अमेरिका में पुलिस की बर्बरता का शिकार हुए जौर्ज फ्लोयड की मौत ने कई सवाल खड़े किए थे. जाति, धर्म, रंग आदि के आधार पर होने वाले भेद को उजागर कर पूरे अमेरिका को आग में झुलसा दिया था जिस का धुआं यहां भारत तक भी आया था. ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन में भारतीयों ने भी सोशल मीडिया पर आवाज उठाई थी जिस से देश में रंगभेद को ले कर हर तरफ बहस छिड़ गई थी. अमेरिका में चल रहे आंदोलन का असर इतना गहरा हुआ था कि आरोपी पुलिसवालों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज हुआ व उन्हें सजा सुनाई गई. हाल ही में भारत में भी पुलिस की बर्बरता का कुछ इसी तरह का मामला सामने आया जिस ने एक बार फिर पुलिस की प्रताड़ना को उजागर किया है. तमिलनाडु के तूतुकुड़ी जिले में जयराज और उन के बेटे बेनिक्स के साथ पुलिस हिरासत में जघन्य हिंसा हुई जिस से दोनों की मृत्यु हो गई. दोनों के साथ जो हुआ उस ने एक बार फिर पुलिस व न्यायिक प्रक्रिया को सवालों के घेरे में ला कर खड़ा कर दिया है.

पुलिस हिरासत में हिंसा व अत्याचार का यह पहला मामला नहीं है, ऐसे अनेक मामले हैं जहां पुलिस ने हिरासत में लिए गए व्यक्ति के साथ बर्बरता की सीमाएं तोड़ी हैं. नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2000 से 2016 तक भारत में पुलिस हिरासत में 1,022 लोगों की मौत हुई लेकिन पुलिस के खिलाफ केवल 428 एफआईआर लिखवाई गईं. इन में से भी सिर्फ 5 फीसदी पुलिस वालों को ही सजा मिली. यह आंकड़ें केवल मृत्यु के हैं व बुरी तरह घायल या अपंग होने वाले व्यक्तियों की गिनती का कोई जिक्र तक नहीं हैं. पुलिस जिसे जनता का रक्षक कहा जाता है यदि वह ही भक्षक बन जाए तो जनता न्याय के लिए किस का दरवाजा खटखटाएगी? पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार, बर्बरता, बलात्कार व अत्याचार का शिकार आमजन आखिर जाए तो जाए कहां?

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जयराज और बेनिक्स की निर्मम हत्या

तमिलनाडु के तूतुकुड़ी जिले के रहने वाले पी जयराज (59) व उन का बेटे जे बेनिक्स (31) एक छोटी सी मोबाइल फोन की दुकान चलाते थे. पुलिस के अनुसार, उन दोनों ने 19 जून की रात कर्फ्यू के नियम तोड़ते हुए, कर्फ्यू के निर्धारित समय से ज्यादा देर तक अपनी दुकान खोले रखी थी. जब पुलिस उन के पास गई तो वे चिल्लाने लगे, गालीगलौज करने लगे, जब पुलिस ने उन्हें साथ चलने के लिए कहा तो वे सड़क पर विरोध में हाथपैर पटकते हुए लोटने लगे जिस के चलते उन्हें गंभीर चोटें आईं व इंटरनल ब्लीडिंग होने लगी. जबकि मौके पर मौजूद लोगों का कहना है कि पुलिस जो कुछ कह रही है वह सरासर झूठ है. तो फिर सचाई क्या है?

असल में हुआ यों था कि 19 जून की रात जयराज को पुलिस अपने साथ ले गई थी जिस के बाद बेनिक्स अपने दोस्त और कुछ मौके पर मौजूद लोगों के साथ स्टेशन गया था. पुलिसकर्मियों ने उन के खिलाफ धारा 188 (लोक सेवक द्वारा विधिवत आदेश की अवज्ञा), धारा 269 (लापरवाही से जानलेवा बीमारी के संक्रमण फैलाने की कोशिश) और 353 (लोक सेवक को कर्तव्य से विमुख करने के लिए बल का उपयोग), सहित कई अन्य धाराओं में मामला दर्ज कर लिया.  सथनकुलम पुलिस स्टेशन में जयराज और बेनिक्स दोनों को पुलिस ने हवालात में बंद कर दिया. उन दोनों को पुलिस ने घंटों तक बुरी तरह मारापीटा, खदेड़ा, नौचा व बिना रुके लाठियां बरसाईं. उन दोनों के चेहरों को पुलिस द्वारा दीवार पर जोर से मारा गया था, घुटने फोड़े गए थे व शरीर पर मारपीट के दौरान एक भी कपड़ा नहीं था. उन के अंडरवियर तक बुरी तरह फटे व खून से सने हुए थे. मौके पर मौजूद गवाहों के अनुसार, उन दोनों को पुलिस द्वारा इतना मारा गया कि उन के कपड़े बुरी तरह फट व खून से लथपथ हो चुके थे, जिस के कारण उन के घर खून से सने कपड़े भिजवा कर तीन बार साफ कपड़ों को मंगावाया गया था.

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कुछ गवाहों का यह भी कहना है कि जयराज और बेनिक्स के यौनांग भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए थे व उन्हें सोडोमाइज्ड किया गया था अर्थात उन के गुदा को लाठियों से क्षति पहुंचाई गई थी यानी गुदा में लाठी कई बार डाली गई थी. बेनिक्स के दोस्त के अनुसार, जब बापबेटे घर आए तो उन की पैंट बुरी तरह से खून से सनी हुई. अगले दिन यानी 20 जून की सुबह पुलिस ने उन्हें घर आने दिया था जहां सुबह 7 बजे से 12 बजे तक उन दोनों ने 7-7 लुंगियां बदली थीं क्योंकि वे बारबार खून से भीग रही थीं. जब बापबेटे घर लौटे थे तो दोनों बुरी तरह घायल थे व दोनों ने ही रेक्टम में दर्द बताया था क्योंकि उस से लगातार खून निकल रहा था.

उन दोनों को घर से सथनकुलम सरकारी अस्पताल ले जाया गया जहां डाक्टर ने स्थानीय पुलिस के आदेश पर दोनों को फिट घोषित किया था. 3 घंटों बाद उन दोनों को सथनकुलम मजिस्ट्रेट कोर्ट में ले जाने के लिए पुलिस ने एक बार फिर कस्टडी में ले लिया. लेकिन, मजिस्ट्रेट ने उन्हें देखे बिना ही कोवलपट्टी सब जेल में रिमांड में लेने का फैसला सुना दिया जोकि नियमों के विरुद्ध था. नियमों के अनुसार मजिस्ट्रेट आरोपी को देखता है व उस के पूरी तरह फिट होने पर ही पुलिस को रिमांड के लिए आदेश देता है जबकि जयराज और बेनिक्स के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ. उन दोनों को पुलिस द्वारा डराया और धमकाया भी गया था ताकि वे मजिस्ट्रेट को सच न बताएं.

अगले 2 दिनों तक परिवार को जयराज और बेनिक्स की कोई खबर नहीं मिली. 22 जून के दिन दोनों को स्थानीय अस्पताल ले जाया गया जहां दोनों बुरी तरह खून से लथपथ थे व दोनों के शरीर से लगातार खून बह रहा था. अस्पताल में 22 जून को बेनिक्स की मृत्यु हो गई व अगले दिन 23 जून को जयराज ने भी दम तोड़ दिया. पुलिस की बर्बरता ने दो निर्दोषों को एक नगण्य गलती के लिए मौत के घाट उतार दिया.

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सचाई बयां करती सीसीटीवी फूटेज

बेनिक्स की दुकान के बगल की दुकान पर लगे सीसीटीवी कैमरा में स्पष्ट नजर आ रहा है कि पुलिस जो कह रही है व उस के द्वारा एफआईआर में जो कुछ भी लिखा गया है, वह सरासर झूठ है. सीसीटीवी में साफ नजर आ रहा है कि पुलिस पहले जयराज के पास आई जो अपनी दुकान के बाहर खड़ा था. पुलिस ने उस से दो मिनट खड़े हो कर बात की फिर वापस सड़क के दूसरी तरफ सामने जा कर खड़ी हो गई. पुलिस अपनी वैन के पास खड़ी थी और कुछ मिनटों बाद ही उन्होंने जयराज को अपने पास आवाज दे कर बुलाया. जयराज के जाने के बाद बेनिक्स दुकान से निकल कर बाहर आया और रोड के दूसरी तरफ अपने पिता को देखने के लिए गया, जिस के साथ उस के आसपास खड़े लोग भी गए. पुलिस बहस के दौरान अपने साथ जयराज को ले गई और बेनिक्स वापस आ कर अपने दोस्त के साथ बाइक पर बैठ कर स्टेशन चला गया.

पुलिस के अनुसार, उन दोनों को चोटें सड़क पर लोटने से आई थीं जबकि फूटेज में ऐसा कुछ नजर नहीं आया. पुलिस ने वहां भीड़ की बात भी कही थी जो फूटेज में नहीं दिखी. एफआईआर में दोनों को पकड़ने का समय 9 बज कर 15 मिनट बताया गया परंतु सीसीटीवी के अनुसार असल समय 8 बजे के करीब था. सीसीटीवी में यह भी स्पष्ट दिख रहा है कि सिर्फ बेनिक्स और जयराज की ही दुकान उस समय खुली हुई नहीं थी बल्कि आसपास की दुकानें भी खुली थीं, जब कि पकड़ा सिर्फ जयराज और बेनिक्स को गया.

इस की वजह क्या हो सकती थी पर एक गवाह का कहना था कि 18 जून से ही उन लोगों की दुकानों के आसपास पुलिस ने कर्फ्यू के चलते गिरफ्तारी शुरू कर दी थी और किसी ने पुलिस को कहा था कि जयराज ने पुलिस के चले जाने पर उन्हें गाली थी. यह एक वजह हो सकती है जिस के चलते पुलिस ने अगले दिन बाप बेटे दोनों को निशाने पर लिया. इंस्पेक्टर श्रीधर, सब इंस्पेक्टर बालकृष्णन और रघुगणेश इस हत्या के पीछे हैं, जिन में बालकृष्णन और रघुगणेश ने इंस्पेक्टर श्रीधर के कहने पर जयराज और बेनिक्स पर हिंसा की.

तूतुकुड़ी पुलिस द्वारा हिंसा का यह पहला मामला नहीं

जयराज और बेनिक्स की हत्या ने तूल पकड़ा तो तूतुकुड़ी पुलिस द्वारा हिंसा के और भी कच्चे चिट्ठे सामने आए. जयराज और बेनिक्स का मामला दृष्टि में आया क्योंकि उन दोनों की जानें गईं, ऐसे कई मामले हैं जहां जान बच जाने के चलते अत्याचार का मामला दब कर रह गया. दो सप्ताह पहले सथकुलम थाने में एक दर्जन लोगों को बुरी तरह मारापीटा गया था, जिन में से एक व्यक्ति की मौत हो गई जबकि दो लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया. जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई उस का नाम महेन्द्रन था जिसे उस के भाई दुरई के साथ गिरफ्तार किया गया था. महेन्द्रन को शक के बिनाह पर एक इंवेस्टिगेशन में गिरफ्तार किया गया था व उसे बुरी तरह पीटा गया था. तीन पुलिस वालों ने महेन्द्रन को तब तक मारा जब तक कि उस की मौत नहीं हो गई, फिर बिना पोस्टमार्टम के उस के शव को उस की मां को दे दिया व धमकी दी गई कि यदि वे किसी से कुछ कहती हैं तो उन के दूसरे बेटे दुरई का भी यही हश्र किया जाएगा.

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सूत्रों के हवाले से बताया गया कि 15 दिन पहले एक नाबालिग सहित 8 लोगों को सथकुलम थाने में प्रताड़ित किया गया था. इन लोगों को 3 दिन तक पीटा गया व नाबालिग को अवैध तरीके से 2 दिन जेल में रखा गया.

हिरासत में लिए गए व्यक्ति राजासिंह ने पड़ताल कर रही न्यायिक टीम को बताया कि  सथकुलम पुलिस ने उसे बेंच पर लेटाया, उस के ऊपर कुछ पुलिसवाले बैठे व उस के मुंह और पैरों पर प्रहार करने लगे. राजासिंह के अनुसार पिटाई के बाद उसे कोवलपट्टी सब जेल में भेज दिया गया, जबकि उसे अस्पताल भेजा जाना चाहिए था.

तूतुकुड़ी एमपी कनिमोही के अनुसार, “मुझे बताया गया है कि ऐसे कई लोग हैं जिन्हें सथकुलम पुलिस द्वारा जीवनभर के लिए अपंग कर दिया गया, जो विकलांग हो गए. कितने ही लोगों की जिंदगियां खराब हो गईं क्योंकि एक पुलिसवाले को लगा कि अपनी ताकत आजमाने के लिए एक आम आदमी पर हिंसा करना कोई बड़ी बात नहीं है.”

पुलिस हिरासत में अत्याचार के अन्य मामले

किसी अपराध के होने पर जब पुलिस अपराधियों को पकड़ कर लाती है तो उन से गुनाह कुबूल करवाने के लिए वह उन के साथ थर्ड डिग्री टोर्चर करती है. खुद लोग भी किसी अपराधी के गिरफ्तार होने पर न्यायिक प्रक्रिया को बढ़ाने और गुनाह मनवाने के लिए व्यक्ति को मार डालने तक की बातें करते हैं. ज्यादातर बलात्कार के मामलों में देखने में आता है कि जनता द्वारा मांग की जाती है कि अपराधी को सड़क पर फांसी दी जाए या जला दिया जाए. न्यायालय में सजा सुनाए जाने से पहले व गुनाह साबित होने से पहले ऐसी बातें की जाती हैं. क्या यह पुलिस को बर्बरता के लिए उकसाने जैसा नहीं है? खुद पुलिस को लगता है कि मामले को सुलझाने के लिए एड़ीचोटी का दम लगा सुलझाया जाए जिस के लिए अगर व्यक्ति को बुरी तरह प्रातड़ित भी करना पड़े तो ठीक है. पुलिस का यही रवैया कस्टोडियल डेथ्स का बड़ा कारण है.

एनसीआरबी के 2017 के डाटा के अनुसार, तकरीबन 100 लोगों की मौत हवालात में हुई थी. इन में से 58 लोग रिमांड में नहीं थे बल्कि गिरफ्तार किए गए थे और कोर्ट के सामने पेशी के लिए ले जाए जाने बाकी थे व 42 ऐसे थे जो पुलिस या न्यायिक रिमांड में थे.

2017 में कस्टोडियल मौतों से संबन्धित 60 मामलों में, 33 पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया गया, 27 के खिलाफ चार्जशीट फाइल की गई, 4 को दोषमुक्त करार कर बरी कर दिया गया और किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया.

6 नवंबर, 2017 को अंकित कोठाले (26) और उस के दोस्त अमोल भंडारे (23) को महाराष्ट्र के सांगली डिस्ट्रिक्ट पुलिस ने हिरासत में लिया था. हिरसात में लिए जाने के बाद दोनों को पुलिस ने प्रताड़ित किया जिस के बाद अंकित बेहोश हो गया व शरीर पर आए ढेरों घावों के चलते पुलिस स्टेशन में ही उस की मौत हो गई. पुलिस कर्मचारी द्वारा डाक्टर को अंकित की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में झूठ लिखने को भी कहा गया था जिस से यह सामने न आ सके कि घायल होने के चलते अंकित की जान गई. राज्य सरकार द्वारा मामले में 7 पुलिस कर्मचारियों को सस्पेंड किया गया व डिस्ट्रिक्ट पुलिस सुप्रीटेंडेंट और डिप्टी सुप्रीटेंडेंट का तबादला कर दिया गया था, लेकिन, किसी को सजा नहीं मिली.

27 अक्टूबर, 2019 के दिन सुबह 11 बजे विजय सिंह नामक 26 वर्षीय लड़के को मुंबई के वडाला ट्रक टर्मिनल पुलिस स्टेशन में गिरफ्तार किया गया था. विजय पर एक कपल द्वारा शिकायत दर्ज कराई गई थी. कपल का कहना था कि वे दोनों जब साथ बैठे थे तो विजय अपनी बाइक पर बैठ उन के मुंह पर हेडलाइट मार उन्हें परेशान कर रहा था. पुलिस ने विजय को हिरासत में ले लिया जिस के बाद उसे बुरी तरह पीटा गया और जब वह छाती में दर्द की शिकायत करने लगा तो पुलिस उसे अस्पताल नहीं ले गई और स्टेशन में ही उस ने दम तोड़ दिया. विजय ने दर्द से कराहते हुए रात 11:30 बजे अस्पताल जाने की मांग की थी लेकिन उसे रात 2 बजे तक बेंच पर बैठाए रखा गया. बाद में जब उसे अस्पताल ले जाया गया तो डाक्टर ने उसे मृत करार दे दिया. इस मामले में 5 पुलिस कर्मचारी जिन में सब इंस्पेक्टर संदीप कदम, असिस्टेंट इंस्पेक्टर सलीम खान, तीन कौन्स्टेबल थे, को सस्पैंड किया गया.

तेलंगाना के पेलापड्डी जिले में 24 मई 2020 को तीन व्यक्तियों को जंगली जानवरों के शिकार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. तीनों को पुलिस ने मारापीटा जिस के बाद 26 मई के दिन श्रीलम नाम के व्यक्ति ने टोयलेट जाने के बहाने पुलिस स्टेशन में ही फांसी लगा ली. पुलिस का डर या हिंसा के चलते वह व्यक्ति सुसाइड करने पर मजबूर हो गया.

यह केवल चंद मामलें हैं जिन में पुलिस हिरासत में लोगों की मृत्यु हुई, अनेक ऐसे मामले भी हैं जहां व्यक्ति बुरी तरह घायल हुए व पुलिस के खिलाफ किसी तरह की न कोई शिकायत दर्ज हुई न कार्यवाही हुई.

आखिर पुलिस की बर्बरता का हल क्या है?

पुलिस की बर्बरता इस हद तक सामान्य हो चुकी है कि यह हमारी मुख्यधारा से जुड़ चुकी है चाहे वह सिनेमा हो या असल जिंदगी. परदे पर जब हम किसी हीरो को पुलिस वाले के रूप में देखते हैं तो उस के द्वारा चाहे कितनी ही बुरी तरह विलेन का शोषण हो, हम उस पर तालियां पीटते हैं. हवालात में होने वाली हिंसा इतनी आम हो चुकी है कि हम इस के प्रति पूर्ण रूप से असंवेदनशील हो चुके हैं और हमारी संवेदना तभी जागती है जब जयराज और बेनिक्स के प्रति हुई हिंसा जैसे जघन्य मामले हमारे सामने आते हैं.

डीके बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य क्षेत्र, जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य क्षेत्र व सहेली बनाम दिल्ली पुलिस कमिश्नर, कुछ ऐसे मामले हैं जहां पुलिस की बर्बरता आने हदें पार कर दी थीं. सहेली बनाम दिल्ली पुलिस कमिशनर का ऐसा ही मामला था जहां मां के पीटे जाने पर उस का 9 वर्षीय बेटा बीच में आ गया और उस की मौत हो गई. कहना मुश्किल था कि वह अपनी मां से पुलिस के डर से खुद को बचाने के लिए चिपटा था या अपनी मां को बचाने के लिए.

मामलों की जांच तेजी से करने के चलते पुलिस बर्बरता पर उतर आती है. ग्रामीण क्षेत्रों में जहां सीसीटीवी की सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहां अकसर पुलिस गुनाह मनवाने के लिए लोगों पर शक्ति का प्रयोग करती है. पुलिस का डर समाज में इतना व्याप्त है कि हाथ पैर तुड़वा लेने पर भी वे पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने से डरते हैं. जयराज और बेनिक्स मध्यवर्गीय थे, पढ़ा लिखा परिवार था इसलिए उन के साथ हुई जघन्य हिंसा सामने आई, लेकिन यही कोई निम्नवर्गीय परिवार होता तो पुलिस के डर से शायद सामने न आता.

सवाल उठता है कि आखिर पुलिस की बर्बरता के लिए अधिकारियों को केवल सस्पेंड करने भर से क्या होगा? एनसीआरबी डाटा के अनुसार, 2016 में हिरासत में मरने वालों की संख्या जहां 92 थी वहीं 2017 में वह 9 फीसदी बढ़ कर 100 हो गई. 37 मामले ऐसे थे जहां हिरासत में 37 लोगों ने सुसाइड किया, 28 लोगों की मौत हिरासत के पश्चात बीमार होने या अस्पताल में ले जाने के बाद हुई, पुलिस की मारपीट के दौरान 5 लोगों ने दम तोड़ दिया व 22 मौतों का कोई सटीक जवाब नहीं है. क्या यह आंकड़ें पुलिस को जवाबदेह नहीं बनाते? क्या इन्हें नजरंदाज किया जाना चाहिए?

जयराज और बेनिक्स के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय का कहना है कि जयराज और बेनिक्स के साथ पुलिस की बर्बरता होने के पूरे साक्ष्य मौजूद हैं. मामले में अबतक मौजूद तीनों पुलिस वालों को सस्पेंड किया जा चुका है और मजिस्ट्रेट की भूमिका भी सवालों के घेरे में है. पीड़ित पितापुत्र के परिवार ने पुलिस कर्मियों के खिलाफ हत्या का आरोप लगाया है व न्याय की मांग की है. जायज भी है, यदि सामान्य व्यक्ति के लिए हत्या की सजा फांसी या उम्रकेद है तो पुलिस के लिए केवल सस्पेंड कर के छोड़ देना कहां का न्याय है? क्या उन्हें अपराध करने की छूट है? क्या वे अपने मनमुताबिक निर्दोष व्यक्ति को खाकी वर्दी के दमखम पर जान से मार सकते हैं? पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार जयराज और बेनिक्स का गुनाह इतना भर था कि उन्होंने कर्फ्यू के कुछ मिनटों बाद तक अपनी दुकान खोले रखी. क्या इस अपराध के लिए उन्हें इतनी बड़ी सजा मिलनी चाहिए थी?

लौकडाउन के दौरान भारत के कई हिस्सों से पुलिस द्वारा सड़कों पर घूम रहे लोगों को मारेपीटे जाने वाले कई विडियो सामने आए थे, कई मामलों में लोगों को गंभीर चोटें भी आई थीं. इस से कुछ दिन पहले सीएए और एनआरसी के विरोध के चलते जामिया मिलिया इसलामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों पर पुलिस की भरसक हिंसा देखने को मिली थी. परंतु, किसी न किसी बहाने से इन हिंसाओं को ढंकने की या सही ठहराने की कोशिश की गई. लेकिन, यह सही नहीं है.

जयराज और बेनिक्स घर के कमाऊ व्यक्ति थे, तमिलनाडू राज्य सरकार द्वारा उन के परिवार को योग्यतानुसार सरकारी नौकरी दी जाएगी. विपक्षी पार्टी डीएमके द्वारा 25 लाख रुपए की आर्थिक मदद दी गई है. परंतु यह मदद कभी भी जयराज और बेनिक्स की जान की कीमत नहीं चुका पाएगी.

  गिरफ्तार होने वाले व्यक्ति के कानूनी अधिकार

पुलिस को गिरफ्तार करने की विस्तृत शक्तियां देने के साथ आपराधिक संहिता में गिरफ्तार होने वाले व्यक्ति को भी कुछ अधिकार दिए गए हैं. विभिन्न मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के समय सत्ता का दुरुपयोग किया जाता है जिस के लिए आपराधिक संहिता में निम्न कुछ नियम हैं जो व्यक्ति को पुलिस की ज्यादती से बचा सकते हैं:

 

  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 50 (1) के अनुसार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को सूचना व जानकारी का मौलिक अधिकार प्राप्त है, जिस के चलते वह पुलिस से यह पूछ सकता है कि किस गुनाह के आधार पर उसे गिरफ्तार किया जा रहा है. यह पुलिस का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति को बताए कि उसे किस जुर्म में गिरफ्तार किया जा रहा है. पुलिस का यह बताना भी आवश्यक है कि अपराध के लिए व्यक्ति जमानती है या गैरजमानती.

 

  • गैर-संज्ञेय अपराधों के संबंध में पुलिस का वारंट के आधार पर गिरफ्तार करना जरूरी है. साथ ही गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को वारेंट दिखाना चाहिए. इसलिए, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 75 के अंतर्गत, व्यक्ति को वारेंट यह जांचने के लिए दिया जाता है कि वह सही है या नहीं, यानी वारेंट में आवश्यक विवरण शामिल हैं या नहीं, वारेंट लिखित में है या नहीं, वारेंट पीठासीन द्वारा हस्ताक्षरित है या नहीं, कोर्ट की सील के साथ उस में नाम, पताव अपराध सही है या नहीं. यदि कुछ भी छूट जाता है तो वारेंट को निरर्थक माना जाएगा.

 

  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 56 मजिस्ट्रेट के सामने आपराधिक की पेशी के बारे में बताती है. बिना वारेंट के यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो बिना किसी निलंबन व देरी के गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को मैजिस्ट्रेट या थाना प्रभारी अधिकारी के समक्ष पेशी के लिए ले जाया जाना चाहिए.

 

  • गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को 24 घंटे से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 57 में कहा गया है कि पुलिस ऐसे व्यक्ति को लंबी अवधि के लिए हिरासत में नहीं रख सकती जिसे बिना वारेंट गिरफ्तार किया गया हो. यह अवधि धारा 167 के तहत किसी भी हालत में मैजिस्ट्रेट के विशेष आदेश के अभाव में गिरफ्तारी के स्थान से मैजिस्ट्रेट की अदालत तक की यात्रा के लिए आवश्यक समय 24 घंटे से ज्यादा नहीं होगी.

 

  • इस के अलावा, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41डी और 303 में कहा गया है कि गिरफ्तार व्यक्ति को पूछताछ के दौरान अपने वकील के साथ बैठने का अधिकार है.

 

  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 50 गिरफ्तारी के बारे में व्यक्ति के परिवार, दोस्त या रिश्तेदार को गिरफ्तारी की सूचना देने का अधिकार देती है.

 

  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 54 गिरफ्तार हुए व्यक्ति को, चाहे वह महिला हो या पुरुष, चिकित्सा सहायता प्राप्त करने का अधिकार देती है. साथ ही, धारा 55ए में कहा गया है कि हिरासत में रखने वाला अभियुक्त गिरफ्तार हुए व्यक्ति के स्वास्थ्य व सुरक्षा का ख्याल रखे.

 

  • आखिर में, अनुछेद 20 (3) व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि पुलिस की जोर जबर्दस्ती से अपराध कुबूल कराने की कोशिश के बीच व्यक्ति चुप रह सकता है.
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