टीवी खौलते ही एंकरों की दनदनाती आवाज. मानों बहुत समय बाद उन्हें कुछ उन के मतलब का टोनिक मिल गया हो. इतने दिन मजदूरमजदूर की पीपरी बजा कर यह एंकर अपने असली मुददों से भटक गए थे. पिछले 4-5 दिनों से मजदूरों की पलायन की ख़बरों को चलाचला कर इन का हाल ठीक वैसे ही हो गया था जैसे इंडियन क्रिकेटरों का विदेशी पिचों पर होता है. 6-8 साल से चेनलों पर चमकते या चमकाए गए इन नए एंकरों की जमात मजदूरों के मुददों से ऐसे अज्ञान थी जैसे देश की जनता कालेधन से.

ज्यादातर एंकरों के लिए मजदूर वह शब्द था जिसे बस अपने करियर में फिलर के तौर पर ही इस्तेमाल करना था. पर उन्हें क्या पता था कि एकाएक इन के सामने मजदूरों के प्रश्न उठ खड़े हो जाएंगे. जाहिर है इन्हें सब से पहले दिक्कत इस बात की हुई की अब उन्हें जमीनी मुददों पर दिमागी कसरत करनी पड़ेगी. अलगअलग मजदूरों के आकड़ें बनाने पड़ेंगे. कौन निचला है, कौन मंझला है, कौन ऊपर है इन प्रश्नों से रूबरू होना पड़ेगा.

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उस बारे में बात करनी पड़ेगी जिसे छिपाने के लिए 6-8 साल कमरतोड़ मेहनत की. काले कोट और सफ़ेद कालर पहने इन एंकरों को अब बदबूदार गंदे गरीबों को अपने चैनल में जगह देनी पड़ेगी. जाहिर है इन एंकरों ने कभी भी जमीन के मुददों पर न कोई स्क्रिप्ट तैयार की और न ही इन से किसी ने करवाई. इसलिए ये बिन पानी मछली की तरह तड़प रहे थे. अपनी घिसीपिटी भारतपकिस्तान, हिन्दूमुसलमान, देशभक्तिदेशद्रोही की कोपीपेस्ट स्क्रिप्ट की इन्हें याद सता रही थी.

मीडिया फिर से आवारा हो गई है

देरसवेर ही सही इन के अरमान पुरे हुए. अब निजामुद्दीन का मसला टीवी चैनल पर मानो थमने का नाम न ले रहा है. यह खबर एंकरों के लिए मानो वह आक्सीजन की सप्लाई थी जिस के न होने के कारण गोरखपुर में बच्चों की मौत हुई. इन्होने नफरत फैलाने वाली फाइलों का थौथा फिर से निकाल लिया है. निकाल लिया का मतलब यह नहीं की आलमारी से निकाला, बल्कि वहीँ उन के सामने टेबल पर ही यह फाइलें पड़ी हुईं थी. कमबख्त धूल भी नहीं जम पाई थी इन फाइलों में. जुम्माजुम्मा 7 ही दिन तो हुए थे फाइलों को पड़े.

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“कोरोना जिहाद से देश बचाओ”, “धर्म के नाम पर जान लेवा अधर्म”, “निजामुद्दीन का विलेन कौन”, “देवबंद में बंद 500 कोरोना बम”, “तबलीगी वायरस”, “थूक जिहाद”, “निजामुद्दीन में छुपे संदिग्ध” जैसे कई टाइटल डाल न्यूज चैनलों को मानो रेगिस्तान में पानी मिल गया हो. फिर शुरू हो गया है वही खेल जिस के फैर में फंस कर हर समय जनता गुमराह ही हुई है. ये हर मुद्दे को हिन्दू बनाम इस्लाम से जोड़ देना चाहते हैं. कारण, इसे जोड़ कर सरकार के काले करतूत को छुपाने में आसानी होगी. इन एंकरों की भाषा कम्युनल जान पड़ रही है. इस में इस्लाम और मुसलमानों के प्रति खीज, आक्रोश, नफरत है जो इन के चैनलों के प्राइमटाइम को देख समझ आ रहा है. इन्हें देख लग रहा है कि मस्जिदें, दरगाह ही हर चीज की समस्या है और इन का खात्मा हर समस्या का निदान.

क्या है तबलीगी जमात

खैर, मामला गंभीर है, मोटामोटी यह कि तबलीगी जमात पर आए देशविदेश के लोग निजामुद्दीन में इकठ्ठा हुए. हालाँकि यह हर साल होने वाला कार्यक्रम है. हजारों की संख्या में पुरे देश और विदेशों से इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग इकठ्ठा होते हैं. इस में संख्या को ले कर कोई लिखित या स्पष्ट नियम नहीं है. इस जत्थे का एक नेता होता है जिसे अमीर कहा जाता है. यह मुख्य मरकज़ निजामुद्दीन से अनुमति ले 3 दिन/ 40 दिन/ 4 माह/ या 1 साल के लिए भ्रमण करते है अपनी सारी रिपोर्ट या अनुभव निजामुद्दीन मरकज में साझा करते है, जिसे कालगुजारी कहा जाता है. जाहिर है यह हर साल होने वाला कर्यक्रम होता है तो इस के बारे में सरकार को उचित जानकारी रहती है. यहाँ तक की जो लोग विदेश से इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुँचते है उन्हें सरकार ही स्टाम्प लगा कर अनुमति देती है. यानी यह धार्मिक त्यौहार सरकार की नजरों के सामने पहले से ही था. उन्हें मोटामोटी जानकारी थी की कार्यक्रम में कितने लोग शिरकत लेने वाले हैं.

सरकार और पुलिस की लापरवाही

22 मार्च की तारीख से दिल्ली में लाकडाउन की प्रक्रिया की शुरूआत हुई. पहले दिन ‘जनता कर्फ्यू’ लगाया गया उस के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री के द्वारा 23 से 31 मार्च की तारीख तक ‘बंद’ का ऐलान, फिर अंत में केंद्र सरकार द्वारा 24 मार्च से 14 अप्रैल की तारीख तक पुरे देश को ‘लाकडाउन’ किया गया. जाहिर है यह एकाएक किया गया लाकडाउन था. और इसका हश्र यह हुआ कि 22 के बाद दिल्ली में फंसे लाखों लोगों को संभलने का मौका नहीं मिला. यही कारण था कि हजारों की संख्या में मजदूरों ने यहाँ से पैदल ही अपने घरगांव की तरफ पलायन यात्रा की जो अभी भी जारी है. साथ ही हजारों दिल्ली में पढ़ रहे छात्रों को अपने होस्टल, पीजी, कमरों, मदरसों में बिना संभले कैद होना पड़ा. इसी कड़ी में निजामुद्दीन में फंसे जमात के वे लोग भी आए जिसे इस समय मीडिया और सोशल मीडिया में बुरी तरह ट्रोल किया जा रहा है. पूरा दोष जमातियों के ऊपर डाला जा रहा है. अन्दर के पैच भी सामने दिख रहे है जिसमें प्रशासनिक लापरवाहियां सामने आ रही हैं. यह मसला सुलझाया कम विवादित ज्यादा किया जा रहा है.

इन जमातियों में से कुछ लोगों को कोरोना संक्रमण होने की खबर मिली है. जिसमें पता चला है कि इसमें शामिल 6 जमाती कर्नाटक में और 1 जम्मू कश्मीर में कोरोना से मर चुके हैं. यकीनन यह सरकार की नाकामी ही है कि खबर होते हुए भी कोई जरुरी कदम नहीं उठाए गए. पुलिस की नजर में इतनी बड़ी भीड़ लाकडाउन से ही वहां कैद थी तो एहतियातन उन्हें वहां से हटाया क्यों नहीं गया? आखिर क्या इस दिन का इन्तेजार किया जा रहा था कि इसे मीडिया कब हिन्दू बनाम मुसलमान का मसाला बना उछाले? जाहिर है यह प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है कि न तो संभलने का मोका दिया गया और न ही विदेश से आए जमातियों की स्क्रीनिंग की गई. भारत में पहला कोरोना का मामला 30 जनवरी को सामने आ गया था. उस के बाद सरकार ने बाहर से आ रहे विदेशियों में कोरोना के पहचान के लिए क्या जरुरी कदम उठाए और जो यहाँ उस से पहले से ही मौजूद विदेशी सैलानी थे उन्हें किस तरह से ट्रैक कर उन की स्क्रीनिंग की गई यह सवाल जानने के लिए गूगल मत कीजियेगा क्योंकि मीडिया के जरिये आम लोगों के लिए यह राज ही बने रहेंगे.

मीडिया को नफरत फैलाने से रोका नहीं गया तो स्थिति और खराब हो सकते हैं

यह सच है मुस्लिमों को ट्रोल करना इस समय सब से आसान है इसलिए किया भी जा रहा है. वरना हिन्दू धर्म को मानने वाले 400 लोग इस समय वैष्णो देवी में फंसे है. मीडिया और ट्रोलर के लिए अंतर यह है की वैष्णो देवी में श्रद्धालु ‘फंसे’ है और निजामुद्दीन में जमाती संदिग्ध ‘छुपे’ हैं. दोगलेपन की सीमा इन एंकरों की तब और ज्यादा दिख जाती है जब सीएम योगी आदित्यनाथ राममंदिर के दर्शन के लिए सेकड़ों के साथ लाकडाउन को तोड़ कर निकल पड़ते हैं. लेकिन मजाल इन की जो उस पर सवाल उठा सके.

आज मीडिया का उद्देश्य जागरूक करना नहीं भय और नफरत फैलाना हो गया है. जो सवाल लापरवाह सरकार, चाहे वों दिल्ली की हो या केंद्र की, उन से पूछने की जरुरत है उसे भटका कर हिन्दू बनाम मुस्लिम किया जा रहा है. इस से पहले कोरोना को ले कर नस्लीय हमले हम देख चुके हैं. जब उत्तरपूर्वी राज्यों के लोगों को ‘कोरोना’ और ‘चायनीज’ कह कर उन के मुह पर थूका जा रहा था. अब बन्दूक की नली मुसलमानों की तरफ घुमा दी गई है. लोग अब समस्याओं को भूल निजामुद्दीन का मुद्दा ले कर बैठा है. इस नफरत के साथ इस बिमारी को खत्म नहीं किया जा सकता. प्रधानमंत्री ने लाकडाउन के दिन जनता से अपील की थी साथ देने की.

जाहिर है उस अपील में देश के 21 करोड़ मुस्लिम भी थे. यह समुदाय पहले से ही सरकार पर विश्वास खो चुका है. ऐसी परिस्तिथि में अगर और उन्हें कुरेदा गया तो स्थितियां और बिगडती चली जाएंगी. इस बिमारी के खात्मे के लिए सरकार की पहलकदमी और जनता की एकता जरुरी है. अगर मीडिया ऐसे ही धार्मिक नफरत फैलाती रहेगी तो संभावित सरफिरे पैदा होंगे जो इस संक्रमण को फैलाने का ही काम करेंगे. अभी सोशल मीडिया में रिएक्सन आने शुरू हो गए हैं जिस मे मुसलामानों से दूरी बनाने की हिदायत दी जा रही है. कोई सीधा गोली मारने, भगा देने की बात कर रहा है. मीडिया के फैलाए इस धार्मिक जहर में इस की मार सब से नीचे के गरीब मुसलमानों को पड़ने वाली है जो हिन्दू मकानमालिकों के घर पर किरायदार के तौर पर रह रहे हैं. वह इस लाकडाउन में बेघरों में शामिल होने वाले हैं जिन्हें पुलिस सड़कों में पीटेगी. यह पूरा साइकिल सिर्फ मुस्लिम विरोधी ही नहीं गरीब मजदूर विरोधी है. इसे प्रशासन को जल्द से जल्द रुकवाने की जरुरत है.

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