Download App

आशा की नई किरण: भाग3

इस बात से स्वाति भड़क गई, ‘‘आप क्या समझते हैं, घर संभालने, सास की सेवा करने और लेखन कार्य करने मात्र से एक पत्नी के जीवन में खुशियां आ सकती हैं? इस के अलावा उसे और कुछ नहीं चाहिए? आप समझते क्यों नहीं कि एक स्त्री को इस के अतिरिक्त और भी कुछ चाहिए, उसे अपने पति से एक बच्चा भी चाहिए. वह मां बनना चाहती है. मां बन कर ही एक स्त्री को पूर्णता प्राप्त होती है.

‘‘इस घर में क्या हो रहा है, आप को दिखाई नहीं पड़ता? सासूमां मेरे बारे में क्याक्या बोलती रहती हैं, वह भी आप के कानों में नहीं पड़ता, क्योंकि आप ने अपनी आंखें और कान बंद कर रखे हैं. मेरी समझ में नहीं आता कि मेरे जीवन में आग लगा कर आप इतने निरपेक्ष कैसे रह सकते हैं. आप को पता है कि आप का रोग लाइलाज है परंतु अपनी नामर्दगी की सजा आप मुझे क्यों दे रहे हैं? मैं ने क्या अपराध किया है?’’ बोलतेबोलते स्वाति की आवाज भर्रा गई. वह पलंग पर बैठ कर सुबकने लगी. पीयूष ने उसे चुप कराने का कोई प्रयास नहीं किया और चुपचाप बाहर निकल गया. स्वाति ने नम आंखों से उसे बाहर जाते हुए देखा और उस का हृदय शीशे की तरह चटक गया. पीयूष के प्रति मन घृणा से भर गया. स्वाति की प्रिय सहेली नम्रता उसी के शहर में ब्याही थी. 2 साल का बच्चा था उस का. उस से यदाकदा बात होती रहती थी. उस के बेटे के जन्मदिन पर पीयूष के साथ गई थी. इधर मानसिक परेशानी और उलझनों के कारण उस ने नम्रता को काफी दिनों से फोन नहीं किया था. कुछ सोच कर उस ने नम्रता को फोन किया. हायहैलो के बाद स्वाति ने कहा, ‘‘मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘तो आ जाओ न यार, कितने दिन हो गए मिले हुए. मिल कर गपशप मारेंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे.’’

स्वाति जब नम्रता से मिलने गई तो वह उसे देख कर हैरान रह गई, ‘‘यह क्या स्वाति, इतनी कमजोर कैसे हो गई? बीमार थी क्या?’’ ‘‘सब बताऊंगी यार,’’ स्वाति ने फीकी मुसकराहट के साथ कहा. नम्रता का पति सरकारी नौकरी में उच्च पद पर था. उस वक्त वह घर पर ही था. स्वाति से अपने बेटे के जन्मदिन पर मिल चुका था. पहले वाली स्वाति और सामने बैठी स्वाति में जमीनआसमान का अंतर था. उस के चेहरे की चमक कहीं खो गई थी, आंखें कुछ ढूंढ़ती सी लगती थीं. होंठों में जैसे जमानेभर की प्यास भरी हुई थी, परंतु उन की प्यास मिटाने वाला कोई नहीं था. उस के होंठ सूखते जा रहे थे. स्वाति से बोला, ‘‘स्वातिजी, चांद में ग्रहण लगते तो देखा था, परंतु यह पतझड़ कहां से आ गया? आप का खूबसूरत चांद सा मुखड़ा कहीं खो गया है.’’ पीड़ा में भी स्वाति की हंसी फूट पड़ी. अमित की बात सुन कर उस का दर्द जैसे गायब हो गया. उस की तरफ प्यारभरी नजर से देखा और फिर शरमा कर बोली, ‘‘आप तो मेरे ऊपर कविता करने लगे.’’

‘‘अरे नहीं, ये तो तुम्हारे जीवन में बहार बन कर छाने की कोशिश कर रहे हैं. स्वाति, इन से बच कर रहना, ये बड़े दिलफेंक इंसान हैं. सुंदर लड़की देखते ही लाइन मारना चालू कर देते हैं.’’

‘‘ये तो खुद कह रहे हैं कि मैं पतझड़ की मारी हूं. मेरा चांद कहीं खो गया है. ऐसे में मेरे ऊपर क्या लाइन मारेंगे,’’ स्वाति ने दुखी हो कर कहा.

‘‘ऐसा न कहो, ये तो सूखे फूल में भी खुशबू भर देते हैं,’’ नम्रता जैसे अपने पति की पोल खोलने पर आमादा थी. स्वाति शर्म और संकोच में डूबती जा रही थी.

अमित ने पत्नी से कहा, ‘‘तुम इस बेचारी को क्यों परेशान कर रही हो. पहले इस के हालचाल तो पूछो कि इसे हुआ क्या है?’’ दोनों सहेलियां जब एकांत में बैठीं तो स्वाति ने अपने हृदय के सारे परदे उठा दिए, मन की सारी गुत्थियां खोल दीं. कुछ भी न रखा अपने पास. नम्रता की आंखों में आंसू छलक आए, उस की बातें सुन कर. कुछ सुनने के बाद बोली, ‘‘स्वाति, तुम सचमुच स्वाति नक्षत्र की तरह प्यासी हो. कौन जानता था कि एक सुंदर पढ़ीलिखी लड़की के जीवन में इस तरह की काली छाया भी पड़ सकती है. अब तुम क्या चाहती हो?’’

‘‘नम्रता, तुम मेरी सब से अच्छी सहेली हो, मैं तुम्हारी मदद चाहती हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारे लिए हर संभव मदद करूंगी. बताओ, कैसी मदद चाहती हो?’’

‘‘मैं जानती हूं, जो मैं तुम से मांगने जा रही हूं वह सहज ही किसी पत्नी को मंजूर नहीं होगा, परंतु मैं इस के लिए किसी कोठे पर नहीं बैठ सकती, किसी परपुरुष से संबंध नहीं बना सकती.’’

‘‘तुम क्या चाहती हो?’’ नम्रता ने धड़कते दिल से पूछा. उसे कुछकुछ समझ में आने लगा था.

‘‘मैं अपनी कोख भरना चाहती हूं, मातृत्व प्राप्त करना चाहती हूं.’’

‘‘यह कैसे संभव हो सकता है? तुम्हारा पति…’’

‘‘सबकुछ हो सकता है, मुझे तुम्हारा साथ चाहिए,’’ स्वाति ने उस की बात काट कर कहा. उस के स्वर में उतावलापन था, जैसे अगर जल्दी से अपनी बात नहीं कहेगी तो कभी कह नहीं पाएगी.

‘‘क्या तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड है, जिस के साथ…’’ नम्रता ने जानना चाहा.

‘‘अरे नहीं, बौयफ्रैंड पालना मेरे बस का नहीं. किसी परपुरुष से शारीरिक संबंध बनाना हर हाल में खतरनाक होता है. वह जीवनभर के लिए गले की हड्डी बन जाता है. संबंध तोड़ने पर ब्लैकमेल करने लगता है. मैं इतना बड़ा जोखिम उठा कर अपने परिवार को नष्ट नहीं करना चाहती हूं.’’

‘‘तो फिर मैं किस प्रकार तुम्हारी मदद कर सकती हूं?’’ नम्रता ने बेबसी से पूछा.

‘‘बस, कुछ दिन के लिए तुम्हें अपने हृदय पर पत्थर रखना होगा, कुछ दिनों के लिए तुम अपने पति को मुझे उधार दे दो. मैं उन के साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहती हूं. जब मेरी कोख भर जाएगी तो मैं उन से अपना संबंध तोड़ लूंगी,’’ स्वाति ने साफसाफ कहा. यह सुन कर नम्रता को चक्कर सा आ गया. वह विस्फारित नेत्रों से स्वाति को देखती रही. मुंह से एक बोल भी न फूटा. स्वाति ने उस के दोनों हाथ पकड़ कर अपने धड़कते सीने पर रख लिए और विनती सी करती बोली, ‘‘तुम मेरी इतनी सी बात मान लो, मैं तुम्हारी जीवन भर एहसानमंद रहूंगी. तुम यह सोच लेना कि जैसे तुम इस बारे में कुछ नहीं जानती हो.’’

नम्रता कुछ पल सोचती सी बैठी रही, फिर अपने हाथों से स्वाति के हाथों को थामते हुए कहा, ‘‘सुन कर बड़ा अजीब सा लग रहा है, बड़ा कठोर निर्णय है यह. एक पत्नी जानबूझ कर अपने पति को दूसरी स्त्री के बिस्तर पर लिटा दे, यह संभव नहीं होता परंतु मैं तुम्हारा दुख समझ रही हूं. उस की कसक अपने दिल में महसूस कर सकती हूं. अच्छा होता अगर तुम बिना बताए मेरे पति को अपने जाल में फंसा लेतीं. पीठपीछे पति क्या करता है, यह जब तक पत्नी को पता नहीं चलता, उसे दुख नहीं होता है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ विश्वासघात नहीं करना चाहती थी. मैं पूरी सुरक्षा के साथ यह सब करना चाहती हूं. अगर सबकुछ तुम्हारी जानकारी में होगा तो बाद में अमितजी से पीछा छुड़ाना मेरे लिए आसान होगा, वरना कहीं वे भी जीवनभर के लिए पीछे पड़ गए तो…’’ स्वाति ने स्पष्ट किया. नम्रता कुछ पल तक सोचती रही. उस के चेहरे पर तरहतरह के भाव आ रहे थे. स्वाति ने अधीरता से उस के हाथों को कस कर दबा दिया, ‘‘देखो नम्रता, मना मत करना, वरना मेरे जीवन का सारा आधार ढह जाएगा. मैं कहीं की न रहूंगी.’’

‘‘खैर, जब तुम ने मुझे सबकुछ बता ही दिया तो मैं तुम्हारी बात मान कर कुछ दिन के लिए अपने हृदय पर पत्थर रख लेती हूं, परंतु स्वाति, तुम स्वयं अमित को पटाओगी. मैं उन से कुछ नहीं कहूंगी. उन्हें यह बताना भी मत कि मुझे सबकुछ मालूम है. तुम उन से कहां मिलोगी, यह भी तुम तय करना. मुझे मत बताना.’’

स्वाति ने उस का माथा चूम लिया, ‘‘नम्रता, मैं जीवनभर तुम्हें सगी बहन की तरह मानूंगी.’’

स्वाति के लिए अमित को पटाना बहुत आसान सिद्ध हुआ. नम्रता ने सही कहा था कि वह बहुत दिलफेंक इंसान था. स्वाति के 2-3 फोन पर ही अमित उस से मिलने के लिए व्याकुल हो गया. स्वाति स्वयं प्यासी थी, सो उस ने भी सारे बंधन ढीले कर दिए और कटी पतंग की तरह अमित की बांहों में जा गिरी. जिस योजना के तहत स्वाति इस अनैतिक कार्य को अंजाम दे रही थी, वह समयसीमा में बंधा हुआ था. उस कार्य के पूर्ण होने का आभास होते ही उस ने अमित से दूरियां बनानी शुरू कर दीं. अंत में एक दिन उस ने अमित को अपनी मजबूरी बता कर उन से अपने संबंध तोड़ लिए. अमित समझदार पारिवारिक व्यक्ति ही नहीं एक जिम्मेदार अधिकारी भी था. उस ने स्वाति को आजाद कर दिया. गर्भधारण के बाद स्वाति के आचरण में स्वाभाविक परिवर्तन आने लगे थे. सासूमां को समझते देर न लगी कि स्वाति मां बनने वाली है. उन का मनमयूर नाच उठा. जो स्वाति अभी तक उन की आंखों में खटक रही थी, दुश्मन से बढ़ कर नजर आती थी, उस का परित्याग करने के मन ही मन मनसूबे बांध रही थीं. वही अचानक उन की आंखों का तारा बन गई. वह उन के लिए खुशियों का खजाना ले कर जो आने वाली थी. स्वाति की बलैयां लेते हुए सासूजी ने कहा, ‘‘नजर न लगे मेरी बेटी को. कितने दिन बाद तू खुशियां ले कर आई है. दिन गिनतेगिनते मेरी आंखें पथरा गईं. पर चलो, देर से ही सही, तू ने मेरी मुराद पूरी कर दी.’’

शाम को उन्होंने पीयूष से कहा, ‘‘तुझे कुछ पता भी है, बहू पेट से है. उस के लिए अच्छीअच्छी खानेपीने की चीजें ले कर आ. मेवाफल आदि.’’

पीयूष चौंका, ‘‘ऐं…’’ उसे सचमुच पता नहीं था. काफी दिनों से स्वाति और उस के बीच अबोला चल रहा था.

उस ने बड़ी मुश्किल से अपने मन को शांत किया. वह किसी को अपने मन की बात नहीं बता सकता था. कैसे बताता कि स्वाति के पेट में उस का बच्चा नहीं था? उसे यह दंश झेलना ही पड़ेगा. एक परिवार को बचाने और सुखी रखने के लिए यह अति आवश्यक था. वह अपनी मां की खुशियों को आग के हवाले नहीं कर सकता था. पिताजी नहीं थे. मां ही उस की सबकुछ थीं. जब तक जिंदा हैं, उन की खुशियों के लिए उसे भी खुश होने का दिखावा करना पड़ेगा. सासूजी रातदिन स्वाति की सेवा में लगी रहतीं. उस की हर चीज का खयाल करतीं, उसे कोई काम न करने देतीं. परंतु पीयूष उस से उखड़ाउखड़ा रहता, बात न करता. व्यवहार में इतना रूखापन था कि कई बार स्वाति का मन करता कि उस की पोल खोल दे, परंतु परिवार की प्रतिष्ठा और मर्यादा का खयाल कर वह चुप रह जाती. यह कैसी विडंबना थी कि जब तक स्वाति ने मर्यादा के अंदर रहते हुए अपने पति और सासू के लिए खुशियां बटोरनी चाहीं तो उसे दुखों के कतरों के सिवा कुछ न मिला. परंतु जब मर्यादा का उल्लंघन किया, सामाजिक मूल्यों को तोड़ दिया और एक अनैतिक कार्य को अंजाम दिया, तो सासूमां की झोली में खुशियों का अंबार लग गया. नियत समय आने पर स्वाति ने एक बच्ची को जन्म दिया. नर्स नवजात शिशु को तौलिए में लपेट कर लाई और दादी के हाथों में रख कर बोली, ‘‘मुबारक हो, पोती हुई है.’’

सुन कर सासूजी का हृदय धक से रह गया. चेहरे पर स्याही पुत गई. वे बच्ची की तरफ नहीं, नर्स की तरफ अविश्वास भरी नजरों से देख रही थीं, जैसे उस ने बच्चा बदल दिया हो.

नर्स बोली, ‘‘क्या दादीमां, आप मेरा मुंह क्यों ताक रही हैं?’’

‘‘दादीमां शायद सोच रही होंगी, यह लड़की कहां से पैदा हो गई. इन को पोते की चाहत रही होगी,’’ दूसरी नर्स बोली.

पहली नर्स ने कहा, ‘‘दादीमां, आप एक औरत हैं, फिर भी समाज और परिवार के लिए लड़की की महत्ता नहीं समझतीं. इतना जान लीजिए, लड़कों से ज्यादा खुशियां एक लड़की परिवार के लिए ले कर आती है. जब बेटियां घर में रह कर मांबाप की सेवा करती हैं, तब लड़के बाहर जा कर मटरगश्ती करते हैं. आप को तो खुश होना चाहिए कि आप की बहू ने एक बेटी को जन्म दिया है.’’ तीसरे दिन स्वाति बच्चे के साथ घर आ गई. स्वाति के मम्मीपापा और बहन भी साथ ही आए थे. वे बच्ची की छठी होने तक स्वाति के साथ रहना चाहते थे. सभी चाहते थे बच्ची की छठी धूमधाम से मनाई जाए. इन 3 दिनों में पीयूष की मम्मी का मन भी बच्ची की तरफ से साफ हो गया था. नर्सों की बातें उन के हृदय को छू गई थीं. उन्होंने खुशी मन से छठी मनाने की स्वीकृति दे दी परंतु पीयूष ने साफ मना कर दिया कि वह कोई जश्न नहीं मनाएगा. सभी के मुंह लटक गए. कारण पूछा तो बिना कुछ बोले बाहर चला गया. उस के बाहर जाने के बाद पीयूष की मां ने कहा, ‘‘उस के मनाने  न मनाने से क्या होता है. मेरे घर में पोती हुई है, तो जश्न मैं मनाऊंगी. समधीजी, आप सारी तैयारियां करवाएं.’’

रात को पीयूष काफी देर से घर लौट कर आया. सभी लोग उस का इंतजार कर रहे थे. खाना वह बाहर से खा कर आया था. उस ने किसी से बात नहीं की. सब ने खाने के लिए पूछा तो मना कर दिया और चुपचाप ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गया. सभी लोगों को उस के इस प्रकार के व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था. परंतु ऐसा वह क्यों कर रहा था, किसी को पता नहीं था. वह किसी को कुछ बता भी नहीं रहा था.

उस के मन की बात तो केवल स्वाति ही जानती थी. सभी लोग अपनेअपने कमरे में चले गए तो स्वाति बच्ची को सुला कर ड्राइंगरूम में आई. पीयूष एक सोफे में आंखें बंद कर के लेटा था. वह सोया नहीं था. विचारों के झोंके उसे सोने नहीं दे रहे थे. स्वाति उस के पैंताने बैठ गई और बोली, ‘‘मैं जानती हूं, आप दुखी हैं और मुझ से नाराज भी हैं, परंतु आप बताइए, इस के अलावा मेरे पास चारा क्या था?’’ आज उस ने अपनी चुप्पी तोड़ दी थी. काफी दिनों बाद वह पीयूष से बोली थी.

पीयूष थोड़ा कसमसाया परंतु बोला कुछ नहीं. स्वाति ने आगे कहा, ‘‘आप बताइए, अगर मैं ऐसा न करती तो क्या जिंदगी भर लांछनों के दाग ले कर घुटघुट कर जीती? मांजी के ताने आप ने नहीं सुने? मैं बांझ नहीं कहलाना चाहती थी और अगर आप से तलाक लेती तो आप की बदनामी होती. मुझे स्पष्ट कारण बताना पड़ता. तब बताइए, क्या आप इस समाज में एक प्रतिष्ठित जीवन जी पाते? आप कौन सा मुंह दुनिया को दिखाते और क्या मांजी पोतापोती का मुंह देखे बिना ही इस संसार से विदा न हो जातीं?’’

पीयूष ने हलके से सरक कर अपना सिर सोफे के पुट्ठे पर रख लिया. आंखें चौड़ी कर के स्वाति को देखा. वह गंभीर थी, परंतु उस की आंखों में एक अनोखी चमक थी.

वह कहती गई, ‘‘आप देख रहे हैं, मेरे एक अमर्यादित कदम से कितने लोगों के हृदय में खुशियों का सागर लहरा रहा है. सभी के चेहरों पर रौनक आ गई है. मांजी की खुशियों का आप अंदाज भी नहीं लगा सकते हैं.’’

पीयूष ने अचानक तड़प कर कहा, ‘‘परंतु एक बच्चे के लिए तुम ने अपनी इज्जत क्यों दांव पर लगाई? क्या हम निसंतान रह कर जीवन नहीं गुजार सकते थे?’’

‘‘गुजार सकते थे, परंतु तब मैं जीवनभर अपने माथे पर बांझ होने का कलंक ले कर जीती. उसे मिटा नहीं सकती थी. सासूजी जब तक जीतीं, उन के ताने झेलती. दुनियाभर की शक्की निगाहों के वार झेलती. आप को नहीं पता, वे तो मुझे तलाक दिलवा कर आप की दूसरी शादी तक करने की बात भी सोच रही थीं. क्या आप उन की खुशी के लिए दूसरी लड़की की जिंदगी बरबाद करते? आप शांत मन से सोचिए, यह बात केवल हम दोनों को मालूम है. ‘‘इस बच्ची को आप एक बार अपना मान कर देखिए, फिर उस के पालनेपोसने में जो खुशी आप को प्राप्त होगी वह किसी और चीज में नहीं प्राप्त हो सकती?’’

‘‘परंतु यह बच्ची मेरी नहीं है. इस में मेरा खून कहां है?’’ उस ने तर्क दिया.

‘‘इसे दत्तक पुत्री समझ कर ही अपनी मान लीजिए. इस बच्ची के शरीर में कम से कम मेरा खून तो है.’’

‘‘परंतु मैं अपने मन को कैसे समझाऊं?’’ पीयूष ने हताश स्वर में कहा.

स्वाति ने आगे सरक कर उस के सीने पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘आप को दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. ऐसा करने में ही हम दोनों की भलाई थी. अब समाज में हम इज्जत के साथ जी तो सकते हैं.’’

पीयूष ने तर्क दिया, ‘‘परंतु मुझे मानसिक कष्ट हुआ है.’’

‘‘सच है, परंतु आप का मानसिक कष्ट मेरे कष्ट से बढ़ कर नहीं है. अपनी कमजोरी के बारे में जानते हुए भी आप ने मेरे साथ शादी की और मुझे तानों, उलाहनों और लांछनों की आग में जलने के लिए छोड़ दिया. खैर, जो भी हुआ उसे भूल जाने में ही भलाई है. आप अपनी सापेक्ष सोच से अपने गमों को खुशियों में बदल सकते हैं.’’ पीयूष की सोच कुछकुछ बदलने लगी थी. स्वाति की नरम उंगलियां अब पीयूष के गालों को हौलेहौले सहला रही थी. काफी रात हो चुकी थी वह आंखें बंद कर के बोली, ‘‘मैं आप को विश्वास दिलाती हूं कि अब मेरे कदम कभी नहीं डगमगाएंगे. आप की उपेक्षा और मांजी के तानों से ऊब कर ही मैं ने बहुत कड़े मन से यह कदम उठाया था. अगर मैं ऐसा न करती तो आप की कमजोरी सभी को पता चल जाती या मैं जीवनभर बांझ औरत की लांछना ले कर जीने को मजबूर रहती. आप की इज्जत बची रहे और मेरे ऊपर लगे सारे लांछन मिट जाएं, इसलिए मुझे परपुरुष की बांहों का सहारा लेना पड़ा,’’ कहतेकहते स्वाति का स्वर भावुक हो गया. पीयूष ने अपने गालों पर उस की उंगलियों को थाम लिया और अगले ही क्षण स्वाति को खींच कर सीने से लगा लिया. आज की उजली भोर उस के लिए आशा की नई किरण ले कर आई थी.

coronavirus : भूख-प्यास से बिलबिलाते पशु

मनुष्य कोरोना से परेशान है और कुत्ते, बिल्ली, गाय जैसे पशु और पंछी भूख प्यास से परेशान हैं यानी ‘नानक दुखिया सब संसार।’ कोरोना के कारण देश भर में लॉक डाउन क्या हुआ जानवरों की जान आफत में फंस गई. तमाम होटल बंद, रेस्टोरेंट बंद, ढाबे बंद, रोड साइड पर खाने की रेहड़ियां बंद, मीट और अंडे की दुकाने बंद. ऐसे में इन सब पर खाने के लिए आश्रित जीव-जंतु भूख से बेहाल हो रहे हैं. तमाम शहरों में कुत्ते-बिल्ली और गाय पेट में भूख लिए दर-दर भटक रहे हैं. सड़कों पर जगह-जगल चिड़ियों के लिए रखे गए खाने पानी के बर्तन सूखे पड़े हैं. प्यासी चिड़ियें बड़ी उम्मीद से इन खाली कटोरों पर फुदक रही हैं कि कोई आकर इन्हे भर जाए मगर आदम जात कोरोना से डरा घर में बंद है. खिड़की से झाँक कर देखिये शहर का सन्नाटा आपके भीतर के सन्नाटे को और गहरा कर देता है.

दिल्ली के कीर्ति नगर इलाके में आर्य समाज मंदिर के सामने सुबह सुबह एक व्यक्ति ईरिक्शा पर प्लास्टिक के बड़े बड़े थैलों में स्ट्रीट डॉग्स के लिए दूध ब्रेड भर कर लाता था.उसके साथ मदद के लिए उसका नौकर भी होता था. उसकी आने की आहट मिलते ही गाड़ियों आदि के नीचे दुबके ढेरों कुत्ते पलक झपकते ही दुम हिलाते उसके इर्द-गिर्द जमा हो जाते थे. वह कई पॉइंट्स पर दूध ब्रेड मिक्स के थैले उलट देता था ताकि कुत्तों के बीच खाना पाने के लिए जंग ना हो और सबको खाना मिल जाए.पेट भर खाना मिलने के बाद इस इलाके के तमाम कुत्ते दिन भर आराम से सोते थे, मगर कोरोना की वजह से लॉक डाउन होने के बाद ये भूख से बिलबिलाते घूम रहे हैं.कोई उधर से निकल पड़ता है तो इस आशा में कि कुछ खाने को मिल जाएगा उसके पीछे लग जाते हैं. अधिकाँश लोग उनकी भूख को समझ नहीं पाते हैं और पीछे आते कुत्तों से या तो डर कर चीखने लगते हैं या पत्थर उठा कर उनपर वार करते हैं.इलाके में भूखे कुत्तों को ले कर दहशत फैली हुई है.

ये भी पढ़ें-#coronavirus: लॉक डाउन में मिडिल क्लास का दर्द

अब उधर से गुजरने वाले अधिकाँश लोग हाथ में पत्थर या छड़ी लिए दिख रहे हैं. इसी सड़क पर एक आर्य समाज मंदिर, एक गुरुद्वारा और एक सनातनी मंदिर एक के बाद एक लाइन से हैं. कोरोना के आगमन से पहले यहाँ आने वाले श्रद्धालु ही सड़क पर रखे बर्तनो में पानी-खाना डाल देते थे. कभी कभी ये काम मंदिर के कर्मचारी भी कर देते थे लेकिन जबसे मंदिर के कपाट बंद हुए हैं निरीह जानवरों को पानी भी नसीब नहीं हो रहा है.

यही हाल चाँदनी चौक, चावड़ी बाजार आदि जगहों का हैं.इन इलाकों में नॉनवेज खाने की सैकड़ों दुकाने हैं जो हर रात अपना बचा हुआ खाना यहां जमघट लगा कर बैठे भिखारियों और सड़क के जानवरों को डाल देते थे.अब जबकि सारे बाजार बंद हैं लिहाज़ा भूख से छटपटाते जानवर यहाँ लोगों के घरों के दरवाज़ों पर टकटकी लगाए खड़े हैं कि शायद कहीं से रोटी का टुकड़ा मिल जाए.छोटे शहरों में आज भी गृहणियां रात को बचा हुआ भोजन घर के बाहर रख देती हैं ताकि आवारा पशुओं का भी पेट भर जाए मगर दिल्ली जैसे कथित सुसभ्य सोसाइटीज की औरतों में ऐसा करने का रिवाज़ नहीं है.उनके मुताबिक़ ऐसा करने से सोसाइटी में गन्दगी फैलती है और आवारा जानवर इकठ्ठा हो कर वहाँ लोगों को परेशान करते हैं. जानवरों के प्रति स्नेह या हमदर्दी जैसे भाव अब लोगो में ख़तम होते जा रहे हैं. अब उन्हें प्यार नहीं दुत्कार ज़्यादा मिलती है. ज़्यादातर घरों में तो अब रोटियां भी गिन कर बनती हैं.अगर दो रोटी खाने वाले को थोड़ी भूख ज़्यादा हो और वो आधी रोटी और मांग ले तो गृहणी बोल पड़ती है कि पहले बताना था ना कि ढाई रोटी खानी है. अब आधी रोटी के लिए गैस ऑन करूँ? लो ब्रेड खा लो.

अब आप ही सोचिये आज जब घर में आदमी और बच्चों के लिए भरपूर रोटियां नहीं बनतीं तो आवारा पशुओं का ख़याल भला क्योंकर आने लगा? हमें याद है जब दादी रसोई बनाती थी तब पहली मोटी सी रोटी घी लगा कर अलग रख देती थी कि ये गाय को डालनी है और आखरी रोटी सेंक कर दूध की कटोरी में भिगो देती थी कि ये कुत्ते के लिए है. फिर हमें आवाज़ लगती थी कि जाओ चौराहे पर खड़ी गाय को खिला आओ और ये दूध की कटोरी बाहर दरवाज़े पर रख आओ कि कुत्ता खा ले. उसके बाद ही घर के लोगों को खाना मिलेगा. हम दौड़े जाते थे और दोनों को अपने हाथ से रोटी खिला कर आते थे. कभी ऐसा नहीं हुआ कि गाय ने सींघ मारे हों या कुत्ते ने दौड़ाया हो. वो तो बड़े प्यार से दुम हिलाता हमारे चक्कर काटता था. स्नेह से हाथ चाट लेता था.

ये भी पढ़ें-#coronavirus: भगवान नहीं विज्ञान दिलाएगा कोरोना से मुक्ति

माँ भी सूपे में चावल या दाल फटकते वक़्त टूटे कनकी चावल या दाल आँगन में बिखेर देती थीं कि चिड़ियें खा लेंगी.पानी के कटोरे मुंडेर पर हर सुबह ताज़े पानी से भर कर पिताजी रखते थे. आज अगर बच्चे घर की छत पर कुछ दाने बिखेर दें तो डांट पड़ती है कि कूड़ा मत फैलाओ, कामवाली ने इतना कचरा देखा तो कल से ना आएगी.

आज गृहणियां ना तो जानवरों का ख़याल करके रोटियां बनाती हैं और ना बच्चों को जानवरों के पास फटकने की अनुमति है.उन्हें डराया जाता है कि जानवर काट लेगा, उससे बीमारी हो जाएगी.बहुत दूरी हो गई है इंसान की प्रकृति के इन अनमोल रत्नो से.इसलिए हमें आज भूख से छटपटाते पशु-पक्षी नज़र ही नहीं आ रहे हैं. हमें सिर्फ अपनी फ़िक्र है। हम अपने घर के खिड़की-दरवाज़े बंद करके बैठे हैं कि कहीं कोरोना ना चिपट जाए.

#Lockdown: पिछले 21 दिनों से

मैं कमरे में पिछले 21 दिनों से बैठ इस बात का इंतजार कर रही हूं कि कब यह दरवाजे खुलें और मैं बाहर जा सकुं. एक बार फिर घूम सकूँ और उस गली में एक बार फिर खड़ी हो सकूँ जहां पेड़ के नीचे उस चबूतरे पर बैठ में इस बात का अंदाजा लगाया करती थी कि अब सामने गेट से कौन निकल कर आने वाला है. कितना अच्छा लगता था बाहर उस दुकान से जूस पीना जहां एक बार मैं ने खाँस दिया था तो अंकल ने मेरे हाथों पर पानी डाल मेरे हाथ धुलवाए थे.

मैं घर से निकल 15 मिनट तक रिक्शे पर बैठ उस रास्ते से मेट्रो तक जाया करती थी जिस के रास्ते में कई घर पड़ते थे जिन का चूल्हा आज भी सड़क पर बना था और जिन के बच्चे अधनंगे हो यहाँ से वहाँ फिरते थे. उस छोटे रास्ते के बाद आता था वह रोड जिस के दोनों तरफ बस पेड़ ही पेड़ थे पर आधे रास्ते पर कुछ टेंट भी थे जिन में वे लोग रहा करते थे जिन के घरों को तोड़ कर वो चौड़ी सड़क बनाई गई थी.

जब से कोरोना वायरस के चलते देश में लौकडाउन हुआ है तब से हम सभी का बाहर निकालना बंद है, खासकर दिल्ली में तो हालात इतने बुरे हैं कि बाहर निकलना मतलब कोरोना ले कर ही घर लौटना.

मुझे रिक्शे से उतर कर मेट्रो तक पहुँचने में 4 मिनट लगते थे. वह 4 मिनट का रास्ता जहां कभी मैं किसी से और कोई मुझ से टकराते टकराते रह जाता था और कभी कभी तो पीछे से कोई रिक्शा आता पों पों की आवाज निकालते हुए और मुझे गुस्से में किनारे होना पड़ता था.

मेट्रो पर लंबीलंबी कतारे लगती थीं उस समय. इससे मुझे याद आया कि एक बार मैं अपनी एक दोस्त के साथ मेट्रो चेकिंग लाइन में इतना पास खड़ी थी कि सेक्योरिटी गार्ड के हाथ की मशीन जोर से मेरे हाथ पर लगी थी, दर्द होने से ज्यादा उस समय हंसी छूट गई थी.

मेट्रो के अंदर खड़े हो कर दो ही काम थे जो मेरे दिमाग में कौंधते थे, पहला कि कोई किताब निकाल कर पढ़ लेती हूं या दूसरा कि गाने सुन लेती हूं. कभी कभी शाम को जब बहुत थक जाया करती थी तो इन में से कुछ नहीं होता था मुझ से और मैं बस खड़ेखड़े मेट्रो से देखा करती थी हर एक सड़क को, पुल को, ऊंची इमारतों और छोटेछोटे घरों को.

उन घरों में मुझे कभी लोग नजर नहीं आते थे, कोई कोई स्टेशन तो इतना पास था घरों के मगर फिर भी लगता जैसे उन घरों में रहने वालों को मेट्रो से गुजरने वालों को देखने में कोई दिलचस्पी नहीं हालांकि मुझे बहुत दिलचस्पी थी उन लोगों को देखने की. वे मुझे कभी दिखे नहीं वो अलग बात है.

ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष

मेट्रो से उतर औफिस जाने में गिनती के 7 मिनट का समय लगता था मुझे. इन 7 मिनटों में मेरे मन में 700 ख्याल घूमते थे. कभी में कोई एक सवाल खुद से पूछ लिया करती थी और पूरे रास्ते खुद को ही उस एक सवाल के अलगअलग जवाब दिया करती थी. मुझे याद आते हैं वे दिन जिन में मेरे कदम मेट्रो पर थम जाया करते थे और मुझे औफिस जाने का मन नहीं होता था.

एक बार तो मैं सचमुच भारी मन से औफिस की तरफ बढ़ रही थी और मुझे लगने लगा था जैसे मेरे कदम कहीं लड़खड़ा न जाएं और मैं गिर न पडूँ. गिर जाती तो शायद जिस हिम्मत से कदम राह पर बढ़ाए थे वो भी वहीं थाम लेती और रुक जाती.

ऐसे कितने पल याद आते हैं जिन में मैं देरी से सिर्फ इसलिए पहुंचती थी क्योंकि मेरे कदम उस राह पर चलने से मुकर जाते थे. सुबह भी तो बिस्तर पर पड़ेपड़े दिल कहता था कि आज नहीं और मैं अपनी आँखें एक बार फिर बंद कर लेती थी.

खैर, अब तो सब बदल चुका है. अब इस कमरे की चार दीवारें और डिजिटल स्क्रीन पर बाहरी दुनिया देखनी रह गई है. इस फोन की स्क्रीन पर फूल नजर तो आते हैं पर उन की खुशबू दूर दूर तक नहीं है, हवाओं से लहलहाते पेड़ दिखते हैं पर मेरे बाल थमे रहते हैं अपनी जगह और मुझे एहसास होता है कि इन पत्तों की तरह मैं आजाद नहीं हूं.

कभी कभी लगता है कुछ ही दिनों की तो बात है, कुछ ही दिनों की तो बात है, कुछ ही दिनों की तो बात है. एक ही बात बार बार दोहराने से भी मन को वो संतुष्टि नहीं मिलती जो मिलनी चाहिए. यह कुछ दिन जैसे खत्म ही नहीं होते.

ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष: भाग 1

आज सुबह भी पलंग के सिरहाने से लग लेटी हुई थी, आँखें सीलिंग पर लगे पंखे पर टिकाए. पंखा जैसे जैसे घूम रहा था वैसे वैसे पुराने दिनों की यादें मेरी आंखो के सामने आ रही थीं. पुराने दोस्त याद आ रहे थे जिन से मिले हुए बहुत दिन गुजर गए, लेकिन उन्हें मैसेज कर बात करने का मन नहीं होता. मन होगा भी कैसे,

ऐसा लगता है अब हमारे बीच बात करने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. पिछले दो सालों में जिंदगी कितनी बदल गई है. आज वो भी रहरह कर याद आ रहा है. सुबह से ही बारबार उस का चेहरा…. उस का चेहरा मेरे दिमाग में घूम रहा है.

यह उस कौन है? है कोई खास, इतना खास कि हर दिन मन उसे भूलने की ख्वाहिश करता है और हर दिन खुद से ही बेवफाई कर उसे याद करने लगता है. उस की आँखें, वो लाल सूर्ख आँखें और लहलहाते बाल जो मेरी नजर हमेशा ही अपनी तरफ खींच लेते हैं, बार बार याद आ रहे हैं.

उस से आखिरी बार बात कब हुई थी? अभी दो दिन पहले ही. हैरानी की बात है न कि दो साल से जिन से बात नहीं हुई वे दोस्त मुझे इतना याद नहीं आ रहे पर जिस एक शख्स से अभी दो दिनों पहले ही बात हुई है वह इतना याद आ रहा है. इस के पीछे कारण है, एक नहीं बल्कि कई कारण हैं इन उलझी हुई यादों के पीछे.

हम अच्छे दोस्त थे, हैं मेरा मतलब….हमेशा से बस दोस्त ही तो हैं. मेरी और उस की दोस्ती को 3 महीने ही हुई थे और मैं उसे अपना दिल दे बैठी थी. इस दिल के चक्कर में जो कुछ आगे हुआ उसे याद करना भी एक कारण है कि मेरी आज हालत ऐसी हो गई है.

उस ने कभी साफ शब्दों में कहा नहीं कि वह मुझे चाहता है और मैं साफ शब्दों में कहना चाहते हुए भी नहीं कह पाई. वह सुनना नहीं चाहता था. मेरे प्यार से घबराता था वो. कितनी बेतुकी बात लगती है कि कोई किसी के प्यार से भी घबरा सकता है.

उस ने मेरा हाथ पकड़ा, हम दोस्त रहे. उस ने मेरे गालों को चूमा, हम दोस्त रहे. उस ने मेरे अधरों पर अपने अधर रखे, हम दोस्त रहे. मैंने उसके जिस्म को छुआ, हम दोस्त रहे. मैंने उसे अपने मन का हाल बताया, हम दोस्त रहे. मैं ने उस के लिए आँसू बहाए, हम दोस्त रहे. वह मुझे छोड़ चला गया, हम दोस्त रहे. वह वापस लौट आया, हम दोस्त रहे. हम ने दिन साथ गुजारे एकदूसरे की बाहों में, हम दोस्त रहे. हम ने न कुछ वादे किए न निभाने की जरूरत पड़ी पर हम दोस्त रहे. दोस्त ही तो रहे हम हमेशा…पर मैं सिर्फ दोस्त नहीं रहना चाहती थी.

मुझे तो हमेशा से उस से प्यार था, वह जानता भी है इतना तो. मैं ने साफ शब्दों में कभी कहा नहीं लेकिन चीख चीख कर मेरी आँखें जब कहा करती थीं तो वह मेरी आँखें पढ़ता हुआ प्रतीत होता था. क्या सचमुच वह कुछ पढ़ नहीं पाया कभी? जबजब हम बात करते हैं मैं उस की बातों में बह जाया करती हूँ. वह एक मिश्री की ढली सा शब्द कहता है और मैं शहद भरे वाक्य लिखने लगती हूँ.

वह पूछता है कि क्या पसंद है मुझे उस में और में सिर से पैर तक उस की हर वो चीज जो मुझे पसंद है बताने बैठ जाती हूँ. कितनी पागल हूँ मैं. कबतक ऐसी रहूँगी समझ नहीं आता. झूठ भी तो कितने कहे हैं मैं ने अपने दोस्तों से. वे पूछते हैं क्या आज भी मैं उस से बात करती हूँ और मैं हमेशा न कह देती हूँ. कितनी झूठी और मक्कार हो गई हूँ मैं. कितनी बात झूठ तले यह सच्चाई छिपाउंगी कि जो मैं कर रही हूँ वह सही नहीं है और न कभी सही की गिनती मैं आ सकता है.

मैं हमेशा से सुनती आई हूँ कि कुछ रिश्ते दिल के होते हैं और कुछ जिस्मानी. हमारा रिश्ता तो न पूरी तरह दिल का है और न जिस्मानी. मैं तो उसे पूरे दिल से चाहती हूँ और जिस्म… हाँ, वह भी तो है इसमें. लेकिन, सिर्फ जिस्म हो ऐसा भी तो नहीं है न.

पिछले 21 दिनों में मैं ने एक बार भी उस से झगड़ा नहीं किया है. झगड़ा करने से डर लगता है. झगड़ा कर लूँगी तो हर मिनट उस का ख्याल मेरे दिमाग में घूमने लगेगा और मैं सिरदर्द को रोक नहीं पाऊँगी. जबजब दिमाग में यह बात आती है कि उस से बात नहीं कर सकती तबतब सीने में दर्द उठने लगता है, धड़कन पहले से ज्यादा साफ सुनाई देने लगती है और आँखें भारी होने लगती हैं. ऐसा लगता है जैसे मन पर किसी ने बहुत बड़ा पत्थर रख दिया है और उसे सिर्फ एक ही शख्स उठा सकता है. मैं वो दर्द एक बार फिर सहना नहीं चाहती.

ये भी पढ़ें-करो ना क्रांति 

मुझे डर लगने लगा है. मैं एक सामान्य, शांत, खुश रहने वाली लड़की हूँ पर जब उस से बात करना छोडती हूँ तो मैं सामान्य नहीं रहती. सबकुछ बदल जाता है मेरे अंदर. मुझे याद है जब मेरी और उस की लड़ाई हुई थी कुछ महीनों पहले और मुझे लगा था अब वह कभी नहीं आएगा. मुझे लगा था जैसे अब कभी वह मुझ से बात नहीं करेगा, मुझ से मिलेगा नहीं, मुझे चाहेगा नहीं. चाहा तो उस ने मुझे कभी नहीं, खैर. मेरी और उस की एक महीना बात नहीं हुई और मुझे लगा जैसे अब मेरा दिमाग मेरे काबू में नहीं है और हो सकता है मैं या तो जल्द ही पागल हो जाऊँगी या इस दर्द से मर जाऊँगी. हुआ दोनों में से कुछ नहीं क्योंकि एक महीने बाद ही मैं ने उसे मेसेज कर दिया और उस ने पहले नाराजगी दिखाई और फिर खुद मुझे मनाने लगा. अगले दिन हम साथ थे, एकदूसरे की बाहों में.

अब मुझ में हिम्मत नहीं उस से यह कहने की कि तुम मुझे नहीं चाहते और इस तरह आगे बढ़ना सही नहीं और हमें एकदूसरे से अलग हो जाना चाहिए. मैं कायर हो गई हूँ. मुझे उस से अलग होने से डर लगने लगा है. मैं टूट जाऊँगी और मुझे समेटने के लिए कोई नहीं होगा और खुद को समेटने का साहस मैं खो चुकी हूँ.

इस कमरे में पिछले 21 दिनों से मैं हर दिन यह कोशिश करती हूँ कि उसे कह दूँ कि अब और नहीं. कह मैं अबतक नहीं पाई. हर दिन उसे भूलने की कोशिश करती हूँ. भूल मैं अब तक नहीं पाई. उसे याद भी बहुत करती हूँ क्योंकि वह पास होकर भी पास नहीं है, वह मेरे पास शायद कभी होगा भी नहीं. शायद वह मेरा कभी नहीं होगा, शायद मैं आगे बढ़ जाऊँगी, शायद मैं इस डर पर काबू पा लूँगी पर कब…. पता नहीं.

आशा की नई किरण: भाग2

‘‘बस यही कि आप एक अच्छे डाक्टर से सलाह ले कर इलाज करवा लें और जब तक आप का इलाज चलता रहेगा, मैं अपने जौब पर वापस जा कर खुश रहने का प्रयास करूंगी.’’

पीयूष सोच में पड़ गया. स्वाति का काम पर जाना उसे पसंद नहीं था. दरअसल, वह अपनी यौन अक्षमता से परिचित था और वह नहीं चाहता था कि शादी के बाद स्वाति अन्य पुरुषों के संपर्क में आए. स्त्री की अधूरी इच्छाएं और कामनाएं उसे भटका सकती थीं. इन पर किसी स्त्री का जोर नहीं चलता.

‘‘बाहर जा कर काम करने की इच्छा तुम मन से निकाल दो,’’ पीयूष ने कुछ कड़े स्वर में कहा, ‘‘मां, कभी नहीं मानेंगी और अगर मैं ने इजाजत दी तो घर में बेवजह कलह पैदा होगा. परंतु मैं एक काम कर सकता हूं. तुम में रचनात्मक प्रतिभा है. मैं घर पर कंप्यूटर ला देता हूं. तुम लेखकहानी लिख कर पत्रपत्रिकाओं में भेजो. इस से तुम्हारे अंदर का रचनाकार जीवित रहेगा और तुम समय का सही उपयोग भी कर सकोगी.’’ स्वाति जो चाहती थी, यह उस का सही समाधान नहीं था. चौबीसों घंटे घर पर रहने से एकाकीपन और ज्यादा डरावना लगने लगता है. यों तो स्वाति के ऊपर बाहर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था परंतु पुरानी सहेलियों और मित्रों से संपर्क टूट चुका था. एकाध से कभीकभार फोन पर बात हो जाती थी. अब उसे अपने पुराने रिश्तों को जीवित करना होगा. जिस घुटनभरी मानसिक अवस्था में वह जी रही थी, उस में उस का बाहर निकल कर लोगों के साथ घुलनामिलना आवश्यक था, वरना वह मानसिक अवसाद के गहरे कुएं में गिर सकती थी. स्वाति ने बुझे मन से पति के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया परंतु मन में विद्रोह के भाव जाग्रत हो उठे. वह बहुत सीधी, सरल और सच्चे मन की लड़की थी. उस के स्वभाव में विद्रोही भाव नहीं थे. परंतु परिस्थितियां मनुष्य को विद्रोही बना देती हैं. स्वाति के पास विद्रोह करने के एक से अधिक कारण थे परंतु अपनी मनोभावना को उस ने पति पर प्रकट नहीं किया. स्वाति ने संशय से पूछा, ‘‘और आप ने अपने बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘अपने बारे में क्या सोचना?’’ उस ने टालने के भाव से कहा.

‘‘आप जानबूझ कर अनजान क्यों बन रहे हैं? क्या आप समझते हैं कि मैं इतनी भोली हूं और पुरुष के बारे में कुछ नहीं जानती. आप अपनेआप को किसी भ्रम में रखने की कोशिश न करें वरना मांजी पोतापोती का मुंह देखे बिना ही इस दुनिया से कूच कर जाएंगी.’’

पीयूष कुछ पल चुप रहा, फिर गंभीरता से कहा, ‘‘मैं अपना इलाज करवा लूंगा.’’

‘‘तो फिर कब चलेंगे डाक्टर के पास?’’ स्वाति ने उत्साह से कहा.

‘‘तुम क्यों मेरे साथ चलोगी? मैं स्वयं जा कर डाक्टर से सलाह ले लूंगा,’’ पीयूष की आवाज में बेरुखी साफ दिखाई पड़ रही थी.

स्वाति के मन में कुछ चटक गया. पतिपत्नी के प्रेम की डोर में एक गांठ पड़ गई. पीयूष ने दूसरे ही दिन एक डैस्कटौप कंप्यूटर, प्रिंटर के साथ ला कर घर पर लगवा दिया. स्टेशनरी भी रख दी. स्वाति ने अपने भावों को शब्दरूप में ढालना आरंभ किया. उस के लेखन को प्रकाशन के माध्यम से गति मिली. इस से काफी हद तक उसे मानसिक सुख और शांति का अनुभव हुआ. स्वाति अपनी दुश्चिंता और मानसिक परेशानी से बचने के उपाय ढूंढ़ रही थी, तो दूरी तरफ सासूमां उस की परेशानी बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थीं. जैसेजैसे महीने साल में बदल रहे थे, सासूमां की वाणी की मधुरता गायब होती जा रही थी. उन के मुंह से अब केवल व्यंग्यबाण ही निकलते थे. स्वाति को बातबात पर कोसना उन की दिनचर्या में शामिल हो गया था. सासूमां की कटुता स्वाति अपनी कहानियों और कविताओं में भरती रहती थी.

सासूमां अकसर टोकतीं, ‘‘स्वाति, कुछ घर की तरफ भी ध्यान दो.’’

‘‘मेरे बिना घर का कौन सा काम रुका पड़ा है?’’ स्वाति ने अब अपनी स्वाभाविक सरलता त्याग दी थी. वह भी पलट कर जवाब देने लगी थी.

‘‘शादी के कई साल हो गए. अभी तक एक बच्चा पैदा न कर सकी. घरगृहस्थी की तरफ कब ध्यान दोगी, बच्चे कब संभालोगी?’’

‘‘जब समय आएगा, बच्चे भी पैदा हो जाएंगे?’’

‘‘वह समय पता नहीं कब आएगा?’’ सासूमां बोलीं.

स्वाति कुछ नहीं बोली, तो सासूमां ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे पैर घर में टिकते ही नहीं, बच्चों की तरफ ध्यान क्यों जाएगा? बाहर तुम्हारे सारे शौक पूरे हो रहे हैं, तो पति से क्या लगाव होगा? उसे प्यार दोगी तभी तो बच्चे पैदा होंगे.’’ स्वाति ने जलती आंखों से सासूमां को देखा. मन में एक ज्वाला सी भड़की. इच्छा हुई कि सासूमां को सबकुछ बता दे, कमसेकम उन का कोसना तो बंद हो जाएगा, परंतु क्या वे उस की बात पर विश्वास करेंगी? शायद न करें, अपने बेटे की कमजोरी को वे क्यों स्वीकार करेंगी?

‘‘पता नहीं कैसी बंजर कोख ले कर आई है. ऊसर में भी बरसात की दो बूंदें पड़ने से घास उग आती है, परंतु इस की कोख में तो जैसे पत्थर पडे़ हैं,’’ सासूमां के प्रवचन चलते ही रहते थे. सासूमां की जलीकटी सुनतेसुनते स्वाति तंग आ चुकी थी. लेख, कविता और कहानी के माध्यम से मन की भड़ास निकालने के बाद भी उस के मन की जलन कम नहीं होती थी. दिन पर दिन स्वाति का मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा था. पीयूष की तरफ से उसे कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे थे. उस ने कहा था कि वह एक आयुर्वेदाचार्य से सलाह ले कर जननेंद्रियों को पुष्ट करने वाली कुछ यौगिक क्रियाएं कर रहा था और दूध के साथ कोई चूर्ण ले रहा था. स्वाति समझ गई, वह किसी ढोंगी वैद्य के चक्कर में फंस गया था. एक नियमित अवधि के बाद जब दोनों ने संबंध बनाए तो स्वाति को पीयूष की पौरुषता में कोई अंतर नजर नहीं आया.

‘‘आप किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?’’ स्वाति ने कहा.

‘‘क्या फायदा, जब आयुर्वेद में इस का इलाज नहीं है तो अंगरेजी चिकित्सा में कहां होगा?’’

‘‘आप कैसी दकियानूसी बातें कर रहे हैं. आप पढ़ेलिखे हैं. एक अनपढ़गंवार व्यक्ति के मुंह से भी यह बात अच्छी नहीं लगती. आज विज्ञान कहां से कहां पहुंच गया. चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो रही है. कम से कम आप तो ऐसी बात न करें.’’

‘‘ठीक है, अगर तुम कहती हो तो मैं डाक्टर को दिखा दूंगा,’’ पीयूष ने बात को टालते हुए कहा और बाहर की तरफ चल दिया.

स्वाति पति के टालू स्वभाव से हैरान रह गई. पता नहीं किस मिट्टी का बना है यह इंसान. सासूमां का अत्याचार उस के ऊपर बदस्तूर जारी था, बल्कि दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था. उन के तानों और जलीकटी बातों से स्वाति का हृदय फट कर रह जाता था. दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से उस की मानसिक परेशानी दोगुनी हो जाती. उसे लगता, इस भरीपूरी दुनिया में वह बिलकुल अकेली पड़ गई है. उस का पति और सास ही उस के दुश्मन बन गए हैं. अपने मम्मीपापा से वह अपनी परेशानी बता नहीं सकती थी. अपना दर्द वह उन के हिस्से में क्यों डाले. उन्होंने तो अपनी जिम्मेदारी निभा दी थी. उस की शादी कर दी. अब अपने दांपत्यजीवन की परेशानियों से अवगत करा कर उन्हें क्यों परेशान करे? उस ने ठान लिया कि वह स्वयं ही अपनी परेशानियों से लड़ेगी और जीत हासिल करेगी. इन्हीं दुश्चिंताओं से गुजरते हुए उस ने इंटरनैट पर एक प्रसिद्ध सैक्सोलौजिस्ट का नाम व पता ढूंढ़ निकाला, फिर पीयूष से कहा, ‘‘आप स्वयं तो कुछ करने वाले नहीं हैं. मैं ने एक डाक्टर के बारे में इंटरनैट से जानकारी प्राप्त की है. उन से अपौइंटमैंट भी ले लिया है. कल हम दोनों उन के पास चलेंगे.’’ पीयूष ने अपने स्वर में और ज्यादा तल्खी घोलते हुए कहा, ‘‘एक बात समझ लो, मैं किसी डाक्टर के पास नहीं जाने वाला, तुम अपने काम से काम रखो. घर संभालो, मां की सेवा करो, अपना लेखन कार्य करो. तुम्हें जो चाहिए, मैं ला कर दूंगा. मेरे बारे में कुछ करने की तुम्हें जरूरत नहीं है.’’

 

#lockdown: संतरे की उपज पर पहले मौसम और अब लॉकडाउन की मार

झालावाड़ जिले के संतरा उत्पादकों पर पिछले दिनों मौसम की मार और अब लॉकडाउन के कारण उन को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है. अब भी 50 प्रतिशत संतरे बगीचे में पौधों पर लदे हुए हैं.

किसानों की बढ़ती चिंता
झालावाड़ को संतरा उत्पादन के क्षेत्र में छोटा नागपुर कहा जाता है. झालावाड़ के सुनेल क्षेत्र में पिछले दिनों हुई बारिश और आंधी के कारण संतरे के बगीचों की हालत बहुत खराब हो गई है. संतरे के पौधों के टूटने और संतरे जमीन में गिरने से किसानों की चिंता बढ़ गई है. किसानों का कहना है कि उन्हें काफी मात्रा में नुकसान हुआ है.भारतीय किसान संघ के पदाधिकारियों ने शीघ्र यहां का सर्वे कराकर क्षेत्र के किसानों को उचित मुआवजा दिलवाने की मांग की है. किसानों को अभी तक अतिवृष्टि से खरीफ फसलों को हुए नुकसान का मुआवजा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत नहीं मिल पाया है इसलिए क्षेत्र के किसानों को आर्थिक रूप से काफी हद तक परेशानी हो रही है.

पहले मौसम अब कोरोना बना परेशानी
भारतीय किसान संघ के एक पदाधिकारी ने बताया कि क्षेत्र के किसान कोरोना वायरस के कारण लॉक डाउन की वजह से प्रशासन को सूचित नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए वे मीडिया के माध्यम से प्रशासन से मांग कर रहे हैं कि जिले की सभी पंचायतों के पटवारियों के माध्यम से सर्वे करवा कर किसानों को उचित मुआवजा दिलवाया जाए.

राज्य के डिप्टी सीएम से की गुजारिश
वहीं एक अन्य किसान ने राजस्थान के डिप्टी सीएम सचिन पायलट से अपील की है कि वो संतरा किसानों को इस आपदा से निकालें. झालावाड़ जिले में किसानों की संतरे की फसल खराब हो रही है. अब संतरे का टूटने का समय आ गया है लेकिन कोरोना वायरस के कारण वाहनों ओर मंडियों पर रोक लगाने से संतरे को मंडी तक नहीं पहुंचा पा रहे है.सरकार से विनती है कि मंडी खुलवाएं और किसानों की उपज का सही मूल्य दिलवाएं.

21 दिन में हो जाएगी फसल की बरबादी
राजस्थान के झालावाड़ में ही नहीं महाराष्ट्र में नागपुर से लेकर मध्य प्रदेश और राजस्थान के कई अन्य जिलों में भी संतरे की खेती होती है. कई जगह किसान किन्नु भी उगाते हैं. ये संतरे की फसल पकने का समय है लेकिन कोरोना संकट के चलते किसान के बाग तक व्यापारी नहीं आ रहे हैं, जिस के कारण परेशान किसान राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकार से गुहार लगा रहे हैं. किसानों पंकज ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ट्वीट किया कि किसानों के संतरे के बगीचे पूर्ण रूप से पक चुके हैं अगर 21 दिन तक ये फल किसान बेच नहीं पाया तो सारा फल गिर कर खराब हो जाएगा. पौधों की संख्या ज्यादा होने पर किसान स्वयं मंडी में नहीं बेच सकता इसलिए जो लोग बगीचे का फल लेते है उन्हें गांव में आने दिया जाए.

#coronavirus: कोरोना और सिमरन

लेखक-रंगनाथ द्विवेदी 

सिमरन अपनी शादी की कुछ सालों तक कितनी खुश थी. सिद्धार्थ को अपने पति के तौर पर पाकर मानो उसने दुनिया पाली हो, लेकिन हमेशा जिंदगी का रंग एक सा नहीं रहता, उसके रंग भी बदलते रहते हैं. क्योंकि सिमरन की जिंदगी इस कायनात की आखिरी तस्वीर नहीं, इसकी और भी तस्वीरें हैं, इसके और भी रंग हैं, जो बदलते रहते हैं. कुछ ऐसा ही बदलाव उसकी जिंदगी में  कोरोना जैसी महामारी से आएगा, उसको इसकी कतई उम्मीद न थी. लेकिन किसी को दुनिया पूरी और मुकम्मल नहीं मिलती. ऐसा सिमरन के साथ भी हुआ. उसको भी उसकी दुनिया मुकम्मल नहीं मिली. कोरोना ने उसके तमाम वे  रंग छीन लिए, जो ना जाने कितनी सिमरन के रहे होंगे.

सिमरन की सारी खुशी, सारे सपने,  सारे अरमान कोरोना की भेंट चढ़ गए. उसके सारे अरमानों को कोरोना वायरस ने ना चाह कर भी हमेशा के लिए लॉकडाउन कर दिया. यह दुनिया कोरोना को परास्त कर लेगी,  लेकिन हां ना जाने मुझे जैसी कितनी सिमरन इस टीस पीड़ा और दर्द के वह जख्म हमेशा हरे रहेंगे जो कोरोना ने दिये है .अब तो  हमेशा के लिए उसके मन में अपने पति को खोने की ये  नागफनी दिल में चूभेगी और यह चुभन हमेशा सिमरन को कोरोना की याद दिलाते रहेगे और हमेशा सिमरन सिसकती रहेगी.

ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष

सिमरन उस पल को याद कर भावुक हो उठती है , जब वे मुंबई घर से कमाने के लिए जा रहे थे तो कुछ समय निकालकर वे कमरे में जब आये तो उन्होंने अपनी सिमरन को बाहों में भरकर उसके माथे का चुंबन लिया और बड़े ही प्यार से मेरी जान कहा था तो उसे क्या पता था कि यह सिमरन की माथे भाग लिया उसके सुहाग का आखिरी चुंबन होगा. अगर वे जानती तो कभी भी उन्हें कमाने के लिए मुंबई ना जाने देती किसी न किसी तरीके से उन्हें रोक लेती लेकिन अचानक चीन से फैले कोरोना ने बहुतों को अपनी चपेट में ले लिया. उसी चपेट में सिमरन की खुशियों की दुनिया भी आ गई.

कोरोना ने बस सिमरन का सुहाग ही नही बल्कि दो मासूम बच्चो के सर से उनके पिता  का असमय साया भी छीन लिया. उनके बुढ़े माँ-बाप के सहारे की एकलौती लाठी को हमेशा के लिये तोड़ दिया. इसके साथ ही जवान बहन की शादी के लाल जोड़े भी रो उठे. कोरोना वायरस का जब तक पता चलता तब तक सिमरन की दुनिया हमेशा के लिए तबाह व बर्बाद हो गई. सिमरन को ये तकलीफ रही की वे उस समय उनके पास न थी.

ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष: भाग 1

अब सिमरन को अपने सुन्दर व खूबसूरत चेहरे को मेकप नही, बल्कि सिमरन को अपने पति के यादों के आंसू उसके पूरे चेहरे को सैनिटाइज कर रहे हैं. उसका अब अपने पति की यादों के कोरोना वायरस से बाहर निकल पाना या बच  पाना मुमकिन नहीं.

आने वाला कल सिमरन के हौसले वह उसके जिम्मेदारियों का है. उसे केवल कोरोना वायरस के यादों के अलावा एक हकीकत जीना है, अपने बच्चों के लिए, बुढ़े सास-ससुर के लिए,

अपनी ननद के लिये, फिर एक लंबे अंतराल के बाद समस्त जिम्मेदारियों के इतर फिर वही याद, वही कोरोना वायरस और उसके पति का उसके माथे पर लिया हुआ आखरी चुंबन. उसके पास यही यादों की वे पूंजी होगी, जिसके सहारे वे–“अपने जिंदगी की आखिरी सांस लेगी”.

#coronavirus: तीमारदारी

सरकारी अस्पताल का बरामदा मरीजों से खचाखच भरा हुआ था. छींक आने के साथ गले में दर्द, सर्दी, खांसी, बुखार से सम्बंधित मरीजों की तादाद यहां अचानक ही बढ़ गई थी.

मरीजों को सुबह से ही तमाम सरकारी अस्पताल में लंबीलंबी लाइनों में खड़े देखा जा सकता था क्योंकि इन अस्पतालों में मरीजों को पहले ओपीडी में पर्ची बनवाने के बाद ही डाक्टर के पास जाना होता था. देखने के बाद डाक्टर दवा दे कर घर भेज देते थे.

तब तक कोरोना अपने देश में आया नहीं था. एक सरकारी अस्पताल में ऐसे मरीजों की तादाद ज्यादा ही बढ़ गई.

सरकार ने इन मरीजों को गंभीर बता कर भर्ती करने के लिए कहा तो ऐसे में वहां डाक्टरों की जिम्मेदारी बढ़ गई. स्टाफ की भी जरूरत आ पड़ी.

ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष

इन मरीजों को अलग ही वार्ड में रखा गया था. छूत की बीमारी बता कर इन मरीजों को दूर से ही दवा, खाना दिया जाता था. मरीजों के साथ एक तरह से अलग तरह का ही बरताव किया जाता था.

इन मरीजों की देखरेख के लिए सीनियर डाक्टर कमल ने अपने से जूनियर डाक्टर सुनील से कुछ को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रखने के लिए कहा.डाक्टर सुनील ने किसी नर्स के माध्यम से राज को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रख लिया.

‘‘बधाई हो राज, तुम नौकरी पर रख लिए गए हो. अपने काम में मन लगाना ताकि किसी को कहने का मौका न मिले. तुम यहां इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’ डाक्टर सुनील ने राज का हौसला बढ़ाते हुए कहा.

“जी डाक्टर साहब,” इतना ही कह सका राज.

जो भी हो, राज  की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है.अस्पताल में राज को 6 महीने की पहले ट्रेनिंग दी गई. पर उसे इस छूत की बीमारी के बारे में ज्यादा नहीं बताया गया था.

जब डाक्टरों को खुद ही नहीं पता था, तो वे उसे क्या बताते. राज को अस्पताल में सबकुछ करना पड़ता था. मरीजों के टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी उस पर थी. हर बिस्तर तक जा कर उसे मरीजों को दवा देनी पड़ती थी.

वैसे, राज अस्पताल के आसपास ही रहता था और पैदल ही चला आता था. वह एक पिछड़े इलाके से ताल्लुक रखता था और गरीब भी.

ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष: भाग 1

यहां  अस्पताल की नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. किसी से मिलने की मनाही थी. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें.

यहां नर्सों का दबदबा था. राज को पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना निकाला जा सकता है.राज को पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए.

एक दिन जब राज अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी उमेश ने बताया, ‘‘एक नया मरीज भरती हुआ है. उसे दवा दे देना.’’यह कह कर वह उमेश अपनी ड्यूटी खत्म कर घर चला गया.

 राज ने उस मरीज को गौर से देखा. उस के गले में बेहद दर्द था. उसे छींकें भी बहुत आ रही थीं. बुखार से उस का बदन तप रहा था. पर राज ने डाक्टर को न बुला कर डाक्टर द्वारा दी गई पर्ची के मुताबिक उसे दवा दे दी. पर उस मरीज की तबियत बिगड़ने लगी.

ये भी पढ़ें-करो ना क्रांति 

अगले दिन उस मरीज की जांच की गई. डाक्टर कमल राज पर चिल्लाया, ‘‘यह क्या है…? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’यह सुन कर राज के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे दवा दी थी.’’

“पर, दवा से कुछ असर नहीं हुआ.” राज ने अपनी बात कही. उस की बात सुन कर डाक्टर कमल उस पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हारी लापरवाही के चलते इस मरीज की हालत बिगड़ी है. कहीं दवा से कोई इंफैक्शन न हो जाए.’’

यह सुन कर राज की बोलती बंद हो गई. डाक्टर द्वारा डांट खा कर राज अपने को अपमानित सा महसूस करने लगा.राज को बड़ी कुंठा होने लगी.अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था.

यही सोच कर राज कुछ दिन की छुट्टी ले कर अपने गांव जाने की योजना बनाने लगा.अगले दिन यही सोच कर राज  सीनियर डाक्टर कमल के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप पर शर्म आ रही है, इसलिए मैं कुछ दिन की छुट्टी ले कर गांव जाना चाहता हूं.’’

वह सीनियर डाक्टर तुरंत मुड़ा और दूसरे मरीज को आवाज दी. वह मरीज उस के चैंबर में आया. राज वहीं खड़ा उस डाक्टर और मरीज को देखने लगा.

उस मरीज को देखने के बाद सीनियर डाक्टर कमल ने राज से समझाते हुए कहा, ‘‘उस दिन उस मरीज की जान चली जाती, अगर थोड़ी देर और होती.”

“क्या तुम ने खबर देखी है कि सरकार ने इस तरह के मरीजों को कोरोना होने की बात कही है, इसलिए इन्हें भर्ती किया जा रहा है. मरीज भी पहले से ज्यादा हो गए हैं. इन मरीजों को ले कर सरकार बहुत गंभीर है. और तुम ऐसे समय में छुट्टियां मांग रहे हो. ऐसे समय में तो तुम्हें इन मरीजों की तीमारदारी करनी चाहिए. यह भी एक तरह की देशभक्ति है.”

इतना कह कर सीनियर डाक्टर कमल अपने चैंबर से चला गया.यह सुन कर राज को दुख होने लगा. डाक्टर द्वारा समझाए जाने पर उस ने छुट्टी पर न जाने का मन बनाया. उसे अब इस नौकरी का असली माने पता चला था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक रहा था.

#coronavirus: “मीडिया के बोल में निजामुद्दीन का शोर”

टीवी खौलते ही एंकरों की दनदनाती आवाज. मानों बहुत समय बाद उन्हें कुछ उन के मतलब का टोनिक मिल गया हो. इतने दिन मजदूरमजदूर की पीपरी बजा कर यह एंकर अपने असली मुददों से भटक गए थे. पिछले 4-5 दिनों से मजदूरों की पलायन की ख़बरों को चलाचला कर इन का हाल ठीक वैसे ही हो गया था जैसे इंडियन क्रिकेटरों का विदेशी पिचों पर होता है. 6-8 साल से चेनलों पर चमकते या चमकाए गए इन नए एंकरों की जमात मजदूरों के मुददों से ऐसे अज्ञान थी जैसे देश की जनता कालेधन से.

ज्यादातर एंकरों के लिए मजदूर वह शब्द था जिसे बस अपने करियर में फिलर के तौर पर ही इस्तेमाल करना था. पर उन्हें क्या पता था कि एकाएक इन के सामने मजदूरों के प्रश्न उठ खड़े हो जाएंगे. जाहिर है इन्हें सब से पहले दिक्कत इस बात की हुई की अब उन्हें जमीनी मुददों पर दिमागी कसरत करनी पड़ेगी. अलगअलग मजदूरों के आकड़ें बनाने पड़ेंगे. कौन निचला है, कौन मंझला है, कौन ऊपर है इन प्रश्नों से रूबरू होना पड़ेगा.

ये भी पढ़ें#coronavirus: भगवान नहीं विज्ञान दिलाएगा कोरोना से मुक्ति

उस बारे में बात करनी पड़ेगी जिसे छिपाने के लिए 6-8 साल कमरतोड़ मेहनत की. काले कोट और सफ़ेद कालर पहने इन एंकरों को अब बदबूदार गंदे गरीबों को अपने चैनल में जगह देनी पड़ेगी. जाहिर है इन एंकरों ने कभी भी जमीन के मुददों पर न कोई स्क्रिप्ट तैयार की और न ही इन से किसी ने करवाई. इसलिए ये बिन पानी मछली की तरह तड़प रहे थे. अपनी घिसीपिटी भारतपकिस्तान, हिन्दूमुसलमान, देशभक्तिदेशद्रोही की कोपीपेस्ट स्क्रिप्ट की इन्हें याद सता रही थी.

मीडिया फिर से आवारा हो गई है

देरसवेर ही सही इन के अरमान पुरे हुए. अब निजामुद्दीन का मसला टीवी चैनल पर मानो थमने का नाम न ले रहा है. यह खबर एंकरों के लिए मानो वह आक्सीजन की सप्लाई थी जिस के न होने के कारण गोरखपुर में बच्चों की मौत हुई. इन्होने नफरत फैलाने वाली फाइलों का थौथा फिर से निकाल लिया है. निकाल लिया का मतलब यह नहीं की आलमारी से निकाला, बल्कि वहीँ उन के सामने टेबल पर ही यह फाइलें पड़ी हुईं थी. कमबख्त धूल भी नहीं जम पाई थी इन फाइलों में. जुम्माजुम्मा 7 ही दिन तो हुए थे फाइलों को पड़े.

ये भी पढ़ें-#coronavirus lockdown: लॉकडाउन में किन्नरों का लंगर

“कोरोना जिहाद से देश बचाओ”, “धर्म के नाम पर जान लेवा अधर्म”, “निजामुद्दीन का विलेन कौन”, “देवबंद में बंद 500 कोरोना बम”, “तबलीगी वायरस”, “थूक जिहाद”, “निजामुद्दीन में छुपे संदिग्ध” जैसे कई टाइटल डाल न्यूज चैनलों को मानो रेगिस्तान में पानी मिल गया हो. फिर शुरू हो गया है वही खेल जिस के फैर में फंस कर हर समय जनता गुमराह ही हुई है. ये हर मुद्दे को हिन्दू बनाम इस्लाम से जोड़ देना चाहते हैं. कारण, इसे जोड़ कर सरकार के काले करतूत को छुपाने में आसानी होगी. इन एंकरों की भाषा कम्युनल जान पड़ रही है. इस में इस्लाम और मुसलमानों के प्रति खीज, आक्रोश, नफरत है जो इन के चैनलों के प्राइमटाइम को देख समझ आ रहा है. इन्हें देख लग रहा है कि मस्जिदें, दरगाह ही हर चीज की समस्या है और इन का खात्मा हर समस्या का निदान.

क्या है तबलीगी जमात

खैर, मामला गंभीर है, मोटामोटी यह कि तबलीगी जमात पर आए देशविदेश के लोग निजामुद्दीन में इकठ्ठा हुए. हालाँकि यह हर साल होने वाला कार्यक्रम है. हजारों की संख्या में पुरे देश और विदेशों से इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग इकठ्ठा होते हैं. इस में संख्या को ले कर कोई लिखित या स्पष्ट नियम नहीं है. इस जत्थे का एक नेता होता है जिसे अमीर कहा जाता है. यह मुख्य मरकज़ निजामुद्दीन से अनुमति ले 3 दिन/ 40 दिन/ 4 माह/ या 1 साल के लिए भ्रमण करते है अपनी सारी रिपोर्ट या अनुभव निजामुद्दीन मरकज में साझा करते है, जिसे कालगुजारी कहा जाता है. जाहिर है यह हर साल होने वाला कर्यक्रम होता है तो इस के बारे में सरकार को उचित जानकारी रहती है. यहाँ तक की जो लोग विदेश से इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुँचते है उन्हें सरकार ही स्टाम्प लगा कर अनुमति देती है. यानी यह धार्मिक त्यौहार सरकार की नजरों के सामने पहले से ही था. उन्हें मोटामोटी जानकारी थी की कार्यक्रम में कितने लोग शिरकत लेने वाले हैं.

सरकार और पुलिस की लापरवाही

22 मार्च की तारीख से दिल्ली में लाकडाउन की प्रक्रिया की शुरूआत हुई. पहले दिन ‘जनता कर्फ्यू’ लगाया गया उस के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री के द्वारा 23 से 31 मार्च की तारीख तक ‘बंद’ का ऐलान, फिर अंत में केंद्र सरकार द्वारा 24 मार्च से 14 अप्रैल की तारीख तक पुरे देश को ‘लाकडाउन’ किया गया. जाहिर है यह एकाएक किया गया लाकडाउन था. और इसका हश्र यह हुआ कि 22 के बाद दिल्ली में फंसे लाखों लोगों को संभलने का मौका नहीं मिला. यही कारण था कि हजारों की संख्या में मजदूरों ने यहाँ से पैदल ही अपने घरगांव की तरफ पलायन यात्रा की जो अभी भी जारी है. साथ ही हजारों दिल्ली में पढ़ रहे छात्रों को अपने होस्टल, पीजी, कमरों, मदरसों में बिना संभले कैद होना पड़ा. इसी कड़ी में निजामुद्दीन में फंसे जमात के वे लोग भी आए जिसे इस समय मीडिया और सोशल मीडिया में बुरी तरह ट्रोल किया जा रहा है. पूरा दोष जमातियों के ऊपर डाला जा रहा है. अन्दर के पैच भी सामने दिख रहे है जिसमें प्रशासनिक लापरवाहियां सामने आ रही हैं. यह मसला सुलझाया कम विवादित ज्यादा किया जा रहा है.

इन जमातियों में से कुछ लोगों को कोरोना संक्रमण होने की खबर मिली है. जिसमें पता चला है कि इसमें शामिल 6 जमाती कर्नाटक में और 1 जम्मू कश्मीर में कोरोना से मर चुके हैं. यकीनन यह सरकार की नाकामी ही है कि खबर होते हुए भी कोई जरुरी कदम नहीं उठाए गए. पुलिस की नजर में इतनी बड़ी भीड़ लाकडाउन से ही वहां कैद थी तो एहतियातन उन्हें वहां से हटाया क्यों नहीं गया? आखिर क्या इस दिन का इन्तेजार किया जा रहा था कि इसे मीडिया कब हिन्दू बनाम मुसलमान का मसाला बना उछाले? जाहिर है यह प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है कि न तो संभलने का मोका दिया गया और न ही विदेश से आए जमातियों की स्क्रीनिंग की गई. भारत में पहला कोरोना का मामला 30 जनवरी को सामने आ गया था. उस के बाद सरकार ने बाहर से आ रहे विदेशियों में कोरोना के पहचान के लिए क्या जरुरी कदम उठाए और जो यहाँ उस से पहले से ही मौजूद विदेशी सैलानी थे उन्हें किस तरह से ट्रैक कर उन की स्क्रीनिंग की गई यह सवाल जानने के लिए गूगल मत कीजियेगा क्योंकि मीडिया के जरिये आम लोगों के लिए यह राज ही बने रहेंगे.

मीडिया को नफरत फैलाने से रोका नहीं गया तो स्थिति और खराब हो सकते हैं

यह सच है मुस्लिमों को ट्रोल करना इस समय सब से आसान है इसलिए किया भी जा रहा है. वरना हिन्दू धर्म को मानने वाले 400 लोग इस समय वैष्णो देवी में फंसे है. मीडिया और ट्रोलर के लिए अंतर यह है की वैष्णो देवी में श्रद्धालु ‘फंसे’ है और निजामुद्दीन में जमाती संदिग्ध ‘छुपे’ हैं. दोगलेपन की सीमा इन एंकरों की तब और ज्यादा दिख जाती है जब सीएम योगी आदित्यनाथ राममंदिर के दर्शन के लिए सेकड़ों के साथ लाकडाउन को तोड़ कर निकल पड़ते हैं. लेकिन मजाल इन की जो उस पर सवाल उठा सके.

आज मीडिया का उद्देश्य जागरूक करना नहीं भय और नफरत फैलाना हो गया है. जो सवाल लापरवाह सरकार, चाहे वों दिल्ली की हो या केंद्र की, उन से पूछने की जरुरत है उसे भटका कर हिन्दू बनाम मुस्लिम किया जा रहा है. इस से पहले कोरोना को ले कर नस्लीय हमले हम देख चुके हैं. जब उत्तरपूर्वी राज्यों के लोगों को ‘कोरोना’ और ‘चायनीज’ कह कर उन के मुह पर थूका जा रहा था. अब बन्दूक की नली मुसलमानों की तरफ घुमा दी गई है. लोग अब समस्याओं को भूल निजामुद्दीन का मुद्दा ले कर बैठा है. इस नफरत के साथ इस बिमारी को खत्म नहीं किया जा सकता. प्रधानमंत्री ने लाकडाउन के दिन जनता से अपील की थी साथ देने की.

जाहिर है उस अपील में देश के 21 करोड़ मुस्लिम भी थे. यह समुदाय पहले से ही सरकार पर विश्वास खो चुका है. ऐसी परिस्तिथि में अगर और उन्हें कुरेदा गया तो स्थितियां और बिगडती चली जाएंगी. इस बिमारी के खात्मे के लिए सरकार की पहलकदमी और जनता की एकता जरुरी है. अगर मीडिया ऐसे ही धार्मिक नफरत फैलाती रहेगी तो संभावित सरफिरे पैदा होंगे जो इस संक्रमण को फैलाने का ही काम करेंगे. अभी सोशल मीडिया में रिएक्सन आने शुरू हो गए हैं जिस मे मुसलामानों से दूरी बनाने की हिदायत दी जा रही है. कोई सीधा गोली मारने, भगा देने की बात कर रहा है. मीडिया के फैलाए इस धार्मिक जहर में इस की मार सब से नीचे के गरीब मुसलमानों को पड़ने वाली है जो हिन्दू मकानमालिकों के घर पर किरायदार के तौर पर रह रहे हैं. वह इस लाकडाउन में बेघरों में शामिल होने वाले हैं जिन्हें पुलिस सड़कों में पीटेगी. यह पूरा साइकिल सिर्फ मुस्लिम विरोधी ही नहीं गरीब मजदूर विरोधी है. इसे प्रशासन को जल्द से जल्द रुकवाने की जरुरत है.

#coronavirus: लॉक डाउन में मिडिल क्लास का दर्द

देश की वर्तमान स्थिति कुछ इस तरह की है कि 21 दिनों के लिए लोगों को घर में शांत बैठने की जितनी हिदायतें दी जा रही हैं उतनी ही अशांति उन के मन में कौंध रही है. इस बात को समझने के लिए किसी का अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं कि देश की अर्थव्यस्था 2016 की नोटबंदी के बाद से ही चरमराई हुई है और अब लौकडाउन के बाद इस के पूरी तरह से ध्वस्त होने की गुंजाइश और अधिक बढ़ गई है.

दिहाड़ी मजदूरों की बाद करना व्यर्थ है क्योंकि उन के लिए यह स्थिति किसी त्रासदी से कम नहीं. वहीं, उच्च वर्ग से भी इस त्रासदी का सरोकार उतना अधिक नहीं क्योंकि उस का अकाउंट उस की जरूरतों के हिसाब से भरा हुआ है और आने वाले 2-3 महीने तो क्या उस से ज्यादा समय के लिए भी वह अपना भरणपोषण पहले की तरह ही कर सकता है.

ये भी पढ़ें-#coronavirus: भगवान नहीं विज्ञान दिलाएगा कोरोना से मुक्ति

तेलंगाना और महाराष्ट्र सरकार ने यह घोषणा भी कर दी है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन में कटौती की जाएगी. हो सकता है अन्य राज्य सरकारें भी जल्द ही वेतन कटौती की घोषणा कर दें. सवाल उठता है मध्य वर्ग का कि वह किस तरह से अपने बजट को बनाए रख पाता है. यह वह वर्ग है जिस के अकाउंट में पैसा तो है पर इतना नहीं कि यह 2 महीने से ज्यादा घर बैठ कर खा सकता है. यह वह वर्ग है जो यदि हाथ पर हाथ रखे बैठा रहे तो इसे भी दिहाड़ी मजदूरों की तरह होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.

आर्थिक मंदी का दौर

2016 की नोटबंदी और 2017 के जीएसटी लागू होने के बाद भारतीय अर्थव्यसथा लगातार गिरी है. कहने को तो भारतीय अब भी इस मार को झेल रहे थे कि उन को एक और मार कोरोना वायरस के रूप में पड़ गई. घर पर 21 दिनों के लिए रहने का मतलब है नौकरी पर न जा पाना. नौकरी पर न जाने का मतलब यह नहीं कि पैसा आना पूर्ण रूप से बंद हो गया है परंतु यह बात भी ध्यान में रखने वाली है कि हर व्यक्ति वर्क फ्रौम होम भी नहीं कर रहा है. इस का अर्थ है कि हर व्यक्ति के अकाउंट में महीने की निश्चित राशि शायद न आ पाए क्योंकि अर्थव्यवस्था की मार तो व्यक्ति की कथित कंपनी को भी पड़ रही है और ऐसे में कटौती होना निश्चित है. सरकार के इस अनायास लौकडाउन ने सप्लाई चैन को त्रस्त कर दिया है जिस का परिणाम आर्थिक क्षति के रूम में हम सभी को भुगताना पड़ रहा है. वैसे भी औनलाइन शौपिंग वैबसाइट्स बंद पड़ी हैं, फूड सप्लाई कम हुई है, आयातनिर्यात लगभग बंद है और साथ ही अनेक छोटे बड़े व्यापार घाटे में हैं.

ये भी पढ़ें-#coronavirus lockdown: लॉकडाउन में किन्नरों का लंगर

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इस लौकडाउन के बढ़ने की पूरी संभावना है. स्पष्ट तौर पर यह कोरोना वायरस तभी खत्म होगा जब इस की वैक्सीन आएगी. जब तक वैक्सीन नहीं बन जाती इस के पूरी तरह खत्म होने की संभावना नहीं है क्योंकि भारत ट्रांसमिशन के तीसरे स्टेज पर है जिस के बाद सब कुछ सामान्य होना मुश्किल है. वैक्सीन आने पर भी भारत के हर एक व्यक्ति को वैक्सीनेट करना चंद दिनों का काम नहीं है. यानी कम से कम एक साल तक हम सभी को कोरोना वायरस से जूझना पड़ सकता है.

ऐसे में यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी हो जाता है कि मध्यवर्ग समझदारी और सूझबूझ के साथ अपनी आर्थिक स्थिति पर ध्यान दे जिस से वह आने वाले वक्त के लिए पहले से ही तैयार हो व लौकडाउन खत्म होने के पश्चात उस पर अर्थव्यवस्था की मार कम पड़े.

खर्चों पर लगाम कसने की जरूरत

आप इस समय घर पर हैं जिस से आप का बाहर आनेजाने का खर्च, होटल में खाने का खर्च, मार्केट जा कर हजारों की शौपिंग का खर्च आदि बच रहा है. इस सेविंग को आने वाले समय के लिए बचाए रखिए. यह न हो कि लौकडाउन ओवर होते ही आप अपनी सेविंग्स एक बार में उड़ा दें. यह समय है अपने खर्चों को कंट्रोल करने का क्योंकि लौकडाउन खत्म होने के बाद भी आप के औफिस से शायद आप को आप की पूरी तनख्वाह न मिले और आप के बचे हुए पैसे भी हवा हो जाएं.

अपने खर्चों का एक खाका तैयार कर लें. आप को जिन चीजों की अत्यधिक जरूरत हो केवल उन पर ही खर्च करें. घर का बजट बनाएं और उस के हिसाब से चलें. मेडिकल इमरजेंसी के लिए हमेशा तैयार रहें. घर के बजट का एक हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं के लिए हमेशा बचाए रखें.

ये भी पढ़ें-स्वत्रंत पत्रकारिता के लिए जरूरी है कि पाठक सब्सक्राइब करके पढ़े डिजिटल

घर में सामन को ओवरस्टौक न करें. बड़ी मात्रा में चीजें खरीदने से पहले भी यह ध्यान में रखें कि यह चीजें कितने समय तक सही रह सकती हैं और क्या सचमुच आप को इतनी अधिक मात्रा में इन की जरूरत है या नहीं. जैसे खाद्य पदार्थों को सोचसमझ कर स्टौक करें. महंगाई के डर से ऐसा न हो कि आप घर में 20 किलो आलू जमा कर लें और उन में से 5 किलो पड़ेपड़े ही सड़ जाएं.

कई लोग एंजाइटी या तनाव के चलते औनलाइन शौपिंग करने लगते हैं और खुद को रोक नहीं पाते. यह आदत खासकर महिलाओं और लड़कियों में होती है. हालांकि, इस समय और्डर की शिप्पिंग नहीं हो रही लेकिन पेमेंट के साथ और्डर किया जा सकता है. यह वह समय नहीं हैं जब आप अपने पैसे बिना सोचे समझे शौपिंग में उड़ा सकें. सोचसमझ कर पैसे बचाएं न कि उड़ाएं.

एंटर्टेंमेंट रिसौर्सेस जैसे नेटफ्लिक्स या प्राइम की मैम्बरशिप लेने से बचें या लेनी हो तो किसी एक की ही लें. अगर आप हर पोर्टल की मैम्बरशिप लेंगे तो इस में भी आप की अच्छी खासी राशि व्यर्थ होगी. इसी तरह आप जिनजिन औनलाइन ऐप्स या पोर्टल पर पैसे भरते हैं, जिन की आप को कुछ खास जरूरत न हो, उन से सब्स्क्रिप्शन हटा सकते हैं.

अगर आप के बैंक से आप के बिलों की औटोमैटिक पेमेंट होती है तो यह बिलकुल सही समय है कि आप इस पर ध्यान दें. कुछ बिलों के भुगतान औनलाइन सही हैं परंतु अगर कोई ऐसे बिल हैं जिन की पेमेंट आप घर में रहते हुए नहीं करना चाहते तो उन्हें आप औटोमैटिक पेमेंट औपशन से हटा दीजिए.

इस समय किसी को उधार देने से पहले एक बार अच्छे से विचार करें. यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जो लंबे समय तक पैसे ले कर वापस चुकाता नहीं है तो उसे बड़ी राशि उधार में न दें. मदद का हाथ बढ़ाना सही है परंतु सोचसमझ कर.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें