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Romantic Hindi Story : अदिति और रवि के बीच कैसे पैदा हुई दरार

Romantic Hindi Story : रवि 3 महीने से दीवाली पर बोनस और प्रमोशन की आस लगाए बैठा था. 2 साल की कड़ी मेहनत, कम छुट्टियां और ओवर टाइम से उस ने अपने बौस का दिल जीत लिया था. वह अपने बौस मिस्टर राकेश का फेवरेट एंप्लोई बन चुका था. उस ने सोचा था कि इस बार दीवाली पर एक महीने की लंबी छुट्टी ले कर मम्मीपापा के साथ रहेगा. मम्मी पिछले साल से ही उस की शादी की कोशिश में जुटी थीं.

अपने साथ काम करने वाले मुकेश को कई बार वह अपनी छुट्टियों की प्लानिंग बता चुका था. उस के सारे सहकर्मियों को भरोसा था कि उसे अब की बार दीवाली पर बोनस के साथसाथ प्रमोशन भी मिलेगा. मिस्टर राकेश ने प्रमोशन की लिस्ट में रवि का नाम सब से ऊपर लिखा हुआ था और उसे वे कई बार बता भी चुके थे. हालांकि हैड औफिस से फाइनल लिस्ट आनी बाकी थी.

सप्ताह का पहला दिन था. रवि अपने सहकर्मियों को गुड मौर्निंग कहता हुआ अपने कैबिन में जा रहा था, तभी चपरासी गुड्डू रवि से बोला, ‘‘रवि साहब, आप को बौस ने बुलाया है.’’

‘‘मुझे,’’ रवि के मुंह से अचानक निकला था.

पास के कैबिन में बैठा मुकेश रवि की तरफ ही देख रहा था. उस का सवाल सुन कर वह बताने लगा, ‘‘अरे रवि, तुम्हें पता चला हमारे बौस राकेश साहब की मदर की तबीयत ज्यादा खराब है. इसलिए वे छुट्टी पर चले गए हैं.’’

‘‘अच्छा, कब तक के लिए,’’ रवि के चेहरे पर थोड़ी परेशानी झलक रही थी और सहानुभूति भी. परेशानी खुद की छुट्टी को ले कर थी. वह सोच रहा था कि अगर बौस छुटट्ी पर चले गए हैं तो उस की छुट्टी की कौन मंजूरी देगा और सहानुभूति अपने बौस के लिए थी.

‘‘यार, फिलहाल तो उन्होंने एक हफ्ते की ऐप्लिकेशन दी है, लेकिन कुछ नहीं कह सकते कि वे कब तक लौटेंगे,’’ मुकेश ने बताया.

रवि के चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह अपनी छुट्टियां को ले कर संशय में था. अब जब उस के बौस छुट्टी पर थे, तो उसे पता नहीं ज्यादा दिन की छुट्टी मिल सकेगी या नहीं.

मुकेश ने उस के चेहरे के भावों को भांपते हुए कहा, ‘‘तू फिक्र मत कर, तुझे छुट्टी तो मिल ही जाएगी. 2 साल से लगातार हार्डवर्क जो कर रहा है तू.’’

रवि इस पर मुसकरा दिया. फिर धीमे से बोला, ‘‘फिर यह नया बौस कौन है, जो मुझे बुला रहा है?’’

‘‘कोई नई मैडम राकेश सर की जगह टैंपरेरी अपौइंट हुई हैं. सुना है मुंबई से हैं,’’ मुकेश ने बताया और बोला, ‘‘तू मिल ले जा कर, औफिस का वर्क इंट्रोड्यूस करवाने के लिए बुलवा रही होंगी तुझे.’’

‘‘चल, फिर मैं उन से मिल कर आता हूं,’’ रवि के चेहरे पर अब थोड़ी राहत झलक रही थी.

मुकेश की इस बात से उसे राहत पहुंची थी कि 2 साल से वह हार्डवर्क कर रहा था. कंपनी के पास उस की छुट्टी कैंसिल करने की कोई वजह भी नहीं थी.

ये सब सोचतेसोचते रवि बौस के रूम का दरवाजा खोल कर अंदर चला गया.

‘‘प्लीज, मे आई कम इन मैम,’’ रवि कैबिन के दरवाजे को आधा खोल कर धीरे से बोला.

‘‘कम इन,’’ मैडम किसी फाइल को सिर झुका कर देख रही थीं.

रवि चुपचाप उन की टेबल के सामने जा कर खड़ा हो गया.

मैडम ने अचानक अपना सिर उठाया और शायद ‘सिट डाउन, प्लीज’ कहने ही वाली थीं कि रुक गईं.

रवि भी अपनी जगह बस खड़े का खड़ा ही रह गया. उसे इस बात की बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि वह उसे आज यहां अचानक इस तरह मिलेगी. वह अदिति थी. कालेज की पुरानी दोस्त नहीं, कालेज के दिनों की रवि की एकमात्र दुश्मन. दोनों ने कभी एकदूसरे से कालेज में बात भी नहीं की थी, लेकिन उन का झगड़ा फेसबुक चैटिंग पर पहले हो चुका था.

रवि का कालेज में पहला साल था. वह पढ़ाकू किस्म का लड़का था. उन दिनों वह अदिति की तरफ आकर्षित हो गया था, लेकिन उसे उस से बात करने में न जाने क्यों बहुत ज्यादा झिझक महसूस होती थी. अदिति अच्छी होस्ट होने के साथसाथ कविताएं लिखती और सुनाती भी थी. ऐसी कई बातों ने रवि को प्रभावित कर दिया था. लेकिन रवि चुप रहने वाला लड़का था. वह अदिति से बात करना तो चाहता था, पर कर नहीं पाता था.

2 सैमेस्टर पूरे होने के बाद रवि के कालेज में कुछ दिनों के लिए छुट्टियां हो गई थीं.

तभी एकाएक उसे फेसबुक जैसे माध्यम का साथ मिल गया. उस ने इंटरनैट पर फेसबुक आईडी बना ली और अदिति को फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी. अदिति ने उसे ऐक्सैप्ट भी कर लिया. अब जैसे रवि को नया आसमान मिल गया था, थोड़ाबहुत जो भी लिख लिया करता था, फेसबुक पर पोस्ट करता, उस के क्लासमेट्स भी अब उसे नोटिस करने लगे थे. फिर वह एकाएक अदिति को अकसर उस की कविताओं की तारीफ लिख कर भेजा करता, उस की तसवीरों पर कमैंट कर दिया करता. बदले में अदिति भी रिप्लाई करती थी.

एक दिन उस ने अदिति की एक तसवीर देखी और उस पर उसे कुछ पंक्तियां लिखने का मन हुआ. उस दिन उस ने कमैंट में अपनी वे पंक्तियां न लिख कर अदिति की उस तसवीर को डाउनलोड कर अपनी टाइमलाइन से उन पंक्तियों के साथ अपलोड कर दिया और अदिति की टाइमलाइन पर वह तसवीर टैग के जरिए भेज दी. यह सब देखते ही अदिति ने रवि को मैसेज किया ‘अपलोड करने से पहले पूछ तो लेते.’

रवि ने रिप्लाई किया, ‘जी, सौरी. आप को बुरा लगा हो तो मैं उस तसवीर को हटा देता हूं.’

रवि फेसबुक का नौसिखिया संचालक था. उसे मालूम नहीं था कि उस फोटो को पूरी तरह से हटाने के लिए उसे डिलीट के औप्शन पर जाना होगा. उस ने सामने दिख रहे ‘रिमूव’ के औप्शन से उस तसवीर को अपने प्रोफाइल से हटा लिया और सोचने लगा कि तसवीर पूरी तरह से हट चुकी है.

थोड़ी देर बाद अदिति का फिर मैसेज आया, ‘फोटो अभी तक हटा क्यों नहीं?’

रवि तो समझ रहा था कि वह हट चुका है, इसलिए रिप्लाई किया, ‘हटा तो दिया है.’

अदिति का इस बार थोड़ा तीखा रिप्लाई आया, ‘अपने मोबाइल अपलोड में देख.’

रवि ‘मोबाइल अपलोड’ नाम की बला को उस समय जानता ही नहीं था. उस ने फिर रिप्लाई किया, ‘कहां?’

‘मोबाइल अपलोड में देख,’ अदिति का रिप्लाई अब सख्त लग रहा था.

‘ओके,’ रवि ने नपातुला जवाब दिया.

उसे हलका सा धक्का लगा था. उसे अदिति के ‘अपने अपलोड में देख’ जैसे शब्दों से ठेस पहुंची थी, क्योंकि अब तक उन दोनों की बातचीत में हर जगह ‘आप देखिए’ जैसे शब्द ही शामिल थे.

रवि ने जैसेतैसे ‘मोबाइल अपलोड’ ढूंढ़ा. अब वह उस तसवीर पर गया, लेकिन वहां भी उसे डिलीट का औप्शन नहीं दिख रहा था.

तब तक अदिति का एक और तीखा रिप्लाई आ चुका था, ‘फोटो अभी तक नहीं हटा.’

फिर एक बार अदिति ने मैसेज किया, ‘मिस्टर, क्या चल रहा है यह सब?’

रवि ने रिप्लाई किया, ‘कुछ टैक्निकल प्रौब्लम आ रही है. साइबर कैफे जा कर जल्दी ही उस मनहूस फोटो को हटाता हूं.’

रवि अब थोड़ा झुंझला सा गया था. उसे अदिति का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा था.

‘मनहूस…’ इस के आगे कुछ अपशब्द थे अदिति के रिप्लाई में.

अब रवि ने सब से पहले साइबर कैफे में एक व्यक्ति से पूछ कर उस फोटो को डिलीट किया. फिर अदिति को मैसेज किया, ‘आप का वह फोटो डिलीट हो चुका है. एक बात कहूंगा कि वह मेरी गलती थी, पर आप को यों ‘तू तड़ाक’ से तो पेश नहीं आना चाहिए.’

अब बात गरमा गई थी. धीरेधीरे रिप्लाई में भयंकर झगड़ा हो गया और फिर रवि जिस एकमात्र लड़की को अपनी क्लास में पसंद करता था, उस की फेसबुक फ्रैंड लिस्ट से बाहर हो चुका था.

आखिर में रवि ने थोड़ा सोचा और एक लंबा सौरी मैसेज भेज दिया लेकिन तब तक वह अदिति की फ्रैंड लिस्ट से बाहर हो चुका था.

छुट्टियों के बाद जब कालेज खुला, तो कालेज में बातें चल रही थीं कि रवि ने अदिति को प्रपोज किया था. रवि ने चुपचाप सब सुन लिया लेकिन इस बारे में कोई रिप्लाई नहीं किया.

वह जैसे अपनी ही नजरों में गिरता जा रहा था. अदिति ने ही शायद कालेज में यह बात फैलाई थी. फेसबुक से हुई एक गलती ने उसे संजीदा छात्रों की फेहरिस्त से बाहर कर दिया था और हर ओर कुछ महीने तक उस की हंसी उड़ाई गई थी.

एक दिन क्लास में उस के पीछे की सीट पर बैठ कर अदिति ने उस के दोस्तों के साथ मिल कर अप्रत्यक्ष रूप से रवि पर कई कटाक्ष कर दिए थे. वह उस की हंसी उड़ा रही थी, पर रवि कुछ नहीं बोला. वह अब तक खुद की ही गलती मान रहा था, लेकिन उस दिन से उस

ने अदिति से नफरत करना शुरू कर दिया था. अब अदिति को भी उस ने अपनी फ्रैंडलिस्ट से हटा दिया था और एकएक कर अदिति के दोस्त भी ब्लौक होते चले गए.

फिर न उस की अदिति से सामने कभी बात हुई और न ही फेसबुक पर, आज इतने साल बाद फिर वह उस के सामने थी और अब उस की बौस थी.

दोनों लगभग 10 मिनट तक स्तब्ध हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. अदिति ने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा, ‘‘सिट डाउन, प्लीज.’’

रवि चुपचाप बैठ गया. 5 मिनट तक कैबिन में खामोशी छाई रही. अदिति अभी फिर से अपनी फाइल में उलझ गई थी या शायद नाटक कर रही थी.

फिर नजरें उठा कर बोली, ‘‘रवि, मुझे कल तक इस औफिस की सभी जरूरी फाइलें दे दो.’’

‘‘जी मैम,’’ रवि ने धीमे से कहा. उस की नजरें झुकी हुई थीं.

‘‘ओके, आप जा सकते हैं,’’ अदिति ने कहा, इस बार उस की नजरें भी झुकी हुई थीं.

रवि कैबिन से बाहर आ गया था लेकिन अपने अतीत से नहीं.

उस रात उसे नींद नहीं आ रही थी. गुजरे हुए कल में जो हुआ था उसे तो वह नजरअंदाज कर चुका था, लेकिन अब उस से उस की वर्तमान जिंदगी प्रभावित होती दिख रही थी.

रवि को फिक्र सता रही थी कि उस की छुट्टियां अदिति अस्वीकृत न कर दे. वह लंबे समय से छुट्टियों का इंतजार कर रहा था और अब अदिति के रहते उसे छुट्टी मिलना मुश्किल लगने लगा था. उसे लग रहा था कि अदिति उस से पुरानी दुश्मनी जरूर निकालेगी.

अगले दिन वह परेशान सा औफिस पहुंचा. चपरासी ने पिछले दिन की तरह ही उसे आज फिर बताया कि बौस यानी अदिति ने उसे कैबिन में बुलाया है.

रवि वे जरूरी फाइलें ले कर कैबिन में पहुंचा, जो उसे पिछले दिन अदिति ने छांटने को कही थीं.

‘‘मे आई कम इन मैम,’’ रवि ने औपचारिकता निभाई.

‘‘यसयस,’’ अदिति ने उस की तरफ आज पहली बार मुसकरा कर देखा था. ‘‘वे फाइल्स?’’

‘‘जी मैम, ये रहीं,’’ रवि ने फाइलों का एक ढेर अदिति की टेबल पर रख दिया.

‘‘आप को एक महीने की छुट्टी चाहिए?’’ अदिति तीखी मुसकराहट के साथ कह रही थी.

‘‘जी मैम,’’ रवि सिर नीचे किए हुए था.

‘‘इस वक्त औफिस में राकेशजी नहीं हैं, तो आप को इतनी लंबी छुट्टी

मिलना तो मुश्किल है,’’ अदिति रवि की तरफ अब गंभीरता से देखते हुए कह रही थी.

‘‘ओके, मैम. आप जैसा कहें,’’ रवि ने हलका सा सिर उठा कर कहा.

‘‘रविजी, आप हमारी कंपनी के बैस्ट एंप्लोई हैं,’’ अदिति इतना कहते हुए रुकी और फिर एक कागज हाथ में उठा कर बोली, ‘‘और आप की छुट्टी मैं भी आप से नहीं छीन सकती.’’

अदिति मुसकरा रही थी. अब रवि ने वह कागज अदिति मैम के हाथ से ले लिया और उसे पढ़ कर अब वह भी मुसकरा उठा, ‘‘थैंक्यू मैम,’’ रवि ने खुश होते हुए कहा. रवि की आंखों में कृतज्ञता झलक रही थी.

‘‘इट्स ओके रवि,’’ अदिति अब गंभीर मुद्रा में कह रही थी

कैबिन में कुछ लमहों तक खामोशी छा गई थी. अदिति ने उस खामोशी को तोड़ा, ‘‘रवि, ये ‘इट्स ओके’ तुम्हारे उस 10 साल पहले के सौरी के लिए है, जो तुम ने फेसबुक पर मैसेज किया था.’’

रवि चुपचाप खड़ा हो गया था. फिर कुछ देर बाद बोला, ‘‘दरअसल, वह मेरी नासमझी थी. मैं ने फेसबुक माध्यम को समझने में ही गलती कर दी थी. मुझे नहीं मालूम था कि किसी की तसवीर बिना पूछे अपलोड कर देना गलत है.’’

‘‘आई एम आलसो सौरी,’’ अदिति कह रही थी.

‘‘किसलिए मैम,’’ रवि जैसे अब सारी नफरत भुला चुका था.

‘‘गलती मेरी भी थी. मैं जरूरत से ज्यादा ही तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार कर रही थी. मुझे वह प्रपोज वाली बात भी नहीं उड़ानी चाहिए थी,’’ अदिति की आंखों में भी जैसे कुछ पिघल रहा था, ‘‘मैं ने तुम्हें गलत समझा था.’’

‘‘इट्स ओके मैम,’’ रवि इतना कह कर चुप हो गया था.

अदिति ने फिर चुप्पी तोड़ी, ‘‘मैं चाहती तो तुम से बदला लेती. तुम्हारी छुट्टियां कैंसिल कर देती. एक बार मैं ने सोचा भी, पर…’’

कुछ देर चुप रहने के बाद अदिति जैसे कोई सटीक बात ढूंढ़ कर बोली, ‘‘कल को हो सकता है तुम मेरी जगह हो और मैं तुम्हारी जगह. इस तरह नफरत से जिंदगी नहीं जी जाती.’’

कुछ देर तक फिर खामोशी छाई रही और अदिति ने फिर कहा, ‘‘उम्मीद है, तुम ने मुझे माफ कर दिया होगा.’’

‘‘औफकोर्स मैम,’’ रवि ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘तो कल से तुम छुट्टी पर हो,’’ अदिति ने मुसकराते हुए रवि से पूछा.

‘‘जी मैम,’’ रवि ने भी हंस कर जवाब दिया.

‘‘ओके, ऐंजौय यौर्स हौलीडेज. तुम जा सकते हो,’’ अदिति इतना कह कर आंख बंद कर अपनी कुरसी पर पीठ टेक कर बैठ गई जैसे कोई भारी बोझ कंधे से उतार दिया हो.

रवि जब बाहर जाने के लिए कैबिन का दरवाजा खोल रहा था, तब मुसकराते हुए अदिति ने उसे रोक कर कहा, ‘‘रवि, हैप्पी दीवाली.’’

रवि भी मुसकरा दिया और बोला, ‘‘आप को भी, अदिति मैम.’’

इतना कहते हुए रवि मुसकराता हुआ बाहर आ गया. उन दोनों के बीच खड़ी कई साल पुरानी दीवारें अचानक ढह गई थीं. जिंदगी खुशियां बांट कर, उन का कारण बन कर चलती है, नफरतें पाल कर नहीं.

दीवाली के इस अवसर पर क्षमादान के दीपकों की जलती हुई लौ में रवि और अदिति के दिलों में नफरतों से भरे कुछ अंधेरे कोने रोशन हो चुके थे.

Romantic Story : पहाड़ी लड़की का इश्किया अंदाज

Romantic Story : ‘‘कोई घर अपनी शानदार सजावट खराब होने से नहीं, बल्कि अपने गिनेचुने सदस्यों के दूर चले जाने से खाली होता है,’’ मां उस को फोन करती रहीं और अहसास दिलाती रहीं, ‘‘वह घर से निकला है तो घर खालीखाली सा हो गया है.’’ ‘मां, अब मैं 20 साल का हूं, आप ने कहा कि 10 दिन की छुट्टी है तो दुनिया को सम झो. अब वही तो कर रहा हूं. कोई भी जीवन यों ही तो खास नहीं होता, उस को संवारना पड़ता है.’ ‘‘ठीक है बेबी, तुम अपने दिल की करो, मगर मां को मत भूल जाना.’’ ‘मां, मैं पिछले 20 साल से सिर्फ आप की ही बात मानता आया हूं. आप जो कहती हो, वही करता हूं न मां.’ ‘‘मैं ने कब कहा कि हमेशा अच्छी बातें करो, पर हां मन ही मन यह मनोकामना जरूर की,’’ मां ने ढेर सारा प्यार उडे़लते हुए कहा. वह अब मां को खूब भावुक करता रहा और तब तक जब तक कि मां की किटी पार्टी का समय नहीं हो गया.

जब मां ने खुद ही गुडबाय कहा, तब जा कर उस ने चैन पाया. बस कुछ घंटों में वह भवाली पहुंचने वाला था. अभी बस रामपुर पहुंची थी, किला दूर से दिखाई दे रहा था. कितनी चहलपहल और रौनक थी रामपुर में. उस ने बाहर झांक कर देखा. बहुत ही मजेदार नजारे थे. एक किशोरी नीबू पानी बेच रही थी. उस ने भी खरीदा और गटागट पी गया. बस फिर चल पड़ी थी. इस बार वह अपनी मरजी से बस में ही आया था. मां ने 50,000 रुपए उस के खाते में डाले थे कि टैक्सी कर लेना. पर वह टैक्सी से नहीं गया. दरअसल, वह सफर के पलपल का भरपूर मजा लेना चाहता था. नीबू पानी पी कर उस को मीठी सी झपकी आ गई और कहा कि रामपुर के बाद पंतनगर, टांडा का घनघोर जंगल, रुद्रपुर, बिलासपुर, काठगोदाम कब पार किया, उस को खबर ही नहीं लगी. ‘भवालीभवाली’ का शोर सुन कर उस की आंख खुली. वह पहली बार किसी पहाड़ी सफर पर गया था. जब उस ने सफेद बर्फ से संवरे ऊंचेऊंचे पहाड़ देखे, तो अपलक निहारता ही रह गया.

वह मन भर कर इस खूबसूरती को पी लेना चाहता था. उधर एक लड़की रेडीमेड नाश्ता बेच रही थी. उस पहाड़ी नजर ने उस के इश्किया अंदाज को भांप लिया और उस चाय बेचने वाले नौजवान से उस को संदेश भिजवाया और वह नौजवान मस्ती में जा कर फुसफुसाया उस के कानों में. ‘‘पलकें भी नहीं झपका रहे हो, ये कैसे देख रहे हो मु झे.’’ ‘‘हां, क्या…?’’ वह चौंक ही पड़ा, पर उस से पहले नौजवान ने उस के ठंड से कंपकंपाते हुए हाथों में गरमागरम चाय थमा दी. उस ने चाय सुड़कते हुए उस नौजवान की आवाज को फिर याद किया और अभीअभी कहे गए शब्द दोहराए, तो पहाड़ी लड़की के सुर को उस के दिल ने भी सुन और सम झ लिया. पहले तो उस को कुछ संकोच सा हुआ और मन ही मन उस ने सोचा कि अभी इस जमीन पर पैर रखे हुए 10 मिनट ही हुए हैं, इतनी जल्दी भी ठीक नहीं. मगर अगले ही सैकंड उस को याद आया कि बस 10 दिन हैं उस के पास, अब अगर वह हर बात और हर मौका टालता ही जाएगा, तो कुछ तजरबा होगा कैसै? इसलिए वह एक संतुलन बनाता हुआ नजरें हटाए बगैर ही बुदबुदाया.

बचपन में मैं ने अनुभव से एक बात सीखी थी कि फोटो लेते समय शरीर के किसी अंग को हरकत नहीं करनी है, सांस भी रोक कर रखना है. ‘‘अब मेरी जो आंखें हैं, वे अपनी सांस रोक कर मेरे दिल में बना रही हैं तुम्हारा स्कैच,’’ उस की यह बात वहां उसी नौजवान ने जस की तस पहुंचा दी. उस के आसपास वाले एक स्थानीय लड़के ने भी यह सब सुना और उस को मंदमंद मुसकराता देख कर पहाड़ी लड़की शर्म से लाल हो गई. इस रूहानी इश्क को महसूस कर वहां की बर्फ भी जरा सी पिघल गई और पास बह रही पहाड़ी नदी के पानी में मिल गई. पर, 10 मिनट बाद ही उन दोनों की गपशप शुरू हो गई, वह लड़की टूरिस्ट गाइड थी. 4 घंटे के 300 रुपए वह मेहनताना लेती थी. ‘वाह, क्या सचमुच,’ उस ने मन ही मन सोचा. मगर आगे सचमुच बहुत सुविधा हो गई. उसी लड़की ने वाजिब दामों पर एक गैस्ट हाउस दिलवा दिया और अगले दिन नैनीताल पूरा घुमा लाई. नैनीताल में एक साधारण भोजनालय में खाना और चायनाश्ता दोनों ने साथसाथ ही किया. 30 रुपए बस का किराया और दिनभर खानाचाय चना जोर गरम सब मिला कर 500 रुपए भी पूरे खर्च नहीं हुए थे.

कमाल हो गया. यह लड़की तो उस के लिए चमत्कार थी. दिनभर में वह सम झ गया था कि लड़की बहुत सम झदार भी थी. वे लोग शाम को वापस भवाली लौट आए थे. कितनी ऊर्जा थी उस में कमाल. वह मन ही मन उस के लिए कहता रहा. एकाध बार उस के चेहरे पर कुछ अजीब सी उदासी देख कर वह बोली थी, ‘‘यह लो अनारदाना… मुंह में रखो और सेहत बनाओ.’’ उस ने अनारदाना चखा. सचमुच बहुत ही जायकेदार था, वह कहने लगी, ‘‘सुनो, जो निराश हो गई है, वह अगर तुम्हारा मन है, तो किसी भी उपाय से कोई फर्क नहीं पड़ेगा पहाड़समंदर घूमने से, संगीतकलासाहित्य से भी बस थोड़ा फर्क पड़ेगा, और वह भी कुछ देर के लिए निराशा की बेचैनी तो बस उदासी तोड़ कर जीने से दूर होती है, अपने मूड के खिलाफ बगावत करने से दूर होती है, हर माहौल आंखों से आंखें मिला कर खड़े होने से दूर होती है. ‘‘शान से, असली इनसान की तरह जीने के मजे लूटने हैं, तो जागरूक हो जाओ. अपने भीतर जितना भी जीवन है, औरों को बांटते चलो, फिर देखो, कितना अनदेखा असर होता है.

और अपनी बात पूरी कर के उस ने 6 घंटे के पूरे पैसे उस को थमा दिए. वह लड़की उस से उम्र में कुछ बड़ी थी. आगे रानीखेत, अलमोड़ा वगैरह की बस यात्रा उस ने अच्छी तरह सम झा दी थी. उस ने कुछ भी ठीक से नहीं सुना. यही सोच कर कि वह लड़की भी साथ तो चलेगी ही. मगर वह हर जगह अकेला ही गया. उस के बाद वह 4 दिन उस को बिलकुल नजर नहीं आई. अब कुल 4 दिन और बचे थे, उस ने पिथौरागढ़ घूमने का कार्यक्रम बनाया और लड़की साथ हो ली. उस को उस लड़की में कुछ खास नजर आया. सब से कमाल की बात तो यह थी कि मां के दिए हुए रुपए काफी बच गए थे या यों कहें कि उस में से बहुत सी रकम वैसे की वैसी ही पड़ी थी. उस ने चीड़ और देवदार की सूखी लकड़ी से बनी कुछ कलाकृतियां खरीद लीं और वहां पर शाल की फैक्टरी से मां, उन की कुछ सहेलियां और अपने दोस्तों के लिए शाल, मफलर, टोपियां वगैरह पसंद कर खरीद लीं. 2 दिन बाद वे दोनों पिथौरागढ़ से वापस आ गए.

यात्रा बहुत रोमांचक रही और सुकूनदायक भी. वह उस से कुछ कहना चाहता था, पर वह हमेशा ही उल झी हुई मिलती थी. मन की बात कहने का मौका अपने बेकरार दिल के सामने बेकार कर देने का समय नहीं था. अब एक दिन और बचा था. उस ने आसपास के इलाके ज्योलीकोट और 2 गांव घूमने का निश्चय किया. वह यह सब नक्शे पर देख ही रहा था कि वह लड़की उस के पास भागीभागी चली आई. हांफते हुए वह बोली, ‘‘जरा सी ऐक्टिंग कर दो न.’’ ‘‘क्या… पर, क्यों…?’’ वह चौंक पड़ा. ‘‘अरे, सुनो. तुम कह रहे थे न, तुम बहुत अच्छी आवाज भी निकाल लेते हो.’’ ‘‘यह क्या कह रही हो? मैं ऐक्टिंग और अभी… यह सब क्या है?’’ ‘‘ओह, तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं फिदा हूं. तुम बस मस्तमगन रहते हो और फालतू कुछ सोचने में समय खराब नहीं करते. चलोचलो, शुरू हो जाओ न. ‘‘हांहां ठीक है, अभी करता हूं.’’ ‘‘सुनो, अभी यहां एक लफंगा आएगा.

उस को कह दो न कि तुम फिल्म डायरैक्टर हो और अब मैं तुम्हारी अगली हीरोइन.’’ ‘‘पर, मैं तो अभी बस 20 साल का हूं?’’ कह कर वह टालने लगा. ‘‘हांहां, उस से कुछ नहीं होता, बस इतना कर दो. यह पुराना आशिक है मेरा, मगर तंग कर रहा है. इसे जरा बता दो कि तुम मु झे कितना चाहते हो. ‘‘फिर, मु झे तसल्ली से सगाई करनी है. वह देखो, वह बस चालक, वह उधर देखो, वही जो हम को पिथौरागढ़ अपनी बस में ले कर गया और वापस भी लाया.’’ वह बोलती जा रही थी और उस का दिमाग चकरघिन्नी बना जा रहा था. वह अचानक गहरे सदमे में आ गया. पर उस की बात मान ली और उम्दा ऐक्टिंग की. लड़की ने दूर से सारा तमाशा देखा और उंगली का इशारा भी करती रही. वह उसी समय बैग ले कर दिल्ली की तरफ जाती हुई एक बस में चढ़ा और पलट कर भी नहीं देखा. उस को लगा कि उस के दिल में गहरे घाव हो गए हैं और उस ने खुद बहुत सारा नमक अपने किसी घाव में लगा दिया है.

Emotional Story : मेरा पत‍ि और मेरी दोस्‍त

Emotional story : नेहा घबराई हुई थी, सागर की रिपोर्ट्स जो आनी थीं आज. नेहा ने सोते हुए सागर के चेहरे पर नजर डाली, क्या हुआ है सागर को, कितना कमजोर होता चला जा रहा है. फिर वह मुंबई के मुलुंड इलाके में तीसरे फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में आ खड़ी हुई. यहां से उसे सोसाइटी का मेनगेट दिखाई पड़ता है. उस ने दूर से ही देख लिया कि रिया अपनी स्कूटी से आ रही है. उस का मन और बु झ गया.

यह रिया भी उसे चैन से नहीं जीने दे रही है. सागर के बचपन की इस दोस्त पर उसे बहुत गुस्सा आता है. कभी कुछ कह नहीं पाती. सोचती है, कह दिया तो सागर की नजरों में गिर जाएगी. पर कभी वह सागर और रिया की दोस्ती पर शक करती, कभी जासूसी करती, कभी उन के हावभाव देखती.

सागर को नेहा के मातापिता ने पसंद किया था. सागर का स्वभाव, व्यवहार देख कर नेहा को अपने पर गर्व ही हुआ था. वह सागर के साथ अपने वैवाहिक जीवन में पूरी तरह सुखी और संतुष्ट थी.

अब नेहा के मातापिता नहीं रहे थे. बहनभाई कोई था नहीं. सागर के भी मातापिता का सालों पहले देहांत हो चुका था. एक बड़ा भाई था, जो अपने परिवार के साथ अमेरिका में ही बस गया था. विवाह के बाद ही सागर का ट्रांसफर दिल्ली से मुंबई हो गया था. और एक दिन यहां उसे अचानक एक मौल में रिया मिल गई थी. सागर जबरदस्ती रिया को साथ घर ले कर आया था. फिर तो दोनों की बातें खत्म ही नहीं हुई थीं.

सागर ने उसे बताया था कि दिल्ली में एक ही गली में दोनों के घर थे. दोनों साथ ही पढ़े थे. पढ़ाई के बाद रिया जौब के लिए मुंबई आ गई थी. बीच में कभीकभार दोनों की फोन पर ही बात हुई थी. रिया अपने मातापिता की एकमात्र संतान थी. उस के मातापिता इस समय दिल्ली में ही रह रहे थे.

अब तो रिया कभी भी उन के घर आ धमकती थी. रिया वैसे नेहा को पसंद आई थी. स्मार्ट, सुंदर, मस्तमौला, खुशमिजाज लड़की थी. यहां एक एमएनसी में अच्छे पद पर कार्यरत थी. वह 2 लड़कियों के साथ फ्लैट शेयर कर रहती थी.

डोरबैल की आवाज से नेहा की तंद्रा भंग हुई. हाथ में खूब सारे पैकेट ले कर रिया अंदर आई. सब पैकेट टेबल पर रख कर सीधे सागर को देखने बैडरूम में गई. कुछ आहट पा कर सागर ने आंखें खोलीं.

‘‘कैसे हो?’’ रिया ने पूछा.

‘‘ठीक हूं.’’ सागर मुसकरा दिया.

‘‘कुछ नाश्ता लेती हुई आई हूं, सब खाते हैं,’’ रिया बोली.

नेहा ने कहा, ‘‘तुम खा लो, मेरा मन नहीं है.’’

रिया ने नेहा को स्नेहपूर्वक, अधिकार के साथ आंखें दिखाईं, ‘‘चुपचाप खा लो. अभी तुम्हारा राजकुमार भी स्कूल से आने वाला होगा. फिर उस की सेवा में लग जाओगी. चलो, अब शांति से बैठ कर कुछ खा लो.’’

नेहा अब मना नहीं कर पाई. वह सागर के लिए फल काट कर लाई और अपने दोनों के लिए चाय. सागर ने 2 टुकडे़ ही खाए थे कि फिर उस के पेट में तेज दर्द उठा. वह पसीनेपसीने हो गया. नेहा फिर घबरा गई.

रिया ने कहा, ‘‘रहने दो, सागर. तुम

कुछ मत खाओ. अब रिपोर्ट्स

आ ही जाएंगी, पता चलेगा क्या परेशानी है. लो, थोड़ा पानी पियो.’’ रिया ने सागर के मुंह में 2 चम्मच पानी डाला. नेहा के हाथपांव फूल रहे थे. रिया ने कहा, ‘‘अब तुम लोगों का डाक्टर के पास जाने का टाइम हो रहा है. मैं यहीं रुकती हूं. यश स्कूल से आएगा तो मैं उसे देख लूंगी.’’

नेहा ने उस की तरफ कृतज्ञताभरी नजरों से देखा तो रिया हंस पड़ी.

‘‘ज्यादा मत सोचो, तैयार हो जाओ. कभी मेरी तबीयत खराब होगी न, तो इतनी सेवा करवाऊंगी कि याद रखोगे.’’

दर्द में भी हंसी आ गई सागर को, बोला, ‘‘तुम हमेशा बकवास ही करना.’’ रिया ने उसे घूरा तो नेहा दोनों को देखती रह गई. अकसर दोनों की खुली दोस्ती को सम झने की नेहा कोशिश ही करती रह जाती थी.

यश स्कूल से आ गया तो नेहा उस के साथ व्यस्त हो गई. रिया आराम से सागर के पास बैठ कर बातें कर रही थी. अब तक यश भी रिया से काफी घुलमिल चुका था. यश को रिया के पास छोड़ सागर और नेहा अस्पताल चले गए.

नेहा रिपोर्ट्स ले कर डाक्टर के रूम के बाहर अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रही थी. सागर निढाल बैठा हुआ था. नेहा चिंतामग्न थी. उस के विवाह को 8 साल ही तो हुए थे. सागर के पेट में काफी समय से बहुत तेज दर्द की शिकायत थी. वह कोई पेनकिलर खा लेता था, दर्द ठीक हो जाता था. पर इस बार नेहा की जिद पर वह अपना चैकअप करवाने आया था. बहुत सारे टैस्ट हुए थे.

अपना नंबर आने पर नेहा डाक्टर सतीश के हाथ में रिपोर्ट देते हुए मन ही मन बहुत घबरा रही थी. उस की हथेलियां पसीने से भीग उठी थीं. वह सागर की गिरती सेहत को ले कर बहुत फिक्रमंद थी. डाक्टर की गंभीरता देख कर तो सागर भी असहज हो उठा.

‘‘सब ठीक तो है न, डाक्टर साहब?’’

‘‘नहीं, मिस्टर सागर, कुछ ठीक नहीं है. आप को आंतों का कैंसर है.’’

‘‘नहीं, डाक्टर,’’ नेहा लगभग चीख ही पड़ी, ‘‘यह कैसे हो सकता है.’’ सागर तो जैसे पत्थर का हो गया था.

‘‘ज्यादा चिंता मत करें. आप ऐडमिट हो जाइए, इलाज शुरू करते हैं, कीमोथेरैपी होगी. आजकल हर बीमारी का इलाज है. आप लोग देर न करें. इलाज शुरू करते हैं.’’ लगातार बरसती आंखों से सागर को ऐडमिट करवा कर नेहा फिर डाक्टर के पास गई, पूछने लगी, ‘‘डाक्टर, सागर ठीक तो हो जाएंगे न?’’

‘‘कोशिश तो पूरी की जाएगी लेकिन रिपोर्ट्स के हिसाब से इन के पास मुश्किल से 6 महीने ही हैं. कैंसर पूरी तरह से फैल चुका है. आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है.’’

अपनेआप को संभालती, रोतीसिसकती नेहा ने रिया को सब बताया तो उसे भी तेज  झटका लगा. फिर तुरंत अपनेआप पर काबू रखते हुए कहा, ‘‘तुम वहीं रहो, मैं रात को भी यहीं घर पर रहूंगी. कल यश को स्कूल भेज अस्पताल आ जाऊंगी. फिर तुम फ्रैश होने घर आ जाना. किसी भी बात की चिंता मत करना. मैं औफिस से छुट्टी ले लूंगी.’’ नेहा को सम झा कर, तसल्ली दे कर, फोन रख कर रिया भी फूटफूट कर रो पड़ी. यह क्या हो गया, उस का दोस्त इतनी बड़ी बीमारी की चपेट में आ गया. अब क्या होगा. नेहा अकेले कैसे सब करेगी. इन दोनों का तो कोई है भी नहीं यहां. अब उसे ही इन का सहारा बनना है.

अगले दिन यश को स्कूल भेज, सब का खाना बना कर, मेड से घर की साफसफाई करवा कर रिया अस्पताल पहुंच गई. वह सामान्य ढंग से सागर और नेहा से बातें करती रही. सागर तो अब मानसिक रूप से भी निढाल हो चुका था. उस ने नेहा को जबरदस्ती घर भेज दिया. उस के वापस आने तक रिया सागर से हमेशा की तरह हलकीफुलकी बातें करती रही. एकदो बार सागर को हंसा भी दिया. फिर सागर भी थोड़ा सहज हो कर बातें करता रहा.

नेहा वापस आई तो तीनों अपनेआप को सामान्य करने की कोशिश करते रहे. अब यही नियम बन गया. रात को रिया ही यश के पास रहती. वह अपना काफी सामान नेहा के घर ही उठा लाई थी. यश को स्कूल भेज वह भी अस्पताल चली आती. फिर यश के आने के समय नेहा घर आ जाती. उस के साथ कुछ समय बिता कर रात को फिर सागर के पास चली जाती.

एक हफ्ता सागर अस्पताल में ऐडमिट रहा. कीमो का पहला सैशन सागर के लिए काफी कष्टप्रद रहा. सागर की पीड़ा देख कर नेहा तड़प जाती. आंखें हर पल भीगी रहतीं. एक हफ्ते बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘अब ये घर जा सकते हैं. इलाज तो चलता रहेगा. इन्हें हर हफ्ते कीमोथेरैपी के लिए आना है.’’ बहुत सारे निर्देशों के साथ तीनों घर लौट आए.

रिया ने ही सागर के औफिस फोन कर सब जानकारी दे दी. सब को सुन कर धक्का लगा था. फिर सागर से मिलने जानपहचान का कोई न कोई आता रहता था. वैसे तो मुंबई में हर व्यक्ति व्यस्त ही रहता है पर जिन पड़ोसियों से आतेजाते जानपहचान हो गई थी, उन्हें रिया ने सागर की बीमारी का हलका सा संकेत दे दिया था. रिया को महसूस हुआ था कि सागर को कभी भी तबीयत खराब होने पर समयअसमय हौस्पिटल ले कर भागना पड़ सकता है. सो, कम से कम कोई पड़ोसी तो ऐसा हो जिस पर नेहा भरोसा कर सके.

कीमोथेरैपी के हर सैशन में रिया ही नेहा और सागर को अस्पताल ले कर जाती. नेहा को ड्राइविंग नहीं आती थी. रिया को जैसे हर चीज की जानकारी थी. कीमो के सैशन हो रहे थे पर सागर की हालत में कोईर् सुधार नहीं था. उस के दर्द से नेहा कांप जाती. कभी चुपचाप बैठी रिया की हर बात सोचती तो पलकें आंसुओं से भीग जातीं. यह कैसी दोस्त है जिस ने उन लोगों के लिए अपना हर सुख, हर आराम भुला दिया है. उसे अब सम झ आया था कि दोस्ती तो एक ऐसा सच्चा रिश्ता है जो किसी मांग पर आधारित नहीं है, एक आंतरिक अनुभूति है, स्वार्थ से परे है.

कई हफ्ते बीत रहे थे पर सागर की हालत में कोई सुधार नहीं था. अब तो नेहा को हर पल अनिष्ट की आशंका बनी रहती और फिर एक दिन वही हुआ जिस का डर था. सागर सोया तो उठा ही नहीं. नेहा चीत्कार कर उठी. उस की चीख सुन कर पड़ोसी भी आ गए. नेहा और यश को अपनी बांहों में भर कर रिया भी फूटफूट कर रो पड़ी.

उस के बाद नेहा को कुछ होश नहीं रहा. कैसे रिया ने सागर के बड़े भाई रवि को फोन किया. रवि कब पहुंचा. कब अंतिम संस्कार की तैयारियां हुईं. कैसे सब हुआ. नेहा को कुछ होश नहीं था. बारबार बेहोश होती. फिर होश आता, फिर रोती. उस का संसार लुट चुका था. उसे चुप करवाने वाली पड़ोसिनें भी रो देतीं. उस की हालत देखी नहीं जा रही थी. रिया ने ही सब संभाला.

अंतिम संस्कार के बाद यश के सिर पर हाथ रखते हुए रवि ने कहा, ‘‘नेहा, मेरे साथ चलोगी?’’

‘‘नहीं, भैया.’’

वहीं बैठी रिया ने कहा, ‘‘भैया, आप चिंता न करें. मैं यहीं हूं यश और नेहा के साथ.’’

‘‘पर तुम भी कब तक सब देखोगी?’’

‘‘हमेशा, भैया. इस में परेशानी क्या है?’’

‘‘फिर भी, रिया, कल तुम्हें अपने भी काम होंगे.’’

‘‘नहीं भैया, नेहा और यश से बढ़ कर मु झे कभी कोई काम नहीं होगा. मेरे दोस्त के अपने, मेरे अपने हैं अब.’’

‘‘रिया, यह भावनाओं में बहने वाली बात नहीं है. कल तुम्हारा विवाह होगा, परिवार होगा.’’

‘‘वह जब होगा, देखा जाएगा. फिलहाल तो मैं इस के बारे में सोच भी नहीं सकती, भैया. आप चिंता न करें. मैं हूं इन के साथ.’’

रवि इस प्रेम, मित्रता और इंसानियत की मूरत को देखता ही रह गया. उस की आंखें रिया के प्रति सम्मान से भर उठीं. एक हफ्ते बाद रवि चला गया.

नेहा बुरी तरह डिप्रैशन का शिकार हो गई थी. कभी रिया के गले लग कर तो कभी यश को सीने से लगा कर फूटफूट कर रोती रही. रिया ने अपनी छुट्टियां और बढ़ा ली थीं. उस ने नेहा और यश की पूरी देखभाल की. उस की कोशिशों से नेहा सामान्य होने लगी. नेहा सामान्य हुई तो रिया ने औफिस जाना शुरू किया. वह अपना सारा सामान नेहा के घर ही ले आई थी. सागर की सारी जमापूंजी, बीमे की रकम, सब जानकारी नेहा को दी. हर पल उसे यश के लिए जीने का हौसला बंधाती रहती.

4-5 महीने और बीत गए. नेहा को अब यश के भविष्य की सुध आई. उस ने रिया से कहा, ‘‘रिया, क्या मु झे नौकरी मिल सकती है कहीं?’’

‘‘क्यों नेहा, मैं हूं न, सब कर लूंगी.’’

‘‘कब तक? रिया, प्लीज मेरी नौकरी ढूंढ़ने में मदद करो.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, तुम कहती हो तो देखती हूं. तुम्हारा मन भी लगा रहेगा.’’

रिया ने हर तरफ कोशिश करते हुए घर से थोड़ी दूर ही स्थित एक अच्छे स्कूल में नेहा के लिए टीचिंग की जौब ढूंढ़ ली. मुसकराते हुए रिया बोली, ‘‘यह स्कूल घर के पास भी है, यश का ऐडमिशन भी यहीं करवा लेंगे, दोनों मांबेटा साथ आनाजाना, खुश?’’

नेहा ने रिया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘रिया, कुदरत ने शायद तुम्हें मेरे लिए ही भेजा था. तुम्हारा एहसान मैं…’’ कहतेकहते नेहा का स्वर भर्रा गया.

‘‘चलो, तुम्हें मेरी कुछ तो कद्र है. एक नालायक से दोस्ती की थी वह तो छोड़ कर चला गया,’’ कह कर मुसकराने की कोशिश करतेकरते भी रिया का गला रुंध गया. दोनों एकदूसरे के गले लग कर रो पड़ीं.

आज नेहा के दिल में रिया के लिए प्यार ही प्यार था. सारे संदेह, शंका निर्मूल साबित हुए थे. अपने मन के सारे संदेहों पर वह दिल से शर्मिंदा थी. सागर तो हमेशा के लिए चला गया था पर वह ऐसी दोस्त दे गया था जो अब नेहा के मनप्राण का हिस्सा बन चुकी थी. जीवन में आए इस तूफान में, दुखभरे बादलों के बीच उस की दोस्त ही तो थी उस के साथ. दोस्ती की मिसाल तो अब सम झ आई थी. नेहा को महसूस हो चुका था कि दोस्ती स्त्रीपुरुष की मुहताज नहीं है. भीगी पलकों से नेहा अपने मृत पति की प्यारी दोस्त को देखती रह गई.

अब लग रहा था उसे कि उन की दोस्ती तो वर्षा की तरह थी. उन की दोस्ती के केंद्र में तो मात्र संवेदना, करुणा और प्रत्येक परिस्थिति में संबल बनने की प्रेरणा सांसें लेती थीं. मृत पति और सामने खड़ी उस की दोस्त के पावन रिश्ते की गहराई महसूस कर नेहा की आंखें भीगती चली गई थीं.

Online Hindi Story : मीनाक्षी के दिल का सफर

Online Hindi Story : ठकाठक ठक, ठकाठक ठक, ठकाठक ठक. रात के साढ़े 12 बजे थे. लखनऊ मेल टे्रन तेजी से लखनऊ की ओर जा रही थी. डब्बे के सभी यात्री सोए हुए पर मीनाक्षी की आंखों में नींद कहां? उस का दिमाग तो अतीत की पटरियों पर असीमित गति से दौड़ रहा था. उसे लगता था जैसे वर्षों पुरानी बेडि़यों के बंधन आज अचानक टूट गए हों.

50 वर्षीया मीनाक्षी दिल्ली में सरकारी सेवा में एक उच्च पद पर आसीन है. सैकड़ों बार कभी सरकारी कामकाज के सिलसिले में तो कभी अपने निजी कार्यवश टे्रन में सफर कर चुकी है. लेकिन आज की यात्रा उन सभी यात्राओं से कितनी भिन्न थी.

‘चाय, चाय, चाय गरम,’ आवाज सुन कर, मीनाक्षी का ध्यान टूटा तो देखा, टे्रन बरेली स्टेशन पर खड़ी है. बरेली? हां, बरेली ही तो है. 30 साल पुराने बरेली और आज के बरेली स्टेशन में लेशमात्र भी फर्क नहीं आया था. वही चायचाय की पुकार, वही लाल कमीज में भागतेदौड़ते कुली और वही यात्रियों की भगदड़.

‘एक कप चाय देना,’ जैसे स्वप्न में ही मीनाक्षी ने कहा. वही बेस्वाद कढ़ी हुई बासी चाय, वही कसैला सा स्वाद. हां, कुल्हड़ की जगह लिचपिचे से प्लास्टिक के गिलास ने जरूर ले ली थी.

कहीं कुछ भी तो नहीं बदला था. पर इन 30 वर्षों में मीनाक्षी में जरूर बहुत बदलाव आ गया था. मां के डर से बालों में बहुत सारा तेल लगा कर एक चोटी बनाने वाली मीनाक्षी के बाल आज सिल्वी के सधे हाथों से कटे उस के कंधों पर झूल रहे थे. 30 वर्ष पहले की दबीसहमी, इकहरे बदन की वह लड़की आज आत्मविश्वास से भरपूर एक गौरवशाली महिला थी. चाय का गिलास हाथ में पकड़ेपकड़े दिमाग फिर अतीत की ओर चल पड़ा था…

‘मम्मी, आज सुषमा का जन्मदिन है, उस ने अपने घर बुलाया है. मैं जाऊं?’

‘सुषमा? कौन सुषमा?’ मां का रोबदार स्वर कानों में गूंजा तो मीनाक्षी सहम सी गई थी.

‘मेरी क्लास में पढ़ती है, आज उस का जन्मदिन है,’ मुंह से अटकअटक कर शब्द निकले थे.

‘कौनकौन आ रहा है?’ मां ने पत्रिका से सिर उठाए बगैर ही पूछा था.

‘यह तो पता नहीं पर मम्मी, मैं जल्दी ही आ जाऊंगी,’ आशा बंधती देख मीनाक्षी ने जल्दीजल्दी कहा था.

‘उस के घर में और कौनकौन हैं?’

‘उस की मम्मी, और भाई. पापा तो ट्रांसफर हो कर इलाहाबाद चले गए हैं. ये लोग भी अगले शनिवार को जा रहे हैं.’

‘भाई बड़ा है या छोटा?’

‘भाई उस से 2 साल बड़ा है.’

‘तुम नहीं जाओगी किसी सुषमावुशमा के यहां,’ मां के स्वर में दृढ़ता थी.

‘पर क्यों, मम्मी? वे लोग अब इलाहाबाद चले जाएंगे. मैं उस से अब कभी मिल भी नहीं पाऊंगी,’ मीनाक्षी ने साहस जुटा कर कहा था.

‘बेकार बहस मत करो. जा कर पढ़ाई करो.’

‘पर मम्मी, सुषमा मेरा इंतजार कर रही होगी.’

‘कह दिया न एक बार, बड़ों का कहना मानना भी सीखो कभी.’

मां ने पत्रिका से सिर उठा कर जब उसे घूर कर देखा तो वह कितना सहम गई थी. चुपचाप अपने कमरे में अर्थशास्त्र की किताब खोल कर बैठ गई थी. खुली किताब पर कितनी ही देर तक टपटप आंसू गिरते रहे थे.

‘‘मेमसाब, चाय के पैसे दे दो. टे्रन चलने वाली है,’’ चाय वाले की आवाज सुन कर मीनाक्षी फिर वर्तमान में लौट आई थी. इटली से लाए हुए विशुद्ध चमड़े के बैग से 5 रुपए का सिक्का निकाल कर उस ने चाय वाले को दिया तो उस का ध्यान लाल नेल पौलिश से रंगे अपने नाखूनों पर चला गया. मां का वह कठोर अनुशासन क्या उसे ऐेसे गाढ़े रंग की नेल पौलिश लगाने की अनुमति देता? उस कठोर अनुशासन के माहौल में पुस्तकों की दुनिया से बाहर निकलने की मीनाक्षी की कभी हिम्मत ही नहीं हुई थी. मार्शल, रौबिंस और कींस की अर्थशास्त्र की परिभाषाओं के बाहर भी एक दुनिया है, उस का पता उसे तब चला जब उस का चयन इंडियन इकानौमिक सर्विस में हो गया. तब से आज तक, उस ने मुड़ कर पीछे नहीं देखा था. मां का 5 साल पहले निधन हो गया था.

इतने सालों के बाद सुषमा जब उसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर मिल गई तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. कितनी देर तक दोनों ने फोन पर बातें की थीं. सुषमा की शादी हो गई थी, 2 बेटियां भी थीं. मीनाक्षी ने तो न शादी की थी न ही करने का इरादा था. वह तो अपने काम की दुनिया में ही शायद खुश थी.

कल सुबह जब सुषमा का फोन आया तो मीनाक्षी को खयाल आया कि उस की बेटी की शादी का कार्ड भी तो आया था जो मेज की दराज में डाल कर वह भूल गई थी.

‘‘क्या? तू अभी तक दिल्ली में ही बैठी है? आज शाम को लेडीज संगीत है, कल शादी है. कब पहुंच रही है?’’

‘‘नहीं सुषमा, मैं नहीं आ पाऊंगी. दफ्तर में जरूरी मीटिंग है.’’

‘‘मीटिंग गई भाड़ में. मेरे घर में पहली शादी है और तू नहीं आएगी?’’ सुषमा ने क्रोध दिखाया तो मीनाक्षी ने उसे टालने को कह दिया, ‘‘अच्छा, देखती हूं.’’

‘‘देखनावेखना कुछ नहीं. बस, आ जा,’’ कह कर सुषमा ने फोन काट दिया.

मीनाक्षी फिर फाइलें देखने में लग गई. उसे पता था कि शादी और मीटिंग में किसे प्राथमिकता देनी है. वर्षों के कठोर अनुशासन ने उस की सोच को ऐसा ही बना दिया था. पर काम करने में दिल नहीं लगा तो चपरासी को हुक्म दिया, ‘ये सब फाइलें कार में रख दो. मैं घर जा रही हूं.’

पर पता नहीं क्यों, घर पहुंचतेपहुंचते जैसे दिल में एक कशमकश सी शुरू हो गई. क्या उसे लखनऊ जाना चाहिए? पर मीटिंग का क्या होगा? क्या जिंदगी सिर्फ दफ्तर की फाइलों और घर की चारदीवारी में ही सीमित है? रिश्तों का इस में कोई स्थान नहीं है?

उस के मन में यह अंतर्द्वंद्व चल ही रहा था कि नीचे के फ्लैट से कुछ शोर सा सुनाई दिया.

‘‘तू कहीं नहीं जाएगी. मैं ने कह दिया न,’’ पड़ोसिन मिसेज गुप्ता अपनी 16 वर्षीय बेटी कनुप्रिया से कह रही थीं.

‘‘क्यों, क्यों न जाऊं? पूजा मेरा इंतजार कर रही होगी.’’

‘‘मुझे नापसंद है यह तेरी पूजावूजा.’’

‘‘नहीं पसंद तो मैं क्या करूं? मैं ने कब कहा कि आप उस से दोस्ती कर लीजिए,’’ कनुप्रिया ने पलट कर जवाब दिया था, ‘‘उस का आज बर्थडे है. मुझे तो वहां जाना ही है,’’ कनुप्रिया के जवाब में ढिठाई थी.

मीनाक्षी के मन में एक खलबली सी मच गई और चाहेअनचाहे वह कान लगा कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘मुझे नापसंद आवे है यह तेरा सहेलीपन. वो छोरी ठीक ना है. तू उस के घर ना जावेगी, बस, मैं ने कह दिया,’’ मिसेज गुप्ता ने गुस्से में कहा.

‘‘क्यों, क्या खराबी है उस में?’’ कनुप्रिया ने फिर सवाल दागा.

‘‘ऐ छोरी, जबान लड़ावे है? कान खोल के सुन ले. जो छोरी मुझे पसंद ना है, तू उस से दोस्ती ना रख सके है.’’

जैसेजैसे कनुप्रिया और उस की मां की तकरार बढ़ रही थी, मीनाक्षी के दिल में घबराहट का तूफान सा उठ रहा था.

50 वर्षीया प्रौढ़ा का दिल फिर 16 वर्षीया किशोरी की तरह धड़कने लगा था, साथ ही लगा कि पड़ोसियों की घरेलू बातें सुनना अच्छी बात नहीं है. वह उठ कर खिड़की बंद करने लगी तो कनुप्रिया की आवाज फिर कानों में पड़ी.?

‘‘लड़कों को तो छोड़ो, अब लड़कियों से दोस्ती करने के लिए भी मांबाप से परमीशन लेनी पड़ेगी क्या? भैया को तो आप कुछ कहती नहीं हैं.’’

मीनाक्षी के दिल में धुकधुक होने लगी. क्या कनुप्रिया अपनी सहेली के घर जाएगी या फिर वह भी अपने कमरे में जा कर अर्थशास्त्र की किताब के पन्नों को आंसुओं से भिगोएगी? कनुप्रिया को जाना ही चाहिए. कनुप्रिया जरूर जाएगी, उस का बागी दिल कह रहा था. पर नहीं, बेचारी कनु मां से बगावत कैसे करेगी? मां नाराज हो गई तो? पर मां भी तो अत्याचार कर रही है. सोचसोच कर मीनाक्षी के दिमाग में हथौड़े बजने लगे थे.

हीरो पुक के स्टार्ट होने की आवाज ने मीनाक्षी को जैसे सोते से जगा दिया. ऐक्सिलरेटर की घूंघूंघूं, ऊंऊंऊं …कनुप्रिया पूजा से मिलने चली गई थी. आज की पीढ़ी कितनी भिन्न है, कितनी दबंग है. क्या मीनाक्षी कभी अपनी किसी सहेली के घर जा पाई थी? अर्थशास्त्र की पुस्तकों के बाद दफ्तर की फाइलें ही उस की नियति बन गई थी. पेपर, नोट्स, नोटिंग्स, लक्ष्य, लक्ष्य और लक्ष्य, क्या इन सब के बाहर भी कोई दुनिया है? सोचतेसोचते कब शाम हो गई, पता ही नहीं चला. नीचे कनुप्रिया वापस आ गई थी. साथ में, शायद पूजा भी थी.

दोनों की खिलखिलाहट भरी हंसी सुन कर मीनाक्षी के दिल में एक टीस सी उठी. कर्तव्य, काम और ड्यूटी के आगे भी एक दुनिया है जिस में जीतेजागते इंसान रहते हैं. अचानक यह एहसास बहुत तेज हो गया और फिर जैसे घने बादल छंट गए. उस का हाथ फोन की ओर बढ़ गया, ‘‘हैलो, सुपर ट्रैवल्स? एक टिकट लखनऊ का आज रात का, किसी भी क्लास में, फौरन भेज दीजिए. समय कम है, क्या आप का आदमी मुझे टिकट स्टेशन पर ही दे सकता है?’’ और मीनाक्षी ने अपनी अटैची पैक करनी शुरू कर दी.

‘‘हां, मेमसाब, कुली चाहिए?’’ लखनऊ स्टेशन पर कुली पूछ रहा था.

आखिरकार, मीनाक्षी लखनऊ पहुंच गई, दिल्ली से लखनऊ की यात्रा पूरी हुई या उस के जीवन की नई यात्रा शुरू हुई? यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई.

Best Hindi Story : लड़कियों की तरक्की ही उनकी दुश्मन बन जाती है?

Best Hindi Story : आज अल्लसुबह इतना कुहरा न था जितना अब दिन चढ़ते छाया जा रहा था. मौसम को भी अनुमान हो चला था कि आज साफगोई की आवश्यकता नहीं है. दिल की उदासी मौसम पर छाई थी और मौसम की उदासी दिल पर. समीक्षा खामोशी से तैयार होती जा रही थी. न मन में कोई उमंग, न कोईर् स्वप्न. आज फिर उसे नुमाइश करनी थी, अपनी. 33 श्रावण पार कर चुकी समीक्षा अब थक चुकी थी इस परेड से. पर क्या करे, न चाहते हुए भी परिवार वालों की जागती उम्मीद हेतु वह हर बार तैयार हो जाती. शुरूशुरू में अच्छी नौकरी के कारण उस ने कई रिश्ते टाले, फिर स्वयं उच्च पदासीन होने के कारण कई रिश्ते निम्न श्रेणी कह कर ठुकराए. 30 पार करतेकरते रिश्ते आने कम होने लगे. अब हर 6 माह बीतने बाद रिश्तों के परिमाण के साथ उन की गुणवत्ता में भी भारी कमी दिखने लगी थी.

समीक्षा ने प्रोफैशनल जगत में बहुत नाम कमाया. आज वह अपनी कंपनी की वाइस प्रैसीडैंट है. बड़ा कैबिन है, कई मातहत हैं, विदेश आनाजाना लगा रहता है. सभी वरिष्ठ अधिकारियों की चहेती है. पर यह कैसी विडंबना है कि जहां एक तरफ उस की कैरियर संबंधी उपलब्धी को इतनी छोटी आयु की श्रेणी में रख सराहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ शादी के लिए उस की उम्र निकल चुकी है. यही विडंबना है लड़कियों की. कैरियर में आगे बढ़ना चाहती हैं तो शादी पीछे रखनी पड़ती है और यदि समय रहते शादी कर लें तो पति, गृहस्थी, बालबच्चों के चक्कर में अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए कैरियर होम करना पड़ता है. क्या हर वह स्त्री जो नौकरी में आगे बढ़ना चाहती है और गृहस्थी का स्वप्न भी संजोती है, उसे सुपर वूमन बननागा?

‘‘समीक्षा तैयार हो गई? लड़के वाले आते होंगे,’’ मां की पुरजोर पुकार से उस के विचारों की तंद्रा भंग हुई. वर्तमान में लौट कर वह पुन: आईने में स्वयं को देख कमरे से बाहर चली गई.

‘‘हमारी बेटी ने बहुत जल्दी बहुत ऊंचा पद हासिल किया है जनाब,’’ महेशजी ने कहा.

यह सुनते ही लड़के की मां ने बिना देर किए प्रश्न दागा, ‘‘घर के कामकाज भी आते हैं या सिर्फ दफ्तरी आती है?’’

‘हम सोच कर बताएंगे,’ वही पुराना राग अलाप कर लड़के वाले चले गए. समय बीतने के साथ रिश्ता पाने की लालसा में समीक्षा के घर वाले उस से कम तनख्वाह वाले लड़कों को भी हामी भर रहे थे. लेकिन अब बात उलट चुकी थी. अकसर सुनने में आता कि लड़के वाले इतनी ऊंची पदासीन लड़की का रिश्ता लेने में सहज नहीं हैं. कहते हैं घर में भी मैनेजरी करेगी.

शाम ढलने तक बिचौलिए के द्वारा पता चल गया कि अन्य रिश्तों की भांति यह रिश्ता भी आगे नहीं बढ़ पाएगा. एक और कुठाराघात. कड़ाके की ठंड में भी उस के माथे पर पसीना उग गया. सोफे पर बैठेबैठे ही उस के पैर कंपकंपा उठे तो उस ने शाल से ढक लिए. ऐसा लग रहा था कि उस के मन की कमजोरी उस के तन पर भी उतर आई है. पता नहीं उठ कर चल पाएगी या नहीं. उस का मन काफी कुछ ठंडा हो चला था, किंतु आंखों का रोष अब भी बरकरार था.

‘‘पापा, प्लीज अब रहने दीजिए न,’’ पता नहीं समीक्षा की आवाज में कंपन मौसम के कारण था या मनोस्थिति के कारण. इस बेवजह के तिरस्कार से वह थक चुकी थी, ‘‘जो भी आता है मेरी खूबियों को कसौटी पर कसने की फिराक में नजर आता है. हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकाए जाने की पीड़ा असहनीय लगने लगी है मुझे,’’ उस ने भावुक बातों से पिता को सोच में डाल दिया.

समय का चक्र चलता रहा. समीक्षा के जिद करने पर उस के भाई की शादी करवा दी गई. उस ने शादी का विचार त्याग दिया था. सब कुछ समय पर छोड़ नौकरी के साथसाथ सामाजिक कार्य करती संस्था से भी जुड़ गई. मजदूर वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने में उसे सच्चे संतोष की प्राप्ति होती. वहीं उस की मुलाकात दीपक से हुई. दीपक भी अपने दफ्तर के बाद सामाजिक कार्य करने हेतु इस संस्था से जुड़ा था. उस की उम्र करीब 45 साल होगी. ऐसा बालों में सफेदी और बातचीत में परिपक्वता से प्रतीत होता था. दोनों की उम्र में इतना फासला होने के कारण समीक्षा बेझिझक उस से घुलनेमिलने लगी. उस की बातों, अनुभव से वह कुछ न कुछ सीखती रहती.

एक दिन दोनों काम के बाद कौफी पी रहे थे. तभी अचानक दीपक ने पूछा, ‘‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? अभी तक शादी क्यों नहीं की समीक्षा?’’

‘‘रिश्ते तो आते रहे, किंतु कोई मुझे पसंद नहीं आया तो किसी को मैं. अब मैं ने यह फैसला समय पर छोड़ दिया है. मैं ने सुना है आप ने शादी की थी, लेकिन आप की पत्नी…’’ कहते हुए समीक्षा बीच में ही रुक गई.

‘‘उफ, तो कहानी सुन चुकी हो तुम? सब के हिस्से यह नहीं होता कि उन का जीवनसाथी आजीवन उन का साथ निभाए,’’ फिर कुछ पल की खामोशी के बाद दीपक बोले, ‘‘मैं ने सब से झूठ कह रखा है कि मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई. दरअसल, वह मुझे छोड़ कर चली गई. उसे जिन सुखसुविधाओं की तलाश थी, वे मैं उसे 30 वर्ष की आयु में नहीं दे सकता था…

‘‘एक दिन मैं दूसरी कंपनी में प्रैजेंटेशन दे कर जल्दी फ्री हो गया और सीधा अपने घर आ गया. अचानक घर लौटने पर मैं अपने एहाते में अपने बौस की कार को खड़ा पाया. मैं अचरज में आ गया कि बौस मेरे घर क्यों आए होंगे. फटाफट घंटी बजा कर मैं पत्नी की प्रतीक्षा करने लगा. दरवाजा खोलने में उसे काफी समय लगा. 3 बार घंटी बजाने पर वह आई. मुझे देखते ही वह अचकचा गई और उलटे पांव कमरे में दौड़ी. इस अप्रत्याशित व्यवहार के कारण मैं भी उस के पीछेपीछे कमरे में गया तो पाया कि मेरा बौस मेरे बिस्तर पर शर्ट पहने…’’

दीपक का गला भर्रा गया. कुछ क्षण वह चुप नीचे सिर किए बैठा रहा. फिर आगे बोला, ‘‘पिछले 4 महीनों से मेरी पत्नी और मेरे बौस का अफेयर चल रहा था… मुझ से तलाक लेने के बाद उस ने मेरे बौस से शादी कर ली.’’

समीक्षा ने दीपक के कंधे पर हाथ रख सांत्वना दी, ‘‘एक बात पूछूं? आप ने मुझे ये सब बातें क्यों बताईं?’’

कुछ न बोल दीपक चुपचाप समीक्षा को देखता रहा. आज उस की नजरों में एक अजीब सा आकर्षण था, एक खिंचाव था जिस ने समीक्षा को अपनी नजरें झुकाने पर विवश कर दिया. फिर बात को सहज बनाने हेतु वह बोली, ‘‘दीपकजी, इतने सालों में आप ने पुन: विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘तुम्हारे जैसी कोई मिली ही नहीं.’’

यह सुनते ही समीक्षा अचकचा कर खड़ी हो गई. ऐसा नहीं था कि उसे दीपक के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. ऐसी बात शायद उस का मन दीपक से सुनना भी चाहता था पर यों अचानक दीपक के मुंह से ऐसी बात सुनने की अपेक्षा नहीं थी. खैर, मन की बात कब तक छिप सकती है भला. दोनों की नजरों ने एकदूसरे को न्योता दे दिया था.

समीक्षा की रजामंदी मिलने के बाद दीपक ने कहा, ‘‘समीक्षा, मुझे तुम से कुछ कहना है, जो मेरे लिए इतना मूल्यवान नहीं है, लेकिन हो सकता है कि तुम्हारे लिए वह महत्त्वपूर्ण हो. मैं धर्म से ईसाई हूं. किंतु मेरे लिए धर्म बाद में आता है और कर्म पहले. हम इस जीवन में क्या करते हैं, किसे अपनाते हैं, किस से सीखते हैं, इन सब बातों में धर्म का कोई स्थान नहीं है. हमारे गुरु, हमारे मित्र, हमारे अनुभव, हमारे सहकर्मी जब सभी अलगअलग धर्म का पालन करने वाले हो सकते हैं, तो हमारा जीवनसाथी क्यों नहीं? मैं तुम्हारे गुण, व्यक्तित्व के कारण आकर्षित हुआ हूं और धर्म के कारण मैं एक अच्छी संगिनी को खोना नहीं चाहता. आगे तुम्हारी इच्छा.’’

हालांकि समीक्षा भी दीपक के व्यक्तित्व, उस के आचारविचार से बहुत प्रभावित थी, किंतु धर्म एक बड़ा प्रश्न था. वह दीपक को खोना नहीं चाहती थी, खासकर यह जानने के बाद कि वह भी उसे पसंद करता है मगर इतना अहम फैसला वह अकेली नहीं ले सकती थी. लड़कियों को शुरू से ही ऐसे संस्कार दिए जाते हैं, जो उन की शक्ति कम और बेडि़यां अधिक बनते हैं. आत्मनिर्भर सोच रखने वाली लड़की भी कठोर कदम उठाने से पहले परिवार तथा समाज की प्रतिक्रिया सोचने पर विवश हो उठती है. एक ओर जहां पुरुष पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय देता है, पूरी बेबाकी से आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत रखता है, वहीं दूसरी ओर एक स्त्री छोटे से छोटे कार्य से पहले भी अपने परिवार की मंजूरी चाहती है, क्योंकि इसी का समाज संस्कार का नाम देता है. आज रात खाने में क्या बनाऊं से ले कर नौकरी करूं या गृहस्थी संभालू तक मानो संस्कारों को जीवित रखने का सारा बोझ स्त्री के कंधों पर ही है.

समीक्षा ने यह बात अपनी मां के साथ बांटी, ‘‘आप क्या सोचती हैं इस विषय पर मां?’’

मां ने प्रतिउत्तर प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम दीपक से प्यार करती हो?’’

समीक्षा की चुप्पी ने मां को उत्तर दे दिया. वे बोलीं, ‘‘देखो समीक्षा, तुम्हारी उम्र मुझे भी पता है और तुम्हें भी. मैं चाहती हूं कि तुम्हारा घर बसे, तुम्हारा जीवन प्रेम से सराबोर हो, तुम भी अपनी गृहस्थी का सुख भोगो. मगर अब तुम्हें यह सोचना है कि क्या तुम दूसरे धर्म के परिवार में तालमेल बैठा पाओगी… यह निर्णय तुम्हें ही लेना है.’’

समीक्षा की मां से हामी मिलने पर दीपक उसे अपने घर अपने परिवार वालों से मिलाने ले गया. दीपक  के पिता का देहांत हो चुका था. घर में मां व छोटा भाई थे. समीक्षा को दीपक की मां पसंद आई. मां की परिभाषा पर सटीक उतरतीं सीधी, सरल औरत.

‘‘विवाहोपरांत कौन क्या करेगा, अभी इस का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. दीपक की पहली शादी हम ने अपनी बिरादरी में की थी, लेकिन… अब इतने वर्षों के बाद यह किसी को पसंद कर रहा है तो जरूर उस में कुछ खास होगा,’’ मां खुश थीं.

लेकिन समीक्षा हिंदू है यह जान कर दीपक के भाई का मुंह बन गया.

कुछ ही देर में दीपक की बड़ी विवाहित बहन आ पहुंची. उसे दीपक के छोटे भाई ने फोन कर बुलाया था. बहन ने आ कर काफी हंगामा किया, ‘‘तेरे को शादी करनी है तो मुझ से बोल. मैं लाऊंगी तेरे लिए एक से एक बढि़या लड़की… यह तो सोच कि एक हिंदू लड़की, एक तलाकशुदा ईसाई लड़के से, जो उस से उम्र में भी बड़ी है, शादी क्यों करना चाहती है. तूने अपना पास्ट इसे बता दिया, पर कभी सोचा कि जरूर इस का भी कोई लफड़ा रहा होगा? इस ने तुझे कुछ बताया? क्या तू हम से छिपा रहा है?’’

लेकिन दीपक अडिग था. उस ने सोच लिया था कि जब दिल ने पुल बना लिया है तो वह उस पर चल कर अपने प्यार की मंजिल तक पहुंचेगा.

समीक्षा प्रसन्न थी कि दीपक व उस की मां को यह रिश्ता मंजूर है, साथ ही थोड़ी खिन्नता भी मन में थी कि उस के भाई व बहन को इस रिश्ते पर ऐतराज है. अब समीक्षा ने अपने घर में पिता और भाई को इस रिश्ते के बारे में बताने का निश्चय किया और फिर वही हुआ जिस की आशा भी थी और आशंका भी.

‘‘डायन भी 7 घर छोड़ देती है पर तुम ने अपने ही घर वालों को नहीं बख्शा, शर्म नहीं आई अपनी ही शादी की बात करते और वह भी एक अधर्मी से?’’ उस का छोटा भाई गरज रहा था. वह भाई जिस की शादी की चिंता समीक्षा ने अपनी शादी से पहले की थी.

‘‘मैं क्या मुंह दिखाऊंगी अपने समाज में? मेरे मायके में मेरी छोटी बहन कुंआरी है अभी, उस की शादी कैसे होगी यह बात खुलने पर?’’ उस की पत्नी भी कहां पीछे थी.

‘‘सौ बात की एक बात समीक्षा, यह शादी होगी तो मेरी लाश के ऊपर से होगी.

अब तेरी इच्छा है अपनी डोली चाहती है या अपनी मां की मांग का सिंदूर,’’ पिता की दोटूक बात पर समीक्षा सिर झुकाए, रोती रही.

वह रात बहुत भारी बीती. बेटी की इस स्थिति पर मां अपने बिस्तर पर रो रही थीं और समीक्षा अपने बिस्तर पर. आगे क्या होगा, इस से दोनों अनजान डर पाले थीं.

अगले दिन पिता ने बूआ का बुला लिया. समीक्षा अपनी बूआ से हिलीमिली थी. अत: पिता ने बूआ को मुहरा बनाया उसे समझा कर शादी से हटाने हेतु. बूआ ने हर तरह के तर्कवितर्क दिए, उसे इमोशनल ब्लैकमेल किया.

उन की बातें जब पूरी हो गईं तो समीक्षा ने बस एक ही वाक्य कहा, ‘‘बूआ, मैं बस इतना कहूंगी कि यदि मैं दीपक से शादी नहीं करूंगी तो किसी से भी नहीं करूंगी.’’

किंतु अपेक्षा के विपरीत समीक्षा का शादी न करने का निर्णय उस के पिता व भाई को स्वीकार्य था. लेकिन दूसरे धर्म के नेक, प्यार करने वाले लड़के से शादी नहीं.

अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर पिता बोले, ‘‘समीक्षा की शादी के लिए मैं ने एक लड़का देखा है. हमारे गोपीजी का भतीजा. देखाभाला परिवार है. उन्हें भी शादी की जल्दी और हमें भी,’’ उन्होंने घृणाभरी दृष्टि समीक्षा पर डाली.

समीक्षा का मन हुआ कि वह इसी क्षण वहां से कहीं लुप्त हो जाए. उसी शाम से हिंदुत्व प्रचारक सोना के प्रमुख गोपीजी के भतीजे के गुंडे समीक्षा के पीछे लग गए. उस के दफ्तर के बाहर खड़े रहते. रास्ते भर उस का पीछा करते ताकि वह दीपक से न मिल सके. 3 दिनों की लुकाछिपी से समीक्षा काफी परेशान हो गई.

क्या हम इसीलिए अपनी बेटियों को शिक्षित करते हैं, उन्हें आगे बढ़ने, प्रगति करने की प्रेरणा देते हैं कि यदि उन के एक फैसले से हम असहमत हों तो उन का जीना दूभर कर दें? यह संकुचित सोच उस की मां को कुंठित कर गई. उन के मन में फांस सी उठी. क्या लड़की समाज के लिए अपनी खुशियों का, अपने जीवन का बलिदान दे दे तो महान तथा संस्कारी और यदि अपनी खुशी के लिए अपने ही परिवार से कुछ मांगे तो निर्लज्ज… परिवार का अर्थ ही क्या रह गया यदि वह अपने बच्चों की तकलीफ, उन का भला न देख सके…

रात के भोजन पर समीक्षा के मन पर छाए चिंताओं के बादल से या तो वह स्वयं परिचित थी या उस की मां. अन्य सदस्य बेखबर थे. वे तो समस्या का हल खोज लेने पर भोजन का रोज की भांति स्वाद उठा रहे थे, हंसीमजाक से माहौल हलका बनाए हुए थे.

अचानक मां ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘समीक्षा, तुम मन में कोई चिंता न रख. तुम आज तक बहुत अच्छी बेटी, बहुत अच्छी बहन बन कर रहो. अब हमारी बारी है. आज यदि तुम्हें कोई ऐसा मिला है जिस से तुम्हारा मन मिला है तो हम तुम्हारी खुशी में रोड़े नहीं अटकाएंगे.’’

इस से पहले कि पिता टोकते वे उन्हें रोकती हुई आगे बोलीं, ‘‘कर्तव्य केवल बेटियों के नहीं होते, परिवारों के भी होते हैं. दीपक के परिवार से मैं मिलूंगी और शादी की बात आगे बढ़ाऊंगी.’’

मां के अडिगअटल निर्णय के आगे सब चुप थे. शादी के दौरान भी तनाव कुछ कम नहीं हुआ. दोनों परिवारों में शादी को ले कर न तो रौनक थी और न ही उल्लास. समीक्षा के पिता और भाई ने शादी का कार्ड इसलिए नहीं अपनाया था, क्योंकि उस पर बाइबिल की पंक्तियां लिखी जाती थीं. और दीपक के रिश्तेदारों को उस पर गणेश की तसवीर से आपत्ति थी. केवल दोनों की मांओं ने ही आगे बढ़चढ़ कर शादी की तैयारी की थी. बेचारे दूल्हादुलहन दोनों डरे थे कि शादी में कोई विघ्न न आ जाए.

शादी हो गई तब भी समीक्षा थोड़ी दुखी थी. बोली, ‘‘कितना अच्छा होता यदि हमारे परिवार वाले भी सहर्ष हमें आशीर्वाद देते.’’

मगर दीपक की बात ने उस की सारी शंका दूर कर दी. बोलीं, ‘‘कई बार हमें चुनना होता है कि हम किसे प्यार करते हैं. हम दोनों ने जिसे प्यार किया, उसे चुन लिया. यदि वे हम से प्यार करते होंगे, हमारी खुशी में खुश होंगे तो हमें चुन लेंगे.’’

अब मन में बिना कोई दुविधा लिए दोनों की आंखों में सुनहरे भविष्य के उज्जवल सपने थे.

Short Hindi Story : जिस बेटी को पाला, वही सच सामने ले आई

Short Hindi Story : ‘‘तुम क्या क्या काम कर लेती हो?’’ केदारनाथ की बड़ी बेटी सुषमा ने उस काम वाली लड़की से पूछा. सुषमा ऊधमपुर से अपने बाबूजी का हालचाल जानने के लिए यहां आई थी.

दोनों बेटियों की शादी हो जाने के बाद केदारनाथ अकेले रह गए थे. बीवी सालभर पहले ही गुजर गई थी. बड़ा बेटा जौनपुर में सरकारी अफसर था. बाबूजी की देखभाल के लिए एक ऐसी लड़की की जरूरत थी, जो दिनभर घर पर रह सके और घर के सारे काम निबटा सके.

‘‘जी दीदी, सब काम कर लेती हूं. झाड़ूपोंछा से ले कर खाना पकाने तक का काम कर लेती हूं,’’ लड़की ने आंखें मटकाते हुए कहा. ‘‘किस से बातें कर रही हो सुषमा?’’ केदारनाथ अपनी थुलथुल तोंद पर लटके गीले जनेऊ को हाथों से घुमाते हुए बोले. वे अभीअभी नहा कर निकले थे. उन के अधगंजे सिर से पानी टपक रहा था.

‘‘एक लड़की है बाबूजी. घर के कामकाज के लिए आई है, कहो तो काम पर रख लें?’’ सुषमा ने बाबूजी की तरफ देखते हुए पूछा. केदारनाथ ने उस लड़की की तरफ देखा और सोचने लगे, ‘भले घर की लग रही है. जरूर किसी मजबूरी में काम मांगने चली आई है. फिर भी आजकल घरों में जिस तरह चोरियां हो रही हैं, उसे देखते हुए पूरी जांचपड़ताल कर के ही काम पर रखना चाहिए.’

‘‘बेटी, इस से पूछ कि यह किस जाति की है?’’ केदारनाथ ने थोड़ी देर बाद कहा. ‘‘अरी, किस जाति की है तू?’’ सुषमा ने बाबूजी के सवाल को दोहराया.

‘‘मुझे नहीं मालूम. मां से पूछ कर बता दूंगी. वैसे, मां ने मेरा नाम बेला रखा है,’’ वह लड़की हर सवाल का जवाब फुरती से दे रही थी. ‘‘ठीक है, कल अपनी मां को ले आना,’’ सुषमा ने कहा.

‘‘जी दीदी, मैं कल सुबह ही मां को ले कर आ जाऊंगी,’’ बेला ने कहा और तेजी से वहां से चल पड़ी. ‘‘मां, मुझे काम मिल गया,’’ खुशी से चीखते हुए बेला अपनी मां राधिका से लिपट गई और बोली, ‘‘बहुत अच्छी हैं सुषमा दीदी.’’

बेला को जन्म देने के बाद राधिका अपने गांव को छोड़ कर शहर में आ गई थी. बेला को पालनेपोसने में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी. उसे दूसरों के घरों की सफाई से ले कर कपड़े धोने तक का काम करना पड़ा था, तब कहीं जा कर वह अपना और बेला का पेट पाल सकी थी.

जब राधिका पेट से थी, तब से अपने गांव में उसे खूब ताने सुनने पड़े थे पर उस ने हिम्मत नहीं हारी थी. वह अपने पेट में खिले फूल को जन्म देने का इरादा कर बैठी थी. ‘अरे, यह किस का बीज अपने पेट में डाल लाई है? बोलती क्यों नहीं करमजली? कम से कम बाप का नाम ही बता दे ताकि हम बच्चे के हक के लिए लड़ सकें,’ राधिका की मां ने उसे बुरी तरह पीटते हुए पूछा था.

मार खाने के बाद भी राधिका ने अपनी मां को कुछ नहीं बताया क्योंकि वह आदमी पैसे वाला था. समाज में उस की बहुत इज्जत थी और फिर राधिका के पास कोई सुबूत भी तो नहीं था. वह किस मुंह से कहेगी कि वह शादीशुदा है, किसी के बच्चे का बाप है. ‘एक तो हम गरीब, ऊपर से बिनब्याही मां का कलंक… हम किसकिस को जवाब देंगे, किसकिस का मुंह बंद करेंगे,’ राधिका की मां ने खीजते हुए कहा था.

‘क्या सोचा है तू ने, चलेगी सफाई कराने को?’ मां ने उस की चोटी मरोड़ते हुए पूछा था. ‘नहीं मां, मैं कहीं नहीं जाऊंगी. मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी. चाहो तो तुम लोग मुझे जान से मार दो, पर जीतेजी मैं इस बेकुसूर की हत्या नहीं होने दूंगी,’ राधिका ने रोते हुए अपनी मां से कहा था.

मां की बातों से तंग आ कर राधिका उसे बिना बताए अपने नानानानी के पास चली गई और उन्हें सबकुछ बता दिया. राधिका की बातें सुन कर नानी पिघल गईं और गांव वालों के तानों को अनसुना कर उस का साथ देने को तैयार हो गईं.

राधिका की मां व नानी यह नहीं जान पाईं कि आखिर वह चाहती क्या है? बच्चे को जन्म देने के पीछे उस का इरादा क्या था? ‘‘मां, चलना नहीं है क्या? सुबह हो गई है,’’ बेला ने सुबहसुबह मां को नींद से जगाते हुए कहा.

‘‘हां बेटी, चलना तो है. पहले तू तैयार हो जा, फिर मैं भी तैयार हो जाती हूं,’’ यह कह कर राधिका झटपट तैयार होने लगी. सुषमा ने दरवाजा खोल कर उन दोनों को भीतर बुला लिया. केदारनाथ अभी तक सो रहे थे.

‘‘तो तुम बेला की मां हो?’’ सुषमा ने राधिका की ओर देखते हुए पूछा. ‘‘जी मालकिन, हम ही हैं,’’ राधिका ने जवाब दिया.

‘‘तुम्हारी बेटी समझदार तो लगती है. वैसे, घर का सारा काम कर लेती है न?’’ राधिका ने फौरन जवाब दिया, ‘‘बिलकुल मालकिन, मैं ने इसे सारा काम सिखा रखा है.’’

‘‘तो ठीक है, रख लेते हैं. सारा दिन यहीं रहा करेगी. रात को भले ही अपने घर चली जाए.’’ सुषमा ने बेला को हर महीने 500 रुपए देने की बात तय कर ली.

‘‘कौन आया है बेटी? सुबहसुबह किस से बात कर रही हो?’’ केदारनाथ जम्हाई ले कर उठते हुए बोले. ‘‘कोई नहीं बाबूजी, काम वाली लड़की आई है, उसी से बात कर रही थी,’’ सुषमा ने जवाब दिया.

केदारनाथ बाहर निकले तो राधिका के लंबा सा घूंघट निकालने पर सुषमा को अजीब सा लगा. ‘‘अच्छा तो अब हम चलते हैं,’’ राधिका उठते हुए बोली.

‘‘तो ठीक है, कल से भेज देना बेटी को,’’ सुषमा ने बात पक्की कर के बेला को आने के लिए कह दिया. राधिका ने राहत की सांस ली. उसे लगा कि वह कीड़ा जो इतने सालों से उस के जेहन में कुलबुला रहा था, उस से छुटकारा पाने का समय आ गया है.

सुषमा को भी राहत मिली कि बाबूजी की देखभाल के लिए अच्छी लड़की मिल गई है. वह दूसरे दिन ही ससुराल लौट गई. ‘‘ऐ छोकरी, जरा मेरे बदन की मालिश कर दे. सारा बदन दुख रहा है,’’ केदारनाथ ने बादाम के तेल की शीशी बेला के हाथों में पकड़ाते हुए कहा.

बेला ने उन के उघड़े बदन पर तेल से मालिश करनी शुरू कर दी. ‘‘तेरे गाल बहुत फूलेफूले हैं. क्या खिलाती है तेरी मां?’’ केदारनाथ ने अकेलेपन का फायदा उठाते हुए पूछा.

‘‘मां,’’ बेला ने चीख कर अपनी मां को आवाज दी. राधिका वहीं थी. ‘‘शर्म करो केदार,’’ राधिका ने जोर से दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘अपनी ही बेटी के साथ कुकर्म. बेटी, हट वहां से…’’

राधिका बोलती रही, ‘‘हां केदारनाथ, बरसों पहले जो कुकर्म तुम ने मेरे साथ किया था, उसी का नतीजा है यह बेला. तुम ने सोचा होगा कि राधिका चुप बैठ गई होगी, पर मैं चुप नहीं बैठी थी. मैं ने इसे जन्म दे कर तुम तक पहुंचाया है. ‘‘यह मेरी सोचीसमझी चाल थी ताकि तुम्हारी बेटी भी तुम्हारी करतूत को अपनी आंखों से देख सके.’’

केदारनाथ एक मुजरिम की तरह सिर झुकाए सबकुछ सुनता रहा. राधिका ने बोलना बंद नहीं किया, ‘‘हां केदार, अब भी तुम्हारे सिर से वासना का भूत नहीं उतरा है, तो ले तेरी बेटी तेरे सामने खड़ी है. उतार दे इस की भी इज्जत और पूरी कर ले अपनी हवस.

‘‘मैं भी बरसों पहले तुम्हारी हवस का शिकार हुई थी. तब मैं इज्जत की खातिर कितना गिड़गिड़ाई थी, पर तुम ने मुझे नहीं छोड़ा था. मैं तभी जवाब देती, पर मालकिन ने मेरे पैर पकड़ लिए थे, इसीलिए मैं चुप रह गई थी. ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि बेला ने तुम्हारी नीयत के बारे में मुझे पहले ही सबकुछ बता दिया. इस बार बाजी मेरे हाथ में है.

‘‘क्या कहते हो केदार? शोर मचा कर भीड़ में तुम्हारा तमाशा बनाऊं,’’ राधिका सुधबुध खो बैठी थी और लगातार बोले जा रही थी. केदारनाथ की अक्ल मानो जवाब दे गई थी. अपनी इज्जत की धज्जियां उड़ती देख वे छत की तरफ भागे और वहां से कूद कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली.

Hindi Story Telling : क्या थी ऋतिका की शर्त

Hindi Story Telling : ऋतिका हंसमुंख और मिलनसार स्वभाव की तो थी ही, पुरुष सहकर्मियों के साथ भी बेहिचक बात करती थी. साथ काम करने वाली लड़कियों के साथ शौपिंग पर भी चली जाती थी और वहां खानेपीने का बिल भी दे देती थी. लेकिन जब कोई लड़की उसे अपने घर पर बुलाती थी तो वह मना कर देती थी.

‘‘लगता है इस के घर में जरूर कुछ गड़बड़ है तभी यह नहीं चाहती कि कोई इस के घर आए और यह किसी के घर जाए,’’ आरती बोली.

‘‘मुझे भी यही लगता है, क्योंकि फिल्म देखने या रेस्तरां चलने को कहो तो तुरंत मान जाती है और बिल भरने को भी तैयार रहती है,’’ मीता ने जोड़ा, तो सोनिया और चंचल ने भी सहमति में सिर हिलाया.

‘‘इतनी अटकलें लगाने की क्या जरूरत है?’’ पास बैठे राघव ने कहा, ‘‘ऋतिका बीमार है, इसलिए आप सब उसे देखने के बहाने उस का घर देख आओ.’’

‘‘उस के पापा टैलीफोन विभाग के आला अफसर हैं और शाहजहां रोड की सरकारी कोठी में रहते हैं, इतनी जानकारी तो जाने के लिए काफी नहीं है,’’ मीता ने लापरवाही से कहा.

बात वहीं खत्म हो गई. अगले सप्ताह ऋतिका औफिस आ गई. उस के पैर में मोच आ गई थी, इसलिए चलने में अभी भी दिक्कत हो रही थी. शाम को उसे छुट्टी के बाद भी काम करते देख कर राघव ने कहा, ‘‘मैं ने आप का कोई काम भी पैंडिंग नहीं रहने दिया था, फिर क्यों आप देर तक रुकी हैं?’’

‘‘धन्यवाद राघवजी, मैं काम नहीं नैट सर्फिंग कर रही हूं.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘मजबूरी है. चार्टर्ड बस तक चल कर नहीं जा सकती और पापा को लेने आने में अभी देर है.’’

‘‘तकलीफ तो लगता है आप को बैठने में भी हो रही है?’’

‘‘हो तो रही है, लेकिन पापा मीटिंग में व्यस्त हैं, इसलिए बैठना तो पड़ेगा ही.’’

‘‘अगर एतराज न हो तो मेरे साथ चलिए.’’

‘‘इस शर्त पर कि आप चाय पी कर जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, अभी और्डर करता हूं.’’

‘‘ओह नो… मेरा मतलब है मेरे घर पर.’’

‘‘इस में शर्त काहे की… किसी के भी घर जाने पर चायनाश्ते के लिए रुकना पड़ता ही है.’’

ऋतिका ने पापा को मोबाइल पर आने को मना कर दिया. फिर राघव के साथ घर पहुंच गई. मां भी विनम्र थीं. कुछ देर बाद ऋतिका के पापा भी आ गए. वे भी राघव को ठीक ही लगे. कुल मिला कर घर या परिवार में कुछ ऐसा नहीं था जिसे ऋतिका किसी से छिपाना चाहे. बातोंबातों में पता चला कि वे लोग कई वर्षों से हैदराबाद में रह रहे थे और उन्हें वह शहर पसंद भी बहुत था.

‘‘इन की तो विभिन्न जिलों में बदली होती रहती थी, लेकिन मैं बच्चों के साथ हमेशा हैदराबाद में ही रही. बहुत अच्छे लोग हैं वहां के… अकेले रहने में कभी कोई परेशानी नहीं हुई,’’ ऋतिका की मां ने बताया.

‘‘यहां तो अभी आप की जानपहचान नहीं हुई होगी?’’ राघव ने कहा.

‘‘पासपड़ोस में हो गई है. वैसे रिश्तेदार बहुत हैं यहां, लेकिन अभी उन से मिले नहीं हैं. ऋतु पत्राचार से एमबीए की पढ़ाई कर रही है, इसलिए औफिस के बाद का सारा समय पढ़ाई में लगाना चाहती है और हम भी इसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहते. मिलने के बाद तो आनेजाने का सिलसिला शुरू हो जाएगा न.’’

राघव को ऋतिका की सहेलियों से मेलजोल न बढ़ाने की बात तो समझ आ गई, लेकिन एमबीए करने की बात छिपाने की नहीं.

यह सुन कर कि राघव के मातापिता सऊदी अरब में और बहन अपने पति के साथ सिंगापुर में रहती है और वह यहां अकेला, ऋतिका की मां ने आग्रह किया, ‘‘कभी घर वालों की याद आए तो आ जाया करो बेटा, अच्छा लगेगा तुम्हारा आना.’’

‘‘जी जरूर,’’ कह राघव ऋतिका की ओर मुड़ा, ‘‘आप डिस्टर्ब तो नहीं होंगी न?’’

‘‘कभीकभार कुछ देर के लिए चलेगा,’’ ऋतिका शोखी से मुसकाराई, ‘‘मगर यह एमबीए वाली बात औफिस में किसी को मत बताइएगा प्लीज.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि चंद घंटों की पढ़ाई के बाद सफलता की कोई गारंटी तो होती नहीं तो क्यों व्यर्थ में ढिंढोरा पीट कर अपना मजाक बनाया जाए. पास हो गई तो पार्टी कर के बता दूंगी.’’

राघव ने औफिस में किसी को ऋतिका के घर जाने की बात भी नहीं बताई. कुछ दिनों के बाद ऋतिका ने उसे डिनर पर आने को कहा.

‘‘आज मेरे छोटे भाई ऋषभ का बर्थडे है. वह तो आस्ट्रेलिया में पढ़ रहा है, लेकिन मम्मी उस का जन्मदिन मनाना चाहती हैं पकवान बगैरा बना कर… अब उन्हें खाने वाले भी तो चाहिए… आप आ जाएं… पापा के औफिस और पड़ोस के कुछ लोग होंगे… मम्मी खुश हो जाएंगी,’’ ऋतिका ने आग्रह किया.

न जाने का तो सवाल ही नहीं था. ऋतिका ने अन्य मेहमानों से उस का परिचय अपने सहकर्मी के बजाय अपना मित्र कह कर कराया. उसे अच्छा लगा.

अगले सप्ताहांत चंचल ने सभी को बहुत आग्रह से अपने भाई की सगाई में बुलाया तो सब सहर्ष आने को तैयार हो गए.

‘‘माफ करना चंचल, मैं नहीं आ सकूंगी,’’ ऋतिका ने विनम्र परंतु इतने दृढ़ स्वर में कहा कि चंचल ने तो दोबारा आग्रह नहीं किया, लेकिन राघव ने मौका मिलते ही अकेले में कहा, ‘‘अगर आप अकेले जाते हुए हिचक रही हों तो मुझे आप ने मित्र कहा है, मित्र के साथ चलिए.’’

‘‘मित्र कहा है सो बता देती हूं कि मैं इस तरह के पारिवारिक समारोहों में कभी नहीं जाती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि ऐसे समारोहों में ही सहेलियों की मामियां, चाचियां अपने चहेतों के लिए लड़कियां पसंद करती हैं. सहेलियों के भाई और उन के दोस्त तो ऐसी दावतों में जाते ही लड़कियों को लाइन मारने लगते हैं. वैसे सुरक्षित लड़के भी नहीं हैं, कुंआरी कन्याओं के अभिभावक भी गिद्ध दृष्टि से शिकार का अवलोकन करते हैं.’’

‘‘आप मुझे डरा रही हैं?’’

‘‘कुछ भी समझ लीजिए… जो सच है वही कह रही हूं.’’

‘‘खैर, कह तो सच रही हैं, फिर भी मुझे तो जाना ही पड़ेगा, क्योंकि औफिस से आप के सिवा सभी जा रहे हैं.’’

कुछ रोज बाद राघव को एक दूसरी कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई. ऋतिका बहुत खुश हुई.

‘‘अब हम जब चाहें मिल सकते हैं… औफिस की अफवाहों का डर तो रहा नहीं.’’

राघव की बढि़या नौकरी मिलने की खुशी और भी बढ़ गई. मुलाकातों का सिलसिला जल्दी दोस्ती से प्यार में बदल गया और फिर राघव ने प्यार का इजहार भी कर दिया.

ऋतिका ने स्वीकार तो कर लिया, लेकिन इस शर्त के साथ कि शादी सालभर बाद भाई के आस्ट्रोलिया से लौटने पर करेगी. राघव को मंजूर था क्योंकि उस के पिता को भी अनुबंध खत्म होने के बाद ही अगले वर्ष भारत लौटने पर शादी करने में आसानी रहती और वह भी नई नौकरी में एकाग्रता से मेहनत कर के पैर जमा सकता था.

भविष्य के सुखद सपने देखते हुए जिंदगी मजे में कट रही थी कि अचानक उसे टूर पर हैदराबाद जाना पड़ा. औफिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने उसे वहां अपनी बहन को देने के लिए एक पार्सल दिया.

‘‘मेरी बहन और जीजाजी डाक्टर हैं, उन का अपना नर्सिंगहोम है, इसलिए वे तो कभी दिल्ली आते नहीं किसी आतेजाते के हाथ उन्हें यहां की सौगात सोहन हलवा, गज्जक बगैरा भेज देता हूं. तुम मेरी बहन को फोन कर देना. वे किसी को भेज कर सामान मंगवा लेंगी.’’

मगर राघव के फोन करने पर डा. माधुरी ने आग्रह किया कि वह डिनर उन के साथ करे. बहुत दिन हो गए किसी दिल्ली वाले से मिले हुए… वे उसे लेने के लिए गाड़ी भिजवा देंगी.

माधुरी और उस के पति दिनेश राघव से बहुत आत्मीयता से मिले और दिल्ली के बारे में दिलचस्पी से पूछते रहे कि कहां क्या नया बना है बगैरा. फिर उस के बाद उन्होंने अजनबियों के बीच बातचीत के सदाबहार विषय राजनीति और भ्रष्टाचार पर बात शुरू कर दी.

‘‘कितने भी अनशन और आंदोलन हो जाएं, कानून बन जाएं या सुधार हो जाएं सरकार या सत्ता से जुड़े लोग नहीं सुधरने वाले,’’ माधुरी ने कहा, ‘‘उन के पंख कितने भी कतर दिए जाएं, उन का फड़फड़ाना बंद नहीं होता.’’

‘‘प्रकाश का फड़फड़ाना फिर याद आ गया माधुरी?’’ दिनेश ने हंसते हुए पूछा.

राघव चौंक पड़ा. यह तो ऋतिका के पापा का नाम है. उस ने दिलचस्पी से माधुरी की ओर देखा, ‘‘मजेदार किस्सा लगता है दीदी, पूरी बात बताइए न?’’

माधुरी हिचकिचाई, ‘‘पेशैंट से बातचीत गोपनीय होती है, मगर वे मेरे पेशैंट नहीं थे,

2-3 साल पुरानी बात है और फिर आप तो इस शहर के हैं भी नहीं. एक साहब मेरे पास अबौर्शन का केस ले कर आए. पर मेरे यह कहने पर कि हमारे यहां यह नहीं होता उन्होंने कहा कि अब तो और कुछ भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि वे टैलीफोन विभाग में चीफ इंजीनियर हैं. मैं ने बड़ी मुश्किल से हंसी रोक कर उन्हें बताया कि हमारे यहां तो प्राय सभी फोन, रिलायंस और टाटा इंडिकौम के हैं, सरकारी फोन अगर है भी तो खराब पड़ा होगा. उन की शक्ल देखने वाली थी. मगर फिर भी जातेजाते अन्य सरकारी विभागों में अपनी पहुंच की डुगडुगी बजा कर मुझे डराना नहीं भूले.’’

तभी नौकर खाने के लिए बुलाने आ गया. खाना बहुत बढि़या था और उस से भी ज्यादा बढि़या था स्नेह, जिस से मेजबान उसे खाना खिला रहे थे. लेकिन वह किसी तरह कौर निगल रहा था.

होटल के कमरे में जाते ही वह फूटफूट कर रो पड़ा कि क्यों हुआ ऐसा उस के साथ? क्यों भोलीभाली मगर संकीर्ण स्पष्टवादी ऋतिका ने उस से छिपाया अपना अतीत? वह संकीर्ण मानसिकता वाला नहीं है.

जवानी में सभी के कदम बहक जाते हैं. अगर ऋतिका उसे सब सच बता देती तो वह उसे सहजता से सब भूलने को कह कर अपना लेता. ऋतिका के परिवार का रिश्तेदारों से न मिलनाजुलना, ऋतिका का सहेलियों के घर जाने से कतराना और उन के परिवार के लिए सटीक टिप्पणी करना, डा. माधुरी के कथन की पुष्टि करता था.

लौटने पर राघव अभी तय नहीं कर पाया था कि ऋतिका से कैसे संबंधविच्छेद करे. इसी बीच अकाउंट्स विभाग ने याद दिलाया कि अगर उस ने कल तक अपने पुराने औफिस का टीडीएस दाखिल नहीं करवाया तो उसे भारी इनकम टैक्स भरना पड़ेगा.

राघव ने तुरंत अपने पुराने औफिस से संपर्क किया. संबंधित अधिकारी से उस की अच्छी जानपहचान थी और उस ने छूटते ही कहा कि तुम्हारे कागजात तैयार हैं, आ कर ले जाओ. पुराने औफिस जाने का मतलब था ऋतिका से सामना होना जो राघव नहीं चाहता था.‘‘औफिस के समय में कैसे आऊं नमनजी, आप किसी के हाथ भिजवा दो न प्लीज.’’

‘‘आज तो मुमकिन नहीं है और कल का भी वादा नहीं कर सकता. वैसे मैं तो आजकल 7 बजे तक औफिस में रहता हूं, अपने औफिस के बाद आ जाना.’’

राघव को यह उचित लगा, क्योंकि ऋतिका 5 बजे की चार्टर्ड बस से चली जाएगी. अत: उस के बाद वह इतमीनान से नमनजी के पास जा सकता है.

6 बजे के बाद नमनजी कागज ले कर जब वह लौट रहा था तो लिफ्ट का इंतजार करती ऋतिका मिल गई.

‘‘तुम अभी तक घर नहीं गईं?’’ वह पूछे बगैर नहीं रह सका.

‘‘एक प्रोजैक्ट रिपोर्ट पूरी करने के चक्कर में रुकना पड़ा. लेकिन तुम कहां गायब थे रविवार के बाद से?’’

‘‘सोम की शाम को अचानक टूर पर हैदराबाद जाना पड़ गया, आज ही लौटा हूं.’’

‘‘अच्छा किया जाने से पहले घर नहीं आए वरना मम्मी न जाने कितने पार्सल पकड़ा देतीं अपनी सखीसहेलियों के लिए.’’

‘‘पार्सल तो फिर भी ले कर गया था बड़े साहब की बहन डा. माधुरी के लिए,’’ राघव ने पैनी दृष्टि से ऋतिका को देखा, ‘‘तुम तो जानती होगी डा. माधुरी को?’’

ऋतिका के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया और वह लापरवाही से कंधे झटक कर बोली, ‘‘कभी नाम भी नहीं सुना. पापा को फोन कर दूं कि वे सीधे घर चले जाएं मैं तुम्हारे साथ आ रही हूं. पहले कहीं कौफी पिलाओ, फिर घर चलेंगे.’’

राघव मना नहीं कर सका और फिर घर पर डा. माधुरी का नाम बता कर प्रकाश और रमा की प्रतिक्रिया देखने की जिज्ञासा भी थी.

रमा के चेहरे पर तो डा. माधुरी का नाम सुन कर कोई भाव नहीं आया, मगर प्रकाश जरूर सकपका सा गए. रमा के आग्रह के बावजूद राघव खाने के लिए नहीं रुका और यह पूछने पर कि फिर कब आएगा उस ने कुछ नहीं कहा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मांबेटी सफल अदाकारा की तरह डा. माधुरी को न जानने का नाटक कर रही थीं या उन्हें बगैर कुछ बताए प्रकाश साहब अबौर्शन की व्यवस्था करने गए थे.

कुछ भी हो ऋतिका को निर्दोष तो नहीं कहा जा सकता. लेकिन चुपचाप सब बरदाश्त भी तो नहीं हो सकता. यह भी अच्छा ही था कि अभी न तो सगाई हुई थी और न इस बारे में परिवार के अलावा किसी और को पता था, इसलिए धीरेधीरे अवहेलना कर के किनारा कर सकता है. रात इसी उधेड़बुन में कट गई.

सुबह वह अखबार ले कर बरामदे में बैठा ही था कि प्रकाश की गाड़ी घर के सामने रुकी. उन का आना अप्रत्याशित तो नहीं था, मगर इतनी जल्दी आने की संभावना भी नहीं थी.

‘‘रात तो खैर अपनी थी जैसेतैसे काट ली, लेकिन दिन को तो तुम्हें भी काम करना है और मुझे भी और उस के लिए मन का स्थिर होना जरूरी है, इसलिए औफिस जाने से पहले तुम से बात करने आया हूं,’’ प्रकाश ने बगैर किसी भूमिका के कहा, ‘‘यहीं बैठेंगे या अंदर चलें?’’

‘‘अंदर चलिए अंकल,’’ राघव विनम्रता से बोला और फिर नौकर को चाय लाने को कहा.

‘‘मैं नहीं जानता डा. माधुरी ने तुम से क्या कहा, मगर जो भी कहा होगा उसे सुन कर तुम्हारा विचलित होना स्वाभाविक है,’’ प्रकाश ने ड्राइंगरूम में बैठते हुए कहा, ‘‘और यह सोचना भी कि तुम से यह बात क्यों छिपाई गई. वह इसलिए कि किसी की जिंदगी के बंद परिच्छेद बिना वजह खोलना न मुझे पसंद है और न ऋतु को. मैं ने अपनी भतीजी रुचि को हैदराबाद में एक सौफ्टवेयर कंपनी में जौब दिलवाई थी.

वह हमारे साथ ही रहती थी.

‘‘सौफ्टवेयर टैकीज के काम के घंटे तो असीमित होते हैं, इसलिए हम ने रुचि के देरसवेर आने पर कभी रोक नहीं लगाई और इस गलती का एहसास हमें तब हुआ जब रुचि ने बताया कि वह मां बनने वाली है, उस की सहेली का भाई उस से शादी करने को तैयार है, लेकिन कुछ समय यानी पैसा जोड़ने के बाद, क्योंकि उस की जाति में दहेज की प्रथा है और उस के मातापिता बगैर दहेज के विजातीय लड़की से उसे कभी शादी नहीं करने देंगे. पैसा जोड़ कर वह मांबाप को दहेज दे देगा.

‘‘फिलहाल रुचि को गर्भपात करवाना पड़ेगा. हम भी नहीं चाहते थे कि रुचि के मातापिता को इस बात का पता चले. अत: मैं ने गर्भपात करवाने की जिम्मेदारी ले ली. जिन अच्छे डाक्टरों से संपर्क किया उन्होंने साफ मना कर दिया और झोला छाप डाक्टरों से मैं यह काम करवाना नहीं चाहता था. बहुत परेशान थे हम लोग. तब हमें परेशानी से उबारा ऋतु और ऋषभ ने.

‘‘ऋतु को आईआईएम अहमदाबाद में एमबीए में दाखिला मिल गया था और ऋषभ भी अमेरिका जाने की तैयारी कर रहा था. दोनों ने कहा कि जो पैसा हम ने उन की पढ़ाई पर लगाना है, उसे हम रुचि को दहेज में दे कर उस की शादी तुरंत प्रशांत से कर दें. और कोई चारा भी नहीं था. मुझ में अपने भाईभाभी की नजरों में गिरने और लापरवाह कहलवाने की हिम्मत नहीं थी. अत: इस के लिए मैं ने अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा दिया.

‘‘खैर, रुचि की शादी हो गई, बच्चा भी हो गया और उस के बाद दोनों को ही बैंगलुरु में बेहतर नौकरी भी मिल गई. ऋतु ने भी पत्राचार से एमबीए कर लिया और ऋषभ भी आस्ट्रेलिया चला गया. इस में रुचि और प्रशांत ने भी उस की सहायता करी.’’

‘‘मगर मेरा हैदराबाद में रहना मुश्किल हो गया. लगभग सभी नामीगिरामी

डाक्टरों के पास मैं गया था और उन सभी से गाहेबगाहे क्लब या किसी समारोह में आमनासामना हो जाता था. वे मुझे जिन नजरों से देखते थे उन्हें मैं सहन नहीं कर पाता था. मैं ने कोशिश कर के दिल्ली बदली करवा ली. सोचा था वह प्रकरण खत्म हो गया. लेकिन वह तो लगता है मेरी बेटी की ही खुशियां छीन लेगा.

‘‘तुम्हें मेरी कहानी मनगढंत लगी हो तो मैं रुचि को यहां बुला लेता हूं. उस के बच्चे की उम्र और डा. माधुरी की बताई तारीखों से सब बात स्पष्ट हो जाएगी.’’

‘‘इस सब की कोई जरूरत नहीं है पापा.’’

अभी तक अंकल कहने वाले राघव के ऋतिका की तरह पापा कहने से प्रकाश को लगा कि राघव के मन में अब कोई शक नहीं है.

Online Hindi Story : शादी के बाद

Online Hindi Story : रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

Bollywood : ‘आजाद’ फिल्म को देशभक्ति पर बनाने की कोशिश की गई मगर निर्देशक अजय देवगन सफल नहीं हो पाए (2 स्टार)

Bollywood : हमारा देश आज आजाद है. इस देश में रहने वाले खुद को आजाद समझते हैं. तभी तो बौलीवुड की फिल्मों में हमेशा आजादी की बातें होती रहती हैं. मगर यहां आजादी देश के कुछ नेताओं को रास नहीं आ रही. तभी तो आएदिन आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत देश के संविधान पर हमला बोल देते हैं.

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, केंद्र सरकार और चुनाव आयोग पर हमला बोला है. उन्होंने भागवत के बयान पर कहा कि यह देशद्रोह है और संविधान का अपमान है. राहुल गांधी ने कहा कि मोहन भागवत हर 2-3 दिनों में देश को यह बताते हैं कि वे स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के बारे में क्या सोचते हैं. यह कहना कि 1947 में भारत को आजादी नहीं मिली, हर भारतीय का अपमान है.

शीर्षक के मुताबिक इस फिल्म को देशभक्ति पर आधारित होना चाहिए था, मगर ‘आजाद’ की कहानी साल 1920 के समय की है. यह कहानी मध्य भारत के एक गांव की है. इस फिल्म को देशभक्ति पर बनाने की कोशिश की गई है, मगर निर्देशक अजय देवगन इस में सफल नहीं हो पाया है. फिल्म देशभक्ति की भावना नहीं जगाती. फिल्म में आजाद एक घोड़े का नाम है. यह घोड़ा मशहूर डाकू विक्रम सिंह (अजय देवगन) का है. फिल्म एक घोड़े और इंसान के बीच के रिश्ते को बेहतरीन तरीके से दिखाती है.

इस फिल्म से रवीना टंडन की बेटी राशा ठडानी और अजय देवगन के भांजे अमन देवगन ने डैब्यू किया है. गोविंद (अमन) अपने पिता के साथ शाही परिवार का अस्तबल संभालता है. वहीं उस की मुलाकात नायिका जानकी (राशा थडानी) से होती है और दोनों में प्यार हो जाता है.

इस शाही परिवार में एक डाकू विक्रम सिंह (अजय देवगन) भी है. वह अंगरेजों के जुल्मों से गरीबों को बचाता है. उस के पास एक खूबसूरत घोड़ा भी है जिस का नाम आजाद है. एक बार गलती होने पर उसे गांव से भागना पड़ता है. उस की मुलाकात आजाद से होती है. आजाद डाकू विक्रम सिंह का साथी बन जाता है. आजाद अपने सरकार के अलावा किसी और इंसान को अपने आसपास भी फटकने नहीं देता. तभी गांव वालों पर अंगरेजों के जुल्म होने लगते हैं, मगर विक्रम सिंह गांव वालों को अंगरेजों के जुल्म से बचाता है और कर्जे भी माफ करवाता है.

इस कहानी में ऐसा नया कुछ नहीं है जो दर्शकों को अपनी ओर खींच सके. अभिषेक कपूर ने इस से पहले ‘रौक औन’ फिल्म बनाई जो चल न सकी. अजय देवगन के भांजे अमन देवगन ने मेहनत तो खूब की है परंतु संवाद अदायगी में मात खा गया है. राशा ठडानी निराश करती है. अजय देवगन ने कैमियो रोल किया है. डायना पेंटी और पीयूष मिश्रा ने अपनेअपने किरदारों को असरदायक बनाया है. घोड़े का काम इंसानों से अच्छा है. पटकथा कमजोर है. फर्स्टहाफ बोरिंग है. फिल्म में रोमांटिक एंगल गायब है. गाने अच्छे हैं. राशा और अजय की कैमिस्ट्री फीकी है. जमींदारों के जुल्मों पर इस से पहले कई फिल्में आ चुकी हैं, इसलिए इस में नया कुछ नहीं है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

Best Hindi Story : अपना बेटा

Best Hindi Story :  बरसों से रिश्ता तोड़ चुके मामाजी का अंजलि और मुकेश के घर आना उन की बेचैनी का कारण बन गया. आखिर उन के अतीत का वह कौन सा सच था जिस पर पड़ा परदा मामाजी किसी भी पल उठा सकते थे?

अंजलि ने सुबह उठते ही मुकेश को बताया कि रात जब वह सो चुके थे तो मामाजी का फोन आया था कि वह कल घर आ रहे हैं.

मुकेश यह जान कर हैरान हो गया. सालों पहले जिस मामाजी ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था वे अचानक यहां क्यों आ रहे हैं. क्या उन्हें हम से कोई काम है या उन के दिमाग में फिर से टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने की बात आ गई है. इसी उधेड़बुन में पड़ा वह अतीत की यादों में खो गया.

मुकेश को याद आया कि जब इंजीनियरिंग का कोर्स करने के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ा था तो मम्मीपापा ने होस्टल में रखने के बदले उसे मामा के यहां रखना ज्यादा बेहतर समझा था. उस समय मामाजी की शादी को 2 साल ही बीते थे. उन का एक ही बच्चा था.

मुकेश ने इंजीनियरिंग पास कर ली थी. उस की भी शादी हो गई. अब तक मामाजी के 3 बच्चे हो चुके थे जबकि मुकेश के शादी के 5 साल बाद तक भी कोई बच्चा नहीं हुआ और मामी अगले बच्चे की तैयारी में थीं.

मुकेश एक बच्चे को गोद लेना चाहता था और मामाजी चाहते थे कि उन के आने वाले बच्चे को वह गोद ले ले. मामा के इस प्रस्ताव में मुकेश के मातापिता की भी सहमति थी लेकिन मुकेश व अंजलि इस पक्ष में नहीं थे कि मामा के बच्चों को गोद लिया जाए. इस बात को ले कर मामा और भांजे के बीच का रिश्ता जो टूटा तो आज तक मामा ने अपनी शक्ल उन को नहीं दिखाई.

मुकेश अपने एहसान का बदला चुकाने के लिए या समझो रिश्ता बनाए रखने के बहाने से मामा के बच्चों को उपहार भेजता रहता था. मामा ने उस के भेजे महंगे उपहारों को कभी लौटाया नहीं पर बदले में कभी धन्यवाद भी लिख कर नहीं भेजा.

अतीत की यादों से निकल कर मुकेश तैयार हो कर अपने दफ्तर चला गया. शाम को लौटा तो देखा अंजलि परेशान थी. उस के चेहरे पर अजीब सी मायूसी छाई थी. दोनों बेटों, गगन और रजत को वहां न पा कर वह और भी घबरा सा गया. हालांकि मुकेश समझ रहा था, पर क्या पूछता? जवाब तो वह भी जानता ही था.

अंजलि चाह रही थी कि वह दोनों बेटों को कहीं भेज दे ताकि मामाजी की नीयत का पता चल जाए. उस के बाद बेटों को बुलाए.

मुकेश इस के लिए तैयार नहीं था. उस का मानना था कि बच्चे जवान हो रहे हैं. उन से किसी बात को छिपाया नहीं जाना चाहिए. इसीलिए अंजलि के लाख मना करने के बाद भी मुकेश ने गगन- रजत को बता दिया कि कल यहां मेरे मामाजी आ रहे हैं. दोनों बच्चे पहले तो यह सुन कर हैरान रह गए कि पापा के कोई मामाजी भी हैं क्योंकि उन्होंने तो केवल दादाजी को ही देखा है पर दादी के भाई का तो घर में कभी जिक्र भी नहीं हुआ.

इस के बाद तो गगन और रजत ने अपने पापा के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी कि मामाजी का घर कहां है, उन के कितने बच्चे हैं, क्याक्या करते हैं, क्या मामाजी के बच्चे भी आ रहे हैं आदिआदि.

मुकेश बेहद संभल कर बच्चों के हर सवाल का जवाब देता रहा. अंजलि परेशान हो बेडरूम में चली गई.

अंजलि और मुकेश दोनों ही रात भर यह सोच कर परेशान रहे कि पता नहीं मामाजी क्या करने आ रहे हैं और कैसा व्यवहार करेंगे.

सुबह अंजलि ने गगन और रजत को यह कह कर स्कूल भेज दिया कि तुम दोनों की परीक्षा नजदीक है, स्कूल जाओ.

इधर मुकेश मामाजी को लेने स्टेशन गया उधर अंजलि दोपहर का खाना बनाने के लिए रसोई में चली गई. अंजलि ने सारा खाना बना लिया लेकिन मामाजी को ले कर वह अभी तक लौटा नहीं. वह अभी यही सोच रही थी कि दरवाजे की घंटी घनघना उठी और इसी के साथ उस का दिल धक से कर गया.

मुकेश ही था, पीछेपीछे मामाजी अकेले आ रहे थे. अंजलि ने उन के पांव छुए. मामाजी ने हालचाल पूछा फिर आराम से बैठ गए और सामान्य बातें करते रहे. उन्होंने चाय पी. खाना खाया. कोई लड़ाई वाली बात ही नहीं, कोई शक की बात नहीं लग रही थी. ऐसा लगा मानो उन के बीच कभी कोई लड़ाई थी ही नहीं. अंजलि जितना पहले डर रही थी उतना ही वह अब निश्चिंत हो रही थी.

खाना खा कर बिस्तर पर लेटते हुए मामाजी बोले, ‘‘पता नहीं क्यों कुछ दिनों से तुम लोगों की बहुत याद आ रही थी. जब रहा नहीं गया तो बच्चों से मिलने चला आया. सोचा, इसी बहाने यहां अपने राहुल के लिए लड़की देखनी है, वह भी देख आऊंगा,’’ फिर हंसते हुए बोले, ‘‘आधा दर्जन बच्चे हैं, अभी से शादी करना शुरू करूंगा तभी तो रिटायर होने तक सब को निबटा पाऊंगा.’’

अंजलि ने देखा कि मामाजी की बातों में कोई वैरभाव नहीं था. मुकेश भी अंजलि को देख रहा था, मानो कह रहा हो, देखो, हम बेकार ही डर रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारे दोनों बच्चे कहां हैं? क्या नाम हैं उन के?’’

‘‘गगन और रजत,’’ मुकेश बोला, ‘‘स्कूल गए हैं. वे तो जाना ही नहीं चाह रहे थे. कह रहे थे मामाजी से मिलना है. इसीलिए कार से गए हैं ताकि समय से घर आ जाएं.’’

‘‘अच्छा? तुम ने अपने बच्चों को गाड़ी भी सिखा दी. वेरी गुड. मेरे पास तो गाड़ी ही नहीं है, बच्चे सीखेंगे क्या… शादियां कर लूं यही गनीमत है. मैं तो कानवेंट स्कूल में भी बच्चों को नहीं पढ़ा सका. अगर तुम मेरे एक को भी…पढ़ा…’’ मामाजी इतना कह कर रुक गए पर अंजलि और मुकेश का हंसता चेहरा बुझ सा गया.

अंजलि वहां से उठ कर बेडरूम में चली गई.

‘‘कब आ रहे हैं बच्चे?’’ मामाजी ने बात पलट दी.

‘‘आने वाले होंगे,’’ मुकेश इतना ही बोले थे कि घंटी बज उठी. अंजलि दरवाजे की तरफ लपकी. गगनरजत थे.

‘‘मामाजी आ गए…’’ दोनों ने अंदर कदम रखने से पहले मां से पूछ लिया और कमरे में कदम रखते ही पापा के साथ एक अजनबी को बैठा देख कर उन्हें समझते देर नहीं लगी कि यही हैं मामाजी.

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दोनों ने उन के पैर छू लिए. मुकेश ने हंस के कहा, ‘‘मामाजी, मेरे बेटे गगन और रजत हैं.’’

‘‘वाह, कितने बड़े लग रहे हैं. दोनों कद में बाप से ऊंचे निकल रहे हैं और शक्लें भी इन की कितनी मिलती हैं,’’  इस के आगे मामाजी नहीं बोले.

‘‘मामाजी, मैं आप के लिए आइसक्रीम लाया हूं. मम्मी, ये लो ब्रिक,’’ गगन ने अंजलि को ब्रिक पकड़ा दी.

‘‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता कि मामाजी को आइसक्रीम अच्छी लगती है?’’ मुकेश ने पूछा.

‘‘पापा, आइसक्रीम किसे अच्छी नहीं लगती,’’ गगन बोला.

अंजलि ने सब को प्लेटों में आइसक्रीम पकड़ा दी. उस के बाद मामाजी ने दोनों बच्चों से पूछना शुरू किया कि कौन सी क्लास में पढ़ते हो? क्याक्या पढ़ते हो? किस स्कूल में पढ़ने जाते हो? वहां क्याक्या खाते हो?

‘‘बस, मामाजी, अब आप आराम कर लें,’’ अंजलि ने उठते हुए कहा, ‘‘गगनरजत, तुम दोनों कपड़े बदल लो, मैं तुम्हारे कमरे में ही खाना ले कर आती हूं.’’

‘‘मामाजी, आप अभी रहेंगे न हमारे साथ?’’ गगन ने उठतेउठते पूछा.

‘‘हां, 3-4 दिन तो रहूंगा ही.’’

अंजलि के साथ गगन और रजत अपने बेडरूम की तरफ बढ़े.

अंजलि रसोई में जाने लगी तो मामाजी ने मुकेश से पूछा, ‘‘गगन को ही एडोप्ट किया था न तुम ने…’’ मुकेश सकपका गया.

‘‘दोनों को देखने पर बिलकुल नहीं लगता कि इन में एक गोद लिया है,’’ मामाजी ने फिर बात दोहराई थी.

‘‘मामाजी, यह क्या बोल रहे हैं?’’ मुकेश ने हैरत से मामाजी को देखा, ‘‘आप को ऐसा नहीं बोलना चाहिए. वह भी बच्चों के सामने?’’

बच्चे मामाजी की बात सुन कर रुक गए थे. अंजलि के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. गगन तो सन्न ही रह गया. रजत को जैसे होश सा आया.

‘‘मम्मी, मामाजी किस की बात कर रहे हैं? कौन गोद लिया है?’’

अंजलि तो मानो बुत सी खड़ी रह गई थी. सालों पहले कहे गए मामाजी के शब्द, ‘गैर, गैर होते हैं अपने अपने, मैं ऐसा साबित कर दूंगा,’ उस की समझ में अब आ रहे थे. तो इतने सालों बाद मामाजी इसलिए मेरे घर आए हैं कि मेरा बसाबसाया संसार उजाड़ दें.

गगन अभी तक खामोश मामाजी को ही देख रहा था. अंजलि को जैसे होश आया हो, ‘‘कुछ नहीं, बेटे, किसी और गगन की बात कर रहे हैं. तुम अपने कमरे में जाओ.’’

मुकेश के पांव जड़ हो रहे थे.

‘‘अरे, अंजलि बेटे, तुम ने गगन को बताया नहीं कि इस को तुम अनाथाश्रम से लाई थीं. उस के बाद रजत पैदा हुआ था…’’ मामाजी रहस्यमय मुसकान के साथ बोले.

‘‘यह क्या कह रहे हैं, मामाजी?’’ मुकेश विचलित होते हुए बोला.

‘‘देखो मुकेश, आज नहीं तो कल किसी न किसी तरह गगन को सच का पता चल ही जाएगा तो फिर तुम क्यों छिपा रहे हो इस को.’’

गगन जहां खड़ा था वहीं बुत की तरह खड़ा रहा, पर उस की आंखें भर आईं, क्योंकि मम्मीपापा भी मामाजी को चुप कराने की ही कोशिश कर रहे थे. यानी वह जो कुछ कह रहे हैं वह सच… रजत हैरानपरेशान सब को देख रहा था. गगन पलट कर अपने बेडरूम में चला गया. रजत उस के पीछेपीछे चला आया. पूरे घर का माहौल पल भर में बदल गया था. कपड़े बदल कर गगन सो गया. उस ने खाना भी नहीं खाया.

‘‘मम्मी, गगन रोए जा रहा है, आज वह दोस्तों से मिलने भी नहीं गया. पहले कह रहा था कि मुझे एक पेपर लेने जाना है.’’

अंजलि की हिम्मत नहीं हुई गगन से कुछ भी पूछे. रात के खाने के लिए अंजलि ने ही नहीं चाहा कि गगन व रजत मामाजी के पास बैठ कर खाना खाएं. मामाजी टीवी देखने में मस्त थे. ऐसा लग रहा था कि उन का मतलब हल हो गया. मुकेश भी ज्यादा बात नहीं कर रहा था. उसे ध्यान आ रहा था उस झगड़े का, जो मम्मीपापा, मामामामी ने उस के साथ किया था. दरअसल, वे चाहते थे कि हमारा बच्चा नहीं हुआ तो मामी के छोटे बच्चे को गोद ले लें. पर अंजलि चाहती थी कि हम उस बच्चे को गोद लें जिस के मातापिता का पता न हो, ताकि कोई चांस ही न रहे कि बच्चा बड़ा हो कर अपने असली मातापिता की तरफ झुक जाए. वह यह भी चाहती थी कि जिसे वह गोद ले वह बच्चा उसे ही अपनी मां समझे.

मुकेश यह भी समझ रहा था कि मामाजी की नजर उस के और अंजलि के पैसों पर थी. उन्हें लग रहा था कि उन का एक बच्चा भी अगर मेरे घर आ गया तो बाकी के परिवार का मेरे घर पर अपनेआप हक हो जाएगा. उसे आज भी याद है जब मामाजी की हर चाल नाकाम रही तो खीज कर वह चिल्ला पड़े थे, ‘अपने लोगों को दौलत देते हुए एतराज है पर गैरों में बांट कर खुश हो, तो जाओ आज के बाद हमारा तुम से कोई वास्ता नहीं.’

मामाजी जब अंतिम बार मिले तो बोले थे, ‘कान खोल कर तुम दोनों सुन लो, गैर गैर होते हैं, अपने अपने ही. और मैं यह साबित कर दूंगा.’

‘और आज यही साबित करने आए हैं. लगता है गगन को गैर साबित कर के ही जाएंगे, लेकिन मैं मामाजी की यह इच्छा पूरी नहीं होने दूंगा,’ सोचता हुआ मुकेश करवट बदल रहा था.

इधर अंजलि की आंखों से नींद जैसे गायब थी. जब रहा नहीं गया तो उठ कर वह गगन के कमरे की तरफ चल दी. उस का अंदाजा सही था, गगन जाग रहा था. रजत भी जागा हुआ था.

‘‘तू पागल है, गगन,’’ रजत बोला, ‘‘मामाजी ने कहा और तू ने उसे सच मान लिया. मामाजी हमारे ज्यादा अपने हैं या मम्मीपापा.’’

अंजलि के पीछे मुकेश भी आ गए. दोनों गगन के कमरे में अपराधियों की तरह आ कर बैठ गए. अंजलि ने गगन को देखा. उस की आंखें भरी हुई थीं.

‘‘गगन, तू ने खाना क्यों नहीं खाया?’’

गगन कुछ बोला नहीं. बस, मां की नजरों में देखता रहा.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मैं क्या गैर हूं?’’ अंजलि रो पड़ी. उस के शब्दों में अपनापन और रोब दोनों थे, ‘‘मम्मी हूं मैं तेरी…कोई भी उठ कर कुछ कह देगा और तू मान लेगा? मेरी बात पर यकीन नहीं है? उस की बात सुन रहा

है जो सालों बाद अचानक उठ कर चला आया.

‘‘बेटे, अगर हम तेरे मातापिता न होते तो क्या तुम्हें इतने प्यार से रखते? क्या तुम्हें कभी महसूस हुआ कि हम ने तुम्हें रजत से कम चाहा है,’’ अंजलि के आंसू रुक ही नहीं रहे थे. फिर मुकेश की तरफ देख कर बोली, ‘‘तुम्हारे मामा को किसी का बसता घर देख खुशी नहीं होती. कहीं भी उलटीसीधी बातें बोलने लगते हैं. मालूम नहीं कब जाएंगे.’’

गगन नजरें झुकाए आंसू टपकाता रहा. उस का चेहरा बनबिगड़ रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये अचानक तूफान कहां से आ गया. कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि जीवन में इस तरह के किसी तूफान का सामना करना पड़ेगा.

‘‘बेटे, मैं कभी तुम्हें नहीं बताता पर आज स्थिति ऐसी है कि बताना ही पड़ेगा,’’ मुकेश ने कहा, ‘‘अगर हम तुम्हें पराया जानते तो मैं अपनी वसीयत में सारी प्रापर्टी, बैंकबैलेंस सबकुछ, तुम तीनों के नाम न करता.’’

‘‘और मैं ने भी अपनी वसीयत में अपने हिस्से की सारी प्रापर्टी तुम दोनों के नाम ही कर दी है, ताकि कभी भी झगड़ा न हो सके. हमारे किसी बेटे का, अगर कभी दिल बदल भी जाए तो कानूनी फैसला न बदले,’’ अंजलि बोली, ‘‘तुम मामाजी की बातों पर ध्यान मत दो, बेटे.’’

गगन खामोशी से दोनों की बातें सुन रहा था. उसे लगा कि अगर वह कुछ भी बोला तो सिर्फ रुलाई ही बाहर आएगी.

सुबह अंजलि ने रजत को झकझोरा तो उस की नींद खुली.

‘‘गगन कहां है?’’ अंजलि की आवाज में घबराहट थी.

‘‘कहां है, मतलब? वह तो यहीं सो रहा था?’’ रजत बोला.

‘‘बाथरूम में होगा न?’’ रजत ने अधमुंदी आंखों से कहा.

‘‘कहीं नहीं है वह. पूरा घर छान लिया है मैं ने.’’

अंजलि लगभग चीख रही थी, ‘‘तू सोता रहा और तेरी बगल से उठ कर वह चला गया. बदतमीज, तुझे पता ही नहीं चला.’’

‘‘मम्मी, मुझे क्या पता… मम्मी, आप बेकार परेशान हो रही हैं, यहीं होगा, मैं देखता हूं,’’ रजत झटके से बिस्तर से उठ गया पर मन ही मन वह भी डर रहा था कि कहीं मम्मी की बात सच न हो.

‘‘कहीं घूमने निकल गया होगा, आज रविवार जो है? आ जाएगा,’’ मुकेश ने अंजलि को बहलाया. पर वह जानता था कि वह खुद से भी झूठ बोल कर तसल्ली दे रहा है.

अंजलि का देर से मन में रुका गुबार सहसा फूट पड़ा. वह फफक पड़ी. उस का मन किया कि मामाजी को कहे कि हो गई तसल्ली? पड़ गई दिल में ठंडक? साबित कर दिया तुम ने. अब जाओ, यहां से दफा हो जाओ? पर प्रत्यक्ष में कुछ कह नहीं पाई.

‘‘दोपहर हो चुकी है. एक फोन तक नहीं किया उस ने जबकि पहले कभी यों बिना बताए वह कहीं जाता ही नहीं था,’’ मुकेश भी बड़बड़ाए. उन की आंखों से भी अनजानी आशंका से नमी उतर रही थी.

हर फोन पर मुकेश लपकता. अंजलि की आंखों में एक उम्मीद जाग जाती पर फौरन ही बुझ जाती. इस बीच मामाजी अपने घर वालों से फोन पर लंबी बातें कर के हंसते रहे. साफ लग रहा था कि वह इन दोनों को चिढ़ा रहे हैं.

अंधेरा हो गया, रजत लौटा, पर खाली हाथ. उस का चेहरा उतर गया था. वह सोच रहा था कि गगन कितना बेवकूफ है. कोई कुछ कहेगा तो हम उसे सच मान लेंगे?

तभी मामाजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘आजा, आजा, मेरे बेटे, आजा…बैठ…’’

अंजलि, मुकेश और रजत बाहर के दरवाजे की तरफ लपके. गगन मामाजी के पास बैठ रहा था.

‘‘कहां रहा सारा दिन? कहां घूम के आया? पानी पीएगा? अंजलि बेटे, इसे पानी दे, थकाहारा आया है,’’ मामा की आवाज में चटखारे लेने वाला स्वर था.

अंजलि तेजी से गगन की तरफ आई और उसे बांह से पकड़ कर मामाजी के पास से हटा दिया.

‘‘कहां गया था?’’ अंजलि चीखी थी, ‘‘बता के क्यों नहीं गया? ऐसे जाते हैं क्या?’’ और गुस्से से भर कर उसे थप्पड़ मारने लगी और फिर फफक- फफक कर रो पड़ी.

‘‘गगन, तेरा गुस्सा मम्मी पर था न, तो मुझे क्यों नहीं बता कर गया,’’ रजत बोला, ‘‘मैं ने तेरा क्या बिगाड़ा था?’’

‘‘ऐसे भी कोई चुपचाप निकलता है घर से, हम क्या इतने पराए हो गए?’’ मुकेश की आवाज भी भर्राई हुई थी.

सभी की दबी संवेदनाएं फूट पड़ी थीं.

‘‘मामाजी, आप कुछ कह रहे थे. कहिए न…’’ गगन ने अपने आंसू पोंछे… पर अंजलि ने पीछे से गगन को खींच लिया. पागल सी हो गई थी अंजलि, ‘‘कुछ नहीं कह रहे थे. तू जा अपने कमरे में. जो कुछ सुनना है मुझ से सुन. मैं तेरी मां हूं, ये तेरे पिता हैं और ये तेरा भाई.’’

मुकेश अंजलि को पकड़ रहा था.

‘‘मामाजी, आप कह रहे थे मैं इन का गोद लिया बेटा हूं, है न…’’

‘‘नहीं, तुम मेरे बेटे हो,’’ अंजलि ने गगन को जोर से झटक दिया.

गगन अंजलि के कंधे को थाम कर बोला, ‘‘मम्मी, मैं तो मामाजी को यही समझा रहा हूं कि मैं आप का बेटा हूं. मम्मी, अपने पैदा किए बच्चे को तो हर कोई पालता है, पर एक अनाथ बच्चे को इतना ढेर सारा प्यार दे कर तो शायद ही कोई औरत पालती होगी. उस से बड़ी बात तो यह है कि आप ने रजत और मुझ में कोई फर्क नहीं रखा, तो मैं क्यों मानूं मामाजी की बात.

‘‘आप ही मेरी मां हैं,’’ गगन ने अंजलि को अपनी बांहों में समेट लिया और मामाजी से कहा, ‘‘मामाजी, आप ने क्या सोचा था कि मुझे जब पता चलेगा कि मैं अनाथाश्रम से लाया गया हूं तो मैं अपनी असली मां को ढूंढ़ने निकल पड़ूंगा? मामाजी, क्यों ढूंढं़ ू मैं उस औरत को जिस को मेरी जरूरत कभी थी ही नहीं. उस ने मुझे पैदा कर के मुझ पर एहसान नहीं किया बल्कि मम्मीपापा ने मुझे पालापोसा, मुझे नाम दिया, मुझे भाई दिया, मुझे एक घर दिया, समाज में मुझे एक जगह दी. इन का एहसान मान सकता हूं मैं. वरना आज मैं सड़ रहा होता किसी अनाथाश्रम के मैलेकुचैले कमरों में.’’

रजत ने खुशी से गगन का हाथ दबा दिया. मुकेश ने गगन के सिर पर हाथ फिराया. अंजलि, मुकेश और रजत की आंखों में आंसू छलक आए. सब ने तीखी नजरों से मामाजी को देखा.

अंजलि तो नहीं बोली पर मुकेश से रहा नहीं गया. बोले, ‘‘क्यों मामाजी, आप तो गैर को गैर साबित करने आए थे न? और आप, आप तो मेरे अपने थे, तो आप ने गैरों सी दुश्मनी क्यों निभाई?’’

गगन अंजलि के गले से लिपट गया. अंजलि के आंसू फिर निकल आए.

अंजलि जानती थी अब उसे मामा जैसे किसी व्यक्ति से डरने की कोई जरूरत नहीं है. अब सच में उस के दोनों बेटे अपने ही हैं.

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