शास्त्रीजी का असली नाम तो लोगों को मालूम ही नहीं था. सभी बड़े लोगों के समान वह भी दूसरे नाम से ही प्रसिद्ध हो गए थे. लोग उन्हें ‘गोभक्त शास्त्रीजी’ के नाम से ही जानते थे. उन के लिए संसार में सब से अधिक महत्त्वपूर्ण चीज गाय थी. गाय को ही वह अपना सबकुछ समझते थे. गाय ही उन की माता थी और गाय ही उन का पिता, क्योंकि गोभक्ति के कारण ही उन्हें प्रसिद्धि मिली थी.

लोग कहते हैं कि गांव में उन की मां भीख मांग कर गुजारा करती हैं, पर शहर में वह मां रूपी गाय के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर रहे थे. जब कोई उन से उन की मां के बारे में पूछता तो वह भावुक हो कर कहते, ‘‘मेरी मां तो गाय ही है,’’ पर वास्तविकता यह थी कि अपनी पत्नी के डर से उन्होंने अपनी मां से रिश्ता तोड़ लिया था.

उधर उन की पत्नी को भी गाय से अगाध प्रेम था. भक्त लोगों की ओर से उन्हें प्रतिवर्ष गाएं दान में मिल जाती थीं. जब तक वे दूध देने लायक रहतीं, उन की खूब सेवा की जाती, पर बाद में उन का भी शायद उसी तरह परित्याग कर दिया जाता जैसे उन्होंने अपनी जननी का कर रखा था.

कुछ लोगों ने पूछा, ‘‘पंडितजी, आप को तो हर वर्ष दरजनों गाएं दान में मिलती हैं, पर आप के घर में तो सदा

6-7 गाएं ही रहती हैं?’’

इस पर पंडितजी बड़े नम्र हो कर कहते, ‘‘भैया, इतनी गायों को रख कर मैं क्या करूंगा? मैं भी उन्हें दान में दे देता हूं.’’

पर आज तक कोई ऐसा व्यक्ति देखने या सुनने में नहीं आया कि जिस ने शास्त्रीजी से दान में गाय प्राप्त की हो. गाएं कहां जाती थीं, इस का पता या तो शास्त्रीजी को मालूम था या गोमाता को.

शास्त्रीजी ने गोभक्त सभा की स्थापना की थी, जिस के वह संस्थापक अध्यक्ष थे और आजन्म अध्यक्ष रहने की उन्होंने कसम खा रखी थी. नगर के कई धार्मिक कहे जाने वाले धनाढ्य इस संस्था के संस्थापक थे. ऐसे सभी लोगों को गाय से कुछ ज्यादा ही लगाव होता है.

मानव रक्षा के लिए वे कभी तैयार नहीं होंगे. मनुष्यों की तो वे मुक्ति में विश्वास रखते हैं. नकली दवाइयों, मिलावट की वस्तुओं और नशीले द्रव्यों के माध्यम से वे मानव की मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं और उन के लिए स्वर्ग का द्वार खोल रहे हैं. फिर उन्हें उन के लिए चिंता करने की क्या आवश्यकता है? पर गोभक्त शास्त्रीजी के बड़े भक्त थे और उन के द्वारा गायों की रक्षा करना चाहते थे.

गोभक्त सभा के सैकड़ों सदस्य थे और सभी अमीर लोग थे. स्वाभाविक है, अमीर ही गाय की रक्षा कर सकते हैं. गरीब, जो अपनी रक्षा नहीं कर सकता वह गाय की क्या खाक रक्षा करेगा? गोभक्त सभा में चूंकि सभी अमीर थे, इसलिए गोभक्त सभा का फंड भी तगड़ा था. सभा की बैठकें कम ही होती थीं.

सभा क्या काम करती है, गायों और सभा के बीच कैसा संबंध है, इस का किसी को पता नहीं था. सदस्य शास्त्रीजी की मांगी हुई रकम दे कर पुण्य प्राप्त कर लेते थे और शास्त्रीजी हर 3 महीने में गोरक्षा के बारे में एक जोरदार लेख लिख कर उन से भी ज्यादा पुण्य प्राप्त कर लेते थे. उस लेख को 3 महीनों तक वह सभी को दिखाते फिरते थे.

अलबत्ता 2-3 वर्षों में एक बार गोरक्षा के लिए वह एक बड़ा कार्यक्रम बनाते थे. जब वह यह अनुभव करते कि उन की लोकप्रियता कम हो रही है तो वह इस कार्यक्रम को दोहरा देते थे. अपनी लोकप्रियता का मूल्यांकन वह गोभक्त सभा को मिलने वाले चंदे और स्वयं को दान में प्राप्त होने वाली गायों से लगाते थे. जैसे ही इन में कमी हो जाती वह समझ जाते कि लोग उन्हें भूलने लगे हैं.

इस विशेष कार्यक्रम के अंतर्गत वह सैकड़ों लोगों के हस्ताक्षर ले कर एक ज्ञापन सरकार को देते और मांग करते कि प्रदेश में गोहत्या पर पूर्ण रूप से पाबंदी लगा दी जाए. इस के अतिरिक्त वह सैकड़ों गायों और हजारों भक्तों को ले कर शहर के मुख्य मार्गों से एक जलूस भी निकालते और सार्वजनिक सभा में घोषणा करते कि 6 महीनों में यदि गोहत्या बंद न हुई तो वह आमरण अनशन कर देंगे.

जिन समाचारपत्रों का संचालन उन के भक्तों द्वारा किया जाता था वे इस समाचार को खूब उछालते थे. पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार जलूस में उन के कार्यकर्ताओं की झड़प पुलिस से हो ही जाती थी जिस से इस खबर को और प्रमुखता मिल जाती थी.

धार्मिक मामलों पर प्रश्न उठाने वाले नेताओं की भी कमी नहीं थी. सरकार भी यथासमय एक वक्तव्य निकाल देती कि इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है. क्योंकि गाय का प्रश्न हमारी संस्कृति से जुड़ा हुआ है. बस, शास्त्रीजी का उद्देश्य पूरा हो जाता और फिर कुछ वर्षों तक वह निश्ंिचत हो जाते थे.

गत 2 वर्षों से शास्त्रीजी कुछ ज्यादा ही चिंतित थे. शहर में धार्मिक गंगा बह रही थी. सभी लोग अधिक से अधिक धार्मिक हो रहे थे. पर इस धार्मिक आंदोलन में गाय का कहीं नाम नहीं था. लोग किसी और पहलू को ले कर धार्मिक हो रहे थे. अब धर्मयुद्ध की बागडोर नए धार्मिक नेताओं ने अपने हाथों में ले ली थी. शास्त्रीजी को अपना सिंहासन डोलता नजर आया.

उन्होंने इस बार अपना कार्यक्रम और भी जोरदार बनाने का प्रयत्न किया. उन्होंने लोगों को गाय की रक्षा के लिए ललकारा. समय पड़ने पर सभी धार्मिक नेता एक हो जाते हैं, चाहे वे अलगअलग धर्मों के ही क्यों न हों. उन के लिए यह एक स्वर्ण अवसर था. उन्होंने शास्त्रीजी की हां में हां मिलाई और कार्यक्रम तैयार हो गया.

इस बार समाचारपत्रों में और भी जोरशोर से वक्तव्य निकाले गए और सरकार को धमकी दी गई कि यदि उस ने देश की संस्कृति को दृष्टि में रखते हुए गोरक्षा के संबंध में शीघ्र ही कदम नहीं उठाया तो एक जोरदार आंदोलन छेड़ा जाएगा. जलूस में इस बार 1 हजार गायों को रखा गया और साथ में लगभग 25 हजार गोभक्त नारे लगाते हुए निकले. शास्त्रीजी प्रसन्न मुद्रा में जलूस में सब से आगे थे. बैंडबाजे के साथ जलूस कोठी चौरास्ते के आगे की सड़क पर धीरेधीरे बढ़ रहा था.

कोठी चौरास्ते के आगे सागसब्जी का बाजार है जो सदा सड़क पर ही लगता है. इस बाजार की विशेषता यह है कि यहां पर जितने सागसब्जी खरीदने वाले होते हैं उस से भी अधिक संख्या में आवारा गायें होती हैं जो सागसब्जी के ढेर को चट करने की कोशिश में रहती हैं. सब्जी बेचने वाले सदा एक बड़ा डंडा अपने साथ रखते हैं, और जब भी कोई गाय सब्जी पर मुंह मारने की कोशिश करती है तो डंडे से उस की पूजा करते हैं.

जलूस इस बाजार से कोई 25 गज की दूरी पर था. उसी समय एक सब्जी वाली ने एक गाय की पूजा की. गाय घबरा कर मुड़ी पर उतने में ही जलूस वहां तक पहुंच चुका था. अपनी ढेर सारी साथिनों को देख और बैंडबाजे की आवाज सुन गाय घबरा गई. उसे भागने का रास्ता नहीं मिल रहा था. केसरिया शाल पहने शास्त्रीजी नारे लगा रहे थे, गाय को घबराहट में केवल वह ही दिखाई दिए. पहले ही वह परेशान थी. घबरा कर उस ने शास्त्रीजी पर आक्रमण कर दिया और पूरे जोर से अपने दोनों सींग शास्त्रीजी के पेट में घुसेड़ दिए.

यह सब कुछ क्षणों  में  देखतेदेखते हो गया. शास्त्रीजी के पेट से खून की फुहार छूटने लगी और गाय उन्हें गिरा कर भीड़ की ओर भागी. भीड़ तितरबितर हो गई और गाय को रास्ता मिल गया. अब लोगों ने शास्त्रीजी की ओर ध्यान दिया. वह खून से लथपथ बेहोश पड़े थे. तुरंत एक मोटरगाड़ी में उन्हें दवाखाने ले जाया गया. जलूस वहीं पर समाप्त कर दिया गया और आशा की गई कि गोमाता की कृपा से शास्त्रीजी बच जाएंगे.

दूसरे दिन अखबारों में बस शास्त्रीजी का ही नाम था. गाय द्वारा उन के आहत होने की घटना को कुछ वामपंथी अखबारों ने खूब उछाला. उधर धार्मिक पत्रों ने इसे वामपंथियों का षड्यंत्र बताया.

शास्त्रीजी की स्थिति बड़ी गंभीर थी. वह अभी भी बेहोश थे. उन के गुर्दे पूरी तरह नष्ट हो गए थे. अत्यधिक खून बहने के कारण पक्षाघात हो जाने की आशंका बढ़ गई थी. भक्तों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. मुंबई से डाक्टरों को बुलाया गया. अवसर पड़ने पर उन को अमेरिका ले जाने की व्यवस्था कर दी गई. 15 दिनों बाद शास्त्रीजी को होश आया. पर उन्हें बातचीत करने से रोक दिया गया. लगभग 10 दिनों तक शास्त्रीजी केवल सोचते ही रहे. डाक्टरों ने कह दिया था कि लगभग 2 वर्षों तक वह ठीक प्रकार से नहीं चल सकेंगे.

जब वह बातें करने लायक हुए तो भक्तों की मंडली उन्हें सांत्वना देने के लिए पहुंची. लोगों ने कहा, ‘‘पंडितजी, गोमाता की कृपा से आप बच गए और उस की कृपा से ही आप शीघ्र अच्छे हो जाएंगे. आप किसी बात की चिंता मत कीजिए. हम और जोरशोर से अभियान चलाएंगे और जब तक सारे देश में गोहत्या पर पाबंदी नहीं लग जाएगी, हम चैन की सांस नहीं लेंगे.’’

शास्त्रीजी थोड़ी देर मौन रहे, फिर उन्होंने कहना प्रारंभ किया, ‘‘नहीं, अब मैं गोहत्या पर पाबंदी का अभियान छोड़ दूंगा. अभी ही इतनी आवारा गाएं सड़कों पर घूम रही हैं और लोगों को आहत कर रही हैं. अगर गोहत्या पर पाबंदी लग जाए तब तो सड़कों पर लोगों से अधिक गाएं ही दिखाई देंगी और लाखों को अस्पताल में इलाज के लिए भरती होना पड़ेगा. अब मैं आवारा गायों को ठिकाने लगाने का अभियान आरंभ करूंगा,’’ इतना कह कर शास्त्रीजी फिर बेहोश हो गए.

उस रात शास्त्रीजी की हालत बहुत गंभीर हो गई. डाक्टरों के लाख प्रयत्न करने पर भी कुछ नहीं हो सका. सूर्योदय से पहले ही शास्त्रीजी का देहावसान हो गया.

सारे शहर में सन्नाटा छा गया. भक्तों ने शास्त्रीजी की शवयात्रा बड़ी शान से निकाली और जोरदार वक्तव्य निकाला, जो इस प्रकार था :

‘‘शास्त्रीजी ने गोवंश की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी. कुछ सूत्रों से पता चला है कि जिस गाय ने शास्त्रीजी पर आक्रमण किया उस का मालिक वामपंथी विचारों वाला है. पर हम चुप नहीं रहेंगे, शास्त्रीजी की हत्या का बदला लेंगे तथा गोहत्या पर पूर्ण पाबंदी लगाने के इस अभियान को और शक्तिशाली बनाएंगे.’’

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