अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी एक दूसरे के ‘बेस्ट फ्रेंड’ होने का दावा करते हैं. दोनों को एक दूसरे का साथ पसंद आता है. दोनों एक सी सोच रखते हैं, एक सी बातें करते हैं. दोनों की ही नीति-अनीति, शोहरत-बदनामी, कृत्य-अकृत्य लगभग सामान हैं. ट्रम्प और मोदी दोनों की प्रवृत्ति एक सी है और कोई भी आदमी अपने जैसी ही प्रवृत्ति वाले आदमी से दोस्ती गांठता है, इसलिए भले ही दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हो मगर यह दोस्ती कुछ असामान्य नहीं है.
दरअसल मोदी और ट्रम्प इमोशनल दोस्त से इतर ‘राजनितिक फ्रेंड’ या ‘पोलिटिकल फ्रेंड’ ज़्यादा हैं. उनकी दोस्ती राजनितिक लक्ष्यों को पाने के स्वार्थ में रची-बसी है. वो अपने अपने राजनितिक फायदों के लिये एक दूसरे से गलबहियां भी करते हैं और एक दूसरे के सिर आरोप भी मढ़ते हैं. वे एक दूसरे की तारीफ भी करते हैं और वक़्त पड़े तो नीचा भी दिखा सकते हैं, जैसा कि ट्रम्प साहब के हालिया कृत्यों और आरोपों से सिद्ध भी होता है. ऐसे दोस्त जो एक दूसरे को धमकाएं भी और प्यार भी करें. राजनीति की बिसात पर कब-कब, कैसी-कैसी चालें चलनी हैं, यह बात दोनों बखूबी जानते हैं.
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याद होगा कि जब कोरोना से बचाव की दवा हाइड्रोक्लोरोक्वीन की बड़ी चर्चा हो रही थी और माना जा रहा था कि कोरोना वायरस के खात्मे में यह दवा कारगर है और दुनिया भर में इसकी बड़ी मांग हो रही थी, तब भारत द्वारा अमेरिका को सप्लाई भेजने में हुई देरी पर ट्रम्प ने कैसे मोदी को धमकाया था. फिर जब मोदी सरकार ने दवा की खेप भेज दी तो कैसे ट्रम्प लहरा-लहरा कर मोदी को अपना प्यारा दोस्त बताने लगे थे. ये ऐसी दोस्ती है जिसे राजनीति के लिए कभी लताड़ा जा सकता है तो कभी दुलारा जा सकता है.
आरोपों की ओट में नाकामी छुपाने की कोशिश
अमेरिका में फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव की बेला है. ट्रम्प की किस्मत दांव पर लगी है और ट्रम्प अपने चार साल के प्रशासन की खामियां और कमियां छिपाने के लिए चीन और रूस सहित भारत सरकार और मोदी पर आरोपों की बौछार कर रहे हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे मोदी अपनी नाकामियों को कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्रियों के मत्थे मढ़ते हैं. इस चुनाव में ट्रम्प ने अपने करीबी प्रतिद्वंदी जो बिडेन से बहस के दौरान भारत पर कोरोना संक्रमितों और कोरोना से हुई मौतों का आंकड़ा छिपाने का आरोप लगाया है क्योंकि वे खुद अमेरिका में कोरोना के बढ़ते मामलों पर अंकुश लगा पाने में असफल साबित हुए हैं. अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिए ट्रम्प अपने ‘बेस्ट फ्रेंड’ को संकट में डालने से नहीं चूके. मगर मोदी ने भी दोस्ती की लाज रखी और ट्रम्प के आरोपों के ज़हर को नीलकंठ की तरह पी गए.
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तो ऐसे ‘बेस्ट फ्रेंड’ जो अपने राजनितिक लक्ष्यों को साधने के लिए दोस्त की इमेज की धज्जियां उड़ा दें, सिर्फ राजनिति के मैदान में ही पाए जाते हैं. गौरतलब है कि ट्रम्प के आरोपों से भारत में मोदी सरकार की काफी किरकिरी हुई है. कोरोना के मामले में सरकार द्वारा बताई जा रही कोरोना संक्रमितों और मरने वालों की सही संख्या पर संशय पैदा हो गया है. विपक्षी दलों ने इस पर मोदी सरकार को आड़े हाथों लिया है.
धर्म और राष्ट्रवाद भुनाने में माहिर
देखा जाए तो मोदी और ट्रम्प एक दूसरे से काफी भिन्न पृष्ठभूमि वाले परिवारों से आते हैं. ट्रम्प जहाँ अमेरिका में एक दिग्गज प्रॉपर्टी कारोबारी के बेटे हैं, वहीं, नरेंद्र मोदी गरीब परिवार से आते हैं जिन्होंने बचपन में चाय तक बेची है. यह अलग बात है कि राजनीती की बिसात पर दोनों शीर्ष नेताओं में कई समानताएं हैं. 74 साल के ट्रम्प और 70 साल के मोदी की जबर्दस्त लोकप्रियता है. राजनीतिक दलों के कैंपेन में इनके चेहरे मुख्य आकर्षण होते हैं. नस्लवादी, दक्षिणपंथी, छद्म राष्ट्रवाद के प्रचारक जैसे आरोप दोनों पर लगते रहे हैं. ट्रम्प प्रशासन का फोकस जहाँ प्रवासियों को अमेरिका में आने से रोकना हैं, वहीँ मोदी भी संघ के इशारे पर मुसलामानों के खिलाफ खड़े दिखते हैं. ट्रम्प ने कई देशों के नागरिकों पर अमेरिका में घुसने पर रोक लगाईं जिसका असर मुस्लिम बहुल देशों पर खास तौर से पड़ा. वहीं, मोदी नागरिकता कानून के जरिये मुस्लिक प्रवासियों के साथ भेदभाव करना चाहते हैं. दोनों अपने-अपने देशों में राष्ट्रीयता को बढ़चढ़ कर बढ़ावा देते हैं. जहां ट्रम्प ने ”अमेरिका फर्स्ट” के जरिये इस मुहिम को आगे बढ़ाया है, वहीं, मोदी ने ”मेक इन इंडिया” के जरिये इसको प्रमोट किया है. दोनों को अपने-अपने देशों में दक्षिण पंथियों का जोरदार समर्थन मिला हुआ है. दोनों धर्म और राष्ट्रवाद जैसी भावुकता को भुनाना भलीभांति जानते हैं. जिस तरह 2016 में डोनाल्ड ट्रम्प ने मुसलमानों के प्रति अपने नजरिये को जाहिर करते हुए राष्ट्रपति बनते ही अमेरिका में उनकी एंट्री पर पाबंदी लगाने का वादा किया था, दुनियाभर का सेक्युलर और लिबरल वर्ग उन्हें एक सनकी उम्मीदवार मान रहा था, बावजूद इसके राष्ट्रवाद की कश्ती में सवार होकर ट्रम्प चुनाव जीत गए थे. इस्लामोफोबिया का सहारा लेकर डोनाल्ड ट्रम्प दुनिया की सबसे ताकतवर गद्दी पर काबिज होने में सफल हो गए. बिलकुल उसी तरह जैसे मोदी 2002 में हुए गुजरात दंगों का सहारा लेकर तीन बार गुजरात की सत्ता पर काबिज़ हुए और फिर इसी छद्म राष्ट्रवाद की कश्ती में बैठ कर केंद्र तक पहुंच गए और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की कमान अपने हाथ में ले ली. जिस तरह मोदी ने 2014 में ‘अच्छे दिन’ का वादा किया, ठीक उसी तरह डोनाल्ड ट्रंप ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (अमेरिका को एक बार फिर महान बनाने) का दावा किया. जिस तरह मोदी ने आजादी के बाद से अब तक 60 साल के कांग्रेस राज को निशाना बनाते हुए देश की गरीबी और पिछड़ेपन के लिए कांग्रेस के दिए प्रधानमंत्रियों को जिम्मेदार ठहराया,
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ठीक उसी तरह डोनाल्ड ट्रम्प ने डेमोक्रैट पार्टी और डेमोक्रैटिक राष्ट्रपतियों को अमेरिका की शक्ति कम करने के लिए जिम्मेदार ठहराया. 2014 के चुनावों में भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में बांग्लादेश से असम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में शरणार्थियों की समस्या उठाते हुए दावा किया था कि सत्ता में आते ही वह भारत-बांग्लादेश सीमा पर कटीले तारों की रेखा खींच कर बांग्लादेशियों द्वारा सीमा लांघने की कोशिश को पूरी तरह से रोक देंगे. ठीक उसी तरह डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका में क्राइम और ड्रग ट्रैफिकिंग के लिए मेक्सिको से आ रहे गैरकानूनी शरणार्थियों को जिम्मेदार ठहराते हुए राष्ट्रपति बनने पर अमेरिका-मेक्सिको सीमा पर ऊंची दीवार खड़ी करवाने का दावा किया था. मोदी-ट्रम्प के बीच यही तमाम बातें हैं जो दोनों के अच्छे रिश्तों की एक बड़ी वजह हैं. साल 2016 में सारे अनुमानों के विपरीत डोनाल्ड ट्रंप अमरीका के राष्ट्रपति बने. बीते चार सालों में उनका इस पद पर होना हर तरीक़े से चुनौतीपूर्ण रहा.
कोरोना पर घिरे तो क्या बोले ट्रम्प
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मियां तेज़ हैं. ऐसे में अभी कई राउंड की बहस ट्रम्प और उनके प्रतिद्वंदी जो बिडेन के बीच होगी. इन बहसों के दौरान ट्रम्प अपने प्रशासन की कमियां और खामियां छुपाने के लिए अपने ‘बेस्ट फ्रेंड’ मोदी को और कितने संकट में डालेंगे कहा नहीं जा सकता. ट्रम्प के प्रतिद्वंदी जो बिडेन अमेरिका में कोरोना संक्रमण और अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर ट्रम्प को बुरी तरह घेरे हुए हैं. नस्लभेद के मुद्दे और शहरी हिंसा के मामलों पर भी बात करने को लेकर ट्रम्प बचते रहे हैं. कोरोना वायरस महामारी हमेशा से ही राष्ट्रपति ट्रम्प के बोलने के लिए मुश्किल विषय रहा है. जो बिडेन के साथ बहस में यह विषय शुरू से ही काफी गर्म रहा. डोनाल्ड ट्रम्प को यह बताना था कि उन्होंने कोरोना महामारी से लड़ने के लिए क्या किया, जिससे अमरीका में अब तक दो लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी हैं. मगर ट्रम्प के पास इस पर बोलने या अपने बचाव के लिए कुछ नहीं था. लिहाज़ा उन्होंने अपनी नाकामियां छिपाते हुए बात को घुमा कर संक्रमितों की सही संख्या ना बताने का दोष चीन और रूस के साथ-साथ भारत के सिर भी मढ़ दिया. जी हाँ, अपने उसी ‘बेस्ट फ्रेंड’ को ट्रम्प ने झूठा करार दे दिया जिन्होंने भारत में ट्रम्प के सम्मान में ‘नमस्ते ट्रम्प’ का आयोजन बड़े जोर शोर से किया था. ट्रम्प महाशय ने भारत सरकार पर कोरोना वायरस महामारी के संक्रमितों और मौत के आंकड़ों की विश्वसनीयता पर उंगली उठा दी और प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान चीन और रूस के साथ भारत पर भी इस महामारी के आंकड़े छिपाने के आरोप लगा दिया. यही नहीं इस बहस में उन्होंने इन्ही तीन देशो पर सबसे अधिक वायु प्रदूषण करने का भी आरोप लगाया.
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ना योजना ना नीति
उल्लेखनीय है कि ट्रम्प के कार्यकाल में जहाँ अमेरिका कमज़ोर हुआ है, बीमार हुआ है, ग़रीब हुआ है, पहले से ज़्यादा विभाजित दिखता है और पहले से ज़्यादा हिंसक भी हो गया है, यही बातें मोदी सरकार के कार्यकाल में भारत के अंदर भी देखने को मिलती हैं. अपने-अपने देशों में बढ़ते कोरोना केसेस और गिरती इकॉनमी से निपटने का कोई रास्ता ना डोनाल्ड ट्रम्प के पास है और ना नरेंद्र मोदी के पास. दोनों बस राष्ट्रवाद और धर्म का नाम लेकर जन समर्थन बटोर रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि अमेरिका में 70 लाख लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हुए हैं लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प के पास इससे निपटने की कोई योजना न थी, ना है. वहीँ भारत में कोरोना केस 63 लाख से ऊपर पहुंच गए हैं मगर ताली-थाली और दीया-बत्ती के अलावा मोदी सरकार के पास इस बढ़ते संक्रमण को रोकने का कोई उपाय नहीं है.
सही समय पर नहीं उठाया सही कदम
वायरस संक्रमण अपने आप में महामारी नहीं होते. वे बचाव व नियंत्रण के सही क़दम सही वक़्त पर न उठाने के कारण महामारी बन जाते हैं. कोरोना महामारी के सन्दर्भ में भी यह बात स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. 30 जनवरी को भारत में कोरोना संक्रमण का पहला मामला सामने आया था. उसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना को “पूरी दुनिया के लिए स्वास्थ्य की एक चिन्ताजनक समस्या” करार दिया था. भारत सरकार समेत दुनिया की कई सरकारों को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लिखित चेतावनियाँ भेजीं थीं कि तत्काल अन्तरराष्ट्रीय यात्रियों व पर्यटकों की एयरपोर्ट पर ही जाँच व क्वारंटाइन करें, जहाँ कहीं भी पहला मामला सामने आया हो, उसमें संक्रमित व्यक्ति से सम्पर्क में आये सभी लोगों की जाँच व क्वारंटाइनिंग करें, व्यापक पैमाने पर परीक्षण, पहचान व उपचार की तत्काल शुरुआत करें. लेकिन भारत सरकार ने इनमें से कुछ भी नहीं किया. उल्टे इसी दौरान बड़े-बड़े राजनितिक समारोहों में लाखों की संख्या में लोगों को एकजुट किया गया. 24 फरवरी, 2020 को अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रम्प’ का आयोजन हुआ और दोस्त ट्रम्प के स्वागत में लाखों की भीड़ को इकट्ठा किया गया. इसी दौरान मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के शपथ ग्रहण समारोह में भी लोगों का भारी जमावड़ा बिना मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के लगा.
इसके बाद जब कोरोना केसेस बढ़ने शुरू हुए तब तब्लीगी जमात के दिल्ली कार्यक्रम के लिए भी पहले दिल्ली पुलिस ने सबकुछ जानते हुए इजाज़त दी, फिर उन्ही को कोरोना संक्रमण का जिम्मेदार ठहराते हुए उनकी धरपकड़ करने लगे और संक्रमण फैलाने का सारा ठीकरा मुसलमानो के सिर फोड़ दिया.
मोदी सरकार कोरोना को कंट्रोल करने में पूरी तरह नाकाम रही, इसके कई कारण हैं. जिस वक़्त देश के गृहमंत्री और स्वास्थ मंत्रालय को कोरोना की गंभीरता को समझते हुए व्यापक कदम उठाने चाहिए थे उस समय मोदी-शाह की सरकार एनआरसी व सीएए पर चल रहे प्रदर्शनों का दमन करने में लगी रही. मध्यप्रदेश के विधायकों को ख़रीदने-तोड़ने और डराने-धमकाने के लिए भाजपा पैसे जुटा रही थी ताकि कमलनाथ की सरकार को गिराया जा सके; ट्रम्प के स्वागत के लिए ‘नमस्ते ट्रम्प’ कार्यक्रम के लिए मोदी सरकार जी-जान से लगी थी, क्योंकि उस पर कई व्यापारिक समझौते निर्भर थे, जो भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए मौजूदा संकट के दौर में ज़रूरी थे. ट्रम्प भी अपनी भारत यात्रा को लेकर बहुत ज़्यादा उत्साहित थे. वो उस भीड़ को देखना चाहते थे जो मोदी ने उनके लिए जुटायी थी. भीड़ जिसको ना सोशल डिस्टेंसिंग की परवाह थी ना मास्क लगाने की.
इसी बीच मोदी सरकार पूँजीपतियों के लिए निजीकरण की आँधी चलाने में भी व्यस्त थी; मज़दूरों के हक़ों को छीनने के लिए यूनीफ़ॉर्म लेबर कोड पर भी इसी समय मोदी सरकार का काम जारी था; दिल्ली में हिंसा, दंगे और हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण की मुहीम भी चल रही थी. जनता का पैसा चोरी करके भागने वाले मेहुल चौकसी आदि का क़र्ज़ा माफ़ करवाने की योजनाएँ भी इसी समय बन रही थीं. यानी कि भारत के बड़े पूँजीपति वर्ग ने जिस काम के लिए मोदी को सत्ता में बिठाया, मोदी सरकार उन कामों को करने में व्यस्त थी. कोरोना काल शुरू हो चुका था मगर देश की जनता को कोरोना से बचाने के रास्ते ढूंढने की बजाय मोदी सरकार दूसरे कामों में व्यस्त थी. कोरोना संक्रमण को महामारी बनने से रोकने के लिए मोदी सरकार ने कोई तैयारी नहीं की, कोई नीति नहीं बनाई और जब मामला हाथ से निकल गया और कोरोना संक्रमण के मामलों में तेज़ी से बढ़ोत्तरी होने लगी, तो आनन-फ़ानन में देश की जनता पर लॉकडाउन थोप दिया गया.
क्या लॉक डाउन समस्या का समाधान था
गौरतलब है कि लॉकडाउन अपने आप में समस्या का समाधान नहीं कर सकता, बल्कि वह केवल कुछ वक़्त देता है जिसमें कि वायरस के फैलने की दर को कम किया जा सके, ताकि स्वास्थ्य सेवाओं पर अतिरेकपूर्ण दबाव न पड़े, जिसमें कि आक्रामक तरीक़े से जाँच, पहचान, क्वारंटाइनिंग व इलाज के ज़रिये संक्रमण को समाप्त किया जाये. इसके बिना लॉकडाउन का अर्थ केवल संक्रमण के फैलने की गति को कुछ समय के लिए कम करना मात्र होता है. जैसे ही लॉकडाउन हटता है, वैसे ही संक्रमण पहले से दोगुनी गति से फैलता है. यही भारत में हुआ है.
लॉक डाउन तो लगा दिया, जो जहां था उसको वहीँ कैद कर दिया मगर इस दौरान ना तो पर्याप्त संख्या में जाँचें हुईं और न ही क्वारंटाइनिंग व उपचार की कोई व्यापक सरकारी व्यवस्था की गयी. लॉक डाउन से समस्या का समाधान होने की बजाये समस्या ने तब विकराल रूप धारण कर लिया जब भूख से बेहाल प्रवासी मजदूर अपने अपने गाँव कस्बों को जाने के लिए लाखों की संख्या में पैदल ही निकल पड़े.
मोदी सरकार अगर योजनाबद्ध तरीके से लॉक डाउन देश की जनता पर लगाती तो उसकी सही रणनीति यह होनी चाहिए थी कि सरकार कुछ समय का लॉकडाउन करने से पहले सभी प्रभावित मज़दूरों के रहने, खाने-पीने की पूरी व्यवस्था करती, लोगों को भी तैयारी करने के लिए थोड़ा वक़्त देती. फिर इस लॉकडाउन की अवधि में व्यापक पैमाने पर जाँच, पहचान व इलाज करती और फिर क्रमिक प्रक्रिया में लॉकडाउन को हटाती. लेकिन लम्बे समय तक कुछ न करने के कारण बीमारी के फैल जाने के बाद मोदी सरकार के हाथ-पाँव फूल गये, उसे कुछ समझ नहीं आया कि करना क्या है और उसने अचानक लॉकडाउन कर दिया और उसे बढ़ाती गयी. यह अर्थव्यवस्था के लिए भारी नुक़सानदेह साबित हुआ. लॉकडाउन के दौरान व्यापक प्रवासी मज़दूर आबादी, ग़रीब आबादी, रोज़ कमाने-खाने वाली आबादी के लिए खाद्यान्न राशनिंग, नक़द वितरण, स्वास्थ्य व सफ़ाई की उचित व्यवस्था मुहैया कराने के लिए मोदी सरकार ने कोई काम नहीं किया. नतीजतन, लॉक डाउन अपने आप में मज़दूर वर्ग के लिए एक अभूतपूर्व त्रासदी बन गया. यदि लॉक डाउन को सही तैयारी और योजना के साथ और उसके साथ उठाये जाने वाले सारे क़दमों के साथ लागू किया जाता, तो संक्रमण के इस चरण में वह एक सही क़दम होता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जिसकी क़ीमत देश के मेहनतकश-मज़दूर और पूरी आबादी आज चुका रही है.
अर्थव्यवस्था की बर्बादी
गौरतलब है कि कोरोना वायरस के भारत में पहुंचने से पहले ही देश की अर्थव्यवस्था की हालत चिंताजनक थी. कोविड-19 का संक्रमण ऐसे वक़्त में फैला है जब भारत की अर्थव्यवस्था मोदी सरकार के साल 2016 के नोटबंदी के फ़ैसले की वजह से आई सुस्ती से अभी उबर ही नहीं पाई थी. नोटबंदी के ज़रिए सरकार कालाधन सामने लाने की बात कह रही थी, मगर ऐसा हुआ नहीं, उलटे भारत जैसी अर्थव्यवस्था जहां छोटो-छोटे कारोबार कैश पेमेंट पर ही निर्भर थे, इस फैसले से उनकी कमर टूट गई. अधिकतर धंधे नोटबंदी के असर से तबाह हो गए, अनेक छोटे व्यापारी इससे उबरने की कोशिश कर रहे थे कि इसी बीच कोरोना वायरस की मार पड़ गई. गौरतलब है कि भारत में असंगठित क्षेत्र देश की करीब 94 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है और अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 45 फ़ीसदी है. कोरोना के कारण हुए लॉक डाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी क्योंकि रातोंरात लोगों का रोज़गार छिन गया. करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए.
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी इसके लिए केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोषी मानते हैं जिनकी गलत नीतियों और बिना सोचे समझे लॉक डाउन लगा देने से अर्थव्यवस्था की गाड़ी पूरी तरह पटरी से उतर गयी. राहुल करारा हमला बोलते हैं, ‘पीएम मोदी की बनाई आपदाओं के कारण भारत बर्बाद हो रहा है. जीडीपी के नीचे गिरने से लेकर और सीमा पर तनाव जैसी समस्याएं पीएम मोदी की वजह से हैं. जीडीपी में ऐतिहासिक -23.9 फीसदी की गिरावट, 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी, 12 करोड़ नौकरियां जाना, राज्यों को जीएसटी का बकाया ना देना, भारत में कोरोना के सबसे ज्यादा केस और मौतें, हमारी सीमाओं पर बाहरी आक्रामकता और तनाव इन सबके लिए मोदी जिम्मेदार हैं.’
दरअसल अर्थव्यवस्था की बर्बादी नोटबंदी से शुरू हुई थी और उसके बाद से मोदी सरकार द्वारा एक के बाद एक गलत नीतियां अपनाई हैं जिसके चलते आज हमारी जीडीपी -23.9 प्रतिशत नीचे गिर चुकी है. इसे वापस पटरी पर लाने में अब कितने साल लगेंगे कहना मुश्किल है.