मध्य प्रदेश सरकार के 24 जून के इस फैसले को देशभर में बेहद अहम माना जा रहा है जिस में उस ने न केवल प्रौपर्टी को 20 फीसदी सस्ता कर दिया है बल्कि यह भी कहा है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष में राज्य में कहीं भी प्रौपर्टी के दाम नहीं बढ़ेंगे. इस के पहले 19 जून को ही कैबिनेट ने अपनी मीटिंग में यह मंशा जता दी थी, जिस पर मुहर भोपाल में हुई केंद्रीय मूल्यांकन बोर्ड की मीटिंग में लगी.
ऐसा माना जा रहा है कि इस फैसले से आम लोगों को राहत मिलेगी और रियल एस्टेट के कारोबार में आई मंदी दूर होगी. भोपाल में ही तकरीबन 10 हजार मकान बिकने के लिए तैयार हैं, लेकिन खरीदार न मिलने से बिल्डर्स के चेहरे उतरे हुए थे. अब अंदाजा लगाया जा रहा है कि रजिस्ट्री कराने के खर्च घटने से न केवल ये मकान बिक जाएंगे बल्कि सरकार को भी बतौर राजस्व खासी आमदनी होगी.
भोपाल क्रेडाई के अध्यक्ष नितिन अग्रवाल का कहना है कि सरकार के इस फैसले से आम लोगों को फायदा होगा, रोजगार बढ़ेगा और प्रौपर्टी के दाम कम होने से नए प्रोजैक्ट आएंगे.
इस फैसले को रुपए के उदाहरण से समझें तो भोपाल के सब से महंगे बावडि़याकलां इलाके की कालोनियों में जमीन के सरकारी सूचीबद्ध सर्किल रेट 21,000 रुपए से घट कर 16,800 रुपए प्रतिवर्ग मीटर हो जाएंगे. वहीं, घटती कीमत पर मकानों की रजिस्ट्री कराने पर 5 से 8 प्रतिशत का जो कर लगता है, वह भी कम लगेगा.
फायदा सब को है, खरीदने वाले को भी, बेचने वाले को भी और उस सरकार को भी जो जबरन कालाधन बचाने के नाम पर जमीनजायदाद की कीमतें तय करती है. फायदा बैंकों को भी है क्योंकि वाकई रियल एस्टेट में बूम आया तो होम लोन लेने वालों की तादाद बढ़ेगी जिस से उन का भी कारोबार बढ़ेगा.
सब को फायदा
आमतौर पर अब तक राज्य सरकारें प्रौपर्टी के दाम और रजिस्ट्री की दरें हर साल बढ़ाती ही रही हैं, लेकिन ऐसा पहली बार देखने में आ रहा है कि कोई राज्य सरकार उलटा फैसला ले रही है. रियल एस्टेट के कारोबारी इस फैसले से खुश इसलिए हैं कि उन के प्रोजैक्ट सफेद हाथी साबित होने लगे थे, इसलिए वे सरकार का मुंह ताक रहे थे कि वह चारे का इंतजाम करे वरना उन के अरबोंखरबों रुपए डूब जाएंगे. सियासी तौर पर देखें तो कांग्रेस सरकार ने ऐसा इसलिए भी किया क्योंकि विधानसभा चुनाव के वक्त उस ने अपने वचनपत्र में यह बात कही थी.
खुशी और उत्साह के माहौल में कोई यह नहीं समझ पा रहा कि दरअसल सरकार ने अपना राजस्व बढ़ाने के लिए यह फैसला लिया है क्योंकि उस का खजाना खाली पड़ा है और दूसरी अहम बात यह भी है कि सरकार जब चाहे प्रौपर्टी के दाम घटा या बढ़ा सकती है, इस का कोई तयशुदा पैमाना नहीं है. अगले साल सरकार अगर यह कह देगी कि बावडि़याकलां इलाके में जमीनों की कीमत 30,000 रुपए वर्गमीटर होगी तो वहां प्रौपर्टी महंगी हो जाएगी.
आम लोगों के नजरिए से देखें तो जो प्रौपर्टी उसे 30 लाख रुपए की मिलती, वह अब 24 लाख रुपए में मिल जाएगी. यही नहीं, अब 30 लाख की जगह
24 लाख रुपए पर ही स्टांप ड्यूटी लगेगी और रजिस्ट्री शुल्क भी 24 लाख रुपए के हिसाब से चार्ज किया जाएगा. यानी, खरीदार को तिहरा फायदा होेगा.
वहीं, बिल्डर्स अगर इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं तो साफ यह भी होता है कि वे अब तक 24 लाख रुपए की बाजार भाव वाली प्रौपर्टी पर 30 लाख रुपए के हिसाब से कर देते थे. अब इस कम कीमत में भी उन्हें कोई घाटा नहीं हो रहा है, उलटे कर कम होने का मुनाफा ही हो रहा है. इनकम टैक्स की जवाबदेही से उन्हें अलग छुटकारा मिला क्योंकि आयकर वाले इस आय को अब 30 लाख की जगह 24 लाख रुपए मानने को मजबूर होंगे.
ये भी पढ़ें- बरबाद करता सोशल कट्टरवाद
बनते जा रहे फ्लैट
अकेले भोपाल या मध्य प्रदेश में ही नहीं, बल्कि देश के किसी भी शहर को देख लें, हर जगह थोक में मकान ही मकान बन रहे हैं. दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु और चेन्नई जैसे बड़े शहरों में तो जहां तक नजर जाती है वहां गगनचुंबी इमारतें आकार लेती नजर आती हैं. महंगे, भव्य और आलीशान अपार्टमैंट व कालोनियां इन शहरों की शान होती जा रही हैं. बी श्रेणी के शहरों के हाल भी जुदा नहीं हैं. इन्हें देख लगता है कि लोगों के पास खाने को इफरात से है, पहनने को अच्छेअच्छे कपड़े भी हैं. लेकिन मकानों का हर कहीं टोटा है.
यानी 3 बुनियादी जरूरतों में से मकान सब से बड़ी जरूरत है और लोगों की क्रयक्षमता आजकल बढ़ी है. मिसाल या उदाहरण भोपाल का ही लें तो वहां के पौश इलाकों एमपी नगर, शिवाजी नगर, रचना नगर और टीटी नगर में डेढ़ करोड़ रुपए तक के फ्लैट धड़ल्ले से बिक रहे हैं और लोग बैंकों से लोन ले कर बिल्डर्स को महंगे मकानों की कीमत अदा कर रहे हैं.
यही हाल छोटे मकानों का भी है. उन के ग्राहकों की तादाद में भी इजाफा हो रहा है. 300-400 वर्गफुट या
5-6 लाख रुपए की कीमत वाला फ्लैट लोग अपनी जरूरत और हैसियत के हिसाब से खरीद रहे हैं, भले ही कर्ज के पैसों से खरीदें.
अपना मकान हर दौर में लोगों का सपना रहा है, जिस के पूरे होने के तौरतरीकों में क्रांतिकारी बदलाव आया है. अब मकान उस के क्षेत्रफल को नहीं, बल्कि कीमत देख कर खरीदे जाते हैं. एकल होते परिवारों और बढ़ते शहरीकरण के चलते सरकार ने लोगों को अपने इस सपने से समझौता करने को मजबूर कर दिया है. यह कोई नहीं जानता कि मकानों की कीमत कौन और कैसे तय करता है.
सारे सूत्र सरकार के हाथ
कोई अगर यह कहे कि मकानों के दाम बिल्डर तय करता है तो वह निश्चितरूप से एक परंपरागत गलतफहमी का शिकार है. दरअसल, सरकार की नीतियों, रीतियों और सैकड़ों तरह के नियमकायदे व कानून ही मकानों की कीमत तय करते हैं. किसी भी शहर या गांव तक में जमीन या मकान की रजिस्ट्री सरकार द्वारा तय किए दामों पर ही होती है. यानी रियल एस्टेट के कारोबार में सब से बड़ा रोल सरकार का होता है. भले ही, उस का चेहरा परदे के पीछे रहता हो.
मध्य प्रदेश में एक झटके से प्रौपर्टी के दाम, कथित रूप से ही सही, गिर जाएं तो इस की वजह सरकार का छोटा सा फैसला था. जब भी कोई आम आदमी या बिल्डर मकान बनाने की बात सोचता है तो उस की पहली जरूरत जमीन होती है. और जमीन के मामले में सरकार के कानून बेहद जटिल और उलझे हुए हैं. इन से वास्ता तभी पड़ता है जब कोई मकान बनाने की ठान लेता है.
आजकल चूंकि 10 फीसदी मकान भी लोग खुद नहीं बना पाते, इसलिए हर कोई मकान के लिए बिल्डर का मुहताज है. रियल एस्टेट में अब बड़ीबड़ी कंपनियां उतर आई हैं, जो लोगों की जरूरत के मुताबिक वाजिब दामों में मकान देने का दावा और वादा करती हैं. दैनिक अखबारों से ले कर टीवी चैनल्स के परदे तक बिल्डर्स के इश्तिहारों से रंगे पड़े रहते हैं. हालत तो यह तक हो गई है कि इन्हीं इश्तिहारों के जरिए पैसा कमाने के लिए कई नामी मीडिया हाउस प्रौपर्टी के मेले समारोहपूर्वक आयोजित करने लगे हैं.
वैध अवैध खर्चे
सच यह है कि आप जो मकान 30 लाख रुपए का खरीदते हैं उस की असल कीमत दरअसल 15 लाख रुपए के लगभग आती है. कहने का मतलब यह नहीं कि बचे 15 लाख रुपए बिल्डर का मुनाफा होता है, बल्कि इस में सरकार और उस के अधिकारियों की भी हिस्सेदारी होती है.
इस गुत्थी को आसान उदाहरण से समझा जा सकता है. अगर कोई बिल्डर एक एकड़ यानी 43,560 वर्गफुट जमीन में कालोनी या मल्टीस्टोरी बिल्डिंग बनाने की सोचता है तो जिस भाव में वह जमीन खरीदता है या जिस भाव में जमीन उसे मिलती है उसी अनुपात में मकान की दरें तय होती हैं. रियल एस्टेट में लोकेशन शब्द बड़ी प्राथमिकता से लिया जाता है. जमीन और मकान की कीमतें इसी लोकेशन पर निर्भर करती हैं.
किसी भी शहर के पौश इलाके में बिल्डर अगर कालोनी बनाएगा तो जाहिर है जमीन महंगी मिलेगी. लिहाजा, मकान के दाम भी बढ़े हुए होंगे. इस पर भी हकीकत यह है कि ली गई जमीन का आधा हिस्सा ही वह निर्माण के लिए उपयोग कर पाता है, बाकी का आधा उसे सड़क, गलियों, पर्यावरण आदि के लिए कुरबान करना पड़ता है. मान लिया जाए कि उस ने एक एकड़ जमीन 30 लाख रुपए में ली, तो दरअसल वह उसे 60 लाख रुपए की पड़ती है.
जमीन का डायवर्जन भी आसानी से नहीं होता. इस के लिए बिल्डर को टाउन ऐंड कंट्री प्लानिंग विभाग में शुल्क देना पड़ता है जो अलगअलग राज्यों में अलग रहता है. चूंकि बगैर घूस के डायवर्जन नहीं होता, इसलिए सरकारी फीस के बराबर ही उसे घूस भी देनी पड़ती है वरना जमीन उस के किसी काम की नहीं रह जाती.
इस के बाद उसे नजूल यानी राजस्व विभाग की परिक्रमा करनी पड़ती है. वहां भी सरकारी शुल्क और घूस का हिस्सा तय होता है. प्रोजैक्ट संबंधी तमाम अनुमतियां यही दोनों विभाग देते हैं, लेकिन इन की शर्तें बड़ी कड़ी होती हैं कि इतने वर्गफुट की सड़क छोड़ो, इतने वर्गफुट की गलियां छोड़ो, इतने वर्गफुट में पार्क और पार्किंग एरिया बनेगा और इतने वर्गफुट में यह भी और वह भी होना जरूरी है क्योंकि सरकार ऐसा कहती या चाहती है.
होतेहोते इस जमीन का भाव उसे एक करोड़ रुपए प्रति एकड़ पड़ता है. फिर शुरू होता है स्थानीय निकायों का दखल. यहां से उसे अंतिम तौर पर कालोनी बनाने की इजाजत मिलती है. बड़े शहरों के नगरनिगमों के अधिकारी से ले कर चपरासियों की तोंदें इन्हीं बिल्डर्स की दक्षिणा से बढ़ रही हैं. नगरनिगम पूरा प्रोजैक्ट देख इजाजत देता है जिस की घूस उस की लागत के करीब 10 फीसदी होती है.
अब तक 30 लाख रुपए वाली एक एकड़ की जमीन की कीमत डेढ़ करोड़ रुपए हो जाती है. इस पर बिल्डर अगर 40 फ्लैट्स बना रहा है तो उसे 12 करोड़ रुपए मिलते हैं जिन में से अब तक की प्रक्रिया के डेढ़ करोड़ रुपए घटा दिए जाएं तो साढ़े 10 करोड़ रुपए बचते हैं.
भोपाल के एक ब्रैंडेड और नामी बिल्डर से इस प्रतिनिधि ने इस सिलसिले में बातचीत की तो उन्होंने ठेठ देसी लहजे में बताया, ‘‘इन साढ़े 10 करोड़ रुपए में से हमें 2 करोड़ रुपए ही मुश्किल से बच पाते हैं. बाकी 10 करोड़ रुपए तक की राशि मकाननिर्माण सामग्री, बैंक से लिए कर्ज के ब्याज, इश्तिहार और दलाली आदि में चली जाती है. इस के अलावा हमें अपने स्टाफ की पगार और दूसरे खर्चें भी इसी में से पूरे करने पड़ते हैं. ऐसे में अगर एक प्रोजैक्ट 3 वर्षों में पूरा होता है तो हमें कुल 40-50 लाख रुपए बचते हैं. क्या यह हमारा हक नहीं, जबकि पूरी मेहनत हम करते हैं और जोखिम भी उठाते हैं.’’
ये भी पढ़ें- मनगढ़ंत इतिहास नहीं पढ़ सकेंगे!
इस तजरबेकार बिल्डर की यह बात भी सच के बहुत नजदीक लगती है कि ग्राहक तो हमें सिर्फ फ्लैट के 30 लाख रुपए दे कर बेफिक्र हो जाता है. इस राशि के एवज में उस के घर में बिजली का इंतजाम भी हम ही करते हैं और नलों में पानी भी पहुंचाते हैं. इस पर भी आएदिन शिकायतें होती रहती हैं जिन का खमियाजा हमें ही भुगतना पड़ता है.
आजकल तो रेरा कानून के चलते जब तक हम कंप्लीशन सर्टिफिकेट जमा न कर दें तब तक हमारा पैसा फंसा रहता है. ग्राहक घर की चाबी ले कर जब हमें लिख कर दे देता है कि उसे मालिकाना हक मिल गया तभी हम चैन की सांस ले पाते हैं. लेकिन यही लोग सरकारी विभागों की मनमानियों और ज्यादतियों के सामने नतमस्तक रहते हैं.
बेहद अर्थपूर्ण लहजे में इस बिल्डर ने यह भी बताया कि मध्य प्रदेश सरकार के प्रौपर्टी के दाम 20 फीसदी घटाने के फैसले से कुछ खास फायदा किसी को नहीं हुआ है. इस से मार्केट में ब्लैकमनी आ जाएगी क्योंकि दाम रजिस्ट्री के घटे हैं जिस से ग्राहक को 50-60 हजार रुपए से ज्यादा का फायदा नहीं होने वाला क्योंकि सरकार पहले ही रजिस्ट्री की दरें 2.2 फीसदी बढ़ा चुकी है.
अब होगा यह कि जिस जगह प्रौपर्टी का दाम 30 लाख रुपए है वहां रजिस्ट्री 24 लाख रुपए की होगी, बाकी चीजें तो ज्यों की त्यों रहेंगी. घाटा उन लोगों का भी है जिन्होंने पहले ही मकान खरीद रखे हैं.
इस बिल्डर के मुताबिक, यह ठीक है कि सभी लोग बेचने के लिए ही मकान नहीं खरीदते. कोई 20 फीसदी लोग मकानों में निवेश करते हैं. अब उन्हें निवेश में फायदे की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. दरअसल, सरकार पर बिल्डर्स का दबाव था क्योंकि उन के अरबों रुपए फंसे पड़े थे, इसलिए यह फैसला सरकार को लेना पड़ा.
चक्कर ब्लैक ऐंड व्हाइट का
इस में कोई शक नहीं कि अधिकांश बिल्डर्स 2 नंबर का पैसा अपने प्रोजैक्ट्स में खपाते हैं. यह काला पैसा कहां से आता है और कैसे जनरेट होता है, यह हर कोई जानता और समझता है कि लोग सरकार को टैक्स नहीं देना चाहते.
रियल एस्टेट कारोबार में कदमकदम पर टैक्स और घूस का प्रावधान है. ऐसे में कोई बिल्डर यह सोचे कि वह सफेद पैसे से चार पैसे कमा लेगा तो यह उस की गलतफहमी है. तो क्या सरकार की टैक्स नीतियां इस की जिम्मेदार हैं, इस बात पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं. लेकिन तगड़े मुनाफे का लालच बिल्डर भी छोड़ नहीं पाते, इसलिए अब हर बड़ी नामी कंपनी मकान बना रही है.
लेकिन इस से आम लोगों को कई सहूलियतें हैं. इस पर अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत लागू होता है कि कंपीटिशन तगड़ा होगा तो फायदा ग्राहक को भी होगा, दाम के मामले में भी और गुणवत्ता के मामले में भी.
कोई प्रामाणिक आंकड़ा किसी के पास उपलब्ध नहीं है, लेकिन बिल्डर्स के ही अंदाजों के मुताबिक, रियल एस्टेट कारोबार में लगा लगभग 50 फीसदी पैसा ब्लैक का है. इस में पूंजीपतियों, नेताओं, उद्योगपतियों, सैलिब्रिटीज और अफसरों तक की भागीदारी है. इस पैसे को पकड़ पाना किसी सरकार के लिए आसान नहीं है. हां, बड़ी कंपनियों के इस कारोबार में उतरने से ब्लैकमनी पर थोड़ी लगाम जरूर लगी है.
कारोबारियों की मुनाफाखोर प्रवृत्ति और सरकार की दखल देती नीतियां व कानून भी इस ब्लैकमनी के बड़े जिम्मेदार हैं जिस की तुलना सरकारी लौटरी और सट्टे से की जा सकती है. ये दोनों ही बुरे हैं, लेकिन धड़ल्ले से चलते हैं.
कम होती खेती की जमीनें
मकानों की बढ़ती मांग से सब से ज्यादा नुकसान कृषियोग्य भूमि का हो रहा है, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. अब खेतीकिसानी की जमीन का व्यावसायिक और आवासीय उपयोग पहले के मुकाबले आसान होता जा रहा है.
यह बेहद गंभीर और चिंताजनक बात है कि एक तरफ तो केंद्र सरकार 2022 तक खेतीकिसानी को मुनाफे का ध्ांधा बनाने का दावा कर रही है और दूसरी तरफ धड़ल्ले से जमीनों का डायवर्जन हो रहा है. डायवर्जन यानी भूमि उपयोग में बदलाव के कानून हर राज्य में अलगअलग हैं.
मध्य प्रदेश में साल 2017 में शिवराज सिंह चौहान सरकार ने डायवर्जन की प्रक्रिया को आसान बना दिया था. इस फैसले में प्रावधान है कि किसान खुद अपनी जमीन का डायवर्जन कर सकता है. अगर वह कह देगा कि वह जमीन का आवासीय या व्यावसायिक उपयोग कर रहा है तो सरकार उस की बात मान लेगी लेकिन तभी, जब वह सरकारी खजाने में निर्धारित शुल्क जमा करा देगा. यह सरकार को बैठेबैठाए मुफ्त पैसा देता है.
इस फैसले से हुआ यह कि बिल्डर्स ने किसानों से जमीनों के सौदे किए और रजिस्ट्री कराने से पहले ही उन से जमीन का डायवर्जन करवा लिया. हालांकि इस की फीस भी उन्होेंने ही भरी लेकिन इस के बाद प्रक्रिया से वे बच गए. सरकारी नियम तो यह है कि बंजर और अनुपजाऊ जमीन का ही डायवर्जन होगा लेकिन किसानों ने धड़ल्ले से उपजाऊ जमीनों का भी डायवर्जन करवाया. वैसे देश में कृषि उत्पादकता अगर बढ़े तो खेती की जमीन कभी कम न होगी. हमारी कृषि उत्पादकता काफी दयनीय है.
अंगरेजों के बनाए जमीन संबंधी कानून अभी भी वजूद में हैं. उन में संशोधन हो रहे हैं और उन में सरकार का अपना स्वार्थ है. सोनिया गांधी ने 2013 में कानून बनवा कर सरकार के हाथ बांधे थे पर भाजपा सरकार इन कानूनों में बदलाव ला कर खेतों से दलितों, गरीबों को निकाल कर गुलामी का दोहरा निशाना बना रही है.
एक किसान या भूमिस्वामी अगर किसी को जमीन बेचता है तो सरकार के लिए यह एक सूचनाभर होनी चाहिए, जिस से वह अपनी नीतियां बनाए. लेकिन सरकार हर बात में भारी टैक्स लेती है और हैरत की बात यह है कि जहांजहां टैक्स का प्रावधान है, वहीं घूस का चलन ज्यादा है. अगर कोई अपना मकान बनाना चाहे तो डायवर्जन के अलावा उसे स्थानीय निकाय से नक्शा पास कराना पड़ता है और राजस्व विभाग से इजाजत लेनी पड़ती है.
ये काम आसानी से नहीं हो पाते. बल्कि इन के लिए तगड़ी घूस देनी पड़ती है. सरकारी फीस तो अपनी जगह है ही. यहां इन तर्कों के कोई माने नहीं कि सरकार शहरी और ग्रामीण विकास व नियोजन करती है और लिए गए पैसे को विकास की कल्याणकारी योजनाओं में लगाती है, इस के अलावा वह लोगों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराती है. अगर ऐसा होता तो शहर बेतरतीब न होते, कहीं भी ट्रैफिक जाम न होता, सड़कें साफसुथरी व चौड़ी होतीं और नालियों का पानी बह कर सड़कों पर नहीं आ रहा होता.
हकीकत तो यह है कि सरकारों ने जानबूझ कर सीवेज, ड्रेनेज और हवापानी के अधिकार हमेशा अपने हाथ में रखे हैं जिस से लोग बिना उस की मरजी के मकान न बना पाएं. अगर भूमिस्वामी सरकार द्वारा तय की गई दरों पर जमीन बेचने और निर्धारित स्टांप ड्यूटी देने का कानूनन बाध्य है तो फिर जमीन उस की कहां रही. बात वाकई ‘सभी भूमि गोपाल की’ जैसी है जिस के तहत कोई भी आसानी से मकान नहीं बना सकता.
ये भी पढ़ें- गुरु पूर्णिमा: लूट खसोट का पर्व!
चक्रव्यूह कर्ज का
तमाम कानूनी खानापूर्तियां करने के बाद मकान बनाने में जरूरत पड़ती है पैसों की, जिस की बाबत अच्छी बात यह है कि लोन अब पहले के मुकाबले आसानी से मिल जाता है. इस कहनेभर की ‘अच्छी बात’ की हकीकत यह है कि लोन सिर्फ सरकारी कर्मचारियों को ही आसानी से मिलता है क्योंकि उन की आमदनी स्थायी और बंधीबंधाई होती है.
बैंकों को बेफिक्री इसलिए रहती है कि सरकारी कर्मचारी का जीपीएफ उस के जोखिम को कम करता है. प्राइवेट नौकरी वालों, व्यापारियों और अनियमित आमदनी वालों को लोनलेने के लिए अभी भी पापड़ बेलने पड़ते हैं. तरहतरह के पहचानपत्रों से ले कर इनकम टैक्स रिटर्न, आमदनी के सुबूत और 2 गारंटर तक बैंक के होमलोन में लगते हैं.
दिलचस्प बात यह कि लोन चुकता न होने तक मकान बैंक के पास बंधक रहता है. रजिस्ट्री की मूलप्रति बैंक अपने पास रखते हैं. मान लिया जाए कि ये सब हर्ज की बातें नहीं तो हैरत यह जान कर होती है कि अगर कोई 30 लाख रुपए का मकान खरीद रहा है तो वह उसे दरअसल 54 लाख रुपए के लगभग पड़ता है.
बैंक की ब्याजदरों में उतारचढ़ाव आता रहता है जो ग्राहक की मासिक किस्त यानी ईएमआई को ज्यादा प्रभावित नहीं करता. अगर कोई बैंक से 15 साल के लिए 30 लाख रुपए का कर्ज लेता है तो उस की मासिक किस्त लगभग 30 हजार रुपए बनती है. इस तरह वह 15 साल में 54 लाख रुपए बैंक को लौटाता है.
तो फिर होमलोन का फायदा क्या, सिवा इस के कि 15-20 साल में मकान की कीमत बढ़ कर 45 लाख रुपए तक हो जाती है. लेकिन नोटबंदी के बाद से तेजी से मकानों की कीमतें देशभर में गिरी हैं. जिन लोगों ने निवेश के लिहाज से नोटबंदी के पहले मकान खरीदे थे उन की कीमतें बजाय बढ़ने के, घटी हैं.
किसी भी नजरिए से यह नहीं कहा जा सकता कि लोन आसानी से मिलने लगे हैं और किफायती पड़ते हैं. दरअसल, पूरा रियल एस्टेट कारोबार ही बैंकलोन पर चल रहा है. बिल्डर भी कर्ज लेता है और उस का खरीदार भी, इस तरह बैंक को
2 तरफ से ब्याज मिलता है. इस के बाद भी ब्याजदरें बढ़ती जाती हैं. ऐसे में यह सवाल उठना कुदरती बात है कि आखिर इतना पैसा जाता कहां है और तमाम गारंटियों व बंधक होने के बाद भी मकान उस आदमी का क्यों नहीं होता जो ब्याज की चक्की तले पिसता रहता है और अपनी गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा बैंकों को चढ़ा देता है. वह बेचारा यह भी नहीं पूछता कि जिस मकान का पूरा मालिक वह है ही नहीं, उस का संपत्ति कर वह हर साल नगरनिगम को क्यों दे?
बदलती लाइफस्टाइल
नए मकानों, कालोनियों, मल्टीस्टोरीज बिल्डिंगों ने लोगों की लाइफस्टाइल बदल कर रख दी है. अब आम लोग खुद मकान नहीं बना पाते. सरकार ने मकान बनाने की प्रक्रिया इतनी कठिन कर दी है कि लोग झख मार कर बिल्डर के पास ही जाते हैं जो सरकारी विभागों से मकान संबंधी काम कराने का भी विशेषज्ञ हो जाता है.
इन नए मकानों में वर्णव्यवस्था भी नए तरह से फलफूल रही है. अगर आप एक ऐसी टाउनशिप में रहते हैं जिस में क्लब हाउस, स्विमिंग पूल, मीटिंग हौल, जिम, खेल का मैदान है तो आप नए
जमाने के आर्थिक सवर्ण हैं. इस से कम सुखसुविधाओं और कम कीमत के मकानों में रहने वाले लोग सामाजिक नजरिए से शूद्र होने लगते हैं. समाज में पूछपरख का एक बड़ा पैमाना आलीशान और महंगा मकान हो जाता है. लिहाजा, लोग अपनी हैसियत से बड़ा मकान लेने में हिचकिचाते नहीं हैं.
भोपाल के एक नामी आर्किटैक्ट सुयश कुलश्रेष्ठ की मानें तो अब लोगों की लाइफस्टाइल बदल रही है. 10-15 वर्षों पहले तक लोग बड़ा स्वतंत्र बंगला चाहते थे लेकिन अब वे फिर फ्लैट्स का रुख कर रहे हैं. इस की वजह उन का सुरक्षित होना भी है और यह भी कि नई पीढ़ी अब अभिभावकों से दूर बाहर के शहरों में नौकरी कर रही है.
सुयश के मुताबिक, अब 4-6 हजार वर्गफुट तक के बंगले करोड़ों रुपयों में बिक रहे हैं जिन में फ्लैट्स बनेंगे. यह ठीक है कि लोग अब लक्जरी मकान चाहते हैं और उस की कीमत देने को भी तैयार रहते हैं लेकिन मकानों का क्षेत्रफल कम होता जा रहा है. शहर के बाहर जमीन खोजने वाले बिल्डर्स अब फिर पौश इलाकों का रुख कर रहे हैं जहां एक बड़ा सा मकान तोड़ कर 8-10 मंजिला अपार्टमैंट्स बनाए जा सकें.
यानी असुरक्षित अमीर अब अपनी सुरक्षा और पड़ोस की खातिर अपने से थोड़े से नीचे के वर्ग के लोगों के साथ रहने को मजबूर हो चले हैं और बिल्डर्स इस पर ध्यान भी दे रहे हैं कि कहां यानी किस लोकेशन पर ग्राहक ज्यादा मिलेंगे.
पूरा होता सपना
सरकार चाहे जो भी फैसले ले, कैसी भी नीतियां बनाए लेकिन एक नपातुला सच यह भी है कि मकान या प्रौपर्टी कभी सस्ते नहीं होते. इस के बाद भी लोग इन्हें खरीद पा रहे हैं तो यह उन की महती जरूरत है. लेकिन एक मकान खरीदने के बाद उन की जिंदगी में बचत के नाम पर कुछ नहीं रह जाता. महंगाई बढ़ती है तो इस का यह मतलब नहीं कि लोगों की आमदनी भी बढ़ती है, बल्कि होता यह है कि लोग अपनी जरूरतें समेटने लगते हैं व आधी से ज्यादा जिंदगी कर्ज में डूबे रहते हैं.
तमाम सरकारी और गैरसरकारी झंझटों व परेशानियों के बाद भी इसी वजह से लोगों के मकान का सपना पूरा हो पा रहा है. यह सपना सस्ते में, किफायत से भी पूरा हो सकता है बशर्ते सरकार प्रौपर्टी के मामले में गैरजरूरी दखलंदाजी न करे. मकान बनाना अगर किसी होटल में खाना खाने जैसा आसान हो जाए तो सरकार का नुकसान नहीं होगा. उलटे, अर्थव्यवस्था बजाय बिगड़ने के सुधरेगी. पर सरकार कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती. वह खुद तो कभी इस बात का हिसाबकिताब देती नहीं कि मकानों के बदले में उस के विभाग और एजेंसियां जो राजस्व इकट्ठा करती हैं उस का वह कहांकहां कैसे इस्तेमाल करती है, लेकिन आम लोगों से वह पाईपाई का हिसाब लेती है.
ये भी पढ़ें- हिंदी पर मोदी का यूटर्न
ऐसा लगता नहीं कि बिल्डर्स की मुहताजी कभी खत्म या कम होगी, क्योंकि अब हर चीज का व्यावसायीकरण हो गया है और नियमकानून इतने उलझे हुए हैं कि लोग सीधे सरकारी विभागों में जाने से बचने में ही अपनी भलाई समझते हैं. बात मकान की हो तो लोग अपने सपने और जरूरत से समझौता कर लेते हैं जिस का फायदा बिल्डर्स को मिल रहा है.