अनिरुद्ध के प्रेम में पागल सुजाता ने निखिल से शादी न करने के लिए घरवालों का कितना विरोध किया था. तर्कवितर्क किए थे. एक लड़की के पास जितनी भी सामर्थ्य होती है उतनी ही सीमा के भीतर रह कर अपनी अनिच्छा जताई थी उस ने. पर कर भी क्या लिया था सुजाता ने. जब उस ने अनिरुद्ध से भाग कर शादी करने के लिए कहा था तब कितनी आसानी से अनिरुद्ध ने कह दिया था, ‘अभी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और सपनों को छोड़ कर अगर तुम से शादी कर भी लूंगा तो जिंदगीभर अफसोस रहेगा.’
भारी सा मन लिए सुजाता ने अपनी बायीं ओर देखा. कंपार्टमैंट में और भी बच्चे थे. रात के एक बजे भी कुछ मोबाइल में सिर गड़ाए हुए थे तो कुछ बेवजह मस्ती के मूड में थे. 5 लड़के और एक लड़की…कोई झिझकशरम नहीं. व्यस्तता का दिखावा करने के लिए सुजाता की आंखें मुस्तैदी से किताब पर चाकचौबंद थीं और सभी इंद्रियां कानों में समाहित हो गई थीं. उन की बिंदास बातचीत से सुजाता को यह अंदाजा हो गया था कि उन में से 4 लड़के दिल्ली में आयोजित होने वाली रैली ‘गे दिवस’ में भाग लेने जा रहे थे. स्त्रीलिंगपुल्लिंग की जद्दोजेहद से परे ये कमिटेड लोग विभिन्न मुखौटों व रंगबिरंगे कपड़े पहन कर मार्च करेंगे और अपने हक के लिए समर्थन मांगेंगे. फिर भी इन्हें दुनिया से ज्यादा अपने परिवार से लड़ना होगा. जमाने के परिवर्तन का एहसास प्रतिदिन होने वाली इन छोटीबड़ी घटनाओं से ही होता है. आज की युवा पीढ़ी अब किसी के नियंत्रण में नहीं, बल्कि आजाद रहना चाहती है. उम्र की सीढ़ियां सभी चढ़ रहे हैं, मगर अलगअलग, अपनीअपनी सोच के दायरों में सीमित.
सुजाता की आंखों में लाइट पड़ रही थी. नींद न आने का फिलहाल यही कारण उसे समझ आ रहा था. चादर के ऊपर कंबल ओढ़ कर उस ने करवट ले ली थी. लेकिन नींद थी कि कोसों दूर कहीं और ही घेरा डाले बैठी थी.
कितना विश्वास था उसे अनिरुद्ध पर. कितनी आहत हुई थी. इस अनमोल एहसास की उम्र इतनी कम होगी, सोचा भी नहीं था. पर यह तो हो चुका था जब अनिरुद्ध ने कहा था कि उस ने मित्रता चुन ली है और आगे भी हम मित्र की तरह ही मिलेंगे.
और प्यार, उस का क्या? सुजाता स्तब्ध रह गई थी. कम से कम वह तो ऐसा नहीं कर सकती थी. उस ने तो प्रेम किया था, सच्चा, निस्वार्थ भाव से पूर्ण समर्पित हो कर.
अनिरुद्ध के इनकार के बाद सुजाता का मन उस के वश में कहां था. खुद को संयमित और नियंत्रित करना मुश्किल हो गया था. कितना रोई थी, गुस्से में, मजबूरी में सोचती कि अपनी जिंदगी के साथ जुआ खेलने के लिए वह ही दोषी थी. कहां गया वह सच कि कोई उस के प्रेम में पागल है. क्या कमी थी उस में, जो अनिरुद्ध उस से विमुख हो कर दूसरी दिशा में मुड़ गया था. उस का अहं लहूलुहान था. पर जब भी उस ने सहारा चाहा, निखिल को हमेशा खड़ा पाया. निखिल से उसे आज भी कोई शिकायत नहीं थी. बिना कोई सवाल किए जीवन के सभी सुख दिए थे उस ने.
थोड़ी देर बर्थ पर लेटेलेटे सुजाता ने आसपास की स्थिति का निरीक्षण किया. ट्रेन कितनी हिलती है, घर से निकले हुए उसे पूरे 5 घंटे हो चुके थे. इस उम्र में शरीर के प्राकृतिक बहाव को रोकना भी बेवजह डैंजर जोन में घुसने जैसा होता है. नैपकिन से हाथ पोंछती हुई जब सुजाता अपनी बर्थ की ओर लौट रही थी तब दरवाजे के पास ही खड़े 2 लड़के सिगरेट के छल्ले उड़ाने में संलिप्त थे. दोनों बड़ी ही ढिठाई से उस की ओर देख कर हंस रहे थे. वह कुढ़ कर रह गई थी. ‘बदतमीज बच्चे’… जेहन में उस के अपनी 21 साल की बेटी की तसवीर कौंध गई थी, वह भी अकेली ट्रेन में या होस्टल आतेजाते वक्त ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करती होगी. अपने आप से रूठी हुई सी सुजाता की चाल में तेजी आ गई थी. तभी दरवाजा खटाक से उस की कुहनी से जा टकराया और वह दर्द को इग्नोर करती हुई अपनी बर्थ पर आ कर लेट गई थी.
अचानक ही उसे याद आया और वह सामने की बर्थ पर लेटी हुई उस लड़की से पूछ बैठी थी, ‘‘गाजियाबाद कितने बजे आएगा?‘‘
‘‘6 बजे. पर आप को तो दिल्ली जाना है न? दिल्ली तो 7 बजे पहुचेंगे.”
झिझकते हुए जवाब दिया सुजाता ने, ‘‘कोई मिलने आएगा.‘‘ हालांकि इस ‘कोई’ शब्द को बोलने के लिए अच्छाखासा समय व स्ट्रैस पड़ा था उस पर.
6 बजे का अलार्म लगा कर सुजाता ने आंखें मूंद ली थीं. ‘कितने भी साल बीत जाएं, पर मैं तुम्हारी आंखों के इस लहराते समंदर को भीड़ में भी पहचान लूंगा.’
‘क्या वह पहचान पाएगा. इन आंखों की पीड़ा को अब 22 साल बाद भी?’ सोचतेसोचते न जाने कब उसे नींद ने आ घेरा था.
अलार्म के बजने से वह लगभग हड़बड़ाती, चादर फेंकते हुए पर्स दबाए गेट की तरफ दौड़ पड़ी थी. ट्रेन प्लेटफौर्म पर खड़ी हो चुकी थी. सुजाता का दिल तेजी से धड़कने लगा था. उस के सामने होने की तैयारी तो वह पिछले 15 दिनों से कर रही थी. अब बस होना था. अपने को साध कर सुजाता कंपार्टमैंट की सीढ़ियां उतरने लगी.