मैं कमरे में पिछले 21 दिनों से बैठ इस बात का इंतजार कर रही हूं कि कब यह दरवाजे खुलें और मैं बाहर जा सकुं. एक बार फिर घूम सकूँ और उस गली में एक बार फिर खड़ी हो सकूँ जहां पेड़ के नीचे उस चबूतरे पर बैठ में इस बात का अंदाजा लगाया करती थी कि अब सामने गेट से कौन निकल कर आने वाला है. कितना अच्छा लगता था बाहर उस दुकान से जूस पीना जहां एक बार मैं ने खाँस दिया था तो अंकल ने मेरे हाथों पर पानी डाल मेरे हाथ धुलवाए थे.
मैं घर से निकल 15 मिनट तक रिक्शे पर बैठ उस रास्ते से मेट्रो तक जाया करती थी जिस के रास्ते में कई घर पड़ते थे जिन का चूल्हा आज भी सड़क पर बना था और जिन के बच्चे अधनंगे हो यहाँ से वहाँ फिरते थे. उस छोटे रास्ते के बाद आता था वह रोड जिस के दोनों तरफ बस पेड़ ही पेड़ थे पर आधे रास्ते पर कुछ टेंट भी थे जिन में वे लोग रहा करते थे जिन के घरों को तोड़ कर वो चौड़ी सड़क बनाई गई थी.
जब से कोरोना वायरस के चलते देश में लौकडाउन हुआ है तब से हम सभी का बाहर निकालना बंद है, खासकर दिल्ली में तो हालात इतने बुरे हैं कि बाहर निकलना मतलब कोरोना ले कर ही घर लौटना.
मुझे रिक्शे से उतर कर मेट्रो तक पहुँचने में 4 मिनट लगते थे. वह 4 मिनट का रास्ता जहां कभी मैं किसी से और कोई मुझ से टकराते टकराते रह जाता था और कभी कभी तो पीछे से कोई रिक्शा आता पों पों की आवाज निकालते हुए और मुझे गुस्से में किनारे होना पड़ता था.
मेट्रो पर लंबीलंबी कतारे लगती थीं उस समय. इससे मुझे याद आया कि एक बार मैं अपनी एक दोस्त के साथ मेट्रो चेकिंग लाइन में इतना पास खड़ी थी कि सेक्योरिटी गार्ड के हाथ की मशीन जोर से मेरे हाथ पर लगी थी, दर्द होने से ज्यादा उस समय हंसी छूट गई थी.
मेट्रो के अंदर खड़े हो कर दो ही काम थे जो मेरे दिमाग में कौंधते थे, पहला कि कोई किताब निकाल कर पढ़ लेती हूं या दूसरा कि गाने सुन लेती हूं. कभी कभी शाम को जब बहुत थक जाया करती थी तो इन में से कुछ नहीं होता था मुझ से और मैं बस खड़ेखड़े मेट्रो से देखा करती थी हर एक सड़क को, पुल को, ऊंची इमारतों और छोटेछोटे घरों को.
उन घरों में मुझे कभी लोग नजर नहीं आते थे, कोई कोई स्टेशन तो इतना पास था घरों के मगर फिर भी लगता जैसे उन घरों में रहने वालों को मेट्रो से गुजरने वालों को देखने में कोई दिलचस्पी नहीं हालांकि मुझे बहुत दिलचस्पी थी उन लोगों को देखने की. वे मुझे कभी दिखे नहीं वो अलग बात है.
ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष
मेट्रो से उतर औफिस जाने में गिनती के 7 मिनट का समय लगता था मुझे. इन 7 मिनटों में मेरे मन में 700 ख्याल घूमते थे. कभी में कोई एक सवाल खुद से पूछ लिया करती थी और पूरे रास्ते खुद को ही उस एक सवाल के अलगअलग जवाब दिया करती थी. मुझे याद आते हैं वे दिन जिन में मेरे कदम मेट्रो पर थम जाया करते थे और मुझे औफिस जाने का मन नहीं होता था.
एक बार तो मैं सचमुच भारी मन से औफिस की तरफ बढ़ रही थी और मुझे लगने लगा था जैसे मेरे कदम कहीं लड़खड़ा न जाएं और मैं गिर न पडूँ. गिर जाती तो शायद जिस हिम्मत से कदम राह पर बढ़ाए थे वो भी वहीं थाम लेती और रुक जाती.
ऐसे कितने पल याद आते हैं जिन में मैं देरी से सिर्फ इसलिए पहुंचती थी क्योंकि मेरे कदम उस राह पर चलने से मुकर जाते थे. सुबह भी तो बिस्तर पर पड़ेपड़े दिल कहता था कि आज नहीं और मैं अपनी आँखें एक बार फिर बंद कर लेती थी.
खैर, अब तो सब बदल चुका है. अब इस कमरे की चार दीवारें और डिजिटल स्क्रीन पर बाहरी दुनिया देखनी रह गई है. इस फोन की स्क्रीन पर फूल नजर तो आते हैं पर उन की खुशबू दूर दूर तक नहीं है, हवाओं से लहलहाते पेड़ दिखते हैं पर मेरे बाल थमे रहते हैं अपनी जगह और मुझे एहसास होता है कि इन पत्तों की तरह मैं आजाद नहीं हूं.
कभी कभी लगता है कुछ ही दिनों की तो बात है, कुछ ही दिनों की तो बात है, कुछ ही दिनों की तो बात है. एक ही बात बार बार दोहराने से भी मन को वो संतुष्टि नहीं मिलती जो मिलनी चाहिए. यह कुछ दिन जैसे खत्म ही नहीं होते.
ये भी पढ़ें-आंखों में इंद्रधनुष: भाग 1
आज सुबह भी पलंग के सिरहाने से लग लेटी हुई थी, आँखें सीलिंग पर लगे पंखे पर टिकाए. पंखा जैसे जैसे घूम रहा था वैसे वैसे पुराने दिनों की यादें मेरी आंखो के सामने आ रही थीं. पुराने दोस्त याद आ रहे थे जिन से मिले हुए बहुत दिन गुजर गए, लेकिन उन्हें मैसेज कर बात करने का मन नहीं होता. मन होगा भी कैसे,
ऐसा लगता है अब हमारे बीच बात करने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. पिछले दो सालों में जिंदगी कितनी बदल गई है. आज वो भी रहरह कर याद आ रहा है. सुबह से ही बारबार उस का चेहरा…. उस का चेहरा मेरे दिमाग में घूम रहा है.
यह उस कौन है? है कोई खास, इतना खास कि हर दिन मन उसे भूलने की ख्वाहिश करता है और हर दिन खुद से ही बेवफाई कर उसे याद करने लगता है. उस की आँखें, वो लाल सूर्ख आँखें और लहलहाते बाल जो मेरी नजर हमेशा ही अपनी तरफ खींच लेते हैं, बार बार याद आ रहे हैं.
उस से आखिरी बार बात कब हुई थी? अभी दो दिन पहले ही. हैरानी की बात है न कि दो साल से जिन से बात नहीं हुई वे दोस्त मुझे इतना याद नहीं आ रहे पर जिस एक शख्स से अभी दो दिनों पहले ही बात हुई है वह इतना याद आ रहा है. इस के पीछे कारण है, एक नहीं बल्कि कई कारण हैं इन उलझी हुई यादों के पीछे.
हम अच्छे दोस्त थे, हैं मेरा मतलब….हमेशा से बस दोस्त ही तो हैं. मेरी और उस की दोस्ती को 3 महीने ही हुई थे और मैं उसे अपना दिल दे बैठी थी. इस दिल के चक्कर में जो कुछ आगे हुआ उसे याद करना भी एक कारण है कि मेरी आज हालत ऐसी हो गई है.
उस ने कभी साफ शब्दों में कहा नहीं कि वह मुझे चाहता है और मैं साफ शब्दों में कहना चाहते हुए भी नहीं कह पाई. वह सुनना नहीं चाहता था. मेरे प्यार से घबराता था वो. कितनी बेतुकी बात लगती है कि कोई किसी के प्यार से भी घबरा सकता है.
उस ने मेरा हाथ पकड़ा, हम दोस्त रहे. उस ने मेरे गालों को चूमा, हम दोस्त रहे. उस ने मेरे अधरों पर अपने अधर रखे, हम दोस्त रहे. मैंने उसके जिस्म को छुआ, हम दोस्त रहे. मैंने उसे अपने मन का हाल बताया, हम दोस्त रहे. मैं ने उस के लिए आँसू बहाए, हम दोस्त रहे. वह मुझे छोड़ चला गया, हम दोस्त रहे. वह वापस लौट आया, हम दोस्त रहे. हम ने दिन साथ गुजारे एकदूसरे की बाहों में, हम दोस्त रहे. हम ने न कुछ वादे किए न निभाने की जरूरत पड़ी पर हम दोस्त रहे. दोस्त ही तो रहे हम हमेशा…पर मैं सिर्फ दोस्त नहीं रहना चाहती थी.
मुझे तो हमेशा से उस से प्यार था, वह जानता भी है इतना तो. मैं ने साफ शब्दों में कभी कहा नहीं लेकिन चीख चीख कर मेरी आँखें जब कहा करती थीं तो वह मेरी आँखें पढ़ता हुआ प्रतीत होता था. क्या सचमुच वह कुछ पढ़ नहीं पाया कभी? जबजब हम बात करते हैं मैं उस की बातों में बह जाया करती हूँ. वह एक मिश्री की ढली सा शब्द कहता है और मैं शहद भरे वाक्य लिखने लगती हूँ.
वह पूछता है कि क्या पसंद है मुझे उस में और में सिर से पैर तक उस की हर वो चीज जो मुझे पसंद है बताने बैठ जाती हूँ. कितनी पागल हूँ मैं. कबतक ऐसी रहूँगी समझ नहीं आता. झूठ भी तो कितने कहे हैं मैं ने अपने दोस्तों से. वे पूछते हैं क्या आज भी मैं उस से बात करती हूँ और मैं हमेशा न कह देती हूँ. कितनी झूठी और मक्कार हो गई हूँ मैं. कितनी बात झूठ तले यह सच्चाई छिपाउंगी कि जो मैं कर रही हूँ वह सही नहीं है और न कभी सही की गिनती मैं आ सकता है.
मैं हमेशा से सुनती आई हूँ कि कुछ रिश्ते दिल के होते हैं और कुछ जिस्मानी. हमारा रिश्ता तो न पूरी तरह दिल का है और न जिस्मानी. मैं तो उसे पूरे दिल से चाहती हूँ और जिस्म… हाँ, वह भी तो है इसमें. लेकिन, सिर्फ जिस्म हो ऐसा भी तो नहीं है न.
पिछले 21 दिनों में मैं ने एक बार भी उस से झगड़ा नहीं किया है. झगड़ा करने से डर लगता है. झगड़ा कर लूँगी तो हर मिनट उस का ख्याल मेरे दिमाग में घूमने लगेगा और मैं सिरदर्द को रोक नहीं पाऊँगी. जबजब दिमाग में यह बात आती है कि उस से बात नहीं कर सकती तबतब सीने में दर्द उठने लगता है, धड़कन पहले से ज्यादा साफ सुनाई देने लगती है और आँखें भारी होने लगती हैं. ऐसा लगता है जैसे मन पर किसी ने बहुत बड़ा पत्थर रख दिया है और उसे सिर्फ एक ही शख्स उठा सकता है. मैं वो दर्द एक बार फिर सहना नहीं चाहती.
मुझे डर लगने लगा है. मैं एक सामान्य, शांत, खुश रहने वाली लड़की हूँ पर जब उस से बात करना छोडती हूँ तो मैं सामान्य नहीं रहती. सबकुछ बदल जाता है मेरे अंदर. मुझे याद है जब मेरी और उस की लड़ाई हुई थी कुछ महीनों पहले और मुझे लगा था अब वह कभी नहीं आएगा. मुझे लगा था जैसे अब कभी वह मुझ से बात नहीं करेगा, मुझ से मिलेगा नहीं, मुझे चाहेगा नहीं. चाहा तो उस ने मुझे कभी नहीं, खैर. मेरी और उस की एक महीना बात नहीं हुई और मुझे लगा जैसे अब मेरा दिमाग मेरे काबू में नहीं है और हो सकता है मैं या तो जल्द ही पागल हो जाऊँगी या इस दर्द से मर जाऊँगी. हुआ दोनों में से कुछ नहीं क्योंकि एक महीने बाद ही मैं ने उसे मेसेज कर दिया और उस ने पहले नाराजगी दिखाई और फिर खुद मुझे मनाने लगा. अगले दिन हम साथ थे, एकदूसरे की बाहों में.
अब मुझ में हिम्मत नहीं उस से यह कहने की कि तुम मुझे नहीं चाहते और इस तरह आगे बढ़ना सही नहीं और हमें एकदूसरे से अलग हो जाना चाहिए. मैं कायर हो गई हूँ. मुझे उस से अलग होने से डर लगने लगा है. मैं टूट जाऊँगी और मुझे समेटने के लिए कोई नहीं होगा और खुद को समेटने का साहस मैं खो चुकी हूँ.
इस कमरे में पिछले 21 दिनों से मैं हर दिन यह कोशिश करती हूँ कि उसे कह दूँ कि अब और नहीं. कह मैं अबतक नहीं पाई. हर दिन उसे भूलने की कोशिश करती हूँ. भूल मैं अब तक नहीं पाई. उसे याद भी बहुत करती हूँ क्योंकि वह पास होकर भी पास नहीं है, वह मेरे पास शायद कभी होगा भी नहीं. शायद वह मेरा कभी नहीं होगा, शायद मैं आगे बढ़ जाऊँगी, शायद मैं इस डर पर काबू पा लूँगी पर कब…. पता नहीं.