शासक का पहला कर्तव्य होता है कि वह जनता के दर्द को, उस की तकलीफों को सुने. यही कारण था कि आजाद भारत में जनता की तकलीफों को सुनने के लिए हर शहर में धरनास्थल बनाए. लेकिन सत्ता के घमंड व नशे में डूबे शासक आज जनता के दर्द को सुनना नहीं चाहते और ये धरनेस्थल हटाए जा रहे हैं. ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय’ कहावत बताती है कि निंदा करने वाले को भी पूरा अधिकार देना चाहिए. लेकिन आज सरकार निंदा करने वाले या अपना दर्द सुनाने वाले को अपने से ज्यादा से ज्यादा दूर रखना चाहती है. इस की वजह से धरना देने, प्रदर्शन करने और अपनी बात सुनाने की आड़ में अराजकता भी होने लगी है.

जनता का दर्द सीधे सुनने के लिए कुरसी पर बैठे नेताओं को प्रयास करने चाहिए, तभी देश में असल लोकतंत्र स्थापित हो सकेगा. दर्द को सुनना, दरअसल, दर्द को दूर करने की एक प्रक्रिया है जो हर शासनकाल में रही है. रामायण काल में ‘कोपभवन’ होता था. कोपभवन में जाने का यह मतलब होता था कि व्यक्ति को दर्द है, वह पीडि़त है और न्याय चाहता है. कोपभवन में आए व्यक्ति की बात सुनना और उसे न्याय देना राजा का धर्म होता था. कैकई और राजा दशरथ का प्रसंग सब को याद है. आजाद देश में भी कोपभवन की जरूरत पर बल दिया गया था. मुगल बादशाह जहांगीर ने अपने महल के बाहर एक घंटा लगवाया था. जहांगीर का आदेश था कि इस घंटे को बजाने वाले का दर्द वे खुद अगले दिन दरबार में सुनेंगे. जब पीडि़त की बात सीधे राजा तक पहुंचने लगती है,

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