प्रोफैसर महेश ने कढ़ा हुआ रूमाल उठाया. उन्होंने रूमाल को पहचानने की कोशिश की. यह वही रूमाल था जो शिवानी उन्हें देने के लिए उस दिन उन के कमरे में आई थी. उन की आंखें आंसुओं से भर गईं. कहानी द् तिनसुखिया मेल के एसी कोच में बैठे प्रोफैसर महेश एक पुस्तक पढ़ने में मशगूल थे. वे एक सैमिनार में भाग लेने गुवाहाटी जा रहे थे.
पास की एक सीट पर बैठी प्रौढ़ महिला बारबार प्रोफैसर महेश को देख रही थी. वह शायद उन्हें पहचानने का प्रयास कर रही थी. जब वह पूरी तरह आश्वस्त हो गई तो उठ कर उन की सीट के पास गई और शिष्टतापूर्वक पूछा, ‘‘सर, क्या आप प्रोफैसर महेश हैं?’’ यह अप्रत्याशित सा प्रश्न सुन कर प्रोफैसर महेश असमंजस में पड़ गए. उन्होंने महिला की ओर देखते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं, मैडम.’’ ‘‘मेरा नाम माधवी है. मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हूं.
मेरी एक सहेली थी प्रोफैसर शिवानी,’’ वह महिला बोली. ‘‘थी... से आप का क्या मतलब है?’’ प्रोफैसर महेश ने उस की ओर देखते हुए पूछा. ‘‘वह अब इस दुनिया में नहीं है. उस ने किसी को अपनी किडनी डोनेट की थी. उसी दौरान शरीर में सैप्टिक फैल जाने के कारण उस की मृत्यु हो गई थी,’’ महिला ने कहा. ‘‘क्या?’’ प्रोफैसर महेश का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया था. ‘‘जी सर. उसे शायद अपनी मृत्यु का एहसास पहले ही हो गया था. मरने से 2 दिन पहले उस ने मुझे यह रूमाल और एक पत्र आप को देने के लिए कहा था. उस के द्वारा दिए पते पर मैं आप से मिलने दिल्ली कई बार गई. मगर आप शायद वहां से कहीं और शिफ्ट हो गए थे.’’ यह कह कर उस महिला ने वह रूमाल और पत्र प्रोफैसर को दे दिया. वह महिला जा कर अपनी सीट पर बैठ गई. प्रोफैसर महेश बुत बने अपनी सीट पर बैठे थे. तिनसुखिया मेल अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी और उस से भी तेज रफ्तार से अतीत की स्मृतियां प्रोफैसर महेश के मानसपटल पर दौड़ रही थीं. आज से 25 वर्ष पूर्व उन की तैनाती एक कसबे के डिग्री कालेज में प्रोफैसर के रूप में हुई थी.
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