16 साल का सुगम परीक्षा देने जाने से पहले भगवान के सामने दीया जलाए और माथे पर तिलक लगाए बिना एग्जाम देने नहीं जाता. उस का विश्वास है कि ऐसा करने से उस की परीक्षा अच्छी जाएगी और वह अच्छे नंबरों से पास हो जाएगा. परीक्षा के समय शुभ शगुन के लिए वह अपनी मां के हाथ से दहीचीनी भी जरूर खा कर जाता है. उस की मां ने बचपन से जो भी रीतिरिवाज सिखाए हैं, उन का वह पूरी तरह से पालन करता है.

26 साल की तिथि कौर्पोरेट जौब करती है. उस के घर में बहुत सारे नियमकानून बने हुए हैं, जैसे कि गुरुवार को बाल नहीं धो सकते, नाखुन नहीं काट सकते. शनिवार को नौनवेज नहीं खा सकते वगैरह. तिथि को इस बात से बहुत चिढ़ होती है कि ये सब क्या है. क्यों वह गुरुवार को अपने बाल नहीं धो सकती और शनिवार को नौनवेज नहीं खा सकती? लेकिन न चाहते हुए भी उसे वह सब करना पड़ता है. कहें तो ये सारे रीतिरिवाज उस पर जबरन थोपे गए हैं.

परीक्षा देने जाते समय अतुल की बहन ने जब उस से आवाज लगा कर रुकने को कहा, तो वह अपनी बहन पर यह कह कर बरस पड़ा कि उस ने उसे पीछे से क्यों टोका. अब देखना उस का एग्जाम अच्छा नहीं जाएगा. और हुआ भी वही, अतुल का एग्जाम अच्छा नहीं गया. कारण जो भी रहा हो पर परीक्षा के अच्छा न होने का सारा इलजाम उस ने अपनी बहन पर लगा दिया कि उस ने पीछे से टोका, इसलिए वह फेल हो गया.

अब यह तो कोरा अंधविश्वास ही है. फेल तो वह इसलिए हुआ क्योंकि उस ने अच्छे से पढ़ाई नहीं की. मगर सारा दोष उस ने अपनी बहन पर मढ़ दिया कि उस के पीछे से टोकने के कारण वह फेल हो गया. वैसे, यह सीख अतुल को अपने पापा से ही मिली है. बाहर जाते समय जब कभी उस की मां उस के पापा को पीछे से टोक देतीं तो वे यह कह कर गुस्सा हो जाते थे कि ‘लो, पीछे से टोक कर अपशगुन कर दिया न.’ अतुल ने जो भी सीखा अपने मातापिता से ही सीखा.

23 साल की निधि कहती है कि उस की मां बेमतलब के रीतिरिवाजों को बहुत मानती है और उस पर भी ऐसा करने का दबाव बनाती है. जब भी वह मासिकधर्म में होती है, उसे किचन से दूर कर दिया जाता है. यहां तक कि वह घर के पुरुषों के सामने तक नहीं जा सकती है. उन का कहना है कि तुम, बस, एक कोने में पड़ी रहो. अजीबअजीब सी शंकाएं पाल बैठी हैं. निधि कहती हैं कि ‘डर लगता है मुझे कि कहीं आगे चल कर मैं भी अपनी मां की जैसी न बन जाऊं.

बिहार के मिथिला क्षेत्र, जिसे सीता माता का मायका कहा जाता है, आज भी नई बहू के आने पर उस के घुटने को जलती रूई की बाती से दागा जाता है. इन रीतिरिवाजों और परंपराओं को लोग जानने की कोशिश नहीं करते कि ऐसा करने के पीछे कारण क्या है. बस, पीढ़ीदरपीढ़ी वे निभाते चले आ रहे हैं.

बेमतलब के बहुत से रीतिरिवाज हमारे भारतीय परिवारों में देखने को मिलते हैं, जिन का कोई आधार नहीं होता. एक अध्ययन में यह बात सामने आ चुकी है कि लगभग 8 वर्ष तक बच्चे का दिमाग काफी तेज दौड़ता है. उसे जो बताया जाए, वह बहुत अच्छे से सीखता है और पूरी ज़िंदगी उसी का अनुसरण करता है.

इंटरनैशनल जर्नल औफ साइकोलौजी एंड बिहेवियोरल साइंसेज में छपे एक लेख में कहा गया है कि ‘अंधविश्वास और रीतिरिवाज की जड़ें हमारी प्रजाति की युवावस्था में हैं. संपत्ति के साथ मातापिता अपने बच्चों को रीतिरिवाज और परंपराएं भी सौंपते हैं. लेकिन इन परंपराओं के पीछे क्या तर्क है, वे यह नहीं बताते. हमारे समाज में और भी बहुत सी ऐसी प्रथाएं हैं जो हमारी संस्कृति, तरक्की और विकास पर सवालिया निशान खड़े करती हैं.’

रीतिरिवाज और परंपराएं तर्क को दबा देती हैं जिस से रूढ़िवादिता बढ़ती है. सतीप्रथा और बालविवाह जैसी प्रथाएं रूढ़िवादिता के कारण लंबे समय तक जारी रहीं. कई धर्मों में पशुपक्षी की बलि की परंपरा आज भी जारी है. महिला जननांग विच्छेदन की प्रथा अभी भी कुछ समुदायों में प्रचलित है. जाति के नाम पर औनर किलिंग आज भी हो रही है. आज भी कुछ स्थानों पर रीतिरिवाजों और पवित्रता के नाम पर जातिगत भेदभाव जारी है. धर्म और रीतिरिवाज के नाम पर आज भी कुछ जगहों पर देवदासी प्रथा कायम है.

रीतिरिवाजों के नाम पर बच्चों को अंधविश्वासी बनाना गलत है. अंधविश्वास किसी व्यक्ति या समाज की तार्किक सोच और विज्ञान से दूर रखने वाला है और यह बच्चों के मानसिक विकास के लिए हानिकारक हो सकता है.

मातापिता को चाहिए कि बच्चों पर रीतिरिवाज न थोपें, बल्कि उन्हें तर्क से समझाएं, ताकि वे खुद सोच सकें, आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपना सकें और सहीगलत के बीच फर्क कर सकें. जब बच्चों को अंधविश्वास में फंसाया जाता है, तो उन की मननशीलता, सोचने की क्षमता और स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति दब जाती है.

रीतिरिवाज और अंधविश्वास में जकड़े लोग अपनी जिंदगी में बहुत सी बेड़ियां खुद डालते हैं. उन में विश्वास की कमी आ जाती है. वे डर और भ्रम में जीने लगते हैं, जो उन के मानसिक विकास के लिए ठीक नहीं है. इसलिए बच्चों को सही ज्ञान, तर्क और सोचने की आजादी देने की कोशिश करनी चाहिए ताकि वे समझदारी से अपनी दुनिया को देख, परख सकें और बेमतलब के रीतिरिवाजों से बचे रह सकें.

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