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सोने का झुमका

लेखक – राज किशोर श्रीवास्तव

पूर्णिमा का सोने का  झुमका खोते  ही घर व महल्ले में कुहराम मच गया. हर किसी ने जैसी सूझी, अपनी सलाह दे डाली. लेकिन पूर्णिमा के पति जगदीश के घर आते ही यह सारी उदासी न जाने कहां हवा हो गई.

जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहांकहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

 

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाईझगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

 

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जातेजाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

 

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

Romance : लैटर बौक्स

सीढि़यों के नीचे लैटरबौक्स से अपनी डाक निकाल जैसे ही मैं मुड़ा, अचानक हड़बड़ा कर पीछे हट गया. मेरे बिलकुल पीछे एक नवयौवना अपने चकाचौंध करने वाले सौंदर्य के साथ खड़ी थी, जैसे चंद्रमा अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ धरती पर अठखेलियां करने के लिए निकला हो.

अचानक पीछे मुड़ने से मैं उस सौंदर्य की प्रतिमा से टकरातेटकराते बचा था, क्योंकि वह बिलकुल मेरे पीछे खड़ी थी. शायद वह भी अपनी डाक निकालने आई थी. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं ने आज पहली बार उसे देखा था. पता नहीं किस फ्लैट में रहती थी.

हड़बड़ा कर पीछे हटते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘सौरी, आप…’’

उस के चेहरे पर कोई शर्मिंदगी या आश्चर्य के भाव नहीं थे. बड़ी सहजता से मुसकराते हुए बोली, ‘‘इट्स ओके.’’

इस के बाद मैं सिमट कर उस की बगल से निकला, तो ऐसा लगा जैसे सुगंध की एक मधुर बयार मेरे शरीर से टकरा कर गुजर गई हो. बड़ी ही मदहोश कर देने वाली खुशबू थी. उस के शरीर की खुशबू को अपने नथुनों में भरता हुआ मैं सीढ़ी पर पहला कदम रखने वाला ही था कि उस की खनकती आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘सुनिए.’’

मैं पीछे मुड़ा. वह बोली, ‘‘आप 201 नंबर फ्लैट में रहते हैं?’’

‘‘हां,’’ मैं ने उस के चेहरे की सुंदरता में खोते हुए कहा, मेरे फ्लैट का नंबर जानना उस के लिए मुश्किल नहीं था. मैं ने अभीअभी इसी नंबर के डब्बे से डाक निकाली थी और वह मेरे पीछे खड़ी देख रही थी.

 

‘‘मैं 202 नंबर फ्लैट में रहती हूं.’’ वह अभी भी मुसकरा रही थी, जैसे उस के चेहरे पर सदाबहार मुसकान खिली रहती हो.

‘‘अच्छा,’’ मैं ने हैरत से कहा, ‘‘कभी आप को देखा नहीं, जबकि हमारे फ्लैट तो आमनेसामने हैं?’’

‘‘मैं ने भी आप को नहीं देखा. मैं पुणे में रहती हूं, यहां दीदी के पास आई हूं.’’

‘‘तभी तो,’’ मेरे आश्चर्य का समाधान हो गया था, ‘‘ओके, मेरे यहां भी कभी आइएगा.’’ मैं ने उसे निमंत्रण दिया, फिर सीढि़यां चढ़ने लगा. वह भी मेरे पीछेपीछे आने लगी. मैं ने चलते हुए पूछा, ‘‘आप ने अपना लैटरबौक्स नहीं देखा?’’

‘‘मैं इस के लिए वहां नहीं रुकी थी. मैं तो यह देख रही थी कि मोबाइल,  कंप्यूटर और इंटरनैट के जमाने में आजकल पत्र कौन लिखता है? परंतु आप के पास तो बहुत सारे पत्र आते हैं?’’

‘‘हां, मैं कवि और लेखक हूं. मेरे पास पाठकोंसंपादकों के पत्रों के अलावा पत्रपत्रिकाएं आती रहती हैं.’’

‘‘अच्छा, तब तो आप दिलचस्प व्यक्ति होंगे,’’ उस की आवाज में किलकारी सी आ गई थी. मैं ने कुछ नहीं कहा. तब तक हम दूसरे फ्लोर पर पहुंच गए थे. अपने फ्लैट की घंटी बजाते हुए उस ने मुझ से कहा, ‘‘मैं थोड़ी देर में आप के पास आऊंगी, आप को एतराज तो नहीं?’’

मेरे अंदर खुशी की एक लहर दौड़ गई. इतनी सुंदर लड़की मुझ से मिलने के लिए मेरे घर आएगी, मुझे क्या एतराज हो सकता था. मैं ने हलकी मुसकान के साथ कहा, ‘‘ओह, श्योर, व्हाई नौट.’’

घर में घुसते ही मैं ने डाक देखनी शुरू कर दी. इस काम को मैं बाद के लिए नहीं छोड़ता था. तभी मेरी पत्नी नेहा ने पानी का गिलास ला कर मेज पर रख दिया. फिर मेरे सामने बैठ कर बोली, ‘‘चाय अभी बनाऊं, या बाद में?’’

‘‘रहने दो, अभी कोई मिलने के लिए आने वाला है.’’

नेहा ने कोई प्रश्न नहीं किया. वह जानती थी, मुझ से मिलने के लिए लेखक और पत्रकार आते ही रहते थे. परंतु कुछ देर बाद जब उस सुंदर लड़की ने मोहक मुसकान के साथ घर में प्रवेश किया तो नेहा अचंभित रह गई. आज के जमाने में युवावर्ग हिंदी साहित्य को न तो पढ़ता है, न पसंद करता है. युवतियां तो बिलकुल भी नहीं. फिर वह लड़की मेरे पास क्या करने आई थी, संभवतया नेहा यही सोच रही थी, परंतु उस ने खुले दिल से उस का स्वागत किया.

परिचय का आदानप्रदान हुआ. पता चला उस का नाम छवि था. सचमुच वह सौंदर्य की प्रतिमा थी. उस के चांद से दमकते चेहरे पर सौंदर्य जैसे हंसता सा लगता था. आंखें बड़ीबड़ी और चंचल थीं. होंठ कुदरती तौर पर लाल थे और उस के माथे पर बालों की एक छोटी सी लट जैसे उस की सुंदरता को काली निगाहों से बचाने के लिए स्वत: वहां लहरा रही थी.

नेहा के मन में स्त्रीजन्य ईर्ष्याभाव जाग्रत हुआ था. यह उस के चेहरे के भावों से स्पष्ट था. छवि भले ही इसे न भांप पाई हो, परंतु मैं नेहा का पति था. उस के स्वाभाविक गुणों का मुझे पता था. ईर्ष्याभाव होते हुए भी नेहा उस से हंसहंस कर बातें कर रही थी. फिर चाय बनाने के लिए चली गई.

 

तभी छवि ने कहा, ‘‘आप की पत्नी बहुत सुंदर और हंसमुख हैं.’’

‘‘आप से ज्यादा नही,’’  मैं ने खुले मन से उस की प्रशंसा की.

छवि के मुख पर एक शर्मीली मुसकान दौड़ गई. उस ने निगाहों को थोड़ा झुकाते हुए कहा, ‘‘आप मजाक कर रहे हैं.’’

‘‘नहीं, आप अपने मन से पूछ कर देख लीजिए. मेरी बात में एक अंश भी झूठ नहीं है,’’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘‘ओके, मैं मान लेती हूं,’’ उस ने निगाहें उठा कर कहा, ‘‘आप का कोई बेबी नहीं है?’’

‘‘नहीं, अभी तक नहीं,’’ मैं ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या शादी को ज्यादा दिन नहीं हुए?’’ वह बहुत व्यक्तिगत हो रही थी.

मैं ने एक बार किचन की तरफ देखा. नेहा चाय बनाने में व्यस्त थी. मैं ने जवाब दिया, ‘‘नहीं, शादी को तो लगभग 5 साल हो गए हैं. परंतु हम अभी बच्चा नहीं चाहते.’’ यह कहतेकहते मेरी आवाज थोड़ी भारी हो गई.

छवि ने शायद मेरी आवाज का भारीपन महसूस किया. उस की आंखों में आश्चर्य के भाव प्रकट हो गए, फिर अचानक ही हंस पड़ी, ‘‘अच्छा, आप क्या लिखते हैं?’’ उस ने बहुत चालाकी से एक असहज करने वाले विषय को टाल दिया था.

साहित्य पर चर्चा चल रही थी. तभी नेहा चाय, बिस्कुट और नमकीन ले कर आ गई. चाय पीते हुए कई विषयों पर चर्चा चली. छवि  एक बुद्धिमान और जिज्ञासु लड़की थी. उस का सामान्यज्ञान भी काफी अच्छा था. जब खुल कर बातें हुईं तो नेहा के मन से छवि के प्रति पूर्वाग्रह समाप्त हो गया.

छवि अपनी गरमी की छुट्टियां मुंबई में बिताने वाली थी. उस की दीदी और जीजा, दोनों ही सरकारी नौकरी में थे. दिनभर छवि घर पर रहती थी और टीवी देखती थी. कभीकभी आसपास घूमने चली जाती थी. छुट्टी के दिन अपनी दीदी और जीजा के साथ घूमने जाती थी.

मुझ से मिलने के बाद अब वह कहानी, कविता और उपन्यास पढ़ने लगी. मुझ से कई सारी किताबें ले गई थी. दिन का काफी समय वह पढ़ने में बिताती, या मेरी पत्नी के साथ बैठ कर विभिन्न विषयों पर बातें करती. मैं स्वयं एक सरकारी दफ्तर में ग्रेड ‘बी’ अफसर था, इसलिए केवल छुट्टी के दिन छवि से खुल कर बात करने का मौका मिलता था. बाकी दिनों में हम सभी शाम की चाय अवश्य साथसाथ पीते थे.

छवि के चेहरे में अनोखा सम्मोहन था. ऐसा सम्मोहन, जो बरबस किसी को भी अपनी तरफ खींच लेता है. संभवतया हर स्त्री में यह गुण होता है, कुछ में कम, कुछ में ज्यादा, परंतु कुछ लड़कियां ऐसी होती हैं जो पुरुषों को चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचती हैं. छवि ऐसी ही लड़की थी. वह युवा थी, पता नहीं उस का कोई प्रेमी था या नहीं, परंतु उसे देख कर मेरा मन मचलने लगता था.

सामाजिक दृष्टि से यह गलत था. मैं एक शादीशुदा व्यक्ति था, परिवार के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां थीं और मैं सामाजिक बंधनों में बंधा हुआ था. परंतु मन किसी बंधन को नहीं मानता और हृदय किसी के लिए भी मचल सकता है. प्यार के  मामले में यह बच्चे के समान होता है, जो हर सुंदर लड़की और स्त्री को पाने की लालसा सदा मन में पालता रहता है.

मैं नेहा को देखता तो हृदय में अपराधबोध पैदा होता, परंतु जैसे ही छवि को देखता तो अपराधबोध गायब हो जाता और खुशी की एक ऐसी लहर तनमन में दौड़ जाती कि जी चाहता, यह लहर कभी खत्म न हो, शरीर के अंगअंग में ऐसी लहरें उठती ही रहें और मैं उन लहरों में डूब जाऊं.

छवि सामान्य ढंग से मेरे घर आती, हमारे साथ बैठ कर बातें करती, चाय पीती और चली जाती. कभी पुस्तकें मांग कर ले जाती और पढ़ कर वापस कर देती. उस ने मेरी भी कहानियां पढ़ी थीं, परंतु उन पर कोईर् प्रतिक्रिया नहीं दी थी. मैं पूछता, तो बस इतना कहती, ‘ठीक हैं, अच्छी लगीं.’ बस, और कोई विश्ेष टिप्पणी नहीं.

 

उस की बातों से नहीं लगता था कि वह मेरे लेखन या व्यक्तित्व से प्रभावित थी. यदि वह मेरे किसी गुण की प्रशंसा करती तो मैं समझ सकता था कि उस के हृदय में मेरे लिए कोई स्थान था, फिर मैं उस के हृदय में प्रवेश करने का कोई न कोई रास्ता तलाश कर ही लेता. मेरी सब से बड़ी कमजोरी थी कि मैं शादीशुदा था. सीधेसीधे बात करता तो वह मुझे छिछोरा या लंपट समझती. मुझे मन मार कर अपनी भावनाओं को दबा कर रखना पड़ रहा था.

मेरे मन में उस से अकेले में मिलने की लालसा बलवती होती जा रही थी, परंतु मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था. इस तरह 15 दिन निकल गए. जैसजैसे उस के पुणे जाने के दिन कम हो रहे थे, वैसेवैसे मेरे मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

फिर एक दिन कुछ आश्चर्यजनक हुआ. मैं औफिस जाने के लिए सीढि़यों से उतर कर नीचे आया, तो देखा, नीचे छवि खड़ी थी. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप का इंतजार,’’ उस ने आंखों को मटकाते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ मुझे हलका सा आश्चर्य हुआ. एक बार दिल भी धड़क कर रह गया. क्या उस के  दिल में मेरे लिए कुछ है? बता नहीं सकता था, क्योंकि लड़कियां अपनी भावनाओं को छिपाने में बहुत कुशल होती हैं.

‘‘हां, आप को औफिस के लिए देर तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं, बोलिए न.’’

‘‘मैं घर में सारा दिन पड़ेपड़े बोर हो जाती हूं. टीवी और किताबों से मन नहीं बहलता. कहीं घूमने जाने का मन है, क्या आप मेरे साथ कहीं घूमने चल सकते हैं?’’

उस का प्रस्ताव सुन कर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा, परंतु फिर हृदय पर जैसे किसी ने पत्थर रख दिया. मैं शादीशुदा था और नेहा को घर में छोड़ कर मैं उसे घुमाने कैसे ले जा सकता था. नेहा को साथ ले जाता, तो छवि को घुमाने का क्या लाभ? मैं ने असमंजसभरी निगाहों से उसे देखते हुए कहा, ‘‘आप के दीदीजीजा तो रविवार को आप को घुमाने ले जाते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं आप के साथ जाना चाहती हूं.’’

मेरा दिल फिर से धड़का, ‘‘परंतु नेहा साथ रहेगी?’’

‘‘छुट्टी के दिन नहीं,’’ उस ने निसंकोच कहा, ‘‘आप दफ्तर से एक दिन की छुट्टी ले लीजिए. फिर हम दोनों बाहर चलेंगे.’’

‘‘अच्छा, अपना मोबाइल नंबर दो. मैं दफ्तर जा कर फोन करूंगा.’’ उस ने अपना नंबर दिया और मैं खूबसूरत मंसूबे बांधता हुआ दफ्तर आया. मन में लड्डू फूट रहे थे. अपने केबिन में पहुंचते ही मैं ने छवि को फोन मिलाया. बड़े उत्साह से उस से मीठीमीठी बातें कीं, ताकि उस के मन का पता चल सके.. इस के बावजूद मैं अपने मन की बात उस से नहीं कह पाया. छवि की बातों से भी ऐसा नहीं लगा कि उस के मन में मेरे लिए कोई ऐसीवैसी बात है.

 

हम ने बाहर घूमने की बात तय कर ली. परंतु फोन रखने पर मेरा उत्साह खत्म हो चुका था. शायद मेरे साथ बाहर जाने का छवि का कोई विशेष उद्देश्य नहीं था, वह केवल घूमना ही चाहती थी.

मैरीन ड्राइव के चौड़े फुटपाथ पर धीमेधीमे कदमों से टहलते हुए एक जगह हम रुक गए और धूप में चांदी जैसी चमकती हुई समुद्र की लहरों को निहारने लगे. मेरे मन में भी समुद्र जैसी लहरें उफान मार रही थीं. मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पा रहा था. लहरों को ताकते हुए छवि ने पूछा, ‘‘क्या आप इस बात पर विश्वास करते हैं कि प्रथम दृष्टि में प्यार हो सकता है.’’

मैं ने आश्चर्ययुक्त भाव से उस के मुखड़े को देखा. उस के चेहरे पर ऐसा कोई भाव दृष्टिमान नहीं था जिस से उस के मनोभावों का पता चलता. मैं ने अपनी दृष्टि को आसमान की तरफ टिकाते हुए कहा, ‘‘हां, हो सकता है, परंतु…’’

अब उस ने मेरी ओर हैरत से देखा और पूछा, ‘‘परंतु क्या?’’

‘‘परंतु…यानी ऐसा प्रेम संभव तो होता है परंतु इस में स्थायित्व कितना होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों व्यक्ति कितने समय तक एकदूसरे के साथ रहते हैं.’’

छवि शायद मेरी बात का सही मतलब समझ गई थी. इसलिए आगे कुछ नहीं पूछा.

मैं ने छवि से कहीं बैठने के लिए कहा तो उस ने मना कर दिया. फिर हम टहलते हुए तारापुर एक्वेरियम तक गए. मैं ने उसे एक्वेरियम देखने के लिए कहा तो उस ने बताया कि वह देख चुकी थी. मुंबई देखने का उस का कोई इरादा भी नहीं था. उस ने बताया कि वह केवल मेरे साथ घूमना चाहती थी.

दोपहर तक हम लोग मैरीन ड्राइव में ही घूमते रहे… निरुद्देश्य. हम दोनों ने बहुत बातें की, परंतु मैं अपने मन की गांठ न खोल सका. उस की बातों से भी ऐसा कुछ नहीं लगा कि उस के मन में मेरे प्रति कोई ऐसावैसा भाव है. मैं शादीशुदा था, इसलिए अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करना चाहता था.

लगभग 2 बजे मैं ने उस से लंच करने के लिए कहा तो भी उस ने मना कर दिया. मुझे अजीब सा लगा, कैसी लड़की है, सुबह से मेरे साथ घूम रही है और खानेपीने का नाम तक न लिया. कब तक भूखी रहेगी. मैं उसे जबरदस्ती पास के एक रेस्तरां में ले गया और जबरदस्ती डोसा खिलाया. आधा डोसा मुझे ही खाना पड़ा.

रेस्तरां में बैठेबैठे मैं ने पहली बार महसूस किया कि वह कुछ उदास थी. क्यों थी, मैं ने नहीं पूछा. मैं चाहता था कि वह स्वयं बताए कि उस के मन में क्या घुमड़ रहा था.

रेस्तरां के बाहर आ कर मैं ने उस की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘अब?’’

‘‘कहीं चल कर बैठते हैं?’’ उस ने लापरवाही के भाव से कहा. आसपास कोई पार्क नहीं था. बस, समुद्र का किनारा था. मैं ने कहा, ‘‘जुहू चलें?’’

‘‘हां.’’

मैं ने टैक्सी की और जुहू पहुंच गए. बीच पर भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी, परंतु उस ने कहीं एकांत में चलने के लिए कहा. मुख्य बीच से दूर कुछ नारियल वाले अपना स्टौल लगाते हैं, जहां केवल प्रेमी जोड़े जा कर बैठते हैं. मैं ने एक ऐसा ही स्टौल चुना और एकएक नारियल ले कर आमनेसामने बैठ गए. यह इस बात का संकेत था कि हम दोनों के बीच प्रेम जैसा कोई भाव नहीं था. वरना हम अगलबगल बैठते और एक ही नारियल में एक ही स्ट्रौ से नारियल पानी सुड़कते.

‘‘आप कुछ उदास लग रही हैं?’’ नारियल पानी पीते हुए मैं ने पूछ ही लिया. मैं उस की मूक उदासी से खिन्न सा होने लगा था. उसी ने घूमने का प्रोग्राम बनाया था और वही इस से खुश नहीं थी. मेरा मकसद अलग था. उस के साथ घूमना मेरे लिए खुशी की बात थी, परंतु उस की नाखुशी में, मेरी खुशी कहां?

उस ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘क्या मेरा आप के साथ घूमना सही है?’’

 

मैं अचकचा गया. यह कैसा प्रश्न था? मैं उसे जबरदस्ती अपने साथ नहीं लाया था. फिर उस ने ऐसा क्यों कहा? शायद वह मेरी परेशानी भांप गई. तुरंत बोली, ‘‘मेरा मतलब है, अगर आप की पत्नी को पता चल गया कि मैं ने आप के साथ पूरा दिन बिताया है, तो उन्हें कैसा लगेगा? क्या वे इसे गलत नहीं समझेंगी?’’

मैं ने एक लंबी सांस ली. क्या सुबह से वह इसी बात को ले कर परेशान हो रही थी? मैं ने उस की तरफ झुकते हुए कहा, ‘‘पहले तो अपने मन से यह बात निकाल दो कि हम कुछ गलत कर रहे हैं. दूसरी बात, अगर हमारे बीच ऐसावैसा कुछ होता है, तो भी गलत नहीं है, क्योंकि जिस प्रेम को लोग गलत कहते हैं, वह केवल एक सामाजिक मान्यता के अनुरूप गलत होता है, परंतु प्राकृतिक रूप से नहीं. यह तो कभी भी , कहीं भी और किसी से भी हो सकता है.’’

‘‘क्या एकसाथ 2 या अधिक व्यक्तियों से प्रेम किया जा सकता है?’’ उस ने असमंजस से पूछा.

‘‘हां, क्यों नहीं? बिलकुल कर सकते हैं, परंतु उन की डिगरी में फर्क हो सकता है,’’ मैं ने बिना किसी संदर्भ के कहा. मुझे पता भी नहीं था कि छवि के पूछने का क्या तात्पर्य था, किस से संबंधित था, स्वयं से या किसी और से.

‘‘क्या शादीशुदा व्यक्ति भी?’’

मेरा दिल धड़का. मैं ने उस की आंखों में झांका. वहां कुतूहल और जिज्ञासा थी. वह उत्सुकता से मेरी तरफ देख रही थी. मैं ने जवाब दिया, ‘‘बिलकुल.’’ मैं ने चाहा कि कह दूं, ‘मैं भी तो तुम्हें प्यार करता हूं, जबकि मैं शादीशुदा हूं,’ परंतु कह न पाया. उस की आंखें झुक गईं. क्या उसे पता था कि मैं उसे प्यार करने लगा था. लड़कियां लड़कों के मनोभावों को शीघ्र समझ जाती हैं, जबकि वे बहुत जल्दी अपने हृदय को दूसरे के समक्ष नहीं खोलतीं.

 

 

फिर एक लंबी चुप्पी…और फिर निरुद्देश्य टहलना, अर्थहीन बातें करना, लहरों के शोर में अपने मन की बात एकदूसरे को कहने का प्रयास करना, कुछ खुल कर न कहना…यह हमारे पहले दिन का प्राप्य था. इस में सुख केवल इतना था कि वह मेरे साथ थी, परंतु दुख इतना लंबा कि रात सैकड़ों मील लंबी लगती. कटती ही न थी. पत्नी की बांहों में भी मुझे कोई सुख नहीं मिलता, क्योंकि मस्तिष्क और हृदय में छवि दौड़ रही थी, जहां उस के कदमों की धमधम थी. उस के सौंदर्य की आभा से चकाचौंध हो कर मैं पत्नी के प्रेमसुख का लाभ उठाने में असमर्थ था. जब मन कहीं और होता है तो तन उपेक्षित हो जाता है.

मेरे हृदय में घनीभूत पीड़ा थी. छवि बिलकुल मेरे पास थी. फिर भी कितनी दूर. मैं अपने मन की बात भी उस से नहीं कह पा रहा था. उस ने भी तो नहीं कहा था कुछ? मेरे साथ वह केवल घूमने के लिए नहीं गई थी, कुछ तो उस के मन में था, जिसे वह कहना चाह कर भी नहीं कह पा रही थी. मैं उसे समझ नहीं पा रहा था.

अगले दिन न तो वह मेरे घर आई, न मेरे मोबाइल पर संपर्क किया. मैं बेचैन हो गया. क्या बात है, सोचसोच कर मैं परेशान हो रहा था, परंतु मैं ने भी उसे फोन करने का प्रयत्न नहीं किया.

मैं नेहा से दुखी नहीं था. वह एक सुंदर स्त्री ही नहीं, अच्छी पत्नी भी थी. सारे काम कुशलता से करती थी. कभी मुझे शिकायत का मौका नहीं देती थी. थोड़ी नोकझोंक तो हर घर में होती थी. मनमुटाव हमारे बीच भी होता था, परंतु इस हद तक नहीं कि हम एकदूसरे को तलाक देने की बात सोचते.

छवि मेरे मन में ही नहीं, हृदय में भी बस चुकी थी, परंतु क्या उस के लिए मैं नेहा को छोड़ दूंगा? संभवतया ऐसा न हो. छवि के साथ मेरा प्यार अभी तक लगभग एकतरफा था. प्यार परवान नहीं चढ़ा था. परवान चढ़ता तो भी क्या मैं छवि के लिए नेहा को छोड़ देता? यह सोच कर मुझे तकलीफ होती है. अपने प्यार की सजा क्या मैं नेहा को दे सकता था. उस का जीवन बरबाद कर सकता था. इतनी हिम्मत नहीं थी.

फिर भी मैं छवि को अपने दिलोदिमाग से बाहर नहीं करना चाहता था.

औरतें पुरुषों की मनोस्थिति बहुत जल्दी भांप लेती हैं. जब से छवि मेरे हृदय में आ कर विराजमान हुई थी, मेरा व्यवहार असामान्य सा हो गया था. पढ़ने में मन न लगता, लिखने का तो सवाल ही नहीं उठता था. घर में ज्यादातर समय  मैं लेट कर गुजारता. ऐसी स्थिति में नेहा का मेरे ऊपर संदेह करना स्वाभाविक था.

उस ने पूछ लिया, ‘‘आजकल आप कुछ खिन्न से रहते हैं? क्या बात है, क्या औफिस में कोई परेशानी है?’’

मैं उसे अपने मन की स्थिति से कैसे अवगत कराता. बेजान सी मुसकराहट के साथ कहा, ‘‘हां, आजकल औफिस में काम कुछ ज्यादा है, थक जाता हूं.’’

‘‘तो कुछ दिनों की छुट्टी ले लीजिए. कहीं बाहर घूम कर आते हैं.’’

‘‘यह तो और मुश्किल है. काम की अधिकता के कारण छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

 

‘‘तो फिर छुट्टी के दिन बाहर चलेंगे, खंडाला या लोनावाला.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा,’’ मैं ने उस वक्त यह कह कर नेहा को संतुष्ट कर दिया.

तीसरे दिन छवि आई. उदास और थकीथकी सी लग रही थी. मेरे औफिस से आने के तुरंत बाद आ गई थी वह, जैसे वह मेरे आने का इंतजार ही कर रही थी. मैं उस का उदास चेहरा देख कर हैरान रह गया. मुझ से पहले नेहा ने पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ छवि, तुम बीमार थी क्या?’’

वह सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘हां दीदी.’’

‘‘हमें पता ही नहीं चला,’’ नेहा ने कहा, ‘‘बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’ वह चली गई तो मैं ने शिकायती लहजे में कहा, ‘‘आप ने बताया भी नहीं.’’

उस ने कुछ इस तरह मुझे देखा, जैसे कह रही हो, ‘मैं तो तुम्हारे सामने ही बीमार पड़ी थी, फिर देखा क्यों नहीं?’ फिर कहा, ‘‘क्या बताती, आप को स्वयं पता करना चाहिए था. मैं कोई दूर रहती हूं.’’ उस की शिकायत वाजिब थी. मैं शर्मिंदा था.

वह क्यों बताती कि वह बीमार थी. अगर मेरा उस से कोई वास्ता था, तो मुझे स्वयं उस का खयाल रखना चाहिए था.

‘‘क्या हुआ था?’’ मैं ने सरगोशी में पूछा, जैसे मैं कोई गुप्त बात पूछ रहा था. और मुझे डर था कि कोई हमारी बातचीत सुन लेगा.

‘‘मुझे खुद नहीं पता,’’ उस ने दीवार की तरफ देखते हुए कहा. उस की आवाज से लग रहा था, वह अपने बारे में बताना नहीं चाहती थी. मैं ने भी जोर नहीं दिया. उस की उदासी से मैं स्वयं दुखी हो गया, परंतु उस की उदासी दूर करने का मेरे पास कोई इलाज नहीं था.

‘‘डाक्टर को दिखाया था?’’ मैं और क्या पूछता.

‘‘नहीं,’’ उस ने ऐसे कहा, जैसे उस की बीमारी का इलाज किसी डाक्टर के पास नहीं था. कैसी अजीब लड़की है. बीमार थी, फिर भी डाक्टर को नहीं दिखाया था. यह भी उसे नहीं पता कि उसे हुआ क्या था? क्या वह बीमार नहीं थी. उस को कोई ऐसा दुख था, जिसे वह जानबूझ कर दूसरों से छिपाना चाहती थी. वह अंदर ही अंदर घुट रही थी, परंतु अपने हृदय की बात किसी को बता नहीं रही थी.

फिर एक लंबी चुप्पी…तब तक नेहा चाय ले कर आ गई. बातों की दिशा अचानक मुड़ गई. नेहा ने पूछा, ‘‘हां, अब बताओ क्या हुआ था?’’

छवि पहली बार मुसकराई, ‘‘कुछ खास नहीं, बस सर्दीजुकाम था. इसलिए 2 दिन आराम किया.’’ नेहा से वह बड़े सामान्य ढंग से बातें कर रही थी, परंतु मैं जानता था, उस के अंदर बहुतकुछ छिपा हुआ था. वह हम सब को ही नहीं, स्वयं को धोखा दे रही थी.

छवि के व्यवहार में विरोधाभास था. नेहा के साथ वह सामान्य व्यवहार करती थी, जबकि मेरे साथ बात करते समय वह चिड़चिड़ा जाती थी. इस का क्या कारण था, यह तो वही बता सकती थी. परंतु कोई न कोई बात उसे परेशान अवश्य कर रही थी.

इतवार का दिन था. नेहा ने अपनी सहेलियों के साथ वाशी में जा कर शौपिंग का प्रोग्राम बनाया था. वहां अभीअभी 2-3 मौल खुले थे. मैं ने सोचा था कि नेहा के जाने के बाद मैं कुछ लेखनकार्य करूंगा.

नेहा के जाने के बाद मेरा मन लेखनकार्य की तरफ प्रवृत्त तो नहीं हुआ, परंतु छवि की ओर दौड़ कर चला गया. मन हो रहा था, वह आए तो खुल कर उस से बातें कर सकूं. मेरे ऐसा सोचते ही दरवाजे की घंटी बजी. घंटी की तरह मेरा दिल धड़का और दिल के कोने से एक आवाज आई, वही होगी. सचमुच वही थी. मेरे दरवाजा खोलते ही तेजी से अंदर घुस आई और बिना दुआसलाम के पूछा, ‘‘दीदी कहीं गई हैं?’’

उस ने एक पल घूरती नजरों से देखा फिर मुसकरा कर बोली, ‘‘नहीं, मैं आप से नाराज नहीं हूं.’’

‘‘फिर क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

‘‘हूं. सोचती हूं बता ही दूं. आखिर घुटते रहने से क्या फायदा. शायद आप मेरी कुछ मदद कर सकें.’’ मुझे लगा वह मेरे प्रति अपने प्यारका इजहार करेगी. मैं धड़कते दिल से उसे देख रहा था. उस ने आगे कहा, ‘‘यह सही है कि मैं दुखी हूं, परंतु इतनी भी दुखी नहीं हूं कि रातभर रो कर तकिया गीला करूं. मन कभीकभी ऐसी चीज पर अटक जाता है जो उस की नहीं होती. तभी हम दुखी होते हैं.’’

मुझे लगा कि वह मेरे बारे में बात कर रही थी. मैं मन ही मन खुश हो रहा था. तभी उस ने अचानक पूछा, ‘‘क्या आप ने किसी को प्यार किया है?’’

मैं भौचक्का रह गया. उस का सवाल बहुत सीधा था, लेकिन मैं उस के प्रश्न का सीधा जवाब नहीं दे सका. लेकिन उस ने मेरे किस प्यार के बारे में पूछा था, शादी के पहले का, बाद का या अभी का. क्या उस ने भांप लिया था कि मैं उस से प्यार करने लगा था. अगर हां, तब भी मैं उस के सामने स्वीकार करने का साहस नहीं कर सकता था. मैं ने हैरानगी प्रकट करते हुए कहा, ‘‘कौन सा प्यार?’’

उस ने उपहासभरी दृष्टि से कहा, ‘‘आप सब समझते हैं कि मैं कौन से प्यार के बारे में पूछ रही हूं. चलिए, आप बताना नहीं चाहते, मत बताइए, प्यार के बारे में झूठ बोलना आम बात है. आप कुछ का कुछ बताएंगे और समझेंगे कि मैं ने मान लिया. इसलिए रहने दीजिए. ’’

‘‘तो आप ही बता दीजिए आप के मन में क्या है, यहां से दुखी हो कर जाएंगी तो मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा,’’ मैं ने तुरंत कहा.

 

‘‘मेरे दुखी होने से आप को क्या फर्क पड़ेगा,’’ उस ने उपेक्षा के भाव से कहा. उस की बात सुन कर मुझे दुख हुआ. क्या यह जानबूझ कर मेरे मन को दुख पहुंचा रही थी, ताकि उसे पता चल सके कि मैं उस के बारे में कितना चिंतित रहता हूं. किसी के बारे में सोचना, उस का खयाल रखना और उस को ले कर चिंतित होना प्यार के लक्षण हैं. वह शायद इन्हें ही जानना चाहती थी. उस के व्यवहार से मैं इतना तो समझ ही गया था कि वह मेरे बारे में सोचती है, परंतु किसी मजबूरी या कारणवश अपने हृदय को मेरे सामने खोलना नहीं चाहती थी. क्या इस का कारण मेरा शादीशुदा होना था?

‘‘मेरे दुख का तुम अंदाजा नहीं लगा सकती,’’ मैं ने बेचारगी के भाव से कहा.

‘‘15 दिनों के बाद जब मैं चली जाऊंगी, तब देखूंगी कि आप मुझ को ले कर कितना दुखी और चिंतित होते हैं,’’ उस ने लापरवाही से कहा.

‘‘तब तुम मेरा दुख किस प्रकार महसूस करोगी.’’

‘‘कर लूंगी, अपने हृदय से. कहते हैं न कि दिल से दिल की राह होती है. जब आप दुखी होंगे तब मेरे दिल को पता चल जाएगा.’’

कहतेकहते उस की आवाज नम सी हो गई थी. मैं ने देखा उस की आंखों में गीला सा कुछ चमक रहा था, वह अपने आंसुओं को रोकने का असफल प्रयास कर रही थी. अब मेरे मन में कोई शक नहीं था कि वह सचमुच मुझे प्यार करती थी, परंतु खुल कर हम दोनों ही इसे न तो कहना चाहते थे, न स्वीकार करना. मजबूरियां दोनों तरफ थीं और इन को तोड़ पाना लगभग असंभव था.

शाम तक हम दोनों इसी तरह एकदूसरे को बहलातेफुसलाते रहे, परंतु सीधी तरह से अपने मन की बात न कह सके.

15 दिन बहुत जल्दी बीत गए. इस बीच छवि से मेरी मुलाकात नहीं हुई. इस के लिए हम दोनों में से किसी ने प्रयास भी नहीं किया. पता नहीं हम दोनों क्यों एकदूसरे से डरने लगे थे. मैं अपने भय को समझ नहीं पा रहा था और छवि का भय मैं समझ सकता था.

जाने से एक दिन पहले की शाम…वह हंसती हुई हमारे यहां आई और नेहा के गले लगते हुए बोली, ‘‘दीदी, कल मैं जा रही हूं, आप को बहुत मिस करूंगी.’’ नेहा के कंधे पर सिर रखे हुए उस ने तिरछी नजर से मेरी तरफ देखा और हलके से बायीं आंख दबा दी. मैं उस का इशारा नहीं समझ सका.

गले मिलने के बाद दोनों आमनेसामने बैठ गए. नेहा ने पूछा, ‘‘बड़ी जल्दी तुम्हारी छुट्टियां बीत गईं, पता ही नहीं चला. फिर आना जल्दी.’’

मैं चुपचाप दोनों की बातें सुन रहा था. नेहा जैसे मेरे मन की बात कह रही थी. मुझे अपनी तरफ से कुछ कहने की जरूरत नहीं थी.

 

‘‘हां, जल्दी आऊंगी. अब तो आप लोगों के बिना मेरा मन भी नहीं लगेगा,’’ कहतेकहते एक बार फिर छवि ने मेरी तरफ देखा. जैसे उस के कहने का तात्पर्य मुझ से था. अर्थात मेरे बिना उस का मन नहीं लगेगा. क्या यह सच था? अगर हां, तो क्या वह मुझ से जुदा हो सकती थी.

अगले दिन वह चली गई. दिनभर मैं उदास रहा, लेकिन उस को याद कर के रोने का कोई फायदा नहीं था.

शाम को हर दिन की तरह मैं अपने लैटरबौक्स से चिट्ठियां निकाल रहा था. लिफाफों के बीच में एक विश्ेष तरह का लिफाफा देख कर मैं चौंका. यह किसी डाक से नहीं आया था, क्योंकि उस पर न तो कोई टिकट लगा था और न ही उस पर भेजने वाले का नामपता ही था. बस, पाने वाले की जगह पर मेरा नाम लिखा था. लिफाफे में एक खुशबू बसी हुई थी जो मुझे उसे तुरंत खोलने पर मजबूर कर रही थी. मैं ने धड़कते दिल से उसे खोला और बिजली की गति से मेरी आंखें लिफाफे के अंदर रखे कागज पर दौड़ने लगीं.

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं आप को क्या कह कर संबोधित करूं. मेरा आप का क्या संबंध है? मैं समझती हूं संबोधनहीन रहना ही हम दोनों के लिए श्रेष्ठ है. मेरा मानना है कि मेरे हृदय में आप का जो स्थान है उस के सामने सारे संबोधन बेमानी हो जाते हैं.

‘‘मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मुंबई जा कर मैं इस चक्कर में पड़ जाऊंगी. परंतु मन क्या किसी के वश में होता है. आप में पता नहीं मुझे क्या अच्छा लगा, कि बस आप की हो कर रह गई. उस दिन जब मैं ने आप को लैटरबौक्स से चिट्ठियां निकालते देखा था तो अनायास मेरा दिल धड़क उठा. किसी अनजान आदमी को देख कर ऐसा क्यों होता है, यह तत्काल न समझ पाई, परंतु अब समझ गई हूं कि इस एहसास का क्या नाम होता है. मेरे हृदय के एहसास को नाम तो मिल गया, परंतु उस का अंजाम क्या होगा, यह अभी तक अनिश्चित है. इसलिए मैं खुल कर आप से कुछ न कह पाई और अपने एहसास के साथ मन ही मन घुटती रही.

‘‘मैं जानती हूं कि आप के हृदय में भी वही एहसास हैं, परंतु आप भी मुझ से खुल कर कुछ नहीं कह पाए. हम दोनों एकदूसरे से चोरी करते रहे. अच्छा होता हम दोनों में से कोई खुल कर अपनी बात कहता तो हो सकता है दोनों इतने कष्ट में इस तरह घुटते हुए अपने दिन न बिताते. हमारे मन के संकोच हमें आगे बढ़ने से रोकते रहे. मैं डरती थी कि आप का वैवाहिक जीवन न बिखर जाए और आप के मन में संभवतया यह डर बैठा हुआ था कि शादीशुदा हो कर कुंआरी लड़की से प्रेमनिवेदन कैसे करें और क्या वह आप को स्वीकार करेगी.

‘‘परंतु मैं समझ गई हूं कि प्रेम की न तो कोई सीमा होती है न कोई बंधन. प्रेम स्वच्छंद होता है. इसे न तो कोई मूल्य बांध सकता है, न नैतिकता इसे रोक सकती है क्योंकि यह नैसर्गिक होता है. मैं आज भले ही आप से दूर हूं और शारीरिक रूप से भले ही हम नहीं मिल पाएं हैं परंतु मैं जानती हूं कि हम दोनों कभी एकदूसरे से दूर नहीं हो सकते हैं. मैं फिर लौट कर आऊंगी और अगली बार जब मैं आप से मिलूंगी तब मेरे मन में कोई संकोच, कोई झिझक नहीं होगी. तब आप भी अपने बंधनों को तोड़ कर मेरे साथ प्यार की नैसर्गिक दुनिया में खो जाएंगे.

‘‘अब और ज्यादा नहीं, मैं अपने दिल को खोल कर आप के सामने रख रही हूं. आप इसे स्वीकार करेंगे या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा, परंतु मैं आप की हूं, इतना अवश्य जानती हूं.’’

पत्र को पढ़ कर मैं पूरी तरह से रोमांचित हो उठा था. मेरा रोमरोम सिहर उठा. काश, थोड़ी सी और हिम्मत की होती तो हम दोनों इस तरह विरह के आंसू बहाते हुए न जुदा होते.

मैं ने पत्र को कई बार पढ़ा और बारबार उसे सूंघ कर देखता रहा. उस में छवि के हाथों की खुशबू थी. मैं ने उसे अंदर तक महसूस किया.

पत्र को हाथों में थामें हुए मुझे कई पल बीत गए. अचानक एक धमाके की तरह नेहा ने मेरे मन में प्रवेश किया. उस की मुसकान मेरे दिल को बरछी की तरह घायल कर गई. नेहा मेरी पत्नी थी. मुझे उस से कोई शिकायत नहीं थी. वह सुंदर थी, गृहकार्यों में कुशल थी. मुझे जीजान से प्यार करती थी, फिर मैं कौन सा प्यार पाने के लिए उस से दूर भाग रहा था? क्या मैं मृगतृष्णा का शिकार नहीं हो गया था? मानसिक और शारीरिक, दोनों ही प्यार मेरे पास उपलब्ध थे, फिर छवि में मैं कौन सा प्यार ढूंढ़ रहा था?

मेरे मन में चिनगारियां सी जलने लगीं. हृदय में जैसे विस्फोट से हो रहे थे. ऐसे विस्फोट जो मेरे जीवन को जला कर तहसनहस करने के लिए आमादा थे. मैं ने तुरंत मन में एक अडिग फैसला लिया. मैं जानता था, मुझे क्या करना था? मैं अब और अधिक भटकना नहीं चाहता था.

मैं ने छवि के पत्र को फाड़ कर वहीं पर फेंक दिया. उसे सहेज कर रखने का साहस मेरे पास नहीं था. मैं छवि की खूबसूरती और यौवन में खो कर कुछ दिनों के लिए भटक गया था. अच्छा हुआ, हम दोनों ने अपने हृदय को एकदूसरे के सामने नहीं खोला. खोल देते, तो पता नहीं हम वासना की किन अंधेरी गलियों में खो जाते.

छवि सुंदर और नौजवान है, कुंआरी है, उसे बहुत से लड़के मिल जाएंगे प्यार और शादी करने के लिए. मैं उस के घर का चिराग नहीं था. मैं एक भटकता हुआ तारा था. जो पलभर के लिए उस की राह में आ गया था और वह मेरी चमक से चकाचौंध हो गई थी.

मैं एक पारिवारिक व्यक्ति था, एक लेखक था. अपनी पत्नी के साथ मैं खुश था. हमारे संतान नहीं थी, तो क्या हुआ? आज नहीं तो कल, संतान भी होगी. नहीं भी होगी, तो क्या बिगड़ जाएगा? दुनिया में बहुत सारे संतानहीन दंपती हैं, और बहुत सारे संतान वाले दंपती अपनी संतानों के हाथों दुख उठाते हैं.

नेहा के अतिरिक्त मुझे किसी और के प्यार की दरकार नहीं.

मुझे आशा है, अगली बार जब छवि मेरे यहां आएगी, मैं उसे नेहा की छोटी बहन के रूप में ही स्वीकार करूंगा. मैं उस का प्रेमी नहीं हो सकता.

Maharashtra Election : महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव परिणाम किस ने की धर्म की अफीम चटाने वालों की जीतने में मदद

Maharashtra Election : महाराष्ट्र राज्य विधान सभा चुनाव परिणामों ने हर किसी को चौंका दिया है. महाविकास अघाड़ी की बुरी तरह से हुई पराजय और महायुति की प्रचंड जीत ने कई सवाल उठा दिए हैं. ऐसा पहली बार हुआ है, जब इन चुनाव परिणामों को देख कर महाराष्ट्र की जनता भी गुस्से में है. तो वहीं विपक्ष यानी कि ‘महाविकास अघाड़ी’ की तरफ से हार को स्वीकार करने की बजाय चुनाव आयोग व सरकारी मशीनरी पर ही सारा दोश मढ़ा जा रहा है. उधर उद्धव ठाकरे और संजय राउत ने अपनी पार्टी की पार्टी की हार का ठीकरा चुनाव आयोग के साथ ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ पर फोड़ा है, मगर कोई भी अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखना चाहता. जबकि ‘महा विकास अघाड़ी की इस पराजय के पीछे सरकारी मशीनरी और चुनाव आयोग की करतूतों के साथ इन दलों के अंदर पल रहे ‘पैरासाइट्स / परजीवी तथा इन दलों की अपनी कार्यशैली कम जिम्मेदार नहीं है. तो वहीं इस बार पूरे महाराष्ट्र में ‘आरएसएस’ जमीनी सतह पर बहुत ही ज्यादा सक्रिय रहा.

भजपा और आरएसएस ने जम कर वोटरों को ढर्म की चाशनी चटाई. चुनाव के दौरान सक्रिय रहे पत्रकार भी विपक्षी दलों की हार से आश्चर्यचकित हैं, मगर किसी ने भी इन की कार्यशैली की कमियों की तरफ इशारा न चुनाव के दौरान किया था और परिणाम आने के बाद कर रहे हैं. किसी को भी दोश देने से पहले जरुरत होती है कि पहले आप अपना घर मजबूत करें, अफसोस विपक्षी दलों के घर के अंदर ही मतभेद और एकदूसरे को नीचा दिखाने की आग धधकती रही.

विपक्षी दल व कुछ राजनैतिक विश्लेशक दावा कर रहे हैं कि भाजपा समर्थित ‘महायुति’ को ‘लाड़ली बहना योजना’, जिस के तहत महिलाओं को हर माह 1500 दिए गए, ने जिताया. यह एक फैक्टर हो सकता है मगर बड़ा फैक्टर नहीं. महज इस योजना के चलते ‘महायुति’ के खाते में 288 में से 230 सीटें और महाविकस अघाड़ी केवल 49 पर सिमट जाए, यह नहीं हो सकता. बहरहाल, महाराष्ट्र राज्य के दल गत चुनाव परिणाम इस प्रकार रहे. भजपा 132, शिवसेना शिंदे गुट 57, एनसीपी अजीत पवार गुट 41 सीट, शिवसेना उद्धव गुट 20, कांग्रेस 16 और एनसीपी शरद पवार गुट 10 सीटें.

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणामों के विश्लेशण करने से पहले विपक्षी दलों की हार की मूल वजह पर एक नजर डाना जरुरी है. ‘यथा राजा तथा प्रजा.’ यही सच है. 2014 से बौलीवुड और विपक्षी दलों की कार्यशैली एक जैसी हो गई है. इसी वजह से बौलीवुड की हर फिल्म व हर दिग्गज कलाकार बौक्स औफिस पर डूब रहा है, तो वहीं विपक्षी दल हर चुनाव हारते जा रहे हैं.

2014 के बाद बौलीवुड दो खेमों में बंट चुका है. एक खेमा वह है जो कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ या ‘द साबरमती रिपोर्ट’ जैसी सरकार परस्त व धर्म बेचने वाली प्रपोगंडा सिनेमा बना रहा है, जिसे सरकारी मशीनरी से भरपूर मदद मिल रही है तो दूसरी तरफ वह खेमा है जो कि पैरासइट्स / परजीवियों की सलाह पर काम करते हुए घटिया फिल्में बनाने के साथ ही फिल्म के प्रमोशन के लिए जनता व पत्रकारों से दूर हो कर कुछ शहरों के कालेज ग्राउंड या माल्स में जा कर भाड़े की भीड़ बुला कर अपनी फिल्म के सुपरडुपर हो जाने के दावे करते रहते हैं. पर फिल्म बौक्स औफिस पर धराशाही हो जाती है.

वास्तव में जब से बौलीवुड के दिग्गजों ने अपनी कार्यशैली बदली है तब से उन का आम दर्शकों से संबंध विच्छेद हो गया है और अब इन्हें जनता की नब्ज की पहचान नहीं रही कि जनता किस तरह का सिनेमा देखना चाहती है.

ठीक यही हालत राजनीतिक जगत में है. राजनीति में सत्तापक्षा के पास धन बल के साथ ही धर्म भीरू जनता है. सत्ता पक्ष हिंदू धर्म को बचाने व राष्ट्र को मजबूत बनाने के नाम पर आम जनता को मूर्ख बनाते हुए चुनाव दर चुनाव अपनी विजय पताका फहराता जा रहा है. दूसरी तरफ विपक्ष में बैठे पुराने नेता अपनेअपने दलों के मठाधीशों व पैरासाइट्स / परजीवियों की गलत राय पर चलते हुए चुनाव दर चुनाव पराजय का मुंह देखते जा रहे हैं.

अब जब हम इसी तर्ज पर इस बार के महाराष्ट्र चुनाव की जांच पड़ताल करते हैं तो यह बात साफ तौर पर उभर कर आती है कि आम जनता ने इन्हें नहीं हराया बल्कि इन्हें इन के परजीवियों और खुद को खुदा मानने वालों ने ही हराया है. अन्यथा महज ठाणे क्षेत्र की दो तीन सीटों पर प्रभुत्व रखने वाले एकनाथ शिंदे की पार्टी कैसे 57 सीटें जीत गई. अथवा शरद पवार के गढ़ को महज 5 माह पहले संपन्न लोकसभा चुनावों न भेद पाने वाले अजीत पवार ने इस बार कैसे नेस्तानाबूद कर 41 सीट जीत लीं.

इस बार महाराष्ट्र में अमित शाह से ले कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी सभाओं में खाली पड़ी कुर्सियों को देख कर विपक्षी दल और विपक्षी दलों का समर्थन करने वाले पत्रकार गदगद होते रहे और दावा करते रहे कि इस बार भाजपा समर्थित ‘महायुति’ का विस्तार गोल हो जाएगा. मगर विपक्षी दल के नेता और यह पत्रकार इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे थे कि इस बार भाजपा और आरएसएस असली खेल क्या कर रही है.

इस बार महायुति ने चुनावी सभाओं में भाड़े की भीड़ बुलाने पर पैसा खर्च नहीं किए, जबकि विपक्षी पार्टीयां चुनावी सभाओं में भीड़ बुलाने पर ही ध्यान केंद्रित रखा. आम जनता से सीधा संपर्क बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. वहीं भाजपा और आरएसएस हर दरवाजा खटखटाते रहे. सब से पहले आरएसएस व भाजपा के कार्यकर्ता घरघर जा कर दो पन्नों का हिंदी व मराठी भाषा में छपे पम्पलेट बांटे, जिस का शीर्षक है- मतादाताओं से विनम्र अपील’. इस में राष्ट्र निर्माण, देश की आंतरिक सुरक्षा, विकास वगैरह को ध्यान में रख कर वोट देने की बात लिखी है.

आरएसएस के कार्यकर्ता यह पम्पलेंट देने के साथ ही हर घर के सदस्य से कम से कम 5 मिनट तक बात कर उन्हें भाजपा व महायुति के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करने का काम किया. इस के बाद उम्मीदवार की तरफ से हर घर अपनी व अपने नेता की तस्वीर सहित पोस्टर भिजवाने गए. फिर सभी के पास वोटर पर्ची भिजवाई जिस में उम्मीदवार की तस्वीर के साथ ही मतदान केंद्र पर ले कर जाने वाली जानकारी अंकित थी. जबकि चुनाव आयोग की तरफ से हर वोट के पास जानकारी भेजी जा चुकी थी.

उम्मीदवार ने सड़क पर रैली निकालने के साथ ही हर इमारत / सोसायटी के गेट पर रूक कर लोगों से बात की, कुछ सोसायटी के सदस्यों ने गेट पर उस उम्मीदवार की आरती भी उतारी. मतदान से एक दिन पहले 19 नवंबर को आरएसएस के कार्यकर्ता घरघर जा कर सभी से वोट डालने का निवेदन किया. मतदान वाले दिन आरएसएस कार्यकर्ता सुबह 9 बजे और फिर दोपहर 2 बजे घरघर पहुंच कर पूछा कि वोट दिया या नहीं और जिस ने उस वक्त तक नहीं दिया था, उस से कहा कि आप हमारे साथ चले और अपने हक का उपयोग करें.

आरएसएस कार्यकर्ता सिर्फ भाजपा उम्मीदवार ही नहीं बल्कि एकनाथ शिंदे और अजीत पवार के दल के उम्मीदवार के क्षेत्र में भी इसी तरह सक्रिय रहे. इसी के साथ शहरी क्षेत्रों में कुछ भाजपा उम्मीदवारों ने मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई कर चुके लड़केलड़कियों को अपना पीआरओ बना कर घरघर भेजा. मजेदार बात यह है कि इन में से कई तो महज 228 या 500 वोट से जीत गए.

इस के विपरीत कांग्रेस, शिवसेना उद्धव गुट और एनसीपी शरद पवार गुट के उम्मीदवार तो सिर्फ अपने बडे़ नेताओं की रैली में जुट रही भीड़ के बल पर जीत जाने के भ्रम में बैठे रहे. यह सभी पैरासाइट्स / परजीवी ही कहे जाएंगे. इतना ही नहीं महाविकास अघाड़ी के नगर सेवक वगैरह भी अपनेअपने औफिसों को शोभायमान करते रहे. इन सभी में अहम ही नजर आता है.

बतौर उदाहरण हम ‘ओवला माजीवाड़ा’ विधान सभा क्षेत्र की बात कर लें. यहां से महयुति की तरफ से एकनाथ शिंदे के शिवसेना गुट के उम्मीदवार प्रताप बाबू राव सरनाइक थे. जिन की टक्कर उद्धव ठाकरे की शिवसेना के उम्मीदवार नरेश मणेरा से थी. मतदान से पहले तक इस क्षेत्र की जनता को पता ही नहीं था कि नरेश मणेरा उम्मीदवार हैं. नरेश मणेरा तो छोड़िए, उद्धव ठाकरे गुट की नगरसेवक तक ने कोई प्रचार नहीं किया. इसी चुनाव क्षेत्र में एक कालोनी है, जहां 40 इमारतें / सोसायटी हैं. इसी कालेनी के अंदर भाजपा और शिवसेना, उद्धव ठाकरे गुट की नगर सेविका का औफिस हैं. भाजपा कार्यालय दिनभर खुला रहता, चहल पहल बनी रहती थी. जबकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना का औफिस दोपहर 11 से एक बजे तक और शाम को 6 से 8 बजे तक खुलता, नगरसेविका आ कर बैठती थी. औफिस से बाहर वह खड़ी कभी नजर नहीं आई.

उन्होने इस कालोनी की 40 सोसायटी वालों से भी बात कर शिवसेना, उद्धव गुट के उम्मीदवार को जिताने की बात नहीं की. उम्मीदवार नरेश मणेरा खुद भी किसी से नहीं मिले और न ही तो घर घर वोटर पर्ची ही भिजवाई. ऐसे में आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आप चुनाव जीत जाएंगे और अब आप दूसरों पर दोष मढ़ रहे हैं. यदि आप वोटरों के बीच नहीं जाएंगे तो आप वोटर की नब्ज कैसे पहचान सकते हैं. अब वह वक्त गया जब बाला साहेब ठाकरे के नाम पर आप घर बैठे चुनाव जीत सकते थे.

इस चुनाव क्षेत्र में प्रताप सरनाइक को 184178 वोट मिले, जबकि नरेश को महज 76020 वोट मिले. यानी कि प्रताप सरनाइक ने 108158 वोटो से जीत हासिल की. यह महज एक उदाहरण है, मगर इस चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी, शरद पवार की पार्टी और उद्धव ठाकरे की पार्टी के कार्यकर्ता, नगर सेवक आदि इसी तरह से सिर्फ बड़ी रैलियों में नजर आने के अलावा कहीं नजर नहीं आए.

माना कि इन दलों के पास भाजपा की तरह धन बल की कमी है, पर इन के उम्मीदवार, इन के कार्यकर्ता अपने घर से निकल कर आम जनता तक शारीरिक रूप से तो पहुंच कर अपनी बात कह सकते थे. पर ऐसा करना इन लोगों ने अपनी शान के विपरीत समझा. यही वजह है कि अब तक शिवसेना, उद्धव गुट का गढ़ रहा मुंबई की सीटें भी उद्धव ठाकरे नहीं बचा पाए.

क्या रहा स्ट्राइक रेट

अब पहले चुनाव परिणामों के नतीजों का विश्लेषण कर लिया जाए. भाजपा ने 149 सीटों पर चुनाव लड़ा और 132 पर जीत हासिल की, यानी कि भाजपा का स्ट्राइक रेट 89 प्रतिशत रहा. जबकि शिंदे गुट की शिवसेना ने 81 सीटों पर चुनाव लड़ कर 57 पर जीत हासिल की तो इन का स्ट्राइक रेट 70 प्रतिशत रहा, एनसीपी अजीत पवार गुट ने 59 सीटों पर चुनाव लड़ कर 41 सीटें जीत लीं. इन का स्ट्राइक रेट 69 प्रतिशत रहा. कांग्रेस 100 सीटों पर लड़ कर महज 16 सीटें जीती, इन का स्ट्राइक रेट रहा 16 प्रतिशत, शिवसेना, उद्धव ठाकरे गुट 94 सीटों पर लड़ कर 20 सीटें जीती, स्ट्राइक रेट रहा 21.3 प्रतिशत, शरद पवार की एनसीपी 86 सीटों पर लड़ कर केवल 10 पर जीत हासिल की, स्ट्राइक रेट रहा 11.6 प्रतिशत.

शिवसेना, उद्धव गुट ने इसे बेइमानी की जीत व ईमानदारी की हार की संज्ञा दी है. संजय राउत ने ‘सामना’ में लिखा है, ‘‘ महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं. मगर यह जनमत यानी कि जनादेश नहीं है. महायुति को 230 सीटें मिल सकती हैं, इस पर कौन यकीन करेगा. यह नतीजा विचलित करने वाला है. सरकार के खिलाफ प्रचंड आक्रोश फिर भी इतनी सीटें. कैसे?

महाराष्ट्र की धरती पर बंटेंगे तो कटेंगे जैसे जहरीले प्रचार अभियान के तीर चलाए गए, पर चुनाव अयोग ने कोई आपत्ति नहीं उठाई. अब गर पैसे के बल पर चुनाव जीतना है तो फिर लोकतंत्र को ताला ही जड़ देना होगा और यहां पर केवल अडाणी की पार्टी ही चुनाव लड़ सकेगी.’..वगैरह..वगैरह’.

संजय राउत ने जो कुछ सामना में लिखा है, उस के पीछे उन की अपनी बौखलाहट है, क्योंकि अब उन्हें अहसास हो गया है कि अगली बार वह राज्य सभा नहीं पहुंच पाएंगे. अगर उद्धव ठाकरे अपने दल की हार पर गंभीरता से विचार करें, तो उन्हें पता चलेगा कि इस हार के लिए असली दोषी संजय राउत और उन का बड़बोलापन ही है.

चुनाव के वक्त टिकट बंटवारे को ले कर ‘महायुति’ में भी मतभेद रहे होंगे, मगर वह मतभेद बाहर नहीं आए. जबकि महाविकास अघाड़़ी के यहां टिकट बंटवारे के मतभेद बहुत बड़ा मुद्दा बन कर आम लोगों के सामने आता रहा और यह काम संजय राउत ही कर रहे थे हर मीटिंग के बाद संजय राउत बाहर आ कर बेवजह की बयान बाजी करने के साथ ही मुख्यमंत्री शिवसेना, उद्धव गुट का ही होना चाहिए कि रट लगाते रहे. इस तरह देखा जाए तो उद्धव ठाकरे के लिए संजय रउत ने दुष्मन का ही काम किया, पर उद्धव ठाकरे सच को कब समझ पाएंगे पता नहीं.

इस के अलावा चुनावों के दौरान उद्धव ठाकरे के कुछ बयानों का मतलब यह निकाला गया कि वह भाजपा के साथ जा सकते हैं. मगर उद्धव ठाकरे या संजय राउत की तरफ से इस को ले कर स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. इस का खामियाजा भी उद्धव ठाकरे की पार्टी को झेलना पड़ा. इतना ही नहीं बाल ठाकरे की आवाज में एक जोश हुआ करता था, उन के भाषण सुन कर लोग उन की तरफ खिंचते थे. मगर उद्धव ठाकरे या आदित्य ठाकरे की आवाज में वह बात नहीं है. संजय राउत बयानबाजी करने में माहिर हैं, पर वह कुछ ज्यादा ही बड़बोले है, जिस का नुकसान पार्टी को हो रहा है. इस के अलावा जब तक बाल ठाकरे जिंदा रहे, तब तक उद्धव ठाकरे ने पार्टी की राजनीति में बहुत ज्यादा सक्रिय भूमिका नहीं निभाई.

150 चुनाव याचिकाएं होगी दाखिलः जीते हुए विधायक देंगें इस्तीफा ?

चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद कांग्रेस, शरद पवार और उद्धव ठाकरे गुट ने जम कर चुनाव आयोग पर वार किया है और इन का आरोप है कि ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की गई. इसी के चलते इन दलों ने योजना बनाई है कि इन के 150 उम्मीदवार प्रति बूथ 47 हजार रूपए भर कर चुनाव आयोग से वीवीपैट की मिलान कराने के लिए कहेंगे. तो वहीं इस पर विचार किया जा रहा है कि सभी विधायक इस्तीफा दें, इस पर कितना अमल होगा, यह कहना मुश्किल है पर यदि ऐसा हुआ तो चुनाव आयोग पर दबाव जरुर बनेगा.

वायनाड और झारखंड की बजाय महाराष्ट्र पर रहा भाजपा का सारा जोर

महाराष्ट्र में आम राय यही बन रही है कि केंद्र सरकार और भाजपा की सरकारी मशीनरी ने वायनाड और झारखंड की बजाय सारा खेल महाराष्ट्र में किया जिस के पीछे कई वजहें हैं. आरोप लगाए जा रहे हैं कि गुजरात से कंटेनर में भर कर 3400 करोड़़ रूपए महाराष्ट्र ला कर चुनाव में बांटे गए. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े को मतदान से दो दिन पहले 5 करोड़ रूपए नगद के साथ पकड़ा गया. कहा जा रहा है कि भाजपा ने इस नीति पर काम किया कि ‘झारखंड ले लो और महाराष्ट्र दे दो’.

अब यह आरोप भी लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी के अंदर मौजूद कुछ जयचंद तो भाजपा के इशारे पर काम करते हुए कांग्रेस को हराने में अहम भूमिका निभाई. भाजपा के लिए महाराष्ट्र महत्वपूर्ण क्यों है. पहली बात तो इस वक्त 2 लाख करोड़ का धारावी प्रोजेक्ट अहम है. धारावी के रिडेवलपमेंट का कमा अडाणी को दिया गया है और चुनावी सभा में उद्धव ऐलान करते रहे हैं कि चनाव जीतने के बाद उन की सरकार अडाणी से धारावी का प्रोजेक्ट छीन लेगी. अब भला अडाणी दो लाख करोड़ के प्रोजेक्ट को जाने से देने के लिए धन बल सहित हर तरह की मदद भाजपा की की होगी, ऐसे आरोप लग रहे हैं.

इस के अलावा भी महाराष्ट्र में अडाणी के कई प्रोजेक्ट लंबित हैं. दूसरी बात यह है कि भाजपा कुछ समय से देश की आर्थिक राजधानी को मुंबई से अहमदाबाद, गुजरात ले जाने के लिए भी प्रयासरत है. 2014 के बाद कई बड़े प्रोजेक्ट व कई बड़े उद्योगपति महाराष्ट्र से गुजरात पहुंच चुके हैं.

लाड़ली बहना योजना

आज विपक्ष इस बात पर चिल्ला रहा है कि एकनाथ शिंदे की सरकार की 1500 रूपए देने की ‘लाड़की बहना योजना’ ने महायुति को जिता दिया. पहली बात तो हमें इस योजना के चलते दो तीन प्रतिशत से ज्यादा वोटों में फर्क पड़ना नजर नहीं आता. पर अहम सवाल यह है कि इस का फायदा विपक्ष को क्यों नहीं मिला? जबकि उद्धव ठाकरे, शरद पवार आदि ने अपनी चुनावी सभाओं में घोषणा की थी कि वह ‘लाड़ली बहना योजना’ के तहत चुनाव जीतने पर 1500 की बजाय 3 हजार रूपए देंगे, पर महिलाओं ने इन की बातों पर यकीन क्यों नहीं किया. इस की वजह जमीनी सतह पर काम न करना.

जब जुलाई माह में एकनाथ शिंदे की भाजपा समर्थित सरकार ने ‘लाड़ली बहना योजना’ के तहत हर महिला को 1500 रूपए देने की घोषणा की थी और कहा था कि पहली किश्त रक्षा बंधन के अवसर पर दी जाएगी, तो भाजपा, अजीत पवार व शिंदे की पार्टी के कार्यकर्ता औनलाइन फार्म भरने में औरतों की मदद कर रहे थे. पर उद्धव गुट, शरद पवार गुट और कांग्रेस के लोगों ने इस से दूरी बना कर रखी हुई थी. जबकि उस वक्त इन्हें पता था कि यह तो चुनावी छुनछुना है.

ऐसे में इन्हे भी आगे बढ़ कर महिलाओ के फार्म भरने में मदद करनी चाहिए थी. हमें पता है कि उद्धव ठाकरे व कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व नगर सेवकों के पास जब महिलाएं गई कि उन का फार्म भरवा दें, तो इन लोगों ने मदद नहीं की, बल्कि यह कह कर चलता कर दिया कि भाजपा के कार्यायल में जाएं. जबकि फार्म तो इंटरनेट पर भरने थे. अगर शिवसेना, कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भी अपने क्षेत्र के मतदाता महिलाओं के फार्म भरवाए होते तो उन्हें भी रकम मिलती और अब यकीन करते कि कांग्रेस व उद्धव की सरकार आने पर उन्हें 1500 से बढ़ा कर 3 हजार मिलेंगें पर ऐसा नहीं हुआ.

‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का सही जवाब देने में विपक्ष रहा असफल

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने नारा दिया था कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जिस से वह समाज में हिंदू मतों का धुरीकरण कर सके, जिस में वह सफल रहे. इस के जवाब में कांग्रेस ने कहा, ‘एक हैं तो सेफ हैं.’’ पर योगी आदित्यनाथ के नारे के जवाब में विपक्ष मतदाताओं को समझाने में असफल रहा कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ की बात करने वाले ही किस तरह समाज को बांटने का काम कर रहे हैं.

प्रचार में आक्रामता का अभाव

इस के अलावा विपक्षी पार्टियां आम मतदाता, किसानों की समस्याओ को सही ढंग से उठाने में विफल रहीं. यह लोग महंगाई के मुद्दे पर खामोश ही रहे. कांग्रेस चुनाव प्रचार के दौरान आक्रामक नहीं रही. आखिर संविधान की दुहाई देने और खुद को ‘राष्ट्र प्रहरी’ बताने वाली कांग्रेंस ने कैसे धर्म की अफीम चटाने वालों का सच जनता तक नहीं पहुंचा पाई, इस पर गहन विचार करने की जरुरत है.

वास्तव में कांग्रेस के अंदर ही बैठे नाना पटोले व वेणुगोपाल जैसे ही जय चंद हैं. यह तो सिर्फ मुख्यमंत्री बनने के लिए ताल ठोकते रहे, पर वोटरों को कांग्रेस के पक्ष में लाने की दिशा में कोई काम नहीं किया. सब कुछ राहुल गांधी के भरोसे रहे. उद्धव ठाकरे की सब से बड़ी गलती यह रही कि इस चुनाव के दैारान वह खुद चेहरा नहीं बने. उन की पार्टी के तमाम उम्मीदवारों के पोस्टरों में उद्धव व बाल ठाकरे का चेहरा प्रमुख नहीं रहा. इन्हें एकनाथ शिंदे से कुछ तो सीखना चाहिए. रिजल्ट आने के बाद दूसरे दिन विजयी बनाने के लिए मतदाताओं को धन्यवाद देने के विज्ञापन में एकनाथ शिंदे ने खुद को केंद्र में रखा. अपने अगलबगल में अजीत पवार व देवेंद्र फड़नवीस की छोटी तस्वीर रखी और बाला साहेब ठाकरे तथा मोदी की तस्वीर को उपर बड़े आकार में दिया. इस तरह उन्होने मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी दावेदारी भी ठोक दी.

ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी कांग्रेस को रही डुबा

कांग्रेस को डुबाने में एक मशहूर ज्येातिषी की भी अहम भूमिका की तरफ कुछ लोग इशारा कर रहे हैं. इन दिनों एक यूट्यूब चैनल पर हर रविवार कांग्रेस व राहुल गांधी के ग्रहों की बात कर उन्हें 2024 के हर चुनाव में प्रचंड जीत हासिल होने व मोदी के बुरे वक्त की भविष्यवाणी करते रहे हैं.

लोकसभा चुनाव से ले कर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा के चुनावों में भी उन्होंने कांग्रेस के ही विजय होने की बात कही थी. पर उन की भविष्यवाणियां गलत निकली, तो सफाई में कह दिया कि फलां ग्रह की वजह से ईवीएम का खेल हो गया. महाराष्ट्र व झारखंड चुनाव से पहले भी इस ज्येतिषी ने कांग्रेस गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिलाया था. अब फिर वह ईवीएम पर सारा दोष मढ़ेगें. कांग्रेस, शरद पवार व उद्धव ठाकरे को कम से कम ऐसे ज्योतिषियों के मायाजाल में फंसने से बचना चाहिए.

शरद पवार, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय राउत के लिए राज्यसभा का रास्ता बंद

अब जो महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के परिणाम आए हैं, उन के चलते अब शरद पवार, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय राउत के लिए राज्यसभा की राह पकड़ना मुश्किल हो गया. शरद पवार व प्रियंका चतुर्वेदी का राज्यसभा का कार्यकाल 3 अप्रैल 2026 के तथा संजय राउत का कार्यकाल 1 जलुाई 2028 को खत्म होगा. पर अब विधान सभा में ‘महायुति’ के पास इतनी ताकत नहीं रही कि वह इन्हें राज्यसभा में भेज सके.

 

बौक्स आयटम
कहीं 75 तो कहीं 377 वोटों से हुई जीत

बुलढाणा विधानसभा सीट पर एकनाथ शिंदे की शिवसेना के गायकवाड संजय रामभाऊ ने महज 841 वोटों से शिवसेना (यूबीटी) की महिला प्रत्याशी जयश्री सुनील शेलके को हराया.

मलेगांव सेंट्रल में ओवैसी की पार्टी औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रत्याशी मुफ्ती मोहम्मद इस्माइल अब्दुल खलीके ने इंडियन सेकुलर लार्जेस्ट असंबेली औफ महाराष्ट्र के प्रत्याशी आसिफ शेख रशीद को 75 वोटों से हराया.
औरंगाबाद पूर्व से भाजपा प्रत्याशी अतुल मोरेश्वर सेव ने सिर्फ 2161 वोटों से चुनाव जीता.
बेलापुर सीट पर भाजपा की मंदा विजय म्हात्रे ने शरद पवार की पार्टी के प्रत्याशी संदीप गणेश नाईक को 377 वोटों से हराया.
करवी विधानसभा सीट पर शिवसेना के चंद्रदीप शशिकांत सिर्फ 1976 वोटों से विधायक बने.
शाहपुर से एनसीपी के दौलत भीका दरोदा ने 1672 वोटों से जीते
अंबेगांव से दिलीप दत्तात्रेय पाटिल ने 1523 मतों से जीत हासिल की.
जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई से शिवसेना (यूबीटी) के अनंत ने 1541 वोटों से जीत हासिल की.
वर्सोवा से हारून खान ने 1600 से जीत पक्की की.
माहिम, मुंबई से महेश बलिराम सावंत 1316 मतों से सीट अपने कब्जे में की.
नवापुर से कांग्रेस प्रत्याशी शिरीश कुमार नाईक ने 1121 सीट हासिल की.
अकोला पूर्व, मुंबई से साजिद खान 1283 वोटों से जीते.
कर्जत जामखेड से एनसीपी (एसपी) के रोहित पवार 1243 मतों से जीते.

10 सीटों पर 5 हजार से कम अंतर से जीता महाविकास अघाड़ी.
भाजपा ने 9 सीटों पर 5 हजार मतों से कम के अंतर से चुनाव जीता
शिवसेना, शिंदे गुट की 6 और अजित पवार की एनसीपी ने 4 सीटों पर 5 हजार से कम मतों से जीत हासिल की.

एक लाख से अधिक मतों से जीतने वाले प्रत्याशी
शिरपुर से भाजपा के आशीराम वेचन पवारा ने 1,45,944 मतों से चुनाव जीता.
बागलान से भाजपा के दिलीप मंगलू बोरसे ने 1,29,297 मतों से चुनाव जीता.
चिंचवाड़ सीट से भाजपा के जगताप शंकर पांडुरंग 103865 मतों से जीते.
बोरीवली, मुंबई से भाजपा के संजय उपाध्याय 1,00,257 मतों से जीते.
कोथरुड से भाजपा के चंद्रकांत पाटिल ने 1,12,041 मतों से जीत दर्ज की.
सतारा से भाजपा के शिवेन्द्रराजे अभयसिंहराजे भोंसले ने 1,42,124 मतों से चुनाव जीता.
मालेगांव आउटर से शिवसेना प्रत्याशी दादाजी दगडू भूसे ने 1,06,606 मतों से जीत दर्ज की.
ओवाला माजीवाड़ा से शिवसेना के प्रताप बाबूराव सरनाईक 1,08,158 मतों से जीते.
कोपरी – पचपाखड़ी से सीएम एकनाथ शिंदे ने 1,20,717 मतों से चुनाव जीता.
बारामती से अजित पवार ने 1,00,899 मतों से जीत दर्ज की.
मावल से एनसीपी के सुनील शंकरराव शेलके ने 1,08,565 मतों से जीत दर्ज की.
कोपरगांव से एनसीपी के आशुतोष अशोकराव काले 124624 मतों से जीते.
पर्ली से एनसीपी के धनंजय मुंडे 140224 मतों से जीते.

ऐसे हुई पूजा

अंशु के अच्छे अंकों से पास होने की खुशी में मां ने घर में पूजा रखवाई थी. प्रसाद के रूप में तरहतरह के फल, दूध, दही, घी, मधु, गंगाजल वगैरा काफी सारा सामान एकत्रित किया गया था. सारी तैयारियां हो चुकी थीं लेकिन अभी तक पंडितजी नहीं आए थे. मां ने अंशु को बुला कर कहा, ‘‘अंशु, एक बार फिर लखन पंडितजी के घर चले जाओ. शायद वे लौट आए हों… उन्हें जल्दी से बुला लाओ.’’

‘‘लेकिन मां, अब और कितनी बार जाऊं? 3 बार तो उन के घर के चक्कर काट आया हूं. हर बार यही जवाब मिलता है कि पंडितजी अभी तक घर नहीं आए हैं?’’

अंशु ने टका जा जवाब दिया, तो मां सहजता से बोलीं, ‘‘तो क्या हुआ… एक बार और सही. जाओ, उन्हें बुला लाओ.’’

‘‘उन्हें ही बुलाना जरूरी है क्या? किसी दूसरे पंडित को नहीं बुला सकते क्या?’’ अंशु ने खीजते हुए कहा.

‘‘ये कैसी बातें करता है तू? जानता नहीं, वे हमारे पुराने पुरोहित हैं. उन के बिना हमारे घर में कोई भी कार्य संपन्न नहीं होता?’’

‘‘क्यों, उन में क्या हीरेमोती जड़े हैं? दक्षिणा लेना तो वे कभी भूलते नहीं. 501 रुपए, धोती, कुरता और बनियान लिए बगैर तो वे टलते नहीं हैं. जब इतना कुछ दे कर ही पूजा करवानी है तो फिर किसी भी पंडित को बुला कर पूजा क्यों नहीं करवा लेते? बेवजह उन के चक्कर में इतनी देर हो रही है. इतने सारे लोग घर में आ चुके हैं और अभी तक पंडितजी का कोई अतापता ही नहीं है,’’ अंशु ने खरी बात कही.

‘‘बेटे, आजकल शादीब्याह का मौसम चल रहा है. हो सकता है वे कहीं फंस गए हों, इसी वजह से उन्हें यहां आने में देर हो रही हो.’’

‘‘वह तो ठीक है पर उन्होंने कहा था कि बेफिक्र रहो, मैं अवश्य ही समय पर चला आऊंगा, लेकिन फिर भी उन की यह धोखेबाजी. मैं तो इसे कतई बरदाश्त नहीं करूंगा. मेरी तो भूख के मारे हालत खराब हो रही है. आखिर मुझे तब तक तो भूखा ही रहना पड़ेगा न, जब तक पूजा समाप्त नहीं हो जाती. जब अभी तक पंडितजी आए ही नहीं हैं तो फिर पूजा शुरू कब होगी और फिर खत्म कब होगी पता नहीं… तब तक तो भूख के मारे मैं मर ही जाऊंगा.’’

‘‘बेटे, जब इतनी देर तक सब्र किया है तो थोड़ी देर और सही. अब पंडितजी आने ही वाले होंगे.’’

तभी पंडितजी का आगमन हुआ. मां तो उन के चरणों में ही लोट गईं.

पंडितजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘क्या करूं, थोड़ी देर हो गई आने में. यजमानों को कितना भी समझाओ मानते ही नहीं. बिना खाए उठने ही नहीं देते. खैर, कोई बात नहीं. पूजा की सामग्री तैयार है न?’’

‘‘हां महाराज, बस आप का ही इंतजार था. सबकुछ तैयार है,’’ मां ने उल्लास भरे स्वर में कहा.

तभी अंशु का छोटा भाई सोनू भी वहां आ कर बैठ गया. पूजा की सामग्री के बीच रखे पेड़ों को देख कर उस का मन ललचा गया. वह अपनेआप को रोक नहीं पाया और 2 पेड़े उठा कर वहीं पर खाने लगा. पंडितजी की नजर पेड़े खाते हुए सोनू पर पड़ी तो वे बिजली की तरह कड़क उठे, ‘‘अरे… सत्यानाश हो गया. भगवान का भोग जूठा कर दिया इस दुष्ट बालक ने. हटाओ सारी सामग्री यहां से. क्या जूठी सामग्री से पूजा की जाएगी?’’

मां तो एकदम से परेशान हो गईं. गलती तो हो ही चुकी थी. पंडितजी अनापशनाप बोलते ही चले जा रहे थे. जैसेतैसे जल्दीजल्दी सारी सामग्री फिर से जुटाई गई और पंडितजी मिट्टी की एक हंडि़या में शीतल प्रसाद बनाने लगे.

अंशु हड़बड़ा कर बोल उठा, ‘‘अरे…अरे पंडितजी, आप यह क्या कर रहे हैं?’’

‘‘भई, शीतल प्रसाद और चरणामृत बनाने के लिए हंडि़या में दूध डाल रहा हूं.’’

‘‘मगर यह दूध तो जूठा है?’’

‘‘जूठा है. वह कैसे? यह तो मैं ने अलग से मंगवाया है.’’

‘‘लेकिन जूठा तो है ही… आप मानें चाहे न मानें, यह जिस गाय का दूध है, उसे दुहने से पहले उस के बछड़े ने तो दूध अवश्य ही पिया होगा, तो क्या आप बछड़े के जूठे दूध से प्रसाद बनाएंगे? यह तो बड़ी गलत बात है.’’

पंडितजी के चेहरे की रंगत उतर गई. वे कुछ भी बोल नहीं पाए. चुपचाप हंडि़या में दही डालने लगे.

अंशु ने फिर टोका, ‘‘पंडितजी, यह दही तो दूध से भी गयागुजरा है. मालूम है, दूध फट कर दही बनता है. दूध तो जूठा होता ही है और इस दही में तो सूक्ष्म जीव होते हैं. भगवान को भोग क्या इस जीवाणुओं वाले प्रसाद से लगाएंगे?’’ पंडितजी का चेहरा तमतमा गया. भन्नाते हुए शीतल प्रसाद में मधु डालने लगे.

‘‘पंडितजी, आप यह क्या कर रहे हैं? यह मधु तो उन मधुमक्खियों की ग्रंथियों से निकला हुआ है जो फूलों से पराग चूस कर अपने छत्तों में जमा करती हैं. भूख लगने पर सभी मधुमक्खियां मधु खाती हैं. यह तो एकदम जूठा है,’’ अंशु ने फिर बाल की खाल निकाली. पंडितजी ने हंडि़या में गंगाजल डाला ही था कि अंशु फिर बोल पड़ा, ‘‘अरे पंडितजी, गंगाजल तो और भी दूषित है. गंगा नदी में न जाने कितनी मछलियां रहती हैं, जीवजंतु रहते हैं. आखिर यह जल भी तो जूठा ही है और ये सारे फल भी तोतों, गिलहरियों, चींटियों आदि के जूठे हैं. आप व्यर्थ ही भगवान को नाराज करने पर तुले हैं. जूठे प्रसाद का भोग लगा कर आप भगवान के कोप का भाजन बन जाएंगे और हम सब को भी पाप लगेगा.‘‘

‘‘तो फिर मैं चलता हूं… मत कराओ पूजा,’’ पंडितजी नाराज हो कर अपने आसन से उठने लगे.

‘‘पंडितजी, पूजा तो आप को करवानी ही है लेकिन जूठे प्रसाद से नहीं. किसी ऐसी पवित्र चीज से पूजा करवाइए जो बिलकुल शुद्ध हो, जूठी न हो और वह है मन, जो बिलकुल पवित्र है?’’

‘‘हां बेटे, ठीक कहा तुम ने मन ही सब से पवित्र होता है. पवित्र मन से ही सच्ची पूजा हो सकती है. सचमुच, तुम ने आज मेरी आंखें खोल दीं. मेरी आंखों के सामने ढोंग और पाखंड का परदा पड़ा हुआ था. मुझ से बड़ी भूल हुई. मुझे माफ कर दो,’’ उस के बाद पंडितजी ने उसी सामग्री से पूजा करवा दी लेकिन पंडितजी के चेहरे पर पश्चात्ताप के भाव थे.

बीमारी के नाम पर झटके ढाई करोड़

जयपुर के एक सरकारी कर्मचारी शिवनारायण जोशी, जिन्होंने अपने बेटे की बीमारी के नाम पर अपने विभाग से हजार या लाख रुपए नहीं बल्कि ढाई करोड़ रुपए से अधिक की रकम निकलवाई और हजम कर गए, बदले में उन्हें क्या मिला? बेटे सहित वे जेल गए, नौकरी से निलंबित कर दिए गए और इज्जत गई सो अलग.

राजस्थान के जयपुर के सार्वजनिक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) में शिवनारायण जोशी सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत थे. बीते लगभग डेढ़ साल से उन का बेटा अमित जोशी बीमार चल रहा था और उस का इलाज दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में चल रहा था. इलाज के दौरान ही अमित जोशी का लिवर ट्रांसप्लांट हुआ था. उस समय शिवनारायण जोशी जयपुर विकास प्राधिकरण (जेडीए) में कार्यरत थे. उन्होंने आपरेशन और दवा के बिल के बदले में 25 से 30 लाख रुपए विभाग से वसूले थे जबकि दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में लिवर ट्रांसप्लांट का कुल खर्च करीब 17 लाख रुपए आया था जो जेडीए से सीधे अस्पताल के खाते में ट्रांसफर हो गया था.

डाक्टरों का कहना है कि सर गंगाराम में लिवर ट्रांसप्लांट के बाद कई माह तक दवाएं चलती हैं और इस में हर माह लगभग 50 हजार रुपए का खर्च आता है, लेकिन 21 दिसंबर, 2008 से ले कर 1 अक्तूबर, 2009 तक शिवनारायण ने इलाज के नाम पर लगभग ढाई करोड़ रुपए निकाल लिए. इस भारीभरकम मैडिकल बिल भुगतान पर जब विभाग को शक हुआ तो नवंबर में मामले की जांच के लिए मुख्य अभियंता ने 3 सदस्यों की एक जांच कमेटी बनाई. कमेटी ने जब दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में जा कर पूछताछ की तो उन्हें पता चला कि लिवर प्रत्यारोपण में करीब 16 से 18 लाख रुपए खर्च होते हैं और उन्होंने अपने यहां से 2 करोड़ 66 लाख के बिल बनाए जाने से भी इनकार कर दिया. जांच कमेटी द्वारा जांच में दोषी पाए जाने पर विभाग ने 22 दिसंबर को जोशी को निलंबित कर दिया.

ऐसा नहीं था कि शिवनारायण जोशी को अपनी गलती और उस के अंजाम का डर नहीं था. वे पहले से सतर्क भी थे. तभी तो उन के स्टेट बैंक के खाते में ढाई करोड़ रुपए आए लेकिन मामला पुलिस के पास पहुंचने तक उस खाते में मात्र 50 हजार रुपए ही छोड़े गए थे. रकम आते ही जोशी या तो पैसे निकाल लेते या दूसरे खातों में ट्रांसफर कर देते थे. पुलिस को आशंका है कि ये सभी फर्जी खाते उन के या उन के रिश्तेदारों के होेंगे.

इतना ही नहीं शिवनारायण द्वारा पास कराए गए बिल जब पीडब्लूडी ने पुलिस को दिए तो उस में एक बिलबुक में 14907 नंबर से शुरू कर 14941 तक कुल 34 बिल 21 दिसंबर, 2008 से 10 जुलाई, 2009 के बीच काटे गए हैं. दूसरी बिलबुक में 24802 नंबर से शुरू कर 44 बिल 13 जुलाई, 2009 से 1 अक्तूबर, 2009 के बीच काटे गए हैं. इन बिल नंबरों के बारे में जब सर गंगाराम अस्पताल वालों से पूछा गया तो उन्होंने इन बिलबुकों को अपने यहां की बिलबुक होने से इनकार कर दिया.

पुलिस का मानना है कि सर गंगाराम अस्पताल के नाम से फर्जी बिलबुक छपवा कर बिल काटे गए हैं. जो बिल जोशी ने विभाग को पेश किए उन पर बिल के नंबर या तो एक के बाद एक या फिर 2-3 नंबरों के अंतराल में हैं, जबकि हर रोज अस्पताल में हजारों बिल कटते हैं. ऐसे में कहा जा सकता है कि जोशी ने फर्जी बिलबुक छपवाई और धोखाधड़ी को अंजाम दिया.

ऐसा नहीं है कि शिवनारायण जोशी पहली बार जांच के घेरे में आए हैं. इस से पहले भी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने उन के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज किया था. उस समय उन की पत्नी के नाम कई कारें होने की जानकारी सामने आई थी. इस मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने लंबी जांच के बाद प्राथमिकी लगा दी थी. सिर्फ शिवनारायण की पत्नी ही नहीं बल्कि उन के बेटे अमित जोशी का भी मामला विवादित रहा है. अमित का उदयपुर में टूर एंड टै्रवल्स का काम था. कारखाने में आग लग गई थी. इस के लिए उस ने बीमा कंपनी से करीब 60 लाख से अधिक का दावा पेश किया था. यही नहीं, बिल पास करवाने के लिए शिवनारायण ने अपने बेटे को अविवाहित बताया और 34 वर्षीय पुत्र अमित की आयु 26 साल बताई थी.

पुलिस अब यह जानने में लगी है कि जोशी ने फर्जी बिलों से हड़पी इतनी बड़ी रकम कहांकहां निवेश की है. पुलिस को मिली जानकारी के मुताबिक जोशी ने उदयपुर व जोधपुर में काफी अचल संपत्ति खरीदी हैं. उन्होंने अपने एक रिश्तेदार लोकेश पालीवाल के खाते में 26 अक्तूबर को 3 बार 18-18 लाख रुपए जमा करवाए. उन के द्वारा पत्नी के खाते और अपने खाते में भी रुपए जमा कराने की पुष्टि हुई है. उदयपुर के उन के एक रिश्तेदार के बैंक खाते में 54 लाख रुपए होने की जानकारी मिली है. शिवनारायण जोशी ने ब्याज पर भी खूब पैसे दिए हैं और जमीन खरीदने में भी काफी निवेश किया है लेकिन इतना होने के बाद भी आरोपी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है.

शिवनारायण जोशी कहते हैं, ‘‘मैं ने कोई गलत काम नहीं किया है. कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से ऐसा हुआ है. मैं ने तो बेटे के इलाज के लिए रुपए जमा कर अस्पताल द्वारा दिए गए बिल विभाग को दिए थे. अब ये बिल असली बिलबुक से थे या फर्जी थे, मु   झे नहीं मालूम. मेरे सेवानिवृत्त होने में सिर्फ 1 साल बाकी है. मेरी पदोन्नति होने वाली थी. कुछ आला अधिकारी नहीं चाहते थे कि मेरी पदोन्नति हो. शायद इसीलिए ऐसा किया गया.’’

अब देखना यह है कि शिवनारायण जोशी द्वारा दी गई सफाई कितनी सही है वहीं पुलिस इस मामले में कितनी सक्रियता से काम कर रही है. यदि दोषी पकड़ा नहीं जाएगा तो इस तरह के काम करने वाले लोगों की फेहरिस्त लंबी होती जाएगी और वास्तव में बीमार और जरूरतमंदों को नुकसान उठाना पडे़ेगा.

चिकन ऐंड मटन करी

अधीर और शीरी दोनों काफी देर से शौपिंग करने गए थे. मां बारबार घड़ी देख रही थीं. उन्हें लगा कि फोन मिला कर पूछ लूं कि आखिर और कितनी देर लगेगी? मां ने अभी मोबाइल लौक खोला ही था कि बहूबेटे की आवाज मां के कानों में पड़ी. अधीर और शीरी दोनों ऊंची आवाज में बात कर रहे थे. सुनने वाले को ऐसा लग सकता था कि शीरी और अधीर एकदूसरे से लड़ रहे हैं पर वे लड़ नहीं रहे थे बल्कि यह तो एक मीठी नोकझोंक थी, जो अकसर युवा पतिपत्नी के जोड़ों में होती हैं. अधीर शीरी के इस फालतू शौक को कोस रहा था कि वह किचन के लिए कितने ढेर सारे मसाले ले आई है.

“अब तुम ही बताओ मां, हमारे घर में इतने बड़ेबड़े चाकुओं का क्या उपयोग? हमलोग तो ठहरे शाकाहारी, हमें कौन सा मटन चौप करना है,” अधीर ने मां से शिकायती लहजे में कहा.

मां शीरी के इस खाने के शौक को अच्छी तरह जानती थी इसलिए उन्होंने शीरी की वकालत करते हुए अधीर से कहा कि वह यह न समझे कि किचन में सिर्फ हलदी, धनिया और मिर्ची से ही मसालों की पूर्ति हो जाती है बल्कि अलगअलग सब्जी के लिए अलगअलग मसाले होते हैं. और तो और अब तो चाय और रायता भी मसाले वाला बनता है और रह गई बात चाकुओं के सैट की तो वह बड़े काम की चीज है.

शीरी जो यूट्यूब चैनल और इंस्टाग्राम के लिए खाने के वीडियो बनाती है उस में टेबल पर सजाने के लिए बहुत अच्छे हैं क्योंकि जब तक शोऔफ न किया जाए तब तक वीडियोज पर व्यूज ही नहीं आएंगे. मां ने शीरी को सफाई में कुछ भी कहने का मौका दिए बिना सबकुछ स्वयं ही कह डाला था.

“अब जब आप ही अपनी बहू को इतना प्रोटैक्ट कर रही हो तब मुझे क्या? मैं तो चला नहाने के लिए,”यह कहते हुए अधीर बाथरूम की ओर बढ़ गया. शीरी ने मुसकराते हुए मां को देखा मानो उस की आंखें धन्यवाद कह रही हों मां से.

अधीर और शीरी की शादी को 2 साल ही हुए थे हालांकि यह एक अंतरजातीय विवाह था. अधीर एक जैन परिवार से था तो शीरी कायस्थ थी और शुरुआत में इस शादी में भी अड़चने आई थीं पर दोनों के परिवार वाले काफी सुलझे हुए और खुले दिमाग के थे और आर्थिक रूप से संपन्न भी थे. संपन्न परिवारों पर तो वैसे भी समाज का अंकुश कम ही रहता है. सारे नियमकायदे, कानून गरीबों के लिए ही तो हैं.

दोनों के परिवार वालों ने समाज की परवाह किए बिना सिर्फ अपने बच्चों की खुशी देखी और शीरी और अधीर की शादी हो गई. वैसे तो शीरी को ससुराल में सारे सुख थे, प्यार करने वाला पति और बहू का ध्यान रखने वाले सास और ससुर पर शीरी अब ससुराल में एक परेशानी महसूस कर रही थी. दरअसल, शीरी को नौनवेज खाना बहुत पसंद था पर उस का ससुराल तो ठहरा एकदम शाकाहारी, लहसुनप्याज तक नहीं खाया जाता था यहां.

हालांकि शादी से पहले शीरी के जेहन में यह बात नहीं आई थी कि अधीर के घर वाले शाकाहारी होंगे. उस ने सोचा था कि आजकल नौनवेज खाना तो फैशन स्टेटमैंट बन गया है पर ससुराल आ कर उसे पता चला कि यहां पर सभी लोग शाकाहारी हैं.

घर में जब भी कुछ अच्छा पकता तो बाकी सब लोग तो उस का ऐंजौय करते पर शीरी को नौनवेज खाने की तलब लगती. मौसम में थोड़ी सी ठंडक हो या हलकी सी बूंदाबांदी हो जाए तो शीरी नौनवेज फूड खाने के लिए मचल उठती थी.

अब ससुराल में किसी तरह के प्रेम की कमी तो थी नहीं पर जीवन में जबान के स्वाद का अपना ही महत्त्व होता है, इसलिए शीरी ने अधीर से नौनवेज खिलाने की जिद करी. पहले तो अधीर ने एकदम सिरे से खारिज कर दिया पर जब शीरी ने बारबार आग्रह किया और नौनवेज नहीं खिलाने पर नाराज हो गई तब अपना मन मार कर अधीर शीरी को बाहर ले जा कर किसी रेस्टोरैंट में नौनवेज खिलाने पर राजी हो गया. शर्त यह रखी गई कि वह घर आने से पहले मुंह में इलायची या कोई माउथ फ्रैशनर खा लेगी जिस से मम्मी और पापा को किसी तरह का कोई शक न हो. फिर क्या था शीरी तुरंत ही मान गई.

एक बढ़िया रेस्टोरैंट में अधीर और शीरी ने अपनेअपने लिए खाने का और्डर दिया. जहां अधीर ने सिर्फ कुछ डेजर्ट और आइसक्रीम ही और्डर करी, वहीं शीरी ने जीभर कर नौनवेज फूड का और्डर दिया जिस में तंदूरी फिश टिक्का और कोल्हापुरी मटन करी मुख्य रूप से थी और इन सब के साथ 2 बार सलाद भी मंगवाया था शीरी ने. उसे इस तरह से खाने पर टूट पड़ते हुए देख कर अधीर को बहुत अजीब लग रहा था.

शीरी नौनवेज खाने को इस तरह से खा रही थी जैसे वह कितने दिनों से भूखी है. खाने के बाद बिल चुकता करते समय अधीर ने शीरी के चेहरे पर नजर डाली तो एक गहरी तृप्ति का भाव था शीरी के चेहरे पर और जैसा कि तय हुआ था कि नौनवेज खाने के बाद कुछ न कुछ माउथ फ्रैशनर खाया जाएगा इसलिए शीरी ने माउथ फ्रैशनर को मुंह में चारों तरफ घुमाना शुरू कर दिया ताकि नौनवेज खाने का कोई सुबूत न रह जाए.

अपने पति को इस अच्छे व्यवहार और उस की पसंद का ध्यान रखने के लिए उसे थैंक यू भी कहा. पर भला अधीर को क्या पता था कि निकट भविष्य में उसे ऐसे कई ‘थैंक यू’ मिलने वाले हैं क्योंकि एक बार बाहर जा कर नौनवेज खा लेने से तो शीरी को एक बहुत अच्छा औप्शन मिल गया था जिस से वह रेस्टोरैंट जा कर नौनवेज खा सकती थी और उस के सासससुर को इस का पता भी नहीं चलता और घर में पकाने का झंझट भी नहीं.

अधीर को लगा कि उस ने शीरी को बाहर ले जा कर नौनवेज खिला कर गलती कर दी है क्योंकि अब यह क्रम रुकने वाला नहीं दिखता था. जब भी शीरी का मन होता वह अधीर से जिद करने लगती और अगर अधीर नौनवेज खिलाने में टालमटोल करता तो शीरी मुंह फुला लेती.

हालांकि जिस दिन शीरी नौनवेज खाती तो उस दिन अधीर उस के बिस्तर पर दूरी बना कर ही सोता था. ऐसी ही एक शाम को जब वे दोनों रेस्टोरैंट में डिनर कर रहे थे और शीरी के सामने ढेर सारा नौनवेज फूड रखा हुआ था कि तभी रेस्टोरैंट के अंदर शीरी के ससुर अपने किसी दोस्त के साथ दाखिल हुए. अचानक से उन की नजरें अपने बेटे और बहू पर आ कर टिक गईं और अधीर और शीरी ने भी पापा को देख लिया था. पापा की अनुभवी आंखों ने यह भी देख लिया कि अधीर और शीरी की टेबल पर नौनवेज फूड रखा हुआ है. शीरी के ससुर बहुत समझदार थे. इसलिए उन्होंने उन दोनों को अनदेखा कर दिया और सब से कोने वाली टेबल पर जा कर इस तरह से बैठ गए जैसे उन की पीठ ही शीरी और अधीर की तरफ हों. अधीर की हलक के नीचे तो कुछ नहीं उतरा और शीरी ने भी जैसेतैसे ही कुछ खाया और जो नहीं खाया गया उस को वहीं छोड़ कर दोनों वहां से निकल लिए. शीरी को आज पहली बार अपराधबोध हो रहा था कि उस ने अपनी जीभ के जरा से जायके के लिए सासससुर की नजरों में अपनी इमेज को खराब कर लिया.

‘अब पापा सारी बात मां को बताएंगे और मां न जाने कैसा व्यवहार करेंगी मेरे साथ… हो सकता है आज के बाद मुझे किचन में जाने ही न दिया जाए,’ अपने ही मन में सोच रही थी शीरी.

शीरी और अधीर के घर पहुंचने के कुछ देर बाद ही उस के ससुर भी घर लौट आए थे. उन के हाथ में मिठाई का एक डब्बा था. उन्होंने शीरी को देते हुए कहा कि कृष्णा नगर वाले रेस्टोरैंट की यह बहुत फेमस मिठाई है. एक प्लेट में निकाल कर सब को दे दो और मुझे अधिक देना. पापा के चेहरे को देखती रह गई थी शीरी. उस ने पापा के चेहरे के भावों को पढ़ना चाहा पर पढ़ न सकी, कांपते हाथों से मिठाई निकाल कर सब को देने लगी और पापा उस मिठाई को ऐसे खा रहे थे जैसे पहली बार खा रहे हों.

कई दिन बीत गए लेकिन पापा ने रेस्टोरैंट और नौनवेज वाली बात का कोई भी जिक्र घर में मां से नहीं किया. वह अपने बड़ेपन का परिचय दे रहे थे.

‘अब आज के बाद मैं बाहर रेस्टोरैंट में नौनवेज खाने नहीं जाऊंगी,’ मन ही मन सोचा था शीरी ने लेकिन 20-22 दिन ही बीते थे कि शीरी का मन फिर से चिकन टिक्का खाने का करने लगा. यह बात उस ने अधीर से शेयर करी तो अधीर थोड़ी देर तो चुप रहे लेकिन फिर बाद में उस ने एक औप्शन सुझाया,”तुम बाहर नहीं जा सकतीं तो क्या? घर में चिकन करी और फिश टिक्का ला ही सकते हैं.”

“अरे, घर में कैसे लाओगे? मम्मीपापा जान जाएंगे तब…” शीरी ने चिंता दिखाई.

“वह सब तुम मुझ पर छोड़ दो,” अधीर ने कहा.

अधीर अब चिकन करी और फिश टिक्का व अन्य नौनवेज डिश घर में ही पैक करा कर लाने लगा था. वह इस बात का ध्यान जरूर रखता कि कहीं नौनवेज खाने की सुगंध घर में न फैल जाएं जिस से मम्मी को किसी तरह का कोई शक हो. हालांकि नौनवेज फूड को घर में लाना और फिर उसे चुपके से खा कर पैकिंग के पैकेट घर से बाहर फेंकना इतना सरल काम भी नहीं था. मां को कभी भी शक हो सकता था और ससुर तो शीरी की हकीकत जान ही गए थे जिस से शीरी के मन में हमेशा एक आत्मग्लानि बनी रहती थी.

‘मुझे अधीर इतना प्रेम करते हैं कि घर में मांसाहार का निषेध होने पर भी वे मेरी पसंद का खाना खिलाने बाहर ले जाते और जरूरत पड़ने पर घर में भी लाते हैं,’ अपनेआप से ही कुछ बात कर रही थी शीरी.

‘पापा ने यह जानते हुए भी कि मैं नौनवेज खाती हूं मां को नहीं बताया. कितना ध्यान रखते हैं वे मेरा, क्यों न मैं ही धीरेधीरे अपनी इस नौनवेज खाने की आदत को कंट्रोल कर लूं और शाकाहारी बन कर अधीर के मन की पत्नी और एक आदर्श परिवार की आदर्श बहू बन जाऊं,’ शीरी के दिमाग में कई विचार चल रहे थे.

नौनवेज फूड खाने बाहर जाना हो या घर में ला कर खाना, इन दोनों कामों में आने वाली दिक्कतों के चलते शीरी ने इंटरनैट पर कुछ ऐसे फूड्स ढूंढ़े जो भले ही शाकाहार में आते हों मगर उन का स्वाद कुछकुछ नौनवेज फूड्स के जैसा हों और उसे बहुत से ऐसे शाकाहारी फूड्स मिलें जो यदि अच्छे मसालों और तैयारी के साथ बनाए जाएं तो वे काफी हैल्दी और स्वादिष्ठ बनते थे और ऐसे खानों में प्रोटीन की मात्रा नौनवेज फूड के जितनी ही थी.

शीरी ने इन शाकाहारी फूड्स को जब किचन में बना कर ट्राई किया तो उन का स्वाद गजब का निकला. भले ही यह शाकाहारी खाना स्वाद में मांसाहार की बराबरी नहीं कर रहे थे पर फिर नौनवेज फूड को घर में लाना या बाहर खाने जाना जैसा सरदर्द और खतरा भी तो नहीं था और फिर शीरी अपने यूट्यूब चैनल पर शाकाहार को प्रमोट कर लोगों की तारीफें भी तो पा सकती थी.

‘जब हम बुफे सिस्टम में खाना खाते हैं तो हमे तो पता नहीं होता कि कहीं इन बरतनों का प्रयोग मांसाहारी खानों में तो नही किया गया है?’ अधीर अपनेआप से सवाल पूछ कर चुप हो गया जैसे खुद को ही उत्तर दे रहा हो.

‘और फिर ऐलोपैथिक दवाइयां, कैप्सूल वगैरह भी तो पशुओं की चरबी से ही बनते हैं,’ बुदबुदा रहा था अधीर. साथ ही साथ उस के मन में यह बात भी बारबार आ रही थी कि अगर वह भी नौनवेज खाना शुरू कर दे तो शीरी के चिकन और मटन करी के शौक को पूरा करने में आसानी रहेगी और तब तो वह मां और पापा को भी अपने शौक के नाम पर घर में नौनवेज ले आने की परमिशन मांग सकेगा.

अधीर को आज अपने घर गीतापुर से 200 किलोमीटर दूर लखनऊ किसी काम से जाना था और काम निबटा कर अपनी ही गाड़ी से वापसी भी करनी थी. वापसी करने में उन्हें देर हो गई थी इस बात की सूचना अधीर ने मोबाइल पर अपने मांपापा और शीरी को दे दी थी.

अधीर घर आया तो सीधा अपने बैडरूम में गया और एक पैकेट निकाल कर टेबल पर रख आया और शीरी के मोबाइल पर एक मैसेज टाइप कर के सैंड कर दिया. शीरी किचन में व्यस्त थी. आज डिनर में उस ने पंजाबी छोले, अरहर की फ्राई दाल और तंदूरी रोटी बनाई थी. अधीर फ्रैश हो कर डाइनिंग टेबल पर आ गए और खाने से सजी टेबल देखर चकित रह गए. सब ने खाना शुरू कर दिया. मांपापा को खाना बहुत पसंद आया था पर अधीर शीरी को चकित हो कर देखे जा रहे थे जो दाल, सब्जी भी बड़ी रुचि से खा रही थी. खाना निबटा तो अधीर और शीरी अपने कमरे में गए.

“अरे मैं ने तुम्हें मैसेज किया था कि मां और पापा के सामने थोड़ा कम ही खाना क्योंकि मैं तुम्हारे लिए लखनऊ के अमीनाबाद से मशहूर टुंडेजी के कबाब परांठे और चिकन बिरियानी लाया हूं,” इतना कह कर अधीर ने कबाब के पैकेट को खोल दिया.

“और आज नौनवेज खाने में मैं भी तुम्हारा साथ दूंगा,” अधीर ने कहते हुए कबाब खाना शुरू कर दिया तो शीरी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रह गया. अधीर ने शीरी को देख कर उस की शंका का समाधान करते हुए कहा कि दोस्तों के बीच यह कहना कि मैं नौनवेज नहीं खाता बहुत अजीब लगता था और उस का मजाक भी बनता था और इस के अलावा उस ने शीरी की पसंद में अपनी पसंद मिलाने के लिए नौनवेज खाना शुरू किया था. पहले तो उसे थोड़ा अजीब लगा पर धीरेधीरे निष्पक्ष भाव से स्वाद लिया तो नौनवेज भी काफी स्वादिष्ठ लगा.

शीरी ने मुसकराते हुए एक नजर कबाब परांठे पर डाली और कहने लगी कि अधीर और उस के परिवार से उसे इतना प्रेम मिला कि उसे लगा कि शाकाहारी परिवार में मांसाहारी खाना खा कर वह गलत कर रही है और मां और पापा को धोखा दे रही है इसलिए उस ने शाकाहारी खाने में इंटरैस्ट लेना शुरू किया. नौनवेज को छोड़ना सरल नहीं था पर थोड़े ही प्रयास और कठोर संकल्प से उसे शाकाहारी बनने में बहुत हैल्प मिली है और आज अपने यूटयूब चैनल पर वह शाकाहार भोजन को प्रमोट करती है. हालांकि उस की मंशा किसी नौनवेज खाने वाले को गलत या सही ठहराने की नहीं होती. अधीर ने आगे बढ़ कर शीरी को गले लगा लिया था.

मांसाहार या शाकाहार यह तो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पसंद हो सकता है पर अधीर और शीरी ने अपने साथी के प्रेम और पसंद को ध्यान में रखते हुए अपने पसंदीदा भोजन का त्याग दिया और एकदूसरे की पसंद को अपना लिया था.

अधीर और शीरी ने अपने मां और पापा को जा कर इन सारी बातों के बारे में बताया तो वे दोनों अपने बेटे और बहू के प्रेम और समर्पण को देख कर बहुत खुश हुए.

प्रेम में किसी की दासतां के लिए जगह नहीं होती और न ही किसी तरह की ईगो का स्थान, पर जैसे संगम में 2 लहरें मिल कर एक हो जाती हैं उसी तरह एकदूसरे के रंग में रंग जाना ही सच्चे प्रेम की निशानी होती है.

Young Girls के लिए सैक्सी फील करना गलत नहीं

Young Girls: लड़कियों के पैर फैला कर बैठने की आदत को सोसाइटी गलत मानती है और ऐसी लड़कियों को समाज अच्छी नजरों से नहीं देखता, क्यों? कोई लड़की सैक्स के बारे में बात करे तो समाज में उसे पाप करना मान लिया जाता है और उस को कोसा जाता है, क्यों? भारतीय समाज में आज भी विवाह के पहले सैक्स करने को वर्जित माना जाता है, क्यों? फीमेल प्लेजर के बारे में बात करना पाप माना जाता है, क्यों? जो लड़कियां खुल कर अपनी इस इच्छा को एक्स्प्रेस करती हैं उन्हें समाज बदचलन व गंदा मानता है, क्यों? लड़कियां सैक्स टौयस यूज करती हैं या मास्टरबेट करती हैं तो सोसाइटी उसे गलत मानती है व संस्कृति के खिलाफ भी मानती है लेकिन वही काम लड़का करे तो उस पर कोई सवाल नहीं, क्यों?

पीरियड्स या मेंस्ट्रुएशन एक सामान्य नैचुरल बाइलौजिकल प्रक्रिया है लेकिन आज भी लड़कियों को इस के बारे में खुल कर बात ‘न’ करने की सीख दी जाती है. अगर कोई लड़की पीरियड्स पर खुल कर बात करती है तो समाज के लोग उसे बेशर्म समझते हैं, उसे अजीब नज़रों से देखते हैं.

क्यों हमारे समाज में लड़कों के लिए नशा करना और देररात पार्टी करना गलत नहीं है जबकि लड़कियों के लिए यह सब गलत है? समाज घर से कालेज और कालेज से घर आनेजाने वाली लड़की को सही मानता है, लड़कों से फ्रैंडशिप करने वाली लड़कियों को गलत मानता है, क्यों?

लड़की का अगर बौयफ्रैंड है तो वह लड़की चरित्रहीन है लेकिन वह लड़का जो उस का बौयफ्रैंड है उसे चरित्रहीन नहीं कहा जाता. अगर लड़की गलत है तो लड़का कैसे सही हो सकता है. वह भी तो चरित्रहीन हुआ न. क्यों लड़कियों पर बातबात पर लांछन लगाए जाते हैं?

लड़कियों के लिए भी सैक्स लड़कों जितना जरूरी

सोसाइटी को यह बात समझनी होगी कि सैक्स लड़का या लड़की दोनों के जीवन का अहम हिस्सा है. अगर कोई यह सोचता है कि सैक्स की चाहत केवल लड़कों को होती है तो वह गलत सोचता है. यंग गर्ल्स को भी बौयज जितनी ही सैक्स की चाहत होती है.

जिस तरह लड़के खुद को सुख देने के लिए सैक्स टौयज की तलाश करते हैं, मास्टरबेट करते हैं उसी तरह लड़कियों के लिए भी मास्टरबेशन पूरी तरह से एक सामान्य और हैल्दी सैक्शुअल ऐक्टिविटी है, जो उन्हें संतुष्टि देती है.

मास्टरबेशन करने का कोई एक तरीका नहीं है. यह एक पर्सनल अनुभव है, इसलिए यंग गर्ल्स का अपने शरीर को एक्सप्लोर करने में कोई हर्ज नहीं है. दिक्कत यह है कि गर्ल्स खुद अपने शरीर के बारे में सही से नहीं जानतीं. सैक्सी फील करना कैसा होता है, यह वे समझतीं नहीं. उन्हें यह समझना होगा कि इस उम्र में सैक्स के बारे में खयाल आना गलत नहीं है.

लड़कियों को अपने बौडी पार्ट्स और उन के साइज को ले कर अनेक तरह के भ्रम होते हैं और अपनी ही बौडी पार्ट्स को ले कर उन्हें एम्बरेसमैंट होती है. उन की अपने शरीर की जरूरतें क्या हैं, वे समझ नहीं पातीं जिस से आगे चल कर उन्हें अपने सैक्शुअल रिलेशनशिप में समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इसलिए यंग गर्ल्स का अपने शरीर को एक्सप्लोर करने, जाननेसमझने में कोई बुराई नहीं.

सैक्स कोई तिलिस्म नहीं

सैक्स आज भी भारतीय समाज के लिए एक तिलिस्म जैसा है. समाज को अपनी इस सोच को बदलने की जरूरत है कि यंग गर्ल्स और बौयज में सैक्शुअल फीलिंग आना स्वाभाविक है. इसे रोका नहीं जा सकता और न ही रोकना चाहिए. शादी से पहले सेफ सैक्स होना या करना भी गलत नहीं. जब तक 2 लोगों के बीच सहमति से सैक्स हो रहा है तब तक दूसरे लोगों की राय का कोई महत्त्व नहीं होना चाहिए.

अगर 2 जागरूक लोग शादी से पहले यौन संबंध बनाने का फैसला कर रहे हैं, चाहे वे रिश्ते में हों या न, समाज को उन की पसंद की स्वतंत्रता को छीनने का कोई अधिकार नहीं है. यह उन की अपनी इच्छा है.

मदर्स की रिस्पौन्सिबिलिटी

मदर्स को अपनी टीनएज बेटी को सुरक्षित सैक्स संबंधित एजुकेशन देने में हिचकिचाना नहीं चाहिए. सैक्स को किसी तरह का हौवा नहीं बनाना चाहिए कि वह घबराती रहे. बल्कि बेहतर यह है कि वे अपनी यंग बेटी को इस बात का एहसास कराएं कि वे उस की भावनाओं को समझ रही हैं और यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस से हर कोई गुजरता है.

सैक्सी या बोल्ड फील करना गलत नहीं

लड़कियों को यह समझने की जरूरत है कि जो लड़कियां सैक्सी, दबंग दिखती हैं उन से पंगा लेना आसान नहीं होता. लड़के भी उन्हें छेड़ने से डरते हैं. कई लड़कियां जो बोल्ड ड्रैस पहनती हैं लड़के उन्हें आहें भर कर देखते तो हैं पर उन्हें कुछ भी कह देने का कौन्फिडैंस लड़कों में नहीं होता.

सही मानो में सैक्सी फ़ील करना, खुद के शरीर के साथ कंफर्टेबल फील करना, अच्छा महसूस करना, खुद को महत्त्व देना कौन्फिडैंट फील करना होता है. कुछ यंग गर्ल्स वैलफिटेड कपड़े पहनने से भी बोल्ड फील करती हैं.

कई गर्ल्स एक अच्छा सा हेयरस्टाइल बना कर भी सैक्सी फील करती हैं. कुछ हील्स पहन कर सैक्सी फील करती हैं. अपने फेवरेट परफ्यूम को लगाना भी बोल्ड एंड हौट फील करा सकता है.

• एक छोटी ब्लैरक ड्रैस किसी भी यंग गर्ल को सैक्सी फ़ील करा सकती है
• वैक्स किए हुए शाइनी लेग्स भी सैक्सी फ़ील कराने का एक आसान तरीका होता है.
• रेड लिपस्टिक लगाना भी खुद को सैक्सी फील कराने का एक आसान तरीका होता है.
• सौफ्ट, सैटिन और लेस वाली मैचिंग सैक्सी इनरवियर या पुशअप ब्रा पहन कर सैक्सी फ़ील कराया जा सकता है.
• पोषक तत्त्वों से भरपूर हैल्दी डाइट गर्ल्स को एक सुडौल शरीर और ग्लोइंग स्किन दे कर सैक्सी फ़ील कराने में मदद करती है.
• रैगुलर वर्कआउट कौन्फिडैंस बूस्ट करता है और सैक्सी महसूस कराता है.
• फ्लर्ट करना भी किसी भी लड़की को सैक्सी महसूस करा सकता है.

बाहरी सुंदरता से अधिक जरूरी है इनर ब्यूटी और स्मार्टनेस

“अरे, ये आप की बेटी है? आप का रंग तो बहुत साफ है ! इस के नैननक्श और रंग आप जैसे बिल्कुल नहीं हैं. शायद आपने बचपन में इसे उबटन नहीं लगाया…”
पड़ोस वाली आंटी की बात सुन कर 17 साल की रिया अपनी मौम की तरफ देखने लगी. रिया की मौम और रिया की आंखोंआंखों में बात हुई और दोनों मुसकरा दिए और पड़ोसन को कुछ समझ नहीं आया और वह खिसिया कर वहां से चली गई !

दरअसल, रिया की मौम ने रिया को बचपन से यह बात सिखाई थी कि अगर आप को दुनिया और अपनी नज़रों में खूबसूरत बनना है तो रंग, नाकनक्श और फिगर से ज्यादा अंदर की खूबसूरती निखारनी चाहिए. अपनी पर्सनालिटी पर ध्यान देना चाहिए और लोगों की बाहरी सुंदरता के पैमाने के तराजू में खुद को नहीं तोलना चाहिए. यही कारण था कि रिया को पड़ोस वाली आंटी की बात का कोई फर्क नहीं पड़ा.

आमतौर पर हमारे समाज में जब लड़कियों की खूबसूरती की बात आती है तो लोग रंग, नाकनक्शर और फिगर की बात करते हैं. उन्हें बचपन से ही सिखाया जाता है कि तुम्हारे लिए खूबसूरत दिखना जरूरी है. लोग उन्हें क्यों नहीं सिखाते कि यदि आप शिक्षित नहीं हैं आप में आत्मविश्वास नहीं है आप में इंसानियत नहीं है तो उस सुंदरता का कोई मोल नहीं है.

सुंदरता से जरूरी है इनर ब्यूंटी

बाहरी खूबसूरती के साथ दिल की खूबसूरती यानी इनर ब्यूरटी बहुत मायने रखती है. कोई भी भले ही दिखने में चाहे कितना ही खूबसूरत हो लेकिन उस के अंदर इंसानियत, आत्मविश्वास, अपने आसपास के लोगों के प्रति प्याोर और दुलार नहीं है वह भरोसेमंद नहीं है तो बाहरी खूबसूरती किसी को अपनी ओर अट्रैक्ट नहीं कर पाएगी.

व्यवहार की खूबसूरती

बाहरी सुंदरता से ज्यादा जरूरी यह है कि आप का लोगों के साथ व्यवहार कैसा है, उन के लिए आप की सोच कैसी है. लोगों के साथ सही तरीके से बात करने वाले, अच्छे से व्यवहार करने वाले को लोग पसंद करते हैं क्योंकि सुंदरता सिर्फ चेहरे से नहीं बल्कि व्यवहार से भी होती है.

कोई भी लड़की दिखने में चाहे कितनी ही गुड लुकिंग क्यों न हो लेकिन वह सैल्फिश हो हमेशा खुद के बारे में सोचती हो, किसी की परवाह न करती हो तो ऐसी लड़की को कोई पसंद नहीं करेगा लेकिन अगर वहीं अगर वह खुद से पहले दूसरों के बारे में सोचती हो, खुद को भूल कर सब की मदद करने की कोशिश करती हो, उस के अंदर इंसानियत हो तो उस के पीछे पूरी दुनिया खड़ी रहती है और उस के आसपास के लोग उस की इज्जउत करते हैं.

इसी तरह अगर किसी के मन में सभी के लिए प्याेर या दुलार का भाव हो तो यकीन मानिए वह लड़की हर दिल पर राज कर सकती है.

इंटेलिजेंस और आत्मविश्वास

आत्म विश्वापस किसी की भी पर्सनैलिटी को कई गुना निखारने में मदद करता है. आप ही सोचिए आप के सामने दो लड़कियां हैं, एक सिर्फ दिखने में अच्छी है लेकिन उसे अपने काम की कोई समझ या जानकारी नहीं है, वह अपनी बात सही से प्रेजेंट नहीं कर पाती वहीं दूसरी ओर एक लड़की है जो दिखने में भले ही साधारण हो लेकिन उसे अपने काम की पूरी नौलेज है, वह आपनी बात को सही तरीके से कौन्फिडेंटली प्रेजेंट कर पाती है तो आप पक्का दूसरी लड़की से ही इंप्रेस होंगे.

जिंदादिली

कोई भी लड़की सुंदर है लेकिन वह एरोगेंट है किसी से सीधे मुंह बात नहीं करती ,चेहरे पर हमेशा बारह बजे रहते हैं तो आप भी बताइए क्या आप उसे पसंद करेंगे? वहीं एक साधारण दिखने वाली लड़की जो लोगों के साथ काफी गर्मजोशी से खुश हो कर मिलती है और लोगों के साथ उस का व्यवहार अच्छाम है तो यकीन मानिए यहां भी आप की चौइस दूसरी लड़की ही होगी.

स्मार्ट दिखना है अधिक जरूरी

खूबसूरती से ज्यादा जरूरी है किसी का भी स्मार्ट दिखना. कोई भी अगर कितना भी खूबसूरत हो लेकिन उसे ड्रैसिंग सेंस सही नहीँ हो, उसे किसी सिचुएशन को हैंडल करना नहीं आता हो, वह छोटीछोटी बात में पैनिक कर जाती हो, मेंटली स्ट्रौंग न हो, लोगों से बात करते समय आई कान्टेक्ट न करता हो, आप का बौडी पोस्चर सही न हो तो उसे कोई पसंद नहीं करेगा क्योंकि सिर्फ बाहरी खूबसूरती किसी काम की नहीं, अगर कोई स्मार्ट न हो.

स्मार्ट और अट्रैक्टिव दिखने के तरीके

अट्रैक्टिव और स्पैशल दिखने के लिए कुछ बातों को, कुछ खास आदतों को अपनी लाइफस्टाइल का हिस्सा बना कर, पर्सनैलिटी में शामिल कर के आप खुद को आसानी से निखार सकती हैं. लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकती हैं.

सेल्फ केयर रूटीन

भरपूर नींद लेने से ले कर डेली वर्कआउट और साफसफाई का सैल्फ केयर फार्मूला फौलो कर के पर्सनैलिटी में निखार लाया जा सकता है.

काम में एक्टिव रवैया

घर और औफिस के कामों में ढीलाढाला रवैया रखने की बजाय एक्टिव रेस्पोन्सिव और एनर्जेटिक रवैया रख कर अपने सैल्फ कान्फिडेंस को बूस्ट किया जा सकता है, आसपास के लोगों को इंप्रेस किया जा सकता है.

विनम्रता और शिष्टता

बाहरी खूबसूरती में निखार की जगह अपने साथ रहने वाले लोगों के साथ विनम्रता और शिष्टता से पेश आना सहानुभूति रखना, लोगों की ज्यादा से ज्यादा मदद करना किसी की भी पर्सनैलिटी को अट्रैक्टिव बनाएगा.

पौजिटिव एटीट्यूड

हर बात में निराशा, लोगों में कमियां ढूंढने के रवैये की जगह पौजिटिव एटीट्यूड की मदद से भी व्यक्तित्व को निखारा जा सकता है. ऐसे में हमेशा खुद की स्ट्रेंथ पर फोकस कर के और हर चीज को पौजिटिव सोच के साथ देख कर पर्सनैलिटी में निखार लाया जा सकता है.

रिश्तों और काम में ईमानदारी

कोई भी लड़की घर बाहर, औफिस में अपने काम, रिश्तों के प्रति ईमानदार और औनेस्ट एटीट्यूड फौलो कर के खुद को अट्रैक्टिव बना सकती हैं. ऐसा कर के वह दूसरों को आसानी से इंप्रेस कर सकती है और लोगों के सामने अपनी पौजिटिव इमेज भी बरकरार रख सकती है.

Mental Health: ऊब हो रही है तो टालिए मत, मनोचिकित्सक से जानें टिप्स

Mental Health Awareness : आज ही अखबार में खबर पढ़ी कि एक तकनीकी संस्थान में काम करने वाला नौजवान कभीकभार औटो चलाता है. उस के अनुसार, ऐसा वह अपनी बेचैनी तथा ऊब को कम करने के लिए करता है. उस के अनेक फोटो भी अखबार में प्रकाशित हुए जिन में वह खुशीखुशी औटो चला रहा है. सवारी को गंतव्य तक पहुंचा रहा है. ऊब होने का यह मनोभाव सचमुच विचारणीय है.

मन को ऊब किसलिए होने लगती है, यह टालने या नजरअंदाज कर देने की बात नहीं है. मनोचिकित्सक कहते हैं कि अचानक ही हर चीज से मन का उचट सा जाना इन दिनों एक सामान्य बात हो रही है. ऐसा लगभग हर किसी के साथ होता है. कुछ लोग अपनी दिनचर्या से इतने परेशान हो रहे हैं कि उन को हर बात से अरुचि सी होने लगी है. जब भी कोई चर्चा करो, अधिकांश का जवाब यह होता है कि सुबह चाय और कौफी गटक ली. नहाया. नाश्ता हो गया. वैब सीरीज देख ली. फोन ले कर सारे सोशल मीडिया के मंच पर जा कर दुनियाभर की चीजें देख लीं. अब मन अजीब हो रहा है.

इस का कारण साफ है. हम को एक ही बटन दबाने से सौ चैनल मिल रहे हैं. एक बटन दबाने से सौ तरह की फिल्मी गपशप का स्वाद मिल रहा है. कुछ खरीदना है तो एक बटन दबाया और सौ तरह की दुकानें सौ तरह के सामान हाजिर. इस से होता यह है कि यह मन बावला होने लगता है, भटकने लगता है. इसीलिए मन को झुंझलाहट होती है. जरूरत से अधिक मनोरंजन, जरूरत से अधिक सुखसुविधा भी मन को उचाट कर देती है. सुकरात ने तो सैकड़ों साल पहले ही कह दिया था कि अति हमेशा दुख देती है. कोई चीज जरूरत से अधिक मिल जाती है तो वह खुशी नहीं, बेचैनी देती है.

वैसे, मन का उचाट हो जाना उन के साथ भी अधिक होता है जो जीवन में कुछ करने की ख्वाहिश रखते हैं मगर वहां तक नहीं पहुंच पाते जहां पहुंचना होता है. सो, उन को भी ऊब तथा बेचैनी सी होने लगती है. अमेरिका के सुप्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वेन ने भी कहा था कि, “खुश मानव के 2 दुश्मन- उदासी और बोरियत- होते हैं. विश्व प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के शिष्य मनोचिकित्सक ओटो फेनीशेल ने सिगमंड फ्रायड के साथ मिल कर इस ऊब तथा बोरियत पर अनगिनत प्रयोग किए थे.
ओटो फेनीशेल बोरियत के विस्तारित सिद्धांत को विकसित करने वाले पहले मनोविश्लेषकों में से एक थे. अपने लेख ‘औन द सायकोलौजी औफ बोरडम’ में उन्होंने ‘सामान्य’ और ‘पैथोलौजिकल’ बोरियत के रूप में बताया था. इन के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए फेनीशेल ने समझाया कि सामान्य बोरियत तब पैदा होती है जब हम वह नहीं कर सकते जो हम करना चाहते हैं या जब हम कुछ ऐसा करते हैं जो हम नहीं करना चाहते.

फेनीशेल ने जोर दे कर कहा कि दोनों ही स्थितियों में कुछ अपेक्षित या वांछित नहीं होता. यहां हम को खुद पर गौर करने की आवश्यकता होती है. जरा सा खुद पर विचार हम को बोरियत की जड़ तक ले आता है, तब समाधान भी मिलता है.

कई बार जो ऊब जैसा लगता है वह वास्तव में उस कार्य से बचने का बहाना होता है जिसे आप करना ही नहीं चाहते. ‘बोरडम – अ लाइवली हिस्ट्री’ के लेखक टूही पीटर कहते हैं, “बोरियत से उसी प्रकार की मानसिक थकान होती है जैसे निरंतर एकाग्रता वाले कामों में होती है.”

कभीकभी बोरियत होना स्वाभाविक है, लेकिन जब यह स्थायी मनोदशा बन जाए तो चिंताजनक है. बोरियत नकारात्मक विचारों की जड़ है. इस से व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगता है. कार्यक्षमता और रिश्तों पर इस का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इस की वजह से व्यक्ति डिप्रैशन में भी जा सकता है. मनोवैज्ञानिक थार्नडाइक का कहना है कि कई बार ऐसा होता है कि जब हम बहुत ज़्यादा तनाव में होते हैं तो कामों को टालते रहते हैं. लगातार एकजैसा काम करने पर एक स्थिति यह आती है कि हम अपना काम कर ही नहीं पाते और इस के कारण अन्य कामों में मन नहीं लगता, तब भी हम को ऊब होने लगती है.

डाक्टर रोलो मे, एक मानववादी तथा मनोवैज्ञानिक थे. उन्होंने तर्क दिया कि ऊब महसूस करने की मानसिक स्थिति का जन्म बहुत छोटी उम्र से हो जाता है. सो, अप्रिय लगने के बावजूद आवश्यक है कि रचनात्मक और उत्साह से कैसे रहें, यह सीखें. उन्होंने कहा, “यदि आप एक सफल इंसान के रूप में बोरियत से बचने की चाहत रखते हैं, तो आप को सब से पहले इस का सामना करना सीखना है, स्वीकार करना है कि आप ऊब रहे हैं.

मनोविज्ञान के अनुसार, बोरियत से कुछ मनोभाव सीधेसीधे जुड़े हैं, मिसाल के तौर पर झुंझलाहट, बिखराव, अकेलापन, क्रोध, दुख और चिंता आदि. लगातार बोर रहने वाले व्यक्ति ज़्यादा खाते हैं. उन में मादक पदार्थों के सेवन सहित धूम्रपान व अपराध जैसे दुर्गुणों के बढ़ने की आशंका भी रहती है. अगर आप ऊब रहे हैं तो एक बार एकांत में बैठ कर खुद को परिभाषित करें कि आप को सब से अच्छा क्या लगता है.

सुप्रसिद्ध हौलीवुड स्टार व एंकर ओपेरा विन्फ्रे ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि जब मन उचटता है तो वे कुछ बेक करती हैं, पकाती हैं या आइसक्रीम बनाती हैं. इस उपाय से उन का मन दुरुस्त हो जाता है. इसीलिए आप भी अच्छे लगने वाले कामों को पहचानें. फ़ुरसत के पलों में मोबाइल देखने के बजाय कोई अच्छी किताब पढ़ें, अपने दोस्तों से बातचीत करें, फूलों के पौधे लगाएं व गमलों को पेंट करें. घर की व्यवस्था व सजावट को बदल कर देखें.

हर वह काम जो सुखद तबदीली दिखाए, ऊब से बाहर निकलने में मदद करेगा. फूलों के पौधे भी इसीलिए सुझाए जाते हैं कि जब पौधे पर कलियां आती हैं, फूल खिलते हैं, तो मन प्रसन्न होता है. ऊबाऊ जीवनशैली को बदल लीजिए. महापुरुषों की जीवनगाथा को पढ़िए, आप को उम्मीद मिलेगी. कुदरत की सेवा कीजिए. सार्वजनिक जगह पर जा कर गपशप भी राहत देती है. राह चलते किसी अनजान से बात होने पर भी बहुत ख़ुशी मिलती है. कोई नई आदत पाल लें- नाचना, गाना, चित्रकारी, बागबानी आदि.
बोरियत लगभग सौ फीसदी लोगो को महसूस होती है. इसलिए इसे महसूस करते हुए डरें नहीं. इसे नजरअंदाज भी न करें. इसे ठीक से देखें और इस की आग पर अपने शौक व अपने हुनर का शीतल जल छिड़क दें. बोरियत या ऊब दुम दबा कर भाग जाएगी.

Hemant Soren घिरे अभिमन्यु की तरह, लेकिन जीते अर्जुन की तरह

Hemant Soren: झारखंड चुनाव नतीजों ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को यूं ही हीरो नहीं बना दिया है बल्कि इस कामयाबी के पीछे उन की मेहनत के नंबर ज्यादा हैं. वे वोटर से लगातार कनेक्ट रहे और जेल में डाले जाने के बाद यह जिम्मेदारी उन की पत्नी कल्पना सोरेन ने संभाली जो राजनीति से दूर ही रहती थीं.

बटेंगे तो कटेंगे और एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे जैसे भड़काऊ भाजपाई नारों के मुकाबले झारखंड के वोटर ने तबज्जो दी इंडिया गठबंधन के इन दो नारों को, ‘हेमंत है तो हिम्मत है’ और ‘एक ही नारा हेमंत दुबारा’. ये नारे इतने असरदार साबित हुए कि इंडिया गठबंधन राज्य की 81 विधानसभा सीटों में से 56 सीटें जीत ले गया और एनडीए 24 पर सिकुड़ कर रह गया.

23 नवंबर को आए नतीजों ने बहुत सी बातों के साथ एक अहम बात यह साबित कर दी है कि इस बार भी चुनावी खेल में रांची की पिच पर मेन औफ द इलैक्शन निर्विवाद रूप से हेमंत सोरेन हैं. 24 नवंबर को रांची में लगे ये पोस्टर भी हर किसी को आकर्षित कर रहे थे जिन पर लिखा था – ‘सब के दिलों पर छा गया, शेरदिल सोरेन फिर आ गया.’

बात में और नारों दम है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, केन्द्रीय कृषि मंत्री और झारखंड के चुनाव प्रभारी शिवराज सिंह चौहान के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव और 24 X 7 नफरत व हिंदुत्व की आग मुंह से उगलते रहने वाले असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा सहित 2 दर्जन धाकड़ भाजपा नेताओं ने हेमंत सोरेन की ठीक वैसे ही घेराबंदी कर रखी थी जैसी कि महाभारत की लड़ाई में कौरवों ने अभिमन्यु की की थी. लेकिन हेमंत सोरेन इस चक्रव्यूह को भेदते जंग के मैदान में आए तो बिना किसी कृष्ण की मदद के अर्जुन की तरह लड़े और जीते भी तो एक धुरंधर योद्धा की तरह जिस के सियासी तीरों के आगे ये भगवा शूरवीर कागजी शेरों की तरह ढेर हो गए.

महाराष्ट्र की जीत का जश्न मनाते एनडीए के मन में झारखंड की हार तय है कसक ही रही होगी क्योंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां 14 में से 8 सीटें मिली थीं जबकि इंडिया गठबंधन 5 पर रुक कर रह गया था. इस नतीजे से उत्साहित भाजपा ने यह मान लिया था कि अब सत्ता में वापसी तय है क्योंकि वोटर का मन झामुमो और कांग्रेस से उचट रहा है और आदिवासी बाहुल्य इस राज्य में भी उसे वोट हिंदुत्व और राम मंदिर के नाम पर मिले हैं लिहाजा इस सिलसिले को जारी रखा जाए.

लिहाजा उस ने 31 जनवरी 2024 की रात मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जमीन घोटाले के एक केस में ईडी से उठवा लिया. तब सोचा यह गया था कि हेमंत के जेल में रहने से इंडिया गठबंधन टूट जाएगा और झामुमो भी बिखर जाएगा. ऐसा होना मुमकिन था लेकिन जैसे ही हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन अपना चलता छोटा सा स्कूल छोड़ पोलिटिकल यूनिवर्सिटी में उतरीं तो बाजी पलट गई.

खूबसुरत और आकर्षक कल्पना ने बेहद सधे ढंग से पार्टी की कमान संभाली और इस खेल को वहीं से खेलना शुरू किया जहां हेमंत छोड़ गए थे. झामुमो ने अपने भरोसेमंद सिपहसलार चम्पई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया और कल्पना गांवगांवव गलीगली घूम कर वोटर को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहीं कि यह भाजपा की साजिश है और हमे आप से दूर करने रची गई है.

मई के महीने में झारखंड हाईकोर्ट ने हेमंत सोरेन को जमानत देते हुए साफतौर पर कहा था कि किसी भी रजिस्टर या रेवन्यू रिकौर्ड में उक्त जमीन के अधिग्रहण और भागीदारी में याचिकाकर्ता की प्रत्यक्ष भागीदारी का कोई जिक्र नहीं है, अदालत ने पाया है कि पीएमएलए ( प्रिवेंशन औफ मनी लांड्रिंग एक्ट ) की धारा 45 की शर्त पूरी करते हुए ये मानने के पर्याप्त कारण हैं कि याचिकाकर्ता कथित अपराध का दोषी नहीं हैं.

हेमंत के 5 महीने जेल में रहने के दौरान कल्पना ने ताबड़तोड़ तरीके से झारखंड के दौरे किए और वोटर को यह समझाने में कामयाब रहीं कि भाजपा आदिवासियों की हितेषी पार्टी नहीं है. और वह आप के बेटे, आप के भाई को आप से अलग करना चाहती है इसलिए उस ने झूठा आरोप लगा कर हेमंत को जेल भेज दिया. ये वही कल्पना सोरेन हैं जो पति के जेल जाने के पहले तक खुद को राजनीति और सार्वजनिक जीवन से जितना हो सके दूर रखती थीं. लेकिन मार्च के महीने से उन्होंने पति की लड़ाई संभाली तो आदिवासी तो आदिवासी गैर आदिवासियों ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया. पोलिटिकल कपल्स में ऐसी साझेदारी कम ही देखने में मिलती है. कल्पना के बात करने के लहजे से वही अपनापन और सहजता थी जो हेमंत सोरेन और उन के पिता शिबू सोरेन में है.

जेल से छूटने के बाद हेमंत सोरेन ने भी कोई ढिलाई या लापरवाही नहीं दिखाई और वे खासतौर से आदिवासियों को यह समझाने में सफल रहे कि अगर भाजपा जीती तो झारखंड को दिल्ली से चलाएगी. चुनाव प्रचार के दौरान हेमंत और कल्पना सोरेन ने 200 से भी ज्यादा रैलियां और सभाएं की. इस के पहले एक और नाटकीय लेकिन अपेक्षित घटनाक्रम में चम्पई सोरेन झामुमो छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे. क्योंकि झामुमो जेल से छूटे हेमंत को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी. तब भी भाजपा को लगा था कि अब तो राह और आसान है क्योंकि चम्पई सोरेन झामुमो के धाकड़ नेता हैं. उन के आने से बहुत न सही कुछ तो आदिवासी वोट पाले में आएंगे. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं, उलटे चम्पई सोरेन के बेटे बाबूलाल सोरेन ही चुनाव हार गए. उन्हें घाटशिला विधानसभा सीट पर झामुमो के रामदास सोरेन ने 18 हजार से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त दी.

भाजपा का यह भ्रम लोकसभा चुनाव में भी टूटा था जब सोरेन परिवार की बगावती बहू यानी हेमंत की भाभी सीता सोरेन भी भगवा खेमे में जा शामिल हुई थी. एवज में बतौर इनाम भाजपा ने उन्हें दुमका लोकसभा सीट से टिकट दे दिया था लेकिन झामुमो के नलिन सोरेन ने उन्हें 22 हजार से ज्यादा वोटों से हरा दिया था. फायदा तो भाजपा को बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम के विलय का भी नहीं मिला जो 2019 के चुनाव में 3 सीटें जीती थी लेकिन इस बार जीत का जायका चखने को तरस गई. यानी झारखंड में सोरेन परिवार का कोई तोड़ भाजपा के पास नहीं है और न ही वह हेमंत सोरेन के कद और वजन का कोई नेता खड़ा कर पाई है. वोटर ने भाजपा नेताओं की इस बात पर भी कान नहीं दिए कि एक ही परिवार राज कर रहा है और भ्रष्टाचार कर रहा है. ‘कटेंगे तो बटेंगे’ और ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’ जैसे नारे झारखंड में दम तोड़ते नजर आए क्योंकि आदिवासी समुदाय हिंदूमुसलिम में कोई भेद नहीं करता है और तो और वह खुद को हिंदू मानता ही नहीं.

पिछली जीत के बाद जब इस संवाददाता ने रांची में हेमंत सोरेन से उन के निवास पर बात की थी तो उन्होंने भी एक सवाल के जवाब में कहा था कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं. ये इंटरव्यू सरिता व सरस सलिल दोनों पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे.

आज भी सभाओं में हेमंत आदिवासियों को मूल निवासी बताते हैं और खुद को धरतीपुत्र कहते हैं तो आदिवासी होने के कारण उन की कनेक्टिविटी आदिवासियों से और बढ़ती है. यही वजह है कि आदिवासी बाहुल्य 28 सीटों में से भाजपा गिरते पड़ते महज एक सीट ही जीत पाई. हकीकत तो यह भी है कि भाजपा ने कभी आदिवासियों की बुनियादी जरूरतों और समस्याओं को समझने की कोशिश ही नहीं की. वह सिर्फ हवाहवाई बातों से बहका कर ही उन के वोट झटकती रही है. यह टोटका 2014 के चुनाव में चल गया था तो भाजपा इसे धर्म ग्रंथों का मंत्र समझने की भूल कर बैठी. इसी के चलते उसे पिछले चुनाव के मुकाबले 3 सीट कम मिली और झामुमो की 30 से बढ़ कर 34 हो गईं.

इस चुनाव में भाजपा ने झारखंड के वोटरों को एक नया डर बांग्लादेशी घुसपैठियों का दिखाया. नरेंद्र मोदी से ले कर तमाम छोटेबड़े नेता इसे रट्टू तोते की तरह बोलते रहे. अव्वल तो इस बात कोई दम ही नहीं था और दूसरी वजह उपर बताई गई है कि आदिवासियों में खुद के हिंदू होने की फीलिंग ही नहीं है, लिहाजा उन्होंने इस से कोई सरोकार ही नहीं रखा.

दरअसल में दूसरे राज्यों की तरह भाजपा झारखंड में जो निगेटिव नेरेटिव सेट करना चाहती थी उस ने खासतौर से आदिवासियों को इतना अपसेट कर दिया कि इस चुनाव में भी उस से राम राम कर ली.

लेकिन हैरत इस बात की कि करारी शिकस्त के बाद भी भाजपा इस मरे मुद्दे को सीने से लगाए हुए है. इंडिया गठबंधन को जीत की बधाई देते हुए नरेंद्र मोदी ने इशारा कर ही दिया कि वह बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा छोड़ेंगे नहीं. यह एक तरह की खीझ और जिद ही है जिस के झारखंड में कोई माने नहीं. क्योंकि वहां इस मुद्दे पर वोट करने वाले सवर्णों की तादाद महज 10 फीसदी ही है जो बिना किसी ऐसे या वैसे मुद्दे के भी भाजपा को ही वोट देते हैं. 28 फीसदी आदिवासियों और 50 फीसदी के लगभग पिछड़े तबके के अधिकतर वोटरों ने भी इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया. बचे 12 फीसदी ईसाई और आदिवासी शुरू से ही झामुमो के परम्परागत वोट रहे हैं.

जाहिर है 85 बनाम 15 का इंडिया गठबंधन का फार्मूला यहां चला जिसे हवा देने के लिए राहुल गांधी जातिगत जनगणना की अपनी बात दोहराते रहे. इस का फायदा भी इंडिया गठबंधन को मिला. सीटों और वोटों के मामले में कांग्रेस की स्थिति हालांकि 2019 के नतीजों जैसी ही रही लेकिन चौंकाया राजद ने जिस ने 4 सीटें जीत ली. माकपा माले को भी उम्मीद के मुताबिक 2 सीट मिलीं.

हेमंत सोरेन को एक बड़ा फायदा मैया सम्मान योजना का भी मिला जिस के तहत राज्य की कोई 16 लाख महिलाओं जिन की उम्र 19 से ले कर 49 साल के बीच है को 1000 रु महीना दिए जाते हैं. इसे बढ़ा कर उन्होंने ढाई 2500 करने का वादा किया तो औरतों के वोट उन पर बरस पड़े. 31 सीटों पर महिला वोटरों की खासी तादाद है उन पर महिलाओं की वोट फीसदी भी पुरुषों से ज्यादा रहा है. इन में से 30 इंडिया गठबंधन के खाते में गईं. यह कार्ड भाजपा ने सब से पहले मध्य प्रदेश में और फिर हालिया चुनाव में महाराष्ट्र में भी खेला था जिस का फायदा उसे भी मिला था.

आने वाले विधानसभा चुनावों में यह ट्रेंड ट्रम्प कार्ड ही साबित होगा लेकिन इन तीनों राज्यों के नतीजों से लगता है कि सत्तारूढ़ दल को ही इस का फायदा होता है क्योंकि सरकार चुनाव के 3 – 4 महीने पहले से महिलाओं के खाते में यह पैसा डालना शुरू कर देती है जिस से महिलाओं का भरोसा उस पर बढ़ता है. ऐसे में विपक्षी दल दोगुना तिगुना देने का भी वादा करें तो बात बनती नहीं क्योंकि महिला वोटर उन के वादों पर एतबार नहीं करती. दूसरी कई कल्याणकारी योजनाओं का फायदा भी हेमंत सरकार को मिला. मसलन मुफ्त 200 यूनिट बिजली देना और पुराने बिजली बिलों की माफी. कर्मचारियों को पुरानी पेंशन स्कीम बहाल करने के वादे ने भी झामुमो के वोट बढ़ाए.

इन सब चुनावी बातों और वादों से परे एक बात मील के पत्थर की तरह झारखंड के नतीजों से साबित हुई है कि अब जीतेगा वही जो मेहनत करेगा, वोटर के बीच जाएगा और किसी न किसी बहाने उन से कनेक्ट रहेगा. एयर कंडिशंड घरों में बैठ कर राजनीति करना अब पहले की तरह मुमकिन नहीं रह गया है और न ही वे नेता चुनाव जीत पा रहे जो चुनाव की घोषणा और टिकट मिलने के बाद कुछ ही दिन अपना पसीना बहाते हैं.

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