अभी कुछ ही रोज बीते होंगे जब वर्ल्ड फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. इस रिपोर्ट में देश की मौजूदा भाजपा सरकार पर नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के हनन के कई आरोप लगे थे. इस रिपोर्ट के आने के बाद भारत में वाजिब खलबली मची जरुर थी लेकिन पक्ष से ले कर विपक्ष तक ने इसे एक साथ ठंडे बस्ते में डाल दिया. ना तो सत्ता पक्ष ने जरूरत समझी कि उन की सरकार पर ऐसे गहन आरोप लगाने वालों पर कड़ा एक्शन लिया जाए और ना ही विपक्ष ने जरुरत समझी कि सरकार को इस मसले पर घेरा जा सके.
खैर इस रिपोर्ट की संवेनशीलता न सिर्फ मोदी के औथेरिटेरियन सरकार चलाए जाने के रवय्ये सेथी, बल्कि भारत का सब से मजबूत स्तंभ कहे जाने वाले न्यायालय की कार्यवाहियों को भी संदेहों में धकेले जाने से थी. रिपोर्ट में कहा गया कि, “मोदी कार्यकाल में भारत कीज्युडिशियल स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है.” नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों के संदर्भ में कहा गया कि “मानवाधिकार संगठनों पर दबाव बढ़ गया है, शिक्षाविदों और पत्रकारों का डर बढ़ रहा हैऔर बड़े हमलों का दौर चल रहा है.” रिपोर्ट में मौजूदा सरकार के बनाए ऐसे कानूनों का हवाला दिया गया जिस ने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का हनन किया.
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इस रिपोर्ट के आने के बाद सरकार की तरफ से 5 मार्च को एक स्टेटमेंट आया. खुद पर लगे अधिनायकवाद के आरोपों से पल्ला झाड़ते हुए केंद्र ने अपने स्टेटमेंट में इस रिपोर्ट को “भ्रमित, असत्य और गलत” बताया. सरकार ने देश के संघीय ढांचे का हवाला दिया और कहा, “यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि भारत मेंसंघीय ढांचे के तहत कई राज्यों में चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से अलगअलग पार्टियों का शासन है और यह उस निकाय चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से है जो स्वतंत्र और निष्पक्ष है.”
सरकार जैसेतैसे इस रिपोर्ट से पल्ला झाड़ ही पाई कि इसी महीने एक और रिपोर्ट का विस्फोट सरकार पर हो गया. इसी प्रकार से स्वीडन की ‘वी-डेम इंस्टिट्यूट’ ने एक ताजा रिपोर्ट निकाली जिस में दावा किया गया कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी मोदी कार्यकाल में कम हुई है और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले देश ने इस तरह की सेंसरशिप शायद ही कभी देखी है. रिपोर्ट के मुताबिक, सेंसरशिप के मामले में भारत अब पाकिस्तान के समान है, जबकि भारत की स्थिति बांग्लादेश और नेपाल से बदतर हो चली है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया किभारत में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने देशद्रोह, मानहानि और आतंकवाद के कानूनों का इस्तेमाल अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए किया है. साथ ही भाजपा के सत्ता संभालने के बाद 7 हजार से अधिक लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैंऔर जिन पर आरोप लगे हैं उनमें से ज्यादातर लोग सत्ता की विचारधारा से असहमति रखते हैं. यहां तक कि इस रिपोर्ट में इसे भारत के संदर्भ में ‘चुनावी निरंकुशता’ की संज्ञा दी गई. कुल मिला कर केंद्र सरकार पर निरंकुश शासन चलाए जाने के आरोप लगाए गए जिस के चलते भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि को खासा नुकसान पहुंचा है. हांलाकि सरकार भले इन रिपोर्टों को खारिज कर रही हो लेकिन मौजूदा समय में सरकार की कार्यवाहियां इन्ही प्रकार के संदेहों के घेरों में जरूर खड़ी दिखाईदेती है. इस बात का ज्वलंत उदाहरण ‘एनसीटी बिल-2021’ के रूप में नयानया सामने आया है.
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एनसीटी 2021 बिल
दरअसल, यह बिल 15 मार्च सोमवार को संसद में पेश किया गया था. जिस के बाद से ही ‘आप’ सरकार और विपक्ष की प्रतिक्रया आनी शुरू हो गई थी. अब इस बिल से आने के बाद विधानसभा के चुनावी शौर के बाद थमा मुद्दा फिर से जाग उठा है कि आखिर दिल्ली किस की है? दिल्ली पर अधिकार किसका अधिक है? एक तरफ जनता के 70 में से 62 सीटों पर जीत दर्ज कर भारी बहुमत से जीती सरकार है, दूसरी तरफ केंद्र के चुने उपराज्यपाल हैं.दिल्ली के इस घाव को अब सिर्फ कुरेदा नहीं जा रहा बल्कि इस बार मसलने की पूरी कोशिश की गई है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने इस बिल को ‘असवैंधानिक और अलोकतांत्रिक’ करार दिया. वहीँ डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने अपने स्टेटमेंट में कहा, “संविधान की व्याख्या के खिलाफ जाते हुए यह बिल पुलिस,भूमि और पब्लिक और्डर के अतिरिक्त एलजी को अन्य शक्तियां भी देगा. यह बिल जनता द्वारा चुनी दिल्ली सरकार की शक्तियां कम कर एलजी को निरंकुश शक्तियां प्रदान करेगा.”
22 मार्च, सोमवार को लोकसभा से नेशनल कैपिटल टेरिटरी दिल्ली (संशोधन) बिल, 2021 पास हो गया है, और अगर कृषि बिल को पास कराने की राज्य सभा प्रक्रिया को याद करें तो लगता नहीं है कोई ख़ास दिक्कत केंद्र कोहोने वाली है.फिलहाल इस बिल में दिल्ली की चुनी हुई सरकार के ऊपर उपराज्यपाल को प्रधानता देने का प्रावधान है. साधारण भाषा में कहें तो यह यह बिल कहता है कि दिल्ली का प्रतिनिधित्व अब जनता द्वारा चुने हुए मुख्यमंत्री नहीं होंगे बल्कि केंद्र द्वारा चुने हुए उपराज्यपाल रुपी बौसकरेंगे. यह बिल सीधा अधिकारों के हस्तांतरण से है जिस में चुने प्रतिनिधि बिना उपराज्यपाल की आज्ञा के कोई नियमकानून नहीं बना पाएंगे.
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बिल कहता है कि सरकार का कोई भी फैसला लागू करने से पहले एलजी की ‘राय’लेनी जरुरी होगी. इनमें वह फैसले में भी शामिल हैं जो मंत्रिमंडल करेगा. एलजी उन मामलों को तय कर सकेंगे जिनमें उनकी ‘राय’मांगी जानी चाहिए. विधानसभा के बनाए किसी भी कानून में ‘सरकार’ का मतलब एलजी होगा. विधानसभा या उसकी कोई समिति प्रशासनिक फैसलों की जांच नहीं कर सकती और अगर ऐसा है तो उल्लंघन में बने सभी नियम रद्द हो जाएंगे.इन बदलावों का यह मतलब होगा कि राजधानी का दर्जा किसी अन्य केंद्रशासित प्रदेश जैसा हो जाएगा.जिस में सीएम कहने भर को होंगे और अंतोगत्वा उपराज्यपाल ही सरकार चलाएंगे.
इस मसले पर दिल्ली कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अनिल चौधरी ने ‘सरिता’ पत्रिका से बात करते हुए बताया कि, “इस बिल के पास होने के बाद विधायिका स्वतंत्र हो कर कानून नहीं बना पाएगी, प्रशासनिक निर्णय नहीं ले पाएगी, यहां उपराज्यपाल ही मुखिया होगा जो सीधे तौर पर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के अधीन नियंत्रण में होंगे. किस ने दिल्ली की जनता से पूछने की जहमत नहीं उठाई. यह लोकतंत्र की हत्या है.”
उन्होंने आगे कहा, “लोकतंत्र के मायने क्या हैं, जब लोग अपनी सरकार चुनते हैं, अपने एमएलए और एमपी चुनते हैं. अगर दिल्ली के फैसलें वे लेंगे जिन्हें चुना ही नहीं गया तो चुनाव और लोकतंत्र के क्या औचित्य रह जाएंगे? तानाशाही से देश नहीं चलता. हिन्दुस्तान के लोकतंत्र का उदाहरण का उदाहरण विश्व में दिया जाता है लेकिन अगर दिल्ली में ही हमला हो रहा है तो पुरे देश में कहां सुरक्षित रह पाएगा.”
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अनिल चौधरी दिल्ली की सरकार पर केंद्र के साथ मिलीभगत का भी आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, “दिल्ली के मुख्यमंत्री की भूमिका संदिग्ध है. जो पहले खुद को मजबूत मुख्यमंत्री बताते फिरते थे आज डरपोक दिख रहे हैं, वे कटपुतली की तरह काम कर रहे हैं. वे हमेशा केंद्र से समन्वय बना कर चल रहे थे कहते थे कि उन्हें केंद्र से सहयोग मिल रहा है. आज दिल्ली बचीकुची भी ख़त्म हो रही है, क्या यह उसी तालमेल का नतीजा है?”
दरअसल, केंद्र सरकार वर्तमान द्वारा बिल के माध्यम से 1991 अधिनियम की धारा 21, 24, 33 और 44 में संशोधन करने का प्रस्ताव है. प्रस्तावित संशोधन कहता है कि दिल्ली में लागू किसी भी कानून के तहत ‘सरकार, राज्य सरकार, उचित सरकार, उप उपराज्यपाल, प्रशासक या मुख्य आयुक्त या किसी के फैसले’ को लागू करने से पहले संविधान के अनुच्छेद 239एए के क्लौज 4 के तहतऐसे सभी विषयों के लिए उपराजयपाल की राय लेनी होगी. अनुच्छेद 239एए में दिल्ली से जुड़े विशेष प्रावधानों का जिक्र है. इस प्रावधान के बाद प्रस्तावों को एलजी तक भेजने या न भेजने को लेकर दिल्ली सरकार कोई फैसला नहीं कर सकेगी.
संशोधन बिल के अनुसार, विधानसभा का कामकाज लोकसभा के नियमों के हिसाब से चलेगा. यानी विधानसभा में जो व्यक्ति मौजूद नहीं है या उसका सदस्य नहीं हैउसकी आलोचना नहीं हो सकेगी. पहले कई मौकों पर ऐसा हुआ जब विधानसभा में शीर्ष केंद्रीय मंत्रियों के नाम लिए गए थे. इस में एक और प्रावधान यह है कि विधानसभा खुद या उसकी कोई कमिटी ऐसा नियम नहीं बनाएगी जो उसे दैनिक प्रशासन की गतिविधियों पर विचार करने या किसी प्रशासनिक फैसले की जांच करने का अधिकार देता हो. यह उन अधिकारियों की ढाल बनेगा जिन्हें अक्सर विधानसभा या उसकी समितियों द्वारा तलब किए जाने का डर होता है.
इस सम्बन्ध में ‘सरिता’ पत्रिका की बात दिल्ली के पटेल नगर विधानसभा के विधायक राजकुमार आनंद से हुई. वे कहते हैं,“2013 में हम लोग राजनीति में नए थे. हमें तरहतरह के नएनए पाठ पढ़ा कर कि ‘आप यह नहीं कर सकते, वह नहीं कर सकते, एंटी करप्शन ब्यूरो दिल्ली सरकार के पास थी उसे छीन लिया गया. 3 साल तक हमें काम नहीं करने दिया गया. हमें मजबूरन सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. 239एए में उस समय (1991) जो संशोधन किए गए थे उस में यही लिखा था कि ‘एलजी’ एक काउंटर साइनिंग अथोरिटी हैं. जिस के बाद फैसला इसी तौर पर आया.”
वे आगे कहते हैं, “भाजपा चाहती है कि वे किसी भी तरह से हारने के बावजूद पीछे से दिल्ली की सरकार चला सके. यही भाजपा अपने घोषणापत्र में दिल्ली को पूर्णराज्य का दर्जा देने की बात कर रही थी. इसलिए यह हथकंडा है भाजपा का ऐसे नहीं तो वैसे सत्ता में बने रहने का. बाकि कांग्रेस अपनी जमीन खो चुकी है वह बीचबीच में राजनीति करने आ जाती है. कांग्रेस चाहती तो इसे अपने कार्यकाल में पूर्ण राज्य का दर्जा दिला सकती थी. लेकिन कांग्रेस ने कभी दिल्ली की नहीं सोची.”
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
निचले सदन में इस बिल पर हुई चर्चा में गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने जवाब देते हुए कहा, “संविधान के अनुसार दिल्ली विधानसभा से युक्त सीमित अधिकारों वाला एक केंद्रशासित राज्य है.उच्चतम न्यायालय ने भी अपने फैसले में कहा है कि यह केंद्रशासित राज्य है. सभी संशोधन न्यायालय के निर्णय के अनुरूप हैं.”
किन्तु इस के उलट उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने अपने स्टेटमेंट में बिल को ले कर कहा कि, “यह विधेयक सर्वोच्च न्यायालय के संविधान पीठ के आदेश के खिलाफ है. यदि केंद्र बिल के माध्यम से ऐसा करना चाहती हैतो चुनाव कराने और राज्य में एक निर्वाचित सरकार होने का क्या मतलब है?केंद्र लोकतांत्रिक होने का ढोंग क्यों करती है?”
गौरतलब है कि राज्य में अधिकारों की जंग केजरीवाल के शुरूआती समय से चलती आ रही है. दिल्ली में जब केजरीवाल की सरकार बनी थी तब समयसमय पर यह विवाद बनता रहा. यह कारण भी था कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और 4 जुलाई, 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपना फैसला भी सुनाया था.सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक, दिल्ली में जमीन, पुलिस, और पब्लिक और्डर राज्य सरकार को उपराज्यपाल की मंजूरी लेने की जरुरत नहीं. हांलाकि मंत्रिमंडल द्वारा लिए फैसले की सूचना दी जाएगी.
दरअसल केंद्र के इस कदम से न केवल सहकारी संघवाद को चोट पहुंचानेका मसला खड़ा हुआ है बल्कि 2018 में उच्चतम न्यायालय के 5 न्यायाधीश पीठ के फैसले द्वारा निर्धारित मूलभूत सिद्धांतों को भी उलट दिया है. फैसले में कहा गया था कि दिल्ली में एलजी मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करेंगे, वे स्वतंत्र नहीं. यदि कोई अपवाद है तो मामला राष्ट्रपति को हस्तांतरित किया जाएगा यानी खुद कोई फैसला नहीं लेंगे.उस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने 239एए के तहत व्याख्या की कि मंत्रिपरिषद के पास एग्जिक्यूटिव पावर्स हैं. जो फैसला दिल्ली सरकार लेगी वह एलजी को अवगत कराएगी, लेकिन एलजी की उस पर सहमति जरुरी नहीं. राज्य सरकार 3 अपवाद को छोड़ कर बाकी मामले में स्वतंत्र हो कर काम कर सकेगी.
साल 1991 में संविधान में 69वां संसोधन कर अनुच्छेद 239एए का प्रावधान लाया गया था. जिस में दिल्ली को विशेष प्रावधान के तहत अपने विधायक चुनने का अधिकार था. इसी अधिकार में राज्य को विधानसभा की व्यवस्था के साथ कानून बनाने का अधिकार था. 2018 में तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने एलजी की स्थिति प्रशासक की बताई थी. कोर्ट ने फैसले में कहा था कि निरंकुशता की कोई जगह नहीं है.
कोर्ट का यह फैसला दिल्ली सरकार को राहत पहुंचाने वाला था. वहीँ लोकतंत्र में इसे जन की जीत का फैसला भी माना जा रहा था. लेकिन सरकार का फैसले के उलट बिल लाना कहीं ना कहीं जुडिशियल सिस्टम पर भी चोट करने जैसा है.
जनता को क्या मिलेगा?
कांग्रेस दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अनिल चौधरी ने अपनी बात कहते हुए हमें कहा, “दिल्ली में सरकार पहले भी चलती आई थी, दिल्ली का विकास होता रहा है, काम होता रहा था, आखिर केंद्र को ऐसी क्या जरूरत पड़ गई इस तरह के संशोधन करने की जबकि उन के खुद (भजपा) के घोषणापत्र में पूर्णराज्य की बात थी. उन्हें यह पता है कि इस के बन जाने से दिल्ली की जनता के काम बाधित ही होंगे. फाइल यहां से वहां घुमती रहेगी, कई चीजों में राजनीतिक रोकटोक बढ़ेगी. कई कामों में रुकावट आएंगी.”
दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने भी बिल पास होने के बाद अपनी प्रतिक्रिया दी थी. उन्होंने ट्वीट किया,“आज लोकसभा में जीएनसीटीडी संशोधन विधेयक पारित करना दिल्ली के लोगों का अपमान है. विधेयक प्रभावी रूप से उन लोगों से शक्तियां छीन लेता है जिन्हें लोगों द्वारा वोट दिया गया था और जो लोग पराजित हुए थेउन्हें दिल्ली को चलाने के लिए शक्तियां प्रदान की गईं. भाजपा ने दिल्ली कीजनता को धोखा दिया है.”
दरअसल यहां मसला अब दिल्ली की कुर्सी पर कब्जे का है. दिल्ली पर कब्जे का मतलब भाजपा अच्छे से जानती है देश की भावी दशोदिशा पर कब्जा. दिल्ली पर अधिकार मतलब यहां की राजनीतिक बिसात पर अधिकार बनाए जाने का है. दिल्ली में जड़ पकड़ते और आग की तरह देश में फैलते आन्दोलन के दमन और नियंत्रण का है.यह पूरी तरह से देश की राजनीति को नियंत्रण में रखने का तो है ही, लेकिन इस संशोधन से दिल्ली की जनता को आखिर हांसिल क्या होगा यह बात समझ से परे है. दिल्ली की जनता जिस किसी को भी इस मुगाल्फत में चुनेगी की वह उसे चुनने जा रही है जिस ने उस से सम्बंधित वादे किएथे पता चला किवे तो तभी पूरे होंगे जब हराए हुए नेताओं की हामी उस में ना हो.
भाजपा कहीं ना कहीं हार कर भी इस खेल में बाजीगर बन जाना चाहती है. हारने के बावजूद खुद के लिए शासन करने का नियंत्रण रखना चाह रही है. लेकिन सवाल उस जन का जिसे सफेद झूठ परोसा जा रहा है. जिस के मतदान और ओपिनियन को निरस्त किया जा रहा है. यह मात्र दिल्ली सरकार को कमजोर किए जाने की बात नहीं, मसला जनता के सब से मूल राजनीतिक अधिकार को कमजोर किए जाने का है.
हांलाकि इस मसले पर यह भी ध्यान रखे जाने की जरुरत है कि आज जो मुख्यमंत्री दिल्ली में सरकार और आम जन के अधिकारों के हनन पर रो पीट रहे हैं, यह वही मुख्यमंत्री रहे हैं जो जम्मू और कश्मीर में आर्टिकल 370 के अब्रोगेशन पर केंद्र को पूरा समर्थन दे रहे थे. जबकि जम्मू और कश्मीर की देश में स्थिति दिल्ली की तरह केंद्रशासित प्रदेश की नहीं थी. इस सम्बन्ध में जब हम ने आम आदमी पार्टी के विधायक राजकुमार आनंद से सवाल पूछा तो उन्होंने कहा, “जम्मू कश्मीर के हालत अलग हैं, वहां आतंकवाद है और वह सीमा से सटा हुआ प्रदेश है. दोनों के हालात अलग हैं उन्हें जोड़ कर नहीं देखा जा सकता.”
बहरहाल यह तय है कि अधिकारों की इस लड़ाई में आगे केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच काफी सियासी घमासान देखने को मिल सकता है. किन्तु इन सब के बीच इन दोनों के बीच पिस रही दिल्ली की आम जन क्या चाहती है यह आगे के टकराव का मुख्य बिंदु जरुर होगा.
नोट: काफी जिज्ञासु भाव से सरिता पत्रिका की टीम ने ‘जीएनसीटी दिल्ली संशोधन बिल, 2021’ के संदर्भ में रिपोर्ट तैयार करने के लिएदिल्ली सरकार के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया से संपर्क साधने की पूरी कोशिश की. किन्तु काफी मशक्कत के बाद छोटेबड़े सभी से हो कर गुजरने के बाद उन के पीए ललित विजय ने सवालों की लिस्ट मंगवा कर जिज्ञासा ही खत्म करवा दी. बहरहालइस संदर्भ में डिप्टी सीएम आतिशी मार्लेना, श्रम मंत्री गोपाल राय, स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन, फूड सप्लाई मंत्री इमरान हुसैन, राजिंदर पाल गौतम, कैलाश गहलोत व एमपी संजय सिंह इत्यादि नोटेबल ‘आप’ नेताओं से संपर्क साधने की पूरी कोशिश की गई. लेकिन सत्ता में7 साल बैठने के बाद संभव है कि आम से ख़ास बनने की तरफ बढ़ते हुए यह नेता भी माननीय पदवी हांसिल कर चुके होंगे. इन में किसी से इस रिपोर्ट लिखने तक सीधा संपर्क नहीं हो पाया. शायद इसलिए क्योंकि नेता के नीचे नेता, फिर छोटा नेता, फिर पीए और पीएल की नएनए पद बनाने की कांग्रेसनुमा और भाजपाई सरीखे माननीयप्रवृति इन के भी आड़े आ गई होगी.