भारत में अच्छे दिनों की खुशी में कोई अगर झूम रहा है तो भूल जाए कि वह जागा है. देश का हाल बद से बदतर हो रहा है और चाहे जितना प्रधानमंत्री और अरुण जेटली बढ़ाचढ़ा कर कहते रहें, देश की युवापीढ़ी के सामने घनघोर अंधेरा है. आंकड़े साफ बता रहे हैं कि देश में नई नौकरियां नहीं निकल रही हैं और देश की 93त्न कामकाजी जनता कच्ची नौकरियों पर है. अगले 4-5 साल में कुछ सुधरेगा इस के आसार नहीं हैं. इस की एक वजह है कि हमारे लिए क्रिकेट माता की जय और भारत माता की जय ज्यादा मुख्य होती जा रही हैं.

जिस 7.2त्न या 6.9त्न की आर्थिक बढ़ोतरी पर अरुण जेटली रोजाना उपदेश झाड़ते हैं वह चींटी की चाल में तेजी है जबकि बाकी दुनिया मस्त घोड़ों की तरह दौड़ती नजर आती है. दूसरे देशों में हजार समस्याएं हैं, अर्थव्यस्था ढीली हो रही है, आतंकवाद का कहर बढ़ रहा है, नेताओं की क्वालिटी घट रही है पर भारत में भी कुछ अच्छा होता नहीं दिख रहा है. अच्छे दिन आएंगे, 15 लाख रुपए कालेधन वाले हर खाते में जमा हो जाएंगे जैसे जुमलों ने देश की युवापीढ़ी को 10 साल पीछे धकेल दिया है, इस उम्मीद में कि नई सरकार एक नई चमक लाएगी, युवापीढ़ी को इस बात पर भरोसा हुआ था पर अब व फीका पड़ गया है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली और हैदराबाद विश्वविद्यालय में जो हो रहा है वह तो मात्र नमूना है कि कल के दिन कैसे होंगे. छात्र बेचैन हैं और देश से सख्त नाराज हैं, क्योंकि उन्हें अब एहसास और विश्वास होने लगा है कि आज की सरकार और आज का समाज उन का कल नहीं सुधारेगा.

आर्थिक विकास नारों से नहीं आता. यह भाषणों से भी नहीं आता चाहे वे स्मृति ईरानी के हों या कन्हैया कुमार के. आर्थिक विकास के लिए ठोस काम करने के अवसर, काम के प्रति आदर, समाज में खुलापन, नए प्रयोग करने की ललक चाहिए होती है. हमारा सारा केंद्रबिंदु सरकारी नौकरी है ताकि एक जिंदगी पक्की नौकरी मिल जाए जिस में चाहे वेतन साधारण हो, रिश्वत के अवसर अपार हों. सरकारी नौकरी चाहे जिंदगी को पक्की जमीन दे दे पर पूरी जिंदगी एक बड़े पत्थर की तरह हो जाती है जो वहीं पड़ा रहता है. न कुछ करता है, न कहीं जाता है न कुछ खुद बनाता है. दुनिया भर में बहुत कुछ नया बन रहा है पर हमारे यहां वही पुराना रवैया चल रहा है. हम विदेशों से मशीनें, कलपुरजे, कारखाने, तकनीक ले आते हैं और जोड़तोड़ कर इस्तेमाल करते रहते हैं. युवाओं को न कुछ नया करने के लिए सिखाया जा रहा है, न उकसाया जा रहा है. नतीजा है कि हम बेहद आलसी और बंद दिमाग वाले हो गए हैं. उन करोड़ों युवाओं के लिए यहां कार्य के अवसर नहीं हैं जो पढ़ाई पूरी कर जौब मार्केट में आ रहे हैं.

यह कुंठा, हताशा, दूसरों पर निर्भरता और गुस्से को जन्म दे रही है और कल क्या होगा, कहा नहीं जा सकता. डर लगता है कि कहीं पश्चिम एशिया के सीरिया इराक, मिस्र की तरह यहां के युवा आत्मघाती जेहादी न बन जाएं. लठैत तो वे बन ही गए हैं और कभी गोमांस को ले कर, कभी आरक्षण को ले कर, कभी नेतागीरी के नाम पर उपद्रव करने लगे हैं. अफसोस तो यह है कि आज समाज सुधार, सामाजिक विकास जैसे शब्द गालियां बन गए हैं.

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