‘‘मम्मी पापा मुझे माफ कर देना. मैं ने कोई गलती नहीं की है. इधर जाओ तो लड़के, उधर जाओ तो लड़के, मेरी जिंदगी खराब कर रहे थे. मुझे अब नहीं जीना है. मेरी वजह से आप को यह कमरा खाली करना था न. पर अब मैं नहीं रहूंगी तो खाली करना नहीं पड़ेगा. फिर दोबारा कह रही हूं, मैं ने कोई गलती नहीं की है.’’
सुसाइड नोट के ये शब्द बख्तावरपुर गांव की 12वीं की एक छात्रा के हैं. वह पढ़लिख कर आईपीएस बनना चाहती थी. वह देश की सेवा करना चाहती थी. मगर, पड़ोस के एक लड़के की ज्यादतियों से आजिज आ कर उस ने गत 24 मार्च को अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर ली. छोटी सी इस लड़की की आंखों में बड़ेबड़े सपने थे और उन्हें पूरा करने के लिए वह जीतोड़ मेहनत भी कर रही थी. मगर पड़ोसी लड़के मयंक की छेड़छाड़ और मनमानी की वजह से वह खामोश रहने लगी थी. मयंक उस का पीछा करता और शादी करने के लिए मजबूर करता.
लड़की का परिवार जिस घर में रहता था वह मयंक के रिश्तेदार का था. इसलिए मयंक के कहने पर मकान मालिक ने घर खाली करने का अल्टीमेटम दिया था. इस वजह से लड़की ने परेशान हो कर यह कदम उठाया ताकि उस का परिवार शांति से रह सके. मरते वक्त वह घर वालों को यही समझाना चाहती थी कि गलती उस की नहीं. काश, इस लड़की के परिजनों ने पहले ही पुलिस में मयंक के खिलाफ शिकायत कर दी होती. उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उन्हें डर था कि समाज उन की बेटी को ही गलत कहेगा.
हमारे यहां अकसर लड़की और उस के परिजन लड़कों की ज्यादतियां सिर्फ इस वजह से चुपचाप सहते रहते हैं क्योंकि ऐसे मामलों में लोग लड़कियों को ही कुसूरवार समझते हैं. लड़की की इज्जत का जनाजा निकाला जाता है, पर लड़के सब कर गुजरने के बाद भी सीना चौड़ा किए घूमते रहते हैं. मेरठ की 8वीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा ने गत 12 अक्तूबर को फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. 3 माह पहले अपहरण के बाद उस का गैंगरैप हुआ था. पुलिस ने आरोपियों को क्लीन चिट दे कर केस बंद कर दिया था.
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एक शाम वह दीवाली का सामान खरीदने बाजार गई थी. उसी समय 3 आरोपियों ने उसे सरे बाजार रोक कर छेड़छाड़ की. उन्होंने धमकी दी कि पहले 5 दिनों के लिए उठाया था, इस बार लंबे वक्त के लिए ले जाएंगे. डरीसहमी छात्रा घर पहुंची और फांसी के फंदे पर झूल गई. ऐसी ही एक घटना है राजधानी दिल्ली की. 8 अक्तूबर के दिन लक्ष्मीनगर के एक मौल के पास एक युवक बीच सड़क पर एक लड़की को गालियां दे कर पीट रहा था. रोतीबिलखती लड़की उस से दूरी बनाने की कोशिश कर रही थी, मगर बौखलाया हुआ वह शख्स लगातार उस लड़की के साथ मारपीट कर रहा था. रास्ते चलते लोगों ने आगे बढ़ कर बीचबचाव करना चाहा तो युवक चिल्लाया कि उस के सिर पर खून सवार है, कोई करीब न आए. आखिरकार कुछ लोगों के हिम्मत दिखाई और युवक को पीट डाला. तब तक पुलिस भी बुला ली गई.
जरा सोचिए, यदि हर बार की तरह इस घटना के वक्त भी लोग मूकदर्शक बने रहते तो शायद इस लड़की का भी वही हश्र होता जो इस से पहले बहुत सारी लड़कियों का हुआ. लड़की की सरेराह निर्दयता से हत्या हो जाती या उस पर तेजाब फेंक दिया जाता. अब इस घटनाक्रम के मूल में चलते हैं. वजह बहुत सामान्य थी. उस युवक के साथ लड़की की शादी होने वाली थी. युवक के शराब पीने, गालीगलौज और मारपीट करने की आदतों से परेशान हो कर युवती ने उस के साथ रिश्ता तोड़ दिया था. युवती किसी और युवक से शादी करने वाली थी. बस, यही बात इस पूर्व प्रेमी को हजम नहीं हुई और वह लड़की का पीछा करने व धमकाने का काम करने लगा. साथ बिताए पलों का वीडियो दिखा कर उसे ब्लैकमेल करने का प्रयास करने लगा. इसी क्रम में उस ने इस बार युवती को मौल बुला कर मारपीट की थी.
अंतर मानसिकता का
महिलाओं के साथ आपराधिक वारदातें सिर्फ भारत में ही होती हैं, ऐसा नहीं है. बलात्कार और दूसरे तरह के जुल्मों की घटनाएं तकरीबन हर देश में देखने को मिलती हैं. हां, भारत और उन देशों में एक बहुत बड़ा फर्क है, और वह है मानसिकता का फर्क. यहां जुल्म भले ही औरतों के साथ होता है पर अपराधी भी औरतों को ही घोषित कर दिया जाता है. बलात्कारी या जुल्म करने वाले पुरुष को नहीं वरन पीडि़ता को ही कठघरे में खड़ा किया जाता है. पीडि़ता से ही सवाल पूछे जाते हैं, उसे ही शर्मिंदा और जलील किया जाता है.
यही वजह है कि ज्यादातर महिलाएं चुपचाप जुल्म सहती रहती हैं बजाय समाज, पुलिस, वकील और परिचितों के सवालों, तानों और व्यंग्यभरी नजरों का सामना करने के. परिवार वाले भी अपनी बेटियों को ही सबकुछ चुपचाप सह लेने, दबढक कर रहने और ऊंचे ख्वाब न देखने को कहते हैं. उन्हें हर पल यही भय सताता है कि कहीं उन की बच्ची के साथ कोई हादसा न हो जाए.
ऐसोचैम सोशल डैवलपमैंट फाउंडेशन द्वारा दिल्ली एनसीआर की 2,500 महिलाओं से बात कर के तैयार की गईर् एक स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाएं रात को बाहर निकलते समय घबराने लगती हैं. कुछ बातें जो हर महिला या लड़की को सहनी पड़ती हैं : भीड़ में अवांछित स्पर्श : टे्रन, मैट्रो व बस वगैरह में सफर करते या बाजार में चलते वक्त महिलाएं सब से ज्यादा परेशान होती हैं गंदे लोगों के अवांछित स्पर्श से. दूषित मानसिकता के शिकार, ओछी प्रवृत्ति के लोग किसी भी तरह स्त्री संसर्ग चाहते हैं. और कुछ नहीं तो भीड़ में मौका मिलते ही ये स्त्री के हाथ, सीने या कंधों को स्पर्श करते हुए निकल जाने से बाज नहीं आते.
औरतें कभी शर्म से तो कभी जल्दी में होने की वजह से ऐसी हरकतों को नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाती हैं. यहां पर यदि हम यह कहें कि औरतें भीड़ में जाती ही क्यों हैं या फिर बच कर क्यों नहीं निकलतीं तो यह बात बिलकुल बेमानी होगी. स्त्रियों को कोई शौक नहीं होता कि अनजान लोगों को छूती फिरें. वे बच कर निकल रही होती हैं, मगर कुछ लोग जबरन आ कर ऐसी हरकतें कर जाते हैं. जहां तक भीड़ में निकलने की बात है तो आजकल दिल्ली हो या कोई दूसरा शहर, हर तरफ भीड़ बढ़ रही है. जरूरी काम हो या स्कूलकालेज व औफिस जाना हो, तो महिलाएं निकलेंगी ही. नजर हर पल : यदि कोई लड़की अकेली रह रही है, तो उस का मकानमालिक बेवजह ही उस के आनेजाने पर खास नजर रखने लगता है. वह कहां जा रही है, किस से मिल रही है, उस के घर कौन आ रहा है, कितनी देर ठहरा है जैसी बातों के प्रति उस की रुचि कुछ ज्यादा बढ़ जाती है. खासतौर पर यदि कोई पुरुष उस के घर आए, तो आसपड़ोस समेत मकानमालिक की नजर भी ज्यादा ही सचेत हो उठती है. लड़की की जिंदगी में हमेशा ताकझांक करना और फिर उस की गलतियों को हाईलाइट करना उन का सब से अच्छा टाइमपास बन जाता है.
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अकेले घूमना एक सपना
कोई जवान लड़की ट्रिप पर अकेली निकलना चाहे तो लोगों की भौंहें तन जाती हैं. यह हर लड़की का सपना होता है कि वह कभी अकेली सफर करने का आनंद ले. मगर, लोगों की मानसिकता कि, अकेली लड़की खुली तिजोरी के समान होती है, लड़कियों के कदम बांध देती है. यदि वह कभी अकेली निकल भी जाए तो रेप, छेड़छाड़ या अपहरण जैसी घटनाओं का शिकार होने का डर उसे सफर का भरपूर आंनद लेने से रोकता है. वह जानती है कि वह कितनी भी मजबूत बने, पर उस की सुरक्षा संदिग्ध ही रहेगी. घूरती निगाहों का सामना : भारतीय महिलाओं की जिंदगी की एक बड़ी त्रासदी है लोगों की कामुक और घूरती नजरों का सामना करना. अमूमन हर लड़की को इस तरह की परिस्थितियों से जूझना ही पड़ता है. वह लाख नजरें बचाए मगर उन्हें अनदेखा नहीं कर पाती.
ऐसा नहीं है कि इस की वजह लड़कियों का पहनावा या हरकते हैं. यदि लड़की साधारण, डीसैंट कपड़े पहने, चेहरे और बालों को दुपट्टे से ढके हुए औटो, रिक्शे, बाइक पर बैठे तो भी घूरने वाला उस के चेहरे को, उस की आंखों को घूरने लगता है. अब भला इस में लड़की की क्या गलती? बातों में गालियों के तीर : भारत में जो एक सब से बड़ी विसंगति देखने को मिलती है वह यह है कि ज्यादातर लोग बातचीत में मांबहन की गालियों का इस्तेमाल जुमले की तरह करते हैं. भारत की राजधानी दिल्ली में ही देखिए जहां औरतें और लड़कियां रिकशेवाले, सब्जीवाले, दूध वाले से ले कर हर किसी को भैया कह कर संबोधित करती हैं वहीं बहुत से पुरुष अपनी सामान्य बातचीत में हर लाइन के साथ मांबहनों की गालियां जोड़ने से नहीं हिचकते.
क्या इस तरह हर वक्त गलत शब्दों का इस्तेमाल उन की मानसिकता को और भी विकृत नहीं करता. महिलाओं और लड़कियों के प्रति शुरू से ही बच्चों के मन में ओछापन विकसित नहीं करता? फिर दोष लड़कियों पर क्यों मढ़ा जाता है? लेट नाइट डैंजर्स : लड़कियां जौब के सिलसिले में देररात तक औफिस में रुकती हैं, तो उन के लिए घर लौटना एक जोखिमभरा हो जाता है. वे निजी वाहन से निकलें, कैब बुक करें या पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग, जोखिम हर स्थिति में रहता है.
धर्म की भेंट चढ़ती महिलाएं
महिला और शोषण का गहरा रिश्ता रहा है. मानव सभ्यता का विकास होने, धर्म का वर्चस्व बढ़ने और मातृसत्तात्मक समाज के पुरुष सत्तात्मक होने के साथसाथ महिलाओं पर जुल्म की कहानियां भी बढ़ती गई हैं. कभी स्त्री पवित्रता के नाम पर तो कभी सतीप्रथा, दहेजप्रथा, परदाप्रथा जैसी परंपराओं की बिसात पर, कभी धार्मिक अनुष्ठानों और व्रतत्योहारों की भेंट चढ़ा कर तो कभी महिला स्वतंत्रता और सम्मान की धज्जियां उड़ा कर पुरुषवादी समाज अपनी खोखली दलीलें पेश करता रहा और महिलाओं का शोषण होता रहा. दोहरेपन की शिकार महिलाएं : आज भले ही औरतों ने वैश्विक स्तर पर अपनी बुलंदियों के झंडे गाड़े हैं मगर पक्षपात हमेशा की तरह बदस्तूर जारी है. घर हो या औफिस, उन के साथ हर जगह दोहरा व्यवहार किया जाता है. समान काम के लिए कम पारिश्रमिक दिया जाता है. एक ग्लोबल रिपोर्ट के अनुसार, 10 में से 4 महिलाओं ने जैंडर पे गैप की बात स्वीकारी. लगभग एकतिहाई महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन के साथ कभी न कभी किसी न किसी रूप में शोषण हुआ है.
ट्रौलिंग
सोशल मीडिया के इस जमाने में पुरुष की जिंदगी के सभी खास लमहें तसवीरों में कैद हो कर व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक वगैरह के जरिए सहज उपलब्ध होते हैं, जबकि लड़कियों को ट्रौलिंग की मार सहनी पड़ती है. हाल ही में जानीमानी अदाकारा नीना गुप्ता की बेटी और मशहूर फैशन डिजाइनर मसाबा ट्रौलिंग का शिकार हुईं तो वहीं आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ में रैसलर गीता फोगाट का किरदार निभाने वाली ऐक्ट्रैस फातिमा सना शेख भी सोशल मीडिया में ट्रौलर्स के निशाने पर रहीं. फातिमा ने इंस्टाग्राम पर अपनी सैल्फी पोस्ट की थी. साइड पोज से ली गई इस सैल्फी में उन्होंने कुछ इस तरह से साड़ी पहन रखी थी जिस में कमर और गरदन का कुछ हिस्सा खुला नजर आ रहा था. इसी वजह से कुछ लोगों ने भद्दे कमैंट्स करने शुरू कर दिए. ईशा गुप्ता, प्रियंका चोपड़ा और कल्कि कोचलिन जैसी ऐक्ट्रैसेज भी सोशल मीडिया पर मोरल पुलिसिंग का शिकार हो चुकी हैं.
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बड़े लोगों की सीख
बौलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अपनी पोती आराध्या और नातिन नव्या के लिए एक खास पत्र लिखा था. देश में महिलाओं की खराब स्थिति और उन के प्रति बढ़ रही टीकाटिप्पणियों व अपराधों का जिक्र करते हुए बिग बी ने बतौर लड़कीस्त्री नव्या और आराध्या के लिए सही मार्ग क्या होना चाहिए, यह बताया. उन का लिखा यह खत आम महिलाओं व लड़कियों के लिए भी उतना ही मार्गदर्शक है जितना उन दोनों के लिए.
नव्या और आराध्या को संबोधित करते हुए बिग बी लिखते हैं, ‘‘आप को स्वेच्छा से अपने फैसले लेने चाहिए. कभी भी यह चिंता नहीं करनी चाहिए कि लोग क्या कहेंगे. लोग आप पर अपनी सोच थोपने और दबाव बनाने के प्रयास करेंगे. वे कहेंगे कि तुम्हें कैसे कपड़े पहनने चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए, किस से मिलना चाहिए और कहां जाना चाहिए पर तुम्हें लोगों के फैसलों से दबने की जरूरत नहीं. तुम्हें स्वविवेक से अपने फैसले लेने का हक है.’’ ऐसे ही कुछ विचार कनाडा के युवा प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने एक लेख के जरिए व्यक्त किए. इस लेख में उन्होंने कुछ ऐसे तथ्य लिखे जो आज के दौर की महिलाओं के लिए सटीक और अनुकरणीय हैं. उन्होंने लिखा, ‘‘यह बहुत हैरान करने वाली बात है कि अब भी समाज में गैरबराबरी और लिंग के आधार पर भेदभाव मौजूद है. यह मेरे लिए पागल करने जैसा है कि बेहद होशियार और दूसरों के लिए हमदर्दी रखने वाली मेरी बेटी एक ऐसी दुनिया में बड़ी होगी जहां हर खूबी होने के बावजूद कुछ लोग उस की बातों को गंभीरता से नहीं लेंगे और उसे केवल इसलिए नकार देंगे क्योंकि वह एक लड़की है.
‘‘सब से अच्छी चीज जो हम एला (हमारी बेटी) के लिए कर सकते हैं वह है उसे यह सिखाना कि वह जो है, जैसी है, वैसी ही बेस्ट है. उस के पास कुछ खास करने की क्षमता है जिसे कोई उस से छीन नहीं सकता. बेटे की परवरिश को ले कर मेरा खास नजरिया है. मैं चाहूंगा कि मेरे बेटे उस खास तरह की मर्दानगी दिखाने के दबाव में न आएं जो हमारे आसपास के पुरुषों और दूसरे लोगों के लिए बहुत घातक रहा है. मैं चाहता हूं कि वे जैसे हैं, खुद को ले कर सहज हों और बतौर नारीवादी बड़े हों. ‘‘यह बहुत जरूरी है कि हम अपने बच्चों को नारीवाद के सही माने बता सकें. मुझे उम्मीद है कि लोग सिर्फ अपनी बेटियों को ही नहीं सिखाएंगे, बल्कि बेटों को भी समझाएंगे कि आज के दौर में दोनों जैंडरों के बीच बराबरी क्यों जरूरी है.’’
इस संदर्भ में लेखिका, काउंसलर और सोशल वर्कर रश्मि आनंद कहती हैं, ‘‘महिलाओं पर जुल्म युगों से हो रहा है. सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जहां समानता नहीं, वहां इस तरह की परिस्थितियां आती ही हैं. कोईर् भी रिश्ता या रिश्तों की पवित्रता तभी कायम रह सकती है जब हम एकदूसरे का सम्मान करें. एकदूसरे के वजूद को महत्त्व दें. रिश्ते विश्वास पर टिके होते हैं. हमारे पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं को दोयम दर्जा दिया जाता है. परिणामस्वरूप इस तरह की घटनाएं होती हैं. पुरुष कहीं भी अपनी हेकड़ी पर चोट लगने से भड़क उठते हैं. ‘‘जो गलतियां हम ने दोहराईं, बेहतर होगा कि हम अपने बच्चों को इन से बचाएं. उन्हें औरतों को सम्मान करना और रिश्तों को महत्त्व देना सिखाएं. आज के समय में सहीगलत का विभेद बहुत धुंधला हो गया है. लोग जब गलत कर के बच निकलते हैं तो उन के हौसले बढ़ने लगते हैं. जरूरी है कि शुरुआत में ही उन के कदम रोके जाएं. औरतों को दोषी ठहराने के बजाय पुरुषों को उन की सीमा बताएं. उन की जबान पर, नजरों पर और हाथों पर लगाम कसी जाए.’’
यलो कौइन कम्युनिकेशन की डाइरैक्टर और फाउंडर गीता सिंह कहती हैं, ‘‘जब भी कोई महिला उत्पीड़न या बलात्कार की शिकार होती है तो उसे समर्थन और सहानुभूति देने के बजाय समाज उस के फैसलों और कार्यों को अपराध की मूल वजह बताने लगता है, उस के बेढंगे वस्त्र, मुखर व्यवहार, महत्त्वकांक्षाओं आदि को दोष दिया जाता है. यह उचित नहीं है. हम महिलापुरुष समानता की बात तो करते हैं पर आज भी 95 फीसदी महिलाएं इस समानता के अधिकार से वंचित हैं. यह हम हर क्षेत्र में देख सकते हैं. आज महिलाएं जब भी अपनी आवाज उठाती हैं तो कहा जाता है कि ये बड़बोली हैं, हठी हैं. ‘‘महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए समाज को भी कुछ कदम उठाने चाहिए. सब से पहले हमें शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाना चाहिए. यह व्यवस्था घर से ही शुरू होनी चाहिए. ऐसी व्यवस्था जिस में हम बच्चों को खासतौर पर लड़कों को समानता के बारे में बताएं. उन्हें समझाएं कि समानता क्या होती है. उन्हें बताएं कि हमें महिलाओं का सम्मान करना चाहिए. यह निश्चितरूप से एक बेहतर समाज बनने की ओर बेहतर कदम होगा.’’
वास्तव में कानून बदलने या कुछ सफल औरतों का उदाहरण देने से कुछ नहीं होगा. जब तक समाज नहीं बदलेगा, लोगों की सोच नहीं बदलेगी, औरतों पर जुल्म होता रहेगा और दोष भी औरतों को ही दिया जाता रहेगा.