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कानून न्यायपालिका में आरक्षण और धार्मिक दमन से दबती आधी दुनिया

महिलाओं को नौकरियों में आरक्षण से ज्यादा जरूरत धार्मिक जकड़न से आजादी की है. धार्मिक भेदभाव ने उन्हें शुरू से पीछे रखा है. जब महिलाएं इस से बाहर आने लगती हैं तो उन्हें कोई नया कर्मकांडी टोटका पकड़ा दिया जाता है जिस की मंशा उन्हें दबाए रखने की होती है. सुप्रीम कोर्ट की महिला वकीलों द्वारा दिल्ली में 26 सितंबर को आयोजित एक सम्मान समारोह में देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण ने यों तो लंबाचौड़ा भाषण दिया लेकिन उस में कई बातें महत्त्वपूर्ण से ज्यादा अर्थपूर्ण थीं, मसलन- द्य न्यायपालिका में 50 फीसदी आरक्षण के लिए महिला अधिवक्ता की तरफ से जोरदार तरीके से मांग उठी.

इस पर न्यायाधीश बोले, ‘मैं नहीं चाहता कि वे रोएं, बल्कि गुस्से से चिल्लाना शुरू करें.’ द्य यह हजारों साल के दमन का विषय है.

आरक्षण अधिकार का विषय है,

दया का नहीं. दुर्भाग्य है कि कुछ चीजें बहुत देरी से आकार लेती हैं. द्य लोग बड़ी आसानी से कह देते हैं कि 50 फीसदी आरक्षण मुश्किल है क्योंकि महिलाओं को अनेक समस्याएं होती हैं. लेकिन, यह सही नहीं है. इस के अलावा एक और बात आज के माहौल के लिहाज से उन्होंने ऐसी कही जिसे सुनने से ज्यादा सम?ाना जरूरी है. हालांकि सम?ाने वाले सम?ा गए थे लेकिन उन की तादाद न के बराबर है.

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यह वाक्य था, ‘दुनिया की महिलाओ, एकजुट हो जाओ. तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ नहीं है.’ गौरतलब है कि यह नारा मशहूर कम्युनिस्ट और समाजवादी दार्शनिक काल मार्क्स का है कि ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ नहीं है.’ इस नारे ने जो हाहाकारी क्रांति मचाई थी वह किसी सुबूत की मुहताज नहीं है. हालांकि अभी देश में काल मार्क्स का नाम और हवाला देना पूरी तरह गुनाह नहीं है लेकिन कुछ तो है जो सनातनधर्मी और देश के मौजूदा हुक्मरान इस नाम से चिढ़ते भी हैं और खौफ भी खाते हैं. आमतौर पर काल मार्क्स के मानने वालों को ?ाट से वामपंथी व विधर्मी करार दे दिया जाता है.

अब तो इस शब्द को गाली का भी पर्याय बना दिया गया है क्योंकि यही काल मार्क्स धर्म को अफीम का नशा बताते थे. बिना किसी लागलपेट के कहा और सम?ा जाए तो भारतीय महिलाओं को न केवल न्यायपालिका में आरक्षण बल्कि अपने दीगर हितों के लिए भी इस नशे का त्याग तो करना पड़ेगा वरना उन की बदहाली ज्यों की त्यों रहेगी. और एक हद तक इस की जिम्मेदार वे खुद भी होंगी क्योंकि हजारों साल का दमन धार्मिक सिद्धांतों और रीतिरिवाजों की वजह से है. चीफ जस्टिस महोदय ने जानेअनजाने में एक ऐसी सचबयानी कर दी है जिस का तोड़ शायद उन के पास भी न होगा. लेकिन बात जिस मंच से और जिस ढंग से कही गई है वह मंच बुद्धिजीवियों और तर्क करने वाली महिलाओं का है जो पेशे से वकील हैं.

लिहाजा, उन्हें बात खुद भी सम?ानी चाहिए और समाज को सम?ानी भी चाहिए कि क्यों महिलाएं हजारों सालों से दमन और भेदभाव का शिकार होते पिछड़ी हुई हैं और वह दमन आखिर क्यों है और कैसा है. बराबरी की आड़ में शोषण नए बने जजों के इस सम्मान समारोह के दिन देशभर में श्राद्ध पक्ष मन रहा था. लोग अपने पितरों का अर्पणतर्पण कर रहे थे लेकिन इस बार एक नई खबर यह आई कि अब महिलाओं को भी पिंडदान का अधिकार मिल गया है और वे अपने पूर्वजों का श्राद्ध तर्पण आदि कर सकती हैं. देखते ही देखते देशभर से खबरें आने भी लगीं कि महिलाएं भी अब पुरुषों की तरह यह पाखंड नदियों और तालाबों के किनारे कर रही हैं.

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मेरठ के एक पंडित भारत ज्ञान भूषण ने जैसे ही एक पौराणिक कथा का प्रचार किया कि महिलाओं को भी अर्पणतर्पण का अधिकार है तो देशभर में महिलाएं श्राद्ध करने को टूट पड़ीं. मेरठ में ही 3 बेटियों ने अपने पिता का पिंडदान किया जिन की मौत कोरोना के चलते हो गई थी. मेरठ की ही पेशे से एक शिक्षिका ने कोरोना में ही मृत अपने पति व ससुर का श्राद्ध किया. नागपुर की डा. दिव्या आसुदानी ने अपने पिता का पिंडदान करते गर्व से मीडिया को बताया कि उन्होंने बेटा होने का फर्ज निभाया है. भोपाल में भी तालाब किनारे दर्जनों महिलाओं ने श्राद्ध कर्म किया और मीडिया ने यहां भी उन्हें हाथोंहाथ लिया. फिर श्राद्ध के लिए मशहूर शहरों- गया, हरिद्वार, प्रयागराज, काशी और उज्जैन जैसे धार्मिक शहरों में तो महिलाओं के हुजूम इस अधिकार के लिए टूटे पड़ रहे थे जिस से पंडेपुजारी अपनी बढ़ती ग्राहकी देख कर खुश हो रहे थे. देश का ऐसा कोई शहर न होगा जहां धर्म के दुकानदारों ने सीता द्वारा अपने ससुर दशरथ के श्राद्ध की कहानी सुना कर महिलाओं को इस के लिए उकसाया न हो.

इस कथा के मुताबिक वनवास के दौरान जब राम और लक्ष्मण सीता के साथ पितृपक्ष के वक्त गया पहुंचे तो पंडित द्वारा बताई गई सामग्री लेने शहर की तरफ चले गए. इधर श्राद्ध का मुहूर्त निकला जा रहा था तभी दशरथ ने सीता को दर्शन दे कर उन से श्राद्ध करने को कहा. सीता ने फाल्गु नदी के किनारे गाय, केतकी के फूल और वट वृक्ष को साक्षी मान कर ससुर का श्राद्ध कर दिया. इस से दशरथ की आत्मा को मुक्ति मिल गई. कर्मकांड में बिना मांग के, बिना चिल्लाए, बिना गुस्सा दिखाए और बिना किसी धरनेप्रदर्शन या हड़ताल के मिले इस आरक्षण में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी निभाई और इतनी खुश हुईं जितनी कि ज्युडिशियरी में 50 फीसदी आरक्षण मिल जाने पर भी न होतीं.

यह दरअसल, पुरुष प्रधान समाज के पंडेपुजारियों की साजिश है क्योंकि अब घरों में पुरुष सदस्य कम हो रहे हैं तो उन्होंने श्राद्ध कर्म का अधिकार महिलाओं को भी दे दिया जिस से उन की मुफ्त की मलाई, हलवापूरी और दानदक्षिणा का अंतिम संस्कार न हो जाए. सदियों से महिलाओं को शूद्रों की तरह धर्मकर्म से दूर रखा गया, इसलिए वे इस नए आरक्षण से खुद को गौरवान्वित महसूस करते तबीयत से अर्पणतर्पण के नाम पर पैसा लुटा रही हैं और धर्मभीरू बन रही हैं सो अलग. शायद ही वे इस साजिश को सम?ा पाएं कि इस पाखंड से उन्हें कोई बराबरी का अधिकार नहीं मिल गया है बल्कि थोड़ी अफीम और चटा दी गई है जिस के नशे में वे ?ाम रही हैं. इस प्रतिनिधि ने भोपाल के 3 पंडितों से पूछा कि क्या कोई महिला, जो मासिकधर्म से हो श्राद्धकर्म की अधिकारी होगी और अगर नहीं तो ऐसा कहां लिखा है,

कृपया बताएं? जवाब के नाम पर तीनों पंडित बगलें ?ांकते नजर आए. एक ने जरूर कहा कि कहां क्या लिखा है, यह तो हमें नहीं पता लेकिन आजकल की स्त्रियां 3 दिनों में ही शुद्ध हो जाती हैं और श्राद्धपक्ष 15 दिन तक चलता है, इसलिए वे बाद में कर लें जब यह पूछा गया कि श्राद्धपक्ष में तो तिथि का बड़ा महत्त्व होता है. यदि किसी महिला के पति के श्राद्ध की तिथि ग्यारस को पड़ती है और वह उस दिन अशुद्ध यानी मासिकधर्म से है तो उसे पाप तो नहीं लगेगा? इस पर वह पंडित गुस्से में बोला, ‘कर ले जब श्राद्ध करना है. हम कौन औरतों के पेटीकोट में ?ांक कर देखते हैं.’ सहज सम?ा जा सकता है कि धार्मिक नियम, कायदे, कानून कैसे दुकानदारी के लिए बनाए व मिटाए जाते हैं.

यह सोचना भी बेमानी है कि आजकल की शिक्षित महिलाएं मासिकधर्म संबंधी वर्जनाओं को नहीं मानतीं. इतना फर्क जरूर कुछ महिलाओं में देखने में आया है कि वे रसोईघर में जा कर खाना बना लेती हैं लेकिन भूले से भी उन की हिम्मत पूजाघर में जा कर दिया जलाने की नहीं होती. यह डर सदियों से उन के दिमाग में भरा हुआ है. ?ाम बराबर ?ाम अफीम की हकीकत क्या है, इस के लिए धर्मग्रंथों में ?ांकें, तो स्पष्ट होता है कि महिला पुरुष की गुलाम, पांव की जूती, पापिन, अछूत और दोयम दर्जे की बताई गई है. यही वह हजारों साल का दमन है जिस के तरीके वक्त के मुताबिक बदले भी जाते रहते हैं. जब भी महिला तरक्की करने लगती है, पुरुषों की बराबरी पर आने लगती है तो उसे उल?ाए और पिछड़ा रखने को श्राद्ध जैसा कोई ?ान?ाना पकड़ा दिया जाता है, जिस से उस का वक्त और ऊर्जा पढ़ाईलिखाई में न लग कर बेकार के पाखंडों में जाया होती रहे.

कुछ सालों से महिलाएं मुखाग्नि देने लगी हैं, इस पर सनातनधर्मी कोई एतराज नहीं जताते क्योंकि मामला चढ़ावे का है वरना एक वक्त में महिलाओं का श्मशान जाना भी वर्जित था. सनातनियों के संविधान मनुस्मृति में साफ लिखा है कि, ‘स्त्री बचपन में पिता के, यौवनावस्था में पति के और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहे.’ मनुस्मृति के विचार लगते ही ऐसे हैं कि यह शूद्रों और महिलाओं को नीचा दिखाने के लिए ही रची गई है. यह सोचना बेमानी है कि आज इस का कोई प्रभाव नहीं रह गया है बल्कि नएनए तरीकों से प्रकट होता रहता है. इस धर्मग्रंथ का कभीकभार विरोध होता रहता है (विरोध करने वाले सवर्ण नहीं होते), पर कोई उन जड़ों में नहीं जाता जिन से असमानता, अत्याचार और भेदभाव का पौधा वृक्ष बन गया. वे जड़ हैं-

वेद, पुराण, स्मृतियां, संहिताएं, श्रीमद्भगवगीता और रामायण जिन के दिशानिर्देशों पर सनातन समाज चलता है. औरत शिक्षित और जागरूक हो जाए तो मर्दों की सत्ता डगमगाने लगती है, इसलिए हजारों साल पहले ही आगाह कर दिया गया था कि- इन्द्रश्चिदा तद्वरीत स्त्रियां आशास्य्म मन उतो अहं क्रतुं रघुम (ऋग्वेद,8 : 33 : 17) अर्थात, स्वयं इंद्र ने कहा है कि स्त्री के मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता. उस की बुद्धि तुच्छ होती है. कितनी अजीब बात है कि औरत को इतना दीनहीन और बेचारी साबित व प्रचारित कर दो कि वह खुद ही शिक्षित होने से कतराने लगे. लेकिन आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई और बराबरी का हक देने वाला संविधान वजूद में आया तो औरतें पढ़नेलिखने लगीं. वे नौकरियों में भी आने लगीं और राजनीति में भी प्रभाव दिखाने लगीं.

आज खासतौर से लगभग हर शहरी पढ़ीलिखी लड़की आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है लेकिन यह सोचना बेमानी है कि इस से उसे बराबरी का अधिकार मिल गया है. यह हक तो उसे हिंदू कोड बिल के लागू होने के बाद मिला जिस में उसे वोट देने का हक मिला, संपत्ति में भी हिस्सा मिलने लगा और पहली बार तलाक व दूसरी शादी करने का भी अधिकार मिला. इस कानून का कट्टर हिंदूवादियों ने जम कर विरोध किया था और हुड़दंग भी मचाया था जो औरत को आजादी देने के खिलाफ हमेशा से ही रहे हैं. अभी भी यह पर्याप्त और आधी आबादी के मुताबिक नहीं है. मिसाल ज्युडिशियरी की ही लें तो आंकड़े बताते हैं कि हालिया नई नियुक्तियों के बाद सुप्रीम कोर्ट में महिला जजों की संख्या बहुत कम है.

जस्टिस एन वी रमण के पहले के मुख्य न्यायाधीश रहे शरद बोबड़े ने भी एक याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि अब समय आ गया है कि भारत में कोई महिला मुख्य न्यायाधीश बने. इधर हाल तो यह है कि देश के हाईकोर्टों में पुरुष जजों के 567 के मुकाबले महिला जजों की संख्या बेहद कम केवल 77 है. निचली अदालतों में भी हाल अच्छे नहीं हैं. बात वकीलों की करें तो देश में कुल 17 लाख वकील हैं, इन में महिलाओं की संख्या लगभग ढाई लाख ही है इन की भी अपनी अलग समस्याएं हैं. यह कहना बड़ा आसान है कि ‘तो फिर महिलाएं आएं आगे, रोका किस ने है,’ लेकिन क्या सबकुछ महिलाओं के अनुकूल है? इस सवाल का जवाब भी साफ है कि नहीं है. महिलाओं की तरक्की और तालीम के रास्ते में सब से बड़ा रोड़ा धर्म और उस के रीतिरिवाज हैं. कभीकभी यह सुनना भी सुकून देता है कि महिलाएं मल्टीटास्कर होती हैं.

लेकिन गौर से देखें तो महिलाएं नए तरीके से गुलाम बनाई जा रही हैं. वे आर्थिक रूप से तो आत्मनिर्भर हैं लेकिन पारिवारिक, सामाजिक और भावनात्मक तौर पर पुरुष पर निर्भर हैं. कुछेक अपवाद हैं जिन की कोई खास अहमियत नहीं. औरत पहले बच्चा पैदा करने की मशीन बना दी गई थी तो अब पैसा कमाने वाली मशीन बना दी गई है. अब यह और बात है कि धर्म उसे ही पुरुषों की संपत्ति करार देता है. मनु महाराज ने तो साफसाफ कहा है कि स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है. स्त्री की संपत्ति का स्वामी उस का पति, पुत्र या पिता है. (मनु स्मृति अध्याय 9, श्लोक 416) एक महिला जिंदगीभर पुरुषों के लिए खटती रहती है. वह पति की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती है, संतान की खुशहाली के लिए संतान सप्तमी का व्रत रखती है और भाई के लिए रक्षाबंधन और साल में पड़ने वाले 3 भाईदूज पर उस की खैर के लिए खुद को भूखाप्यासा रखती है.

धर्म ने उस के दिमाग में तरहतरह से यह बात कूटकूट कर भर रखी है कि तुम्हारा अस्तित्व ही पुरुष से है. इसलिए बेचारी सालभर में 50 तरह के उपवास रखती है, तीजत्योहारों पर पकवान बनाती रहती है और पूजापाठ के वक्त थकीहारी शोपीस बन कर आरती उतारती रहती है. इस की वजह है, पुरुषों की नजर में महिला की इमेज जो धर्म ने गढ़ी है कि वह यौनेच्छा की पूर्ति के लिए बनी है, और संतान पैदा करना उस की जिम्मेदारी है. लगता ऐसा भी है कि औरत एक खिलौना है जिस से मर्द जैसे चाहे जब चाहे खेले. उसे विरोध करने का तो दूर की बात है, बोलने का भी हक नहीं है. अथर्ववेद कहता है, इवं नारी पतिलोकं वृणाना नि पद्धत उपत्वा मर्त्यं प्रेतम धर्मपुराणमनुष्यपालयन्ती तस्ये द्रविणं चेह धेहि (अथर्ववेद 18 : 3 : 1) अर्थात, हे मृतपुरुष, प्राचीन धर्म का पालन करती हुई और पतिलोक की कामना करती हुई यह स्त्री तेरे पास आती है. तुम इसे परलोक में इसी प्रकार संतान वाली बनाना और धन देना. बदलाव का खोखला ढिंढोरा इन दिनों हर कोई यह कहता नजर आता है कि अब कहां महिलाएं गैरबराबरी की शिकार हैं, अब तो बराबरी का जमाना है जिस में महिला पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर चल रही है, रेल, हवाई जहाज उड़ा रही है, मरजी से शादी कर रही है, पैसे खर्च कर रही है वगैरहवगैरह.

अब उस पर पहले जैसी बंदिशें नहीं रहीं. इस दुष्प्रचार की तुलना इस दुष्प्रचार से भी की जा सकती है कि अब कहां जातिगत छुआछूत रही, अब तो छोटीबड़ी जाति के लोग साथ उठतेबैठते, खातेपीते हैं. कोई शक नहीं कि महिलाएं दफ्तरों में दिख रही हैं, खुद कमा रहीं हैं, रेल, बस और लोकल ट्रांसपोर्ट उन से भरे हैं, उन्हें घूमनेफिरने की आजादी मिली हुई है लेकिन यह सब ढकोसला है क्योंकि महिलाओं ने जो भी हासिल किया है वह शिक्षा, अपनी लगन और मेहनत से किया है. उस में धर्म का कोई योगदान नहीं है. आज उन की जिस बेहतर स्थिति को बराबरी का बताया जाता है, वह दरअसल, विज्ञान की देन है जिस के तहत उन्हें चूल्हे के धुएं से मुक्ति मिल गई है. किचन में ओवन और फ्रिज जैसे सहूलियत वाले आइटम रखे हैं. ये और ऐसी कई बातें हैं जो महिला की परंपरागत इमेज को तोड़ती हैं.

सोचा और पूछा तो यह जाना चाहिए कि क्या महिला का व्रतउपवास रखना छुड़वा दिया गया? क्या मासिकधर्म के दिनों में उस पर थोपी गई बंदिशें दूर या खत्म हो गईं? क्या विधवा विवाह होने लगे? नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ है. उलटे, उस पर होने वाले अत्याचार और बलात्कार बढ़ रहे हैं. उस के प्रति बेतहाशा अपराध भी बढ़ रहे हैं. जिस माहौल की दुहाई दे कर सभी को बरगलाने की कोशिश की जाती है उस के दायरे में 5 फीसदी महिलाएं भी पूरी तरह नहीं आतीं. इसी का ढिंढोरा पीट कर और उस की आड़ ले कर जताया जाता है कि देखो, जमाना बदल गया है. इसी ?ाठ को ले कर चीफ जस्टिस एन वी रमण को टिप्पणी करनी पड़ी कि ‘दुर्भाग्य से बहुत सी चीजें देर से आकार लेती हैं.

’ बात अकेले सनातन धर्म की नहीं है बल्कि इसलाम और ईसाई धर्म भी महिलाओं से भेदभाव व असमानता करने में उन्नीस नहीं हैं. उन के धर्मग्रंथों और दुकानदारों की भाषा अलग है लेकिन भाव एक से हैं कि औरत को शिक्षा का अधिकार नहीं और वह पुरुष की दासी है और ऐसा वे नहीं कहते बल्कि ऊपर वाले का आदेश है. ये तीनों और दूसरे सभी धर्म स्त्री की योनि की पवित्रता को ले कर भी एकमत हैं. मकसद यह है कि औरत अपने फैसले खुद न लेने लगे, इसलिए उस पर नैतिकता, आदर्श और उसूल इतनी तादाद में थोप दो कि वह अपने बारे में इस से ज्यादा कुछ सोच ही न पाए. इसलिए आरक्षण की बाबत एक पुरुष को उसे सोचने और पहल करने को कहना पड़ा, चूंकि वह पुरुष धर्मगुरु नहीं है, इसलिए उस की बात सिमट कर रह गई है. माहौल खास कुछ नहीं बदला है. खासतौर से महिलाओं के प्रति धर्म और पुरुषों का नजरिया, जो आया धार्मिक मान्यताओं के चलते है.

यह कितनी साजिशभरी बात है कि किसी ने चीफ जस्टिस के वक्तव्य पर गौर नहीं किया सिवा सुप्रीम कोर्ट की इनीगिनी महिला वकीलों के. उस से भी बड़ी साजिशभरी बात है, महिलाओं को मिले अर्पणतर्पण के अधिकार का राग अलापना जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं होना. हां, महिलाओं का पिछड़ापन यथावत रहेगा, यह जरूर सम?ा आ गया. अब अगर महिलाओं को न केवल न्यायपालिका में बल्कि हर जगह बराबरी का अधिकार चाहिए तो उन्हें धार्मिक पाखंड, रूढि़यां और बेडि़यां तोड़ते वाकई गुस्से में चिल्लाना पड़ेगा. द्य इन की नजर में तो फरेब है औरत दुनिया के सारे धर्म पितृसत्तात्मक और पुरुषप्रधान हैं जिस का प्रभाव समाज में आज भी दिखता है. सारे धर्मग्रंथ भी चूंकि कथित ईश्वर के कथित आदेश पर पुरुषों ने रचे हैं, इसलिए उन्होंने खुद को श्रेष्ठ और महिलाओं को दीनहीन बताने में खूब दरियादिली दिखाई है. धर्म पूरी तरह स्त्रीविरोधी न दिखे, इस के लिए कुछ जगह उसे देवी, पुरुष की पूरक और जननी कहना तत्कालीन रचनाकारों की मजबूरी हो गई थी, नहीं तो उन्हें पानी पीपी कर कोसा गया है.

आज जब अधिकतर क्षेत्रों में महिलाएं अपने दम पर पुरुषों को पछाड़ रही हैं तो उन्हें बराबरी का आरक्षण देने की वकालत भी एक दफा किसी साजिश के तहत की गई बात लगती है और इस बात में कोई हैरानी किसी को नहीं होनी चाहिए. मनुस्मृति और दूसरे धर्मग्रंथों में स्त्री को बारबार अपवित्र और असत्य यानी फरेब भी कहा गया है. आइए कुछ उदाहरण देखें- असत्य जिस तरह अपवित्र है उसी भांति स्त्रियां भी अपवित्र हैं. पढ़नेपढ़ाने, वेद मंत्र बोलने या उपनयन का स्त्रियों को अधिकार नहीं है. (मनुस्मृतिर् अध्याय-2, श्लोक-66 और अध्याय-9, श्लोक-18) महिला आरक्षण देने की पहल बेशक अच्छी है पर क्या इस शर्त पर यह संभव है कि उसे पढ़नेपढ़ाने का हक ही न दिया जाए.

यहां यह तर्क स्वभाविक रूप से कोई भी कर सकता है कि ‘अब क्या दिक्कत है अब तो महिलाएं पढ़लिख कर नौकरियों में भी खूब आ रही हैं. ये तो गुजरे कल की बातें हैं, जिन का आज कोई औचित्य नहीं.’ यदि ये गुजरे कल की बातें हैं तो रामायण और गीता सहित तमाम धर्मग्रंथ भी गुजरे कल की बात हैं, फिर क्यों हम इन में वर्णित देवीदेवताओं का पूजापाठ करते उन्हें आदर्श कह कर प्रचारित व जीवन में उतारने की बात किया करते हैं. उन का भी तो आज कोई औचित्य नहीं होना चाहिए. यह भी शायद ही कोई सज्जन बता पाएं कि आज अगर कुछ महिलाएं पढ़लिख कर आगे आ गई हैं तो उस में धर्म, शंकराचार्यों, मठाधीशों और धर्मगुरुओं का क्या योगदान है? हां, यह जरूर स्वयंसिद्ध बात है कि दक्षिणा ?ाटकने और पिछड़ा रखने के लिए महिलाओं को अंतिम संस्कार व श्राद्ध जैसे कर्मकांडों में उल?ा दिया गया है. यह तो हुई आज की बात. द्वापर युग में तो धर्म के ठेकेदारों ने औरत को खालिस फरेब बताया है. अमृता स्त्रिय इत्येवं वेदेष्व्पी हि पठ्यते 7 धर्मोयं पूर्विका संज्ञा उपचार: क्रियाविधि: 77 अर्थात, वेदों में भी यह बात पढ़ी गई है कि स्त्रियां असत्यभाषिणी होती हैं.

ऐसी दशा में उन का वह असत्य भी सहधर्म के अंतर्गत आ सकता है किंतु असत्य कभी धर्म नहीं हो सकता. सो, दांपत्य धर्म को जो सहधर्म कहा गया है, यह उस की गौण संज्ञा है. पतिपत्नी साथ रह कर जो भी कार्य करते हैं उसी को उपचारत: धर्म नाम दे दिया गया है. (महाभारत- अनुशासन पर्व-7) और अमृत: स्त्रियइत्येवं सूत्रकारो व्यवस्यति 7 यदानृत: स्त्रियस्तात सहधर्म: कुत: स्मृत: 77 अर्थात, धर्म सूत्रकार यह निश्चित रूप से कहते हैं कि स्त्रियां असत्यपरायण होती हैं. तब जब स्त्रियां असत्यवादिनी ही हैं तब उन्हें साथ रख कर सहधर्म का अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है.

खौफ- भाग 2 : हिना की मां के मन में किस बात का डर था

लेखिका- डा. के रानी 

‘‘मम्मी प्लीज, मैं कोई बच्ची नहीं हूं. 16 साल की हो गई हूं. मु?ो भी अपने भलेबुरे की पहचान है.’’ ‘‘जानती हूं, फिर भी मैं कुछ मामलों में बिलकुल रिस्क नहीं उठा सकती.’ ‘‘इस में रिस्क की क्या बात है? हम सब आपस में रिश्तेदार हैं.’’

‘‘तुम नहीं सम?ाती अनन्या. बस, मेरी बात मान लो. मैं जानती हूं कि तुम्हें यह सब देखसुन कर बुरा लगता है, फिर भी इस से आगे कुछ मत कहो और इस टौपिक को यहीं खत्म कर दो.’’

अपना सामान व्यवस्थित कर के वह राशि दी के पास चली गई. राशि दी एकएक कर के उसे शादी का सामान दिखा रही थीं और अनन्या उस पर अपनी टिप्पणियां दे रही थी. उस के बाद वह ईशा के साथ आ गई.

खाना खाने के बहुत देर बाद अनन्या मम्मी के पास आई. हिना उस समय राशि के साथ बातें कर रही थी. बातें तो एक बहाना था. दरअसल, वह उसी के आने का इंतजार कर रही थी. दोनों कमरे में आ कर कुछ देर बातें करती रहीं और फिर आराम से सो गईं.

अगले दिन सुबह से ही मेहमानों का आनाजाना शुरू हो गया था. राशि दी के परिवार में यह पहली शादी थी. सारे रिश्तेदार शादी में शामिल होने सपरिवार आए थे. बूआ, मौसी, चाचा, ताऊ और छोटे दादाजी सब अपने परिवार के साथ पहुंच गए थे. घर पर रिश्तेदारों का मेला लग गया था. सभी के बच्चे जवान थे. कुछ की शादी हो चुकी थी और उन के साथ छोटे बच्चे भी आए हुए थे. यह सब देख कर राशि दी बहुत खुश थीं. वे खुद भी बहुत व्यवहारकुशल थीं. हरेक के सुखदुख में शामिल होने वे सब से पहले पहुंच जातीं. इसी वजह से सभी लोग ईशा की शादी में एक दिन पहले ही पहुंच गए थे.

सुबह से ही घर में शादी की रस्में चल रही थीं. हिना राशि दी के साथ हर काम में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही थी. अनन्या कजिन के साथ बातों में व्यस्त थी. सब अपने कामों में लगे थे. जवान लड़कियों को सजनेसंवरने और शाम को होने वाले महिला संगीत में विशेष रुचि थी. उन्होंने पहले से ही प्रोग्राम बना लिया था कि सब मिल कर खूब धमाल मचाएंगे. इस के लिए वे दिनभर तैयारी करते रहे थे.

शाम हुई. अच्छेखासे जलपान के बाद अधिकांश अपने घर चले गए. अब युवाओं की महफिल सजने लगी थी. डैक पर नए गाने बज रहे थे और उस की धुन पर सभी युवा थिरक रहे थे. उस में पासपड़ोस के युवा भी शामिल थे. आए हुए युवा मेहमानों के कुछ दोस्त भी शादी में शिरकत कर रहे थे. अनन्या गुलाबी लहंगे में बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस की दीपक मामा के बेटे सिद्धार्थ से बहुत अच्छी पटती थी. वे दोनों साथ मिल कर दिनभर से प्रैक्टिस कर रहे थे. शाम को उन का प्रदर्शन सब से अच्छा था. सब उन्हें बधाई दे रहे थे.

हिना को यह कार्यक्रम बहुत अच्छा लगा. रात को खाना खाने के बाद उन्होंने और भी प्रोग्राम बना लिए थे.रात के 12 बज चुके थे. सब लोग सोने की तैयारी करने लगे. कल के जश्न के लिए सभी को रात देर तक उठे रहना था. हिना अभी तक युवाओं के साथ बैठी हुई थी. सिद्धार्थ बोला, ‘‘बूआ, तुम भी सो जाओ. थोड़ी देर और मस्ती कर के हम सब भी सोने चले जाएंगे.’’‘‘मु?ो नींद नहीं आ रही है. तुम लोगों के कार्यक्रम बहुत अच्छे लग रहे हैं. ऐसा मौका बारबार कहां मिलता है?’’

‘‘जैसी आप की इच्छा. मु?ो लगा, शायद आप जबरदस्ती यहां बैठी हैं.’’उस की बात सुन कर अनन्या ने एक नजर मम्मी पर डाली, लेकिन बोली कुछ नहीं. वह अच्छे से जानती थी कि मम्मी उसी की वजह से इतनी रात तक जागी हुई हैं, अन्यथा वे रोज 10 बजे ही सोने चली जाती हैं. हिना के साथ के सभी लोग सोने जा चुके थे. एकमात्र वही थीं जो उन युवाओं के बीच बैठ कर उन के कार्यक्रमों का मजा ले रही थीं.

रात के एक बजे कार्यक्रम खत्म हुए और सब अपनेअपने कमरों में सोने चले गए. अनन्या भी मम्मी के साथ कमरे में आ गई. हिना को लग रहा था, आज उस के कारण शायद वह आहत हुई है. हिना बोली, ‘‘सो जा बेटा. कल भी तुम्हें सारी रात जागना है.’’‘‘नींद की जरूरत मु?ा से ज्यादा आप को है मम्मी. आप की नींद पूरी न हो तो आप सुबह बड़ी चिड़चिड़ी सी हो जाती हैं. क्या जरूरत थी इतनी देर तक वहां बैठे रहने की?’’

‘‘मु?ो तुम्हारा डांस बहुत अच्छा लग रहा था.’’‘‘ज्यादा बहाने बनाने की जरूरत नहीं है मम्मी. मु?ो सब पता है कि आप मेरी चौकीदारी के लिए वहां बैठी थीं.’’‘‘ऐसा क्यों सोचती है तू? मु?ो तेरी चिंता रहती है, बस.’’‘‘ऐसी चिंता किस काम की, जिस पर मम्मीपापा चौकीदार नजर आने लगें.’’

अनन्या की बात पर हिना कुछ नहीं बोली और चुपचाप बिस्तर पर लेट गई. उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि वे अनन्या को किस तरह सम?ाएं. आज के जमाने में युवा लड़कियों को जितना खतरा बाहर से है, उस से अधिक खतरा अपने लोगों से है. बाहर वालों के खिलाफ तो खुल कर आवाज उठाई जा सकती है, लेकिन घर वालों के खिलाफ मुंह खोलने के लिए बहुत अधिक साहस चाहिए.

यह सोच कर वे अतीत में गोते लगाने लगीं. वह बचपन से मम्मीपापा के साथ कानपुर में रहती थी. शहर के नजदीक होने की वजह से उन के घर मेहमानों का आनाजाना लगा रहता. ताऊजी, चाचाजी, बूआजी, मामाजी व अन्य दूर के सभी रिश्तेदार अकसर मम्मीपापा से मिलने आ जाते. कभी कोई बीमार पड़ता तो वह उन्हीं के घर पर महीनों तक डेरा डाल लेता.

मम्मी के बड़े भाई गणेश मामा के 2 जवान बेटे थे. उन में से बड़े बेटे शेखर की कम उम्र में ही शादी हो गई थी और वे एक कंपनी में नौकरी करते थे. जबकि छोटा बेटा अभी पढ़ाई कर रहा था. वह हिना के बड़े भाई रमेश का हमउम्र था. बचपन से हिना उन के साथ घुलीमिली थी. अकसर वे उन के घर आतेजाते रहते. गणेश मामा कानपुर में ही रहते थे. मम्मी अपने भतीजों का बहुत ध्यान रखती.

एक बार शेखर की तबीयत खराब हो गई. उन के फेफड़ों में पानी भर गया था.मामा को शेखर की देखभाल करने में परेशानी हो रही थी. यह देख कर मम्मी ने उन्हें अपने घर पर बुला लिया, जिस से उन की ठीक से देखभाल हो सके.

शेखर की उम्र तकरीबन 26 साल की थी और वे एक बच्चे के पिता भी बन चुके थे. उन की पत्नी रूपा मामी गांव में थी. मम्मी ने बड़े भैया का कमरा उन्हें दे दिया. वह दिनरात उन की खिदमत में लगी रहती ताकि वे जल्दी ठीक हो कर नौकरी पर चले जाएं.

हिना और उस का छोटा भाई अरुण एक ही कमरे में अलग बिस्तर पर सोते. मम्मीपापा का अलग कमरा था. हिना के कमरे से लगा हुआ बड़े भैया का कमरा था. गरमी में मच्छरों के आतंक से बचने के लिए सभी के बिस्तर पर मच्छरदानी लगी रहती.

एक दिन उस ने महसूस किया कि रात में कोई उस की मच्छरदानी खींच रहा है.  कुछ देर बाद एक हाथ मच्छरदानी के अंदर उस के पैरों तक पहुंच गया. हिना ने पूरा जोर लगा कर उसे ?ाटक दिया. कुछ देर बाद उसे वही हाथ अपने शरीर पर रेंगता हुआ महसूस हुआ. उस ने उस पर दांत गड़ा दिए तो हाथ तेजी से मच्छरदानी से बाहर निकल गया.

इस घटना के बाद वह सुकून से सो न सकी. उसे महसूस हो गया कि यह किस का हाथ था, लेकिन वह कुछ कह न पाई.सुबह उठ कर उस ने मम्मी से इस का जिक्र नहीं किया. छोटा भाई निश्ंिचत हो कर बगल की चारपाई पर सोया था. उसे इस का इल्म तक न था. दूसरे दिन उस ने मम्मी से पूछा, ‘‘शेखर भैया कब तक यहां रहेंगे?’’‘‘अभी उन की तबीयत ठीक नहीं है. हो सकता है कि कुछ हफ्ते और लग जाएं.’’

‘‘मम्मी, आप उन्हें उन के घर भेज दो.’’‘‘तु?ो क्या परेशानी है उन से? बेचारा एक कमरे में पड़ा रहता है. उस की तबीयत सुधर जाएगी, तो मैं खुद ही उसे जाने के लिए कह दूंगी. तू जानती है कि तेरी मामी यहां नहीं रहती. घर में उस की देखभाल करने वाला कोई नहीं है,’’ मम्मी बोली.

‘‘अब उन की तबीयत काफी सुधर गई है. वे चाहें तो मामी को गांव से बुला सकते हैं.’’ ‘‘बहकीबहकी बातें कर रही है तू? वह मेरा भतीजा और तेरा भाई है. रमेश और उस में क्या फर्क है? तु?ो भी उस का खयाल रखना चाहिए.’’ उन का तर्क सुन कर वह चुप हो गई.

अगले दिन रात को फिर वही घटना घटी. इस बार सुरक्षा के तौर पर हिना ने मच्छरदानी बहुत अच्छी तरह से गद्दे के नीचे दबा दी और अपने साथ बिस्तर पर टौर्च रख ली. मच्छरदानी खिंचने के साथ हाथ महसूस करते ही वह ?ाट से उठ कर बैठ गई और जोर से बोली, ‘‘कौन है?’’उस की आवाज और टौर्च की रोशनी से मम्मी उठ गईं. वे तुरंत उस के पास पहुंच कर बोलीं, ‘‘क्या हुआ हिना?’’

‘‘मम्मी, मु?ो लगा जैसे कोई मेरी मच्छरदानी खींच रहा है. खतरा महसूस होते ही मैं ने टौर्च जला दी. सामने शेखर भैया खड़े थे.’’उसे देख कर मम्मी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हुआ शेखर? तुम यहां कैसे चले आए?’’ ‘‘बूआजी, बहुत जोर की प्यास लगी थी. पानी खत्म हो गया. वही लेने जा रहा था. शायद दरवाजा खुलने की आवाज से हिना डर कर उठ गई.’’

‘‘कोई बात नहीं बेटा. तू आराम कर. मैं पानी ला कर रख देती हूं,’’ कह कर उस ने जग भर पानी उन के कमरे में रख दिया.आज रात इतना कुछ अपनी आंखों से देख कर भी मम्मी को कुछ सम?ा नहीं आया था. हिना परेशान थी कि यह बात उन्हें कैसे सम?ाए? सीधे इलजाम लगाने पर बात बहुत बढ़ सकती थी और अंत में उसे ही चुप करा दिया जाता. लिहाजा, वह चुप ही रही.

अगली रात सोने से पहले उस ने मम्मी को हिदायत दे दी, ‘‘मम्मी, शेखर भैया के कमरे में हर चीज पहले से ही रख दिया करो. जरा सी खटपट होने पर मेरी नींद खुल जाती है. मु?ो रात में किसी का कमरे में आना अच्छा नहीं लगता.’’

 

Bigg Boss 15: Pratik की वजह से रद्द हुआ कैप्टेंसी टास्क! उमर को गधा कहने पर ट्रोल हुए कऱण

Bigg Boss 15 Promo:  बिग बॉस 15 के घर में बीते रोज काफी घमासान देखने को मिला. दरअसल, बिग बॉस लाइव फीड में घर में हो रहे कैप्टेंसी टास्क के दौरान कंटेस्टेंट के बीच काफी बहस बाजी हुई. पहले दिन तो घरवालों ने पूरी शिद्दत के साथ बिग बॉस 15 का ये टास्क पूरा किया लेकिन दूसरे दिन गेम पूरा हदल गया.

पहले तो शमिता शेट्टी ने उमर रियाज को डिसक्वालिफाई कर दिया. जिसके बाद दोनों में जमकर तूतू मैंमैं हुई और उमर ने शमिता को ये कह दिया कि वो खुद को बिग बॉस न समझे. उसके बाद जब टास्क में कोई भी टीम नहीं जीत पाई तो बिग बॉस ने सबसे आपसी सहमति से 2 नाम मांगे कैप्टेंसी के लिए. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और इसका ठीकरा प्रतीक के सर पर मढ़ा गया.

प्रतीक की इस डिमांड की वजह से रद्द हुआ टास्क

दरअसल, शो के लेटेस्ट प्रोमो में आप देखेंगे कि घरवाले आरोप लगा रहे हैं कि प्रतीक सेहजपाल की वजह से कैप्टेंसी टास्क रद्द हुआ है. दरअसल, सभी घरवाले विशाल कोटियान और जय भानुशाली का नाम कैंप्टेंसी के लिए दे रहे थे. क्योंकि इससे पहले बिग बॉस ओटीटी के कंटस्टेंट शमिता शेट्टी और निशांत लगाकर कैप्टन बने थे. इसलिए घरवाले चाहते थे कि अब नए कंटेस्टेंट में से कोई एक कैप्टन बनें. लेकिन प्रतीक इस बात से सहमत नहीं था और उसने खुद का नाम कैप्टेंसी के लिए आगे बढ़ाया, जिससे कोई भी सहमत नहीं हुआ. क्योंकि प्रतीक भी बिग बॉस ओटीटी का ही हिस्सा था.

 

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जिसके बाद सब प्रतीक सेहजपाल के खिलाफ हो गए औऱ उसे जमकर खरीखोटी सुनाई हालांकि प्रतीक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. प्रोमो में प्रतीक सेहजपाल कहते नजर आ रहे हैं कि वो अपने लिए स्टैंड लेंगे और सबको भेड़चाल का हिस्सा बनना है तो वो शो छोड़ सकते हैं.

करण कुंद्रा ने उमर को कहा गधा, फैंस ने किया ट्रोल

दूसरी तरफ कैप्टेंसी टास्क के संचालक करण कुंद्रा ने बातों बातों में उमर रियाज को गधा कह दिया, जिससे फैंस बेहद खफा है. दरअसल, विरोधी टीम ने उमर रियाज की टीम को जमकर टॉर्चर किया. घरवालों ने उमर रियाज और उनकी टीम की हालत खराब कर दी थी. इस दौरान करण कुंद्रा, उमर रियाज की मजाक बनाते नजर आए. करण कुंद्रा ने शमिता शेट्टी से कहा कि उमर रियाज इसी लायक है. उमर रियाज तो एक गधा है और गधे के साथ ऐसा ही होना चाहिए.

उमर रियाज के फैंस को करण कुंद्रा का ये बयान जरा भी पसंद नहीं आया. यही वजह है जो उमर रियाज के फैंस ने करण कुंद्रा की सोशल मीडिया पर जमकर क्लास लगा दी है.  कुछ फैंस तो ऐसे भी हैं जिन्होंने गुस्से में करण कुंद्रा की तुलना गधे से करनी शुरू कर दी है.

फोटो क्रेडिट- वूट इंस्टाग्राम

मधुमक्खीपालन-अतिरिक्त आय का साधन

लेखक- डा. शैलेंद्र सिंह, डा. एसके तोमर, डा. एसके सिंह और डा. एसपी सिंह, डा. प्रेमशंकर

मधुमक्खी पालन को खेती के साथसाथ भी किया जा सकता है. मधुमक्खी पालन पालन करने से किसानों की आमदनी तो बढ़ती ही है, साथ ही साथ उन क्षेत्रों में फसल की पैदावार भी बढ़ती है, जहां मधुमक्खी के बक्से लगाए जाते हैं.

मधुमक्खी पालन के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप के पास खेती की जमीन ही हो. आप दूसरों के साथ मिल कर भी यह काम आसानी से कर सकते हैं.

बहुत से मधुमक्खी पालक ऐसे हैं, जो देशभर में मौसम के हिसाब से अपने मधुमक्खीपालन बक्सों को एक जगह से दूसरी जगह ले जा कर लगाते हैं और मधुमक्खीपालन का काम बेहतर तरीके से करते हैं.

लेकिन इस बात का ध्यान जरूर रखें कि इस काम को शुरू करने से पहले मौनपालन की ट्रेनिंग जरूर हासिल कर लें. इस से आप को मधुमक्खीपालन की जानकारी, उस में उपयोग होने वाले उपकरणों की जानकारी, बाजार की जानकारी आदि भी मिलेगी, जो आप को बेहतर मधुमक्खीपालक बनने में मददगार साबित होगी.

मधुमक्खी यानी मौनों के प्राकृतिक स्वभाव जैसे खोखलों में रहने, अनेक समानांतर छत्ते बनाने, छत्ते के ऊपर के भाग में मधु संचय करने और 2 छत्तों के बीच समान अंतर होने के स्वभाव के कारण ही इन्हें विशेष आकारप्रकार के बने लकड़ी के बक्से (मौनगृह) में रख कर पाला जाता है.

मौन प्रबंधन

इतना ही नहीं, मौनों से अधिक से अधिक लाभ हासिल करने के लिए मौनचर आकलन, मौनवंश व्यवस्था, मौन उपकरणों का सही से रखरखाव कर के भरपूर मधु उत्पादन करने और परपरागण का लाभ लेने के लिए मौनों की उचित देखभाल मौसम के अनुसारकरनी चाहिए.

मौनवंश का निरीक्षण :

मौनवंशों की जरूरतों को जानने के लिए हमेशा उन पर नजर रखनी चाहिए, ताकि मौनपालक को अपने मौनवंश की स्थिति का सही पता रहे. मौनवंश को 10-12 दिन के अंतराल पर उन की प्रगति जानने के लिए खोल कर देखना चाहिए.

निरीक्षण करते समय निम्नलिखित बातों की जानकारी लेना बहुत जरूरी होता है :

* मौनवंश में रानी है या नहीं.

* रानी मधुमक्खी द्वारा अंडे देने का काम सही ढंग से चल रहा है या नहीं.

* शिशुखंड के छत्तों में पर्याप्त मधु या पराग का संचय है या नहीं.

* छत्तों में विभिन्न अवस्थाओं के शिशु का अनुपात ठीक है या नहीं.

* रानी मधुमक्खी को अंडा देने के लिए पर्याप्त स्थान है या नहीं.

* मौन शत्रुओं या रोगों के बारे में जानकारी हासिल करना.

कृत्रिम भोजन : मौनवंश में कभीकभी भोजन की कमी हो जाने पर उस की पूर्ति के लिए और मौनवंश के काम को गति देने के लिए कृत्रिम भोजन देने की जरूरत होती है.

एक सामान्य मौनवंश के पास 2 किलोग्राम मधु व पराग का संचय होना चाहिए. इस से कम मात्रा होने पर मौनों को कृत्रिम भोजन देना चाहिए. आमतौर पर चीनी और पानी को बराबर की मात्रा में उबाल कर बनाया गया घोल ठंडा करने के बाद मंद या तीव्र भोजन पात्रों में दिया जाता है.

गरमी के दिनों में मैदानी क्षेत्रों में अधिक पतला 20-25 फीसदी चीनी के शरबत की जरूरत पड़ती है. बरसात और शीतकालीन मौसम में पूरक भोजन (कैंडी) के रूप में चीनी खिलाई जाती है. वैसे, एक मौनवंश को 400 ग्राम चीनी का शरबत प्रति सप्ताह देना सही होता है.

मौनवंश में रानी को प्रवेश कराना :

कभीकभी मौनवंश की रानी गायब हो जाती है या पुरानी रानी को बदलने की जरूरत होती है. ऐसी दशा में या तो पूरी तरह से विकसित

रानी कोष अथवा अंडा देने वाली रानी को रानीपाश (क्वीन केज) में रख कर और उस के द्वार को मधु व चीनी के मिश्रण से बंद कर के शिशु खंड को 2 फ्रेमों के बीच में रख देना चाहिए.

ध्यान रहे कि रानीपाश का द्वार नीचे की ओर रहे. यह रानीपाश मौनवंश में रखने के बाद मौन द्वार में भरे हुए मिश्रण को खाएगी. इस में कुछ घंटों का समय लग जाता है. इस बीच रानी के शरीर में उस मौनवंश की गंध पूरी तरह फैल जाएगी और मौन उसे स्वीकार कर लेगी. रानी मधुमक्खी को शहद में डुबो कर दूसरे मौनवंश में भी दिया जा सकता है.

दो मौनवंशों को मिलाना :

जब कोई मौनवंश किसी कारणवश कमजोर या रानीविहीन हो जाता है या उस में जननी कर्मठ (लेइंग वर्कर) हो जाती है, तो ऐसे मौनवंश को किसी दूसरे को औसत शक्ति के मौनवंश के साथ मिला देते हैं.

इस के लिए ऐसे मौनवंश को प्रतिदिन 2 से 3 फुट खिसका कर पहले एकदूसरे के पास ले आते हैं और शाम के समय शिशुखंड के अंतरपट के आकार का अखबार कागज, जिस से मौनगृह ढका जा सके, माचिस की तिल्ली से छेद कर के दोनों को गाढ़ा शरबत लगा दें.

इस कागज को रानी मौन वाले शिशुखंड के ऊपर अंतरपट वाले स्थान पर रख दें और उस के ऊपर रानीविहीन मौनवंश की शिशुखंड रख कर उस के ऊपर अंतरपट लगा कर ऊपरी ढक्कन से बंद कर दें.

रातभर में इस मौन अखबार के कागज के अगर टुकड़े पड़े मिले और मौनवंश का काम समान रूप से चल रहा हो, तो सम?ा लेना चाहिए कि दोनों मौनवंश आपस में मिल गए हैं.

मौनवंश का विभाजन :

मौनवंशों की वृद्धि के लिए अथवा ऐसी स्थिति में, जबकि उस की बकछुट प्रवृत्ति तीव्र हो, मौनवंशों को विभाजित करने की जरूरत होती है. मौनवंश को आधे फ्रेम निकाल कर खाली मौनगृह में रख दें और दोनों मौनगृह को ढक दें.

इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि शिशु और भोजन संचय वाले फ्रेम मौनों सहित दोनों मौनग्रहों में बराबरबराबर बंट जाएं.

अब मौनवंश को अपने स्थान से इतना खिसका दें कि उस से घिरा पूरा स्थान खाली हो जाए, ताकि जो मौन बाहर से आई हुई हैं, दोनों मौनवंशों में बराबरबराबर हो जाएं. इस के 2 या 3 दिन बाद मौनवंशों को अलगअलग कर दें.

मौनवंश में बच्चा मौन देना : कम उम्र की मौनों को कोई भी वंश स्वीकार कर लेता है, इसलिए इन्हें देने के लिए मौनगृह के सामने एक लकड़ी का पट्टा प्रवेश द्वार तक अखबार फैला दें.

अब जिस वंश से मौन देनी होती है, उस से मौनों सहित वापस चली जाती हैं, परंतु बच्चा मौन उड़ नहीं सकती है, इसलिए धीरेधीरे रेंग कर यह मौनवंश में चली जाती हैं. बच्चा मौनों को मौनवंश में तभी देना चाहिए, जबकि मौनवंश में विभिन्न आयु की मौनों का अनुपात सही न हो.

मौन उपकरण

मौनगृह :

आधुनिक मौनपालन का सब से महत्त्वपूर्ण उपकरण मौनग्रह है,  जो मौनांतर के सिद्धांत पर बनाया गया है.

मौनांतर वह खाली स्थान है, जो मौनें अपने कार्यकलाप के लिए अपने एक छत्ते के चारों ओर छोड़ती हैं अर्थात 2 छत्तों के बीच का वह अंतर है, जिस में मौनें आसानी से आ सकें.

मौनगृह की बनावट :

मौनगृह का निचला आधारपट्ट या तलपट होता है, जो आगे की ओर ढाल कर बना होता है. इस से आगे निकला हुआ भाग अवतरण पट्ट कहलाता है, जिस के सामने के भाग के एक अलग हो जाने वाली द्वार पट्टिका लगी होती है. आधारपट्ट के ऊपर शिशु खंड रहता है. शिशुखंड में कुछ चौखट (फ्रेम) रहते हैं, जिन में मौनें अपने छत्तों को बनाती हैं.

शिशुखंड के ऊपर एक मधुखंड होता है, जिस के छत्ते में मौनें मधु संचय करती हैं. इस के ऊपर ढक्कन के लिए अंतरपट होता है, जिस के बीच में वायु संचरण के लिए बड़ा सा छेद होता है. मौनगृह ऊपर से ऊपरी ढक्कन से ढका रहता है.

वैज्ञानिक पद्धति से मौनपालन के लिए आधुनिक मौनगृह, मौमी छत्ताधार और मधु निष्कासन यंत्र आवश्यक मुख्य उपकरण हैं. बाकी सभी सहायक उपकरणों की श्रेणी में आते हैं. कुछ प्रमुख मौन उपकरणों की जानकारी इस प्रकार है :

* मौमी छत्ताधार

* मधु निष्कासन यंत्र

* मुक्तक यंत्र (हाईव टूल)

* मुंहरक्षक जाली (बी वैल)

* चींटी निरोधक प्यालियां

* लोहे का स्टैंड

* डमी

* भोजन पात्र

* बकछुट थैला

* वाहक पिंजरा (कैरिंग केज)

* रानी अवरोधक जाली (क्वीन ऐक्सक्लूडर)

* रानी रोक द्वार (क्वीन गेट)

* रानीपाश (क्वीन केज)

* न्यूक्लियस मौनगृह

* तारकोस पटला

* दाब घिर्रा

इन उपकरणों के अतिरिक्त नर पाश, जालीदार ट्रेन, दस्ताने व मौन निर्वासक यंत्र हैं, जिन का उपयोग कभीकभी मौनपालन के काम के लिए किया जाता है.

मधुमक्खी (मौन) के रोग

अष्टपदी रोग :

यह रोग एकैरिपिस बुडई (रैनी) नामक सूक्ष्म अष्टपदी (माईट) के कारण होता है.

यों करें प्रबंधन :

रोगी मौनवंशों को शाम के समय मिथाइल सैलीसिलेट रसायन को खाली पैंसलिन की इंजैक्शन की शीशी में भर कर उस के ढक्कन में छेद कर रुई की बत्ती लगा देते हैं. इस शीशी को तलपट के एक किनारे पर अथवा फ्रेम की निचली छड़ पर रख देते हैं.

रुई की बत्ती के सहारे दवा ऊपर के ढक्कन में वाष्प छोड़ती है, जो पूरे मौनगृह में फैल जाती है. इस की वाष्प अष्टपदी को मार देती है.

इस दवा का इस्तेमाल लगातार 3 दिनों तक एकएक हफ्ते के अंतर पर किया जाता है. यह प्रक्रिया फिर से दोहराई जा जाती है.

नोसीमा रोग :

इस रोग से प्रभावित मौनें मौनगृह के बाहर बैठी हुई अपने पंखों के सहारे कांपती हुई मिलती हैं अथवा ये मौनें पीठ के बल पड़ी हुई पंखों को फड़फड़ाते हुए घूमती हुई मिलती हैं.

यों करें प्रबंधन :

रोगी मौनवंशों को शाम के समय में थाईमोल 60 मिलीग्राम या फिर फ्यूमिजिलिन 400 मिलीग्राम औषधि को गरम पानी के साथ बनाए गए 50 फीसदी के चीनी के एक लिटर घोल में मिला कर हर मौनवंश को तकरीबन 8 से 10 दिन तक

200 से 400 मिलीलिटर प्रतिदिन के हिसाब से खिलाना चाहिए.

कोष शिशु रोग :

यह रोग एक विषाणु द्वारा होता है, जिसे थाईसैक्ररूड वायरस कहते हैं. इस रोग में रोगग्रस्त छत्ता सिकुड़ा हुआ होता है और छिद्रयुक्त प्यूपाकोष के ढक्कन के साथ धूमिल प्रतीत होता है.

यों करें प्रबंधन :

मौनवंश में इस रोग का प्रकोप दिखाई देने पर मौनवंश को समूल नष्ट कर देना चाहिए और फ्रेमों, मौनगृहों व उपकरणों को कास्टिक सोडा के उबलते हुए पानी में साफ करना चाहिए.

* संक्रमित क्षेत्र में बकछुट नहीं पकड़ना चाहिए.

* रोगग्रस्त क्षेत्र से रोगमुक्त क्षेत्र में मौनवंशों का स्थानांतरण नहीं करना चाहिए.

* मौनवंशों में लूटपाट, बहकना या शिशु छत्तों का आदानप्रदान बिलकुल नहीं होने देना चाहिए.

* स्वस्थ मौनवंश, जिन में रोगरोधिता होती है, रानियां और मौनवंशों का प्रजनन कर के बढ़ाना चाहिए.

Diwali 2021 : दीयों की चमक – भाग 3

ना, वह रोएगी नहीं. कमजोर नहीं पड़ेगी. वहां से भागना चाहती है. टूटी हुई चप्पल…हाय रे, समय का फेर.

पति कार स्टार्ट कर जा चुके थे.  मुन्ने का हिलता हाथ नजरों से ओझल हो गया. वह टूटी चप्पल वहीं फेंक नंगेपांव घर लौट आई.

मां किताब पढ़ रही थीं. भाभियां अपनेआप में मस्त. किसी का ध्यान उस की ओर नहीं. वह बिस्तर पर कटे पेड़ के समान गिर पड़ी. हृदय की पीड़ा आंखों में आंसू बन बह चली. बचपन से ले कर आज तक की घटनाएं क्रमवार याद आने लगीं…

रमा के पिता व्यापारी थे. अच्छा खातापीता परिवार. दोनों भाइयों से छोटी रमा सब की लाड़ली, सुंदर, संस्कारी.

पिता के बाद भाइयों ने कारोबार संभाल लिया. भाभियां उस पर दिलों जान छिड़कतीं. भाईबहन का प्यार देख मां फूली नहीं समातीं. रमा रूपवती, मिलनसार लड़की थी. लेकिन मां के अत्यधिक लाड़प्यार, भाइयों के संरक्षण, भाभियों का दोस्ताना व्यवहार ने उसे कुछ ज्यादा ही भावुक बना दिया था. निर्णय लेने की क्षमता का उस में विकास नहीं हो पाया था. आगापीछा नहीं जानती थी. शायद यही सब उस के सर्वनाश का कारण बना और इसी सब ने उसे आज इस विकट स्थिति में खड़ा कर दिया.

“रमा बड़ी हो गई है, उस के लिए वर ढूंढने की जिम्मेदारी तुम दोनों भाइयों की और विवाह की तैयारी दोनों भाभियों की,” मां बेटी रमा के ब्याह के लिए चिंतित थी.

भाइयों ने इसे गंभीरता से लिया और उसी दिन से शुरू हुआ उचित वर, घर की तलाश. घरवर दोनों मनोनुकूल मिलना आसान नहीं.

कहीं लड़का योग्य तो घर कमजोर. कहीं घर समृद्ध लेकिन वर रमा के योग्य नहीं. इसी बीच गांवघर की बूआ अवध का रिश्ता ले कर आईं. वे कभी अवध के रूपगुण का बखान करतीं, कभी उस के ऊंचे खानदान व धनदौलत का. रमा छिपछिप कर सुनती, अपने भावी जीवन की कल्पना में डूबतीउतराती रहती.

रिश्ता पक्का हो गया. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ. लेनदेन में कोई कमी नहीं. वरपक्ष से कोई दबाव भी नहीं था. अवध के परिवार वालों को रमा भा गई थी. परिवार पसंद आ गया था.  शुरू में सबकुछ ठीकठाक रहा. अवध रमा पर जान छिड़कता था. मायके की तरह रमा ससुराल में भी सब की लाड़ली बनी हुई थी.

गर्भ में मुन्ना के आते ही अवध खुशी से झूम उठा. सासससुर, देवरननद ने रमा की बलैया ली. देखने वाले दंग. इतने वर्षों पश्चात घर में पहला बच्चा. रमा को सभी हथेली पर रखते. ‘बहू यह न करो, वह न करो,’ सासुमां लाड़ लगातीं.

‘लो बहू तुम्हारे लिए,’ ससुर का हाथ फल, मेवों अन्य पौष्टिक पदार्थों से भरा रहता.

और अवध… वह बावला रमा को पलभर के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता था.

दफ्तर से बारबार फोन करता. रोज बालों के लिए गजरा, उपहार लाता. गोलमटोल शिशुओं की तसवीरों से कमरा जगमगा उठा.

मां व भाई रमा को लाने गयेए. सासससुर ने हाथ जोड़ लिए. बेटी का सुख, मानसम्मान देख मां व भाई गदगद हो उठे.

मां व भाई चाहते थे कि जच्चगी मायके में हो. वहीं सास, ससुर, पति पलभर के लिए बहू को आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे.

रमा दोनों पक्षों के दांवपेंच पर मुसकरा उठती.

रमा ने स्वस्थ सुंदर बेटे को जन्म दिया. बड़ी धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया गया.

मां बन कर रमा निहाल हो उठी. जब देखो मुन्ने को छाती से चिपकाए रहती.

घरभर का खिलौना मुन्ना अपने बालसुलभ अदाओं से सब का मन मोह लेता.

‘रमा, बड़ा हो कर मुन्ना मेरी तरह इंजीनियर बनेगा,’ अवध की आंखें चमकने लगतीं.

‘नहीं, मैं इसे डाक्टरी पढ़ाऊंगी. लोगों की सेवा करेगा,’ रमा हंस पड़ती.

‘न डाक्टर न‌ इंजीनियर, यह मेरी तरह बैरिस्टर बनेगा,’ दादाजी कब पीछे रहने वाले थे.

‘कहीं नाना जैसा व्यापारी बना तो…’ नानी बीच में टपक पड़तीं.

सभी होहो कर हंसने लगते. हर्षोल्लास से लबालब थे मायके और ससुराल. किस की नजर लग गई.

आज उसी मुन्ने की जननी की सुध किसी को नहीं.

आखिर इस के पीछे कारण क्या है. मुन्ने के जन्म के बाद तीसरे महीने ही दिवाली का त्योहार और उस मनहूस दिवाली ने रमा व उस के मुन्ने की जीवनधारा पलट कर रख दी.

उस दिन घरबाहर खूब रंगरोशन  हुआ था. नाना प्रकार के पकवान, मिठाईयां, मेवों, उपहारों का ढेर लग गया था. रेशमी साड़ी और कीमती आभूषणों से लदीफंदी रमा पति का बेसब्री से इंतजार कर रही थी.

अवध देर से लौटे, साथ में एक सुंदर युवती थी. ‘रमा, यह मेरी कालेज की सहपाठी दिवा है.’

रमा ने हाथ जोड़ दिए, ‘नमस्ते.’

‌दिवा ने चुभती नजर रमा पर डाली, ‘कहां ढूंढा इतनी खूबसूरत पत्नी.’

‘अरे, तुम से कम ही,’ अवध का मजाकिया स्वभाव था.

किंतु रमा झेंप गई. अवध के इस बेतुके मजाक ने सीधे उस के दिल को टीस दी. दिवा जितनी देर रही, अवध से चिपकी रही. सुंदर वह थी ही, उस की दिलकश अदाएं, बात करने का अंदाज, बेवजह खिलखिलाना रमा को जरा भी नहीं सुहाया.

 

त्रिलोचन सिंह वजीर: रहस्यों में उलझी मौत

लेखक- शाहनवाज

9 सितंबर, 2021 की सुबह पश्चिमी दिल्ली के मोती नगर से सटे बसई दारापुर इलाके में एक 4 मंजिला मकान के दूसरी मंजिल पर रहने वाले अभिषेक को सुबहसुबह ही एक अजीब सी बदबू आई. यह बदबू ऐसी थी कि उसे सूंघने पर इंसान के हलक से पानी का घूंट तक न उतरे.

हालांकि अभिषेक को इस तरह की बदबू पिछले कई दिनों से आ रही थी. उस ने अपने  फ्लैट में इस बदबू को तलाशने की कोशिश भी की थी. उसे लगा की शायद उस के फ्लैट के किसी कोने में कोई चूहा मरा हो. लेकिन घंटों तलाशने के बाद भी उसे अपने कमरे में चूहा वगैरह मरा हुआ नहीं दिखाई दिया था.

9 सितंबर को तो हद ही हो गई थी. तेज बदबू को सहना मुश्किल हो गया. तब उस ने तय कर लिया कि वह बिल्डिंग में बाकी फ्लैटों में जा कर वहां  रहने वाले लोगों से बदबू आने का  कारण पूछेगा.

वह सीढि़यों का इस्तेमाल कर नीचे पहली मंजिल पर गया. इस बीच उस ने सीढि़यों को भी बड़े ध्यान से देखा कि कहीं यहीं तो कुछ नहीं मरा हुआ हो. पहली मंजिल पर पहुंच कर उस ने दरवाजा खटखटाया और उन से बदबू आने की वजह पूछी. उस फ्लैट में रहने वाले शख्स ने बताया कि वह खुद इस बदबू से पिछले कुछ दिनों से परेशान है.

अभिषेक ने पहली मंजिल पर रहने वाले शख्स को अपने साथ ले कर तीसरी मंजिल पर चलने के लिए कहा कि वे लोग उन से पूछेंगे कि आखिर मामला क्या है और बदबू क्यों आ रही है. वे सीढि़यों से ऊपर तीसरी मंजिल की ओर आगे बढ़े. जैसेजैसे वह तीसरी मंजिल के दरवाजे के करीब पहुंचे, बदबू और ज्यादा तीखी हो गई. इस के साथ ही उन के मन में चूहे के मरने का वहम भी खत्म हो गया क्योंकि वह बदबू दूसरी तरह की थी.

वे दोनों तीसरी मंजिल पर पहुंचे भी नहीं थे कि उन्हें अपनी जेब से रुमाल निकाल कर अपनी नाक पर रखने के लिए मजबूर होना पड़ा. तीसरी मंजिल के दरवाजे पर पहुंचते ही अभिषेक और उस के साथ मौजूद दूसरा शख्स बेहाल हो गए.

किसी तरह तीसरी मंजिल के दरवाजे पर पहुंच कर उन्होंने देखा कि कमरा बाहर से लौक किया हुआ है. लेकिन अभिषेक के मन में शक बढ़ता ही जा रहा था. उसे यह तो पता चल गया था कि बदबू चूहे के मरने की नहीं है, लेकिन वह इस के अलावा अंदाजा नहीं लगा पा रहा था कि किस वजह से बदबू इतनी तीखी और असहनीय है.

उस ने वक्त जाया न करते हुए तुरंत ही दिल्ली पुलिस के 100 नंबर पर फोन कर के इस पूरी घटना की सूचना दी.  इस के बाद वे दोनों वहां पुलिस के आने का इंतजार करने लगे.

करीब आधे घंटे में पुलिस कंट्रोल रूम की जिप्सी में कुछ पुलिसकर्मी आए और वह तुरंत मकान के तीसरी मंजिल पर जा पहुंचे. पुलिस टीम ने दरवाजे के बाहर लगे लौक को तोड़ा और वे कमरे में जा घुसे. हालांकि उस तीक्ष्ण बदबू में घुसने का काम आसान नहीं था. उन्होंने फ्लैट में बाहर के रूम में कुछ नहीं पाया,

तो पुलिसकर्मी अलगअलग कमरों में खोजने लगे.

इतने में बाथरूम में जा कर देखने वाले पुलिसकर्मी ने बाकियों को आवाज लगाई और देखा कि एक व्यक्ति की लाश सड़ी गली अवस्था में प्लास्टिक की काली पन्नी में लपेट कर रखी हुई थी.

यह देख कर सभी का माथा ठनक गया. आखिर ये लाश थी किस की? पीसीआर के पुलिसकर्मियों ने यह सूचना स्थानीय थाने को दे दी. थाना पुलिस ने तुरंत मौके पर पहुंचकर जांच की. क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम  को भी बुला लिया गया.  वह लाश किसी और की नहीं बल्कि जम्मूकश्मीर में नैशनल कौन्फ्रैंस पार्टी के नेता त्रिलोचन सिंह वजीर की थी.

सूचना मिलने पर पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी वहां पहुंच गए. मौके की काररवाई निपटाने के बाद लाश पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दी.

दरअसल, त्रिलोचन सिंह वजीर जम्मू कश्मीर की राजनीति का सिख चेहरा थे और राज्य में नैशनल कौन्फ्रैंस पार्टी के सीनियर लीडर भी थे. वह उमर अब्दुल्ला के करीबी थे. इस के साथ ही वह पिछले 3 दशकों से जम्मूकश्मीर में कमर्शियल परिवहन संभालते थे. त्रिलोचन सिंह वजीर कई धार्मिक और सामाजिक संगठनों के साथ भी जुड़े हुए थे और जम्मू कश्मीर में उन की खासी साख थी.

9 सितंबर को जब दिल्ली के बसई दारापुर इलाके से त्रिलोचन सिंह वजीर की सड़ीगली अवस्था में लाश मिलने की खबर फैली तो लोगों को अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. लेकिन सब से बड़ा सवाल यह था कि वह यहां पहुंचे कैसे?

त्रिलोचन सिंह वजीर के लिए 2 सितंबर का दिन खुशियों से भरा था. कनाडा में उन के परिवार में एक बच्चे ने जन्म लिया था यानी वह दादा बने थे. इस खुशी में त्रिलोचन सिंह जल्द ही कनाडा जा कर अपने परिवार के साथ वक्त गुजारना चाहते थे.

उन्होंने अगले दिन 3 सितंबर के दिन फ्लाइट बुक की थी लेकिन वह दिल्ली से जाने वाली थी. इसी के चलते 2 सितंबर की रात वह अपने जानकार हरप्रीत के घर बसई दारापुर में  रुकने के लिए आए थे.

उन के जानकार हरप्रीत ने सुबह की फ्लाइट पकड़ने के लिए उन्हें एअरपोर्ट छोड़ कर आने का आश्वासन दिया था. इसी वजह से त्रिलोचन सिंह वजीर दिल्ली में यहां पर आए थे.

चूंकि मामला राजनैतिक था, इसलिए लोकल पुलिस के अलावा क्राइम ब्रांच की टीमें भी इस केस को सुलझाने में जुट गईं. पुलिस की सभी टीमों ने एक्टिव हो कर काम किया. खबर फैलने के बाद अगले दिन ही मामले में आरोपी राजेंद्र चौधरी उर्फ राजू को जम्मू पुलिस ने जम्मू से गिरफ्तार करने में सफलता हासिल कर ली.

राजू ने यह खुलासा किया कि त्रिलोचन की हत्या उन्हें बेहोश करने के बाद की गई थी. राजू से पूछताछ में पुलिस को यह पता चला कि त्रिलोचन सिंह वजीर की हत्या में 4 लोग शामिल थे.

पुलिस पूछताछ में उस ने बताया कि त्रिलोचन को पहले खाने में बेहोशी की दवा दी गई थी. उस के बाद उसी हालत में उन्हें गोली मारी गई थी.

राजू ने कई खुलासे किए. उस ने बताया कि इस हत्या में अन्य आरोपी हरप्रीत ने अपने मामा की हत्या का बदला लेने के लिए त्रिलोचन सिंह की हत्या को अंजाम दिया था.

पुलिस ने 15 सितंबर को हत्याकांड में शामिल दूसरे आरोपी बिल्ला को जम्मू से गिरफ्तार कर लिया. और उस के कुछ दिनों बाद 19 सितंबर को तीसरा आरोपी हरप्रीत सिंह खालसा भी पुलिस के हत्थे चढ़ गया.

हरप्रीत सिंह खालसा वही शख्स था, जिस ने खुद को त्रिलोचन सिंह के सामने पत्रकार बताया था. हरप्रीत ने लगभग एक साल पहले त्रिलोचन सिंह वजीर से एक पत्रकार के रूप में अपना परिचय दिया था. हरप्रीत ने वजीर को कहा कि वह एक अखबार चलाता है जिस की 2 लाख प्रतियां छपती हैं, इस के अलावा उस की एक वेबसाइट भी है.

उस ने वजीर को विश्वास दिलाया था कि वह उन पर कहानियां प्रकाशित करेगा. इसी वजह से वजीर के उस से अच्छे संबंध हो गए और वजीर उस पर विश्वास करते थे.

इस हत्याकांड का चौथा आरोपी हरमीत सिंह पुलिस की पकड़ में नहीं आ सका. जिस की तलाश लगातार जारी है.

गिरफ्तार किए गए आरोपियों के बयानों से मृतक के घर वाले संतुष्ट नहीं है. उन का कहना है कि इस हत्या के पीछे कोई बड़ी साजिश है, इसलिए इस केस की जांच सीबीआई को सौंप दी गई. जो अपने तरीके से इस केस की गुत्थी को सुलझाने का काम कर रही थी. अब देखना यह है कि सीबीआई जांच में किन बड़े चेहरों का नकाब उतरता है?

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