सुबह की ठंडक में प्लेटफौर्म पर चहलपहल न के बराबर थी. लगभग सन्नाटा ही पसरा था. उस का कंपार्टमैंट प्लेटफौर्म से थोड़ा दूर आ कर रुका था. काले पड़ते पीपल के पेड़ों की डालियों से छन कर आता आकाश का फीका सा उजाला था. उस के नीचे लेटे भिखारियों का झुंड कटेफटे कम्बलों में खुद को सिकोड़ कर तल्लीनता से सोया हुआ था और उन के पास दुम दबाए लेटे कुत्तों का रहरह कर चींचींयाना जारी था. सन्नाटे में सुराख करती आवाजें...चाय अदरक वाली चाय...गरमागरम चाय... वहीं पास में झाड़ू मारता आदमी.
कितने गहरे होते है इंतजार के रंग, सोचतेसोचते सुजाता ने मानो अपने हाथों को सांत्वना देते हुए आपस में कस लिया था.
तभी सामने से अनिरुद्ध आता दिखाई दिया. थकी सी चाल में उम्र की गंभीरता उतर आई थी. सुजाता को देखते ही उस के चेहरे पर एकसाथ कई भाव आजा रहे थे. अनिरुद्ध ने जिन नजरों से उसे देखा, वह पल वहीं का वहीं ठहर गया था. एक रिश्ता जो कभी अपना था, एक इतिहास. साथ जिया उम्र का एक खूबसूरत हिस्सा. आज पहचान के दूसरे छोर पर खड़ा था. उस ठिठके हुए पल को धकेलने की हिम्मत दोनों में नहीं थी. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह व्यवहार करें.
‘‘मुझे आने में देर तो नहीं हुई?’’
‘‘कैसे हो?’’
‘‘तुम बिलकुल भी नहीं बदलीं.’’
“तुम भी तो...’’ कहतेकहते रुक गई थी सुजाता. बदल तो पहले ही चुका था. पर सुदर्शन, हंसमुख, आकर्षक से अनिरुद्ध की जगह यह वाला अनिरुद्ध...कैसा लगने लगा था...बाल तेजी से कम हो चुके थे. झुकेझुके से कंधे. अनिरुद्ध की धंस चुकी आंखों के इर्दगिर्द खिंच आए वीरानगी के दायरों की भाषा को पढ़ने की नाकाम कोशिश करती सुजाता.