच्छ के सफेद रण से गुजरते हुए कहते हैं, ‘कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में’ तो पर्यटक बरबस गुजरात की ओर आकर्षित हो जाते हैं.

जब बात गुजरात की हो तो  यह कैसे हो सकता है कि अहमदाबाद का जिक्र न किया जाए.

पूर्व के मैनचेस्टर के रूप में प्रसिद्ध देश के छठे सब से बड़े शहर अहमदाबाद की खास पहचान वहां के म्यूजियम, पुरानी हवेलियां, आधुनिक वास्तुशिल्प और मल्टीनैशनल संस्कृति है. अहमदाबाद स्थित स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र साबरमती आश्रम से ले कर अंबाजी और इंडोसार्सेनिक स्थापत्य शैली में बनी जुमा मसजिद व सीद्दी सैयद की जाली पर्यटकों के लिए महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं.

दर्शनीय स्थल

झलती मीनारें : अहमदाबाद में पर्यटन का आकर्षण झलती मीनारें हैं. सीदी बशीर की मसजिद में स्थित इन मीनारों की खासीयत है कि इन पर जरा सा दबाव पड़ते ही ये हिलने लगती हैं. इन की रचना ऐसी है कि एक मीनार को हिलाने से दूसरी मीनार अपनेआप हिलने लगती है. पर यह न समझ कि आप को हिलाने की इजाजत होगी. ये इमारतें आप दूर से ही देख सकते हैं.

अनूठा है नल सरोवर : यह सरोवर अपने दुर्लभ जीवनचक्र के लिए जाना जाता है. अहमदाबाद से 65 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नल सरोवर का परिवेश विशिष्ट प्रकार की वनस्पतियों, जलपक्षियों, मछलियों, कीटपतंगों व जीवजंतुओं को शरण प्रदान करता है. सर्दियों में यहां कई तरह के देशीविदेशी पक्षियों का जमावड़ा रहता है.

आप चाहें तो यहां से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित लोथल जा सकते हैं जहां सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष देखे जा सकते हैं.

साबरमती आश्रम : साबरमती नदी के किनारे स्थित यह आश्रम गांधी आश्रम व हरिजन आश्रम के नाम से जाना जाता है. देश की आजादी की लड़ाई में इस आश्रम का विशेष महत्त्व रहा है. यहां गांधीजी के चरखे व निजी सामान को मूल स्थिति में रखा गया है. पहले यह शांत जगह थी पर अब इस के पास बहुत से व्यावसायिक भवन बन गए हैं क्योंकि आश्रम रोड शहर की मुख्य सड़कों में से है.

मांडवी

अरब सागर से केवल 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मांडवी समुद्रतट पर बसा सुंदर शहर है. तटीय सुंदरता के अलावा मांडवी की संस्कृति भी यहां का आकर्षण है. मांडवी का नजदीकी हवाई अड्डा भुज (50 किलोमीटर) और नजदीकी रेलवे स्टेशन गांधीधाम (95 किलोमीटर) है. यहां ठहरने के लिए विविध होटल व अतिथिगृह हैं.

यह समुद्रतट दूर तक टहलने के लिए बेहद उपयुक्त है. समुद्र स्नान के लिहाज से एक सुरक्षित बीच होने के साथसाथ यह तैराकी के लिए भी उपयुक्त माना जाता है. नवविवाहित जोड़े यहां हनीमून के लिए आते हैं.

विजय विलास पैलेस : मांडवी का एक अन्य आकर्षण विजय विलास पैलेस है. सुंदर उद्यान, फौआरों के बीच गर्व से सिर उठाए खड़ा यह पैलेस स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है. 1883 में रुकमावती नदी पर पत्थर का बना सब से लंबा पुल अपनी तरह का भारत का एकमात्र पुल है. इस के अलावा मांडवी से कुछ दूर ‘विंड फार्म बीच’ भी एक सुंदर और शांत सागरतट है. यहां सैलानियों को एक ओर सागर की अथाह जलराशि नजर आती है तो दूसरी ओर सैकड़ों पवनचक्कियां कतार में खड़ी नजर आती हैं.

कच्छ

गुजरात जा कर अगर आप ने कच्छ का रणक्षेत्र नहीं देखा तो क्या देखा. इसे देखने के लिए यहां के प्रमुख शहर भुज पहुंचना होता है. यहां की संस्कृति, लोककलाएं, हस्तशिल्प, रीतिरिवाज, लोगों का रहनसहन आदि इस की प्रसिद्धि के कारण हैं. रण, जिसे रन भी कहा जाता है, एक बंजर भूभाग है. इस की मिट्टी में नमक अधिक है. कोई इसे दलदली भूमि तो कोई मरुभूमि भी कहता है.

प्रकृति की अद्भुत नेमत कच्छ 2 भागों में बंटा हुआ है, बड़ा रण और छोटा रण. दोनों रण मिला कर एक विशाल अभयारण्य है जिस में नल सरोवर भी है. छोटे रण में एक खास जीव घोड़खर यानी जंगली गधा देखने को मिलता है. गधे की यह प्रजाति विश्व में केवल यहीं पाई जाती है. इस के अलावा यहां नीलगाय, लोमड़ी, चिंकारा, भेडि़ए, डाइना और जंगली बिल्ली आदि जीव भी देखने को मिलते हैं.

पाटन

अहमदाबाद से 125 किलोमीटर दूर पाटन यहां बनने वाली पटोला साडि़यों के लिए भी मशहूर है. आज इस भव्य प्राचीन नगर के कुछ ही अवशेष बचे हैं. पाटन की महत्त्वपूर्ण निर्भीक कला में रानी की बावड़ी, सहस्रलिंग तालाब और खान सरोवर को रखा गया है. इस में रानी की बावड़ी भूतल स्थापत्य का अनूठा उदाहरण है. सुंदर नक्काशी से सुशोभित दीवारें, शिल्पों से सजी सीढ़ी और पायदान की शृंखला पानी के कुएं तक जाती है.

गिर अभयारण्य

आप जंगल में सहज व स्वच्छंद विचरण करते वन्यजीवों को देखने का शौक रखते हैं तो गुजरात आ कर गिर अभयारण्य देखना न भूलें. अहमदाबाद से 395 किलोमीटर दूर स्थित यह अभयारण्य एशिया में एकमात्र ऐसा स्थान है जहां शेर अपने प्राकृतिक आवास में देखे जा सकते हैं. इस अभयारण्य में 30 के आसपास स्तनधारी, 20 के करीब सरीसृप व अन्य जीवजंतुओं, पशुपक्षियों की कई जातियां देखने को मिलती हैं.

रंगों की विविधता : गुजरात की धरती अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को बखूबी संजोए हुए है. फिर चाहे यहां के प्रसिद्ध बांधनी वस्त्र में चटख रंगों की विविधता हो, पतंगों का रंगीन त्योहार हो, त्योहारों के अवसर पर गरबा नृत्य की धूम हो या फिर पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद हो, गुजरात अपनी रंगबिरंगी छवि के कारण केवल भारत में ही नहीं विदेशों में भी पर्यटन स्थल के रूप में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुका है.

पतंगों का रंगीन त्योहार :मकर संक्रांति के पर्व पर मनाया जाने वाला पतंग उत्सव गुजरात में अत्यंत लोकप्रिय है. इस अवसर पर गुजरातवासी रंगबिरंगी पतंगों से आसमान को भर कर विविधता में एकता, उत्साह व परस्पर स्नेह व सौहार्द का परिचय देते हैं. बाहरी देशों से आए पर्यटक भी प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय पतंग उत्सव में भाग लेते हैं.

कुल मिला कर एक बार भी कोई गुजरात जाएगा तो वहां की खुशबू से इतना आकर्षित होगा कि दोबारा वहां जाने को आतुर रहेगा.

थमता नजर नहीं आ रहा क्रिकेटर शमी और हसीन जहां का विवाद

टीम इंडिया के तेज गेंदबाज मोहम्मद शमी और उनकी पत्नी हसीन जहां के बीच विवाद लगातार बढ़ता ही जा रहा है. हसीन जहां ने मोहम्मद शमी पर मारपीट, रेप, हत्या की कोशिश, घरेलू हिंसा और मैच फिक्सिंग जैसे कई गंभीर आरोप लगाए और उनके खिलाफ पुलिस में केस भी दर्ज करवाया है. शमी काफी देर तक खामोश रहे. पहले तो शमी इन आरोपों से लगातार इंकार करते रहे और कहते रहे कि अपनी बच्ची की खातिर वह सुलह करना चाहती हैं. लेकिन हसीन जहां समझौते के मूड में कभी नजर नहीं आईं. ऐसे में मोहम्मद शमी ने भी हसीन जहां पर आरोप लगाने शुरू कर दिए और दोनों के बीच विवाद काफी बढ़ गया.

इस मामले में ताजा घटनाक्रम में, हसीन जहां ने शमी के नए व्हाट्सऐप चैट अपने फेसबुक अकाउंट पर जारी किए हैं. इन चैट्स में शमी की आकांक्षा नाम की लड़की से बातचीत दिख रही है. गौरतलब है कि पहले भी इसी अकाउंट से तस्वीरें जारी की गई थी. हालांकि पहले जारी की गईं फोटो अभी इस अकाउंट में नजर नहीं आ रहीं हैं उन्हें जारी के करने के बाद जल्दी ही हटा दिया गया था. लेकिन यह तस्वीरें 20 तारीख को पोस्ट की गईं थी.

इससे पहले हसीन जहां ने एक प्रेस कौन्फ्रेंस कर कहा था, ”जनवरी से अलिश्बा और मोहम्मद शमी के बीच नाजायज ताल्लुकात हैं. शमी ने सिर्फ अलिश्बा ही नहीं, अपनी सेलिब्रिटी इमेज का फायदा उठाकर कई लड़कियों की जिंदगी बर्बाद की है.” हसीन जहां ने कहा, ”मोहम्मद शमी को उसके गलत कामों के लिए बीच सड़क पर पीटा जाना चाहिए.”

मैच फिक्सिंग का भी आरोप लगाया था हसीन जहां ने

हसीन जहां शमी पर मैच फिक्सिंग के भी आरोप लगाए हैं. उनके लगाए आरोपों के बाद भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) की एंटी करप्शन यूनिट के अधिकारियों ने पहले मोहम्मद शमी से पूछताछ की. इस मामले में बीसीसीआई भी कोलकाता क्राइम ब्रांच के संपर्क में है.

हसीन जहां ने आरोप लगाया था कि शमी ने इंग्लैंड के व्यापारी मोहम्मद भाई के कहने पर अलिश्बा नाम की एक पाकिस्तानी महिला से रुपए लिए थे. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, BCCI के अधिकारियों ने कोलकाता के लाल बाजार में शमी की पत्नी से भी इस मामले में पूछताछ की थी.

दो दिन दुबई में रहे थे मोहम्मद शमी : बीसीसीआई

मोहम्मद शमी मामले में भारतीय क्रिकेट बोर्ड (बीसीसीआई) कोलकाता पुलिस के साथ संपर्क में है. इसी कड़ी में बीसीसीई ने मोहम्मद शमी के फरवरी माह के शेड्यूल को लेकर कोलकाता पुलिस को रिपोर्ट सौंपी है. ज्वाइंट सीपी (क्राइम) प्रवीण त्रिपाठी ने बताया, ”हमें बीसीसीआई से एक पत्र मिला है, जिससे पता चलता है कि मोहम्मद शमी 17 और 18 फरवरी को दुबई में थे. हम केस जुड़ी अन्य चीजों की भी पड़ताल कर रहे हैं.” इसके साथ ही बोर्ड ने यह बताया कि, यह शमी का निजी मामला है. वो दुबई में दो दिन के लिए क्यों थे. इसके बारे में हमें कुछ पता नहीं है.

23 मार्च को ममता बनर्जी से मिलेंगी हसीन जहां

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हसीन जहां से मिलने के लिए तैयार हो गई हैं. पिछले कुछ दिनों से हसीन लगातार सीएम ममता से मिलने की कोशिश में थीं, ताकि वह इस मुद्दे पर उनसे बात कर सकें. बुधवार को नबन्ना (CMO) ने इस बात की पुष्टि की कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शुक्रवार (23 मार्च को) हसीन जहां से मुलाकात करेंगी.

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