अभी कुछ दशक पहले तक महिलाओं की स्थिति काफी असंतोषजनक थी. पुरुष मनमानी करता था. कभीकभी तो पति अपनी पत्नी के साथ या पुत्र द्वारा अपनी मां तथा परिवार की अन्य महिलाओं व बच्चों के साथ बहुत कठोर व्यवहार किया जाता था या उन का परित्याग ही कर दिया जाता था. ऐसी महिलाओं के समक्ष निर्वाह करने का संकट भी उत्पन्न हो जाता था. कानून से लाभ मिलने में समय बहुत अधिक लगता था. परित्यक्त महिलाएं अधिकतर मामलों में असहाय ही रहती थीं. अंगरेजों ने अपने शासनकाल में परित्यक्त महिलाओं की स्थिति को भलीभांति पहचान लिया था तथा कानून क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में वर्ष 1898 में ही ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि यदि साधनसंपन्न होने के बाद भी बिना किसी जायज कारण के विवाहित महिला का पति निर्वाह करने में उपेक्षा करता है या अपनी विधिक या अविधिक अवयस्क पुत्रपुत्रियों की उपेक्षा करता है तो उपेक्षित लोग मजिस्ट्रेट के समक्ष साधारण आवेदन कर के अपने पति या पिता से निर्वाह भत्ता प्राप्त कर सकते थे.
प्रथम बार, यह प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता 1898 की धारा 488 में किया गया था तथा उस समय भरणपोषण भत्ते की अधिकतम धनराशि 50 रुपए निर्धारित की गई थी, जो बढ़ा कर बाद में 200 रुपए कर दी गई थी. ऐसी व्यवस्था की गई थी कि कोई भी व्यक्ति इस प्रावधान का अनुचित लाभ न उठा सके तथा निर्वाह भत्ता देने वाले व्यक्ति के साथ भी कोई कठिनाई न हो. अंगरेजों द्वारा बनाया गया यह प्रावधान सभी धर्मों की औरतों पर समानरूप से प्रभावी होता था. इस प्रावधान ने विशेष रूप से परित्यक्त महिलाओं को, किसी सीमा तक आर्थिक संकट से मुक्ति दिलाई थी. मजिस्ट्रेटों के समक्ष काफी बड़ी संख्या में ऐसे आवेदन प्राप्त होते थे तथा उन का निबटारा भी शीघ्रता के साथ करा जाता था.