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यह भी खूब रही

मेरे मित्र की बहन भोपाल में रहती है. किसी कार्यवश मैं उस के  निवास पर गया. मुझे देख वह प्रसन्नता से नाचने लगी, कहने लगी, ‘‘भाईसाहब आए, भाईसाहब आए.’’ उस की आवाज सुन उस की सास बाहर आ गई. मुझे देख वह बोली, ‘‘बहू, भाई आए हैं तो घर के अंदर ले जाओ, बैठाओ, यह क्या पागलपन कर रही हो.’’ वह हर्षित होते हुए बोली, ‘‘अम्मा, हमारे मायके से कुत्ता भी आए तो हम प्रसन्न होते हैं. ये तो हमारे भाई हैं.’’

अपनत्व की हद तक उसे भाई देख, कुत्ता याद आया. हम ने मन ही मन कहा, ‘यह भी खूब रही.’       

सत्यनारायण भटनागर

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मेरी भाभी बच्चों की पढ़ाई को ले कर हमेशा तनाव में रहती हैं. जबकि बच्चे अभी स्कूल में ही हैं. वे हमेशा बच्चों के कैरियर को ले कर चर्चा भी करती रहती हैं. मैं हमेशा समझाती रहती हूं कि भतीजेभतीजियां पढ़ाई में अच्छे हैं, फिर भला चिंता किस बात की? उस समय तो वे शांत हो जाती हैं लेकिन कुछ समय बाद फिर बच्चों की पढ़ाईर् की चिंता में पड़ जाती हैं. उन की इस आदत से घर के सभी लोग कभीकभी परेशानी महसूस करते हैं.

एक बार की बात है. भाभी, मैं व मेरी सहेली बाजार खरीदारी करने गए. 2 घंटे तक खरीदारी करते हुए अचानक भाभी बोलीं, ‘‘भूख लगने लगी है, यहीं पास के होटल में चलें.’’ हम होटल में जा कर बैठे ही थे, मैं ने भाभी से कहा, ‘‘आप ही की पसंद की चीजें खाएंगे.’’ भाभी मैन्यू कार्ड चाहती थीं, लेकिन वे भूल गईं कि इसे क्या कहते हैं. वे बोलीं, ‘‘वेटर, सिलेबस तो लाना जरा.’’ यह सुनते ही आसपास में बैठे लोग हंस पड़े. मैं और मेरी सहेली हंसी दबाने की कोशिश करते रहे. वेटर के मैन्यू कार्ड लाने पर सहेली ने बात संभाली. आज भी जब वह घटना याद आती है तो हम हंसे बिना नहीं रह पाते.  

दुर्गेश्वरी शर्मा

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मेरा देवर बड़ा मजाकिया स्वभाव का है. उस की पत्नी डीलडौल में काफी लंबीचौड़ी है. एक दिन मेरी देवरानी ने खुश हो कर बताया कि उस की एक सहेली ने जब अपने पति से उस का परिचय कराया तो कहा, ‘यह मेरी बैस्ट फ्रैंड है.’ मेरा देवर तुरंत बोला, ‘अरे, तूने जरूर गलत सुना है. उस ने कहा होगा, यह मेरी भैंस फ्रैंड है.’ देवर का मजाक सुन कर हम सब हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.   

अंजलि

दिल्ली का दिल देखो : कनाट प्लेस, पालिका बाजार, जनपथ और चांदनी चौक

दिल्ली घूमने आए हैं तो क्या देखेंगे? लालकिला, इंडिया गेट, कुतुबमीनार, पुराना किला, लोटस टैंपल, जंतरमंतर या फिर जामा मसजिद? सब देख सकते हैं, इन सभी जगहों तक जाने के लिए दिल्ली के किसी भी कोने से आटो, कैब या बस आप को मिल जाएंगे. आटो या कैब 100 से 250 रुपए के बजट में आप को घंटेदोघंटे समय के अंतराल में पहुंचा देंगे.

दिल्ली के राजपथ पर स्थित इंडिया गेट को दिल्ली का सिग्नेचर मार्क भी कह सकते हैं. इस का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध और अफगान युद्ध में मारे गए 90 हजार भारतीय सैनिकों की स्मृति में कराया गया था. 160 फुट ऊंचा इंडिया गेट देखते ही बनता है. जिन सैनिकों की याद में यह बनाया गया था उन के नाम इस इमारत पर अंकित हैं. इस के अंदर अखंड अमर जवान ज्योति भी जलती रहती है. इस के पास में ही संसद भवन और राष्ट्रपति भवन हैं जहां का मुगल गार्डन उम्दा स्थान है पर्यटन के लिए. राष्ट्रपति भवन का मुगल गार्डन कुछ दिनों के लिए खुलता है पर्यटकों के लिए, खासतौर से नएनए किस्म के फूलों की प्रजाति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए. लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर मंडी हाउस है. कलाप्रेमियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के शौकीन पर्यटकों के लिए यह माकूल जगह है.

पुराने किले में पुराने खंडहर हैं और बोटक्लब है जहां सैलानी अपने परिवार के साथ नौकायन का आनंद उठाते हैं. इस में प्रवेश करने के 3 दरवाजे हैं. हुमायूं दरवाजा, तलकी दरवाजा और बड़ा दरवाजा. वर्तमान में सिर्फ बड़ा दरवाजा ही प्रयोग में लाया जाता है.

लालकिला यानी रेड फोर्ट पुरानी दिल्ली इलाके में स्थित है. मुगल शासक शाहजहां ने 17वीं सदी में इस लालकिले का निर्माण कराया था. इस का आर्किटैक्चर इतना आकर्षक है कि यह आज भी पुरानी दिल्ली के सब से ज्यादा लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक बना हुआ है.

कनाट प्लेस से 5 मिनट की पैदल दूरी पर जंतरमंतर है. जंतरमंतर की बात करें तो

यह जंतरमंतर समरकंद की वेधशाला से प्रेरित है. ग्रहों की गति नापने के लिए यहां विभिन्न प्रकार के उपकरण लगाए गए हैं. यहां बना सम्राट यंत्र सूर्य की सहायता से समय और ग्रहों की स्थिति की सूचना देता है. यह राजीव चौक के नजदीक ही है. एक बार देखा जा सकता है. 

दिल्ली में  कुतुबमीनार को देख कर पीसा की झुकी हुई मीनार का चित्र उभर कर सामने आ जाता है. यह मीनार मूल रूप से सातमंजिला थी पर अब यह पांचमंजिल की ही रह गई है.

इस मीनार की कुल ऊंचाई 72.5 मीटर है और इस में 379 सीढि़यां हैं. परिसर में और भी कई इमारतें हैं जो अपने ऐतिहासिक महत्त्व व वास्तुकला से सैलानियों का मन मोह लेती हैं. लोटस टैंपल की शानदार व कलाकृत बनावट और यहां का शांतिपूर्ण माहौल इसे एक बार देखने लायक जगह बनाता है.

बाहर से आने वाले दिल्ली में इन जगहों का दीदार एक बार तो जरूर करते हैं लेकिन जो बारबार दिल्ली आते हैं और नई जगहों में घूम कर अपना समय बिताना पसंद करते हैं तो उन को कुछ नया आजमाना चाहिए. वैसे भी इन तमाम जगहों में जा कर देखिए, बमुश्किल 2 घंटे में ही बोर हो जाएंगे. देखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता जबकि घूमने आए हैं तो कम से कम ऐसी जगह होनी चाहिए जहां पूरा दिन खातेपीते, घूमतेफिरते और खरीदारी करते हुए अच्छे से बिताया जा सके.

दिल्ली में घुमक्कड़ों के लिए सिर्फ स्मारक और म्यूजियम ही नहीं हैं बल्कि मौजमस्ती, शौपिंग, इंटरटेनमैंट के साथ खानाखजाना के बेपनाह विकल्प जहां मौजूद हैं. वे विकल्प हैं कनाट प्लेस, जनपथ, पालिका बाजार और चांदनी चौक आदि.

राजीव चौक की सैर

पहले बात करते हैं दिल्ली के कनाट प्लेस की. कनाट प्लेस में 2 सर्कल हैं. इनर सर्कल और आउटर सर्कल. इनर सर्कल में ए से एफ ब्लौक आते हैं जबकि आउटर सर्कल में जी से पी तक के ब्लौक आते हैं. कोलोनियल आर्किटैक्ट शैली में बना कनाट प्लेस ब्रिटिशकाल की याद दिलाता है.

चहलपहल, भीड़ और फुटपाथ पर बिकते हस्तकला की वस्तुएं, पोस्टर्स, राजस्थानी कारीगरी के पर्स, थैलियां और कारपेट्स, बुद्धा की मूर्तियां मोनैस्ट्री सा माहौल रचती हैं. सरकार द्वारा संचालित सैंट्रल कौटेज एंपोरियम से सोवेनियर ले सकते हैं क्योंकि यहां कीमतें तय होती हैं.

शौपिंग व खानापीना

राजीव चौक मैट्रो स्टेशन के ठीक ऊपर बना सैंट्रल पार्क युवाओं के लिए हैंगआउट करने या किसी वर्कशौप में हिस्सा लेने, डिबेट या म्यूजिकल परफौर्मेंसेज अटैंड करने के लिए बैस्ट औप्शन है. यहां अकसर प्रेमी युगल वक्त बिताते साथसाथ देखे जा सकते हैं. दिल्ली के बीचोंबीच कहीं अगर पिकनिक मनाने की जगह हो सकती है तो वह सैंट्रल पार्क ही है.

बात खरीदारी की करें तो दिल्ली के इस केंद्रबिंदु में सभी देसीविदेशी ब्रैंड्स के शोरूम तो हैं ही साथ ही, अंडरग्राउंड पालिका बाजार भी है जो पूरी तरह से वातानुकूलित है.

कनाट प्लेस में हर ब्रैंड तो मिलता है, साथ में खानपान के सब फास्ट फूड चैन्स, कौफी शौप्स और मनोरंजन के लिए सिनेमाहौल (रिवोली, ओडियन, प्लाजा, रीगल) के भी कई औप्शन हैं. इतना ही नहीं, नई दिल्ली स्टेशन यहां से 5 मिनट की दूरी पर ही है. यहां मैट्रो और आटो से आसानी से पहुंचा जा सकता है.

एम ब्लौक में एचएनएम ब्रैंड का शोरूम भी खुल गया है जो भारत में मुंबई और दिल्ली समेत गिनती की जगहों में ही है. अगर यहां से खरीदारी का इरादा है तो कर लीजिए और फिर एच ब्लौक पर रुक कर निजाम के फेमस काठी कबाब का मजा लीजिए. फिर ब्लौक एफ का चायोस कैफे भी है जहां की कुल्हड़ वाली चाय का मजा ले सकते  हैं.

पीवीआर रिवोली सिनेमाघर से सटे कौफी हाउस में घंटों बैठिए और कौफी के साथ कलाप्रेमियों के साथ नौस्टाल्जिक हो जाइए. बहुत सस्ती और टाइमपास जगह है यह.

इनर सर्कल पर सस्ते रेस्तरां और होटल भी हैं. मसलन, ओडियन और प्लाजा सिनेमाहौल्स के बीच बने रेस्तरां में नौर्थ इंडियन खाना अच्छा और सस्ता मिलता है.

यहां आएं तो दक्षिण भारतीय खाने के शौकीन सवर्णा भवन का खाना जरूर चखें और नौनवेज के शौकीनों के लिए पिंडब्लूची अच्छा विकल्प है. इस के अलावा भी मीडियम बजट के रेस्तरां मसलन हीरा स्वीट, हल्दीराम, बीकानेर जैसे खाने के ठिकाने भी मौजूद हैं.

रंगीन व पौकेटफ्रैंडली 

कनाट प्लेस सिर्फ खानेपीने, पब, बार और शौपिंग के लिए ही नहीं, बल्कि यह जगह कई अहम फाइनैंशियल, बिजनैस और कमर्शियल दफ्तरों के लिए लोगों के विजिट करने का कारण बनती है. विदेशी सैलानियों के रुकने के लिए यह सब से पहली पसंद है क्योंकि यहां टू स्टार्स से ले कर फाइव स्टार्स होटल के तमाम विकल्प मौजूद हैं. 

यहां का माहौल पुरानी दिल्ली से एकदम उलट है. जिन्होंने पुरानी दिल्ली का माहौल देखा है वे जानते हैं कि वहां काफी गंदगी, पुरानी शैली की दुकानें और माहौल काफी स्ट्रैसभरा है जबकि कनाट प्लेस में फैशनेबल क्राउड, ब्रैंडेड रंगीन शोरूम्स, एलीट कैफे और रूफटौप रेस्तरां वैस्टर्न कंट्री के किसी मेनहेटननुमा स्ट्रीट मार्केट की याद दिला देता है. 360 डिगरी पार्किंग सुविधा है यहां. इसलिए चाहे अपनी गाड़ी से आएं या मैट्रो से, ट्रांसपोर्टिंग कनैक्टिविटी यहां सब से बेहतर है.

पालिका बाजार

पालिका बाजार की बात करें तो 70 के दशक में बनी अंडरग्राउंड सैंट्रलाइज्ड एसी से लैस इस मार्केट की बात ही अलग है. युवाओं की बजट शौपिंग का यह मनपसंद अड्डा है. सस्ता सामान जिन में कपड़े, जींस, शर्ट, बैग्स, मोबाइल एक्सेसरीज, पर्स, बैल्ट, जैकेट, जूते, कैमरा, वीडियो गेम्स आदि इफरात से कम से कम दामों में मिल जाते हैं.

हां, याद रखें पालिका बाजार, जनपथ और फुटपाथ में ब्रैंडेड कुछ नहीं मिलता. इसलिए बहकावे में न आएं. पालिका बाजार में तो लाइट इस तरह से लगी होती हैं कि सामान का रंग अच्छा दिखता है लेकिन बाद में कुछ और निकलता है. 

पुरानी दिल्ली की रौनक

दिल्ली में इस के अलावा पुरानी दिल्ली का चांदनी चौक इलाका भी कम आकर्षक नहीं है. असली दिल्ली की तसवीर तो यहीं दिखती है. यह जगह भी खानेपीने और खरीदारी का पुराना अड्डा है. यहां की परांठे वाली गली में तो जवाहरलाल नेहरू से ले कर अक्षय कुमार जैसी हर हस्ती डेरा डाल चुकी है. दिल्ली के पुराने इलाके को समझने के लिए यह सब से मुफीद जगह है.

दिल्ली के चांदनी चौक से शादी के लिए परफैक्ट शौपिंग की जा सकती है. यहां आप को डिजाइनर साड़ी और लहंगे के अच्छे कलैक्शन मिल जाएंगे. थोक में ड्रैस मैटीरियल भी यहां अच्छे दामों में मिलते हैं. पुरानी दिल्ली मैट्रो स्टेशन से उतर कर यहां पैदल जाया जा सकता है. पास में ही जामा मसजिद, लालकिला, जैन मंदिर और गुरुद्वारे भी हैं. यहां से सदर बाजार भी जाया जा सकता है.

कुल मिला कर दिल्ली दिनबदिन रंगीन और दिलचस्प होती जा रही है. हर मजहब, संस्कृति और मिजाज के दिलचस्प नजारों का लुत्फ अगर आप भी उठाना चाहते हैं तो चले आइए दिलवालों के इस खूबसूरत शहर में.

सस्ती शौपिंग

कनाट प्लेस के इनर सर्किल में लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय ब्रैंड के कपड़ों के शोरूम, बेशुमार रैस्टोरैंट, कैफे और बार हैं. पास में ही जनपथ बाजार भी है जहां कई तरह का हैंडीक्राफ्ट मैटीरियल, एंटीक शोपीस और स्ट्रीट शौपिंग का सामान मिल जाता है. यहां की दुकानें बड़ी व्यवस्थित हैं.

ब्लौक ए की वेंगर्स काफी पुरानी बेकरी शौप है जहां उम्दा गुणवत्ता की पेस्ट्रीज, बेकरीज और ब्रैड लेने के लिए लोग काफी दूर से आते हैं. और हां, ब्लौक ई में यूनाइटेड कौफी हाउस में साउथ इंडियन फिल्टर्ड कौफी न पी, तो क्या पिया.

चांदनी चौक के चटखारे

ज्ञानी की कुल्फी, फालूदा से ले कर परांठे वाली गली के परांठे, नटराज की भल्लेपापड़ी, जलेबी और चाटकचौड़ी के लिए दिल्ली का

सब से हौट अड्डा है चांदनी चौक. 

5 राज्यों के चुनावी नतीजे : भाजपा का दबदबा, राष्ट्रवाद का नारा

14 फरवरी, 2017 को आरएसएस मुखिया मोहन भागवत उज्जैन के वाल्मीकि धाम पहुंचे थे. इस से ज्यादा हैरत की बात यह थी कि उन्होंने यहां के मुखिया, दलित संत, उमेशनाथ के पैर छू कर आशीर्वाद लिया था. इन दोनों में लंबी चर्चा हुई. चर्चा का अंत उमेशनाथ की इस चेतावनी के साथ हुआ था कि आरक्षण खत्म नहीं होना चाहिए, दूधमलाई वालों को नहीं, बल्कि सफाई करने वालों को मिलना चाहिए. उमेशनाथ की दलित समुदाय में वैसी ही पूछपरख है जैसी सवर्णों में शंकराचार्यों और ब्रैंडेड धर्मगुरुओं श्रीश्री रविशंकर और अवधेशानंद जैसों की है. यह दीगर बात है कि वे रहते बेहद साधारण ढंग से हैं. क्षिप्रा नदी के किनारे बसे वाल्मीकि धाम में विलासिता का कोई साधन नहीं है और यह आश्रम लगभग कच्चा बना हुआ है.

मोहन भागवत उमेशनाथ की आरक्षण सलामती की मांग पर लगभग प्रतिक्रियाहीन रहे थे पर उस दिन उन्होंने जोर दे कर कहा था कि संस्कृति गांवों और जंगलों से विकसित होती है. उन्होंने गांधी के ग्राम्यदर्शन की भी जम कर तारीफ की.

तब इस मुलाकात के माने यह निकाले गए थे कि मोहन भागवत 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों, खासतौर से उत्तर प्रदेश के चुनाव, की तैयारी कर रहे हैं. उमेशनाथ के पैर पड़ने का सीधा सा मतलब था कि संघ और भाजपा अब दलित संतों के आगे नतमस्तक हैं और उन्हें किसी कीमत पर दलितों के वोट चाहिए. 11 मार्च के नतीजों में यह साफ भी हो गया कि उत्तर प्रदेश में दलितों ने बहुजन समाज पार्टी और मायावती को नकार कर भाजपा के पक्ष में बड़े पैमाने पर वोट किया है. खासतौर से वाल्मीकि समाज ने, जिस के नाम से ऊंची जाति वालों का नाकभौं सिकोड़ना आज भी बरकरार है.

किसे कहां क्या मिला

5 राज्यों के चुनावों में भाजपा को 2 और कांग्रेस को 1 राज्य में सरकार चलाने का बहुमत मिला. गोआ और मणिपुर में दोनों ही दलों को बहुमत नहीं मिला. कांग्रेस नंबर वन पार्टी होने के बाद भी सरकार नहीं बना सकी. कांग्रेस को उसी के पुराने दांव से मात दे कर भाजपा ने 5 राज्यों के चुनावों का फैसला 4-1 से अपने पक्ष में करने के लिए अपनी साख को दांव पर लगा दिया.

जिस तरह से केंद्र के दखल से राज्यों में कभी कांग्रेस सरकार बनतीबिगड़ती थी, अब भाजपा उसी का अनुसरण कर रही है. गोआ और मणिपुर में सब से बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस जीत कर आई. गोआ में कांग्रेस को 17 और मणिपुर में 28 सीटें मिलीं. इस के मुकाबले भाजपा को गोआ में 13 और मणिपुर में 21 सीटें ही मिल पाईं. दोनों ही राज्यों में सरकार बनाने के लिए बहुमत किसी दल के पास नहीं है. ऐसे में अन्य विधायकों को अपनी ओर मिला कर के भाजपा ने गोआ और मणिपुर में अपनी सरकारें बना लीं.

कांग्रेस इसे केंद्र सरकार द्वारा सत्ता का दुरुपयोग किया जाना बता रही है. उस ने इस मुद्दे को ले कर लोकसभा में हंगामा भी मचाया. जिस तरह से मणिपुर और गोआ में सब से बड़ी पार्टी होने के बाद भी कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाया गया, उस को ले कर दोनों ही राज्यों के राज्यपालों पर भी आरोप लग रहे हैं. आमतौर पर राज्यपाल जिस पार्टी के सब से अधिक विधायक होते हैं, उसे ही सरकार बनाने का न्योता देते हैं. कई बार राज्यपाल अपने विवेक से भी फैसला करते हैं.

अप्रत्याशित बहुमत मिलने के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा किसे मुख्यमंत्री बनाएगी, यह चुनाव से कम रोमांच नहीं था जो राजनाथ सिंह के नाम से शुरू होते गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ पर खत्म हुआ.

पंजाब में उतरा भगवा नशा

उत्तर प्रदेश की कामयाबी का भाजपा का नशा अगर पंजाब में उतरता दिखाई दिया तो इस से ये तथ्य तो स्थापित होते हैं कि 5 राज्यों के चुनावों में कोई राष्ट्रीय या दूसरी लहर नहीं थी और राज्यों में सिर्फ सत्ताविरोधी लहर चली है. आमतौर पर लोग अपनेअपने राज्यों की सरकारों के कामकाज से संतुष्ट नहीं रहते, भाजपा ने इस का फायदा अगर खासतौर से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में उठाया तो पंजाब में इस का खमियाजा भी उसे भुगतना पड़ा. शिरोमणि अकाली दल और भाजपा का गठबंधन खारिज कर दिया गया है और वोटरों ने कांग्रेस पर भरोसा जताया है तो बात हैरत की इस लिहाज से है कि वहां सत्ता की प्रबल दावेदार आम आदमी पार्टी एक बेहतर विकल्प के रूप में थी, पर धाकड़ कांग्रेसी नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह की जमीनी पकड़ कांग्रेस के काम आई.

नशा पंजाब चुनाव में एक बड़ा मुद्दा था जिसे ले कर काफी बवंडर पिछले एक साल से मच रहा था. राज्य सरकार का उम्मीदों पर खरा न उतरना और बादल परिवार की बदनामी भी हार की वजह बनी. इसीलिए भाजपा अब बड़ी मासूमियत से कह रही है कि हम तो पंजाब में अतिथि और सहयोगी थे. प्रचार का जिम्मा तो एसएडी का था. यानी मीठामीठा गप और कड़वाकड़वा थू वाली बात की जा रही है, जो राजनीति का शगल भी है.

नरेंद्र मोदी प्रचार के दौरान सिर्फ पंजाब की शान और खेतीबाड़ी की बातें करते बादल साहब, बादल साहब करते रहे थे लेकिन राहुल गांधी ने नशे पर रोक की बात प्रमुखता से कही थी और सारे फैसले अपने हाथ में रखने का एक पुराना कांग्रेसी रिवाज भी पहली दफा तोड़ते अमरिंदर सिंह को अपने हिसाब से फैसले लेने की छूट दी थी, जिस से मतदाता में यह संदेश गया था कि अब कांग्रेस बदल रही है और सबकुछ 10 जनपथ से तय नहीं होगा.

दरअसल, पंजाब में कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौती भाजपा-एसएडी गठबंधन नहीं, बल्कि आम आदमी पार्टी थी. अरविंद केजरीवाल यहां लंबे वक्त से सक्रिय थे, पर संगठनात्मक ढांचा न बना पाने के कारण वे पीछे रह गए. नवजोत सिंह सिद्धू भी पंजाब में एक बड़ा फैक्टर थे, जिन्होंने पत्नी नवजोत कौर सहित भाजपा छोड़ दी थी. आम आदमी पार्टी ने उन्हें नहीं लिया तो वे कांग्रेस में चले गए. उन की लोकप्रियता का फायदा कांग्रेस को मिला, नतीजा सामने है कि भाजपा व एसएडी के गठबंधन और आप को पछाड़ कर कांग्रेस सत्ता में हैं.

पंजाब में कांग्रेस की वापसी से यह भी जाहिर होता है कि वोटरों का मूड हर जगह अलग है. विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे काफी अहम होते हैं और रही बात जाति या धर्म की तो ये मुद्दे पंजाब में कहनेभर को थे. यहां का युवा अच्छी बात है कि नशे के दुष्परिणामों को समझने लगा है, इसलिए उस ने पंजाब के नाम या बदनामी से ऊपर उठते कांग्रेस को मौका दिया.

ऐसे उलझी कांग्रेस

उत्तराखंड के नतीजे इस लिहाज से चौंकाने वाले नहीं हैं कि वहां कांग्रेस और मुख्यमंत्री हरीश रावत को ले कर जबरदस्त असंतोष था. वहां भाजपा ने 70 में से 57 सीटें जीतीं और कांग्रेस को महज 11 सीटें मिल पाईं. पहाड़ी और मैदानी दोनों इलाकों में कांग्रेस मतदाताओं की नाराजगी का शिकार इस तरह हुई कि हरीश रावत दोनों सीटें हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा से हार गए.

उत्तराखंड में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की तरह हाहाकारी प्रचार नहीं किया था. यह बात उस से छिपी नहीं रह गई थी कि जो हालत उस की पंजाब में है वही यहां कांग्रेस की है. लिहाजा, उसे उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश जितना पसीना नहीं बहाना पड़ा.

पिछले साल उत्तराखंड में हुई कांग्रेसी बगावत के बाद कांग्रेस को सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी थी, तब कहीं जा कर हरीश रावत मुख्यमंत्री बन पाए थे. उन्होंने बजाय जनहित के काम करने और मुद्दों पर बात करने के, भाजपा का रास्ता अपनाया और सालभर पूजापाठ में उलझे रहे. नतीजतन, जनता ने उन्हें खारिज कर दिया.

इन नतीजों से यह भी स्पष्ट हो गया था कि उत्तर प्रदेश में केवल दलितों ने ही नहीं, बल्कि सपा को नकारते पिछड़ों ने भी भाजपा को वोट दिया. कुछ मुसलिमबाहुल्य सीटों पर भी भाजपा जीती तो साफ लगा कि आरएसएस अपने राष्ट्रवाद की नई अवधारणा में सफल हो रहा है जिस के तहत अब हिंदू केवल सवर्ण नहीं, बल्कि सभी देशवासी हैं.

दलितों और आदिवासियों को घेरने का काम आरएसएस और भाजपा ने बड़े पैमाने पर उज्जैन के सिंहस्थ महाकुंभ में भी किया था जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इन्हीं उमेशनाथ के साथ क्षिप्रा में डुबकी लगाई थी और सामाजिक समरसता का नारा बुलंद किया था. कुछ बड़े और सनातनी हिंदू धर्मगुरुओं को भी दलित संतों के साथ डुबकी लगवाई गई थी.

खुद मोहन भागवत ने अलग से दलित आदिवासियों के साथ डुबकी लगाई थी और उन के साथ बैठ कर खाना भी खाया था. इस से और पहले यह काम अमित शाह उत्तर प्रदेश में कर चुके थे तो इन सब की मंशा साफ थी कि अब हिंदू और हिंदुत्व के माने बदले जा रहे हैं. दलित भले ही सवर्णों के लिए अछूत और हेय हों पर अस्वीकार्य नहीं हैं.

राष्ट्रवाद हुआ हिंदुत्व

उत्तर प्रदेश का नतीजा हैरान कर देने वाला है. खुद अमित शाह ने 11 मार्च को लखनऊ की पत्रकारवार्त्ता में माना था कि दलितों और गरीबों ने भाजपा सरकार और नरेंद्र मोदी में भरोसा जताया है.  तमाम अनुमानों और सर्वेक्षणों को ध्वस्त करते उत्तर प्रदेश में भाजपा ने यों ही 325 सीटों का आंकड़ा नहीं छू लिया है जिस के बारे में कहा जा रहा है कि 1991 की रामलहर से ज्यादा जोरदार और असरदार 2017 की मोदीलहर है. दिलचस्पी और हैरत की बात यह है कि कहीं भी उग्र हिंदुत्व की बात नहीं की गई, चुनावप्रचार के दौरान बाबरी मसजिद को धक्का दे कर तोड़ने की धौंस भी नहीं दी गई थी. जयजय श्रीराम के उद्घोष नहीं किए गए थे, सबकुछ बड़ी योजनाबद्घ तरीके से किया गया.

यह योजना कई चरणों में कई बिंदुओं पर चली. पहली यह कि दलितों को उन के हिंदू होने का एहसास कराया गया. इस बाबत तमाम टोटके किए गए, यहां तक कि मोहन भागवत और अमित शाह ने उमेशनाथ के चरणों में सिर तक नवा दिया. दूसरी अहम बात, बड़े पैमाने पर बजाय हिंदुत्व के राष्ट्रवाद की बात की गई.

यह राष्ट्रवाद है क्या बला, यह बात खुद इस का राग अलाप रहे लोग नहीं समझ पा रहे जिस के बारे में मोहन भागवत बहुत स्पष्ट कह चुके हैं कि आरएसएस की लत एक बार जिसे लग जाए तो फिर वह छूटती नहीं. यानी राष्ट्रवाद एक नया नशा है जिस के तहत वंदेमातरम और भारत माता की जय बोलना अनिवार्य है. चुनावी सभाओं में नरेंद्र मोदी ने जयजय श्रीराम की जगह हरहर महादेव के नारे लगाए और लगवाए और मतदान समाप्त के बाद वे सीधे सोमनाथ के मंदिर भी गए थे.

इन तमाम ड्रामेबाजियों का हिंदू जातियों की आपसी लड़ाई और बैर से गहरा संबंध है. राममंदिर निर्माण आंदोलन के वक्त हिंदुओं में एक धार्मिक उन्माद था जिसे भी भाजपा अब कहीं जा कर एक सामाजिक क्रांति व बदलाव में ढाल कर पेश कर पाने में कामयाब हो रही है. अब कोई सीधे नहीं कहता कि धर्म के नाम पर देश को मजबूत करो. अब कहा जाता है कि विकास और सामाजिक समरसता चाहिए तो भाजपा को वोट दो.

लोगों ने उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में भाजपा को वोट दिया तो भाजपा बहुत साफ कहने लगी है कि वह दलितों और मुसलमानों की दुश्मन नहीं, बल्कि हमदर्द है. वह अब महज ब्राह्मण और बनियों की पार्टी नहीं रह गई है, बल्कि उन सब की पार्टी है जो खुद को भारतीय मानते हैं. उस का मानना है कि भारत को खतरा कट्टरवादी हिंदुओं से नहीं, बल्कि कट्टरवादी मुसलमानों और वामपंथियों से ज्यादा है जो आएदिन राष्ट्रद्रोह की बातें करते रहते हैं. यह राष्ट्रद्रोह भारत माता की जय न बोलना और देश को अपना न मानना है. वामपंथी राष्ट्रद्रोह के नारे लगाते हैं, इसलिए वे भगवा मंडली के अनुसार देश यानी नए हिंदुत्व के दुश्मन हैं और उन से निबटना है तो भाजपा को मजबूती देनी होगी. वहीं, वामपंथियों का मकसद देश के टुकड़े करना है और इस काम में मुसलमान भी उन के साथ हैं. ये ही नक्सली हिंसा को बढ़ावा देते हैं और दलितों को बरगलाते हैं. देश की सहिष्णुता को उन से बड़ा खतरा है और वे हमारी जातिगत फूट का फायदा उठाते हैं, इसलिए हमारा एक होना जरूरी है.

इस वर्ग का मानना है कि अभिव्यक्ति और आजादी की मांग करने वाले ये लोग नहीं चाहते कि देश एक हो. और ये विघटनकारी, अलगाववादी हैं और बोलने की आजादी का बेजा फायदा उठाते रहते हैं. ये नास्तिक और अधर्मी हैं. इन्हें सबक सिखाना जरूरी है कि अब सभी लोग जातपात छोड़ कर आरएसएस और भाजपा के तंबू के

नीचे आ जाएं जिस से इन के नापाक मंसूबों को नाकाम किया जा सके. ये लोग ऐयाश हैं, एहसानफरामोश हैं जो खातेपीते तो देश का हैं पर वफादारी पाकिस्तान की करते हैं. दरअसल ये ऋषिमुनियों वाले धर्म और संस्कृति को फलतेफूलते नहीं देखना चाहते. ऐसा भाजपा के कार्यकर्ता ही नहीं, दूसरे आम लोग भी कहते हैं जो धर्म में अंधश्रद्धा रखते हैं.

चूंकि हिंदू धर्म और हिंदुत्व के नाम पर दलितों व पिछड़ों को साथ मिला पाना मुश्किल था, इसलिए चाल, चरित्र और चेहरा बदलते आरएसएस और भाजपा ने राष्ट्रवाद का नारा दिया जिस में कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं है बल्कि सभी हिंदू हैं. हिंदू शब्द की नई परिभाषा देने में 20 साल लग गए. इस दौरान कई उतारचढ़ाव आए. लेकिन इन हिंदूवादियों ने जोखिम उठाया और 2014 के लोकसभा चुनाव में पिछड़े वर्ग के नरेंद्र मोदी को नायक के रूप में पेश कर दिया.

हीनता का फायदा

नरेंद्र मोदी पसंद किए गए तो इस की वजह गुजरात का उन का विकास मौडल या देसी भाषणशैली कम, बल्कि उन का पिछड़े वर्ग से होना अहम था जिस ने पिछड़ों और दलितों को भाजपा के प्रति आश्वस्त किया था. इस के बाद तो भाजपा सवर्णों की बात करना ही भूल गई. वह दलितों, गरीबों की बात करती रही. बस, ‘दलित’ की जगह शब्द ‘गरीब’ इस्तेमाल किया गया.

इसी वजह से मायावती अपना हश्र देख सकते में है. वे शायद ही कभी यह हकीकत समझ पाएं कि दलितों के अंदर पसरी जातिगतहीनता को भाजपा ने भावनात्मक रूप से भुनाया है. भाजपा गांधी की कांग्रेस की तरह सदियों से प्रताडि़त और उपेक्षित रहे दलित समुदाय को यह गारंटी देने में सफल रही कि अब उस का झुकाव छोटी जातियों की तरफ है, जिन की दुर्दशा की एक बड़ी वजह जातिगत अत्याचार, भेदभाव या प्रताड़ना कम, बल्कि उन का गरीब होना ज्यादा है. इसलिए अब उन के भले और उत्थान की योजनाएं बना कर उन्हें अमल में भी लाया जाएगा.

पढ़ेलिखे और पैसे वाले पिछड़ों, जिन की गिनती लगातार बढ़ रही है, को भी यह अदा भायी और उन्होंने भाजपा में ही सुरक्षा देखी तो बात कतई हैरानी की नहीं क्योंकि ये भी अपनी जातिगतहीनता से उबरने को बेचैन थे.  2007 की मायावती की सोशल इंजीनियरिंग राजनीतिक थी पर भाजपा ने इसे सामाजिक तौर पर अपनाने का प्रचार किया.

बड़ी तेजी से यह प्रचार भी हुआ कि सिर्फ मुसलमान ही देश का दुश्मन नहीं, बल्कि देश का दुश्मन वह भी है जो इस राष्ट्रवाद की परत में छिपे नव हिंदुत्व को नहीं मानता. उत्तर प्रदेश के नतीजों के बाद सोशल मीडिया पर इस आशय के मैसेज खूब वायरल हुए जिन में यह कहा गया था कि भूतप्रेत भगाने के लिए हनुमानचालीसा पढि़ए और वामपंथी, राष्ट्रद्रोहियों को भगाने के लिए वंदेमातरम व भारत माता की जय बोलिए. एक मैसेज का आशय यह था कि अगर 3 तलाक का मामला सुप्रीम कोर्ट तय नहीं कर सकता क्योंकि इस से मुसलमानों के धर्म और मन को ठेस पहुंचती है तो उस सुप्रीम कोर्ट को यह हक भी नहीं कि वह राममंदिर निर्माण का फैसला करे क्योंकि इस से 100 करोड़ हिंदुओं को ठेस पहुंचती है. कुछ छुटभैये और मंझोले हिंदूवादियों ने अब दोबारा राममंदिर निर्माण की बात कहनी शुरू कर दी है. यह साजिश के तौर पर हो रहा है ताकि ऊंचे सवर्ण भाजपा के जहाज को छोड़ कर न जाने लगें कि उस पर दलित व पिछड़े सवार होने लगे हैं.

इस तरह की बातें पढ़े और लिखे सवर्णों, जिन्हें देशदुनिया और धार्मिक पोंगापंथ से कोई सरोकार नहीं रहा, के लिए नहीं, बल्कि तेजी से हिंदू हो रहे पिछड़ों और दलितों को बरगलाने के लिए ज्यादा की जाती हैं जो यह मानने लगे हैं कि अब वे देश की मुख्यधारा है और देश की जिम्मेदारी उन के कंधों पर आ गई है और चूंकि देश खतरे में है, इसलिए भाजपा ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया. मायावती ने सौ मुसलमानों को टिकट दिए तो उन की मंशा दलितों के कंधों पर मुसलमानों की पालकी ढुलवाने की थी. कितनी चालाकी से यादवमुसलमान गठजोड़ तोड़ा गया और दलितमुसलमान गठजोड़ बनने ही नहीं दिया गया. यह बात न तो अखिलेश यादव समझ पाए और न मायावती. मायावती इस मुगालते में रहीं कि दलित अभी भी मनुवाद के नाम पर उन के साथ हैं.

बात साफ भी है कि भाजपा और आरएसएस की तरफ से अब यह नहीं कहा जाता कि हिंदू धर्म खतरे में है बल्कि यह कहा जाता है कि देश खतरे में है. देशविरोधी ताकतों को सिर्फ भाजपा ही सबक सिखा सकती है जो दिनोंदिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मजबूत हो रही है. इस उन्मादी प्रचार का एक फायदा यह भी होता है कि लोग बढ़ती महंगाई को भूल जाते हैं, अपनी रोजमर्राई परेशानियों से दूर हो जाते हैं और नए भजनों पर झूमना शुरू कर देते हैं.

अब बढ़ेगा पूजापाठ

दलित और पिछड़े, दरअसल, घोषित तौर पर मुख्यधारा के हिंदू यानी खुद को सवर्ण कहलाने और महसूस करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. लेकिन करवाया उन से भजनपूजन ही जाएगा जिस से पंडेपुजारियों को बदस्तूर दानदक्षिणा मिलती रहे. भारत माता के नाम पर वही छल किया जा रहा है जो बाली को मारने के लिए राम ने किया था. फर्क इतना भर है कि एक बड़ी सामाजिक ताकत, जिसे खत्म नहीं किया जा सकता, को गले लगा कर अपने सनातनी स्वार्थ सिद्ध किए जा रहे हैं.

यही काम आजादी के बाद से कांग्रेस कट्टर लोगों को छलती रही थी. महात्मा गांधी इस के जनक थे जो वर्णव्यवस्था को कायम रखने के हिमायती थे और ‘रघुपति राघव राजा राम’ जैसे भजन गाया करते थे. बाद में जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने इस रिवाज को कायम रखा और मंदिरों व हिंदुत्व पर खासा ध्यान दिया. तब सिर्फ कांग्रेसी ही सोचते थे कि धर्मप्रधान इस देश में सत्ता में रहना है तो पूजापाठ करते रहना होगा जिस से धर्म और जातिवाद बना रहे और ढका भी. सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का काम इसी षड्यंत्र का हिस्सा था.

60 साल कांग्रेस जो करती रही, वही अब भाजपा कर रही है. उस ने गांधी की चालाकियों को हथियार बना लिया है. गांधी की तरह मोहन भागवत, अमित शाह और नरेंद्र मोदी को देर से सही, पर समझ आया कि दरअसल हिंदुस्तान और हिंदुत्व की ताकत मुट्ठीभर सवर्ण नहीं, बल्कि दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं. इसलिए अब कोई राममनोहर लोहिया या कांशीराम पैदा ही न होने दिया जाए वरना हिंदुत्व की पोल खुल जाएगी. उत्तर प्रदेश के पिछड़े अब यादव और गैरयादव जातियों में बंट गए हैं तो यह हिंदुत्व के लिहाज से चिंता की नहीं, बल्कि सुकून की बात है.

इस बाबत पहले आरएसएस ने वैचारिक प्लेटफौर्म बनाया और फिर नरेंद्र मोदी ने खूब श्मशान व दीवाली की बातें की, गायों को हाथ से चारा खिलाया और देखते ही देखते खुद को गांधी के बराबर लोकप्रिय मानने लगे.

दरअसल, सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस धर्म और उस के पोंगापंथ से दूर होने लगी थी, इसलिए उस पर तुरंत वामपंथियों के सहयोगी होने का ठप्पा लगा दिया गया. इस का आधार वैचारिक कम, धार्मिक न होना ज्यादा था. जितने मंदिरों में दर्शन और पूजापाठ नरेंद्र मोदी 3 साल से कम वक्त की मियाद में कर चुके हैं, उस से कहीं कम मनमोहन सिंह ने 10 साल में किए होंगे.

धर्मप्रधान देश में विकास योजनाओं और उन के नाम पर भ्रष्टाचार कहनेभर की बात रहती है. असल मुद्दा पूजापाठ होता है जिसे भूलने का खमियाजा कांग्रेस भुगत रही है और यह सिलसिला अभी और चलने का अंदेशा है क्योंकि राज उस भाजपा का है जिस की बुनियाद धर्म पर ही रखी है. ऊंची जाति वालों को दरअसल समझ आ गया है कि वे तो हर लिहाज से श्रेष्ठ हैं और रहेंगे, इसलिए देश के लिए काम करने की जिम्मेदारी दलितों व पिछड़ों को अब दे दी जाए तो सौदा घाटे का नहीं. इन की हैसियत रहेगी तो खेत में काम करने वाले मजदूरों सरीखी ही, काम करते रहने से वे खेत के मालिक नहीं हो जाएंगे. ये लोग अभी धर्म की चालाकियां नहीं सीख पाए हैं.

अब पूजापाठ, यज्ञ, हवन और दानदक्षिणा का जो दौर धीमा होता दिखाई दे रहा था वह बहुत बड़े पैमाने पर होगा. भाजपा और आरएसएस का मकसद पंडों के लिए नए ग्राहक तैयार करना था, जिस में वे कामयाब हो गए हैं.

भाजपाशासित राज्यों में अवधेशानंद, रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे धर्मगुरु त्रेता व द्वापर युग के ऋषिमुनियों की तरह स्वच्छंद विचरण करते हैं. वे योग, आयुर्वेदिक दवाइयों, प्रवचनों, दीक्षाओं, यज्ञ, हवन का कारोबार करते हैं और बदले में मुख्यमंत्रियों को आशीर्वाद देते चलते बनते हैं.

व्यक्तिपूजा व चाटुकारिता

इन चुनावों में जिस तरह से मोदी का भक्तिगान किया गया, उस से साबित हो गया कि चुनावों में व्यक्तिपूजा व चाटुकारिता की परंपरा आज भी बरकरार है.

सत्तर के दशक के एक धाकड़ कांग्रेसी नेता थे असम के देवकांत बरुआ. उन की इकलौती योग्यता थी इंदिरा गांधी की चापलूसी करते रहना. एवज में इंदिरा गांधी ने उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया था और बिहार का राज्यपाल भी बना दिया था. एक और कांग्रेसी नेता विद्याचरण शुक्ल थे जो इंदिरा गांधी की स्तुति यह कहते करते थे कि तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय. विद्याचरण शुक्ल ने ‘सरिता’ का गला घोंटने की कोशिश की थी कि वह धर्म की पोल न खोले.

व्यक्तिपूजा की यह हद इंदिरा युग की याद बेवजह नहीं दिलाती, जिन्हें कांग्रेसियों ने देवी साबित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी, जिस का खमियाजा आखिरकार आपातकाल के रूप में देश को भुगतना पड़ा था. इंदिरा गांधी हार तो हार, अदालत का फैसला न मानने तक की हद तक मनमानी करने पर उतारू हो गई थीं, जिस की एक बड़ी वजह तत्कालीन चाटुकार थे. नरेंद्र मोदी को भगवान साबित करने पर तुले लोग बरुआ और शुक्ला सरीखा गुनाह ही कर रहे हैं जिन्हें रोकने वाला कोई नहीं, क्योंकि यह उन का हक हर लिहाज से है.

मोदीभक्त इस बात की जानबूझ कर अनदेखी कर रहे हैं कि 3 राज्यों में भाजपा कांग्रेस से पिछड़ी है. जोड़तोड़ कर उस ने गोआ और मणिपुर में सरकार बना लिया तो यह उस का संवैधानिक अधिकार है. पर इस से साबित यह होता है कि कोई लहर मोदी के नाम की नहीं थी. अगर होती तो पंजाब उस से अछूता नहीं रहता. फिर जश्न किस बात का? बिलाशक उत्तर प्रदेश में भाजपा ने उम्मीद से परे वह आंकड़ा पार कर लिया है जिस का अंदाजा उस मीडिया को भी नहीं था, जो अब दिनरात मोदी के गुणगान तरहतरह से कर अपनी झेंप व खिसियाहट ढक रहा है. नरेंद्र मोदी को 2014 के मुकाबले, प्रतिशत में इस बार कम वोट मिले हैं. षड्यंत्र रचा जा रहा है कि इस पूरे खेल में लोकतंत्र कहीं नहीं दिखना चाहिए, और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर बोलने वालों का गला दबोचते रहना जरूरी है जिस से जातिगत गुलामी बनी रहे.      

दक्षिणपंथ के बढ़ते खतरे

संकीर्णता की आंधी जब समूची दुनिया में चल रही हो तो धर्म, जातियों का गढ़ भारत कैसे बच सकता है. कुछ समय से विश्वभर में उदार बनाम संकीर्ण विचारों की लड़ाई चल रही है. इस में लोकतंत्र के नाम पर संकीर्ण विचारों की विजय होती दिख रही है. भारत जैसे सब से बड़े लोकतंत्र में ऐसी शक्तियों का मजबूत होना निश्चित ही नुकसानदायक है.

अब यह तय है कि आने वाले समय में विश्व में संकीर्णता फैलेगी, लोकतंत्र की उदारता के लिए कोई जगह नहीं होगी, सोच विस्तृत होने के बजाय सिकुड़ती जाएगी क्योंकि माहौल ऐसा बनाया जा रहा है. तर्क, बहस के लिए स्पेस नहीं रहेगा. स्वतंत्र बोलने, लिखने वालों पर अपने देश का द्रोही होने के आरोप लगाए जाएंगे. कालेजों, विश्वविद्यालयों और इंगलैंड का औक्सफौर्ड विश्वविद्यालय ब्रैक्सिट का शिकार हो रहा है. स्कूलों से इस की शुरुआत की जा चुकी है. हर जगह असहमति के विचार रखने वालों पर हिंसा का प्रयोग किया जाने लगा है. विचारों से मतभेद रखने वालों की खैर नहीं होगी. अमेरिका फर्स्ट, भारत अग्रणी, चीनी साम्राज्य, तुर्की का औटोमन एंपायर शब्द एक ही बात कह रहे हैं. राजनीतिबाजों के हाथ में धर्म हमेशा लोकतंत्र को खत्म करने का हथियार रहा है. अब ये लोग लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही रवैए को जगजाहिर करने पर उतारू होंगे. डोनाल्ड ट्रंप के नए बजट में कितने ही उदारवादी संस्थानों को आर्थिक सहायता बंद कर दी गई है. 

मीना कुमारी: कुछ अनसुनी बातें

बालीवुड में ‘‘ट्रैजडी क्वीन’’ के रूप में मशहूर रही तथा निजी जिंदगी में सदैव शराब डूबी रही सशक्त अदाकारा स्व.मीना कुमारी के जिंदगी के तमाम ब्लैक एड व्हाइट किस्से हैं, जिनसे बहुत कम लोग परिचित हैं.

हर कोई स्व.मीना कुमारी को मुस्लिम समझता है, मगर हकीकत यह है कि मीना कुमारी का संबंध एक बंगाली ब्राह्मण परिवार से था. वास्तव में मीना कुमारी की मां प्रभावती का संबंध बंगाली ब्राह्मण परिवार के साथ-साथ रवींद्रनाथ टैगोर के परिवार से भी था. प्रभावती का परिवार पश्चिम बंगाल में बोलपुर रेलवे स्टेशन के पास रहा करता था. मीना कुमारी की मां प्रभावती वहीं से जुड़े शांति निकेतन कैम्पस में नृत्य व ड्रामा से जुड़ी हुई थी. इसी ग्रुप से जुड़े तबलची अली बख्श से प्रभावती को इश्क हो गया था और वह विवाह के बाद इकबाल बेगम बन गयी थी.

विवाह के बाद बोलपुर में रहना उनके लिए मुनासिब न था. इसलिए वह मुंबई चले आए थे. मुंबई के डॉ गद्रे अस्पताल में इकबाल बेगम ने एक बेटी को जन्म दिया था, जिसे पहले अली बख्श ने कूड़ेदान में फेंक दिया था. फिर उसे उठाकर ले आए थे. यह बच्ची मेहजबी थीं, जो कि बड़ी होकर मीना कुमारी बनी.

मीना कुमारी की मां प्रभावती और रांची निवासी स्व.हरिहर प्रसाद के बीच भी कोई संबंध था. पर यह किस तरह का संबंध था, यह आज तक राज बना हुआ है. मगर हरिहर प्रसाद ने 1935 में मीना कुमारी की मां प्रभावती को रांची (मौजा मोहराबाद) में 3 एकड़ 60 डिस्मिल (खाता नंबर 133, प्लॉट नंबर 62) रकबा की जमीन दी थी. प्रभावती के कहने पर यह जमीन अली बख्श के नाम लिखी गयी थी. 1971 में मीना कुमारी ने एक वकील के माध्यम से हरिहर प्रसाद की बेटी के बेटे और रांची विश्विविद्यालय पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. रतन प्रकाश के पास बीस हजार रूपए भेजे थे कि वह इस जमीन के चारों तरफ दीवार खड़ी करा दें.

एक वक्त वह भी आया था, जब फिल्म नगरी और अपने अभिनय जीवन से उबकर मीना कुमारी ने रांची की इसी जमीन पर रहने का मन बनाया था. पर उनका विचार कैसे बदला, यह आज तक पता नहीं चला. मगर शाश्वत सत्य यह है कि डॉ. रतन प्रकाश अक्सर अपनी पढ़ाई अथवा मकान के नाम पर मुंबई आकर मीना कुमारी से पैसे ले जाते थे. इस बात को डॉ. रतन प्रकाश ने अपनी स्वः लिखित पुस्तक में स्वीकार भी किया है.

लोग मीना कुमारी को ट्रैजडी क्वीन समझते हैं. लोगों को मीना कुमारी की शराब की लत व कई पुरूषों के साथ अफेयर की बात पता है. पर किसी को भी इसकी वजह पता नही हैं. किसी ने उनके दर्द को नहीं जाना. निजी जीवन की तमाम समस्याओं ने उन्हें ऐसा बनाया था. जिन समस्याओं से मीना कुमारी अपनी निजी जिंदगी में जूझ रही थीं, उन समस्याओं से आज की भारतीय नारी भी जूझ रही है. मीना कुमारी के पास सुंदरता, धन, मान सम्मान, शोहरत सब कुछ था. उनके प्रशंसकों की कमी नहीं थी. लेकिन उनकी कोख सूनी थी. उन्हें अपने पति से आपेक्षित प्यार नही मिला. यह सच है. मीना कुमारी, कमाल अमरोही की तीसरी पत्नी थी. कमाल नहीं चाहते थे कि मीना कुमारी उनके बेटे की मां बने.

लेकिन कमाल अमरोही के बेटे ताजदार अमरोही अपने पिता कमाल अमरोही को विलेन मानने के लिए तैयार ही नहीं है. वह कहते हैं-‘‘मुझे पता है कि किसी ने एक नाटक ‘एक तन्हा चांद’ में मेरे पिता कमाल अमरोही को मेरी छोटी मम्मी मीना कुमारी की जिंदगी में विलेन की तरह पेश किया है. पर सच यह नहीं है. लोग कहते है कि मेरे वालिद ने उन्हे मां नहीं बनने दिया. यह भी सच नहीं है. हकीकत यह है कि वह दो बार गर्भवती हुई और दोनों बार उन्होने स्वयं ही गर्भपात करवा लिया था. इसी तरह की कई हकीकतों से लोगों को रूबरू कराने के लिए मैंने अपनी छोटी मम्मी मीना कुमारी की जिंदगी पर एक फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है और अब हम इस पर फिल्म बनाने जा रहे हैं.’’  

जब मीना कुमारी जिंदा थी, तब डॉ रतन प्रकाश ने मीना कुमारी के नाम का सहारा लेकर बॉलीवुड में बतौर लेखक स्थापित होने का असफल प्रयास किया. डॉ. रतन प्रकाश लिखित कहानी ‘फिर मिलेंगे’ मीना कुमारी को बहुत पसंद आयी थी. वह इस कहानी पर बनने वाली फिल्म में अभिनय भी करना चाहती थी, पर यह कभी हो ही नही पाया. मीना कुमारी की मौत के बाद 1985 में डॉ. रतन प्रकाश ने इस लंबी कहानी को ‘‘फिर मिलेंगे’’ नामक उपन्यास के रूप में प्रकाशित किया था और उपन्यास के कवर पेज पर मीना कुमारी की ही तस्वीर लगायी थी.

बहुत कम लोगों को पता होगा कि मीना कुमारी ने दिलीप कुमार के साथ ‘कोहिनूर’, ‘यहूदी’ और ‘आजाद’ सहित कई फिल्मों में अभिनय किया था, पर दिलीप कुमार के साथ मीना कुमारी के संबंध कुछ ऐसे थे कि मीना कुमारी ने हमेशा यही कहा कि वह दिलीप कुमार से परिचित ही नहीं है.

मीना कुमारी की साधना से भी कभी नहीं बनी. पर जब तक मीना कुमारी जिंदा रहीं, तब तक वह साधना के संबंध में पल-पल की खबर  रखती थीं.

अभिनय के क्षेत्र में सफलता की बुलंदियो को छू रही मीना कुमारी ने एक स्ट्रगल कर रहे निर्देशक कमाल अमरोही के साथ शादी क्यों की? यूं तो इस सवाल का सही जवाब तो मीना कुमारी की मौत के साथ ही दफन हो गया, मगर इस सवाल को मीना कुमारी की प्रशंसक और मीना कुमारी के जीवन पर आधारित म्यूजिकल नाटक ‘‘एक तन्हा चांद’’ की लेखक, निर्देशक व नाटक में मीना कुमारी का किरदार निभाने वाली  रूबी एस सैनी ने अपने नाटक में इस सवाल को बाखूबी उठाया है. वह कहती हैं- ‘‘नाटक में हमने इस बात को स्थापित किया है कि एक स्थापित अभिनेत्री का एक स्ट्रगल फिल्मकार कमाल अमरोही से शादी करने का फैसला प्यार पाने का सपना था. मगर कमाल उन्हें अपनी पत्नी के बदले एक सफल हीरोइन के रूप में देखते थे, जो उन्हें सफल निर्देशक बना सकती थी. कहा भी गया कि मीना साहिबान (पाकीजा) नहीं होती, तो कमाल अमरोही इतिहास के पन्नों में ही नहीं होते.’’

मीनाकुमारी ने बतौर अदाकारा फिल्मी दुनिया को बहुत कुछ दिया, पर इंडस्ट्री सहित हर किसी ने उन्हें सिर्फ अपने लाभ के लिए उपयोग किया. मीना कुमारी को उनके अपनो ने ही छोड़ दिया था. मीना कुमारी को शराब की जो लत लगी, उनके पर पुरूषों के साथ जो अफेयर थे, वह कहीं न कहीं फिल्मों के प्रति उनका पैशन, प्यार की भूख थी. वह अपना दर्द लोगों से बांटना चाहती थी, पर लोग उन्हें दर्द पर दर्द देते चले जा रहे थे.

कमाल अमरोही अक्सर मीना कुमारी की पिटायी किया करते थे. शायद यही वजह है कि एक जगह मीना कुमारी ने कमाल अमरोही के संबंध में लिखा था- ‘‘दिल सा जब साथी पाया, बेचैनी भी वह साथ ले आया.’’

वास्तव में एक पार्टी में जब पार्टी के आर्गेनाइजर ने लोगों से कमाल अमरोही का परिचय यह कह कर कराया कि यह हैं मीना कुमारी के पति और निर्देशक कमाल अमरोही. तो कमाल अमरोही को गुस्सा आ गया. कहा जाता है कि उसी दिन घर पहुंचते ही कमाल अमरोही ने गुस्से में मीना कुमारी को चांटा जड़ा था. उसके बाद कमाल अमरोही और मीना कुमारी दोनों एक साथ कभी किसी पार्टी में नहीं देखे गए. पर घर के अंदर मीना कुमारी की पीड़ा बढ़ती गयी.

इतना ही नहीं शादी के महज तीन साल बाद ही 1955 में फिल्म ‘‘परिणीता’’ के लिए मीना कुमारी को फिल्मफेअर पुरस्कार मिला था. कमाल अमरोही और मीना कुमारी अगल बगल की कुर्सियों पर बैठे हुए थे. मीना कुमारी स्टेज पर अवार्ड लेने गयीं और फिर वापस घर की तरफ रवाना हुई. मीना कुमारी अपनी सुनहरे रंग की पर्स कुर्सी पर भूल गयी थी, जिसे कमाल अमरोही ने नहीं उठाया, बल्कि अभिनेत्री निम्मी ने पर्स को उठाया और मीना कुमारी को लाकर दिया. तब मीना ने पूछा कि आपको मेरी पर्स नजर नहीं आयी थी? इस पर कमाल अमरोही ने कहा था- ‘‘मैने पर्स देखी थी, पर उठाया नहीं. आज मैं तुम्हारी पर्स उठाता, तो कल को तुम्हारे जूते उठाता.’’ उसके बाद ही कमाल व मीना कुमारी के संबंध बिगड़ने लगे थे. इस पर आग में घी का काम किया 1959 में मीना कुमारी के दिए इंटरव्यू ने. इस इंटरव्यू में मीना कुमारी ने कहा था- ‘‘हम किसी इंसान को उसके साथ कुछ समय बिताए बगैर सही मायनो में नहीं समझ सकते. यहां ऐसे लोग ज्यादा हैं, जो कि मेरी सफलता को पचा नहीं पा रहे हैं. इसलिए वह मेरी राहों में कांटे बो रहे हैं.’’

कमाल अमरोही के ही संदर्भ में मीना कुमारी ने लिखा था- ‘‘तुम क्या करोगे सुनकर मुझसे मेरी कहानी, बेलुत्फ जिंदगी के किस्से हैं फीके फीके..’’

इतना ही नहीं जब 1964 में कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को तलाक दिया, तब उन्होंने लिखा था- ‘‘तलाक तो दे रहे हो नजर ए कहर के साथ, जवानी भी मेरी लौटा दो मेहर के साथ.’’ 

कमाल अमरोही से तलाक हो जाने के बाद मीना कुमारी की जिंदगी में सावन कुमार टॉक, धर्मेंद्र और गुलजार जैसे लोग भी आए.

हर तरफ से परेशान मीना कुमारी की रातें की नींद गायब हो गयी थी. तब उनके निजी डॉक्टर डॉ. सईद तिमुर्जा ने उन्हें रात में सोने से पहले एक पैग ब्रांडी दवा की तरह लेने की सलाह दी थी. पर धीरे-धीरे मीना कुमारी ने ब्रांडी की पूरी बोटल पीनी शुरू कर दी थी. उन दिनों चर्चाएं होती थीं कि धर्मेंद्र भी जानकी कुटीर में मीना कुमारी के साथ बैठकर पीते थे.

माना जाता है कि कमाल अमरोही से तलाक के बाद मीना कुमारी के रिश्ते कई पुरूषों से रहे. मीना कुमारी हर बार उस पुरूष के साथ प्यार में इमानदार रही, मगर वह सभी पुरूष तो महज उसकी शोहरत और उसके धन का फयदा ही उठाते रहे. फिर वह दिन भी आ गया, जब मीना कुमारी उस इंसान को खाना, धन, शराब सहित सब कुछ देने को तैयार रहती हैं, जो उनकी कविताएं सुनने को तैयार रहता. गुलजार साहब तो अक्सर मीना कुमारी की गजलें, नज्म व कविताएं सुना करते थे. 

मीना कुमारी को गजल, नज्म और कविताएं लिखने का शौक था, वहीं उन्हें कार खरीदने का भी शौक था. उनके पास पहली कार मर्सडीज थी. 

मौत को गले लगाने से पहले मीना कुमारी अपनी गजल व नज्म की ढाई सौ डायरीयां गीतकार गुलजार के नाम वसीयत करके गयी हैं. यह सभी डायरीयां गुलजार साहब के पास है.

मीना कुमारी हमेशा कमाल अमरोही को चंदन के नाम से पुकारा करती थी, जबकि कमाल अमरोही, मीना कुमारी को मंजू कह कर बलाते थे.

जब मीना कुमारी की मौत हुई, उस वक्त उनके पास अस्पताल का बिल भरने के लिए पैसे ही नहीं थे.

रिवर्स मोर्गेज के बारे में जानते हैं आप?

भारत में व्यक्ति की औसत आयु पिछले वर्षों से लगातार बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ-साथ डायबटीज और ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियां भी अब आम हो चली हैं. ये बीमारियां लोगों को उनको उम्रदराज होने पर ज्यादा परेशान करती हैं. ऐसे में रिटायरमेंट के बाद पेंशन की पर्याप्त व्यवस्था के बाद भी कई बार बीमारियों के खर्च बुढ़ापे को कठिन बना देते हैं. ऐसी स्थिति में वरिष्ठ नागरिकों के लिए 2007 में सरकार की ओर से शुरू की गई रिवर्स मॉर्गेज स्कीम एक बेहतरीन विकल्प साबित हो सकता है.

रिवर्स मोर्गेज क्या है?

रिवर्स मॉर्गेज एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें वरिष्ठ नागरिक अपनी संपत्ति जैसे घर आदि सरकार के हवाले कर उसकी मौजूदा कीमत के आधार पर हर महीने या तिमाही में अपनी आय की व्यवस्था कर सकते हैं.

सरल भाषा में समझें तो रिवर्स मोर्गेज सामान्यत: होम लोन से विपरित होता है. इसमें वरिष्ठ नागरिक अपनी संपत्ति को कर्जदाता के (बैंक या कोई अन्य वित्तीय संस्थान) पास गिरवी रख देता है और इसके एवज में एक नियमित आय लेता रहता है. कर्ज लेने वाले वरिष्ठ नागरिक जब तक जीवित रहते हैं, तब तक इस घर में रहते हैं. लेकिन कर्ज संपत्ति की कुल कीमत या अधिकतम 20 साल तक के लिए ही मिलता है. रिवर्स मोर्गेज उन वरिष्ठ नागरिकों के लिए सहायक है, जिन्हें नियमित आय की जरूरत होती है और साथ ही जिनकी प्रॉपर्टी आसानी से बिक न रही हो.

ऐसे काम करता है रिवर्स मॉर्गेज

जब घर को गिरवी रखा जाता है तब बैंक इसकी कीमत का मूल्यांकन प्रॉपर्टी की मांग, मौजूदा समय में प्रॉपर्टी की कीमत और घर की हालत को देखते हुए तय करता है. इसके बाद बैंक कर्ज लेने वाले को लोन की राशि तय करके बताता है, जिसके बाद ब्याज व कीमतों में उतार-चढ़ाव को देखते हुए हर महीने भुगतान किया जाता है. इस मासिक भुगतान को रिवर्स ईएमआई भी कहा जाता है. यह कर्ज, संपत्तिधारक को एक निश्चित अवधि के लिए दिया जाता है. यह पेमेंट मासिक या तिमाही आधार पर किया जा सकता है. हर पेमेंट के बाद वरिष्ठ नागरिक की उस घर में हिस्सेदारी कम होती चली जाती है. लेकिन रहने का अधिकार कर्ज लेने वाले व्यक्ति को पूरे जीवन के लिए होता है.

रिवर्स मोर्गेज में इन बातों का रखें ख्याल

– घर की कुल कीमत का 60 फीसदी से ज्यादा लोन की राशि नहीं हो सकती.

– मोर्गेज की अधिकतम अवधि 15 वर्ष और न्यूनतम 10 वर्ष होती है. हालांकि कुछ बैंक 20 वर्षों की अधिकतम अवधि का भी विकल्प देते हैं.

– कर्जदाता को हर 5 साल के बाद प्रॉपर्टी का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए.

– यदि इस अवधि के दौरान वैल्यूएशन बढ़ जाती है तो कर्ज लेने वाले के पास लोन की राशि बढ़ाने का विकल्प होता है.

– रिवर्स मोर्गेज से मिली राशि आय नहीं है बल्कि लोन है. इसलिए इस पर कोई टैक्स नहीं लगाया जाता.

– रिवर्स मोर्गेज की ब्याज दरें फिक्स्ड या फ्लोटिंग होती हैं. यह दर बाजार में चल रही ब्याज दरों को ध्यान में रखकर तय की जाती हैं.

रिवर्स मोर्गेज से किसको फायदा?

– घर के मालिक की उम्र 60 वर्ष से ऊपर होनी चाहिए. अगर पत्नी को-एप्लीकैंट हैं तो उनकी आयु 58 वर्ष से ऊपर होनी चाहिए.

– सेल्फ एक्वायर्ड, सेल्फ ऑक्यूपाइड रेजीडेंशियल हाउस या फ्लैट भारत में होने चाहिए.

– प्रॉपर्टी विवादित न हो.

– प्रॉपर्टी 20 वर्ष से ज्यादा पुरानी नहीं होनी चाहिए.

– प्रॉपर्टी रहने वाले व्यक्तियों का स्थायी प्रथम एड्रेस होना चाहिए.

– रिवर्स मोर्गेज को कैसे करें सेटल

बॉलीवुड की इन अभिनेत्रियों को सरहद पार हुआ प्यार

कहा जाता है कि ‘प्यार का कोई मजहब नहीं होता हैं’, जिससे यह हो जाए वो उसके लिए खुदा बन जाता हैं. बॉलीवुड की फिल्में और बॉलीवुड के अभिनेता अकसर अपने प्यार के कारण सुर्खियों में बने रहते हैं.

बॉलीवुड की कई अभिनेत्रियों को प्यार सरहद पार पाकिस्तान में मिला है, जिसके कारण वह बेहद चर्चाओ में भी रही हैं. इस सूची में एक नया नाम तमन्ना भाटिया का हैं. तमन्ना भाटिया बॉलीवुड की बड़ी फिल्म बाहुबली में काम कर चुकी है. तमन्ना के आलावा बॉलीवुड की कई अभिनेत्रियाँ है, जिनका पाकिस्तान में साथ अफेयर रहा हैं.

रीना रॉय और मोहसीन खान

90 के शतक में पाकिस्तान के मशहुर क्रिकेटर मोहसीन खान और बॉलीवुड की अभिनेत्री रीना रॉय के अफेयर ने खूब सुर्खियों बटौरी थी, इसके बाद वर्ष 1983 में रीना रॉय ने शादी कर ली थी. हालांकि दोनों की शादी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकी और दोनों जल्द ही अलग-अलग हो गए थे.

अमृता अरोड़ा और उस्मान अफजल

पाकिस्तानी क्रिकेटर उस्मान अफजल और बॉलीवुड की अभिनेत्री अमृता अरोड़ा ने लम्बे समय तक एक दुसरे को डेट किया, इसके बाद 4 वर्षों तक रिलेशनशिप में रहने के बाद अमृता ने अफजल को छोड़कर शकील लदाक से शादी कर ली थीं

सुष्मिता सेन और वसीम अकरम

बॉलीवुड की अभिनेत्री और मिस यूनिवर्स रही सुष्मिता सेन के कई अफेयर्स रहे, जिसके बाद भी सुष्मिता ने आज तक शादी नहीं की. पाकिस्तान के पूर्व दिग्गज गेंदबाज वसीम अकरम और सुष्मिता सेन के रिश्ते ने खूब सुर्खिया बटौरी है, हालांकि दोनों का रिश्ता ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह पाया.

सोनाली बेंद्रे और शोएब अख्तर

पाकिस्तानी के पूर्व तूफानी गेंदबाज शोएब अख्तर और सोनाली बेंद्रे का रिलेशनशिप भी कुछ समय पहले सुर्खियों का विषय रहा. खबरों की माने तो अख्तर ने एक बार तो यह भी कहा था, कि बेंद्रे ने अगर उनके प्रपोजल को ठुकराया, तो वह उनका अपहरण कर लेंगे. हालांकि यह सिर्फ एक तरह अफवाह ही साबित हुई थी.

तमन्ना भाटिया और अब्दुल रज्जाक

अभी हाल ही में इस सूची में एक नया नाम जुड़ गया है. खबर है की तमन्ना भाटिया आजकल पाकिस्तान के दिग्गज पूर्व आल-राउंडर क्रिकेटर अब्दुल रज्जाक के साथ रिश्ते में हैं, दोनों को कई बार एक साथ भी देखा गया है, जिसके कारण तमन्ना सुर्खियों में बनी हुई हैं. हाल ही में तमन्ना और रज्जाक को दुबई में एक ज्वेलरी की दूकान पर देखा गया था.

कल से बदल जाएंगे ये नियम

मार्च का महीना यानि की चिंताओं का महाने. आईटीआर फाइल करने से लेकर कई और काम इस महीने निपटाने होते हैं. आज मार्च के महीने का आखिरी दिन है और आज टैक्स रिटर्न फाइल करने की आखिरी तारीख भी है. पर मार्च से ज्यादा आने वाले दिनों में परेशानियां बढ़ने वाली हैं क्योंकि कल से बहुत सारे नियम और कानून बदलने वाले हैं.

कुछ बातें जान लेना जरूरी है. 1 अप्रैल 2017 के बाद प्रारंभ होने वाले नए वित्त वर्ष से आयकर व वित्तीय लेनदेन में कई बदलाव हो रहे है. आपके लिए इन बदलावों के बारे में जानना बेहद जरूरी है-

1. जलाई 2017 तक पैन को आधार से लिंक करना आनिवार्य हो गया है व नए पैन के लिए भी आवेदन पर आधार अनिवार्य कर दिया गया है. साथ ही रिर्टन पर भी आधार नम्बर लिखना अनिवार्य हो गया है .

2. अब जुलाई 2017 के बाद बाजार में नगद लेनदेन सिर्फ 2 लाख रूपये तक ही किया जा सकता है. 2 लाख से अधिक नगद लेने-देन पाये जाने पर 100% जुर्माना लगाया जाएगा.

3. 87 A के अंतर्गत टेक्स आयकर रिबेट 3 लाख 50 हजार तक की आय पर 2500 कर दी गयी है. पहले यह 5 लाख तक की आय पर 5000 थी.

4. आयकर के स्लैब में आंशिक परिवर्तन कर दिया गया है, अब 5 लाख तक की आय पर 5 % की दर से आयकर देना होगा. उसके बाद 20% की दर यथावत है.

5. संपत्ति बेचने से अर्जित आय को लॉन्ग टर्म केपिटल गेन मानी जाता है, यह अवधि 3 वर्ष से घटाकर 2 वर्ष कर दी गयी है. इसका मतलब है कि अगर किसी अचल संपत्ति को खरीद कर 2 वर्ष से कम समय में बेचा जाता है, तो अर्जित आय पर आप की आयकर स्लैब अनुसार कर देना होगा. लेकिन अगर संपत्ति 2 वर्ष के बाद बेची जाती है तो अर्जित आय से महंगाई वृद्धि दर घटाकर सिर्फ 20% कर देना होगा, टेक्स स्लैब के अनुसार गणना नहीं होगी.

6. राजीव गांधी इक्विटी सेविंग में पहली बार निवेश करने पर आयकर में छूट नहीं मिलेगी. पहले इसमें छूट मिलती थी.

7. 31 दिसम्बर तक आयकर रिटर्न जमा करने पर 5 हजार का जुर्माना लगाया जाएगा और उसके बाद रिटर्न जमा करने पर 10 हजार का जुर्माना लगाया जायेगा. यह नियम 5 लाख से अधिक आय वालों के लिए लागु होगा. 5 लाख तक की आय वालों को 1 हजार रुपए जुर्माना देना होगा.

8. 5 लाख तक की आय वर्ग के लोगों के लिए 1 पेज का सरल आयकर रिर्टन फार्म लागु किया जाएगा.

9.  टेक्स रिटर्न के रिविजन की सीमा 2 वर्ष से घटाकर 1 वर्ष कर दी गयी है. सिर्फ  वर्ष पहले का ही रिविजन फाइल किया जा सकेगा. अब कोई व्यक्ति सिर्फ 1 वर्ष की ही आयकर फाइल बना सकता है.

10. आयकर में गड़बड़ी पाये जाने पर 10 वर्ष तक की आय की जांच करने का अधिकार आयकर विभाग को दिया जायेगा. पहले 5 वर्ष तक की आय की ही जांच हो पाती थी.

11. सभी अप्रत्यक्षय करों के स्थान पर एक देश एक कर का सिद्धान्त लागु किया जा रहा है और जीएसटी इसी वित्त वर्ष से लागू किया जाएगा.

12. बैंकों से निकासी- जमा और एटीएम द्वारा निकासी की सीमा तय कर दी गयी है. सिमा से अधिक पर शुल्क और सर्विस चार्ज लगाया जाएगा.

इन सब के अलावा, भारतीय स्टेट बैंक समूह ने भी एटीएम निकासी से कुछ नियम जारी कि हैं-
1. अब 1 महीने में सिर्फ 3 बार निःशुल्क पैसे जमा किए जा सकेंगे. उसके बाद प्रत्येक जमा पर 50 रुपए शुल्क और सर्विस चार्ज देना होगा.

2. एक दिन में अधितम 50 हजार नगद जमा किया जा सकेगा. न्यूनतम शुल्क 95 रुपए है, इसका मतलब है कि यदी आप 53000 जमा करते हैं तो 102.50 शुल्क लगेगा देना होगा.

3. बचत खातों के न्यूनतम बैंलेंस की सीमा भी बढ़ा दी गयी है. अगर आपका बैंक अकाउंट महानगरों में है तो 5000, अन्य शहरों में है तो 3000 ,अर्ध शहरी क्षेत्र में है तो 2000 और ग्रामीण क्षेत्र में है तो 1000 रुपए रखना अनिवार्य है.

4. एटीएम से कैश निकालने के लिए 1 माह में 5 निकासी निशुल्क रहेगी और उनके बाद प्रत्येक निकासी पर 10 रुपये शुल्क लगेगा, महीने में औसत 25 हजार रुपए रखने वाले ग्राहक के लिए एसबीआई एटीएम से निकासी की कोई सीमा नहीं है. 1 लाख औसत बेलेंस रखने वाला ग्राहक अन्य बैंक के ATM से भी असीमित निकासी कर सकते हैं.

अब देखने वाली बात यह होगी की आम जनता इन नियमों पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं. 

कविताओं पर परफार्म करते करते अभिनेता बन गया : दर्शन कुमार

‘मैरी कॉम’, ‘एन एच 10’ और ‘सरबजीत’ जैसी फिल्मों में विविधतापूर्ण किरदार निभा चुके तथा शीघ्र प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘मिर्जा जूलिएट’’ में मिर्जा की मुख्य भूमिका निभा रहे अभिनेता दर्शन कुमार की अभिनय जगत में अपनी एक अलग पहचान है. उन्होंने  लगभग पंद्रह वर्षों तक थिएटर से जुड़े रहकर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी ख्याति अर्जित की है.

मजेदार बात ये है कि गैर-फिल्मी व गैर-कला परिवार से संबंध रखने वाले दर्शन कुमार जब पांचवी कक्षा में पढ़ते थे, तब से कविताएं लिखना और अपनी लिखी हुई कविताओं पर परफार्म करना शुरू कर दिया था. जी हां! हाल में एक खास मुलाकात के दौरान ‘‘सरिता’’ पत्रिका से एक्सक्लूसिव बात करते हुए दर्शन कुमार ने बताया- ‘‘मैं जब पांचवीं में पढ़ता था, तब से कविताएं लिखता रहा हूं. मैं अपनी लिखी कविताओं पर परफार्म किया करता था. मुझे परफार्मेंस के दौरान काफी अवार्ड भी मिले. मुझसे कहा गया था कि इसे गंभीरता से लो, तभी ही मैंने ‘एक्ट वन’ ग्रुप ज्वॉइन किया था. थिएटर का मेरा अनुभव यह है कि मैंने सबसे पहले दिल्ली में एन के शर्मा का ‘एक्ट वन’ ग्रुप ज्वॉइन किया था, जो कि बहुत कठिन टास्क मास्टर माने जाते हैं. ‘एक्ट वन’ का रिकार्ड है कि एक माह के अंदर किसी भी कलाकार को मुख्य किरदार निभाने का अवसर नहीं मिला. मगर मुझे एक माह के अंदर ही नाटक में मेन लीड या मुख्य किरदार करने का अवसर मिल गया था. एन के शर्मा जी बहुत खतरनाक ट्रेनिंग कराते हैं. पूरी तरह से संतुष्ट होने पर ही वे किसी कलाकार को मुख्य किरदार के लिए चुनते हैं, जो अवकर मुझे मिला. मैं उसकी आज तक प्रशंसा करता हूं.’’

जब हमने उनसे पूछा कि आप किस तरह से कविताएं लिखते और प्रस्तुत करते थे, तो इस सवाल के जवाब में दर्शन कुमार ने कहा कि- ‘‘मैं कविताएं लिखता था, फिर उन्हें नाटक के रूप में प्रस्तुत करता था. मैं कभी पंछी तो कभी किताब बनता था और ये सब मोनो लॉग होती थी. यह मेरे लिए एक अनूठा प्रयास था. 12वीं कक्षा तक मैं इस तरह से करता रहा और कालेज पहुंचने के बाद मैं थिएटर से जुड़ गया.’’

कालेज पहुंचने के बाद से दर्शन थिएटर में व्यस्त हो गए. अब दर्शन कुमार कविताएं भले न लिख रहे हों, पर उन्होंने लिखना बंद नही किया है. वे कहते हैं कि- ‘‘देखिए, कविताएं लिखने का अर्थ यह था कि मैं अपने मन के विचारों को शब्दों में कैद कर दूं. उस वक्त मैं बच्चा था, तो कहानी वगैरह कुछ बड़ा लिख नहीं पाता था, पर अब मेरे मन में जो विचार, जो कहानी आती है, उसे मैं लिखता रहता हूं. मैंने एक फिल्म की पटकथा भी लिख डाली है और इन दिनों मैं एक दूसरी फिल्म की पटकथा भी लिख रहा हूं. अब मेरी कविताओं की बजाय फिल्म पटकथा लेखन में रूचि हो गयी है.’’

लेखन करने वाले लोगों में पढ़ने की भी रूचि होती है. जब हमने उनसे सवाल किया कि ‘आप क्या पढ़ना पसंद करते हैं?’ तो इस पर दर्शन कुमार ने कहा- ‘‘मैं कहानियां बहुत पढ़ता हूं. मुझे ‘इस्मिता चुगताइ’ की कहानियां पढ़ना बहुत पसंद है. मंटो की कहानियां भी बहुत पसंद है. इसके अलावा भी मैं कई लेखकों की कहानियां पढ़ता रहता हूं. नये लेखकों को भी पढ़ता हूं. इससे मेरा अपना खुद का ज्ञानवर्धन होता है. मैं कई अंतर्राष्ट्रीय नाटक भी पढ़ता हूं. मसलन अभी-अभी मैंने ‘सेम टाइम नेक्स्ट ईअर’ नामक अंतर्राष्ट्रीय नाटक को पढ़ा है और इसे मैं परफार्म भी करने वाला हूं. ये एक बहुत खूबसूरत नाटक है.’’

इस तरह हटाएं ट्रूकॉलर ऐप से अपनी पहचान

आपके स्मार्टफोन में मौजूद सारी स्मार्ट्स ऐप आपकी पहचान को चुटकियों में सार्वजनिक कर देने में सक्षम होती हैं और ये बात आपको पता ही नहीं चलती. एक ऐसा ही ऐप है, ‘ट्रूकॉलर ऐप’, जिससे लगभग सारे स्मार्टफोन उपयोगकर्ता परिचित ही होते हैं.

ये ऐप वही ऐप है जो अनजान नंबर की पहचान चुटकियों में आपको बता देता है. ट्रूकॉलर ऐप अपने सभी यूजर्स के स्मार्टफोन की एड्रेस बुक या जानकारी पर पहुंच कर आपकी कॉन्‍टेक्ट से संबंधित जानकारी तैयार करता है. अगर आपने कभी इस ऐप का इस्तेमाल नहीं भी किया हो, तब भी आपका नाम और नंबर ट्रूकॉलर के डेसाबेस या सूची में मौजूद हो सकता है.

ये ऐसे होता है कि अगर आपके दोस्त या किसी परिचित के पास आपका नंबर है और फोन में सेव किया हुआ है. अगर उसने अपने फोन में इस ऐप को अपनी जानकारियों को एक्सेस करने की इजाजत दी है, तो आपका नाम भी ट्रूकॉलर पर नजर आने लगता है.

अगर आप चाहते हैं कि आपकी डिटेल ट्रूकॉलर के डेटाबेस पर ना नजर आए, तो इसके लिए आपको बस थोड़ी सी मेहनत करनी होगी…

1. अगर आपका फोन एंड्रायड है, तो इस ऐप को खोलें, ऊपर की तरफ लेफ्ट साइड पर मौजूद पीपल आइकन पर जाकर क्लिक करें. अब सेटिंग्स में अबाउट (About) पर जाएं और डीएक्टीवेट अकाउंट ऑप्शन पर जाकर अपना अकाउंट डिक्टीवेट कर दें.

2. अगर आपका फोन आई-फोन है, तो इस ऐप को खोलें और टॉप में राइट साइड की तरफ मौजूद बन गियर आइकन पर क्लिक कर, अबाउट ट्रूकॉलर साइन पर जाकर अपना अकाउंट डिएक्टीवेट कर दें.

3. अगर आपका फोन विंडोज फोन है, तो ट्रूकॉलर ऐप पर जाकर आपको नीचे की तरफ राइट साइड में दिख रहे तीन डॉट वाले आइकन पर टैप करना है और फिर से‌टिंग में जाकर अपना आकाउंट डीएक्टिवेट करना है.

4. ट्रूकॉलर अकाउंट को बंद करने के लिए आप सर्विसेज से अपने नंबर को हटा सकते हैं. नंबर हटाने के लिए ट्रूकॉलर के अनलिस्ट पेज पर जाकर अपने देश के कोड के साथ अपना नंबर डालें. यहां अनलिस्ट करने के लिए विकल्प चुनकर कारण बताएं, वेरिफिकेशन के लिए दिया गया कैप्चा डालें और अनलिस्ट पर किल्क कर दें.

इस ट्रूकॉलर ऐप के मुताबिक ऐसा करने के अनलिस्ट रिक्वेस्ट मिलने के 24 घंटे के बाद आपके नंबर को वहां से हटा दिया जाता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आपका नंबर हमेशा इस सर्विस में मौजूद नहीं रहेगा. आपको दोबारा इन तरीकों को इस्तेमाल करने की जरुरत पड़ सकती है.

अब कांग्रेस बनाएगी अपनी आरएसएस

असलम शेर खान हाकी के जाने माने खिलाड़ी रहे हैं, जिन्हें कांग्रेस ने अपने सुनहरे वक्त में पार्टी में भर्ती कर लिया था. मकसद मुसलमानों को अपने पाले में बनाए रखना था. भोपाल के इस कांग्रेसी खिलाड़ी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जगह दी गई थी, लेकिन असलम जमीनी नेता साबित नहीं हो पाये और धीरे धीरे वे भी सैकड़ों कांग्रेसी नेताओं की तरह गुजरे कल का अफसाना बन कर रह गए.

उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस दुर्गति का शिकार हुई तो उन नेताओं को नए नए आइडिये सूझ रहे हैं जो किसी वजह से दूसरी पार्टी में नहीं जा पा रहे, असलम उनमे से एक हैं. बगैर यूरेका यूरेका चिल्लाये उन्होंने कुछ मीडियाकर्मियों को बुलाया और कांग्रेसी आरएसएस बनाने का एलान कर डाला. बड़ी संजीदगी से उन्होंने बताया कि उनका आरएसएस भी गैर राजनैतिक मंच होगा और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की मदद करेगा. हाल फिलहाल यह मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में ही काम करेगा बगैरह बगैरह.

दूसरी दिलचस्पी की बात उन्होंने यह बताई कि अभी इस कांग्रेसी आरएसएस के बाबत उन्होंने सोनिया राहुल से इजाजत नहीं ली है. असलम शेर खान पर तरस खाने की यह एक पर्याप्त वजह है. जो आरएसएस के माने नहीं समझते कि उसमे और कांग्रेस में बस दिखावे का फर्क है और कांग्रेसी दुर्दशा की वजह भाजपाई आरएसएस नहीं बल्कि वह कांग्रेसी आरएसएस ही है जिसके गठन की कभी विधिवत या औपचारिक घोषणा नहीं हुई.

इस विचार धारा को दुनिया भर में गांधीवाद के नाम से जाना जाता है. यह कांग्रेस की हार नहीं हो रही बल्कि गांधीवाद को समझने की शुरुआत हो रही है. नरेंद्र मोदी ने तो इसकी प्रस्तावना भर लिखी है, उपसंहार तक आते आते तो जाने कितने मंदिर मस्जिद बनेंगे टूटेंगे और मौजूदा दौर के कथित हिंदूवादी जाने कितना विध्वंस कराएंगे.  इस संभावित बरबादी के लिए अब किसी नए आरएसएस की जरूरत नहीं है और न ही वह किसी असलम या अनिल से बनने वाली, हां सत्ता की वासना अगर यह है तो दिल को बहलाने ख्याल बुरा नहीं है. वैसे भी 10 जनपथ और नागपुर में कोई फर्क करने लायक है नहीं. 

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