भवन निर्माताओं को कठघरे में खड़ा करने की आदत देशभर में बुरी तरह फैली हुई है. लोगों को मकान चाहिए पर वे मकान बनाने की दिक्कतों को न तो समझने को तैयार हैं और न ही सरकार पर दबाव बनाने को. आम लोग अब जमीन खरीद कर मकान बनाने से कतराते हैं क्योंकि वे मकान बनाने में आने वाली अड़चनों का सामना नहीं कर सकते. पर जब वे पैसे ले कर भवन निर्माता के पास जाते हैं तो उन्हें लगता है कि सैकंडों में वह काम हो जाएगा जो वे वर्षों में नहीं कर पाते. भवन निर्माण में सरकारी अड़चनों की कोई सीमा नहीं है. जमीन खरीदी से ले कर अंत तक न जाने कितने फौर्म भरने पड़ते हैं. तब कहीं जा कर खरीदार उस में रह पाता है. ऊपर से जब से भवन निर्माण में तेजी आई है, मजदूर मिलने कम हो गए हैं. बैंक कर्ज देते हैं पर वह स्रोत कहीं बीच में न रुक जाए, यह डर बना रहता है.
मकानों के बाजार में ऊंचनीच चलती रहती है. लोगों की पसंद कब बदल जाए, पता नहीं चलता. जो इलाके शहर के अच्छे माने जाते थे और जहां दाम कुछ ज्यादा थे, देखतेदेखते स्लम और ट्रैफिक की चपेट में आ कर कब खराब हो जाएं, पता नहीं चलता. एक बाग के सामने बना मकान अच्छे पैसे देता है पर बाग की जगह पर कब कारखाना, स्कूल, मंडी या डंप उग आएं, कहा नहीं जा सकता. भवन निर्माताओं की इन दिक्कतों को कोई नहीं देखता. सरकार भवन निर्माताओं पर पेंच कसने के नियमकानून बना रही है. उपभोक्ता अदालतें लगातार भवन निर्माताओं के विरुद्ध फैसले देती रहती हैं. सुप्रीम कोर्ट में अकसर भवन निर्माताओं को फटकार पड़ती है, बनेबनाए मकानों को तोड़ने के आदेश दे दिए जाते हैं.
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