भोपाल के नजदीक मिसरोद इलाके की भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में एक किसान पद्म सिंह ने 20 अप्रैल, 2018 को डेढ़ लाख रुपए जमा कराए थे. मई के पहले हफ्ते में इस बैंक की मैनेजर मालविका धगत ने मिसरोद पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई कि पद्म सिंह द्वारा जमा कराए गए नोटों में 200-200 रुपए के 8 नोट नकली हैं.
पुलिस ने पद्म सिंह के खिलाफ मामला दर्ज करते हुए उन से पूछताछ शुरू की तो उन्होंने बताया कि ये नोट उन्होंने कोऔपरेटिव बैंक से निकाले थे.
पुलिसिया छानबीन में कोई ऐसी सनसनीखेज बात सामने नहीं आई कि पद्म सिंह का संबंध जाली नोट चलाने वाले किसी गिरोह से है जो देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर बनाने की साजिश रच रहा है. यह बात जरूर समझ आई कि नोटबंदी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फैसला एक धार्मिक कर्मकांड, यज्ञ, हवन जैसा था जिस का खमियाजा पद्म सिंह जैसे कई लोग अभी तक भुगत रहे हैं.
अगर पद्म सिंह यह साबित नहीं कर पाए कि ये नोट उन्होंने वाकई कोऔपरेटिव बैंक से निकाले थे तो मुद्दत तक थाने और अदालतों के चक्कर काटते हुए वे भी दूसरे करोड़ों लोगों की तरह नोटबंदी के फैसले को कोसते रहेंगे.
यह दलील भी किसी लिहाज से गले उतरने वाली नहीं है कि कोई किसान महज 1600 रुपए के नकली नोट चलाने के लिए डेढ़ लाख रुपयों में उन्हें मिलाएगा. वे उन्हें एकएक कर के कहीं भी खपा सकते थे, क्योंकि उन की तरह किसी को भी नए असली और नकली नोटों की पहचान करने का तरीका नहीं मालूम है.
सार यह है कि बड़े पैमाने पर नकली नोट चलन में आ चुके हैं और सरकार का यह दावा भी खोखला साबित हुआ है कि नोटबंदी से नकली नोटों का चलन बंद हो जाएगा.
नकदी की किल्लत
जाली नोट आम लोगों की समस्या नहीं है. उन की समस्या है नकदी का गहराता संकट जो अब आमतौर पर एटीएम से निकाली जाती है.
18 अप्रैल को अक्षय तृतीया पर देशभर में लाखों शादियां थीं. शादी वाले घरों में नकदी की जरूरत किसी सुबूत की मुहताज नहीं जहां कदमकदम पर नकद पैसों की जरूरत होती है.
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, गुजरात समेत कर्नाटक और तेलंगाना में लाखों लोगों की भीड़ एटीएम के आगे लगी थी. लोग शादी की खुशियां मनाना तो दूर नकदी के लिए तरस रहे थे. कई लोग दर्जनों एटीएम पर भटके और भागे, पर हर जगह ‘नकदी नहीं है’ की तख्तियां नोटबंदी के फैसले के मकसद का बखान कर रही थीं.
भोपाल के शाहपुरा इलाके के नौकरीपेशा राकेश सक्सेना की मानें तो उन की बेटी की शादी थी पर उन्हें नकदी के लिए इतना भटकना पड़ा कि वे दूसरी तैयारियों पर ध्यान नहीं दे पाए.
18 एटीएम खंगालने के बाद राकेश सक्सेना जैसेतैसे 20 हजार रुपए ही निकाल पाए, जो नाकाफी थे. बैंक गए तो मैनेजर ने भी मुंह की तख्ती से उगल दिया कि नकदी तो यहां भी नहीं है.
हालत 70-80 के दशक के सिनेमाघरों जैसी थी जब लोग फिल्म देखने के लिए लाइन में लगते थे और टिकट खिड़की तक पहुंचने के पहले ही हाउसफुल की तख्ती टंग जाती थी.
पर फिल्म और शादी में बड़ा फर्क है. फिल्म तो कभी भी देखी जा सकती है और न भी देखी जाए तो कोई हर्ज नहीं, पर शादी जो एक बार होती है, उस में नकदी जेब में न हो तो लोगों का आत्मविश्वास डगमगाना लाजिमी बात है. तब कहीं लोगों को जा कर समझ आया कि उन का जमा पैसा भी उन का नहीं है. पर क्या करें सिवा इस के कि समधियाने वालों से कहें कि साहब, यह नेग या रस्म उधारी में कर लो, नकदी आते ही भुगतान कर देंगे.
टैंट हाउस, कैटरिंग, पंडित समेत बैंडबाजे और ढोल वाले चैक नहीं लेते. इस से कैशलैस इंडिया की हवाहवाई सोच की पोल तो खुली ही, साथ ही करोड़ों और बद्दुआएं सरकारी खाते में जमा हो गईं लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.
कर्नाटक में तो इसलिए भी हालत बदतर थी कि वहां चुनाव के चलते लोग धड़ल्ले से नकदी निकाल रहे थे. पर दूसरे राज्यों में नकदी का संकट क्यों था, इस सवाल पर सरकार गोलमोल जवाब दे कर अपना पल्ला झाड़ती नजर आई.
जब नकदी संकट को ले कर हल्ला मचा तो सरकार बजाय सफाई देने के मुंह छिपाती नजर आई. अर्थशास्त्र की सरकारी भाषा से आम लोगों को कोई सरोकार नहीं था. एसबीआई की एक रिसर्च रिपोर्ट में यह कहा गया कि नकदी की कमी 70,000 करोड़ रुपए की है. यह रकम एटीएम से मासिक निकासी की एकतिहाई है.
एक और रिपोर्ट में कहा गया था कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 9.8 फीसदी हो तो मार्च, 2018 तक जनता के पास मौजूद नकदी 19,400 अरब रुपए की है. इस रिपोर्ट में ईमानदारी से माना गया था कि डिजिटल लेनदेन का आकार 1200 लाख रुपए है जो नोटबंदी के तुरंत बाद के महीनों से काफी कम है.
नकदी को ले कर त्राहि इतनी थी कि अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (एआईबीईए) ने तो परेशान हो कर रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के सिर नकदी संकट का ठीकरा फोड़ते हुए उन्हें पद से हटाने की मांग कर डाली.
संघ का आरोप था कि केंद्रीय बैंक के अनदेखी वाले रवैए के चलते देशभर में एटीएम खाली पड़े हुए हैं.
एआईबीईए के महासचिव एच. वेंकटचलम ने तो यह बयान तक दे डाला कि आरबीआई अप्रासंगिक बन गया है क्योंकि वह सरकार का पिछलग्गू बना हुआ है और अपनी ताकतों का इस्तेमाल नहीं करता है इसलिए हर मसले पर कमजोर साबित हो रहे आरबीआई गवर्नर को अपनी गलती मानते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए या उन्हें पद से हटा देना चाहिए.
नकदी की किल्लत को अर्थशास्त्र की भाषाई चादर से ढकने की नाकाम सरकारी कोशिशों से राकेश सक्सेना जैसे करोड़ों पीडि़तों और भुक्तभोगियों को न तो कोई मतलब था और न ही उन की परेशानियां इस से दूर हो रही थीं. वे तो बस नरेंद्र मोदी को कोस कर अपनी भड़ास निकाल रहे थे.
मुसीबत सहो, छुटकारा पाओ
नोटबंदी के वक्त पहले सख्त होते और बाद में रोतेगाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से वादा किया था कि इस से भ्रष्टाचार, आतंक, जाली नोटों का चलन वगैरह बंद हो जाएंगे. इस से थोड़ी सी परेशानी उठाने के बाद लोगों को राहत मिलेगी और देश बुलेट ट्रेन की तरह सरपट दौड़ेगा.
हकीकत सामने है कि भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों है, नकली नोटों का चलन आएदिन पद्म सिंह जैसे हजारों मामलों से उजागर होता रहता है, घूसखोरी का सूचकांक चरम पर है और आतंकवाद और फलाफूला है. अब भला किस की हिम्मत कि मोदीजी से पूछे कि क्या हुआ आप का वादा.
विपक्ष जरूर थोड़ा हमलावर हुआ जिस पर सरकार की तरफ से बयान आ गया कि हालत सुधर रही है. एटीएम में नोट पहुंचाए जा रहे हैं यानी स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है जैसी करार दे दी गई क्योंकि लोगों ने मान लिया है कि वे अपने पापों के चलते नकदी संकट की मुसीबत उठा रहे हैं. इन्हीं मुसीबतों को भोगने से पापों से छुटकारा मिलेगा इसलिए खामोशी से नोटबंदी को धार्मिक कर्मकांड मानते हुए स्वीकार लो, इस के सिवा और कोई चारा है भी नहीं.
लाख टके का सवाल यह उठ खड़ा हो रहा है कि नकदी की किल्लत हो या फिर कोई और परेशानी, लोग क्यों उन्हें चुपचाप अपने कर्मों की सजा मानते हुए स्वीकार कर रहे हैं? अभावों भरी और तकरीबन जानवरों सरीखी जिंदगी जीते भी वे खुश होने की ऐक्टिंग क्यों कर रहे हैं?
लोकतंत्र में अपने ही पैसों के लिए लोग तरसें इस से ज्यादा अलोकतांत्रिक बात और कोई हो भी नहीं सकती. पर चूंकि सरकारी ज्यादतियों और मनमानी को उन्होंने धर्म के रीतिरिवाजों की तरह स्वीकार लिया है और अपनी बदतर होती हालत और रोजमर्रा जिंदगी की परेशानियों को भी अपने कर्मों का फल मान लिया है, इसलिए जागरूकता और हकों की बात करना अभी बेमानी है.
मशहूर कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी लोकप्रिय कृति ‘मधुशाला’ में एक जगह लिखा है कि ‘पीड़ा में आनंद जिसे हो आए मेरी मधुशाला…’ यही हालत आम लोगों की है. वे सरकार द्वारा दी जा रही पीड़ा से आनंदित हो रहे हैं कि चलो, पाप कट रहे हैं. इस के बाद तो कभी अच्छे दिन आएंगे.
धर्म भी यही कहता है कि कष्ट भुगत लो, फिर मोक्ष मिलेगा. अब सरकार भी यही कर रही है और लोग मान भी रहे हैं. रही बातें लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मौलिक अधिकारों वगैरह की तो वे इस नश्वर संसार में मिथ्या हैं, इसलिए गुलामों की तरह जिए जाओ, यही असली आनंद है.