जयराम जयललिता को कानूनी आतंक से मुक्ति मिलने के बाद लोकतंत्र के स्वयंभू रक्षक जिस तरह का सियापा पीट रहे हैं उस से आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इस देश की शिक्षित जनता की आदत हो गई है कि वह अपने मन के बनाए खलनायकों को तुरंत फांसी पर चढ़वाने की वकालत करती है पर आसपास मंडराते सैकड़ों राक्षसों के उत्पातों को सहन करती जाती है. तमिलनाडु की अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी की नेता जयललिता ने 19 वर्ष पहले अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल में कुछ हेराफेरियां की थीं या नहीं, इस पर मुकदमे चल रहे थे और वे कभी जेल में होतीं, कभी बाहर. पर कानूनी तूफानों के बावजूद उन का सूरज चमकता रहा और वे न केवल कांगे्रस को धराशायी कर पाईं, अपनी प्रबल प्रतिद्वंद्वी द्रविड़ मुनेत्र कषगम को चित कर पाईं बल्कि भारतीय जनता पार्टी को राज्य में पैर नहीं जमाने की इजाजत तक नहीं दी.

तमिलनाडु की यह नेता गुनाहगार थी या नहीं, यह कभी पता नहीं चलेगा पर देश की चैटरिंग, बकबकिया क्लास ने उन्हें वर्षों से अपराधी मान रखा है. यह ठीक नहीं है. हमारे यहां जो उंगलियां उठाते हैं वे भूल जाते हैं कि देश का कानून, प्रशासनिक तंत्र ऐसा है कि हर किसी को पहले दिन गुनाहगार मान लेना आसान है पर गुनाह साबित करना असंभव सा है. हमारे यहां समय के चलते गवाह मुकरते रहते हैं, सरकारी वकील खरीदे जाते हैं, जजों की पसंदनापसंद बदलती रहती है. सब से बड़ी बात यह है कि हमारा नैतिकता का आधार पानी पर तैरता है, जब चाहे ऊपर हो जाए, जब चाहे नीचे, जब चाहे उत्तर से बहने लगे, जब चाहे दक्षिण में धकेल दे. हमारी नैतिकता का ढोल पीटने वाले उन ऋषियों, मुनियों, अवतारों की पूजा करते हैं जिन के नैतिक काम ढूंढ़ने के लिए माइक्रोस्कोप चाहिए.

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