राहुल गांधी बड़े मजे में नरेंद्र मोदी को पाठ पढ़ा रहे हैं कि सत्ता से बाहर रह कर कुछ भी कह देना कितना आसान है और बाहर वाले को न जिम्मेदारी की चिंता करनी पड़ती है न जवाब के असर की. नरेंद्र मोदी ने मई 2014 से पहले चुनावी भाषणों व अन्य सभाओं में सोनिया गांधी व राहुल गांधी पर जम कर कटाक्ष किए थे और समाज का वह वर्ग, जो कांगे्रस सरकार की भ्रष्टाचार की कहानियों से खुन्नस खाए बैठा था, बड़ा खुश हुआ था कि चलो एक जन आया तो जो काले को काला कहने में हिचकता नहीं. तब राहुल गांधी और सोनिया गांधी ही नहीं, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी बहुत दयनीय नजर आते थे और लग रहा था कि वे शब्दों व व्यंग्यबाणों के सैलाब में बह जाएंगे. मई 2014 में ऐसा हुआ भी, पर अब वही कटाक्ष घूम कर नरेंद्र मोदी व भाजपा पर आ रहे हैं. किसी गुमनाम, रहस्यात्मक छुट्टी के बाद लौटे राहुल गांधी ने लगातार व्यंग्यात्मक रवैया अपना लिया.

उन का सूटबूट की सरकार जो नाम लिखे नरेंद्र मोदी के बंद गले के सूट पर मजाक था, वाला व्यंग्य भाजपाइयों को अंदर तक भेद गया. ‘आप के प्रधानमंत्री,’ ‘देश के प्रधानमंत्री’, ‘भाजपा के प्रधानमंत्री नहीं’ जैसे शब्दों से उन्होंने संसद में वही वाक्पटुता दिखाई जो नरेंद्र मोदी दिखाते रहे हैं. नरेंद्र मोदी की विदेश यात्रा पर उन के मजाक, जब वे भारत के दौरे पर हों तो पंजाब के किसानों का हाल पूछ आएं, ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. एक भाजपा मंत्री के किसानों की आत्महत्या को उन की अपनी कमजोरी बताने को ले कर राहुल ने नरेंद्र मोदी की सरकार को किसान विरोधी व कौर्पोरेटरों की सरकार के मुकुट से सजा डाला. मतलब सिर्फ इतना है कि विपक्ष में रह कर बोलना बहुत आसान होता है. राहुल गांधी की बोलती 10 साल बंद थी क्योंकि तब वे जो बोलते, उन्हें करना पड़ता. वे तब गलतियों और कमजोरियों पर सफाई ही दे सकते थे. वे किसी पर निकम्मेपन का आरोप नहीं लगा सकते थे. यह अब नरेंद्र मोदी के साथ हो रहा है. नरेंद्र मोदी विदेश जा रहे हैं तो इसलिए कि यह देश की जरूरत है. वे सैरसपाटे के लिए विदेश नहीं जा रहे. वे अच्छे कपड़े पहन रहे हैं तो इसलिए कि प्रधानमंत्री का पद यह मांग करता है. वे किसानों की जमीन चाहते हैं तो इसलिए कि उन का विचार है कि उद्योग ज्यादा लाभदायक हैं. सत्ता में रह कर वे वैसे ही असहाय हैं जैसे पहले राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की तिगड़ी थी. जनता को यह समझना होगा कि सत्ताधारी नेता की जिम्मेदारी होती है और विपक्ष का काम मीनमेख निकालना होता है. दोनों ही लोकतंत्र में जरूरी हैं.

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