केवट यानी निषादराज के बारे में हर कोई जानता है कि वह मामूली मछुआरा और नाविक था. रामायण के गरीब, दलित और दीनहीन इस किर दार के बारे में लोग यह भी जानते हैं कि उस ने राम को नदी पार कराई थी और एवज में मेहनताना नहीं बल्कि आशीर्वाद व मोक्ष चाहा था. त्रेता से कलियुग आतेआते केवट कब आदमी से देवता हो गया, इस की किसी को हवा भी न लगी. और तो और, उस की जयंती भी बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी है. तीजत्योहारों और जयंतियों वाले हमारे देश में बीती 14 मई को केवट जयंती सरकारी स्तर पर भोपाल के मुख्यमंत्री निवास में मनाई गई थी.

मुख्य अतिथि, जाहिर है, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे और तालियां बजाने केवट के लिए कुछ वंशज मौजूद थे जिन के चेहरे से खुशी और दर्प फूटे पड़ रहे थे. उन पर फूल बरसाए जा रहे थे. आखिर बात थी भी कुछ ऐसी ही, उन के पूर्वज को देवता का दर्जा जो मिल गया था.

देवता वही होता है जिस के मंदिर हों, मूर्तियां हों, जिस का पूजापाठ हो और जिस की जयंती मने. एक पंडितपुजारी हों, चढ़ावा चढ़े. चुनावी साल में केवट समाज की भीड़ देख शिवराज सिंह गदगद थे और उन के चेलेचपाटे हिसाबकिताब लगा रहे थे कि किस विधानसभा सीट पर इन निषादराजों के कितने वोट हैं और मुख्यमंत्री ने जो घोषणाएं की हैं उन का कितना फायदा भाजपा को मिलेगा.

ये सियासी मुनीम यह याद कर भी फूले नहीं समा रहे थे कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा और योगी आदित्यनाथ की भी नैया इसी समाज के लोगों ने पार लगाने में अहम रोल निभाया था. शायद पहली बार इन केवटों ने जाना कि निषादराज हिंदू पोंगापंथी के लिए किसी भगवान से कम नहीं हैं. कुछ देर इधरउधर की हांक कर शिवराज सिंह मुद्दे की बात पर आते बोले, ‘आप लोग एक जगह तय कर लें जहां भव्य और विशाल निषादराज स्मारक बनाया जाएगा. निषादराज की मूर्तियां भी लगाई जाएंगी.’ फिर, वे प्रतीक रूप में नाव पर भी चढ़े.

इसी दिन केवटों पर डोरे प्रदेश कांग्रेस भी अपने दफ्तर में समारोहपूर्वक डाल रही थी. कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी केवटों को दाना चुगाया. इन 2 आयोजनों से साबित हो गया कि निषाद समुदाय के लोग भी अब देवताविहीन नहीं रहे. कुल जमा देवताओं की लिस्ट में और एक नया नाम शुमार हो गया.

सवर्ण देवताओं की तलब

ढूंढ़े से भी कोई जाति ऐसी नहीं मिलेगी जिस का अपना खास कोई देवी या देवता न हो. देश में लगभग 3 हजार जातियां हैं. इस लिहाज से तो देवताओं की तादाद भी 3 हजार होनी चाहिए. अब यह अपनीअपनी सम?ा पर निर्भर है कि जाति की संख्या के मुताबिक देवताओं की संख्या मानी जाए या देवताओं की संख्या के मुताबिक जातियां मानी जाएं.

हरेक राज्य में सैकड़ों/हजारों देवता ऐसे हैं जिन के नाम भी किसी, खासतौर से शहरियों, ने नहीं सुने होंगे. एक दिलचस्प उदाहरण अकेले उत्तरी बिहार का लें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक वहां के 140 विधानसभा क्षेत्रों में दर्जनों देवता पूजे जाते हैं. उन के नाम भी हिंदू देवताओं से हट कर हैं, मसलन गौरैया बाबा, बंदी माई, सोखा बाबा, बरहम बाबा, गिहल, विषहरा, बामती, सलहेस आदि. ये सभी दलित जातियों के देवता हैं, इसलिए भी दलितों को सवर्णों के देवताओं जैसे राम, विष्णु, चक्रधारी कृष्ण, ब्रह्मा की तलब नहीं लगती है.

इंडियन काउंसिल औफ हिस्टौरिकल रिसर्च के एक स्कौलर प्रदीपकांत चौधरी की यह रिसर्च काफी दिलचस्प जातियों के देवताओं के लिहाज से है. बकौल प्रदीपकांत, ऊंची जाति वालों में कुल देवी या देवता आमतौर पर एक होता है. उन से छोटी जातियों, यादव-कुर्मी आदि में यह संख्या 2 से 3 हो जाती है जबकि दलित और महादलित जातियों में दर्जनभर से ज्यादा देवता पूजे जाते हैं.

इन दिनों जातिगत जनगणना को ले कर खासा हल्ला मचा हुआ है. इस से कुछ और हासिल हो या न हो, यह जरूर साफ हो जाएगा कि आखिर देवता कितने हैं. साल 1901 की जनगणना, जो हकीकत के ज्यादा नजदीक मानी जाती है, के मुताबिक देश में जातियों की संख्या 2,378 है. अब उसी अनुपात में देवताओं की तादाद कुछ बढ़ी है तो वह केवट जैसों को देवता का दर्जा दे देने की वजह से बढ़ी है. कुछ समाजशास्त्री उपजातियों की संख्या 25 हजार के लगभग बताते हैं, यानी जाति की भी जाति होती है. इस लिहाज से इतने ही उपदेवता भी होते हैं.

जातियों के बारे में कुछ भी स्पष्ट या प्रामाणिक नहीं है. अब से सौ साल पहले मुंबई विश्वविद्यालय के नामी समाजशास्त्री डा. जी एस घुर्ये, जिन्हें भारत में समाजशास्त्र का संस्थापक भी माना जाता है, ने लंबाचौड़ा हिसाबकिताब लगा कर बताया था कि देश में जातियों की कुल संख्या 3 हजार होनी चाहिए. लेकिन उन के गणित का पोस्टमार्टम ‘भारत में जातियों का इतिहास’ नाम की किताब के लेखक श्रीधर केतकर की यह थ्योरी करती है कि केवल ब्राह्मणों की ही 800 उपजातियां हैं. इस लिहाज से तो शूद्रों की उपजातियां 10 गुना से भी ज्यादा होनी चाहिए. जातियां धर्म के हिसाब से बनी हों या कर्म यानी पेशे के हिसाब से, शूद्रों की सब से ज्यादा हैं.

यह बात भी कम दिलचस्प नहीं कि कुछ जातियों के एक से ज्यादा भी देवता हैं लेकिन एक से ज्यादा देवताओं को मानने की छूट या सहूलियत केवल ऊंची जाति वालों को है. नीची जाति वाले आमतौर पर अपनी उपजाति का देवता ही पूजते हैं. कायस्थ होने के नाते यह लेखक बचपन से ही सुनता आया है कि हमारे देवता चित्रगुप्त हैं जो सभी जातियों और धर्मों के लोगों के पापपुण्यों का लेखाजोखा रखते हैं.

लेकिन बचपन से ही हर कायस्थ यह भी सुनता आया है कि हम श्रीवास्तव लोग बाकी 11 जातियों से श्रेष्ठ हैं. यानी एकता सिर्फ देवता या आराध्य स्तर पर है. इस के बाद तो उपजाति, गोत्र, कुलदेवी, देवताओं और बापदादाओं का बखान शुरू हो जाता है. अब यह सवाल भी अनुतरित्त ही रह जाता है कि जब चित्रगुप्त हमारा देवता है तो हम राम, कृष्ण, शिव या किसी देवी को क्यों पूजें. इस का जवाब बड़ा दिलचस्प है कि चित्रगुप्त के पूजापाठ में किसी को दक्षिणा नहीं देना पड़ती लेकिन बाकियों को चंकी भगवान का दर्जा हासिल है, इसलिए उन के पूजापाठ में ब्राह्मण को दान देने का विधान और बाध्यता है.

देश के बनिए और वैश्य कृष्ण का बाल रूप पूजते हैं लेकिन उन का अपनी जाति के मुताबिक भी एक अलग देवता है. मसलन, अग्रवाल लोग अग्रसेन महाराज को तो माहेश्वरी महेश को पूजते हैं, यह शंकर का दूसरा नाम है. लेकिन पूजापाठ के तौरतरीके अलग हैं. अगर यह महेश शंकर ही होता तो महेश्वरी भी महेश नवमी के बजाय शिवरात्रि मनाते लेकिन उन की महेश जयंती ज्येष्ठ महीने की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाना बताता है कि धर्म की महिमा और दुकान कितनी व्यापक है.

इन जातियों में एक अहम लेकिन अपेक्षाकृत छोटी जाति गुप्ता भी है लेकिन उस का अग्रसेन या महेश जैसा कोई अधिकृत देवता नहीं है, इसलिए वह लड्डू गोपाल के अलावा हनुमान से काम चला रही है. ऐसी जातियों के बारे में विरोधाभास कायम है कि ये गुप्त वंश के हैं या तेली हैं जैसा कि धर्म के ठेकेदार कहते हैं.

केवट समुदाय के लोग भी देवीदेवताओं को पूजते हैं और ब्राह्मणों को दानदक्षिणा भी खूब देते हैं लेकिन हालफिलहाल निषादराज के नाम पर उन्हें किसी को धेला भी नहीं देना पड़ता. आने वाले दिनों में जब निषादराज मंदिर बन जाएंगे और उन में यज्ञहवन जैसे कर्मकांड होने लगेंगे तब जादू के जोर से एक ब्राह्मण पुजारी प्रगट होगा और चढ़ावा बटोर ले जाएगा. तब उन्हें कुछकुछ सवर्णपने का एहसास होगा. यह एक तरह की मुख्यधारा में शामिल होने की एंट्री फीस है.

इस गड़बड़?ाले को बहुत सरल तरीके से सम?ों तो यादव जाति और उस की उपजातियों के घोषित देवता कृष्ण हैं पर कृष्ण मंदिरों का चढ़ावा ब्राह्मण बटोरते हैं. इसी तरह राम क्षत्रियों के देवता हैं, उन के नाम की चढ़ोत्री भी ब्राह्मण बटोरते हैं. यानी जितने ज्यादा देवता उतना बड़ा कारोबार. इसलिए देवता बढ़ते रहें, इस में श्रेष्ठियों को कोई दिक्कत नहीं.

दिक्कत तो तब होती है जब कोई यह कहने लगे कि जातियां इन्हीं ब्राह्मण पंडों ने बनाईं और वह कहने वाला कोई और नहीं बल्कि आरएसएस जैसे शक्तिशाली संगठन का मुखिया हो तो त्रिपुंड पर सिलवटें पड़ जाना स्वाभाविक बात है कि जिन्हें दुकान चमकाने का ठेका दिया था वही बुलडोजर ले कर आ गए. तो हो गई हिंदू धर्म की रक्षा और बन गया हिंदू राष्ट्र.

जातियां – भगवान का संविधान

2023 की 5 फरवरी को रविदास जयंती के मौके पर मुंबई के एक आयोजन में भाषण देते आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि जाति भगवान ने नहीं बनाई है, जाति पंडितों की बनाई हुई व्यवस्था है जो गलत है. किसी को यह सफाई देने की जरूरत नहीं पड़ी कि यहां पंडित शब्द से उन का मतलब ब्राह्मण से था या नहीं.

देखते ही देखते मोहन भागवत के इस बयान का विरोध शुरू हो गया. बिरला ही ऐसा शहर होगा जहां ब्राह्मण संगठनों ने उन का विरोध न किया हो. सड़कों पर प्रदर्शन हुआ, हनुमान चालीसा पढ़ कर भागवत को सद्बुद्धि देने की प्रार्थना की गई, उन की हायहाय के नारे लगे, कई जगह प्रशासन को ज्ञापन भी सौंपे गए. मोहन भागवत को ब्राह्मण समाज से माफी मांगने की चेतावनी दी गई जो उन्होंने कुछ दिनों बाद गोलमोल शब्दों में मांग भी ली.

हर किसी ने इस वक्तव्य का मतलब अपने हिसाब से लगाया. अधिकतर लोगों को हैरानी इस बात की थी कि जिस संगठन पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगता रहा है वही ब्राह्मणविरोधी बात कह रहा है. एक लोकप्रिय और आरएसएस की तरह ही देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम पर काम कर रहे धर्मगुरु देवकीनंदन ठाकुर की धौंस से स्पष्ट हुआ कि दरअसल लोचा क्या और कहां है.

उन्होंने बेहद तल्ख लहजे में कहा, ‘‘मैं कुछ पर्सनल बोल दूंगा तो बुरा लग जाएगा. आप पढि़ए तो वेद. उन में जो व्यवस्था है वही भगवान का संविधान है.’’

यानी हर जाति का देवता भी धर्म, भगवान और ब्राह्मणों की देन है जिसे मोहन भागवत ब्राह्मणों के दिमाग की उपज बता गए तो बवाल मच गया. इतने सारे देवता किस ने बनाए, इस सवाल पर अब ज्यादा रिसर्च की जरूरत नहीं है क्योंकि देवकीनंदन इस का श्रेय लेने से हिचक नहीं रहे हैं. इस समीकरण से साबित यह भी होता है कि ब्राह्मण और भगवान कोई अलगअलग इकाइयां नहीं हैं. ब्राह्मण ही भगवान है और यह बात धर्मग्रंथों में प्रमुखता से कही गई है.

कमजोर पड़ता हिंदुत्व

आरएसएस और मोहन भागवत का हिंदू राष्ट्र का सपना जिन कई वजहों से पूरा नहीं हो पाएगा, उन में से एक वजह जितनी जाति उतने देवता भी हैं. कुकुरमुत्ते सरीखे जो देवीदेवता ब्राह्मणों ने अपनी दुकान के लिए उपजाए हैं, अब वही राह में रोड़ा बनते जा रहे हैं. निषाद जैसी जातियां अगर किसी एक या दो देवताओं को मानें तो उन के कट्टर हिंदू होने की गुंजाइश बढ़ जाती है लेकिन उन्हें अपना एक अलग देवता मिल गया तो वे किसी ?ां?ाट में पड़ना पसंद नहीं करेंगे.

यह बात हर उस जाति पर लागू होती है जिसे अपना एक अलग देवता पकड़ा दिया गया है. मिसाल पिछड़ों में प्रमुखता से शुमार लोधी जाति की लें तो कुछ वर्षों पहले तक उस का कोई घोषित देवता नहीं हुआ करता था लेकिन मंदिर आंदोलन के बाद देश में रातोंरात जो देवता बड़े पैमाने पर पूजे जाने लगे उन में से एक लोधेश्वर देवता भी हैं.

साध्वी उमा भारती 2003 में जब मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं तो मुख्यमंत्री निवास में उन्होंने समारोहपूर्वक लोधेश्वर देवता का पूजन किया था. इस के बाद तो लोधी समाज धूमधाम से लोधेश्वर जयंती मनाने लगा. जगहजगह लोधेश्वर का पूजापाठ होने लगा, उन्हें 56 भोग परोसे जाने लगे, भजनकीर्तन और भंडारे होने लगे. इस से हुआ यह कि लोधियों के दिलोदिमाग से हिंदुत्व का भूत उतरने लगा और लोधेश्वर का चढ़ने लगा क्योंकि द्वापर युग का यह ज्ञान भी ब्राह्मणों का दिया हुआ है कि लोधेश्वर भी शंकर का रूप है. बस, फिर पिछड़ी जाति वाले लोधियों को अगड़े हिंदुओं वाले शंकर की खास जरूरत नहीं रह गई.

मोहन भागवत की चिंता यही है कि जब तक छोटेबड़े हिंदू ‘वन नेशन वन गौड’ को नहीं मानेंगे तब तक हिंदू राष्ट्र बनना नामुमकिन है. अब यह स्थिति भस्मासुर सरीखी होती जा रही है. ब्राह्मणों को हिंदू राष्ट्र तो चाहिए लेकिन भाजपा या आरएसएस वाला नहीं, बल्कि भगवान के संविधान वाला जिस में पूजापाठी अहम होते हैं क्योंकि वे जिंदगीभर दानदक्षिणा देते रहते हैं.

एक बार पूजापाठ की लत अगर पड़ गई तो फिर आसानी तो क्या मुश्किल से भी नहीं छूटती. बड़ी मुश्किल से पिछड़े और दलित इस ?ांसे में आ रहे हैं जो भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फुले जैसे समाजसुधारकों को भी देवता की तरह पूजने लगे हैं. ऐसे में उन्हें छोड़ पाने का मोह ब्राह्मणों को कारोबारी जोखिम लग रहा है. दलित, पिछड़े, आदिवासी किसी को भी देवता मान उस की पूजा करें, यही ब्राह्मणों की मंशा और मकसद है.

ताकि भीड़ काबू में रहे

हर जाति को अपना अलग देवता थमा देने का रिवाज कितना भी पुराना हो और उस में मतभेद हों लेकिन यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि यह पौराणिक काल की ही व्यवस्था है. फर्क सिर्फ इतना है कि कायस्थों के चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उपजे बताए जाते हैं तो निषादों के केवट शूद्र हैं जबकि उन की उत्पति ब्रह्मा के पैर से भी हुई नहीं बताई गई है. त्रेता युग में जो केवट था वह साल 2023 में देवता बनाया जा रहा है तो इस के पीछे कोई नेकनीयत नहीं है, बल्कि यह शुद्ध धार्मिक और राजनीतिक स्वार्थ और व्यवसाय है.

रामायण और रामचरितमानस में जिन जातियों का प्रमुखता से उल्लेख है उन में कुम्हार, तेली, भंगी, कोल, कलवार, बहेलिया आदि हैं जिन्हें एक दोहे में कुछ इस तरह पिरोया गया है.

जे वर्णाश्रम तेली कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा. अर्थात, तेली, कुम्हार, भंगी, बहेलिया, कोल, कलवार अधम वर्ण के लोग हैं, ये पापी जातियां हैं.

ये नीच, पापी और अधम लोग कहीं मंदिरों में गंद फैलाते मर्यादा पुरुषोत्तम राम को न पूजने लगें, इसलिए इन के लिए अलगअलग देवताओं के इंतजाम कर दिए गए जिस से पवित्रता बनी रहे और सनातनी लोग अशुद्ध न हों. इन दिनों तेली जाति की देवता/देवी एक भगवती माता हैं. गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गिनती इसी जाति में होती है.

कुम्हार जाति के लोगों को भी एक श्री यादे मां थमा दी गईं. हालांकि यह जाति ब्रह्मा ने पैदा की थी लेकिन यही ब्रह्मा उन के लिए दूर की बात है क्योंकि वे शूद्र हैं. इसलिए उन्हें शूद्र रूप दिया गया. यह और बात है कि कुम्हार जाति के लोग खुद को प्रजापति कहने में गर्व महसूसते हैं. लेकिन इस से उन की हीनभावना दूर नहीं हो जाती और न ही सामाजिक हैसियत पर कोई फर्क पड़ता है जोकि दोयम दर्जे की ही है.

कोल और कलवार जाति के देवता इन दिनों बलभद्र हैं जिन्हें बलराम भी कहा जाता है. कुर्मी जाति भी इन्हीं की तरह अर्धकिसान यानी खेतिहर मजदूर हैं. शिवराज सिंह चौहान कुर्मी जाति के हैं जिस के आराध्य या देवता भी बलराम ही हैं. अब कोल जाति की कुछ उपजातियों के लोग ?ांसी की रानी लक्ष्मीबाई की सहयोगी ?ालकारी देवी को भी पूजने लगे हैं.

सब से नीची और छोटी जाति के करार दे दिए गए भंगी और मेहतर जाति के लोगों के देवता वाल्मीकि हैं जिन के मंदिर गलीकूचों में बन गए हैं. लेकिन आमतौर पर ये दलित बस्तियों में ही हैं. यह बात भी कम दिलचस्प नहीं कि छोटी जाति के किसी देवता के हाथ में धनुष, बाण, तलवार या फरसे जैसे हथियार नहीं दिखते, फिर तंत्रमंत्र से दुश्मन का नाश करने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती. यानी वे अपने अनुयायियों की तरह शक्तिहीन और लाचार हैं.

दलित जातियों के लोग सवर्णों के मंदिर यानी राम, कृष्ण, शिव आदि के मंदिरों में नहीं जाते और न ही इन्हें कभी कलावा पहने या तिलक लगाए देखा जाता है. कुछ पैसे वाले हो गए पिछड़ों को यह हक हासिल हो गया है जो दानदक्षिणा के नाम पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाने लगे हैं. राजनीति के चलते इन के कुछ देवताओं की जयंतियां मनाई जाने लगी हैं. इसी तरह सरकारी प्रोत्साहन के चलते चमड़े का काम करने वाली जाति के लोग अब रविदास को पूजने लगे हैं जिन पर भाजपा और कांग्रेस सहित सभी छोटेबड़े दल मेहरबान रहते हैं.

इन्हीं रविदास की जयंती पर मोहन भागवत की जबान फिसली थी और वे समानता की बात करते ब्राह्मणों की पोल खोल बैठे थे. रविदास जैसे सूफियों और सुधारकों को कट्टर हिंदूवादी देवता का दर्जा देने को इसलिए भी तुल गए हैं कि जिस से ऊंची जाति वालों के मंदिर में दलितों की भीड़ भी नियंत्रित रहे. उन में इन लोगों के जाने की मुमानियत है. कबीर दास कोरी जाति के देवता हो गए हैं जिन के मंदिर अब हर कहीं हैं. इस जाति के लोग भी सवर्णों के मंदिर में नहीं जाते.

ब्रह्मा और विष्णु के अवतारों में भी विकट का भेदभाव है, उदाहरण विश्वकर्मा नाम के देवता का लें तो वे बढ़ई और लोहार जाति के हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से विश्वकर्मा जयंती धूमधाम से मनाई जाने लगी है. उन के भी मंदिर बन गए हैं. नाइयों को इन मंदिरों से दूर रखने के लिए सेन महाराज की जयंती मनाई जाने लगी है. इन देवताओं की लिस्ट बहुत लंबी है जो दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है.

आदिवासियों के बदले देवता

आदिवासी खुद को हिंदू नहीं मानते. इस नाते उन्हें हिंदू देवताओं, चाहे वे छोटे हों या बड़े, से कोई लेनादेना नहीं होता. इस के बाद भी हिंदूवादी संगठन और क्रिश्चियन मिशनरियां इन के पीछे हनुमान, शंकर के तावीज और मूर्तियां ले कर दौड़ते रहते हैं कि हमारा धर्म और देवीदेवता अपना लो. ईसाई मिशनरियां क्रौस और बाइबिल आदिवासी इलाकों में बांटती हैं जिन पर आएदिन विवाद होते रहते हैं.

इन दिनों भाजपा ने इन भोलेभाले प्रकृतिपूजकों को बिरसा मुंडा और टटया भील सरीखे आधा दर्जन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थमा दिए हैं. सरकारी और राजनीतिक आयोजनों में इन्हें भी केवट की तरह देवता बनाने की साजिश शबाब पर है. मकसद आदिवासियों को भी पूजापाठी बनाना है. इन अदिवासी नायकों का बखान बढ़ाचढ़ा कर किया जाता है और इन की जयंतियों पर छुट्टी भी दी जानी लगी है. हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कुछ सालों बाद आदिवासी अपने इन नव देवताओं के मंदिरों से तिलक लगा कर हाथ में प्रसाद की थाली ले कर मंदिर से बाहर निकलते नजर आएं.

पहली नजर में देखने से लगता है कि हर जाति के देवता से फायदा राजनीतिक दलों का होता है लेकिन दूसरी नजर से देखें तो फायदा ब्राह्मणों का ज्यादा है जो इन छोटे देवताओं के मंदिर में नहीं जाते, न ही उन का पूजापाठ करते हैं जाहिर है उन में इन के प्रति श्रद्धा ही नहीं है, हां, श्रद्धा हो जाएगी बशर्ते उन्हें दक्षिणा मिलने लगे. प्रसंगवश ब्राह्मणों का नजरिया अभी भी इन के प्रति कितना नफरतभरा है, यह हालिया कुछ मामलों से दिखता है और यह सवर्णों का जातिगत अहंकार बनाए रखने के लिए है जिस से वे खुद को श्रेष्ठ सम?ाते रहें और होड़ में आ कर और ज्यादा दानदक्षिणा दें.

फसाद और नफानुकसान

बागेश्वर धाम के बाबा धीरेंद्र शास्त्री आएदिन छोटी जाति वालों सहित उन के देवताओं के बारे में भी अपशब्दों का इस्तेमाल अपने प्रवचनों में करते रहते हैं. 23 मई, 2023 को मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले बालाघाट में उन्होंने आदिवासियों को जंगली कहा तो उन का विरोध आदिवासी संगठनों, खासतौर से कलार समुदाय के लोगों ने किया था लेकिन वह फुस्स हो कर रह गया. क्योंकि धीरेंद्र के बारे में कुछ बोलने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा. उस का अपना साम्राज्य, रुतबा और रसूख है. ब्राह्मणों सहित सारी सवर्ण जातियां उस के साथ हैं. भाजपा उस की संरक्षक और सरकारें उस की दास व भाजपाई शीर्ष नेता और मुख्यमंत्री उस के शिष्य व वत्स हैं.

इस महाराज ने मई के ही पहले सप्ताह में एक प्रवचन में सहस्त्रबाहु नाम के देवता के बारे में कहा था कि वह जिस वंश से था उस का नाम हैहय था. हैहय वंश के विनाश के लिए भगवान परशुराम ने फरसा अपने हाथ में उठाया. हैहय वंश का राजा बड़ा ही कुकर्मी व साधुओं पर अत्याचार करने वाला था. इस पर हैहय समाज के लोग बिफर उठे और जगहजगह उन्होंने धीरेंद्र शास्त्री का तरहतरह से विरोध किया. इस वंश में कलाल और ताम्रकर जाति के लोग प्रमुख हैं.

ताम्रकर समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीहोर के वरिष्ठ अधिवक्ता और पत्रकार रामनारायण ताम्रकर से जब इस प्रतिनिधि ने बात की तो उन्होंने कहा, ‘‘धीरेंद्र शास्त्री नफरत फैला रहे हैं. उन का मकसद भले ही हिंदू राष्ट्र हो लेकिन इस तरह वे कामयाब नहीं होने वाले. हां, वे चाहें तो अपना अलग ब्राह्मण राष्ट्र बना लें लेकिन यह नफरत फैलाना बंद करें. कुछ बोलने से पहले उन्हें धर्मग्रंथ पढ़ लेना चाहिए और लोगों की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए.’’

असल में यह वही नफरत है जिस की चर्चा राहुल गांधी अकसर अपने बयानों व भाषणों में किया करते हैं कि भाजपा, आरएसएस और दूसरे कट्टरवादी संगठन नफरत फैलाया करते हैं और देश में फूट डाल कर उसे बांट देना चाहते हैं. नफरत की दुकान का जवाब मोहब्बत की दुकान से देने का राहुल का फलसफा कर्नाटक में सिर चढ़ कर बोला. वह हिंदीभाषी राज्यों में चलेगा या नहीं, यह देखने वाली बात होगी.

लाख टके का दिलचस्प सवाल यह भी है कि क्यों राम और कृष्ण जपने वाली भाजपा निषादराज जैसे छोटी जाति के देवताओं की मुहताज हो चली है और क्यों उस के धीरेंद्र शास्त्री जैसे एजेंट इन्हीं छोटी जाति वालों और उन के देवताओं को ही कोसते रहते हैं. राजनीतिक सच जो भी हो लेकिन धार्मिक सच उस से ज्यादा नुकसानदेह है कि हर जाति का देवता होगा तो पूजा?पाठी मानसिकता बढ़ेगी, लोग अपना कामधाम छोड़ कर मंदिरों और चलसमारोहों में भजनकीर्तन करते नाचगा रहे होंगे तो नुकसान भी उन्हीं का होगा. इस मानसिकता को शह देने वाले तो ठाट से राज कर रहे हैं.

जातियों और देवताओं की उत्पत्ति के मनगढ़ंत दिलचस्प किस्से

हजारोंलाखों पौराणिक किस्सेकहानियों की तरह एक बात यह भी है कि एक बार माता पार्वती भगवान शंकर से एक सुंदर बगीचा बनाने की जिद पकड़ बैठीं. तब भगवान शंकर ने अनंत चौदस के दिन अपने कान के मैल से एक पुरुष पुतले को बनाया और उस में प्राण डाल दिए जो मनंदा कहलाया. इसी तरह पार्वती ने डाभ ( एक तरह की घास ) के एक पुतले में प्राण फूंक कर एक सुंदर कन्या को बनाया जो आदि कन्या सेजा कहलाई.

भगवान ने इन दोनों को सोनेचांदी से बने बागबानी के औजार यथा कुदाल, खुरपी आदि दे कर इन्हें अपने बगीचे का काम सौंप दिया. यही मनंदा माली कहलाने लगा जिस के सेजा से 11 बेटे और एक बेटी हुई. अब मनंदा और उस के वंशज हर कहीं किसी साहब के लौन या किचन गार्डन में घास खोदते दिख जाएंगे. उन के सोनेचांदी के औजार ऊपर ही कहीं रह गए, सो वे लोहे और प्लास्टिक के औजारों से अपने पुश्तैनी काम को मुस्तैदी से अंजाम दे रहे हैं. बदहाली में जीते माली समाज को गर्व महज इस बात का है कि उन का आदि पुरुष मनंदा ऊंची जाति वालों के आदि पुरुष शंकर का माली था.

ऐसे किस्सेकहानी ही बताते हैं कि कैसेकैसे छोटी जाति वालों के हाथ एकएक देवता भगवान का मानस पुत्र कहते थमा दिए गए. सम?ा यह भी आता है कि वर्णव्यवस्था कैसे शुरू हुई और उसे कैसेकैसे पुख्ता किया गया, नहीं तो भगवान शंकर सुंदर बगीचा अपनी फूंक से भी रच सकते थे. लेकिन जरूरत खेतों और बगीचों में मेहनती मजदूरों की थी, इसलिए मनंदा और सेजा की कहानी रचनाकारों ने गढ़ दी.

लगभग ढाई करोड़ की आबादी वाले माली समाज के दर्जनभर गोत्र हैं लेकिन 3 करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले चौरसिया समाज के 84 गोत्र हैं . इन सभी का देवता नाग है. नागपंचमी के दिन यों तो सभी सांपों को दूध पिलाते और पूजापाठ करते हैं लेकिन चौरसिया समाज इसे समारोहपूर्वक चौरसिया दिवस की शक्ल में मनाता है. इस जाति के लोग पान और उस से जुड़े उत्पादों का व्यापारव्यवसाय करते हैं. नाग देवता थमाने के पीछे किस्सा यह है कि एक बार धरती पर कहीं यज्ञ संपन्न हो चुका था. यज्ञ में पान की बड़ी अहमियत होती है लेकिन दिक्कत यह थी कि उस वक्त पान पाताल लोक में ही हुआ करते थे. जहां जाना जान जोखिम में डालना था क्योंकि वहां सांपों की हुकूमत चलती थी.

काफी विचारविमर्श के बाद फैसला हुआ कि चौरसी नाम का मुनि पाताललोक जा कर पान  लाएगा. ये चौरसी महाराज पान लेने पाताल लोक पहुंच तो गए लेकिन वहां नागराज ने इन्हें डसने के बजाय अपनी कन्या की शादी इन से करा दी. तब से चौरसी और नाग कन्या से जो 84 संताने हुईं वे चौरसिया कहलाने लगीं.

चूंकि ब्राह्मण काम कम, आराम ज्यादा करते हैं और पूजापाठ की ही खाते हैं इसलिए उन्होंने एक और जाति नेमा को भी एक देवता थमा दिया जिस से वे पूजापाठ करते हिंदुओं को दानदक्षिणा इन्हें देते रहें. नेमा जाति के लोग मध्य प्रदेश और उस में भी महाकौशल-बुंदेलखंड में ज्यादा पाए जाते हैं. नरसिंहपुर जिला इन का गढ़ है जहां राजस्थान से आए इन के पूर्वज कभी बस गए थे. ऐसा कहा जाता है कि नेमा जाति का आदमी कहीं भी हो उस की रिश्तेदारी नरसिंहपुर में जरूर मिल जाएगी.

नेमा लोग भले ही अपना इतिहास कुछ भी बताते रहें पर इस पौराणिक आख्यान से मुंह नही मोड़ पाते कि परशुराम जब क्षत्रियों का नाश कर रहे थे तब एक और महर्षि भृगु ने कोई 30 क्षत्रियों को अपने आश्रम में शरण दी और गुरुकुल में उन्हें वणिक जाति के गुणधर्मों की शिक्षादीक्षा दी. भृगु ने अपने इन शिष्यों को 14 ऋषियों में नियोजित कर उन्हें 14 गोत्रों में बांट दिया. ये मनुस्मृति के नियमों का पालन करते थे और आज भी करते हैं इसलिए ये सभी नेमा कहलाए. चौरासियों की तरह नेमा जाति भी अब शिक्षित हो गई है और हर क्षेत्र में उन के युवा हाजिरी और मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं लेकिन वे अपने देवता का पूजापाठ और मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं.

जातियों के देवताओं को लिपिबद्ध किया जाए तो एक खासा महाग्रंथ तैयार हो सकता है जिस का सार यह होगा कि जातियां ब्राह्मणों ने ही बनाईं ताकि उन का दानदक्षिणा का कारोबार फलताफूलता रहे.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...