गरमी की छुट्टियों में मैं अपने पति और 3 वर्षीय बेटे राहुल के साथ चंडीगढ़ जा रही थी. मेरे बेटे को दालचावल बहुत प्रिय हैं. मैं यात्रा में भी उस के लिए दालचावल घर से बना कर ले जाती हूं. ट्रेन में जब राहुल को भूख लगी तो मैं उसे अपने हाथ से दालचावल खिलाने लगी. मेरे दूसरे हाथ में उपन्यास था जो काफी रोचक था और मैं पढ़ती जा रही थी.
कुछ क्षणों बाद मैं ने जैसे ही दालचावल का निवाला आगे बढ़ाया तो अचानक मुझे किसी पुरुष का स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘मैडम, यह क्या कर रही हैं, आप?’’
मैं ने उपन्यास से नजर हटा कर देखा तो वस्तुस्थिति समझ कर शर्म से लाल हो गई. दरअसल, मेरा पूरा ध्यान अपने उपन्यास पर था, इसीलिए मुझे पता ही नहीं चला कि राहुल कब उठ कर दूसरी बर्थ पर बैठे अपने पापा के पास चला गया और उस के स्थान पर पास ही खड़े सज्जन बैठ गए. जिन्हें राहुल समझ कर मैं दालचावल खिलाने जा रही थी.
यशोदा अग्रवाल
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मेरी पड़ोसिन जब कोई सब्जी बनाती, कटोरी भर कर हमें देने आ जाती. फिर हम से भी वही उम्मीद रखती. यह लेनदेन के शौक से मैं परेशान हो चुकी थी.
एक बार मैं ने अपने 8 साल के बेटे को समझा दिया कि जब आंटी आएं तब क्या बोलना है. एक दिन जैसे ही वह सब्जी ले कर आई और दरवाजे से बाहर गई ही थी कि मेरा बेटा जोर से बोला, ‘‘मम्मी, जब हमारे घर में आंटी की दी हुई सब्जी कोई खाता नहीं है तो क्यों लेती हो?’’ उस ने सुन लिया पर कुछ बोली नहीं. लेकिन उस दिन के बाद उस की देने की आदत जरूर छूट गई.