सरकार ने सरकारी मैनेजमैंट कालेजों की फीस कई गुना बढ़ा कर प्राइवेट मैनेजमैंट संस्थाओं को भी लाइसैंस दे दिया है कि वे उच्च शिक्षा के नाम पर चाहे जो वसूल कर लें. यह ठीक है कि उच्च शिक्षा महंगी ही होती है, क्योंकि खुले हवादार कैंपस, किताबों से ठसाठस भरे पुस्तकालय, साफसुथरे क्लासरूम, प्ले ग्राउंड, औडिटोरियम, सेमिनार रूम, लैब्स पर तो खर्च होता ही है, टीचिंग व नौनटीचिंग स्टाफ पर भी बहुत ज्यादा खर्च होता है. इस खर्च को कोई तो उठाएगा. सरकारी कालेजों में तो सरकार जनता से एकत्र किए टैक्स से यह खर्च उठाती है और निजी संस्थाओं में छात्र या उन के मातापिता.

ऊंची पढ़ाई मुफ्त हो ही नहीं सकती. असल में तो प्राइमरी शिक्षा भी सस्ती नहीं है. मैनेजमैंट शिक्षा का तो कहना ही क्या. इस समस्या का आसान हल नहीं है. स्वीडन और नार्वे जैसे देशों ने पढ़ाई को लगभग मुफ्त कर रखा है पर वहां बेहद मेहनती और अनुशासित लोग हैं. अमेरिका में ज्यादातर छात्र कर्ज ले कर ऊंची शिक्षा पाते हैं और आज 60-65त्न ग्रैजुएट गले तक कर्ज में डूबे हैं और मातापिता पर निर्भर हैं.

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने आईआईएम संस्थानों की फीस बढ़ा कर गलत नहीं किया, क्योंकि 2 साल में 15-20 लाख रुपए खर्च कर के सफल छात्रों को 3 से 4 लाख रुपए प्रतिमाह वेतन वाली नौकरी मिल जाती है. जब मोटा वेतन मिलना तय है तो सरकार जनता का पैसा क्यों खर्च करे. शायद यह सोच शिक्षा मंत्री की है.

समस्या यह है कि 15-20 लाख रुपए की फीस और 2 साल में 8-10 लाख का ऊपरी खर्च कितने लोग उठा सकते हैं. इस तरह तो शिक्षा केवल अमीरों की बपौती बन कर रह जाएगी. पीढ़ी दर पीढ़ी केवल अमीर ही पढ़ सकेंगे और वे ही कमा सकेंगे. गरीबों के मेधावी बच्चे कहां जाएंगे? यदि पैमाना खर्च करने की क्षमता होगी तो बहुत से मेधावी छात्र प्रवेश परीक्षा तक में नहीं बैठेंगे, अगर उन के मातापिता खर्च करने लायक न हों. इस का अर्थ है कि अमीर घरों के नालायक बच्चों को भी आसानी से छूट मिल जाएगी. जो लोग मैरिटमैरिट का हल्ला मचाते हैं, उन्हें सोचना होगा कि महंगी शिक्षा और मैरिट में भी कुछ आपस में संबंध है.

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