महीनों से घर से दाल, सब्जियां गायब हैं. सुखचैन तो खैर उसी दिन से गायब हो गया था जिस दिन मोतीचूर का लड्डू आया था. चंद्रमुखी आजकल सूरजमुखी चल रही है. सूरजमुखी ने नाक में दम कर रखा है कि बहुत हो गया दालसब्जियों से मुंह छिपाना. अब और बहाने मत बनाओ. मर्द हो तो मर्द वाला करतब कर के दिखाओ. घर में तो बड़े मर्द बने फिरते हो. मगर जब बाजार से सब्जीदाल लाने को कहती हूं तो बाजार जाने से ऐसे डरते हो जैसे...

मेरे लिए न सही तो न सही, कम से कम उस के लिए ही सही, किलोआधकिलो कोई भी दाल ले ही आओ. दाल का मुंह देखे बिन अब किचन काटने को आती है. मैं तो तुम्हें पतिदेव मानती रही और तुम पति कहलाने के लायक भी नहीं. सोचा था, ‘जिंदगीभर तुम्हारे साथ मटरपनीर खाऊंगी पर तुम, अरहर तो छोड़ो, चने की दाल खिलाने के लायक भी नहीं. सच पूछो तो अब मैं अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार बहुत पछता रही हूं. इस उम्र में कहीं और जाने से भी रही.’

वैसे तो मेरे जैसा पति, पत्नी के तानों से कभी तंग नहीं आता पर पहली बार पता नहीं क्या हुआ, क्यों हुआ कि मेरे लिजलिजे अहं को पत्नी के ताने प्र्रभावित कर गए और मैं बिना एक पल गंवाए पत्नी के तानों से आहत हो गया.

जिस तरह कभी पत्नी के तानों से आहत हो कर तुलसीदास घर छोड़ कर कथाकथित प्रभु की खोज में निकले थे उसी तरह अपनी बीवी के तानों से तंग आ कर मेरा मन भी बाजार जा, दाल पाने को मचल उठा. मैं बाजार की ओर बिन सोचेविचारे, कांधे पर झोला लटकाए दाल की खोज में निकल पड़ा. अब जो होगा, देखा जाएगा. सिर दिया बाजार में, तो रेट से क्या डरना.

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