Download App

मेरी जिंदगी में ऐसा कोई लम्हा नही आया, जिसे मैंने जिया ना हो: ईशान खट्टर

ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म ‘‘बियांड द क्लाउड्स’’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता ईशान खट्टर अब अपने करियर की दूसरी फिल्म ‘‘धड़क’’ को लेकर उत्साहित हैं. यह फिल्म मराठी की सुपर हिट फिल्म ‘‘सैराट’’ की रीमेक है, पर ईशान का मानना है कि फिल्म ‘‘धड़क’’, ‘‘सैराट’’पर आधारित एक नई फिल्म है.

फिल्म ‘‘बियांड द क्लाउड्स’’ में आपने काफी अच्छा काम किया था. फिल्म भी अच्छी बनी थी. पर दर्शकों ने इस फिल्म को पसंद नहीं किया. क्या वजह रही?

बाक्स आफिस की चीजें मेरे दायरे से बाहर हैं. मुझे बहुत ज्यादा इसकी समझ भी नही है. मुझे लगता है कि फिल्म का प्रचार सही नहीं हुआ. फिल्म को लेकर दर्शकों के बीच जिस ढंग की चर्चाएं होनी चाहिए थीं, वह नहीं हो पायी. जिसके चलते दर्शक समझ नहीं पाए कि यह एक हिंदी फिल्म है. जबकि मुझे उम्मीदें थी कि लोग इस फिल्म को देखेंगे और पंसद करेंगें. फिर भी जिन लोगों ने यह फिल्म देखी, उन्होंने मेरे अभिनय को सराहा है. बहुत अच्छा रिस्पांस मिला. लोगों को फिल्म की कहानी भी बहुत पसंद आयी. मेरे लिए अपने आपको इस फिल्म से जुदा करके देखना बहुत मुश्किल है. इस फिल्म को करने का मेरा तजुर्बा भी बहुत अच्छा रहा. आज की तारीख में मार्केटिंग बहुत मायने रखती है. लोगों के बीच फिल्म को लेकर जागरूकता पैदा करने में हम सब असफल रहे हैं. फिल्म का नाम अंग्रेजी में होने की वजह से शायद लोग अपने आपको फिल्म के साथ नहीं जोड़ पाए. बहरहाल, मैंने तो इस फिल्म से अपनी पूरी जिंदगी का पाठ सीखा है. मेरे साथ यह फिल्म हमेशा रहेगी. मेरे लिए यह फिल्म आज भी खास है और हमेशा खास रहेगी. पर इस फिल्म को लेकर आगे बहुत कुछ होने वाला है, जिसको लेकर मैं अभी से सारी चीजें उजागर नही करना चाहता.

करण जोहर ने आपको फिल्म ‘‘धडक’’ के लिए बुलाया था या किसी अन्य फिल्म के लिए?

करण जोहर के साथ मेरी पहली मुलाकात टीवी के रियालिटी शो ‘‘झलक दिखला जा’’के सेट पर हुई थी, जहां करण जोहर जी मेरे भाई शाहिद कपूर के साथ इस शो को जज कर रहे थे. उस वक्त मुझे इस बात का अहसास नहीं था कि करण जोहर मुझे लेकर फिल्म बनाने के बारे में सोच रहे हैं. कुछ दिन के बाद उन्होंने मुझे अपने आफिस मिलने के लिए बुलाया. उससे पहले हम एक दूसरे से अनभिज्ञ थे. पहली मुलाकात में हम दोनों ने एक दूसरे को जाना. मेरे बारे में उन्होंने तमाम सवाल किए. उसके बाद भी हमारी मुलाकातें होती रहीं. वह इस बात को जांचना व परखना चाहते थे कि क्या मैं इस काबिल हूं कि फिल्म में मैं बेहतर किरदार निभा पाउंगा? उस वक्त उन्होंने मेरे साथ एक दूसरी फिल्म बनाने की बात कही थी. तभी मैंने उनसे दरख्वास्त की थी कि मुझे निर्देशक शशांक खेतान से मिलना है. क्योंकि मुझे शशांक खेतान की पहली फिल्म ‘‘हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया’’ बहुत पसंद आयी थी. फिर वह लेखक व निर्देशक दोनो हैं, तो मैं उनसे मिलकर उनकी कार्यशैली व उनके बारे में जानना चाहता था. करण जोहर ने उनसे हमारी मुलाकात करवायी. पहली मुलाकात में ही शशांक खेतान मेरे दोस्त बन गए. फिर हमारी मुलाकातें होने लगी. एक दिन मराठी फिल्म ‘सैराट’ की स्क्रिनिंग में करण जोहर ने फिल्म देखने के लिए मुझे बुलाया था. मैं ओशिवरा में था. शशांक ने मुझे फोन किया कि हम लोग साथ में यहीं से चलते हैं. रास्ते में शशांक ने बताया कि वह इस फिल्म को बनाना चाहते हैं और फिल्म के हीरो के लिए उन्होंने मेरे बारे में सोचा है. फिल्म देखते हुए मैं पूरी तरह से उसमें डूब गया था. ‘सैराट’ बहुत ही कमाल और खूबसूरत फिल्म है. यह इतनी सशक्त फिल्म है कि इस फिल्म को लेकर मैं काफी देर तक बात नहीं कर पाया. करीबन आधे घंटे बाद मैं सही मायने में होश में आया और मैंने कहा कि मुझे यह फिल्म करनी है. उसके बाद शशांक खेतान से मेरी मुलाकातें कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी. फिल्म को लेकर वह मेरे साथ बातचीत करने लगे. उन्होंने बताया कि वह ‘धड़क’को ‘सैराट’ पर आधारित बनाना चाहते हैं. इसके लिए वह किस तरह के बदलाव कर रहे हैं, इस पर चर्चा की थी. उन्होंने कहा कि वह ‘सैराट’ के कथानक की आत्मा को लेकर अपने अंदाज में अपनी खुद की फिल्म बनाना चाहते हैं. मुझे लगा कि यह एक बहुत ही प्यारी और लोगों तक बतायी जाने वाली कहानी है. इसलिए मैंने इससे जुड़ने का निर्णय लिया.

‘‘सैराट’’ देखने के बाद किस बात ने आपको प्रभावित किया?

सबसे पहले तो मैं फिल्म के हीरो आकाश थोसार उर्फ पार्सया व अर्चना पाटिल उर्फ आर्ची की प्रेम कहानी पर यकीन करने लगा था. इस फिल्म ने मुझे अहसास दिलाया कि ऐसा हो सकता है. फिल्म में सामाजिक संदेश भी बहुत गजब का है. फिल्म में कहीं कोई भाषणबाजी नहीं है. यह फिल्म आपको अंदर से सोचने पर मजबूर करती है. इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुआ. इसके अलावा तकनीकी स्तर पर भी यह बहुत बेहतरीन फिल्म है. फिल्म के दोनों कलाकारों प्रशांत काले व रिंकू राजगुरू ने कमाल का अभिनय किया है. वैसा अभिनय हर कलाकार के बस की बात नहीं है. मुझे लगा कि इस फिल्म से प्रेरित कहानी को राजस्थान की पृष्ठभूमि में बताना अच्छा रहेगा. किरदार तो वैसे भी अच्छा था. इसके बाद जब मैंने शशांक के विचार सुने, उनकी सोच जानी. तब तो मैं इस फिल्म से जुड़ने के लिए पूरी तरह से बेताब हो गया.

फिल्म ‘‘सैराट’’ में जो सामाजिक संदेश है, वह धड़कमें किस रूप में आया है?

देखिए, फिल्म को लेकर सब कुछ बता कर मैं दर्शकों की उत्सुकता कम नहीं करना चाहता. लेकिन ‘धड़क’में ‘सैराट’की जो रूह है, वह आपको नजर आएगी. इसके अलावा कहानी, किरदार, लोकेशन को नए रंग प्रदान किए गए हैं. फिल्म का असली मुद्दा यह है कि प्यार नफरत से बढ़कर है, फिर चाहे आप किसी भी रूप में कहें. जातिगत या धर्म की नफरत से भी प्यार उपर है. हमारे देश में जिस तरह से इन दिनों जाति, धर्म, रंग आदि को लेकर नफरत का स्तर बढ़ा है, उसे देखते हुए ‘धड़क’बहुत ही समसामायिक फिल्म है. हम इस कहानी को भारत देश के किसी भी राज्य में ले जाकर बता सकते थे. यह फिल्म लोगों के दिलों को छुएगी. फिल्म में आनर किलिंग का मुद्दा भी है, जो कि राजस्थान में तो यह मुद्दा काफी गर्माया हुआ है.

फिल्म ‘‘धड़क’’ में आपका किरदार सैराट के किरदार से कितना अलग है?

दोनों किरदारों के बीच काफी समानता हैं और काफी अलग भी है. ‘धड़क’में मेरा किरदार मधुकर वाघेला का है, जो कि राजस्थानी लड़का है. झीलों की नगरी उदयपुर में रहता है. राजस्थान के लोगों में एक रायालिटी होती है, गर्व होता है, वह सब मधुकर में भी है. इसी के साथ मधुकर मासूम है. अपनी जिंदगी से खुश है.

आपने इस किरदार के लिए किस तरह से तैयारी की?

पहली बात तो शशांक खुद कलाकार को किरदार के लिए तैयार करने का अपना तरीका अपनाते हैं. वह खुद मारवाड़ी हैं, इसलिए उन्होंने इस फिल्म के किरदारों से मेवाड़ी भाषा बुलावाई है. वह चाहते थे कि उनके कलाकार इस तरह से तैयार हों कि शूटिंग के समय चाहे जो समस्या आए, परफार्मेंस अच्छी निकले. इसलिए उन्होंने हमारे साथ बैठकर पूरे डेढ़ माह तक सिर्फ पटकथा पढ़ते हुए चर्चाएं की. उसके बाद हम लोग एक माह तक उदयपुर में रहे. वहां के लोगों की जबान को समझा. उनकी चालढाल को समझा. वहां समय बिताकर हमने वहां के कल्चर को भी समझा. इससे हमारे अंदर वह किरदार अपने आप आता चला गया. लुक को लेकर निर्णय लेने में हमें सहूलियत हुई. मधुकर के किरदार के लिए मेरे बाल भी थोड़े रंगे गए. पहली बार मैंने आंखों में कांटैक्ट लेंस पहना. वहां के लोग कानों में बालियां पहनते हैं, इसलिए मुझे भी कान में छेद करवाकर बालियां पहननी पड़ी. जो ज्वेलरी लोग वहां पहनते हैं, वह सब हमने जयपुर से खरीदी थी. वहां लोग जिस तरह के कपडे़ पहनते हैं, उसकी हमने तस्वीरें खींची. यानी कि निर्देशक के साथ साथ हमने भी काफी रिसर्च किया.

बियांड द क्लाउड्स’ की शूटिंग खत्म होते ही आपने धड़क’ की शूटिंग शुरू कर दी थी?

जी हां! दोनों फिल्मों की शूटिंग के बीच पांच माह का अंतराल रहा.‘बियांड द क्लाउड्स’ की शूटिंग खत्म होते ही मैंने कोशिश की कि आमिर का किरदार मेरी जिंदगी से हट जाए. फिर मैंने मधुकर वाघेला के किरदार के लिए तैयारियां शुरू कर दी. मैंने अपने आपको नए सिरे से ढूंढ़ना शुरू किया. फिर राजस्थानी दुनिया में घुलने मिलने की कोशिश की. किरदार की असलियत ढूंढ़कर स्क्रिप्ट के अनुसार जीने की कोशिश की.

आमिर और मधुकर में से किसके ज्यादा करीब हैं?

शायद मैं आमीर के काफी करीब हूं. मधुकर मुझसे काफी अलग हैं. इसलिए मधुकर के किरदार को निभाना मेरे लिए काफी चुनौती भरा रहा. मधुकर बहुत भोलाभाला युवक है. उसने जिंदगी को बहुत ज्यादा देखा नही है. पर जब वह प्यार में पड़ता है, तो उसकी जिंदगी बदलती है. उसकी जिंदगी अचानक एक लम्हे में उसे बड़ा हो जाने का अहसास दिलाती है, जिंदगी की असलियत से वास्ता होते ही उसमें बदलाव आता है. अन्यथा आप हमेशा अपनी दुनिया में हवा में उड़ते रहते हैं. इंसान की जिंदगी का एक लम्हा उसे उसकी फैंटसी की दुनिया से बाहर ले आती है. जिंदगी की असलियत जब सामने आती है, तब जिंदगी ऐसा मोड़ लेती है कि आपका अपना सारा अहंकार अपने आप मिट जाता है. यदि मैं साधारण भाषा में कहूं तो हम अपनी औकात में आ जाते हैं. इस तरह की यात्रा को सिनेमा के परदे पर दिखाना बहुत कठिन रहा.

निजी जिंदगी में ऐसा कौन सा लम्हा था, जब आपने खुद को कमजोर महसूस किया?

देखिए, मेरी जिंदगी में कोई एक बदलाव नहीं आया. कई बदलाव आए. बचपन से ही मैंने अपनी मां को देखते हुए साहस सहनशक्ति सहित सब कुछ सीखा. मेरी जिंदगी में मेरी मां ही सबसे खूबसूरत इंसान हैं. उन्होंने ही मुझे जिंदगी के सारे पाठ पढ़ाए हैं. मैं कभी नहीं कहूंगा कि मेरी जिंदगी में बहुत कठिनाई थी. मेरी जिंदगी ने मुझे जो भी सिखाया, उसे मैंने सीखने की कोशिश की. मैं हमेशा अपनी हद में रहा. मेरी जिंदगी में ऐसा कोई लम्हा नहीं आया जब मैंने खुद को कमजोर महसूस किया हो या मेरी जिंदगी में कोई बहुत बड़ा बदलाव आया हो. फिलहाल मैं अपनी जिंदगी में ऐसे मोड़ पर हूं, जहां मुझे ऐसा काम करने का मौका मिला है, जिससे मुझे मोहब्बत है. मुझे लगता है कि अभिनय करने से जिंदगी बेहतर हो जाती है. किसी किरदार को निभाने से हम निजी जिंदगी में भी परिपक्व होते हैं. अनजाने में हमारी अपनी जिंदगी में भी बदलाव आते रहते हैं.

आपने दो निर्देशकों माजिद मजीदी और शशांक खेतान के साथ काम किया. इन दोनों के निर्देशन में आपने क्या अंतर पाया?

मजीदी साहब अपने साथ बहुत तजुर्बा लेकर आते हैं. वह एकदम यथार्थपरक फिल्म बनाते हैं. उनका नजरिया, कहानी बताने का तरीका बहुत खूबसूरत है. वह जज्बाती इंसान हैं. पूरे दिलों जान से काम करते हैं. वह बहुत वरिष्ठ हैं. फिर भी उनके अंदर मासूमियत है. वह अपने कलाकारों को इस बात का अहसास नहीं करवाते कि वह उनसे वरिष्ठ हैं. वह असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी हैं. जिंदगी को लेकर उनका नजरिया बहुत साफ और अच्छा है. पहली मुलाकात में मजीदी साहब ने मुझसे कहा था, ‘एक अच्छा कलाकार होने से ज्यादा जरूरी है कि आप पहले एक अच्छे इंसान बनें. आप जिंदगी में जो कुछ चाहते हैं, वह अच्छा इंसान होने पर ही पाएंगे.’

जहां तक शशांक की बात है, वह मेरी ही तरह युवा, जोशीले पर समझदार भी हैं. उनसे बात करके आपको लगेगा कि वह एक परिपक्व इंसान हैं. वह बहुत शांत स्वभाव के हैं, जल्दी जज्बाती नहीं होते, बदतमीजी से बात नहीं करते, समय के पाबंद हैं. मुझे इन दोनों के साथ काम करने में मजा आया.

अभिनय के साथ ही आपको नृत्य का भी पैशन है. शास्त्रीय नृत्य में आपकी कितनी रूचि है?

मैंने शास्त्रीय नत्य का प्रशिक्षण नहीं लिया है. मैंने लोगों को शास्त्रीय नृत्य सीखते हुए देखा जरुर है. मेरी मां ने भी मुझ पर कभी कत्थक आदि सीखने के लिए दबाव नहीं डाला. मेरा भी ऐसा रूझान नहीं रहा. मैंने पश्चिमी नृत्य का प्रशिक्षण ज्यादा लिया है. मैं फ्री स्टाइल नृत्य करता हूं. मेरी कोशिश अलग अलग प्रकार के नृत्य सीखने की जरुर रहती है.

हमारे यहां नृत्य प्रधान फिल्में भी बन रही हैं?

यह अच्छी शुरुआत है. नृत्य के प्रति जागरूकता बढ़नी चाहिए. शास्त्रीय नृत्य तो हमारी पहचान है. यह हमारी सांस्कृतिक विरासत है, जिसे सजा कर रखना चाहिए. मेरी राय में नृत्य को महज मनोरंजन या अर्थ के दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए.

टेस्ट सीरीज की शुरूआत से पहले ही टीम से बाहर हो सकता है ये खिलाड़ी

इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट सीरीज शुरू होने से पहले ही टीम इंडिया को बड़ा झटका लगा है. टीम के नियमित विकेटकीपर ऋद्धिमान साहा अपनी चोट से उबर नहीं पाए हैं और शायद वह इंग्लैंड के खिलाफ 5 टेस्ट मैचों की सीरीज से बाहर हो जाए. साहा को आइपीएल में सनराइजर्स हैदराबाद की तरफ से खेलते हुए चोट लग गइ थी और इसी वजह से वह आइपीएल के अंत के मैचों में भी नहीं खेल पाए थे. इसके अलावा वह अफगानिस्तान के खिलाफ टेस्ट मैच से भी बाहर रहे थे.

अब खबर है कि साहा इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट सीरीज से बाहर हो सकते हैं. साहा की जगह दिनेश कार्तिक को टेस्ट टीम में जगह मिल सकती है. कार्तिक इस समय वनडे सीरीज के लिए इंग्लैंड में ही है और उनका पहले टेस्ट में खेलना तय नजर आ रहा है. अगर साहा 25 जुलाई को एसेक्स के खिलाफ प्रैक्टिस मैच खेल पाते हैं तो ही वह पहला टेस्ट खेल पाएंगे. वैसे संभावना यही है कि कार्तिक को पहले टेस्ट की प्लेइंग इलेवन में जगह मिले.

sports

अगर साहा एक या दो मैचों के लिए बाहर हुए तो भी कार्तिक को रिजर्व विकेटकीपर के रूप में टीम में रखा जा सकता है लेकिन अगर साहा पूरी सीरीज से बाहर हुए तो पार्थिव पटेल को इंग्लैंड भेजा जा सकता है. पार्थिव पटेल ने आखिरी टेस्ट मैच साउथ अफ्रीका के खिलाफ इसी साल की शुरुआत में खेला था.

साहा ने भारत के लिए 32 टेस्ट मैच खेले हैं. इन मैचों में उन्होंने करीब 31 की औसत से 1164 रन बनाए हैं. इस दौरान वह 3 शतक और 5 अर्धशतक लगा चुके हैं. साहा को इस समय ना केवल भारत का बल्कि सर्वश्रेष्ट विकेटकीपर माना जाता है. खुद कप्तान विराट कोहली कह चुके हैं कि इस समय साहा से बेहतर विकेटकीपर भारत के पास नहीं है.

वहीं दिनेश कार्तिक को एत ऐसा क्रिकेटर माना जाता है जो काफी अपनी काबिलियल को अपने प्रदर्शन में तब्दील नहीं कर पाए हैं. कार्तिक ने भारत के लिए 24 टेस्ट में 27 की औसत से 1004 रन बनाए हैं, उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट अफगानिस्तान के खिलाफ खेला था. उस मैच में भी वह केवल 4 रन बना पाए थे.

कश्मीर की उलझन

जम्मूकश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाने को मजबूर होना पड़ना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की असफलताओं की सूची में एक और क्रमांक है. जैसे नोटबंदी, जीएसटी, स्वच्छ भारत, कालाधन, अच्छे दिन, सब का साथ सब का विकास आदि कर्मों व नारों से कुछ नहीं हुआ वैसे ही पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी के साथ मिल कर जम्मूकश्मीर में बनाई गई सरकार से नरेंद्र मोदी कुछ हासिल न कर पाए. साझा सरकार के दौरान राज्य में अशांति रही और विघटनवादी बढ़ते रहे. मोदी सरकार ने राष्ट्रपति से संस्तुति ले कर वहां राष्ट्रपति शासन लगवा दिया है. पर इस से कुछ होगा नहीं क्योंकि अब सेना ज्यादतियां करेगी तो अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बनेंगी.

जम्मूकश्मीर कमजोर नींव पर खड़ा है. 1947 से सरकारों ने इस को अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया है. भाजपा जब सत्ता में न थी तब उस ने काफी होहल्ला मचाया था कि कांग्रेस सरकार कमजोर दिल की है. पर जब भाजपा ने महबूबा मुफ्ती के साथ मिल कर वहां सरकार बनाई तो भी कश्मीर की जनता को भरोसा नहीं दिलाया जा सका कि पूरा भारत उस को बराबर का महत्त्व देता है और वह इस में सब के साथ रह कर ही खुशहाल रह सकती है. अगर धर्म के नाम पर कश्मीरियों को बहकाया जा रहा है तो इस का दोष भी भाजपा को दिया जाएगा क्योंकि वही पूरे देश में हिंदू पौराणिक धर्म लाने की बात करती रहती है. जब केंद्र की सरकार धर्म के इशारे पर चलेगी तो कश्मीर की जनता कैसे धर्म को त्याग कर आर्थिक विकास की खातिर विरोध करना छोड़ दे.

कश्मीर का इतिहास बहुत ही उलझा हुआ है. हो सकता है उसे सुलझाने में सदियां बीत जाएं और वहां की जनता न दिल्ली के और न ही किसी और के साथ चलना चाहे. यूरोप के कितने ही देशों में आज तमाम तकनीक, आर्थिक विकास, बराबरी के सिद्धांतों के रातदिन के रागों के बावजूद इतिहास की कब्रें खोद कर अपनी अलग राष्ट्रीयता की मांग की जा रही है. भारत में तो धर्म के अनुसार ही देश का विभाजन हुआ और उसी आधार पर हम पाकिस्तान को शत्रु

मान रहे हैं. कश्मीरियों को समझाना कि धर्म से विकास संभव नहीं, बहुत मुश्किल है. राष्ट्रपति शासन लगाने का लाभ भाजपा ने यदि देश के अन्य हिस्सों के चुनावों में उठाया तो बात और बिगड़ेगी. देश की रगों में वैसे भी विषैले कीटाणु भरे हैं और यदि ऐसे वायरस ज्यादा इंजैक्ट किए गए तो देश की रहीसही इज्जत भी धूल में मिल जाएगी.

घोटाले में फंस चुका पंजाब नेशनल बैंक बनाने जा रहा है ये नया रिकौर्ड

देश के सबसे बड़े बैंकिंग घोटाले में फंसा पंजाब नेशनल बैंक अब नया इतिहास रचने की तैयारी में है. दरअसल, अपने पिछले घाटे के रिकौर्ड से निकलकर पीएनबी अब मुनाफे का रिकौर्ड बना सकता है. यह एक ऐसा रिकार्ड होगा, जो शायद किसी बैंक ने नहीं बनाया होगा. क्योंकि, बैंक ने जनवरी-मार्च तिमाही नतीजों में 5367 करोड़ का शुद्ध घाटा दर्ज किया था. लेकिन, अब बैंक रिकौर्ड मुनाफा दर्ज करा सकता है. दरअसल, ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पीएनबी आने वाली जून-सितंबर तिमाही में 5000 करोड़ का शुद्ध मुनाफा घोषित कर सकता है.

क्या है ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट

ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पंजाब नेशनल बैंक आगामी तिमाही में दोबारा इतिहास रचने जा रहा है. पीएनबी जून-सितंबर तिमाही में देश के बैंकिंग इतिहास में किसी एक तिमाही में सबसे बड़ा मुनाफा दर्ज करने वाला है. हालांकि, इस मुनाफे को दर्ज करने के लिए बैंक ने अपनी कुछ एसेट्स बेचने का फैसला किया है. ब्लूमबर्ग रिपोर्ट के मुताबिक, पीएनबी ने जून से सितंबर महीने के बीच 5,000 करोड़ रुपए की आमदनी का लक्ष्य रखा हुआ है. संपत्तियां बेचकर और फंसे कर्जों की वसूली करके बैंक यह लक्ष्य हासिल करेगा.

बढ़ गई थी प्रोविजनिंग

business

रिपोर्ट के मुताबिक, पीएनबी अगर अपने मकसद में कामयाब होता है तो यह देश के बैंकिंग सेक्टर के लिए सबसे बड़ा तिमाही लाभ होगा. आपको बता दें, नीरव मोदी घोटाले के बाद पीएनबी को 3,281 करोड़ रुपए की प्रविजनिंग बढ़ाकर 11,380 करोड़ रुपए करनी पड़ी थी. उसके फंसे कर्ज की रकम भी एक साल में दोगुनी से ज्यादा हो गई थी. दरअसल, बैंक का एनपीए मार्च 2015 के आखिर में 25,695 करोड़ रुपए था, जो बढ़कर 55,818 करोड़ रुपए हो गया.

कहां से आएगा मुनाफा

रिपोर्ट के मुताबिक, पीएनबी की रिकौर्ड आमदनी का बड़ा हिस्सा उसकी हाउसिंग फाइनेंस यूनिट में हिस्सेदारी बेचने से आएगा. एक रिपोर्ट के मुताबिक, पीएनबी और कार्लाइल ग्रुप पीएनबी हाउसिंग फाइनेंस में कम-से-कम 51 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया शुरू करने की योजना बना रहे हैं. पीएनबी हाउसिंग फाइनेंस में पीएनबी बैंक का 32.79 प्रतिशत हिस्सा है, वहीं कार्लाइल ग्रुप की पेड अप इक्विटी शेयर कैपिटल में 32.36 प्रतिशत हिस्सेदारी है.’

पांचवीं सबसे बड़ी हाउसिंग फाइनेंस कंपनी

पीएनबी हाउसिंग फाइनेंस देश की पांचवीं सबसे बड़ी हाउसिंग फाइनेंस कंपनी है. 31 मार्च तक कंपनी के पास 62,252 करोड़ रुपए का एसेट अंडर मैनेजमेंट था. मई महीने में क्वॉलिटी इन्वेस्टमेंट होल्डिंग्स ने पीएनबी हाउसिंग फाइनेंस में 4.8 फीसदी ओपन मार्केट ट्रांजैक्शन के जरिए 1,024 करोड़ रुपए में बेच दी थी. अब पीएनबी और कार्लाइन ग्रुप अपनी हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया शुरू करने की योजना बना चुके हैं.

एसी कोच में सफर करना होगा महंगा, रेलवे कर सकता है बदलाव

ट्रेन के एसी कोच में सफर करना अब महंगा हो सकता है. रेलवे ने एसी ट्रेनों और कोचों में दी जाने वाली बेडरोल किट के चार्ज बढ़ाने की तैयारी कर ली है. वातानुकूलित ट्रेन गरीब रथ एक्सप्रेस के टिकट के दाम में ही बेडरोल का दाम जल्द ही जोड़ा जा सकता है. रेलवे एक दशक पहले तय हुए बेडरोल के 25 रुपए के किराए को भी बढ़ाने पर विचार कर रहा है, जिससे किराए में खासी बढ़ोतरी हो सकती है. रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी ने यह जानकारी दी.

नियंत्रक एवं लेखा महापरीक्षक की ओर से इस चार्ज में बीते 12 सालों से कोई बदलाव न किए जाने पर सवाल उठाने के बाद यह फैसला लिया गया है. कैग ने सिफारिश की है कि इस चार्ज को भी ट्रेन के किराये में ही जोड़ा जाना चाहिए.

दूसरी ट्रेनों में भी होगा शुरू

उन्होंने कहा कि कपड़े के रखरखाव की लागत में तीव्र बढ़ावा होने से यह समीक्षा दूसरी ट्रेनों में भी लागू हो सकती है. गरीब रथ ट्रेनों की तरह दूसरी ट्रेनों में भी बेडरोल की कीमतों में एक दशक में कोई इजाफा नहीं हुआ है. उप नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के कार्यालय से एक नोट आने के बाद यह विचार किया जा रहा है. इस नोट में पूछा गया था कि गरीब रथ में किराए का पुनरीक्षण क्यों नहीं किया गया और अनुशंसा की कि बेडरोल की लागत को ट्रेन के किराए में शामिल किया जाए.

business

टिकट में जुड़ते हैं 25 रुपए

फिलहाल रेलवे सभी एसी कोचों में बेडरोल किट्स की सप्लाइ करता है और उनकी 25 रुपए कीमत टिकट में ही जोड़ी जाती है. हालांकि, गरीब रथ एक्सप्रेस और दूरंतो एक्सप्रेस जैसी ट्रेनों में ऐसा नहीं है, जहां यात्री किट की बुकिंग बिना कोई अतिरिक्त चार्ज दिए करा सकते हैं. एक समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक, डेप्युटी कैग ने हाल ही में कहा था कि बेडरोल के चार्ज में इजाफा किया जाना चाहिए. कैग का कहना था कि बीते 12 सालों में इनके चार्ज की कोई समीक्षा नहीं हुई है, जबकि तब से अब तक इनकी धुलाई और रखरखाव का खर्च काफी बढ़ चुका है.

6 महीने में जोड़ा जा सकता है टिकट

एक सीनियर रेलवे अधिकारी ने कहा, ‘हमें इस संबंध में नोट मिला है और हम इसकी समीक्षा कर रहे हैं. हमेशा के लिए कीमत एक जैसी नहीं बनी रह सकती. गरीब रथ जैसी ट्रेनों में भी बेड रोल के चार्ज की समीक्षा की जाएगी और आने वाले 6 महीनों में इसका चार्ज भी टिकट में जोड़ा जा सकता है.’ इस नोट में बेडरोल किट्स के चार्ज की समीक्षा करने की बात कही गई है. इस किट में दो चादर, एक तौलिया, कवर समेत एक तकिया और एक कंबल दिया जाता है. अधिकारी ने कहा, ‘कैग की ओर से भेजे गए पत्र में रेलवे से पूछा गया है कि वह बताए कि 2006 में गरीब रथ ट्रेनों की शुरुआत के बाद से इनके चार्ज की कभी समीक्षा की गई है या फिर नहीं.

पति पत्नी के नाजायज संबंध

शादी के बाद पतिपत्नी का एकदूसरे पर पूरा भरोसा करना जरूरी है, पर बदलते माहौल में यह मजबूत बंधन टूटने लगा है. समाज में नाजायज संबंध देखने को मिल रहे हैं. इन के जोखिम भरे नतीजे भी सामने आ रहे हैं. एकदूसरे की हत्या तक कर दी जाती है.

राजू की शादी एक 12वीं जमात पास लड़की से हुई थी. राजू किराना दुकान चलाता था. राजू की पत्नी पढ़ने में काफी तेज थी. वह खूबसूरत भी थी.

राजू ने पत्नी का बिहार पुलिस में नौकरी के लिए फार्म भरवाया. उसे तैयारी करवाने के लिए पटना में कोचिंग दिलवाई. पत्नी की नौकरी बिहार पुलिस में लग गई. राजू बहुत खुश हुआ.

राजू अपने गांव में किराना दुकान चलाता रहा. वह समय निकाल कर अपनी पत्नी से मिलने भी चला जाया करता था.

कुछ दिनों के बाद जब राजू अपनी पत्नी से मिलने गया तो उस ने राजू को फटकार लगा कर भगा दिया और बोली, ‘‘तुम अपना रास्ता देखो. मैं तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी. मैं ने किसी दूसरे के साथ शादी कर ली है.’’

राजू ने कुछ लोगों से पता किया तो उसे मालूम हुआ कि उस की पत्नी ने एक सबइंस्पैक्टर के साथ शादी रचा ली थी. राजू निराश हो कर घर लौट गया.

इरफान की उम्र तकरीबन 35 साल थी. उस की शादी 18 साला शबाना के साथ हुई थी. शबाना इरफान की ज्यादा उम्र की वजह से नाराज रहती थी. लेकिन इरफान उसे दिलोजान से प्यार करता था. वह उस की हर फरमाइश पूरी करता था. पर शबाना को अपने बहनोई के भाई से प्यार हो गया था.

इरफान नौकरी करने कोलकाता चला गया. शबाना पूरी तरह आजाद हो गई और अपने बहनोई के भाई के साथ रंगरलियां मनाती रही.

जब इरफान कुछ दिनों के लिए अपने घर आया तो शबाना ने दूध में जहर दे कर उसे मार डाला और उस की मौत के एक साल बाद शबाना ने अपने बहनोई के भाई के साथ शादी रचा ली.

कौशल एक सरकारी स्कूल में टीचर था. उस की शादी जिस औरत के साथ हुई थी, वह सांवले रंग की और बहुत मोटी थी.

कौशल का संबंध अपनी बहन की ननद के साथ हो गया. वह अपनी बहन के परिवार वालों को पूरे भरोसे में ले कर जहां रहता था वहां उसे भी रखने लगा. कौशल ने उस लड़की के साथ कोर्ट में शादी भी रचा ली.

पहली बीवी को जब मालूम हुआ तो घर में कुहराम मच गया. कौशल को एक चाल सूझी. उस ने पैसे दे कर एक अपराधी से अपनी पहली बीवी की हत्या करवा दी.

पुलिस ने हत्या के मामले की तहकीकात की तो पता चला कि कौशल कुसूरवार है. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. कोर्ट ने उसे ताउम्र कैद की सजा सुनाई.

राजकिशोर रोजगार की तलाश में मुंबई चला गया और एक कपड़ा दुकान में बतौर सेल्समैन काम करने लगा. उसे कपड़ा दुकानदार की बेटी चाहने लगी. मौका पा कर वह उस से जिस्मानी संबंध भी बनाने लगा.

राजकिशोर की पत्नी गांव से जब फोन करती तो वह बेमन से बात करता. एक दिन लड़की की मां ने उन्हें संबंध बनाते देख लिया. उस ने अपने पति को बताया.

लड़की के पिता ने राजकिशोर की हत्या करवा दी. राजकिशोर के घर वाले आज भी इस इंतजार में हैं कि वह घर जरूर आएगा, पर उन्हें पता ही नहीं कि वह तो अब इस दुनिया में ही नहीं है.

इस तरह के सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं. अपने पति या पत्नी के रहते भी लोग दूसरे के साथ नाजायज जिस्मानी संबंध बना रहे हैं. क्या है इस की वजह:

* आजकल केवल मर्द ही नहीं, बल्कि औरतें भी छोटेमोटे लालच में दूसरे के साथ नाजायज जिस्मानी संबंध बनाने से परहेज नहीं कर रही हैं.

* कुछ मर्द अपनी पत्नी को बेवजह शक की नजर से देखते रहते हैं. औरतें चाहती हैं कि वे अपने पति से खूब बातें करें. लेकिन जब बातचीत नहीं हो पाती है तो रिश्तों में दरार आ जाती है और धोखा देने का डर बढ़ जाता है.

* शादी के बाद घर में अगर रोज झगड़ा हो रहा है, तूतूमैंमैं से बात मारपीट तक पहुंच जाती है, तो पतिपत्नी का एकदूसरे से विश्वास उठ जाता है. उन से हमदर्दी रखने वाले के प्रति उन का खिंचाव बढ़ता चला जाता है.

* अगर कोई मर्द या औरत अपने सैक्स पार्टनर से संतुष्ट नहीं हो पाता है तो दूसरे के साथ जिस्मानी संबंध बनाने का जोखिम बढ़ जाता है.

* शादी से पहले किसी लड़के को किसी लड़की के साथ या किसी लड़की को किसी लड़के के साथ प्यार है, वे एकदूसरे को भुला नहीं पाते हैं और उन का मिलनाजुलना जारी रहता है. कई मामलों में पहले प्यार की वजह से पति या पत्नी की हत्या तक करवा दी जाती है.

* आपस में विचारों का सही ढंग से तालमेल नहीं बैठने की वजह से भी झगड़े होते हैं. इस से बचने के लिए कई औरतें दूसरे मर्दों को अपनी परेशानियां बताती हैं. यह लगाव दोस्ती में बदल जाता है और जिस्मानी संबंध तक बन जाता है.

* बहुत से लोगों को दूसरों के साथ संबंध बनाने में ज्यादा मजा आता है.

* अचानक कोई दूसरा खूबसूरत दिखने लगता है. उस के बात करने का अंदाज या फिर उस के बरताव से उस की ओर खिंच जाते हैं. नजदीकियां बढ़ने लगती हैं. बाद में वे एकदूसरे को जिस्म सौंपने में गुरेज नहीं कर पाते हैं.

* पत्नी अपने बच्चों पर ज्यादा ध्यान देने लगती है. इस का नतीजा यह होता है कि पति नए रिश्ते की तलाश में दूसरी औरत के साथ संबंध बना लेता है.

* पति अपने काम में इतना मसरूफ रहता है कि अपनी पत्नी को वह समय ही नहीं दे पाता. इस की वजह से भी पत्नी का संबंध दूसरे के साथ बनने का जोखिम बढ़ जाता है.

* शादी के बाद बहुत से नौजवान काम की तलाश में अपनी पत्नी को छोड़ कर दूसरी जगह चले जाते हैं. कुछ तो शादी के बाद विदेश तक चले जाते हैं और कम से कम 3 साल बाद लौटते हैं. आपस में न मिल पाने के चलते किसी दूसरे के साथ संबंध बनने का डर मजबूत हो जाता?है.

शादी के बाद पतिपत्नी का एकदूसरे के प्रति वफादार रहना उन का फर्ज है, पर फैशन के दौर में किसी दूसरे के साथ नाजायज संबंध बनने का चलन बढ़ता जा रहा है जो समाज, परिवार और देश के लिए खतरनाक है.

नोटबंदी की बेवकूफी, फायदा बिचौलियों का

भोपाल के नजदीक मिसरोद इलाके की भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में एक किसान पद्म सिंह ने 20 अप्रैल, 2018 को डेढ़ लाख रुपए जमा कराए थे. मई के पहले हफ्ते में इस बैंक की मैनेजर मालविका धगत ने मिसरोद पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई कि पद्म सिंह द्वारा जमा कराए गए नोटों में 200-200 रुपए के 8 नोट नकली हैं.

पुलिस ने पद्म सिंह के खिलाफ मामला दर्ज करते हुए उन से पूछताछ शुरू की तो उन्होंने बताया कि ये नोट उन्होंने कोऔपरेटिव बैंक से निकाले थे.

पुलिसिया छानबीन में कोई ऐसी सनसनीखेज बात सामने नहीं आई कि पद्म सिंह का संबंध जाली नोट चलाने वाले किसी गिरोह से है जो देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर बनाने की साजिश रच रहा है. यह बात जरूर समझ आई कि नोटबंदी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फैसला एक धार्मिक कर्मकांड, यज्ञ, हवन जैसा था जिस का खमियाजा पद्म सिंह जैसे कई लोग अभी तक भुगत रहे हैं.

अगर पद्म सिंह यह साबित नहीं कर पाए कि ये नोट उन्होंने वाकई कोऔपरेटिव बैंक से निकाले थे तो मुद्दत तक थाने और अदालतों के चक्कर काटते हुए वे भी दूसरे करोड़ों लोगों की तरह नोटबंदी के फैसले को कोसते रहेंगे.

यह दलील भी किसी लिहाज से गले उतरने वाली नहीं है कि कोई किसान महज 1600 रुपए के नकली नोट चलाने के लिए डेढ़ लाख रुपयों में उन्हें मिलाएगा. वे उन्हें एकएक कर के कहीं भी खपा सकते थे, क्योंकि उन की तरह किसी को भी नए असली और नकली नोटों की पहचान करने का तरीका नहीं मालूम है.

सार यह है कि बड़े पैमाने पर नकली नोट चलन में आ चुके हैं और सरकार का यह दावा भी खोखला साबित हुआ है कि नोटबंदी से नकली नोटों का चलन बंद हो जाएगा.

नकदी की किल्लत

जाली नोट आम लोगों की समस्या नहीं है. उन की समस्या है नकदी का गहराता संकट जो अब आमतौर पर एटीएम से निकाली जाती है.

18 अप्रैल को अक्षय तृतीया पर देशभर में लाखों शादियां थीं. शादी वाले घरों में नकदी की जरूरत किसी सुबूत की मुहताज नहीं जहां कदमकदम पर नकद पैसों की जरूरत होती है.

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, गुजरात समेत कर्नाटक और तेलंगाना में लाखों लोगों की भीड़ एटीएम के आगे लगी थी. लोग शादी की खुशियां मनाना तो दूर नकदी के लिए तरस रहे थे. कई लोग दर्जनों एटीएम पर भटके और भागे, पर हर जगह ‘नकदी नहीं है’ की तख्तियां नोटबंदी के फैसले के मकसद का बखान कर रही थीं.

भोपाल के शाहपुरा इलाके के नौकरीपेशा राकेश सक्सेना की मानें तो उन की बेटी की शादी थी पर उन्हें नकदी के लिए इतना भटकना पड़ा कि वे दूसरी तैयारियों पर ध्यान नहीं दे पाए.

18 एटीएम खंगालने के बाद राकेश सक्सेना जैसेतैसे 20 हजार रुपए ही निकाल पाए, जो नाकाफी थे. बैंक गए तो मैनेजर ने भी मुंह की तख्ती से उगल दिया कि नकदी तो यहां भी नहीं है.

हालत 70-80 के दशक के सिनेमाघरों जैसी थी जब लोग फिल्म देखने के लिए लाइन में लगते थे और टिकट खिड़की तक पहुंचने के पहले ही हाउसफुल की तख्ती टंग जाती थी.

पर फिल्म और शादी में बड़ा फर्क है. फिल्म तो कभी भी देखी जा सकती है और न भी देखी जाए तो कोई हर्ज नहीं, पर शादी जो एक बार होती है, उस में नकदी जेब में न हो तो लोगों का आत्मविश्वास डगमगाना लाजिमी बात है. तब कहीं लोगों को जा कर समझ आया कि उन का जमा पैसा भी उन का नहीं है. पर क्या करें सिवा इस के कि समधियाने वालों से कहें कि साहब, यह नेग या रस्म उधारी में कर लो, नकदी आते ही भुगतान कर देंगे.

टैंट हाउस, कैटरिंग, पंडित समेत बैंडबाजे और ढोल वाले चैक नहीं लेते. इस से कैशलैस इंडिया की हवाहवाई सोच की पोल तो खुली ही, साथ ही करोड़ों और बद्दुआएं सरकारी खाते में जमा हो गईं लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.

कर्नाटक में तो इसलिए भी हालत बदतर थी कि वहां चुनाव के चलते लोग धड़ल्ले से नकदी निकाल रहे थे. पर दूसरे राज्यों में नकदी का संकट क्यों था, इस सवाल पर सरकार गोलमोल जवाब दे कर अपना पल्ला झाड़ती नजर आई.

जब नकदी संकट को ले कर हल्ला मचा तो सरकार बजाय सफाई देने के मुंह छिपाती नजर आई. अर्थशास्त्र की सरकारी भाषा से आम लोगों को कोई सरोकार नहीं था. एसबीआई की एक रिसर्च रिपोर्ट में यह कहा गया कि नकदी की कमी 70,000 करोड़ रुपए की है. यह रकम एटीएम से मासिक निकासी की एकतिहाई है.

एक और रिपोर्ट में कहा गया था कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 9.8 फीसदी हो तो मार्च, 2018 तक जनता के पास मौजूद नकदी 19,400 अरब रुपए की है. इस रिपोर्ट में ईमानदारी से माना गया था कि डिजिटल लेनदेन का आकार 1200 लाख रुपए है जो नोटबंदी के तुरंत बाद के महीनों से काफी कम है.

नकदी को ले कर त्राहि इतनी थी कि अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (एआईबीईए) ने तो परेशान हो कर रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के सिर नकदी संकट का ठीकरा फोड़ते हुए उन्हें पद से हटाने की मांग कर डाली.

संघ का आरोप था कि केंद्रीय बैंक के अनदेखी वाले रवैए के चलते देशभर में एटीएम खाली पड़े हुए हैं.

एआईबीईए के महासचिव एच. वेंकटचलम ने तो यह बयान तक दे डाला कि आरबीआई अप्रासंगिक बन गया है क्योंकि वह सरकार का पिछलग्गू बना हुआ है और अपनी ताकतों का इस्तेमाल नहीं करता है इसलिए हर मसले पर कमजोर साबित हो रहे आरबीआई गवर्नर को अपनी गलती मानते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए या उन्हें पद से हटा देना चाहिए.

नकदी की किल्लत को अर्थशास्त्र की भाषाई चादर से ढकने की नाकाम सरकारी कोशिशों से राकेश सक्सेना जैसे करोड़ों पीडि़तों और भुक्तभोगियों को न तो कोई मतलब था और न ही उन की परेशानियां इस से दूर हो रही थीं. वे तो बस नरेंद्र मोदी को कोस कर अपनी भड़ास निकाल रहे थे.

मुसीबत सहो, छुटकारा पाओ

नोटबंदी के वक्त पहले सख्त होते और बाद में रोतेगाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से वादा किया था कि इस से भ्रष्टाचार, आतंक, जाली नोटों का चलन वगैरह बंद हो जाएंगे. इस से थोड़ी सी परेशानी उठाने के बाद लोगों को राहत मिलेगी और देश बुलेट ट्रेन की तरह सरपट दौड़ेगा.

हकीकत सामने है कि भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों है, नकली नोटों का चलन आएदिन पद्म सिंह जैसे हजारों मामलों से उजागर होता रहता है, घूसखोरी का सूचकांक चरम पर है और आतंकवाद और फलाफूला है. अब भला किस की हिम्मत कि मोदीजी से पूछे कि क्या हुआ आप का वादा.

विपक्ष जरूर थोड़ा हमलावर हुआ जिस पर सरकार की तरफ से बयान आ गया कि हालत सुधर रही है. एटीएम में नोट पहुंचाए जा रहे हैं यानी स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है जैसी करार दे दी गई क्योंकि लोगों ने मान लिया है कि वे अपने पापों के चलते नकदी संकट की मुसीबत उठा रहे हैं. इन्हीं मुसीबतों को भोगने से पापों से छुटकारा मिलेगा इसलिए खामोशी से नोटबंदी को धार्मिक कर्मकांड मानते हुए स्वीकार लो, इस के सिवा और कोई चारा है भी नहीं.

लाख टके का सवाल यह उठ खड़ा हो रहा है कि नकदी की किल्लत हो या फिर कोई और परेशानी, लोग क्यों उन्हें चुपचाप अपने कर्मों की सजा मानते हुए स्वीकार कर रहे हैं? अभावों भरी और तकरीबन जानवरों सरीखी जिंदगी जीते भी वे खुश होने की ऐक्टिंग क्यों कर रहे हैं?

लोकतंत्र में अपने ही पैसों के लिए लोग तरसें इस से ज्यादा अलोकतांत्रिक बात और कोई हो भी नहीं सकती. पर चूंकि सरकारी ज्यादतियों और मनमानी को उन्होंने धर्म के रीतिरिवाजों की तरह स्वीकार लिया है और अपनी बदतर होती हालत और रोजमर्रा जिंदगी की परेशानियों को भी अपने कर्मों का फल मान लिया है, इसलिए जागरूकता और हकों की बात करना अभी बेमानी है.

मशहूर कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी लोकप्रिय कृति ‘मधुशाला’ में एक जगह लिखा है कि ‘पीड़ा में आनंद जिसे हो आए मेरी मधुशाला…’ यही हालत आम लोगों की है. वे सरकार द्वारा दी जा रही पीड़ा से आनंदित हो रहे हैं कि चलो,  पाप कट रहे हैं. इस के बाद तो कभी अच्छे दिन आएंगे.

धर्म भी यही कहता है कि कष्ट भुगत लो, फिर मोक्ष मिलेगा. अब सरकार भी यही कर रही है और लोग मान भी रहे हैं. रही बातें लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मौलिक अधिकारों वगैरह की तो वे इस नश्वर संसार में मिथ्या हैं, इसलिए गुलामों की तरह जिए जाओ, यही असली आनंद है.

हकीकत : मुनाफे की हवस में मरते मजदूर

दिल्ली देश की राजधानी है जहां पर देश के नियमकानून बनाने वाले और उन को लागू कराने वाले रहते हैं. देश के दूसरे हिस्सों में यह समझा जाता है कि दिल्ली में कानून व्यवस्था के हालात बेहतर हैं. पर कुछ घटनाओं पर हम नजर डालें तो यह सब खयाली पुलाव ही लगता है.

दिल्ली में आएदिन होती लूट और बलात्कार की घटनाएं तो रोजमर्रा की बात बन चुकी हैं, मुनाफे की हवस के चलते मजदूरों की आग में जल कर मरने की घटनाएं भी तेजी से बढ़ती जा रही हैं.

इन दोनों घटनाओं में यह भी एक फर्क है कि जहां पर लूट (सड़क पर छीन लेना या घर में घुस कर डकैती करना) पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पैदा की गई समस्या है, वहीं बलात्कार पूंजीवादी व बाजारवादी संस्कृति की देन है. मजदूरों का फैक्टरी में आग में जल कर मर जाना पूंजीवादी मुनाफे की हवस का नतीजा है.

9 अप्रैल, 2018 को सुलतानपुरी के राज पार्क में 4 मजदूर जल कर मर गए. सुलतानपुरी का यह इलाका एक मिडिल क्लास रिहाइशी इलाका है जहां पर तकरीबन 500 घर हैं. इन में से 100 से भी ज्यादा घरों में जूतेचप्पल, सिलाई और दूसरे कामों की फैक्टरियां चलती

हैं. इन में से ज्यादातर फैक्टरियों में जूतेचप्पल का काम होता है जिन में पेस्टिंग से ले कर सिलाई तक का काम होता है.

यहां पर काम करने वाले मजदूरों से न्यूनतम मजदूरी के आधे में 10 से 12 घंटे काम कराया जाता है. यहां पर ज्यादातर मजदूर पीस रेट या 5-7 हजार रुपए प्रति महीने पर काम करते हैं. मजदूरों को लालच दिया जाता है कि उन्हें रहने की जगह दी जाएगी.

शहर में रहने की समस्या से जूझ रहे मजदूरों के लिए रहने की जगह मिलना बहुत बड़ी राहत जैसी होती है जिस के चलते वे कम पैसे में भी काम करने को राजी हो जाते हैं.

मालिकों के लिए यह सोने पे सुहागा जैसे हो जाता है. उन को 24 घंटे का मुफ्त में मजदूर मिल जाता है जो किसी भी समय फैक्टरी में लोडिंग, अनलोडिंग, चौकीदार का काम करता है. इस के बदले इन को छत पर एक कमरा मिल जाता है जिस में 8 से 10 लोग रहते हैं और बनातेखाते हैं.

मालिक घर जाते समय फैक्टरी में बाहर से ताला लगा देते हैं. इस की 2 वजहें हैं. एक तो यह कि नए मजदूर कहीं काम अच्छा नहीं लगने के चलते भाग न जाएं, दूसरा यह कि मजदूर रात में चोरी न कर लें.

10 अप्रैल को सुलतानपुरी के राज पार्क में बने ए-197 मकान, जहां पर एक दिन पहले आग लगी थी की गली में सन्नाटा था. ए-197 के बगल वाले घर के सामने प्लास्टिक की 3-4 कुरसियां रखी थीं और गली के एक मुहाने पर कुछ लोग आपस में बातचीत कर रहे थे.

ए-197 मकान को देख कर पूछने की जरूरत नहीं थी कि इसी फैक्टरी ने एक दिन पहले 4 जिंदगियों को निगल लिया था. यह मकान चारमंजिला था. नीचे वाली मंजिल पर एक 4 फुट का गेट था. इस के अलावा ऊपर 2 रोशनदान लगे थे जो आग लगने से काले हो चुके थे.

लोगों ने बताया कि यह फैक्टरी बृजेश गुप्ता की है जो ए-83 में रहते हैं. ए-197 में चप्पल बनाने का काम होता है जिस में तकरीबन 30-35 मजदूर काम किया करते थे.

इस इलाके में रविवार को छुट्टी का दिन होता है लेकिन बहुत सी कंपनियों में काम होता है.

society

एक बड़े अखबार में छपी खबर के मुताबिक कारखाने में काम करने वाले मोहम्मद अली ने बताया कि यह फैक्टरी 15 सालों से चल रही थी और 8-9 अप्रैल की रात 2 बजे तक मजदूरों ने काम किया था. 9 तारीख की सुबह उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के अस्मदा गांव के मजदूर परिवारों के लिए बुरी खबर ले कर आई.

अस्मदा गांव के रहने वाले 18 साला मोहम्मद वारिस, 17 साला मोहम्मद अय्यूब, 20 साला मोहम्मद राजी व 17 साला मोहम्मद शान 10 तारीख की सुबह नहीं देख पाए और जल कर फैक्टरी के अंदर ही मर गए. कई लोग जान बचाने के लिए छत से कूदे जिस में उन को चोटें लगीं.

मोहम्मद वारिस और मोहम्मद अय्यूब दोनों सगे भाई थे जबकि मोहम्मद राजी व मोहम्मद शान चचेरे भाई थे.

सुलतानपुरी में आग लगने की यह कोई पहली घटना नहीं है. इस से पहले भी कई फैक्टरियों में आग लग चुकी है लेकिन कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हो पाने के चलते खबर नहीं बन सकी.

आसपास के लोगों के मुताबिक, इस फैक्टरी में सुबह के 6.30 बजे आग लगी. दमकल महकमे और पुलिस को सूचना 6.35 पर मिल चुकी थी.

लोगों का कहना है कि महल्ले के काफी लोग इकट्ठा हो गए थे, लेकिन बिजली कटी नहीं थी इसलिए लोगों ने आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की.

दमकल की दर्जनों गाडि़यों ने मिल कर तकरीबन 2 घंटे में आग पर काबू पा लिया. आग की चपेट में आए लोगों को संजय गांधी अस्पताल पहुंचाया गया, जिस में से 4 लोगों को डाक्टरों ने मृत घोषित कर दिया.

जनवरी, 2018 में ही बवाना के सैक्टर 5 में आग लगने से 17 मजदूरों की जान चली गई थी. इस घटना में भी कहा जाता है कि काफी तादाद में मजदूरों की मौत हुई, लेकिन फैक्टरी में जो मजदूर रहते थे उन का पता नहीं चल पाया.

इस से पहले पीरागढ़ी, मंडोली, शादीपुर, शाहपुर जाट वगैरह जगहों पर दर्जनों मजदूरों की जानें जा चुकी हैं.

बवाना, सुलतानपुरी, नरेला के बाद नवादा की क्रौकरी फैक्टरी में लगी आग ने 3 मजदूरों को निगल लिया है और 4 मजदूर लापता हैं. मालिक बाहर से ताला लगा कर काम करा रहे थे और दिल्ली व केंद्र सरकार सो रही थी.

सुलतानपुरी जैसे रिहायशी इलाके में इस तरह की घटना होती है तो किसी भी तरह के मजदूर से मिल कर कुछ पता करना तकरीबन नामुमकिन बात होती है.

राज पार्क में जाने पर वही लोग मिलते हैं जो आसपास फैक्टरियों के मालिक हैं. ये मालिक हर आनेजाने वाले बाहरी शख्स पर निगाह रख रहे होते हैं और अपनी बात सुनाते हैं कि मालिक की किस्मत खराब थी, जो वे फंस गए.

मीडिया वाले गलत बयान छाप देते हैं जैसे लड़के तो काम ही नहीं करते थे, वे तो घूमने आए थे, बाहर से कोई ताला बंद नहीं रहता था वगैरह. जब तक कोई बाहरी शख्स उस इलाके में रहता है ये लोग नजर बनाए रखते हैं कि वह कहां जा रहा है, किस से बात कर रहा है.

पास में खड़े एक आदमी ने इस मुद्दे को अलग रूप देने के लिए कहा कि हिंदुस्तान एक नहीं हो रहा है लेकिन सऊदी अरब एक करना चाहता है. उस आदमी का इशारा हिंदूमुसलिम मुद्दा उठाने का था.

इस से हम जान सकते हैं कि इस तरह की सोच रखने वाले शख्स मोहम्मद वारिस, मोहम्मद अय्यूब, मोहम्मद राजी व मोहम्मद शान की मौत पर किस तरह सोचते होंगे?

गांधी नगर रेडीमेड कपड़ों का जानामाना बाजार है. इस बाजार में खबरें एक कोने से दूसरे कोने तक नहीं पहुंच पाती हैं. 22-23 अप्रैल, 2018 की रात में लगी आग और 2 लोगों की मौत का पता तो बहुत लोगों को नहीं था कि यहां  पर आग भी लगी है.

कुछ लोगों को मीडिया से पता भी चला तो उन को यह मालूम नहीं था कि आग किधर लगी है और कितना नुकसान हुआ है. काफी लोगों से पूछने के बाद एक नौजवान ने बताया कि गुरुद्वारे वाली गली की तरफ आग लगी है.

गुरुद्वारे वाली गली में जाने के बाद एक जूस विक्रेता ने एक गली की तरफ इशारा करते हुए बताया कि उस घर में आग लगी है.

मकान नंबर 2490 का तो माहौल देख कर लग ही नहीं रहा था कि इसी मकान में 2 दिन पहले 2 लोगों की जिंदगी खत्म हो चुकी है. उस घर को देखने पर आग लगने का पता जरूर चल रहा था. बाकी सबकुछ सामान्य सा लग रहा था.

इस मकान के बगल में एक औरत ने बताया कि यहां पर 2-4 घर छोड़ कर हर घर में फैक्टरी व गोदाम हैं. 2490 नंबर मकान भी एक संकरी गली में है, जिस में चारपहिया वाहन भी मुश्किल से जा सकता है. यह मकान चारमंजिला है, जिस की 3 मंजिलों में फैक्टरी चलती है. सब से ऊपर वाली मंजिल पर मकान मालिक खुद रहते हैं.

इन इलाकों में श्रम कानून का पालन नहीं हो रहा है. मजदूरों को 8-10 हजार रुपए प्रति महीने दे कर काम कराया जाता है.

साप्ताहिक छुट्टी के अलावा और कोई छुट्टी नहीं दी जाती है. यहां तक कि इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी इस मकान को जांच के लिए सीलबंद करना उचित नहीं समझा गया. इस इलाके में चलने वाली हर फैक्टरी में रिहायश भी है, जो कभी भी दुर्घटना की एक बड़ी वजह बन सकती है.

किसी भी फैक्टरी में सुरक्षा मानकों का ध्यान नहीं रखा गया है. यहां तक कि इन मकानों के अंदर एक ही दरवाजा होता है और आग से बचाव के लिए कोई उपाय नहीं किया गया है.

दिल्ली में इतने बड़े पैमाने पर रिहायशी इलाकों में फैक्टरियां चल रही हैं जहां पर मालिक मनमाने तरीके से काम करते हैं और किसी तरह के श्रम कानून को लागू नहीं करते हैं.

दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार, दिल्ली नगरनिगम, प्रशासन चुप बैठे हुए हैं. क्या इस तरह की घटना प्रशासन और सरकार की मिलीभगत के बिना हो सकती है? इस तरह की घटना होने के बाद केवल मुआवजा दे कर सरकार अपनी जिम्मेदारी को पूरा होना मान लेती है.

क्या मुआवजा देने से ही मोहम्मद वारिस, मोहम्मद अय्यूब, मोहम्मद राजी व मोहम्मद शान जैसे लाखों मजदूरों को इंसाफ मिल पाएगा? सरकारें कब तक ऐसी फैक्टरियों को चलते रहने देंगी, जो श्रम कानूनों को ताक पर रख कर चल रही हैं? कब तक मजदूरों की आवास की मांग को श्रम कानून में एक अधिकार

के रूप में जोड़ा जाएगा? क्या इसी तरह मजदूर मरते रहेंगे और मजदूर, कर्मचारी यूनियनें हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेंगी?

इतनी पेचीदगी भरी क्यों है तलाक की प्रक्रिया, आइए जानते हैं

चिलचिलाती गरमी में 28 वर्षीय अध्यापिका मल्लिका अदालत के बाहर बैठी अपने केस की सुनवाई का इंतजार कर रही थी. पिछले कुछ महीनों में यह उस की 13वीं सुनवाई थी. वह अपने पति से तलाक, मासिक खर्च और अपने 3 वर्षीय बेटे की कस्टडी चाहती है.

मल्लिका जानती है कि अंतिम निर्णय आने में अभी कई महीनों या फिर साल भी लग सकते हैं. इस दीर्घकालिक प्रक्रिया में स्कूल से अवकाश लेना समय व धन दोनों का खर्च है. यों तो यह केस लंबा नहीं खिंचता, लेकिन कभी जज नहीं आता, तो कभी उस का पति.

मल्लिका का कहना है, ‘‘एक दिन ऐसा आया जब मेरे सब्र का बांध टूट गया और हम अदालत में खड़े हो गए. अदालत ने मुझ से सौम्य व्यवहार रखने को कहा और फिर हमें काउंसलिंग के लिए भेज दिया, क्योंकि फैमिली कोर्ट का यह आवश्यक भाग है. काउंसलर ने मंगलसूत्र न पहनने पर मुझ से कहा कि मैं अभी भी विवाहिता हूं और मंगलसूत्र न पहन कर भारतीय संस्कृति का अनादर कर रही हूं. काउंसलर ने मेरे पति से पूछा कि क्या वह मुझे प्रेम करता है, तो उन्होंने हां में जवाब दिया. काउंसलर ने फिर मुझ से पूछा कि फिर तुम्हें क्या चाहिए? तब मैं ने कहा कि मुझे सम्मान चाहिए. जब भी मैं सम्मान की बात करती हूं तो कोई कुछ नहीं बोलता, सब कुछ एकतरफा है.’’

2011 में वैलेंटाइन डे पर मुंबई निवासी 40 वर्षीय सिमरन ने भी मुंबई की परिवार अदालत में अपना वाद दाखिल किया है. वे अपने पति से तलाक तथा अपनी बेटियों की कस्टडी चाहती हैं. लेकिन वहां के न्यायाधीश ने भी पितृसत्तात्मक सलाह देते हुए उन से कहा कि तुम्हें किसी रेस्तरां में अपने पति के साथ बैठ कर भोजन करना चाहिए. तभी आपसी वार्त्तालाप के जरीए अपनी समस्या का समाधान निकालें. ऐसा करना बच्चों के भविष्य के लिए जरूरी है.

सिमरन ने घरेलू और यौन हिंसा का आरोप लगाया है. इन का कहना है कि काउंसलिंग के लिए भी हम कई चक्कर लगा चुके हैं. यह केवल समय की बरबादी है.

सितंबर, 2017 में उच्चतम न्यायालय ने आदेश पारित किया है कि एक बार जब किसी युगल के बीच तलाक अनिवार्य हो जाए और पतिपत्नी दोनों ही उस के लिए तैयार हों तो उन के लिए 6 माह की प्रतीक्षा अवधि जरूरी नहीं है. हमारे देश में इसे न्याय प्रणाली में बड़ी प्रगति के रूप में देखा गया है, क्योंकि यहां तलाक लेने में ही 2 से 12 वर्ष तक लग सकते हैं जोकि तलाक चाहने वाले व्यक्ति के लिए एक दु:स्वप्न बन जाता है.

3 दशक पहले वैवाहिक मामलों को सिविल कोर्ट से अलग कर फैमिली कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया था, जिस में मध्यस्थता और सलाह से मामलों को सुलझाया जाता था. लेकिन फैमिली कोर्ट की प्रणाली में भी विलंब होने लगा, जिस का मुख्य कारण न्यायाधीशों से ले कर टाइपिस्ट व अन्य कर्मचारियों तक की कमी थी, जिस कारण से विवादियों को अगली तारीख दे दी जाती है. चेन्नई की प्रत्येक अदालत में औसतन 70-80 मामले सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होते हैं, जिन में से कुछ ही मामलों की सुनवाई हो पाती है. शेष को स्थगित कर दिया जाता है.

बैंगलुरू निवासी अधिवक्ता रमेश कोठारी का कहना है कि फैमिली कोर्र्टों में सुधार की आवश्यकता है ताकि मामले ज्यादा लंबे न खिंचें. हमें जरूरत है समय सीमा निर्धारित करने की जो वादी के पक्ष में हो. उचित समय में मामलों का निबटारा हो जाना चाहिए विशेषकर घर खर्च और शिशु के आधिपत्य का. इन मामलों में युगलों का काफी अधिक समय बरबाद होता है.

रमेश कोठारी की बात का समर्थन करते हुए चेन्नई के एक वरिष्ठ आईटी अधिकारी रवि प्रसाद का कहना है, ‘‘मैं 5 सालों से अपने किशोर बच्चे के आधिपत्य के लिए लड़ रहा हूं, जो अपनी मरजी से मेरे साथ रहना चाहता है. लेकिन तारीख और कोर्ट मुलतवी के चक्कर में 2012 से अभी तक अंतिम निर्णय नहीं हुआ है. जबकि इस मामले में अपहरण और घरेलू हिंसा शामिल नहीं है. यों तो मैं ने अदालत के बाहर भी मामला सुलझाना चाहा, लेकिन मुझे लगता है कि मेरी पत्नी का वकील ऐसा नहीं कराना चाहता.’’

हकीकत यह है कि नई तारीख लगना, कोर्ट का मुलतवी हो जाना तथा सुनवाई में देरी, ये सब कुछ वकील के पक्ष में जाता है. अगली सुनवाई का मतलब है और फीस. इसी वजह से वकील मामलों को लंबा खींचते हैं, जो वादियों के लिए एक दुष्चक्र बन जाता है. जैसेजैसे मामला लंबा खिंचता है वैसेवैसे न्यायाधीश भी बदलते रहते हैं. इस से हर बार मामले को दोबारा पढ़ा जाता है, जिस में समय लगता है.

कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया

जहां तक न्याय में देरी की बात है तो कहीं न कहीं इस में हमारे समाज के आदर्श भी जिम्मेदार हैं, जिन में तलाक को बुरा समझा जाता है. फैमिली कोर्ट भी पहली शादी को बचाए रखने के लिए आपसी सुलह को बढ़ावा देती है, जोकि भारतीय संस्कारों पर आधारित है. वरिष्ठ अधिवक्ता सुधा राम लिंगम का कहना है कि सलाहकार और न्यायाधीश शादी को तोड़ने से पहले बचाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि न्यायशीलता आखिरकार समाज का दर्पण है जहां विवाह अटूट बंधन है न कि कानूनी अनुबंध.

मल्लिका और सिमरन जैसी वादी कभी न खत्म होने वाली सलाहकारी और मध्यस्थता से गुजर रही हैं भले ही वे इसे मानें या न मानें. अधिवक्ता सुधा का कहना है कि काउंसलिंग अगर व्यावसायिकों द्वारा दी जाए तो बेहतर है, क्योंकि कभीकभी युगल पुनर्मिलन या समझौते तक पहुंचना नहीं चाहते. उन्हें ऐसी स्थिति असमंजस में डाल देती है.

तमिलनाडु फैडरेशन औफ वूमन लौयर्स की अध्यक्ष सांता कुमारी ने अपने एक केस के बारे में बताया, ‘‘मेरी मुवक्किल 55 वर्षीय एक घरेलू महिला थी, जिस ने अपने पति से तलाक लिया. यह मामला अदालत में 10 साल चला. सभी का यही सवाल था कि इस उम्र में तलाक क्यों लेना चाहती हो? महिला का एक ही जवाब था कि वह अपने बच्चों को सुरक्षित देखना चाहती है तथा अब अपने तरीके से जीवन जीना चाहती है.’’

आज की कानूनी प्रक्रिया में अलग होना आसान नहीं है. यदि विवाह एक कर्म है और आप का संगी आप से अलग नहीं होना चाहता तब आप के पास व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग और पागलपन के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं, लेकिन इन्हें साबित होने में लंबा समय लगता है.

चेन्नई निवासी अधिवक्ता पूंगखुलाली बी. का कहना है कि 2013 में मद्रास विवाह कानून सुधार बिल तलाक के धरातल पर असाध्य माना गया. बिल का विरोध विभिन्न संगठनों द्वारा इसलिए किया गया कि इसे पारिवारिक मूल्यों और शादी की परंपरा के खिलाफ माना गया और फिर संस्कार आ कर खड़े हो गए.

यदि यह बिल पास हो जाता तो सैकड़ों युगलों के लिए तलाक लेना आसान हो जाता. चिंता की बात केवल एक थी कि यदि व्यक्ति एकतरफा निर्णय लेता तो महिला और बच्चों को खर्चा मिलना मुश्किल था.

समय के साथ चलें

अक्तूबर, 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि तलाक चाहने वालों को वीडियो कौन्फ्रैंसिंग की सुविधा मिलनी चाहिए तथा कोर्ट ने अपने अधीनस्थ कोर्टों को निर्देश दिए थे कि वे तलाक की सुनवाई के लिए युगलों को वीडियों कौन्फ्रैंसिंग की सुविधा उपलब्ध कराएं ताकि युगलों को शहर दर शहर धक्के न खाने पड़ें. कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के अधिनियम 1984 में समकालीन सामाजिक प्रवृत्तियों को भी स्पष्ट किया था. लेकिन एक अन्य बैंच ने प्रश्न उठाया कि इस से तो मामले की आत्मा ही मर जाएगी, क्योंकि फैमिली कोर्ट युगलों को आपसी सामंजस्य बैठाने की बात करता है.

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने व्याख्यान देते हुए कहा था कि नई तकनीक के प्रयोग से मामलों की विलंबता को कम किया जा सकता है और उन लोगों को मदद मिल सकती है, जिन्हें कोर्ट आने में दिक्कत होती है. खंडपीठ में यह बात कहने वाले चंद्रचूड़ अकेले थे, किंतु कोर्ट के लिए महत्त्वपूर्ण संदेश था. उन का कहना था कि युगलों के सुखी जीवन व्यतीत करने वाली बात स्कूल में परियों की सुनी हुई कहानियों जैसी है. लेकिन हम जानते हैं कि जीवन इतना आसान नहीं होता तथा सभी के वैवाहिक संबंध इतने अच्छे नहीं होते खासकर आज के समय में.

पारिवारिक न्यायालय जैसी संस्थाओं का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वे संकट में परिवारों को सेवा प्रदान करें तथा समाज की समस्याओं के निराकरण के लिए खुद को क्रियान्वित करें. वे अपनी बात इन शब्दों के साथ खत्म करते हैं कि न्यायालय को नृशंस का खात्मा कर देना चाहिए. अगर नहीं कर पाते हैं तो कालांतर में इस डिजिटल युग में यह हमारा पिछड़ापन है.

सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ध्वनिमत के साथ चंद्रचूड़ की भावनाओं से सहमति जताते हुए कहती हैं कि लोगों को उदार होना चाहिए. लोग तलाक के लिए जीवन भर इंतजार नहीं कर सकते. समय बदल जाता है. हम सब जानते हैं कि जीवन की शुरुआत या अंत केवल विवाह नहीं है.

राज्य अनुसार तलाक का प्रतिशत

भारत में बढ़ती तलाक दर खतरे की घंटी है. अधिवक्ताओं का कहना है कि बीते दशक में तलाक के मामलों में काफी वृद्धि हुई है. ‘भारत में विवाह विघटन’ नामक एक अध्ययन 2016 में इकौनोमिस्ट सूरज जैकब और मानव विज्ञानी श्रीपरणा चट्टोपाध्याय ने प्रस्तुत किया. इन्होंने 2011 की जनगणना के आंकड़ों को देखा और आश्चर्यजनक बात यह पाई कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में तलाक के प्रतिशत में कोई भिन्नता नहीं है.

ग्रामीण क्षेत्रों में तलाक की दर 0.82 % और शहरी क्षेत्रों में 0.89 % थी, जबकि राज्य में तलाक प्रतिशत में काफी अंदर है. दक्षिण और उत्तरी क्षेत्रों में तलाक की दर अधिक है. संपूर्ण भारत में तलाक की दर 0.24% है. सब से अधिक तलाक दर 4.08% मिजोरम में है, त्रिपुरा में 0.44% और केरल में 0.32% है. अनुसूचित जाति क्षेत्र छत्तीसगढ़ में 0.34% और गुजरात में 0.63% है.

निराला है यह स्वाद : स्पाइसी ऐप्पल

स्पाइसी ऐप्पल पकौड़ा

सामग्री

– 1 कप ओट्स आटा

– 2 बड़े चम्मच कौर्नफ्लोर

– 1 सेब कटा

– 1-2 हरीमिर्चें कटी

– 1/4 छोटा चम्मच दालचीनी पाउडर

– 1/4 छोटा चम्मच गरम मसाला

– तलने के लिए तेल.

विधि

ओट्स आटे में कौर्नफ्लोर, नमक, दालचीनी पाउडर, गरममसाला व हरीमिर्च मिलाएं. पानी के साथ गाढ़ा घोल बनाएं. इस में सेब डालें व अच्छी तरह मिलाएं. कड़ाही में तेल गरम कर चम्मच से घोल तेल में डाल कर पकौड़े तल लें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें