कहानी की शुरुआत एक उर्दू मैगजीन के औफिस से होती है. एक हसीन नौजवान शायरा नीलोफर गुस्से में तमतमाई औफिस में दाखिल होती है और एक कर्मचारी से एडीटर का पताठिकाना पूछती है. उस कर्मचारी के मुंह में पान की पीक भरी थी. वह इशारा कर के उसे चपरासी के साथ एडीटर के कमरे की तरफ भेज देता है.

चपरासी जब नीलोफर का विजिटिंग कार्ड एडीटर को देता है तो वह एक मुलाजिम पर किसी बात पर गुस्सा हो रहा होता है और उसी गुस्से में कार्ड अंगुलियों पर घुमाते हुए बोलता है, ‘‘जाओ, कह दो मेरे पास वक्त नहीं है.’’

बाहर खड़ी नीलोफर यह सब सुनती है तो उस का पारा और चढ़ जाता है और वह गुस्से में धड़ाम से दरवाजा धकेलने की बेअदबी करने से खुद को नहीं रोक पाती और कमरे में पहला कदम रखते ही लगभग चिल्लाती है, ‘‘वक्त तो मेरे पास भी नहीं है जनाब.’’

हैदर जैसे ही उस गुस्ताख आवाज और लड़की को देखने के लिए नजर उठाता है तो ऐसे चौंकता है, मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो. ठीक यही हालत नीलोफर की भी था, जो गुस्सा भूल कर हैदर को इस तरह अपलक देख रही थी, मानो उसे यकीन न हो रहा हो.

चंद लमहे दोनों सुधबुध खो कर बिना पलक झपकाए एकदूसरे को देखते रहते हैं. और जब खुद पर यकीन हो जाता है कि वे कोई ख्वाब नहीं देख रहे हैं तो सहज होने की कोशिश करते हैं. हैदर मुलाजिम को कमरे से बाहर भेज देता है और चपरासी को चायनाश्ता लाने का हुक्म देता है. इस दौरान उस की हड़बड़ाहट देखने काबिल होती है.

नीलोफर अदब से उसे आदाब करती है और वह भी उसे पूरी इज्जत से बैठाता है. हैदर को इस बात पर कुदरती तौर पर हैरानी होती है कि इतने बड़े नवाब खानदान की बहू यूं आ कर 50 रुपए फीस के लिए झिकझिक करेगी. नीलोफर हैदर को बताती है कि वह नाम बदल कर नज्में लिखती है और इसी शहर के एक गर्ल्स हौस्टल में रहती है. यह सुन कर हैदर और भी ज्यादा चकरा जाता है.

थोड़ी देर में दोनों सहज हो जाते हैं और फिर शुरू होता है बातचीत का सिलसिला, जिस में हैदर नीलोफर को बड़ी बेतकल्लुफी से बताता है कि कालेज के दिनों में वह उस पर मरता था और उसे इंप्रैस करने के लिए उस ने क्याक्या नहीं किया था. वह आगे बताता है कि कालेज के पहले ही दिन नीलोफर यानी उस की चर्चा हुई थी तो लड़के कह रहे थे कि नीलोफर है तो बला की खूबसूरत, लेकिन किसी को घास तक नहीं डालती.

इस पर हैदर ने एक दोस्त सैफ से शर्त लगाई थी और 10 रुपए जीत गया था. नीलोफर यह जान कर चकित होती है कि हैदर उसे चाहने लगा था तो उस ने कभी अपनी चाहत का इजहार क्यों नहीं किया. हालांकि एक दफा गुलाब का फूल ले कर वह उस के घर तक भी गया था, पर अल्हड़ नीलोफर ने उसे झिड़क कर भगा दिया था. इस के बाद मायूस हैदर ने उसे भूल जाने में ही बेहतरी समझी. यह दीगर बात है कि वह उसे कभी भूल नहीं पाया.

हैदर नीलोफर को बताता है कि शर्त में जीते 10 रुपए और कभी उस की किताब से गिरा गुलाब का फूल आज भी उस के पास सलामत है. और तो और नीलोफर को पटाने के लिए उस ने एक सितार भी खरीदा था, लेकिन जिस दिन उसे मालूम हुआ कि उस नीली आंखों वाली नीलोफर की शादी किसी नवाब से होने जा रही है तो उस ने दूसरी यादों की तरह उस सितार को भी हमेशा के लिए सहेज कर एक कोने में रख दिया, साथ ही उस ने उस का नाम ही नीलोफर रखा था.

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अपनी बात सुना कर जब वह नीलोफर से उस के बारे में पूछता है तो वह सुबकने लगती है. फिर धीरेधीरे कई मुलाकातों में अपनी दर्दभरी दास्तां बयान करती है, जिसे सुन कर हैदर का दिल दर्द से भर जाता है.

जहां से तुम्हारी कहानी खत्म होती है, वहीं से मेरी कहानी शुरू होती है. नीलोफर हैदर को बताती है कि कालेज की पढ़ाई पूरी होने के बाद उस की शादी वसीम से तय हो गई थी. वसीम एक नामी नवाब खानदान का वारिस था, जिसे वह बचपन से जानती थी और चाहती भी थी. वसीम विदेश से वापस लौटा तो उन दोनों की शादी धूमधड़ाके से हो गई.

शादी के दूसरे दिन ही वसीम को तार के जरिए इत्तला मिली कि उसे एक फाइवस्टार होटल का कौंट्रैक्ट मिल गया है. यह सुन कर वह मारे खुशी के झूम उठा और नीलोफर को अपने लिए लकी मानने लगा. महत्त्वाकांक्षी वसीम रोमांटिक तो था, लेकिन बहुत सारा पैसा कमा लेना चाहता था, इसलिए शादी के बाद वह अपने कारोबार में इस तरह तल्लीन हो गया कि नीलोफर के लिए उस के पास वक्त ही नहीं रहा.

वह नीलोफर से अकसर वादा करता रहता कि आज फिल्म देखने चलेंगे या किसी होटल में साथसाथ लंच करेंगे. यह सुन कर नीलोफर खुश हो जाती थी, लेकिन वसीम कभी वक्त पर नहीं आता तो वह झल्लाने लगती थी. फिर भी वसीम हर बार प्यार से उसे मना लेता था.

जब वे हनीमून मनाने मुंबई गए, तब भी वसीम अपनी कारोबारी मीटिंगों में उलझा रहा और वह फाइवस्टार होटल में अकेली पड़ी उस का इंतजार करती रही.

इसी दौरान वसीम के घर वाले यानी नीलोफर के सासससुर और ननद व उस के बच्चे हज पर चले गए तो वह और भी तनहा हो गई. अब बड़ी हवेली में घर का बुजुर्ग नौकर जुम्मन भर रह गया था, जो उसे छोटी दुलहन कह कर पुकारता था. रोजाना डायरी लिखने की शौकीन नीलोफर अपनी तनहाई का दर्द पन्नों पर उतारती थी.

एक दिन उस वक्त हद हो गई, जब देर रात वसीम शराब पी कर आया. इस पर नीलोफर ने ऐतराज जताया और मरजी न होते हुए शौहर की मांग पर सैक्स करने से मना कर दिया. इस के लिए वसीम ने उसे खासी खरीखोटी सुनाई. उस रात दोनों में खूब तकरार हुई और नीलोफर दूसरे कमरे में जा कर सो गई. नशे में धुत वसीम अपने बिस्तर पर लुढ़क गया.

सुबह जब नीलोफर जागी तो रेडियो चालू करने पर 18 अक्तूबर की तारीख सुन उसे याद आया कि आज तो बड़ा मुबारक दिन है. एक साल पहले इसी दिन वसीम से उस की शादी हुई थी.

नीलोफर तय कर लेती है कि आज सारे गिलेशिकवे भूल जाएगी. रात की बात भूल कर वह जुम्मन मियां के हाथ से चाय की ट्रे ले कर खुद वसीम को चाय देने जाती है और प्यार से वसीम को जगाती है. वसीम दोहराता है कि आज उस की जिंदगी का सब से भाग्यशाली दिन है, क्योंकि आज ही के दिन नीलोफर उस की शरीकेहयात बनी थी.

प्यारभरी बातें करतेकरते दोनों तय करते हैं कि अब कभी लड़ाईझगड़ा नहीं करेंगे और प्यार से रहेंगे. औफिस जातेजाते वसीम उसे बताता है कि उस ने आज शाम हवेली में शादी की पहली सालगिरह की बड़ी दावत रखी है और वह वक्त पर घर आ जाएगा.

नीलोफर दिन भर सजतीसंवरती है और पार्टी की तैयारियां करती है. उस की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. शाम ढलते ही मेहमानों के आने का सिलसिला शुरू हो गया, पर वसीम आदतन वक्त पर नहीं आया. घंटे दो घंटे तो नीलोफर ने सब्र किया, पर मेहमानों के बारबार वसीम के दावत में न होने के जवाब पर झूठ बोलतेबोलते वह झल्लाने लगी. पार्टी में कालेज के जमाने का दोस्त सैफ भी आया था, जो अब एक मैगजीन का एडीटर बन गया था.

जब मेहमान ज्यादा ताने मारने लगते हैं तो गुस्साई नीलोफर बगैर कुछ कहेसुने ऊपर जा कर अपने कमरे में बंद हो जाती है और शौहर की व्यस्तता को कोसती है. नीचे दावत में सैफ और एक अन्य औरत के भड़काने पर मेजबान के न होने को अपनी बेइज्जती समझ मेहमान बगैर खाना खाए चले जाते हैं. सालगिरह का केक ज्यों का त्यों रखा रह जाता है.

देर रात वसीम वापस आता है तो जुम्मन से उसे पता चलता है कि मेहमान बगैर खाना खाए ही चले गए हैं. वसीम को नीलोफर की यह हरकत नागवार गुजरती है. उसे लगता है कि बीवी ने जानबूझ कर उस के नवाबी खानदान की बेइज्जती करा दी है.

कमरे में जा कर वह नीलोफर से सफाई मांगता है तो पहली दफा वह ऊंची आवाज में उस के हर सवाल का सधा जवाब देती है. दोनों में खूब झगड़ा होता है. वसीम अपनी गलती नहीं मानता और नीलोफर के माफी न मांगने पर उसे ‘तलाक तलाक तलाक’ कह कर हवेली से निकाल देता है.

अपनी कहानी सुना कर नीलोफर सिसकने लगती है तो हैदर उसे सांत्वना देते हुए पूछता है कि वह बजाय अपने घर यानी मायके जाने के हौस्टल में क्यों रहती है? इस पर नीलोफर जवाब देती है कि शौहर के घर के अलावा दुनिया की कोई भी चारदीवारी औरत के लिए घर नहीं हो सकती. यह जवाब सुन कर हैदर निरुत्तर हो जाता है.

वह मन ही मन नीलोफर से शादी करने का फैसला कर लेता है. नीलोफर भी उस की सादगी और रोमांटिक अंदाज पर फिदा हो जाती है. बढ़ती मेलमुलाकातों के दौरान प्यार का इजहार होता है और शादी की बात भी हो जाती है.

लेकिन शादी के पहले ही नीलोफर सैफ की मैगजीन में नौकरी कर लेती है. मिठाई ले कर वह यह खबर हैदर को सुनाने जाती है तो वह अचकचा उठता है, क्योंकि वह जानता था कि सैफ अच्छा आदमी नहीं है. वह अव्वल दरजे का लंपट है. लेकिन वह नीलोफर से सीधे उस के यहां नौकरी करने के लिए मना नहीं कर पाता.

हैदर को मिठाई खिला कर नीलोफर उस के दफ्तर से चली जाती है, लेकिन अपना चश्मा वहीं भूल जाती है. अपने दफ्तर में बदनीयत सैफ जानबूझ कर नीलोफर को देर रात तक काम के बहाने बैठाए रखता है और सभी मुलाजिमों के चले जाने के बाद अकेले में उस की इज्जत लूटने की कोशिश करता है. इत्तफाक से नीलोफर का चश्मा लौटाने आया हैदर वक्त पर पहुंच जाता है और नीलोफर को सैफ के चंगुल से बचा लेता है.

जल्द ही दोनों शादी का फैसला कर लेते हैं. इस बीच नीलोफर की याद में तड़पते हुए पछता रहा वसीम उसे वापस पाने की हर मुमकिन कोशिश करता है, लेकिन नीलोफर उस की बातें सुन कर नहीं पसीजती. एक बार वसीम के बुलावे पर वह हवेली गई भी, लेकिन जल्द ही वापस भी लौट गई. उस वक्त नशे में धुत हवेली में पड़ा वसीम एक पुरानी गजल सुन रहा था.

जुम्मन नीलोफर से वापस आने की गुजारिश करता है, पर नीलोफर का दोटूक जवाब सुन कर वह खामोश रह जाता है कि आज जिस चौराहे पर मैं खड़ी हूं, वहां से कोई भी रास्ता इस घर की तरफ नहीं आता.

मायूस वसीम इमाम से मिलता है और नीलोफर से दोबारा शादी के बारे में पूछता है. इस पर इमाम उसे हलाला का हवाला दे कर बताता है कि नीलोफर को उस से दोबारा शादी करने से पहले किसी गैदमर्द से शादी करनी होगी और बाकायदा बीवी की तरह उस के साथ कुछ वक्त गुजारना होगा. अगर उस का वह शौहर नीलोफर को तलाक देने पर तैयार हो जाए, तभी वह उस से शादी करने का हकदार होगा.

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हैदर और नीलोफर की शादी में वसीम तोहफा ले कर पहुंचता है और उसे मुबारकबाद देता है, तभी बिजली चली जाती है. बिजली ठीक कराने हैदर खुद जाता है तो वसीम नीलोफर से कहता है कि तुम ने शादी करने का ठीक फैसला लिया, अब जल्द से घर वापस आ जाओ, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.

नीलोफर उसे समझाने की कोशिश करती है कि यह उस की गलतफहमी है कि वह अब भी उसे चाहती है और हलाला के लिए शादी कर रही है. वह अपनी बात सख्ती से वसीम को समझा पाती, इस के पहले ही बिजली और हैदर दोनों आ जाते हैं, लिहाजा वह चुप हो जाती है.

शादी के बाद हैदर के घर आ कर नीलोफर को सुकून मिलता है. हैदर बेहद रोमांटिक होने के साथसाथ उस का खयाल रखने वाला शौहर भी है, जो उस की हर पसंदनापसंद का खयाल रखता है.

नीलोफर साफसाफ महसूस करती है कि वसीम के पास उस के लिए वक्त नहीं होता था, पर हैदर के पास उस के लिए मुकम्मल वक्त है. जैसा घर और शौहर उसे चाहिए था, दूसरी शादी के बाद ठीक वैसा ही मिल गया.

दोनों हनीमून मनाने मुंबई पहुंचते हैं तो इत्तफाक से उन्हें उसी होटल और उसी कमरे में जगह मिलती है, जहां पहली शादी के बाद वसीम और उसे मिली थी. यहां तक कि होटल का स्टाफ भी नीलोफर को पहचान लेता है कि वह करीब 2 साल पहले भी अपने शौहर के साथ यहां आई थी.

नीलोफर की हालत अजीब हो जाती है. उसे रहरह कर वसीम के साथ वहां गुजारा वक्त याद आने लगता है. हालांकि उस के दिल में अब वसीम के लिए कुछ भी नहीं था, मगर यादें आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं.

घर वापस आ कर वह इन तमाम वाकयों को आदतन सिलसिलेवार डायरी में लिखती जाती है. एक दिन हैदर उस की डायरी पढ़ लेता है. बीवी का लिखा यह जुमला उस के चेहरे की रंगत उड़ा देता है कि औरत अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलती.

इस डायरी को पढ़ने के बाद हैदर के मन में शक पैदा हो जाता है कि नीलोफर उस से शादी करने और इतना प्यार देने के बाद भी वसीम को भूल नहीं पाई है. नीलोफर उस का पहला प्यार थी, इसलिए उसे एकदम इस बात पर यकीन भी नहीं होता.

अपनी तसल्ली के लिए वह एक मनगढं़त कहानी उसे सुना कर क्लाइमैक्स पूछता है कि एक लड़की थी, जो एक लड़के से बेहद प्यार करती थी. दोनों की सगाई हो चुकी थी, लेकिन लड़का मिलिटरी में था और जंग के चलते उस के मरने की खबर आई.

कुछ दिनों बाद लड़की की शादी दूसरे लड़के से तय हो जाती है. दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं, लेकिन तभी पता चलता है कि उस का मंगेतर मरा नहीं था, बल्कि जिंदा था. ऐसी स्थिति में एक अजीब सी उलझन पैदा हो जाती है. हैदर नीलोफर से पूछता है कि ऐसे में लड़की को किस लड़के को चुनना चाहिए. नीलोफर कुछ सोच कर जवाब देती है कि पहले लड़के को.

इस जवाब को सुन कर हैदर सन्न रह जाता है और समझता है कि नीलोफर अभी भी वसीम को चाहती है. उस ने उसे महज हलाला की रस्म अदा करने के लिए उस से शादी की है. वह मन ही मन दोनों के रास्ते से हटने का फैसला ले लेता है.

नीलोफर के जन्मदिन पर वह बतौर तोहफा वसीम को सामने ला कर खड़ा कर देता है तो वह सन्न रह जाती है. हैदर के यह कहने पर कि तुम्हीं ने तो उस कहानी का क्लाइमैक्स तय किया था. नीलोफर समझ जाती है कि हैदर एक ऐसी गलतफहमी का शिकार हो गया है, जो अब दूर होने वाली नहीं है.

इधर दरियादिली दिखाते हुए हैदर उसे शरई तौर पर आजाद करने की बात कहता है तो वह और भी तिलमिला उठती है.

वह हैदर और वसीम दोनों से कहती है कि आप मर्दों ने औरत को समझ क्या रखा है, जेब में रखा नोट या पलंग, जो जब चाहा बदल लिया. औरत क्या जायदाद होती है, जो जब चाहा, दूसरे को दे दिया. वसीम ने तलाक गाली की तरह दिया तो हैदर तोहफे की तरह दे रहा है. क्या औरत की मरजी और वजूद के कोई मायने नहीं हैं.

इसी गुस्से में वह एक सवाल और पूछती है कि जब निकाह औरत की मरजी से होता है तो तलाक उस की बिना मरजी के कैसे हो सकता है? नीलोफर के बेबस गुस्से के सवालों के जवाब न तो वसीम के पास थे और न ही हैदर के पास.

निकाह, तलाक और शरीयत के खेल में औरत के वजूद और हैसियत को तलशते सवालों के जवाब बीती 22 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले में सिमटे हैं, जो अभी पूरी तरह साफ नहीं हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने 3 तलाक के रिवाज को नाजायज बताते हुए संसद को इस बाबत कानून बनाने का निर्देश दिया तो निर्मातानिर्देशक बलदेव राज चोपड़ा की साल 1982 में प्रदर्शित ‘निकाह’ फिल्म की इस कहानी की याद हो आई, जो स्वाभाविक बात थी. इस फिल्म में वसीम की भूमिका में दीपक पाराशर, हैदर की भूमिका में राजबब्बर और नीलोफर के किरदार को पाकिस्तानी मूल की नायिका और गायिका सलमा आगा ने निभाया था.

बहुत सी सत्यकथाओं के बीच निकाह फिल्म की यह कहानी उन से ज्यादा प्रभावी साबित हुई थी, जब भारत सहित पाकिस्तान में भी कट्टरवादी इस फिल्म के विरोध में सड़कों पर उतर आए थे.

किसी को अंदाजा नहीं था कि एक कुरीति पर प्रहार करती फिल्म ‘निकाह’ इतनी हिट साबित होगी. इस की वजह इस की कास्टिंग बेहद कमजोर मानी जा रही थी और हकीकत में थी भी. फिर भी फिल्म को इसलिए पसंद किया गया, क्योंकि यह एक कुरीति के विरुद्ध कटु सत्य बयां करती थी.

‘निकाह’ के सफल होने की वजह एक ज्वलंत सामाजिक समस्या को बेहद सटीक अंदाज में पेश किया जाना था. प्रसिद्ध लेखिका अचला नागर द्वारा लिखित इस कहानी में तलाकशुदा औरत की बेबसी को सलमा आगा ने जीवंत कर दिया था.

मर्दों का समाज पर किस हद तक दबदबा है, यह भी फिल्म ने साबित किया था. क्योंकि परेशानी एक नहीं, बल्कि लाखों नीलोफरों की है, जो तलाक तलाक तलाक के बुरे दौर से गुजरती हैं तो कहीं की नहीं रह जातीं, न घर की न घाट की.

चूंकि फिल्म थी, इसलिए इस का अंत सुखद था. नहीं तो आमतौर पर ऐसा होता नहीं है कि कोई वसीम अपनी गलती और खुदगर्जी स्वीकार ले. 3 लफ्ज तलाक के कह कर बीवी को अपनी जिंदगी और घर से निकाल देना कोई मर्दानगी की नहीं, बल्कि सामाजिक तौर पर शर्मिंदगी और जलालत की बात है.

बी.आर. चोपड़ा की इस फिल्म में कई और भी दिलचस्प बातें थीं. मसलन पहली बार चरित्र अभिनेता इफ्तिखार ने नौकर का रोल किया था, नहीं तो वह अकसर पुलिस इंसपेक्टर, डाक्टर या जज के रोल में ही दिखाई देते थे.

दूसरे चोपड़ा साहब ने इस फिल्म का नाम पहले ‘तलाक तलाक तलाक’ रखा था, जिस पर उन के नजदीकी मुसलिम दोस्त ने चिंता जताते हुए कहा था कि ऐसे तो एक दिन में लाखों तलाक हो जाएंगे, क्योंकि मुसलमान दर्शक जब यह फिल्म देख कर घर पहुंचेंगे और बीवी के पूछने पर फिल्म का नाम बताएंगे तो वे ‘तलाक तलाक तलाक’ कहेंगे और शरीयत के मुताबिक उन का तलाक हो जाएगा. इस पर बी.आर. चोपड़ा ने फिल्म का नाम ‘निकाह’ रख दिया था.

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‘निकाह’ फिल्म के गाने आज 35 साल बाद भी शिद्दत से गाए और गुनगुनाए जाते हैं, जिन में सलमा आगा ने भी आवाज दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सलमा आगा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई भी दी थी और इस फैसले को औरतों के हक में राहत देने वाला बताया था.

35 सालों तक नीलोफर के सवाल जवाब तलाशते रहे, जिन्हें अब कानूनी जामा संसद पहनाएगी. इस पर विवाद और बहस जारी है. अपने हक की लड़ाई लड़ती औरतें अपनी दास्तां बयान कर रही हैं, पर क्या यह इतना आसान है? इस सवाल का जवाब बेहद निराशाजनक तरीके से न में निकलता है.

80 के दशक के एक शिक्षित मुसलमान परिवार में तलाक बड़ी आसानी से दे दिया जाता था तो अशिक्षित तबके में क्या कुछ नहीं होता होगा, इस का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि मर्द अपने दबदबे और शरीयत का किस तरह फायदा उठा रहे थे.

दहेज कानून के बाद भी दहेज हत्याएं जारी हैं, बहुएं जलाई जा रही हैं. ऐसे में क्या नए प्रस्तावित कानून के मसौदे से उम्मीद रखी जाए? तलाक के मुकदमे सालोंसाल चलते हैं, जिस का खामियाजा और तनाव मियांबीवी दोनों को भुगतना पड़ता है.

असल में फसाद की जड़ धर्म और कानून दोनों हैं. कानून बना तो मुसलिम औरतें और मर्द दोनों सालोंसाल अदालत के चक्कर काटते 3 तलाक के दिनों को याद करेंगे कि इस से बेहतर तो वही था. अगर भाग कर वे धर्म की शरण लेने को विवश होंगे तो यह उस कानून की हार होगी, जिस पर आज देश भर में जश्न मनाया जा रहा है.

औरत किसी कानून के बना देने से मुसीबतों से छुटकारा नहीं पा सकती, यह कहने और स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए. जब तक तलाक नहीं हो जाता, तब तक उस से कोई दूसरी शादी नहीं कर सकता. ऐसे में उस की हैसियत क्या होगी, कौन उसे छत और रोटी देगा, इस पर कानून शायद ही कुछ बोले या करे.

नीलोफर के सवालों के मुकम्मल जवाब अभी भी नहीं मिले हैं और न ही मिलने की उम्मीद है, क्योंकि समाज और धर्म पर कब्जा और दबदबा तो मर्दों का ही था, है और रहेगा. बहस तलाक के तरीके पर हो रही है, औरत की हैसियत सुधारने पर हर कोई खामोश है.

इन महिलाओं पर नहीं चलता इराकी शरीयत का कानून

इराक ऐसा मुसलिम देश है, जहां शरीयत कानून चलता है, जिस की वजह से वहां की महिलाओं पर तमाम पाबंदियां हैं. मसलन वे बिना बुरका पहने नहीं निकल सकतीं, इधरउधर घूम नहीं सकतीं, मर्दों के साथ पार्टियां नहीं कर सकतीं. वहीं दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है, जिस पर ये पाबंदियां लागू नहीं होतीं.

यह तबका है उच्चवर्ग का. उन के घर की महिलाएं चाहे जिस तरह का कपड़ा पहनें, जहां मन हो वहां आएंजाएं, बिना बुरका पहने घूमें, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं है. यही नहीं, वे शराब और सिगरेट भी पीती हैं, कोई कुछ नहीं कहता.

एक ही देश में भेदभाव के आधार पर शरीयत का कानून लागू करने वाली बात अजीब सी लगती है. जब शरीयत का कानून लागू होता है तो वह सभी के साथ होना चाहिए, इस में भेदभाव कैसा. बंदिशों की वजह से अनेक महिलाएं घुटघुट कर जी रही हैं. एक सामाजिक संस्था ने महिलाओं का सर्वे किया तो जानकारी मिली कि 17 फीसदी महिलाएं मानसिक परेशानियों से जूझ रही हैं. ये वही महिलाएं हैं, जिन पर शरीयत का कानून थोपा गया है.

ये आंकड़े पता चलने के बाद सन 2003 में कुछ सामाजिक संस्थाएं पिछड़े तबके की महिलाओं को आजादी दिलाने के लिए आगे आईं. संस्थाओं का कहना था कि अमीर घरानों की लड़कियों और महिलाओं की तरह पिछड़े वर्ग की लड़कियों और महिलाओं को भी आजादी मिले.

अमीर घरों की लड़कियां बुरका पहनना तो दूर की बात, वे आधुनिक फैशन के कपड़े पहन कर महंगी गाडि़यों में घूमने निकलती हैं. उन की आधुनिकता देख कर हर कोई यही समझेगा कि ये शरीयत का कानून वाले देश की नहीं, बल्कि अमेरिका या आस्ट्रेलिया की हैं.

इंस्टाग्राम पर richkidsofiraq नाम से चलने वाले एकाउंट पर जब आप इन उच्चवर्ग की लड़कियों, महिलाओं के फोटो देखेंगे तो यकीनन आप चौंक जाएंगे. जब इन लड़कियों पर कोई प्रतिबंध नहीं तो पिछड़े वर्ग की लड़कियों को सामाजिक और धार्मिक प्रतिबंधों में क्यों जकड़ कर रखा गया है.

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