2 वर्ष सामाजिक अवसाद और तनाव में गुजारने के बाद नए साल को ले कर लोगों के मन में अब आशंकाओं से ज्यादा संभावनाएं हैं, क्योंकि कोरोना वैक्सीन ने जिंदगी के प्रति आश्वस्त कर दिया है. कोरोनाकाल की उपलब्धियों से लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा है लेकिन चुनौतियां अभी भी कम नहीं, जिन से निबटने के लिए व्यक्तिगत से ले कर वैश्विक स्तर तक एकजुटता और परस्पर सहयोग जरूरी है.

साल 2009 में प्रदर्शित रोलैंड एमेरिच द्वारा निर्देशित हौलीवुड की फिल्म ‘एवरीथिंग रौंग विद 2012’ में भी दुनिया के खत्म होने की कल्पना की गई थी. सदियों से यह कल्पना रोमांच, उत्सुकता और जिज्ञासा का विषय रही है. अब तक हजारों बार दुनिया के खत्म हो जाने के दावे कर के तबीयत में दहशत फैलाई जा चुकी है. हर बार ऐसा किसी शरारत या साजिश के तहत हुआ, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. हां, इतना जरूर कहा जा सकता है कि लोग जिस में रहते हैं उस संसार के अस्तित्व को ले कर जरूर डरे और सहमे हुए रहते हैं.

शुद्ध फिलौसफी के नजरिए से देखें तो आदमी अपनी औसत सक्रिय

उम्र 55 साल में से अधिकतर वक्त कमानेखाने में गुजार देता है. व्यस्तता इतनी कि उस के पास दम मारने की भी फुरसत नहीं होती और कभीकभी इतनी फुरसत होती है कि वह सोचतेसोचते घबराने लगता है कि अब क्या होगा. यह फुरसत हर किसी को कोरोना के कहर के वक्त इफरात से मिली थी. उस वक्त लोग खुद के अस्तित्व और दुनिया को ले कर तमाम आशंकाओं से घिरने लगे थे और खुद को सलीके से जिंदा रखने के नएनए बहाने ढूंढ़ रहे थे. मौजूदा पीढि़यों में से किसी ने भी ऐसा भयावह मंजर और नजारा पहले कभी नहीं देखा था.

लगभग 2 साल लोगों ने हरेक पहलू पर जीभर कर सोचा लेकिन किसी आखिरी नतीजे पर नहीं पहुंचे. इतना जरूर सम?ा आ गया कि उन्होंने अपने आसपास फालतू और गैरजरूरी चीजों का भंगार सा लगा रखा था. जरूरी और उपयोगी चीजों की अहमियत सम?ाने के साथसाथ लोगों के सोचने का तरीका भी बदला और लगातार बदल रहा है, क्योंकि कोरोना नाम की जानलेवा महामारी से अभी भी पूरी तरह छुटकारा नहीं मिला है. नया वैरियंट ओमिक्रोन उस की नई वजह है, जिस के बारे में अभी दावे से कोई कुछ नहीं कह पा रहा. लोगों को यह भरोसा भी कोई नहीं दिला पा रहा कि उन की 2019 से पहले की जिंदगी कभी बहाल होगी. इसलिए नए तौरतरीकों से जीने की आदत वे डाल रहे हैं जो हर लिहाज से एक सुखद संकेत है.

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एक उपलब्धि है वैक्सीन

बिलाशक कोरोना वैक्सीन के वक्त पर ईजाद हो जाने से मौत का खौफ कम हुआ है, पर इस की तगड़ी कीमत हर किसी ने अदा की है. नौकरी और रोजगार जाने के बाद सब से बड़ा ?ाटका लोगों को अपने किसी प्रियजन की बेवक्त की मौत का लगा जिस की भरपाई किसी भी कीमत पर मुमकिन नहीं. सुकून देने वाली इकलौती बात लोगों की खुद की जिंदगी के प्रति बेफिक्री है क्योंकि वैक्सीन है न. यह वैक्सीन कोई ऊपर से टपकी दैवीय उपहार नहीं है बल्कि वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत और शोध का नतीजा है.

कोरोना जब पहचाना गया था तब इस के बारे में खास जानकारियां किसी के पास नहीं थीं. ऐसे में कैसे महज डेढ़ साल में इस की वैक्सीन बन गई, यह कम हैरत वाली बात नहीं, जो बताती सिर्फ यह है कि वैज्ञानिकों ने खुद को ?ांक दिया था. महामारियों का अपना इतिहास है और यह स्वाभाविक बात है कि हरेक महामारी की तुलना पिछली महामारी से ही की जाती है. कोरोना की तुलना 1918 में फैली महामारी स्पेनिश फ्लू से की गई, जिस ने 2 वर्षों में करोड़ों की जान ले ली थी. उस वक्त तो वैज्ञानिक यह भी नहीं जानते थे कि वायरस होता क्या है. इसलिए शुरुआती दौर में सावधानियों पर जोर दिया गया जिस से कोरोना इतना न फैले कि वह कई जिंदगियां निगल जाए.

लेकिन 790 करोड़ की आबादी वाली दुनिया में इम्यूनिटी, सोशल डिस्टैंसिंग, क्वारंटीन, मास्क और साफसफाई वगैरह जैसी सावधानियां लंबे वक्त तक अमल में लाना और कारगर होना व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं था. इसलिए, दुनियाभर के वैज्ञानिक अपना घरपरिवार, सुखदुख, भूखप्यास, दिनरात भूल कर वैक्सीन की खोज में जुट गए. यह एक मुश्किल और बहुत चुनौतीपूर्ण काम था क्योंकि वैक्सीन बनाने के बाद 3 चरणों में किया जाने वाला उस का परीक्षण और भी ज्यादा कठिन होता है. 100 साल में हुई विज्ञान की तरक्की रंग लाई और कोरोना वैक्सीन बाजार में आ गई. गौरतलब है कि स्पेनिश फ्लू की तो कोई दवाई ही नहीं थी.

इस से भी ज्यादा अहम बात दुनियाभर के वैज्ञानिकों द्वारा आपस में कोरोना और उस की वैक्सीन से जुड़ी जानकारियों, डाटा और रिसर्च को बगैर किसी पूर्वाग्रह के आपस में शेयर करना रही. जरमनी के वैज्ञानिकों केटलिन कारिको और डू वीजमेन, जिन्हें सब से पहले कोरोना वैक्सीन बनाने का श्रेय जाता है, को दुनिया के कई दूसरे वैज्ञानिकों, खासतौर से दुश्मन देश कहे जाने वाले तुर्की के वैज्ञानिक दंपती उगुर साहिन और ओजलेम टुरेसी, से कई अहम जानकारियां मिलीं और उन्होंने भी अपने शोध को दुनियाभर के वैज्ञानिकों से सा?ा किया. तब कहीं जा कर उम्मीद से कम वक्त में कोरोना वैक्सीन बन पाई जिस से करोड़ों लोगों को जिंदगी बच सकी.

इस के बाद तो हरेक देश में शोध हुए और अभी तक हो रहे हैं जिस के चलते कोरोना वैक्सीन अपग्रेड होती गई. इस के आगे का काम दवा कंपनियों ने संभाल लिया और यह वैक्सीन कई नामों से मिलने लगी, मसलन को-वैक्सीन, कोविशील्ड, जौनसन एंड जौनसन, मौडर्ना, स्पूतनिक जायडस और फाइजर वगैरह. तमाम देशों की सरकारों ने वैक्सीन खरीद कर अपने नागरिकों को लगाना शुरू कर दिया और जो गरीब देश इसे नहीं खरीद पाए उन्हें धनाढ्य देशों ने वैक्सीन मुहैया कराई. हालांकि, दक्षिण अफ्रीका के साथ भेदभाव हुआ जिस की सजा दुनिया ओमिक्रोन की दहशत की शक्ल में भुगत भी रही है.

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इन 2 वर्षों में कोरोना वैक्सीन बनने की उपलब्धि के साथसाथ अहम यह भी रहा कि दुनियाभर की सरकारों ने परस्पर सहयोग किया जिस ने एहसास कराया कि आखिकार हर किसी के लिए मानवता अर्थ और स्वार्थ से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. अगर हम कोरोना से लड़ पाए, अभी तक लड़ रहे हैं और आगे भी लड़ना है, तो एकजुट तो होना पड़ेगा, नहीं तो दुनिया बहुत सिमट जाएगी या वाकई कुछ इस तरह खत्म भी हो सकती है कि अब तक की तरक्की मिट्टी में मिल जाएगी.

यहां कोरोना के राजनीतिक इफैक्ट को भी सम?ाना जरूरी है कि उस के पहले कट्टरवाद दुनियाभर की समस्या थी, पर कोरोना ने अच्छेअच्छे जिद्दी और अर्ध तानाशाहों को या तो चलता करवा दिया या फिर उन्हें ?ाकने को मजबूर कर दिया. वजह आईने की तरह साफ है कि कोई भी अकेला देश अपने दम पर कोरोना से नहीं जीत सकता था. इसलिए वैश्विक सहयोग एक सामूहिक दबाव की शक्ल में सामने आया. लौकडाउन इन में से एक था, जो किसी सरकार का न हो कर जनता का फैसला था. ऐसा पहली बार हुआ कि दुनियाभर के लोगों ने एक साथ अनुशासन में रहने को प्राथमिकता दी.

परस्पर सहयोग का यह जज्बा हर जगह और हर क्षेत्र में दिखा. सामाजिक जीवन में भी लोगों ने धर्म, जाति, रंग और क्षेत्र वगैरह के आधार पर भेदभाव से दूरी बनाई क्योंकि मुश्किलें सब की बढ़ रही थीं और जरा सी अफरातफरी व नादानी उस जहाज को डुबो सकती थी जिस में सब सवार हैं. यह जहाज ही दुनिया है. सरकारों के साथसाथ लोगों को भी सम?ा आ गया कि आपदा वैश्विक है और इस से सामूहिक प्रयासों व एकजुटता से ही लड़ा जा सकता है.

ऐसा भी नहीं कि कोरोना केवल जीने का बेहतर तरीका और सलीका सिखाने को अवतरित हुआ था, पर यह पाठ तो वह पढ़ा गया कि लोग खुद अपने स्तर पर अपनी प्राथमिकताएं तय करें, अपने दिमाग से सोचना और फैसले लेना सीखें, सहयोग की अहमियत को सम?ों और मानवता शब्द के सही माने भी सम?ों. इन 2 सालों में जिंदगी के और कई सबक भी लोगों ने सम?ो.

कम से भी चलता है काम

‘कोरोना के कहर और लौकडाउन के दौरान लोगों ने कम से कम साधनों और सामान में गुजर करने का तरीका सीखा जो कि एक नया अनुभव था. दुकानें और बाजार बंद थे और बहुत ज्यादा पैसा खर्च करना जोखिमभरा था, इसलिए हर किसी ने किफायत से काम लिया. कइयों ने तो पहली बार महसूस किया कि 2-3 जोड़े कपड़ों में भी बिना मैलाकुचैला दिखे रहा जा सकता है.

ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि बाहर जाने की जरूरत खत्म हो गई थी बल्कि इसलिए भी कि लोगों को सम?ा आया था कि वे सिर्फ दिखावे के लिए और चूंकि जेब में पैसा है, इसलिए कुछ शौपिंग कर ली जाए की मानसिकता के तहत कपड़े या दूसरे गैरजरूरी आइटम खरीदना पैसों की बरबादी ही है. 2 साल महिलाओं ने ज्वैलरी, मेकअप का सामान और नईनई साडि़यां व सलवार सूट वगैरह नहीं खरीदे और खरीदे भी तो जरूरत के मुताबिक ही खरीदे. लेकिन इस से वे असुंदर नहीं हो गईं. इन्हीं महिलाओं ने राशन और किराने के सामान का किफायत से इस्तेमाल किया क्योंकि उन दिनों इन के मिलने की कोई गारंटी नहीं थी.

भोपाल की एक गृहिणी सरिता परिहार की मानें तो बच्चों को भी यह बात सम?ा आ गई थी कि कम से कम में काम चलाना है, इसलिए उन्होंने पहले की तरह गिलास में दूध नहीं छोड़ा. यह आदत जिंदगीभर उन के काम आएगी.

जिंदगी की इन छोटीमोटी और रोजमर्राई जरूरतों के अलावा बड़ी जरूरतों पर भी लोगों ने गंभीरता से सोचा. अब सबकुछ लगभग सामान्य हो जाने के बाद जब बाजार गुलजार हैं तब भी लोग बहुत सोचसम?ा कर पैसा खर्च कर रहे हैं. उदाहरण रियल एस्टेट का लें, तो लोग अपने बजट के मुताबिक छोटे मकानों को प्राथमिकता दे रहे हैं. साल 2021 रियल एस्टेट के लिए भी बेहद चुनौतीभरा था. बिल्डर्स और डैवलपर्स की लागत अभी तक नहीं निकल पा रही, फिर मुनाफा तो बाद की बात है. आमतौर पर लोग फ्लैट खरीदना पसंद कर रहे हैं.

जब कम जगह में गुजर हो सकती है तो बड़े मकान पर पैसा खर्चना बुद्धिमानी का काम किसी को नहीं लग रहा, खासतौर से युवाओं को जो मकानों के बड़े ग्राहक हैं. बेंगलुरु में रह कर एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी में 30 लाख रुपए के सालाना पैकेज पर नौकरी कर रहे पटना के हर्षरंजन कोरोना के पहले बड़ा स्वतंत्र मकान खरीदने का इरादा रखते थे. उन्होंने पिछले दिनों ही 3 कमरों वाला फ्लैट ले लिया है. 32 वर्षीय हर्ष ने मकान के अपने बजट में 40 लाख रुपए की कटौती की जो उन की नजर में एक तरह की बचत है. बकौल हर्ष, बात सिर्फ मकान की ही नहीं है बल्कि परफ्यूम वगैरह की भी है जो पहले वे हर कभी खरीद लाते थे लेकिन अब एक शीशी खत्म होने के बाद ही दूसरी खरीदते हैं.

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नौकरीपेशा युवाओं में बचत की यह आदत एक अच्छा संकेत है कि वे कम से कम का मंत्र जप रहे हैं और जहां जरूरी हो वहां इस बाबत कोई सम?ाता भी नहीं कर रहे. बकौल हर्ष, प्यास बु?ाने के लिए जरूरी पानी की मात्रा आप कप में लें या पूरा मटका होठों से लगा लें, कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन मटका महंगा तो पड़ता है. ज्यादा पानी पी लेने का एहसास एक बेकार की बात और सुपीरियर कौम्प्लैक्स भर है जिस के कोई माने नहीं.

डब्लूएफएच का नया कल्चर

2 साल के खट्टेमीठे अनुभवों में से एक खास है वर्क फ्रौम होम, जिस ने इस धारणा को ध्वस्त किया कि काम या नौकरी करने के लिए औफिस एक जरूरी जगह है. यह एक निहायत ही अनसोची बात थी कि घर रहते भी जौब मुमकिन है. कोरोना ने कइयों की नौकरियां छीनीं पर उन से भी ज्यादा को एक बड़ी सहूलियत दी. एक अंदाजे के मुताबिक मुंबई, पुणे, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हिंदीभाषी राज्यों के कोई

2 करोड़ युवा नौकरी कर रहे थे. कोरोना के कहर ने इन्हें घर जाने को मजबूर कर दिया लेकिन खाली हाथ नहीं, इन के हाथों में नए जमाने का औजार लैपटौप था.

‘‘यह सब एक तरह से अजीब था,’’ सम?ाते हुए सीहोर की 26 वर्षीय गुंजन बताती हैं कि वे कोरोना के कहर से पहले 4 साल से मुंबई की एक आईटी कंपनी में नौकरी कर रही थीं. अपने मम्मीपापा की इकलौती और लाड़ली संतान गुंजन बीटैक करने इंदौर चली गई थीं, फिर पढ़ाई पूरी करते ही जौब लग गई. इस तरह हाईस्कूल तक ही वे पेरैंट्स के साथ रह पाई थीं. उन की बड़ी इच्छा थी कि कुछ अरसा सीहोर के घर में गुजारें. यह इच्छा लौकडाउन में पूरी हुई जब कंपनी ने सभी कर्मचारियों को घर जा कर काम करने के निर्देश दिए.

गुंजन के लिए यह मुंहमांगी मुराद थी. वे अपनी छोटी सी गृहस्थी समेट कर सीहोर आ गईं और अभी भी वहीं रहते घर से काम कर रही हैं. इस दौरान उन्होंने ज्यादा सैलरी के लिए 2 बार जौब स्विच किया. कैरियर पर घर में रहने का कोई फर्क नहीं पड़ा.

गुंजन कहती हैं, ‘‘मैं ने घर से ही काम करते ज्यादा सैलरी वाली नौकरी हासिल की और कई फ्रैंड्स ने भी ऐसा ही किया. लेकिन सैलरी से ज्यादा खुशी मम्मीपापा के साथ रहने की है. 2 साल हम लोगों ने खूब एंजौय किया, नएनए अनुभव लिए, खूब वैराइटी वाली रैसिपीज ट्राइ कीं, मोबाइल पर लूडो और तंबोला खेला तो घर के बाहर सड़क पर बैडमिंटन का भी लुत्फ लिया.’’

गुंजन आगे बताती हैं, ‘‘क्योंकि मुंबई में तो शेयरिंग वाले फ्लैट का किराया ही 12 हजार रुपए देना पड़ता था और खानेपीने व ट्रांसपोर्ट पर भी इतना ही, साथ ही फ्रैंड्स के साथ वीकैंड पर जाने में भी तगड़ा खर्च होता था. 20 महीनों में ही खासा अमाउंट जमा हो गया है जिसे मैं कहीं न कहीं इन्वैस्ट करूंगी.’’

अब गुंजन मुंबई जाने के नाम से परेशानी में पड़ जाती हैं. हालांकि घर में रहते काम करने से ज्यादा घंटे देने पड़ते हैं लेकिन वे अखरते नहीं. हालफिलहाल तो वे 2022 की पार्टी की तैयारियों में जुटी हैं जिस में उन के स्कूल के जमाने के साथी, पापा के दोस्त और नजदीकी रिश्तेदार आमंत्रित किए हैं. इस में भी खास बात यह कि उन्होंने घर पर काम करने वाली बाई को भी बुलाया है क्योंकि खुशियों पर सब का बराबरी का हक है. सभी को समान नजरिए से देखे जाने का जज्बा भी कोरोना के दौरान की एक उपलब्धि है जिसे गुंजन जैसे करोड़ों युवा जिंदगीभर संभाल कर रखना चाहेंगे.

वर्क फ्रौम होम एंप्लाई और एंप्लायर दोनों के लिए ही फायदे का सौदा साबित हुआ है क्योंकिकंपनियों के खर्च कम हुए हैं और इस से कमर्चारियों की गुणवत्ता व क्षमता पर भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. यह कल्चर अब चल निकला है और बड़े पैमाने पर इसे अमल में भी लाया जा रहा है. औनलाइन मीटिंगों में टारगेट व काम ठीक वैसे ही बंट जाता है जैसे औफिस की मीटिंग्स में बंटता था. घरघर में छोटेछोटे औफिस बन गए हैं. उम्मीद है, इस चलन से उत्पादन बढ़ेगा क्योंकि इस में दिव्यांग और नवजात मांएं भी बिना दिक्कत के काम कर पा रही हैं. नौकरीपेशा युवतियां मां बनने का सपना घर से काम करते हुए सहूलियत से पूरा कर पा रही हैं.

केरल आईटी पार्क्स के सीईओ जौन एम थौमस कहते हैं, ‘‘आईटी कंपनियां इस को जारी रखेंगी और कर्मचारियों की छंटनी भी नहीं करेंगी क्योंकि इस से कई तरह के फायदे मिल रहे हैं. यह हर किसी को दिख रहा है कि दुनियाभर की कंपनियां अपना ज्यादा से ज्यादा कामकाज डिजिटल प्लेटफौर्म पर करेंगी. जिन कंपनियों ने वर्क फ्रौम होम को अस्थायी तौर पर अपनाया था वे इसे स्थायी करने के लिए आईटी कंपनियों की सेवाएं ले रही हैं. निश्चित रूप से यह साल 2022 की बड़ी उपलब्धियों में से एक होगा.

देश की सब से बड़ी कंपनी टाटा कंसल्टैंसी सर्विसेज ने तो लौकडाउन के दौरान ही ऐलान कर दिया था कि उस

की योजना 2025 तक 75 फीसदी कर्मचारियों से घर से ही काम करवाने की है. प्रसंगवश यह बात एक दुखद दौर गुजर जाने के बाद अब ज्यादा हैरान करती है कि जब पूरी दुनिया में लौकडाउन और कर्फ्यू जैसी स्थिति थी तब भी लोगों को राशनपानी मिल रहा था, दवाइयां मिल रही थीं, यहां तक कि अखबार और मैगजीन भी मिल रही थीं और बच्चे औनलाइन पढ़ाई भी कर रहे थे. ये सिलसिले अभी पूरी तरह टूटे नहीं हैं. कुछ समस्याएं और अड़चनें भी पेश आईं लेकिन मिलने वाली सहूलियतें उन पर भारी पड़ीं.

लाइफस्टाइल में सुखद बदलाव

पिछले 2 वर्षों की एक और अहम उपलब्धि परिवार के साथ क्वालिटी टाइम गुजारने के अलावा सुख और दुख दोनों को उन के वास्तविक रूप में पहचानने की रही. 2020 की शुरुआत तक अधिकतर लोग परिवार के साथ रहते हुए भी परिवार के नहीं थे लेकिन जैसे ही साथ रहने का मौका मिला तो हरेक को नई और सुखद अनुभूति हुई. मां, बाप, पत्नी, बच्चों, रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ बढ़ती नजदीकियों ने रिश्तों में एक नएपन की ताजगी व खुशबू का एहसास कराया. जो सीहोर की गुंजन ने बताया वह सुख हर किसी ने भोगा. बस, तरीके अलग थे.

सुबह उठते ही दिनभर की जोश से लबरेज तैयारियां कि आज नाश्ते और खाने में क्याक्या बनेगा और सभी लोग मिल कर बनाएंगे का जज्बा अनमोल था. आज मम्मीपापा के जमाने की फिल्म ‘उधार का सिंदूर’ और फिर नई फिल्म ‘स्त्री’ या वैब सीरीज ‘ये मेरी फैमिली’ सब लोग साथ बैठ कर देखेंगे और इस दौरान ड्राइंगरूम में थिएटर जैसा अंधेरा रखा जाएगा. कोरोना प्रोटोकौल से ताल्लुक रखती ढेर सी नसीहतों के बीच ढेर सी आत्मीयताभरी बातें भी पहले दुर्लभ थीं. मुद्दत बाद बचपन और स्कूलकालेज के जमाने के दोस्तों के मोबाइल नंबर ढूंढ़ढूंढ़ कर उन से फिर तूतड़ाक की शैली में बतियाना एक अनमोल सुख था जो अब कम भले ही हो रहा हो लेकिन आदतों में शुमार हो गया है.

दुनियाभर के लोगों ने अपने तो अपने, गैरों के दुखदर्द को भी शिद्दत से महसूस किया और यथासंभव जरूरतमंदों की सहायता भी की. यह कोरोना की बहुत सी चुनौतियों के बीच एक सामूहिक मानवीय उपलब्धि थी जिस ने सभी को जीवन के वास्तविक अर्थों से परिचित कराया. वैश्विक से ले कर महल्ला स्तर तक लोगों ने जिंदगी की एक बड़ी हकीकत मौत को रूबरू देखा.

बिलाशक, हर कोई उस दौर को भूल जाना चाहेगा लेकिन इस हादसे से मिला यह सबक अब जिंदगीभर याद रहेगा कि सिर्फ दूसरे ही हमारे लिए उपयोगी नहीं हैं बल्कि हम भी किसी के लिए उपयोगी हैं. परस्पर सहयोग ही हमारे अस्तित्व को बचा सकता है. जिस चीज को हम होश संभालते ही तलाश रहे थे वह बहुत सा पैसा, जमीनजायदाद, कार और सोना चांदी नहीं है बल्कि उस से इतर कुछ है जिसे संवेदना कहा जाता है.

यानी सिर्फ खानपान और रहने का तरीका ही नहीं बदला बल्कि मानसिकता और सोचनेसम?ाने का तरीका भी बदला जिसे 2022 और उस के बाद भी जिंदा रखना बेहद जरूरी है, नहीं तो समूची मानवजाति फिर से वहीं जा कर खड़ी हो जाएगी जहां से दुश्वारियां और फसाद शुरू होते हैं. जिस परेशानी से दूसरे हो कर गुजरे वह हमें भी कभी गिरफ्त में ले सकती है. इसलिए जरूरी यह है कि हम खुद भी बचें और दूसरों को भी बचाने में मदद करें.

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बचने और बचाने के लिए सोशल मीडिया का सदुपयोग जरूरी है. कोरोनाकाल में उन लोगों ने भी सोशल मीडिया की धरती पर कदम रखे जो इस से परहेज करते थे. उस दौर में लोग एकदूसरे को आगाह कर रहे थे, कोरोना प्रोटोकौल पर अमल करने की हिदायतें दे रहे थे, हो रही मौतों और अफरातफरी के दूर होने की एकदूसरे को हिम्मत बंधा रहे थे. अगर यह उपयोग कायम रह पाए तो दूसरे खतरों पर आधी जीत तो लड़ने से पहले ही हासिल हो जाएगी.

मंदा पड़ा धर्म का धंधा

इन्हीं 2 वर्षों में लोगों को एक और बात बहुत नजदीक से सम?ा आई थी कि कोरोना के मामले में न तो ऊपर कहीं बैठा भगवान कुछ कर सकता और न ही नीचे दुकानें लगा कर बैठे उस के दलाल, क्योंकि तमाम धर्मस्थल बंद थे और खुद पंडेपुजारी फाके करते कोरोना को कोस रहे थे जिस ने उन के पेट पर भी लात मारी थी. दक्षिणा, पूजापाठ और चढ़ावे का कारोबार दैनिक जिंदगी से पूरी तरह गायब हो चुका था. शुरूशुरू में लोगों ने बड़ी उम्मीदों से भगवान की तरफ ताका था, यज्ञहवन वगैरह भी किए थे पर जब हालात बिगड़े तो उन्हें सम?ा आया कि जिंदगी डाक्टर और वैज्ञानिक ही दे सकते हैं, लिहाजा, लोगों का भरोसा टूटा था जो अभी भी जुड़ा नहीं है.

यह पंडेपुजारियों के लिए भी चुनौतीभरा साल होगा कि कैसे भक्तों का खोया हुआ विश्वास दोबारा भगवान में पैदा कर धंधा पहले की तरह चमकाया जाए. जो लोग इसलिए पूजापाठ कर रहे हैं और दानदक्षिणा भी सिर्फ इसलिए दे रहे हैं कि उन की सालों की आदत नहीं छूट रही, उन से उन्हें रूखीसूखी दालरोटी ही जैसेतैसे नसीब हो रही है, पहले की तरह दूधमलाई और खीरपूरी नहीं मिल रही तो दूसरों का भविष्य बताने वाले तथाकथित देवदूतों का भविष्य भी खतरे में है जो कोरोना के दौरान राज्य सरकारों से इमदाद मांग रहे थे, मानो उन्हें पालनापोसना सरकार की जिम्मेदारी हो.

कोरोना को ऊपर वाले का कहर बता कर बरगलाने वाले इन मुफ्तखोरों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं कि भगवान खुद क्यों कोरोना के डर से दुबक गया था और अपने मुनीमों यानी पंडेपुजारियों की भी जान नहीं बचा पाया था?

जाहिर है 2022 में धर्म की बड़े पैमाने पर ब्रैंडिंग होगी. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तो भाजपा का मुद्दा ही राममंदिर है लेकिन यह ट्रंपकार्ड भी उसे आश्वस्त नहीं कर रहा, इसलिए अब मथुरा, काशी भी उस ने अपने एजेंडे में शामिल कर लिए हैं. अब यह लोगों पर निर्भर है कि वे लूटपाट के इस सनातनी कारोबार को प्रोत्साहन देंगे या हिंदुत्व के मायाजाल, जोकि एक तरह का चक्रव्यूह ही है, में फंस कर मेहनत की गाढ़ी कमाई से मुफ्तखोरों पर लुटाने से बचेंगे.

डर पर भारी उम्मीद

2021 का अंत पहले के मुकाबले हालांकि सुकूनभरा था क्योंकि कोरोना से मौतें होना बंद सी हो गई थीं लेकिन औमिक्रोन की दस्तक ने लोगों को फिर डराया. यह डर जल्द ही आत्मविश्वास के चलते भाग भी गया क्योंकि हर कोई एक बड़ी दहशत से उबर कर आया था, लिहाजा लोगों ने हिम्मत और उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा और सोचा यह कि जब कोरोना को देख लिया तो यह ओमिक्रोन क्या बला है, निबट लेंगे इस से भी. यह सामूहिक आत्मविश्वास अगर कायम रह पाए तो 2022 एक खुशहाल और फिर से पैसे बरसाने वाला साल साबित हो सकता है.

2 साल में दुनियाभर के देशों की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त हो गई थीं. एक वक्त में तो यह डर भी विश्वव्यापी हो गया था कि कहीं भीषण मंदी, भूख और बेरोजगारी कोरोना अराजकता न फैला दे. दुनियाभर के अर्थशास्त्रियों ने बड़ीबड़ी व्याख्याएं दीं पर आम लोगों को उन की भाषा से परे बहुत पहले ही सम?ा आ गया था कि उत्पादन ठप हो चला है, मांग के मुकाबले आपूर्ति घट रही है, हम अपना पैसा खर्च नहीं कर पा रहे, यह बहुत बड़ी गड़बड़ है. बाजार बंद हैं, कंपनियों और फैक्टरियों के दरवाजों पर ताले ?ाल रहे हैं. चूंकि इस में सीधे कोई कुछ नहीं कर सकता था, इसलिए लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर जरूरतमंदों की मदद की.

रोज कमानेखाने वालों को लोगों ने अपने कुएं से पानी दिया, दिहाड़ी वालों को मालिकों ने आधी या उस से कम ही सही सैलरी दी और कंपनियों ने भी एकाएक ही छंटनी नहीं की और उन कर्मचारियों को भी नौकरी पर रखा जिन की तुरंत जरूरत नहीं थी. इस के बाद भी छंटनी हुई तो करोड़ों लोग नौकरी और रोजगार से हाथ धो बैठे. सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर वैक्सीन वक्त पर न बनती तो हालात कितने विस्फोटक होते और जिंदगीभर की कमाई और बचत से भी लोग एक वक्त का खाना न खरीद पाते. अंदाजा है कि कोरोनाकाल के दौरान कोई ढाई करोड़ लोगों के हाथ से काम छिना.

कोरोना कोई आम संकट नहीं था जिस में सरकारें भी उस वक्त तक मदद देती रहती हैं या पैसा बांटती रहती हैं जब तक सबकुछ सामान्य न हो जाए. एक मशहूर अर्थशास्त्री जेम्स मीडवे ने ठीक ही कहा कि, ‘दुनिया को एक एंटी वारटाइम इकोनौमी की जरूरत है.’ हमें भविष्य की महामारियों के सामने टिके रहने की ताकत चाहिए तो एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जो उत्पादन को कुछ इस तरह से कम करे कि लोगों की जीविकाओं पर बुरा असर न पड़े.

तमाम देशों ने आपसी मदद पर जोर दिया जिस में जिंदगी की सुरक्षा प्राथमिकता में रही. लौकडाउन पर आम लोगों ने एतराज नहीं जताया क्योंकि उन्हें भी सम?ा आ गया था कि जिंदगी रही तो कैसे भी कमा खाएंगे लेकिन जब जिंदगी ही खत्म हो जाएगी तो क्या बचेगा, इस खयाल ने ही लोगों के सोचने का तरीका बदला कि इस्तेमाल ही न कर पाए तो बहुत सा पैसा किस काम का. जाहिर है डर और उम्मीद दोनों साथसाथ 2 साल चले, लेकिन जीती उम्मीद, जिस के चलते हर कोई नए साल का जश्न मना पा रहा है.

चुनौतियां अभी बाकी हैं

2 सालों की इन उपलब्धियों पर कुछ चुनौतियां भी 2022 में मुंहबाए खड़ी होने की आशंका से कोई इनकार नहीं कर पा रहा. इन में सब से बड़ी चंद पूंजीपतियों द्वारा दुनिया पर कब्जा कर लेने की मंशा की है. यह बहुत सावधानी से हो रहा है कि तमाम देशों के शासक आम लोगों से ज्यादा पूंजीपतियों के इतने नजदीक हैं कि उन की सहूलियत के लिए रेललाइन बिछवा देते हैं, पुल बना देते हैं. और तो और, सड़कों की दिशा तक बदल देते हैं.

असल में पूंजीवाद अब कट्टरवाद और आतंकवाद के कंधों पर खड़ा होने लगा है. लेकिन अच्छी बात यह है कि इस के खिलाफ खुद आम लोगों ने सड़कों पर आते सत्ता पलट भी दी है. दुनिया के सब से पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिका की जनता ने डोनाल्ड ट्रंप को इसी वजह से चलता कर दिया था कि वे श्वेत कट्टरवादी थे और फिर से कट्टरवाद राह पर पूंजीवाद थोपने की कोशिश कर रहे थे.

कोरोनाकाल में दुनियाभर के पूंजीपतियों ने तबीयत से चांदी काटी. यह सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ है. लगभग हरेक देश में पैसा और कारोबार चंद मुट्ठियों में कैद होते जाना कोरोना से कमतर खतरा नहीं आंका जा सकता. अर्थव्यवस्थाएं पटरी पर लौट रहीं हैं, यह दुष्प्रचार भी दुनियाभर में किया जा रहा है और इस में अधिकतर देशों में सरकारें पूंजीपतियों के साथ खड़ी हैं. हुआ इतना भर है कि लोगों को काम मिलने लगा है लेकिन इस की कीमत कोरोनाकाल से बहुत कम है.

महंगाई, ग्लोबल वार्मिंग, आतंकवाद और बेरोजगारी से दुनियाभर के लोग समानरूप से त्रस्त हैं. 2022 में ऐसी विश्वव्यापी समस्याओं से सभी देश कोरोना की तरह साथ मिल कर लड़ेंगे, इस में शक है क्योंकि सरकारें अब पूंजीपतियों के दिमाग से चल रही हैं और कोई पूंजीपति नहीं चाहता कि दोनों हाथों से पैसा बटोरने के उन के कारोबार में किसी भी तरह की अड़चन पेश आए. जब सरकारों का एक बड़ा काम या जिम्मेदारी इन पूंजीपतियों के रास्ते में ?ाड़ू लगाना रह जाए तो किसी को भी बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं पालनी चाहिए.

तभी कहें हैप्पी न्यू ईयर

यह सिनैरियो और कोरोनाकाल की खट्टीमीठी यादें बरबस ही हमें फिल्म ‘एवरी थिंग इज रौंग विद 2012’ के जहाज पर ले जाती हैं, जहां एक कुदरती कहर से भिड़ने व अपनी जान बचाने के लिए सभी लोग एक हो गए थे. गोरों ने कालों को देख कर वितृष्णाभरा मुंह नहीं बनाया था, ईसाईयों ने दूसरे धर्म के लोगों को देख कर नफरत नहीं जताई थी, अमीरों की पैसों की बिनाह पर श्रेष्ठ होने की भावना भी छू हो गई थी और औरतों को दोयम दर्जे का मान कर धक्का नहीं दिया गया था. यह एक आदर्श और समान दृष्टि वाली दुनिया की सुंदर परिकल्पना थी.

साल 2022 में सब से ज्यादा जरूरत एकजुट होने की है. तभी हम पूरी ईमानदारी से एकदूसरे से यह कहने के हकदार होंगे कि हैप्पी न्यू ईयर.

2022 में पूंजीवाद का कसेगा शिकंजा

दुनिया से इतर भारत में देखें तो तेजी से पसरता पूंजीवाद का शिकंजा 2022 के लिए इकलौता बड़ा खतरा साबित होगा, यह बात कई तरह से दिसंबर के महीने से ही साबित भी होने लगी थी. 7 दिसंबर को दुनियाभर के जानेमाने 100 अर्थशास्त्रियों ने विश्व असमानता रिपोर्ट जारी की थी. भारत के बारे में इन विशेषज्ञों ने बताया है कि भारत ऐसा गरीब व असमानता वाला देश है जहां अधिक संख्या में धनवान लोग हैं. देश में एक तरफ गरीब बढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ अभिजात्य वर्ग और ज्यादा समृद्ध हो रहा है.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 50 फीसदी यानी आधे लोग महज 53,610 रुपए सालाना कमाते हैं यानी महीने में सिर्फ 4,468 रुपए. इस लिहाज से दैनिक (एक दिन की) आमदनी हुई 149 रुपए. क्या इतने कम पैसों में कोई गरीब मकान का किराया दे सकता है? पूरा तन ढकने के लिए कपड़े खरीद सकता है? पक्के तो दूर, क्या कच्चे मकान में भी रह सकता है और 2 वक्त का भरपेट खाना खा सकता है? बच्चों को क्या स्कूल में पढ़ाने को भेज सकता है?

इन सवालों का जवाब साफ न में है, तो सोचा जाना लाजिमी है कि पैसा आखिर जा कहां रहा है? यह पैसा जा रहा है देश के चुनिंदा और सरकार के चहेते पूंजीपतियों के पास. कोरोना के पहले चरण में भारत के 9 अमीरों के पास उतनी दौलत थी जितनी कि देश के 50 फीसदी लोगों की कुल जायदाद जोड़ कर धर्मकांटे में रख दी जाए तो भी गरीबों के टोटल का पलड़ा उपर ?ालता नजर आएगा.

औक्सफेम द्वारा जारी इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि अमीरों की संपत्ति में 39 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. उलट इस के, 50 फीसदी गरीबों की संपत्ति में महज

3 फीसदी का इजाफा हुआ. समाजवाद को कुचलते पूंजीवाद का क्रूर चेहरा एक और आंकड़ें से उजागर हुआ था कि 2018 में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति में प्रतिदिन 2,200 करोड़ रुपए का इजाफा हुआ.

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 13.6 करोड़ लोग साल 2004 से ही कर्जदार बने हुए हैं. इस के बाद इन कर्जदारों की तादाद में कितना इजाफा हुआ होगा, यह बात आंकड़ों से ज्यादा सहज अनुमान से ही सम?ा आ जाती है. यह जरूर इसी दीवाली के दिनों में उजागर हो गया था कि इन दोनों लक्ष्मीपतियों अंबानी और अडानी की आमदनी प्रतिदिन क्रमश 163 करोड़ और 1,002 करोड़ रुपए हो गई है.

एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के एक फीसदी अमीरों के पास 60 फीसदी संपत्ति है. एक प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका के मुताबिक, पिछले साल देश की 21.4 फीसदी कमाई इन्हीं धन्ना सेठों की तिजोरियों में समा गई. ?ाठ बोलने में माहिर एक सेठ गौतम अडानी ने हिंदी बेल्ट के अखबारों में एक विज्ञापन छपवाया था कि वे न तो किसानों से सीधे अनाज खरीदते हैं और न ही जमाखोरी करते हैं, उन के खिलाफ ?ाठ फैलाया जा रहा है क्योंकि वे तो भारतीय खाद्य निगम से तालमेल कर के निजी और सरकारी मौडल पर भंडारण व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं.

आइए इस सच की हकीकत देखें. दरअसल, सरकार उन्हें भंडारण की व्यवस्था के लिए सभी तरह की सब्सिडी दे रही है और उन के लिए रेललाइनें भी बिछा रही है. पिछले दिनों किसान आंदोलन के सामने सरकार ने घुटने टेके तो यह कोई दरियादिली नहीं बल्कि किसानों का दृढ़ निश्चय था, जिस के बारे में सरिता के दिसंबर (द्वितीय) अंक में आप विस्तार से पढ़ सकते हैं, कि पुरातनी कंधों पर सवार पूंजीवाद को मेहनतकश किसानों ने किस तरह जमीन पर पटक कर उसे धूल चटाई.

इस आंदोलन से साबित यह भी हुआ कि अगर सरकार की मनमानी के आगे लोग अड़ जाएं तो सरकार को ?ाकाया जा सकता है और उस की आड़ ले कर गुरिल्ला छाप लड़ाई लड़ रहे पूंजीपतियों को भी पटखनी दी जा सकती है. इस के लिए शर्त यही है कि एकजुट हो कर लड़ो और अपना हक मांगने में किसी से डरो मत.

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