बहुमत के नशे में मदहोश नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की भगवा सरकार अपने तालिबानी रवैए व हठधर्मिता पर अब खुलकर उतर आई है. इस का ताजा नमूना यह है कि उस ने रविवार, 20 सितंबर को दिनदहाड़े संसद को हड़प लिया. इस कृत्य की अगुआई राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश प्रसाद सिंह ने की. जिस कुरसी को न्याय की पीठ माना जाता है, वह सदन के भीतर अन्याय की सब से बड़ी किरदार बनती नजर आई.
सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने न केवल 70 वर्षों के लोकतंत्र के इतिहास, परंपरा और संवैधानिक नियमों का उल्लंघन किया, बल्कि देशवासियों समेत पूरे विपक्ष को यह बता दिया कि संसद अब उन की नहीं रही. जरमनी में जिस काम के लिए हिटलर को रीचस्टैग में आग लगवानी पड़ी थी, मोदी ने बगैर वैसा किए ही उस को हासिल कर लिया. और जनता की संसद को उस से छीन लिया गया.
राज्यसभा में जिस तरीके से कृषि विधेयक ‘पारित’ हुआ है उस ने इस बात को साबित कर दिया है कि अब सरकार को न तो विपक्ष की जरूरत है, न संसद की, और उस से आगे बढ़ कर, न किसी चुनाव की. लेकिन चूंकि देश के भीतर लोकतंत्र के भ्रम को बनाए रखना है और कौर्पोरेट की सत्ता की वैधता के लिए यह जरूरी शर्त है, इसलिए कहने के लिए संसद भी होगी, चुनाव भी होगा, प्रतिनिधि भी चुने जाएंगे. लेकिन, उन की भूमिका जैसी सरकार चाहेगी वैसी ही होगी. यानी, वे सदन के भीतर जनता के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि श्रोता मात्र होंगे.
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उन को सैलरी मिलेगी और सारी सुखसुविधाएं भी मुहैया कराई जाएंगी, लेकिन न तो वे सवाल पूछ सकेंगे और न ही अपनी राय रख सकेंगे. यानी, संसद के नाम पर महज फसाद होगा और सदन के संचालन की सिर्फ औपचारिकता निभाई जाएगी. केवल एक आदमी के मन की बात होगी. बाकी लोग उस के लिए काम कर रहे होंगे.
पूंजीवादी लोकतंत्र संकट के दौर में किस तरह नंगा हो सकता है, राज्यसभा की घटना इस की खुली नजीर है. क्या लोकतंत्र इसी को कहते हैं? जिस देश की 65 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर हो और जिस की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान हों उन के लिए सरकार कोई कानून बनाए लेकिन उन के किसी नुमाइंदे से पूछा तक न जाए. क्या यह किसी जिंदा लोकतंत्र में संभव है? संविधान में किसी बिल के लिए साफसाफ लिखा है कि उस को पारित कराने से पहले उस के तमाम हितधारकों से बातचीत करनी होगी.
उन के साथ संबंधित मंत्रालय के अधिकारी बैठेंगे और उन से विचारविमर्श करेंगे और फिर उन की राय के मुताबिक सदन में जनप्रतिनिधियों के बीच बहस करवा कर उसे पारित कराने की कोशिश की जाएगी. जबकि, मौजूदा हुकूमत ने किसी किसान या फिर उस के नेता से रायमशवरे की बात तो दूर, सदन में कानूननिर्माताओं तक को अपना पक्ष रखने नहीं दिया.
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आखिर क्या जल्दबाजी थी इस विधेयक को पारित कराने की? कोरोना महामारी के दौर में सरकार अध्यादेश लाती है और फिर उस अध्यादेश को येनकेनप्रकारेण संसद से पास कराना चाहती हैं. किस का या किस बात का दबाव है तालिबानी सरकार के ऊपर?
अगर विधेयक को तानाशाही तरीके से पास कराना था तो उस से अच्छा था कि बगैर सदन की बैठक बुलाए ही उस के पारित होने की घोषणा कर दी जाती. लेकिन हठधर्मी सरकार को तो देश को अपनी ताकत भी दिखानी थी, चंबल के डाकुओं की तरह विधेयक को लूट ले जाना था.
दरअसल, राज्यसभा में सरकार अल्पमत में थी और उसे किसी भी तरीके से इस विधेयक को पारित होते देखना था. लिहाजा, उस ने हर उस काम को किया जो सामान्य स्थितियों में नहीं किया जा सकता था. मसलन, उपसभापति किसी सुल्ताना डाकू के किरदार में आ गए. और फिर उन्हें न तो संविधान से कुछ लेनादेना था, न सदन संचालन के नियमों से और न ही विपक्षी सदस्यों के अधिकारों से कोई मतलब था. बस, उन के ऊपर नरेंद्र मोदी के विधेयक को पारित कराने का भूत सवार था.
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लिहाजा, पहले उन्होंने सदन की कार्यवाही को आगे बढ़ाने की विपक्ष की मांग को खारिज कर दिया. फिर विपक्ष के जिन कुछ सदस्यों को अभी अपनी बात रखनी थी उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और विपक्षी सदस्यों ने जब विधेयक पर मतदान की मांग उठाई और टीएमसी के डेरेक ओ ब्रायन और डीएमके के त्रिची शिवा सदन के कुएं के पास पहुंच कर उपसभापति को सदन का और्डर दिखाने की कोशिश की तो मार्शल के बल पर उन्हें दरकिनार कर दिया गया.
इस बीच, राज्यसभा टीवी पर न केवल पहले विपक्षी सदस्यों के भाषण को म्यूट किया गया, बल्कि कुछ देर बाद पूरी कार्यवाही को ब्लैकआउट कर दिया गया. और इस तरह से सदन में विपक्ष के वोट के विभाजन की मांग को दरकिनार कर विधेयक के ध्वनिमत से पारित होने की घोषणा कर दी गई. न तो किसी के संशोधन लिए गए और न ही उस पर कोई चर्चा हुई और न ही कृषि मंत्री ने उन का कोई जवाब दिया.
सारी चीजों को ताक पर रख कर विधेयक को पारित मान लिया गया, जबकि नियम यह है कि किसी भी विधेयक पर अगर सदन का एक भी सदस्य मतदान की मांग करता है तो सभापति/उपसभापति की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वे उस पर वोटिंग कराएं.
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उल्लेखनीय है कि इसी सरकार के कार्यकाल में ट्रांसजैंडरों से जुड़े मसले पर एक विधेयक आया था, जिस में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों सहमत थे और विधेयक पारित होने के रास्ते में कोई अड़चन नहीं थी, लेकिन एक सदस्य ने वोटिंग की मांग कर दी. सत्तापक्ष के रविशंकर प्रसाद ने पीठासीन अधिकारी से उस सदस्य की मांग को पूरा करने की गुजारिश की थी और फिर वोटिंग के बाद ही वह विधेयक पारित हो सका.
लेकिन यहां एक नहीं, 2 नहीं, 10 नहीं, बल्कि पूरा विपक्ष मतदान की मांग कर रहा था. फिर भी कुरसी पर बैठे उपसभापति ने उस को सिरे से खारिज कर दिया. संसद के 70 वर्षों के इतिहास में शायद ही कभी ऐसा देखा गया हो. हां, कुछ प्रदेशों की विधानसभाओं में जरूर सत्तारूढ़ दलों से जुड़े स्पीकर कभीकभी इस तरह की हरकतों को अंजाम देते रहे हैं, लेकिन उसे कभी भी सही नहीं माना गया. लेकिन देश के सर्वोच्च सदन में और जिस की अपनी एक ऐतिहासिक विरासत है उसे एक म्युनिसिपलिटी और विधानसभा की कचहरी में बदल देना न केवल लोकतंत्र और संविधान का बल्कि इस देश की जनता का खुला अपमान है.
यही नहीं, यह काम उस शख्स द्वारा अंजाम दिया गया जिस का पत्रकारिता में कभी अच्छे संपादकों में नाम शुमार किया जाता था. लेकिन बुराई एक दिन में नहीं आती है और पतित होने का भी सिलसिला होता है. संपादक की कुरसी पर रहते हुए भी हरिवंश सुपारियां लेने का काम करते थे. हालांकि, यह बात बहुत कम लोग जानते हैं और जो जानते भी हैं, अभी तक उसे बाहर नहीं लाना चाहते. कभी वे सत्ता की सुपारी लेते थे तो कभी अपने मालिक ऊषा मार्टिन की. सुपारी कभी अखबार ‘प्रभात खबर’ के लिए विज्ञापन लाने के तौर पर होती थी और कभी मालिक को कोयला खनन का पट्टा दिलाने के लिए. हरिवंश की सत्ता और कौर्पोरेट की यह दलाली पीएम मोदी को भी भा गई.
मोदी ने हरिवंश के जरिए एक तीर से कई शिकार किए. एक तरफ मंत्रिमंडल से हटाए गए कुछ ठाकुर मंत्रियों के चलते ठाकुर बिरादरी की नाराजगी को दूर करने की कोशिश की तो दूसरी तरफ एक उदारवादी जमात के शख्स को अपने खेमे में कर के एक बड़ा संदेश देने का काम किया और यह शख्स अगर सीधे कौर्पोरेट के लिए काम करना शुरू कर दे, फिर तो सोने पर सुहागा है. और अब वही हुआ. हरिवंश के बारे में बताया तो यहां तक जा रहा है कि ऊषा मार्टिन में इन का शेयर है. उस में ये कुछ परसैंट के हिस्सेदार हैं. लिहाजा, अगर किसानों के खिलाफ जा कर कौर्पोरेट के पक्ष में उन्होंने कुछ किया है तो अपनी बिरादरी का ही साथ दिया है. ऐसे में उन से भला किसी को क्यों शिकायत होगी.
कांग्रेस समेत 12 दलों ने उपसभापति हरिवंश के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है. कांग्रेस ने कहा कि जिस तरह से बिल पास किया गया है, वह लोकतंत्र की हत्या है. इतिहास में यह दिन काली स्याही से लिखा जाएगा. पार्टी ने इन बिलों को किसानों को बरबाद कर देने वाला और संघीय ढांचे के खिलाफ कहा है. साथ ही, इसे संविधान की मूल भावना से छेड़छाड भी बताया है.
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल ने पत्रकारों से कहा कि 12 पार्टियों ने उपसभापति हरिवंश के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है, क्योंकि बिल को पास कराने में सदन में लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई गई हैं व लोकतंत्र की हत्या की गई है. पटेल ने आगे बताया कि उन्होंने राज्यसभा में कहा, ‘आज सदन की कार्रवाई स्थगित करिए, कल बाकी मंत्री जवाब देंगे और उस पर डिवीजन भी होगा. लेकिन उपसभापति ने वह बात तो नहीं मानी. हम समझ सकते हैं, लेकिन उस के साथसाथ जो हम ने डिवीजन की मांग की थी, वह भी उन्होंने नहीं मानी. वोटिंग अलाउ नहीं की. उन का जो तालिबानी रवैया था उस के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है.’
कांग्रेस नेता ने कहा कि जो बिल पास किया गया है और केंद्र सरकार जो कानून लाने जा रही है, वह न सिर्फ किसानों के विरोध में है बल्कि संघीय ढांचे के खिलाफ भी है. कृषि राज्यों का विषय है. जीएसटी की वजह से राज्य पहले से ही परेशान हैं और उन के जो रेवेन्यू हैं, उन्हें कम करने की कोशिश की गई है. संविधान की जो स्पिरिट है, सरकार ने उस पर प्रहार किया है. पहले सरकार जो एक्वीजिशन एक्ट लाई थी, उस पर काफी हंगामा हुआ था, किसान भी काफी नाराज थे. सो, सरकार को उसे वापस लेना पड़ा था. सरकार, दरअसल, जमीनों को कौर्पोरेट को देना चाहती थी, वह जब नहीं कर पाई, तो भाजपाशासित कई राज्यों में कानून ले आई. सरकार किसानों के खेत और जमीन कौर्पोरेट सैक्टर को देना चाहती है.
अहमद पटेल ने आगे कहा कि एपीएमसी एक्ट को खत्म करने की कोशिश हो रही है. इस से एमएसपी को भी धक्का पहुंचेगा. प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी) को मैक्सिमम सैलिंग प्राइस देंगे. उन की यह बात गलत और तथ्यहीन है. अहमद पटेल ने कहा कि कांग्रेस के खिलाफ जो आरोप लगा रहे हैं कि इस के मैनिफैस्टो में भी एपीएमसी को खत्म करने की बात की गई है, वह लोगों को भ्रमित करने की कोशिश है. काफी मेहनत कर के हमारे चुनावी घोषणापत्र को पढ़ने की जरूरत है. मोदी और भाजपा वालों ने आधाअधूरा पढ़ा है. चुनावी घोषणापत्र में कांग्रेस ने एपीएमसी की बात की है. उस के साथसाथ हम ने किसानों के लिए सेफगार्ड भी रखे हुए हैं. कम से कम 22 पौइंट्स है. वे 20 मुद्दों की बात नहीं करते, सिर्फ 2 मुद्दों की बात करते हैं.
राज्यसभा सांसद प्रतापसिंह बाजवा ने बताया कि हाउस में उन्होंने कहा कि यह ‘वारंट औफ डेथ’ है किसानों का. विशेषतौर से पंजाब, हरियाणा और वेस्टर्न यूपी के जो किसान हैं, उन्होंने 55 साल इस देश के गरीबों का पेट पाला है. सरकार का यह रवैया बहुत अफसोसजनक है. एक तरफ तो हम कोरोना से जूझ रहे हैं, तकरीबन एक लाख लोग हर रोज बीमार हो रहे हैं, दूसरी तरफ चीन के साथ वार जैसी सिचुएशन है. 50 हजार हमारे जवान गलवान वैली में हैं. ऐसे में सरकार को इतनी जल्दी क्या थी. सरकार के कृषि मंत्री ने स्टेक होल्डर से बात नहीं की. स्टेक होल्डर किसान हैं. हजारों की तादाद में किसान पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में सड़कों पर हैं, उन के साथ बात की जानी चाहिए थी. आप ने तो हरसिमरत कौर से बात कर ली, सुखबीर सिंह से बात कर ली और चौटाला से कर ली. चौटाला रह गए, बादल छोड़ गए. हरसिमरत कौर ने आप का मंत्रिमंडल छोड़ दिया.
वरिष्ठ नेता अखिलेश प्रसाद सिंह ने कहा कि 2006 में सब से पहले बिहार में एपीएमसी एक्ट समाप्त किया गया था और उस के बाद की जो स्थिति है बिहार की, उसे देखासमझा जा सकता है. पूरे देश में बिहार के किसान सब से ज्यादा डिस्ट्रेस सेल में अपना अनाज बेचते हैं. हर साल हजारों ट्रकों में लदकर चावलगेहूं बिहार से निकल कर पंजाब व हरियाणा की मंडियों में आता है. ट्रेडर्स मुनाफाखोरी करते हैं. किसानों की पौकेट में जो न्यूनतम समर्थन मूल्य जाता था, वह ट्रेडर्स की पौकेट में जाता है. रूरल इकोनौमी को बिहार में जो बूस्ट मिलना चाहिए था, वह बूस्ट ट्रेडर्स को मिल रहा है. इसी तरह के हालात पूरे देश में होने वाले हैं.
किसानविरोधी इस कानून के चलते देशभर में अन्नदाताओं की हालत अब और भी बदतर हो जाएगी. दरअसल, राज्यसभा के उपसभापति ने विपक्ष को अनदेखा करते हुए सदन पर कब्ज़ा सा कर लिया था और मोदी सरकार के बिल को पारित करवा लिया. जिस तरह से बिल पास किया गया है उस से साफ है कि सदन के भीतर लोकतंत्र की हत्या की गई है, लोकतंत्र को शर्मसार किया गया है.