उत्तराखंड में अंत में चाहे कुछ भी हो, इस मामले में राष्ट्रपति शासन लागू कर के भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने दर्शा दिया है कि संवैधानिक अधिकारों के दुरुपयोग में वह पिछली सरकारों से एक कदम आगे ही है. अपने मुख्यमंत्री से नाराज पार्टी के सदस्यों को विरोधी दल की केंद्र सरकार प्रोत्साहन दे, संरक्षण दे, यह लोकतंत्र की भावना के एकदम खिलाफ है. आयाराम-गयाराम के खेल को देख कर ही दलबदल का सख्त कानून बना था और उस से काफी शांति बनी रही है. पर लगता है दिल्ली और बिहार की हार की खीज भारतीय जनता पार्टी विपक्षी दलों की सरकारों में उपजे मतभेदों को भुना कर निकाल रही है.
दलों में मतभेद होना सामान्य है और यह ही लोकतंत्र की जड़ हैं. पर इस की वजह से चुने हुए सदस्य दूसरी तरफ वालों से मिल जाएं तो यह न केवल संविधान के खिलाफ है बल्कि यह मतदाताओं के भी खिलाफ है. आज जो सदस्य विधानसभाओं या लोकसभा में चुन कर आते हैं, वे अपने बलबूते पर नहीं, अपनी पार्टी के बलबूते चुन कर आते हैं. जनता एक उम्मीदवार को नहीं, उस की पार्टी को वोट देती है. उस चुने हुए नेता का कोई नैतिक हक नहीं कि वह मतभेदों के कारण दूसरे खेमे में चला जाए. वह त्यागपत्र दे सकता है पर उस स्थिति में भी सरकार पर आंच नहीं आए, ऐसा प्रावधान होना चाहिए. हां, जब वह फिर से चुन कर किसी दूसरी पार्टी से आ जाए, तो ही उस के वोट को उस की पिछली पार्टी का न माना जाए.
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