Writer- रोहित और शाहनवाज
इंसान की यदि एक उंगली टांग बराबर हो और दूसरी नाखून बराबर तो कैसा लगेगा? जाहिर है इसे विकृति से जोड़ा जाएगा. सच मानो इस समय देश आर्थिक गैरबराबरी वाली इसी विकृति से ग्रसित है. यहां किसी के पास खाने को रोटी नहीं तो किसी दूसरे का उस की रोटी पर कब्जा है.
तकरीबन आधी सदी पहले वर्ष 1974 में कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. इस नारे को आधार बना कर तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बहुमत से चुनाव में जीत हासिल की थी. उन दिनों देश की राजनीति अमीरीगरीबी के इर्दगिर्द ही बुनी जाती थी. हर पार्टी असमानता के खिलाफ मुखर रहती थी. उन के भाषणों व घोषणापत्रों में, कहने को ही सही, अमीरीगरीबी मुद्दा रहता था. सरकार की जनकल्याण की नीतियां चुनावों में हारजीत के नतीजे तय किया करती थीं. देश में गरीबी उन्मूलन चाहे दिखावा भर रहा हो लेकिन चुनावों में असमानता एक राजनीतिक मु्द्दा रहता था.
आज देश में 5 राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, पंजाब और गोवा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं लेकिन इन चुनावों में चुनावी पार्टियों के लिए तेजी से बढ़ रही असमानता का मुद्दा दूरदूर तक नहीं है. जिस विपक्ष को इस मुद्दे को जनता के बीच रख कर सरकार को घेरना था वह इसे राजनीतिक चर्चा बनाने में पूरी तरह विफल रहा है. असमानता को मुद्दा बनाए जाने की जगह नित्य नए सामाजिक समीकरण बनाए जा रहे हैं. आज तमाम पार्टियों के जातीय व धार्मिक ध्रुवीकरण के शोर में सभी जगह समाज में बढ़ती असमानता के मुद्दे दब से गए हैं. हमारे नेता कभी हमें मंदिरमसजिद के नाम पर भरमाते हैं तो कभी राजपथों की लंबाई व मूर्तियों की ऊंचाई के नए प्रतिमानों से. आर्थिक असमानता और विषमता के प्रतिमान भी हम ने स्थापित कर रखे हैं, लेकिन इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा.
‘‘या तो देश में लोकतंत्र हो सकता है या कुछ के हाथों में केंद्रित धनसंपदा हो सकती है, पर ये दोनों एकसाथ बिलकुल नहीं हो सकते.’’
यह कथन 1856 में अमेरिकी मूल के ज्यूइश परिवार में जन्मे लुईस डी ब्रैंडिश के हैं. लुईस अपने समय में अमेरिका के बड़े वकीलों में से एक थे और 1916 से 1939 के बीच उन्होंने यूएस सुप्रीम कोर्ट में एसोसिएट जस्टिस के तौर पर अपनी सेवाएं भी दी थीं पर ध्यान देने वाली बात यह कि वे अमेरिकी थे, जहां से आधुनिक समय के पूंजीवादी समाज ने अपनी जड़ें मजबूत कीं और दुनिया को पूंजीवादी नेतृत्व प्रदान किया.
अब मसला यह कि इस समय लुईस के जिक्र का क्या मतलब? दरअसल, लुईस के जन्म से ठीक 8 साल पहले 1848 में पूरे विश्व में 2 दर्शनशास्त्री अपनी एक बुकलेट से खासा चर्चा में आ गए थे. उन में से एक का नाम कार्ल मार्क्स था और दूसरे का फेडरिक एंगल. बुकलेट का नाम था ‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’. यह किताब वर्ग संघर्ष की बात कर रही थी. इस किताब के आने के बाद कहा जाता है कि दुनिया में आर्थिक असमानता के खिलाफ संघर्ष को तार्किक बहस के साथ जगह मिलने लगी.
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अब लुईस डी ब्रैंडिश का इन दोनों महानुभावों से सीधे तो कोई संबंध नहीं था पर मार्क्सवाद से मिलतीजुलती बात वे यह सम?ाते हुए कह गए थे कि किसी भी लोकतंत्र को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक धनसंपदा कुछ मुट्ठीभर लोगों की मोनोपोली से आजाद नहीं हो जाती. लुईस के ये वाक्य उस समय कितने प्रासंगिक रहे होंगे, कहा नहीं जा सकता, पर आज के समय में इन की प्रासंगिकता जरूर है.
अमीरों की एकछत्र अमीरी
पिछले दिनों आई हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2021 के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय अरबपति गौतम अडानी और उन के परिवार की संपत्ति पिछले एक साल में लगभग चौगुनी हो गई है, जो 1.40 लाख करोड़ रुपए से बढ़ कर 5.05 लाख करोड़ रुपए हो गई है. संपत्ति में इस भारी वृद्धि ने उन्हें मुकेश अंबानी के बाद एशिया का सब से अमीर आदमी बना दिया है. वहीं 7 लाख 18 करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ मुकेश अंबानी भारत के सब से अमीर व्यक्ति गिने गए. यह हाल तब का है जब दुनिया के सभी देशों की अर्थव्यवस्था धड़ाम से गिरी है.
इस लिस्ट की मानें तो अडानी को अपने व्यापार से प्रतिदिन एक हजार करोड़ रुपए का लाभ होता है. यह अपनेआप में बहुत हैरत वाली बात है. इसी प्रकार साइरस पूनावाला, जिन की वैक्सीन बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया ने भारत में कोविड-19 खुराक की लगभग 90 फीसदी मांग पूरी की है, ने भी पिछले एक वर्ष के दौरान संपत्ति में
74 फीसदी की वृद्धि दर्ज की. इस सूची के अनुसार, उन की सामूहिक संपत्ति 1.63 लाख करोड़ रुपए हो गई है.
इस लिस्ट में शीर्ष 10 में जगह बनाने वाले एचसीएल के शिव नादर, हिंदुजा समूह के एस पी हिंदुजा, आर्सेलर मित्तल के लक्ष्मी मित्तल, एवेन्यू सुपर मार्केट के राधाकिशन दमानी, आदित्य बिड़ला समूह के कुमार मंगलम बिड़ला और जस्केलर के जय चौधरी शामिल हैं. लेकिन इस पूरी लिस्ट में सब से हैरतअंगेज नाम के तौर पर अडानी, जो अहमदाबाद से हैं, ने सब से अधिक 261 फीसदी की वृद्धि के साथ कमाई करने में भारी छलांग लगाई है.
हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2021 में यह भी कहा गया है कि 119 भारतीय शहरों में 1,007 व्यक्तियों की संपत्ति 1,000 करोड़ रुपए या इस से अधिक है. रिपोर्ट में कहा गया है कि संचित संपत्ति में
51 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि औसत संपत्ति में 25 फीसदी की. भारत में 237 से ऊपर खरबपति हैं, जो पिछले वर्ष की तुलना में 58 अधिक हैं.
ब्लूमबर्ग द्वारा जारी हालिया सूची के मुताबिक, विश्व के 25 सब से धनी परिवारों ने पिछले एक साल के दौरान कोरोना जैसी आपदा के समय में भी भरभर कर संपत्ति जुटाई. गौर करने वाली बात है कि यह वह समय रहा जब पूरी दुनिया में लोगों की हालत आर्थिक तौर पर बुरी तरह से चरमराई थी. एमएसएमई वाले छोटे उद्योगों से रोजीरोटी कमाने वाले वर्ग तक सब बेपटरी हो गए.
रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के इन 25 अमीर परिवारों की संपत्ति में इस साल 22 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है. अगर इन 25 परिवारों की कुल प्रौपर्टी को एक जगह मिला दिया जाए तो उस पैसे से कई देश खरीदे जा सकते हैं. पूरी दुनिया में सिर्फ इन 25 परिवारों की बात करें तो इन की कुल संपत्ति 1.7 ट्रिलियन डौलर आंकी गई. रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक साल में वंशवादी संपत्ति में काफी तेजी आई है और इस साल इन की कुल संपत्ति में 22 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है.
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इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की सब से बड़ी रिटेलर कंपनी वालमार्ट में आधार हिस्सेदारी रखने वाले वाल्टन परिवार की संपत्ति में सब से अधिक इजाफा हुआ है. इस परिवार की कुल संपत्ति 23 बिलियन डौलर से बढ़ कर 238.20 बिलियन डौलर तक पहुंच गई. इस फेहरिस्त में नई एंट्री फ्रांस की एविएशन कंपनी डसौल्ट के मालिक की है. इस के अतिरिक्त अमेरिकन मेकअप एंड कौस्मेटिक कंपनी इस फेहरिस्त में पहली बार शामिल हुई.
वहीं ब्लूमबर्ग की हालिया नई गणना के अनुसार क्रिप्टो एक्सचेंज कंपनी बाईनेन्स के मालिक चेंगपेंग जाऊ दुनिया के शीर्ष अरबपतियों की रैंक में शामिल हुए हैं. उन की अनुमानित कुल संपत्ति 96.5 बिलियन डौलर है.
कंगली होती जनता
यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब भारत में आर्थिक गैरबराबरी की खाई पहले के मुकाबले और अधिक गहरी हुई है. अमीर अल्ट्रा अमीर बन चुके हैं. उन की मोनोपोली देश की धनसंपदा में स्थायी तौर पर जम चुकी है. वहीं, गरीब अत्यधिक गरीब होते जा रहे हैं, इतने कि बहुतों की भुखमरी जैसी हालत हो चुकी है.
7 दिसंबर 2021 को ‘विश्व असमानता रिपोर्ट 2022’ जारी हुई. दुनिया के 100 जानेमाने अर्थशास्त्रियों ने देशों की आर्थिक असमानता का अध्ययन कर यह रिपोर्ट तैयार की. इस रिपोर्ट में भी संकेत साफ थे कि सालदरसाल देश में असमानता बढ़ती जा रही है. शीर्ष 10 प्रतिशत अमीरों की आय देश की कुल आय की 57 प्रतिशत है, वहीं अमीरों की एक प्रतिशत की हिस्सेदारी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक जहां एक तरफ अमीरों की आय में इजाफा हुआ है, वहीं, निचले 50 प्रतिशत आबादी की कमाई 13 प्रतिशत घटी है. इसी प्रकार इस तबके के पास संपत्ति के नाम पर कुछ भी नहीं है.
इस साल मार्च महीने में प्यु रिसर्च सैंटर ने दुनियाभर में फैल रही गैरबराबरी को ले कर अपने आंकड़े पेश किए थे. इस रिसर्च के अनुसार, भारत में मध्यवर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा गरीबीरेखा में जा पहुंचा और गरीब लोगों का एक हिस्सा घनघोर गरीबी तक पहुंच गया. रिपोर्ट कहती है, भारत में पिछले एक साल में कुल 3.2 करोड़ मध्यवर्गीय लोग गरीबी में जा घुसे.
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रिपोर्ट में भारत के ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम और मनरेगा में भागीदारी में वृद्धि का उल्लेख किया गया था. मसलन, पिछले डेढ़ साल के कोरोनाकाल में जहां लोगों के आर्थिक हालात बद से बदतर हो गए, लोगों की नौकरियां बड़े स्तर पर गईं, स्वास्थ्य और महंगाई के चलते सेविंग्स तक खर्च हुईं, वहीं चंद लोग ऐसे भी रहे जिन्होंने इस दौरान अपनी आमदनी को कई गुना बढ़ा लिया. भारत में तो यह बड़े स्तर पर हुआ ही, साथ ही विश्व में भी गैरबराबरी पहले से अधिक फैली.
इस वर्ष औक्सफेम की वार्षिक रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि दुनिया के 1000 टौप बिसनैसमैनों ने 9 महीनों के भीतर ही कोरोना वायरस से हुए नुकसान की भरपाई कर ली थी. औक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया कि जहां टौप अमीरों को अपनी स्थिति में पहुंचने में 9 महीने लगे, वहीं गरीबों को अपनी पुरानी
स्थिति में पहुंचने में पूरा एक दशक यानी 10 साल लगेंगे. विश्व आर्थिक मंच की राजनीतिक और वित्तीय नेताओं की बैठक से पहले जारी की गई यह रिपोर्ट आमतौर पर स्विट्जरलैंड के दावोस में जारी की गई. औक्सफैम ने पाया कि महामारी ने लगभग हर देश में एकसाथ आर्थिक असमानता को और भी बढ़ाया है और ऐसा पहली बार हुआ है. औक्सफैम के कार्यकारी निदेशक गैब्रिएला बुचर ने कहा, ‘‘पेंडैमिक शुरू होने के बाद से हम असमानता की सब से बड़ी वृद्धि देखने के लिए खड़े हैं. अमीर और गरीब के बीच गहरा विभाजन घातक साबित हो रहा है.’’
उन्होंने आगे कहा, ‘‘सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक अमीर अभिजात्य वर्ग के लिए बड़ी फंडिंग कर रही हैं जो पेंडैमिक में भी अपने लक्जरी जीवन का लुत्फ उठा रहे हैं. जबकि महामारी की अग्रिम पंक्ति में खड़े दुकानदार, सहायक, स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता और बाजार विक्रेता इत्यादि बिलों का भुगतान करने व मेज पर रखे भोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं.’’
पिछले साल अक्तूबर में विश्व बैंक के एक अलग अध्ययन में पाया गया था कि 2020-21 के साल में 6 करोड़ भारतीय अत्यधिक गरीबी में धकेले जा सकते हैं. अब जाहिर है यह स्थिति भारत देश के सामने गंभीर रूप में खड़ी है क्योंकि इस वर्ष सामने आए कई आंकड़ों में यह दिखने भी लगे हैं. आज अमीरों द्वारा अर्जित की गई धनसंपदा को देश का विकास कह दिया गया है. देश में चंद अमीरों को इस तरह से प्रेजैंट किया जा रहा है जैसे इन के अमीर होने से देश के नागरिक अमीर हो रहे हों.
हकीकत यह है कि देश में पिछले 45 वर्षों से सब से अधिक दर से बेरोजगारी चल रही थी. पेंडैमिक के बाद सीएमआईई के मुताबिक करोड़ों लोग अपनी नौकरी से हाथ गंवा बैठे हैं. ऊपर से जले पर नमक यह कि सरकार गिरी अर्थव्यवस्था को मानने की जगह आंकड़ों में ?ाल?ाल कर यह साबित करने में लगी है कि सब ठीक चल रहा है.
इसी संस्था के ताजा आंकड़ों के अनुसार, सितंबर 2021 से दिसंबर 2021 के दौरान देश में बेरोजगारों की कुल संख्या 3.18 करोड़ रही. ध्यान देने वाली बात यह है कि इन में 3.03 करोड़ की उम्र 29 वर्ष तक की है. यह संख्या 2020 में लगे लौकडाउन के दौर से भी ज्यादा है जो 2.93 करोड़ थी.
हाल यह है कि भारत में अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में अरबपतियों की तीसरी सब से बड़ी संख्या है, फिर भी प्यू रिसर्च की 18 मार्च में प्रकाशित रिपोर्ट में भारत में गरीबों की संख्या में 7 करोड़ 50 लाख की वृद्धि होने का अनुमान है जो गरीबी में वैश्विक वृद्धि का लगभग 60 प्रतिशत है.
2017 के वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों, जो 2020 में पब्लिश हुए, के अनुसार, दुनिया के 68 करोड़ 90 लाख अत्यधिक गरीब लोगों में से अकेले भारत में 13 करोड़ 90 लाख लोग अत्यधिक गरीबी की श्रेणी में आते हैं, जोकि कुल अत्यधिक गरीबों की संख्या का 20.17 फीसदी बनता है. वहीं देखें तो भारत की जनसंख्या पूरे विश्व की जनसंख्या का मात्र 17.8 फीसदी ही बनती है. इस का अर्थ यह हुआ कि दुनिया के अत्यधिक गरीबों के अनुपात में सब से बड़ी संख्या भारत में जीने को मजबूर है.
संपत्ति का असमान बंटवारा
1990 के बाद देश में 2 तरह के नैरेटिव चलने लगे, एक ग्रोथ बेस्ड नैरेटिव (विकास आधारित), जिस में जीडीपी, पर कैपिटा इनकम, डैवेलपमैंट इत्यादि की बात की जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ, इनइक्वलिटी बेस्ड नैरेटिव (असमानता आधारित) की डिबेट शुरू हुई. विकास आधारित नैरेटिव की समस्या यह रही कि जबकि गरीबी उन्मूलन जरूरी था, उस समय वह किया ही नहीं गया और सिर्फ एक तबके के विकास पर जोर दिया गया.
मशहूर अर्थशास्त्री थौमस पिकैटी और उन के सहयोगियों द्वारा विकसित ‘वर्ल्ड इनइक्वलिटी डाटाबेस’ के अनुसार, 1990 में नई आर्थिक नीतियों के बाद से भारत में आय असमानता लगातार बढ़ती जा रही है. 1990 में जहां भारत के सब से अमीर 10 फीसदी लोगों की आय का औसत 34.4 प्रतिशत था और निचले 50 प्रतिशत लोगों की आय का औसत 20.3 प्रतिशत था, वह 2020 तक आतेआते फासला बढ़ कर उच्च 10 प्रतिशत का 57.1 प्रतिशत और निम्न 50 का 13.1 प्रतिशत हो गया है. डाटा का विश्लेषण भारत में धन, आय और संपत्ति की असमानता में खतरनाक वृद्धि को दिखाता है.
वहीं, 1961 में आय में शेष एक प्रतिशत की जो हिस्सेदारी 13 प्रतिशत थी, जो 1981 में घट कर 6.9 प्रतिशत हो गई थी, उस में 1990 के दशक से शीर्ष एक प्रतिशत की आय में लगातार इजाफा हुआ.1991 में यह आय 10.4 प्रतिशत से बढ़ कर 2019तक आतेआते 21.7 प्रतिशत हो गई. वहीं दूसरी तरफ कुल आय में निचले 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी 1961 और 1981 के बीच में 21 प्रतिशत और 23 प्रतिशत के बीच स्थिर रही लेकिन 1991 के बाद यह लगातार घटती गई. 2019 तक आतेआते निचले 50 की आय में हिस्सेदारी घट कर मात्र 14.7 प्रतिशत रह गई है.
इसी प्रकार जनसंख्या के शीर्ष एक प्रतिशत की कुल संपत्ति का हिस्सा जहां 1961 से 1981 तक 12 प्रतिशत के आसपास काफी स्थिर रहता था, वह 1991 के बाद से नई उदारीकरण नीतियों के बाद लगातार बढ़ा है और 2020 की औक्सफेम की रिपोर्ट कहती है कि उच्च अमीर एक प्रतिशत की संपत्ति का कुल हिस्सा 42.5 प्रतिशत तक पहुंच गया है. यानी और आसान भाषा में सम?ा जाए तो यदि देश के 70 फीसदी गरीबों की संपत्ति को 4 गुना कर दिया जाए तो भी इतनी संपत्ति न बने.
वहीं, नीचे के 50 प्रतिशत की कुल संपत्ति का हिस्सा 1961 से 1981 के बीच 12.3 प्रतिशत से मामूली रूप से गिर कर 10.9 प्रतिशत हो गया था, जोकि 1991 के बाद यह फिर तेजी से घटने लगा और 2020 की औक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार यह केवल 2.8 प्रतिशत ही रह गया है.
भारी असमानता की इस पराकाष्ठा को आसान गणित में गणना की जाए तो मात्र 140 अरबपतियों की कुल संपत्ति को अगर जोड़ दिया जाए और देश की अत्यधिक 13 करोड़ गरीब आबादी में बांट दी जाए तो 3 लाख 22 हजार के आसपास बैठती है. इसे और सिंपल तरीके से सम?ों तो एक गांव का गरीब अपने
18 साल में इतने पैसे जोड़ पाता है और एक शहर में रहने वाला गरीब तकरीबन 12 साल में इतने पैसे जोड़ पाता है.
अगर आय की असमानता में भारत की तुलना अन्य देशों से करें तो पता चलता है कि भारत में शीर्ष एक प्रतिशत लोगों की आय चीन, फ्रांस, कोरिया, रूस, इगलैंड, अमेरिका इन सब से ज्यादा (21.7) है. इन आकड़ों से यह साफ पता चलता है कि 1990 की नई आर्थिक नीतियों के बाद असमानता आसमान छूने लगी और विश्व के अन्य देशों के अनुपात में भारत के पूंजीपतियों ने देश में खासी संपत्ति बनाई.
तथ्य यह भी है कि सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में असमानता भयानक तरीके से बढ़ती जा रही है. डब्ल्यूआईडी 2019 के आंकड़ों, जो 2020 में प्रकाशित किए गए, के अनुसार, अफ्रीकी देशों में सब से अमीर
10 प्रतिशत लोगों की आय राष्ट्रीय आय के आधे के बराबर है, वहीं ईस्टर्न यूरोप में उच्च एक प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 20 प्रतिशत हिस्सा है जोकि वहां की कुल आबादी के आधे से ज्यादा लोगों की आय के बराबर है. वहीं लैटिन अमेरिका में शीर्ष 10 प्रतिशत अमीर लोगों की आय राष्ट्रीय आय का 54 प्रतिशत है. इसी प्रकार मध्यपूर्व देशों में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की आय राष्ट्रीय आय का 56 प्रतिशत है.
पूंजीवादी चुनौतियां
बीते कुछ सालों में इस बढ़ती वैश्विक असमानता ने पूंजीवाद पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं. पूंजीवाद में बड़ीबड़ी इमारतें, चमचमाती सड़कें, राज्यों को जोड़ने वाले यातायात के साधन, कनैक्टिविटी और एक सैक्शन की हाई प्रोफाइल चकाचौंध लाइफ तो दिखती है पर असंख्य लोग गरीबी में भी धकेलते हुए देखे जा सकते हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा कालेज में पौलिटिकल इकोनौमिक की स्पैशलाइज्ड प्रोफैसर नंदिनी दत्ता ने सरिता पत्रिका से बात करते हुए कहा, ‘‘पूंजीवादी अंतर्विरोध जिस तरह से बढ़ता जा रहा है, वह खुद पूंजीवाद के लिए खतरनाक है. इसे सम?ाने के लिए आप को मार्क्सवादी बनने की जरूरत नहीं है. मार्क्स ने जिस तरह के अंतर्विरोधों के बारे में बताया था, उस से कहीं ज्यादा अंतर्विरोध अब देखने में आ रहे हैं और पूंजीवाद को भी तुरतफुरत सामने आ रहे इन संकटों से समुन्मुखी होना पड़ रहा है जो खुद उस के लिए काफी खतरनाक है. पूंजीवाद भले ही इस से सतही तौर पर निबट रहा है, लेकिन इस तरह के अंतर्विरोध अगर लगातार सामने आएंगे तो एक समय बड़े बदलाव का भी सामना करना पड़ सकता है.’’
प्रोफैसर नंदिनी दत्ता की बातें भले अतिशयोक्ति लग रही हों पर यह देखने में आ रहा है कि पूंजीवाद का सरगना कहे जाने वाला अमेरिका भी इस से आशंकित दिखाई दे रहा है. वहां अब खुद अमीर लोग अमीरों पर भारी टैक्स लगाए जाने की बातें कर रहे हैं. इसे बड़ा दिल रखने की दृष्टि से देखने की जगह, पूंजीवाद के पुनर्निर्माण के तौर पर सम?ा जाना चाहिए.
नंदिनी दत्ता आगे कहती हैं, ‘‘टैक्स अमीरों पर लगना चाहिए, उन लोगों पर टैक्स लगना चाहिए जो बेशुमार कमा रहे हैं. अमेरिका इन चीजों पर सोच रहा है, अच्छी बात है पर हमारे देश में उलटा हो रहा है. यहां गरीबों को राहत दिए जाने की जरूरत है पर उन्हीं पर अधिक टैक्स लगाया जाता है. पैट्रोलडीजल से ले कर तेल, नमक, गैस सब उसी तरह से खरीदना पड़ता है जिस तरह से एक अमीर खरीदता है.
‘‘इनडायरैक्ट टैक्स सरकार का सब से बड़ा रैवेन्यू का स्रोत है, पर इस स्रोत को गरीबों पर थोप कर सरकार कमा रही है. यहां तर्क इस तरह के चलाए जा रहे हैं कि अगर अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाओगे तो वे निवेश नहीं करेंगे. इसी के मद्देनजर एक ?ाटके में उन का कौर्पोरेट टैक्स कम कर दिया गया है. हालत यह है कि जिस हिस्से को सब्सिडाइज होना चाहिए था वही गरीब तबका आज सब से अधिक टैक्स दे रहा है.’’
टैक्स का भ्रमजाल
यह एक प्रचलित भ्रांति है कि केवल अमीर लोग ही टैक्स का भुगतान करते हैं. यह जानना जरूरी है कि भारत में प्रत्यक्ष कर (व्यक्तिगत आय टैक्स और कौर्पोरेट टैक्स) कुल राजस्व का लगभग आधा ही होता है, बाकी अप्रत्यक्ष टैक्स में जीएसटी, उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क इत्यादि शामिल होते हैं. महामारी के बाद भारत के राजस्व में अप्रत्यक्ष करों की भूमिका को ज्यादा बढ़ा दिया गया. वित्तवर्ष 2021 में केंद्र सरकार ने पिछले वित्तवर्ष की तुलना में 12 प्रतिशत की वृद्धि कर 10.71 फीसदी अप्रत्यक्ष कर वसूल किया. ध्यान देने वाली बात यह है कि इस में जीएसटी से वसूले गए कर में 8 प्रतिशत की गिरावट के बावजूद अप्रत्यक्ष कर में वृद्धि देखी गई.
इस के अतिरिक्त पिछले एक दशक में कुल राजस्व में कौर्पोरेट टैक्स की हिस्सेदारी में कमी आई है और अप्रत्यक्ष करों व आय करों में वृद्धि हुई है. वित्त मंत्रालय की 20 सितंबर, 2019 की प्रैस रिलीज के अनुसार, सरकार ने घरेलू कंपनियों पर कौर्पोरेट टैक्स घटा कर
22 प्रतिशत तक कर दिया है, जोकि साल 2018 में 35 प्रतिशत था. इसी प्रकार यदि हम संपत्ति कर (वैल्थ टैक्स) की बात करें तो भारत में 1950 से शुरू किया गया संपत्ति कर, जोकि 30 लाख से ज्यादा की संपत्ति रखने वालों पर लगा करता था, साल 2015 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हटा दिया था, जिस से सरकार को लगभग सालाना एक हजार करोड़ का रैवेन्यू जेनरेट होता था.
इस की जगह उस समय सरकार ने एक करोड़ से ज्यादा आय वाले अमीरों पर 2 प्रतिशत ‘सुपर रिच सरचार्ज’ लगाया था. लेकिन 2019 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निवेशकों को प्रोत्साहित करने के नाम पर इस सरचार्ज को भी हटा दिया, जिस से सरकार को 1,400 करोड़ रुपए का रैवेन्यू कासालाना नुकसान लेना पड़ता है.
यहां यह भी देखा जाना चाहिए कि सरकार किस तबके पर अधिक मेहरबान होती है. मनमोहन सरकार की तुलना में मोदी सरकार ने पूंजीपतियों के 3.6 गुना कर्ज माफ किए हैं. सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 से 2019 के दौरान सरकार ने 7 लाख 94 हजार 354 करोड़ रुपए के कर्ज एनपीए में डाल दिए हैं, यानी सीधा कहा जाए तो कर्ज माफ किए गए हैं.
इस के अनुसार, यह साफ देखा जा सकता है कि एक तरफ जहां सुपर अमीरों को टैक्स में सरकार लगातार छूट दे रही है, वहीं दूसरी तरफ गरीबों पर भारीभरकम टैक्स लगा कर सरकार उन्हें और असमानता की तरफ धकेल रही है, जबकि इस समय होना इस के उलटा चाहिए था.
लोकतंत्र के लिए खतरा असमानता
इसे सम?ाने के लिए हम ने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल औफ इकोनौमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफैसर मनीष कुमार से बात की. वे कहते हैं, ‘‘पूंजीवादी व्यवस्था साफसाफ शोषण पर आधारित होती है. कुछ लोगों को काम और कुछ लोगों को बेरोजगार रख कर यह पूरा सिस्टम सरवाइव करता है, यही इस की बुनियाद भी है पर यह सम?ाना जरूरी हो जाता है कि शोषण से पनप रही असमानता की भी अपनी एक लिमिट होती है.’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘अर्थशास्त्र डिमांड और सप्लाई की सिंपल थ्योरी पर काम करता है. डिमांड है तो सप्लाई है. मान लीजिए अगर देश में नौकरियों का भारी अकाल है, जो काम कर रहे हैं वे भी ठीक से तनख्वाह नहीं पा रहे, लोग अतिशोषित हो रहे हैं, तो ऐसे में लोगों की अपनेआप क्रयशक्ति (खर्च करने की ताकत) कम हो जाती है. जब अधिकतम लोगों की क्रयशक्ति कम होती है तो इस से महामंदी की स्थिति पैदा होती है. जो उत्पाद हुआ होता है उसे कोई खरीदता नहीं, जिस कारण नई नौकरियां पैदा नहीं होतीं और यह चक्र चलता रहता है. इस तरह का उदाहरण हम ने 1929 में वैश्विक महामंदी के तौर पर देखा था.’’
इसी तरह प्रोफैसर नंदिनी दत्ता कहती हैं, ‘‘असमानता दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही है, गरीब गरीब हो रहे हैं या महागरीब बन रहे हैं, तो इस से सोशल फैब्रिक टूटता है. मनुष्य अपने सरवाइवल के लिए कुछ भी करने को तैयार है और जहां एक तरह का तनाव होगा वहां लोगों की कमाई पर असर पड़ेगा.’’
वे आगे कहती हैं, ‘‘असमानता से लोकतंत्र पर बुरा असर पड़ता है, जैसे इकोनौमिक पावर जिन के हाथ में है, सारी नीतियां वही लोग डिक्टैट करते हैं. लोकतंत्र जो ‘फौर द पीपल, बाइ द पीपल है,’ उस में 70-80 प्रतिशत लोग पूरे डैवलपमैंट प्रोजैक्ट से ही बाहर हो जाते हैं. ऐसे में कम्युनल टैंशन ज्यादा बढ़ती है, रिऐक्शनरी पौलिटिक्स ज्यादा बढ़ती है, आइडैंटिटी पौलिटिक्स बढ़ती है, मिसलीडिंग पौलिटिक्स बढ़ती है, क्योंकि सब लोग अपनेअपने हिस्से को मानने लग जाते हैं.’’
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विकृति से कम नहीं
सरकार की नीतियों में भी चंद पूंजीपतियों का आर्थिक विकास ही देश का विकास हो चला है. सरकार की अधिकतर नीतियां बड़े पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं, फिर चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी हो, कृषि कानून हों या कुछ और. कई सरकारी कंपनियां घाटा बता कर एमएनपी के नाम पर लीज पर दी जा रही हैं या निजी हाथों में बेच दी गई हैं.
सरकार इन सभी चीजों से आम लोगों का ध्यान हटाने के लिए अपनी छोटी उपलब्धियों को बड़ा कर के प्रचार कर रही है या जहां छोटी भी उपलब्धि नहीं उसे गैरजरूरी मुद्दों से भ्रमित कर रही है. सीधा देखा जा सकता है कि इस राक्षसी गैरबराबरी ने लोकतंत्र यानी लोगों की आवाज को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है. आज आर्थिक भेदभाव जमीनआसमान जैसा हो चला है.
बचपन में सरकारी स्कूल की 10वीं कक्षा में इंग्लिश के एक अध्यापक हुआ करते थे, जिन के मुंह से एक कहावत अकसर सुनने को मिलती थी कि ‘पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं.’ इस कहावत का प्रयोग अकसर वे कमजोर बच्चे और तेज बच्चे की तुलना करते हुए बोगस तर्क गढ़ते दिया करते थे. यह स्थिति तब थी जब वे खचाखच भरी क्लास में सिर्फ आगे वाली बैंच में बैठे 4-5 बच्चों पर विशेष ध्यान दिया करते थे.
किसी छात्र के प्रति परिस्थितियां जाने बगैर अध्यापक का पहले से ही पूर्वाग्रह बना लेना थोड़ा अटपटा तो लगता था पर चूंकि समाज में फैली असामानता को कुतार्किक तौर से प्रस्तुत करने के लिए इस कहावत की चलती आ रही सामाजिक स्वीकार्यता थी, तो हम भी इसे पचा लिया करते थे. किंतु उन दिनों भी एक बात दिमाग में चलती रहती थी कि कहावत के हिसाब से पांचों उंगलियां बेशक बराबर नहीं होतीं, पर इतनी भी तो गैरबराबर नहीं होनी चाहिए कि एक उंगली टांग बराबर हो और एक नाखून बराबर. आज देशदुनिया में गैरबराबरी इसी अंदाज में बढ़ रही है, जो समाज में फैली किसी विकृति से कम नहीं.
अब सवाल यह उठता है कि बढ़ती असमानता राजनीति का व चुनावों का मुद्दा क्यों नहीं बनती? हैरानी की बात है कि चुनावप्रचार में हमारे राजनेताओं को इस संदर्भ में कुछ कहने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती. चुनाव का सारा गणित जातियों और धर्मों के आधार पर चल रहा है. जातिधर्म के आधार पर वोट मांगे जाते हैं और डाले भी जाते हैं. बढ़ती आर्थिक असमानता व सामाजिक अस्थिरता आखिर चुनावी राजनीति के केंद्र में क्यों नहीं है, यह बहुत ही अहम सवाल देश को ?ाक?ार रहा है.