ओवैसी की एआईएमआईएम पार्टी ने बिहार के चुनावों में बिना पार्टी आधार और प्रचारप्रसार के 5 सीटें जीत कर सब को हैरान कर दिया. उस के बाद अपने गढ़ हैदराबाद में बेहतरीन प्रदर्शन जारी रखा. इन जीतों के बाद कई सवाल उठ खड़े हो गए हैं. मुख्य यह कि, आखिर क्या कारण है कि कट्टरपंथी भाजपा के उदय के साथसाथ ओवैसी का भी कद बढ़ता जा रहा है? एआईएमआईएम यानी औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीनजिस का हिंदी अनुवाद है अखिल भारतीय मुसलिम संघ, हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बन कर उभरी है. बिहार के बाद हैदराबाद में निकाय चुनाव में भी उस का बेहतरीन प्रदर्शन रहा.

पहली दिसंबर को हैदराबाद नगर निगम में 150 वार्ड के लिए एआईएमआईएम ने 51 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, जिन में से 44 सीटों पर अपनी जीत दर्ज कराने के बाद उस के हौसले बुलंद हैं. जबकि भाजपा ने 149 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और उन में से 48 सीटों पर विजय हासिल की. टीआरएस ने सभी 150 सीटों पर चुनाव लड़ा और 55 सीटों पर विजयी रही. कुल जमा यह कि तीसरे नंबर पर आ कर भी एआईएमआईएम की जीत का आंकड़ा अव्वल ही कहा जाएगा. जबकि भाजपा ने इस निकाय चुनाव में राष्ट्रीय स्तर के चुनाव की तरह अपनी पूरी ताकत झोंकी थी. पहली बार किसी निकाय चुनाव में पार्टी के उम्मीदवारों के समर्थन में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से ले कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक ने कैंपेनिंग की थी.

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बीते 10 सालों में जैसेजैसे भाजपा ने देश में हिंदूमुसलिम, मंदिरमसजिद के नाम पर राजनीति कर के उभार पाया, तेलंगाना की इस क्षेत्रीय पार्टी एआईएमआईएम ने भी ध्रुवीकरण की इसी बिसात पर चालें चल कर चंद सालों में अपना वह रुतबा कायम कर लिया है कि आज किसी भी बड़े राज्य के चुनाव में शामिल हो कर वह देश की पुरानी जमीजमाई राजनीतिक पार्टियों का खेल बिगाड़ सकती है. एआईएमआईएम कोई नई राजनीतिक पार्टी नहीं है. यह 90 साल से ज्यादा पुरानी मजलिस से जुड़ी है. लेकिन, तकरीबन एक शताब्दी तक जो पार्टी अपने क्षेत्रीय स्तर की राजनीति से कभी आगे नहीं बढ़ पाई, भाजपा के शासनकाल में उस ने अगर इतनी तेजी से अपनी पकड़ व पहुंच बढ़ा ली है, तो इस का श्रेय भाजपा को जाता है. आज एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और उन के भाई अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषणों में जोश, रोष व उग्रता जिसे देख कर मुसलमान खुद में ताकत महसूस करता है और उस की छाती चौड़ी हो जाती है. वहीं, वैसा ही जोश, रोष और उग्रता भाजपा नेताओं के भाषणों में हिंदुओं को दिखती है और उन को भी अपनी छाती 56 इंच की महसूस होती है. एआईएमआईएम और भाजपा दोनों ललकारते हैं, दोनों उकसाते हैं, दोनों डराते हैं और दोनों धु्रवीकरण की राजनीति में माहिर हैं. दोनों देश को बांटने का काम करते हैं और दोनों लोकतंत्र की रीढ़ में सिहरन पैदा करते हैं.

अपने प्रचारप्रसार के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल जिस तेजी से भाजपा न कर पाई, उस से कहीं अधिक तीव्रता से ओवैसी बंधुओं ने किया. देश की किसी भी अन्य राजनीतिक पार्टी में कोई भी मुसलमान नेता आज ओवैसी बंधुओं के आगे बौना नजर आता है. गौरतलब है कि 2014 में हुए तेलंगाना विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने 7 सीटें जीती थीं. फिर 2014 में ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 2 सीटें जीतने के बाद इस पार्टी ने अपना दर्जा एक छोटी शहरी पार्टी से हटा कर राज्य स्तर की पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया. बिहार में 5 सीटों पर जीत दर्ज करने के बाद पार्टी के हौसले बुलंद हैं. एआईएमआईएम अब पश्चिम बंगाल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगी, जहां 6 महीने के भीतर विधानसभा चुनाव होने हैं. बिहार की तुलना में बंगाल में मुसलमानों की कहीं बड़ी आबादी है.

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यह आबादी जो अब तक तृणमूल कांग्रेस या वाम दलों में अपना विश्वास जताती आई थी, ओवैसी बंधुओं को पूरी उम्मीद है कि इस पर अब की बार उन का कब्जा होगा, वे भाजपा द्वारा पैदा किए गए एनआरसी-सीएए के मुद्दे को उछाल कर मुसलामानों को अपने पाले में लाने में कामयाब होंगे. एआईएमआईएम से तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस को तो भारी नुकसान पहुंचेगा, लेकिन फायदे में भाजपा रहेगी, क्योंकि मुसलिम वोट तो पहले भी उस को नहीं मिलने वाले थे और एआईएमआईएम इस को अन्य दलों से अपनी ओर खींच कर बाकी दलों को इतना कमजोर कर देगी कि वे गठबंधन के बाद भी सत्ता में आने का ख्वाब नहीं देख पाएंगे. ऐसा ही कयास उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव को ले कर भी लगाए जा रहे हैं, जहां एआईएमआईएम मुसलिम धु्रवीकरण के जरिए वोटकटवा की भूमिका अदा करेगी. इन्हीं आशंकाओं को ले कर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, बसपा और सपा तीनों पार्टियां चिंतित हैं, मगर भाजपा एआईएमआईएम के फैलाव से काफी उत्साहित है.

राजस्थान में भी असदुद्दीन ओवैसी के फौलोअर्स सोशल मीडिया पर कैंपेन चला रहे हैं. इस से उन की पार्टी के राजस्थान की राजनीति में पैठ बनाने की अटकलें तेज हो गई हैं. कहा जा रहा है कि बिहार के बाद उन की नजर राजस्थान की 40 मुसलिम बहुल सीटों पर है. वहां का मुसलिम मतदाता कांग्रेस के विकल्प के तौर पर ओवैसी की तरफ देख रहा है. कैसे बड़ा रुतबा और ताकत एआईएमआईएम मुसलमानों को केंद्र में रख कर बनाई गई कोई पहली पार्टी नहीं है. केरल की मुसलिम लीग हो या असम की एआईयूडीएफ अथवा उत्तर प्रदेश की पीस पार्टी, ये सभी पार्टियां इसी पहचान के साथ बनीं लेकिन ये अपने इलाके तक सीमित रही हैं. दूसरे, इन मुसलिम पार्टियों को भाजपा के कारण धु्रवीकरण का ज्यादा फायदा नहीं मिला. लेकिन एआईएमआईएम को भाजपा ने खूब फायदा दिया और अब यह हैदराबाद से निकल कर दूसरे राज्यों में अपनी राजनीतिक पैठ बना रही है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह इसे भारतीय जनता पार्टी की बी-टीम की तरह से देखते हैं और लगभग सभी विरोधी दल इसे मुसलमानों की एक सांप्रदायिक पार्टी मानते हैं.

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कांग्रेस नेता शकील अहमद खान की नजरों में एआईएमआईएम के आगे बढ़ने के मुख्य 3 कारण हैं. पहला, इस के लीडर असदुद्दीन ओवैसी का बहुत ज्यादा पढ़ालिखा होना और एक बैरिस्टर होना. संसद में उन के तर्क भारतीय संविधान की सीमाओं में इतने सटीक होते हैं कि किसी को उस का तोड़ नहीं मिलता. पिछले 5 सालों में भाजपा सरकार की तरफ से जो जनविरोधी व मुसलिमविरोधी फैसले किए गए, संसद में ओवैसी ने जिस तर्कपूर्ण तरीके से उन्हें देशविरोधी साबित किया, मुसलिम युवाओं को लगता है कि संसद में ओवैसी ही उन की एकमात्र और बहुत मजबूत आवाज हैं. शकील अहमद खान की नजर में एआईएमआईएम की तरक्की की दूसरी वजह यह है कि जहां से इस पार्टी ने जीत दर्ज की है, उन इलाकों की आबादी में 70-75 फीसदी मुसलमान हैं.

वहां इस पार्टी का आगे बढ़ना, दरअसल, वहां की मुसलिम लीडरशिप का निकम्मापन है. और तीसरा कारण यह है कि अगर कोई सांप्रदायिक बातें करता है तो मुसलिम समाज के लोगों को उस का उतना ही सख्ती से विरोध करना चाहिए जो नहीं किया गया. उधर, भाजपा को भी सांप्रदायिकता फैलाने से रोका नहीं गया. जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं, एक तरह से वे एआईएमआईएम को प्रमोट ही कर रहे हैं, चाहे वह महाराष्ट्र के चुनाव में हो, दिल्ली में स्थानीय निकायों के चुनाव में या फिर इस से पहले बिहार विधानसभा चुनाव में. मोदी व भाजपा का उद्देश्य यह है कि वे अल्पसंख्यकों के वोटों को बांट दें, जिस से उन को जीतने में आसानी हो. यह हकीकत है कि जब से मोदी आए हैं, दोनों तरफ कट्टरता की राजनीति में इजाफा हुआ है.’’ शकील अहमद खान मानते हैं कि ओवैसी बंधुओं की तरह लच्छेदार उर्दू बोलने या संसद में शेर पढ़ने से मुसलमानों के मसले हल नहीं हो सकते.

ओवैसी के भड़काऊ भाषणों से मुसलिम समाज का कोई फायदा नहीं होने वाला है. मुसलिम समाज या किसी भी समाज का फायदा एक सैक्युलर सियासत में ही हो सकता है. हालांकि, एआईएमआईएम के नेता इम्तियाज जलील अपनी पार्टी के बचाव में कहते हैं, ‘‘क्या ओवैसी कांग्रेस या दूसरी पार्टियों से पूछ कर सियासत करें. कांग्रेस दोहरी पौलिसी अपनाने वाली और मुसलमानों को धोखा देने वाली पार्टी है. मेरी नजर में कांग्रेस, एनसीपी जैसी पार्टियां एक थाली के चट्टेबट्टे हैं. इलैक्शन के वक्त मुसलमानों का इस्तेमाल करो और उस के बाद उन्हें भूल जाओ. ये पार्टियां अपने नुकसान की बात करती हैं जबकि बड़ा नुकसान तो मुसलमानों का हुआ है. ‘‘सोशल मीडिया के दौर में छोटा बच्चा भी देख रहा है कि क्या हो रहा है. मध्य प्रदेश में सैकुलरिज्म के नाम पर कांग्रेस के विधायक जीतते हैं और बाद में वे भाजपा की गोद में जा बैठते हैं. ‘‘2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में मुसलमान नीतीश कुमार के साथ खड़े थे क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी को वही बिहार में हरा सकते हैं, लेकिन उन्होंने मुसलमानों के वोट हासिल किए और डेढ़ साल बाद मोदी से हाथ मिला लिया. ‘‘महाराष्ट्र में जो शिवसेना मुसलमानों को गालियां देती थी, अब कांग्रेस और एनसीपी उन के साथ मिल कर सरकार में हैं.

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यह कब तक चलेगा? कम से कम मुसलिम वोटरों को यह यकीन तो है कि एआईएमआईएम पार्टी कभी भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाएगी.’’ सामाजिक न्याय की दरकार दरअसल, इस देश में किसी को सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा है. यहां केवल मुसलमान ही पीडि़त नहीं हैं, बल्कि दलितों और गरीबों को भी सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा है. दलित एक समय बहुजन समाज पार्टी के बैनर के नीचे जमा हुए पर भाजपा ने इसे ही खरीद लिया. ऐसे में मुसलमान बहुत तेजी से एआईएमआईएम के साथ जुड़ रहे हैं. आने वाले वक्त में इस पार्टी की सफलता सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देगी और इस का कारण भाजपा है. हिंदुत्व की राजनीति ने ही मुसलमानों की एक्सक्लूसिव पार्टी को बढ़ावा दिया है और यह ट्रैंड भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे का पूर्व ऐलान है. इस से निबटने का एक ही उपाय है कि सैकुलर पार्टियों को मुसलमान, हिंदू और सभी धर्म के साधारण लोगों का विश्वास जीतना होगा. अभी न तो कट्टर हिंदू उन पर भरोसा कर रहे हैं और न ही डरे हुए मुसलमान.

ओवैसी का आकर्षण ओवैसी बड़े तर्कपूर्ण ढंग से और भारतीय संविधान के दायरे में मुसलमानों के हितों को संसद में उठाते हैं, साल 2014 में असदुद्दीन ओवैसी को ‘संसद रत्न’ पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है. उन्हें यह सम्मान 15वीं लोकसभा के चुनाव में किए गए उन के प्रदर्शन के चलते दिया गया था. असदुद्दीन ओवैसी संसद में मुसलमान समुदाय से जुड़े हर मुद्दा बड़ी बेबाकी से उठाते हैं, चाहे वह बाबरी मसजिद पर कोर्ट के फैसले का मुद्दा हो, कथित ‘लव जिहाद’ का मुद्दा हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का. उन की आवाज संसद में गूंजती है और अकसर दूसरे नेताओं की तुलना में वे बेहतर तर्क देते सुनाई देते हैं. वे बेबाक, खुल कर बोलते दिखते हैं. वर्ष 2008 के मुंबई हमलों के बाद ओवैसी ने निर्दोष लोगों की हत्या के लिए जाकिर रहमान लखवी और हाफिज सईद के खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी. ओवैसी ने कहा था, ‘निर्दोष लोगों के हत्यारों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए. जो हमारे देश के दुश्मन हैं, वे मुसलमानों के भी दुश्मन हैं. ऐसे लोगों को बख्शा नहीं जाना चाहिए.’ मुसलामानों के मसले किसी भी अन्य पार्टी के किसी मुसलमान नेता द्वारा संसद के पटल पर रखते नहीं देखा गया, मगर ओवैसी ने ऐसा कर के मुसलामानों के दिलों में अपनी जगह बनाई है.

वे मुसलमानों को किसी भी तरह लाचार नहीं दिखाना चाहते. यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा हजयात्रा पर दी जाने वाली सब्सिडी को गलत बताते हुए उन्होंने कहा था कि सब्सिडी पर दिए जाने वाले पैसों को सरकार द्वारा मुसलिम महिलाओं की शिक्षा पर खर्च करना चाहिए. ओवैसी सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण का समर्थन करते हैं. वे उन के लिए रोजगार का मुद्दा उठाते हैं. वे मुसलमानों की धार्मिक आजादी और कुरान के नियमों को बनाए रखने की वकालत भी करते हैं. यही नहीं, वे हिंदुत्ववादी विचारधारा के खिलाफ हैं, लेकिन हिंदुओं या उन के धार्मिक विश्वासों के खिलाफ नहीं हैं. हैदराबाद की सड़कों पर छोटे ओवैसी यानी अकबरुद्दीन रोडशो करते हैं तो लाखों की संख्या में लोगों की भीड़ उन को देखनेसुनने के लिए सड़कों पर उतर आती है. अकबरुद्दीन स्मार्ट हैं, हैंडसम हैं, युवाओं के बीच गजब का आकर्षण रखते हैं. वे मंच से आग उगलते हैं, जोशीले भाषण देते हैं, लेकिन गरीब औरतों, बच्चियों को मदद का सामान बांटते वक्त बहुत विनम्र होते हैं. ये खूबियां उन की शख्सियत में चारचांद लगाती हैं. कोरोनाकाल में ओवैसी बंधुओं ने जगहजगह कैंप लगा कर लोगों को दवाइयां, खाना और कपड़ा बांटा, जबकि देश के दूसरे तमाम नेता कोरोना के डर से अपने बंगलों में दुबके पड़े रहे. अकबरुद्दीन ओवैसी ने खराब सेहत के बावजूद बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया और अपना सबकुछ बाढ़ की भेंट चढ़ा चुके लोगों को राशन, कपड़ा, दवा और पीने का साफ पानी मुहैया करवाया. उन के समर्थकों और उन की सोशल मीडिया टीम ने उन से दो कदम आगे बढ़ कर काम किया और तमाम वीडियो शूट कर के सोशल मीडिया के माध्यम से पार्टी के प्रसारप्रचार को गति दी.

मसीहा या मुसीबत यह सही है कि एक तरफ आम मुसलमानों में ओवैसी की पार्टी की लोकप्रियता बढ़ रही है, लेकिन दूसरी तरफ मुसलिम समाज के एक तबके में इस को ले कर चिंता भी उभर रही है. मुसलिम समुदाय में फिलहाल बहस का मुद्दा यह है कि क्या एआईएमआईएम समुदाय के लिए एक मसीहा बन कर उभर रही है या फिर यह आगे चल कर मुसलामानों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है? इंडियन मुसलिम फौर प्रोग्रैस एंड रिफौर्म की सदस्या शीबा असलम फहमी कहती हैं, ‘‘एआईएमआईएम का लोकप्रिय होना खतरनाक है. यह बहुत अफसोसनाक भी है. हम लोगों को उम्मीद नहीं थी कि 1947 में जो इलाके बंटवारे से बेअसर रहे वहां पर टू-नेशन या दो कौमों का जो तसव्वुर है वह उन इलाकों में परवान चढ़ाया जा सकता है. उन इलाकों से हो कर बंटवारे की लकीर नहीं गुजरी, न उन इलाकों ने नफरतें देखी थीं, न शरणार्थियों का आना देखा था, न लुटे सरदारों और बंगालियों का आना देखा था. लेकिन अब उन्हें यह सब दिखायासमझाया जा रहा है.’’ शीबा आगाह करना चाहती हैं कि स्थिति देश के बंटवारे से पहले की तरह की बनती जा रही है. उन के अनुसार, इस की असल जिम्मेदार भाजपा है जिसे देश की अखंडता से अधिक हिंदू राष्ट्र बनाने की पड़ी है. शीबा कहती हैं कि भारत के मुसलमानों को सांप्रदायिकता की जगह सैकुलर सिस्टम की सब से अधिक जरूरत है. इसी सिस्टम में ही मुसलमान सुरक्षित रह सकते हैं. वे कहती हैं, ‘‘मुझे बहुत साफ दिख रहा है कि भाजपा चाहती है कि उस का विपक्ष उस की पसंद का होना चाहिए और ओवैसी साहब से वह अपनी पसंद का विपक्ष पैदा करवा रही है. ओवैसीरूपी विपक्ष ऐसा विपक्ष है जो भाजपा को सूट करता है.’’ बंटवारे के बाद मुसलमानों ने कभी मुसलिम पार्टी को वोट नहीं दिए. अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने मुसलिम नेताओं का सहारा नहीं लिया क्योंकि उन का मानना था कि जो पार्टी बहुसंख्यकों का खयाल रख सकती है वह उन के हितों का भी खयाल रख सकती है. इस देश की सैकुलर पार्टियों ने मुसलमानों का विश्वास खो दिया है. आज मुसलमान तंग आ चुके हैं इस राजनीति से, भाजपा के उदय के साथ तो उन का डर और भी बढ़ गया है.

युवाओं का जुड़ाव दिल्ली जामिया नगर इलाके के निवासी जैद अंसार, एआईएमआईएम के पक्के समर्थकों में से हैं. 32 साल के युवा जैद कहते हैं, ‘‘मुसलमानों को देश की सियासत और सत्ता से दूर रखने की कोशिश की जा रही है. हमें लगता है कि हम अनाथ हैं. हमारे लिए कोई बोलने वाला नहीं है. जो पार्टियां हमारे वोट हासिल करती आई हैं, जब हम पर जुल्म होता है, जब हम दंगों में मारे जाते हैं, तब वे खामोश रहती हैं. ऐसे में ओवैसी साहब ने हमें आवाज दी है. वे हमारे हक में बोलते हैं. इस से हमें ताकत मिलती है.’’ मुसलिम युवाओं के बीच एआईएमआईएम की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है. मुंबई में नसीर अहमद की गर्लफ्रैंड हुमैरा अपने किराए के घर को बदलने की चाहत में कई महीनों से औफिस के बाद प्रौपर्टी डीलरों के दफ्तरों के चक्कर काट रही थी. हुमैरा को मुसलमान होने के कारण दूसरा घर मिलने में परेशानी हो रही थी. हुमैरा एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती है. वह उच्च शिक्षा प्राप्त है, राजनीति को समझती है और सैकुलर पार्टी में विश्वास रखती है. वह ओवैसी या जाकिर नाइक जैसे मुसलिम नेताओं को पसंद नहीं करती. उस के मुताबिक, ये कौम के नाम पर सांप्रदायिकता बढ़ाते हैं. जबकि उस के दोस्त नसीर अहमद का जुड़ाव एआईएमआईएम से है. हुमैरा ओवैसी की चर्चाओं से परेशान भी रहती है और इस बात को ले कर उस का नसीर व उस के दोस्तों से झगड़ा भी हो चुका है. हुमैरा कहती है, ‘‘मैं एक सैकुलर मुसलिम खानदान से ताल्लुक रखती हूं. मेरा कोई विश्वास एआईएमआईएम जैसी पार्टियों पर कभी नहीं रहा. लेकिन पिछले 6 महीने से मैं अपने रहने के लिए एक ठीकठाक घर की तलाश में हूं और हर जगह मेरे मुसलिम होने की वजह से दिक्कत आ रही है. अब मेरे जेहन में यह बात घूमने लगी है कि क्या अब तक मैं गलत थी और मेरा बौयफ्रैंड और उस के एआईएमआईएम समर्थक दोस्त सही हैं? क्या मुसलमानों को अब अपने नेता और पार्टी की जरूरत है जो उन के छोटेछोटे काम कर दें. यह तो एक डैमोक्रेटिक कंट्री के लिए भयावह बात है.’’

फहद अहमद भी मुंबई में रहते हैं. वे टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज के छात्र हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में रुचि के कारण वे चुनाव के दौरान बिहार में थे. वे कहते हैं, ‘‘मुसलमान युवाओं में यह एहसास है कि सैकुलर पार्टियां मुसलिम मुद्दे उठाती नहीं हैं, सिर्फ ओवैसी ऐसे मुद्दे उठाते हैं. ओवैसी की पार्टी का पनपना आखिरकार न तो देश के हक में ठीक है और न मुसलमानों के. लेकिन फिलहाल उन का बढ़ना रोका नहीं जा सकता क्योंकि सैकुलर पार्टियां अपना वर्चस्व खोती जा रही हैं. सैकुलर पार्टियों ने अगर मुसलमान नेताओं को जगह दी होती और वे संसद में मुसलमानों के मसले उठाने में कामयाब हुए होते तो ओवैसी की यह हैसियत कभी न बनती, जो आज बन चुकी है. हम न चाहते हुए भी उस से जुड़ने को मजबूर हैं क्योंकि वहां हमें ज्यादा सुरक्षा महसूस होती है.’’ भाजपा के कारण ओवैसी बंधुओं का कद बढ़ा : भाजपा खुश केंद्र और अधिकांश राज्यों में जब तक कांग्रेस व क्षेत्रीय पार्टियों की हुकूमत चली, एआईएमआईएम को अपने पैर पसारने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि देश के मुसलमान को अपने किसी रहनुमा या किसी मुसलिम पार्टी की जरूरत ही महसूस नहीं हुई. उस का विश्वास इन सैकुलर पार्टियों में बना रहा. उस को लगता था कि जैसेजैसे देश में दलित, पिछड़े, आदिवासी और अन्य जातियोंजनजातियों का विकास होगा, उस का भी साथसाथ होता रहेगा. तब वह डरा हुआ भी नहीं था.

इत्मीनान से अपनी रोजीरोटी कमा रहा था. लेकिन, भाजपा के कारण समाज का ध्रुवीकरण होने लगा, धार्मिक ताकतें बढ़ीं और मुसलमान डराए जाने लगे. कभी मंदिर बनाने के नाम पर, कभी मसजिद तोड़ने के नाम पर, कभी गौहत्या के आरोपी बना कर, कभी आतंकवाद फैलाने के दोषी करार दे कर तो कभी एनआरसी-सीएए का हौआ खड़ा कर के मुसलमानों को भयभीत किया जाने लगा. ऐसे में एआईएमआईएम को तुरंत अपने पैर फैलाने का मौका मिल गया है. विज्ञान का नियम है, क्रिया की प्रतिक्रिया तय है. तो देश को भाजपा की क्रिया की प्रतिक्रिया एआईएमआईएम के रूप में प्राप्त हुई और अब लोकतंत्र के सत्यानाश के लिए देश में 2 धु्रव तैयार हो गए हैं- भाजपा और एआईएमआईएम. गौर करने वाली बात यह भी है कि ओवैसी बंधु मोदी सरकार की आलोचना करने से हमेशा बचने की कोशिश करते हैं. उन का निशाना अकसर कांग्रेस व दूसरे सैकुलर दल होते हैं. दरअसल, भाजपा और एआईएमआईएम दोनों सांप्रदायिक सियासत करने वाली पार्टियां हैं, दोनों की सोच एक है, कारगुजारियां एक हैं. इन दोनों का विरोध जरूरी है क्योंकि ये देश की एकता को भंग करने वाली ताकतें हैं. किसी भी तरह की सांप्रदायिकता देश की एकता के खिलाफ है, फिर चाहे वह हिंदू धार्मिकता हो या मुसलिम धार्मिकता. दूसरे शब्दों में, दोनों एकदूसरे के लिए खुराक हैं. इन दोनों की राजनीति से आने वाले वर्षों में देश को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. द्य एआईएमआईएम का इतिहास औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भारत में एक मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल है. इस का मुख्य कार्यालय हैदराबाद के पुराने शहर में है. एआईएमआईएम की जड़ें मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) से जुड़ी हैं, जो वर्ष 1928 में ब्रिटिशशासित भारत के हैदराबाद स्टेट में स्थापित हुई थी.

एआईएमआईएम 1984 से हैदराबाद निर्वाचन क्षेत्र की लोकसभा सीट लगातार जीतती आ रही है. वर्ष 2014 के तेलंगाना विधानसभा चुनावों में एआईएमआईएम ने 7 सीटों पर जीत हासिल की और भारत के चुनाव आयोग द्वारा ‘रा पार्टी’ के रूप में मान्यताप्राप्त की. इस पार्टी के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी हैं. असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद के निजाम कालेज (उस्मानिया विश्वविद्यालय) से कला में स्नातक की पढ़ाई पूरी की. उन्होंने 1994 में विज्जी ट्रौफी में तेज गेंदबाज के रूप में दक्षिण क्षेत्र अंतरविश्वविद्यालय अंडर-25 की क्रिकेट टीम का प्रतिनिधित्व किया. बाद में वे दक्षिण क्षेत्र विश्वविद्यालय टीम में चुने गए. असदुद्दीन ओवैसी पेशे से बैरिस्टर हैं. उन्होंने लंदन के लिंकन इन कालेज में बैचलर और लौज और बैरिस्टर ऐट लौ का अध्ययन किया है. उन के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी तेलंगाना विधानसभा के सदस्य हैं और प्रदेश में पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं. उन के सब से छोटे भाई बुरहानुद्दीन ओवैसी ‘इत्तेमाद’ के संपादक हैं. एआईएमआईएम की उत्पत्ति मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) से हुई है. मजलिस के इतिहास को 2 हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला हिस्सा, 1928 में नवाब महमूद नवाज खान के हाथों स्थापना से 1948 तक, जब यह संगठन हैदराबाद को एक अलग मुसलिम राज्य बनाए रखने की वकालत करता था. इस संगठन के संस्थापक सदस्यों में हैदराबाद के राजनेता सैयद कासिम रिजवी भी शामिल थे जो रजाकार नाम के हथियारबंद संगठन के मुखिया थे.

एमआईएम को खड़ा करने में रजाकार के सदस्यों की अहम भूमिका थी. वर्ष 1948 में हैदराबाद स्टेट के भारत में विलय होने के बाद भारत सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था. दूसरा भाग 1957 में इस पार्टी की बहाली के साथ शुरू हुआ. तब इस ने अपने नाम में ‘औल इंडिया’ जोड़ा और साथ ही, अपने संविधान को बदला. कासिम रिजवी, जो हैदराबाद राज्य के विरुद्ध भारत सरकार की कार्रवाई के समय मजलिस के अध्यक्ष थे और गिरफ्तार कर लिए गए थे, ने पाकिस्तान चले जाने से पहले इस पार्टी की बागडोर उस समय के मशहूर वकील अब्दुल वाहिद ओवैसी के हवाले कर गए. उस के बाद से यह पार्टी इसी परिवार के हाथ में रही है. अब्दुल वाहिद के बाद सलाहुद्दीन ओवैसी इस के अध्यक्ष बने और अब उन के पुत्र असदुद्दीन ओवैसी पार्टी के अध्यक्ष हैं. असदुद्दीन ओवैसी लोकसभा के सदस्य हैं, जबकि उन के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी तेलंगाना विधानसभा में पार्टी के नेता हैं. पार्टी ने पहली चुनावी जीत वर्ष 1960 में दर्ज की थी, जब सलाहुद्दीन ओवैसी हैदराबाद नगरपालिका के लिए चुने गए थे. उस के 2 वर्ष बाद वे विधानसभा के सदस्य बने. और तब से मजलिस की राजनीतिक शक्ति लगातार बढ़ती गई. इस परिवार और मजलिस के नेताओं पर आरोप लगाए जाते हैं कि वे भड़काऊ भाषणों से हैदराबाद में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देते रहे हैं. लेकिन दूसरी ओर मजलिस के समर्थक, उसे भारतीय जनता पार्टी व दूसरे कट्टर हिंदू संगठनों का जवाब देने वाली शक्ति के रूप में देखते हैं. राजनीतिक शक्ति के साथसाथ ओवैसी परिवार ने समाज कल्याण के बहुतेरे कार्य बढ़चढ़ कर किए हैं.

उन्होंने मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेज के साथ कई अस्पतालों का निर्माण कराया है. मजलिस के अस्पतालों में गरीबों का मुफ्त इलाज होता है. असदुद्दीन ओवैसी हैदराबाद स्थित ओवैसी हौस्पिटल एंड रिसर्च सैंटर के अध्यक्ष भी हैं, जिस का शिलान्यास मौलाना अब्दुल वाहिद ओवैसी ने किया था. अस्पताल में अल्ट्रा आधुनिक उपकरणों की विशेष व्यवस्था है, जिस के चलते अस्पताल चिकित्सा शिक्षा, अनुसंधान और चिकित्सा देखभाल के क्षेत्र में उत्कृष्टता के केंद्र के रूप में कार्यरत है. ओवैसी हौस्पिटल एंड रिसर्च सैंटर में अनुसंधान कार्यक्रम प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शोध एजेंसियों के सहयोग से किया जा रहा है. ओवैसी परिवार गरीब मुसलमान बच्चों की शिक्षा व उन की शादियों का प्रबंध भी करता है. बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाना, दौरे करना, लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाना और उन के दवाइलाज की व्यवस्था करना अकबरुद्दीन ओवैसी की देखरेख में बड़े पैमाने पर किया जाता देखा गया है.

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