सुजाता ने खिड़की से झांक कर बाहर देखा. रातभर का सफर था लखनऊ से दिल्ली का. नीचे की बर्थ पा कर वह संतुष्ट थी. इस उम्र में ऊपर की बर्थ पर चढ़ने की सिरदर्दी से मुक्ति मिली.
थर्ड एसी के उस कंपार्टमैंट में ठंड न के बराबर थी. फिर भी सुजाता ने हलके से स्टौल में खुद को समेट लिया था. यह मौसम एकसार क्यों नहीं रहता. सारी ऋतुओं में एक 5वां मौसम प्यार का भी होता, तो जीवन कितना आसान होता.
दिल्ली में सैमिनार अटेंड करना तो बस एक बहाना था. दरअसल, गाजियाबाद का आकर्षण उसे खींचता हुआ दिल्ली ले जा रहा था. यह 5वां मौसम शुरू हुआ तो था सुजाता की जिंदगी में और अब तक वह निश्चिंत थी कि कुछ भी नही समेटनासहेजना. फिर यह क्या और क्यों हो रहा था. उसे अपने ही मन की फिक्र होने लगी थी जो कि अब बेलगाम होने लगा था.
पूरे 22 वर्षों बाद अचानक अनिरुद्ध का फोन का आना, ‘बस, एक बार मिलना चाहता हूं, आओगी?’ और सुजाता अनिरुद्ध की आवाज सुनते ही संभलने की तमाम कोशिशों के बावजूद खुद को संभाल नहीं पाई थी क्योंकि एहसास तो बदले नहीं जा सकते. प्रेम का होना सिर्फ भावनाओं का होना ही नहीं होता. यह आप के अस्तित्व में होने का भी सब से प्रबल प्रमाण होता है.
जिंदगी जब आप को शुरू से ही निहत्था कर दे तो आप को पता होता है कि जीवन के इस महासागर में आप की हैसियत एक तिनके की भी नहीं. बहाव के अनुरूप ही आप की जीवनयात्रा के पड़ाव तय होते हैं और इस तिनके ने कैसे अनिरुद्ध को अपना सहारा, अपना सबकुछ मान लिया था.