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कार्ड से भुगतान के दौरान रखें सावधानियां

नोटबंदी के बाद से डेबिट या क्रेडिट कार्ड से भुगतान का चलन ज्यादा बढ़ा है. पेट्रोल पम्प से लेकर किराना दुकानों तक सभी पर प्वाइंट्स ऑफ सेल यानी पीओएस मशीनों के साथ ही टर्मिनल उपलब्ध हैं और कार्ड स्वैपिंग के जरिये भुगतान लिया जा रहा है. टर्मिनल खासतौर पर क्रेडिट कार्ड से भुगतान करने में काम आते हैं.

हालांकी, इन मशीनों से भुगतान करते समय ग्राहक को अतिरिक्त सावधान रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि हो सकता है कि कार्ड स्वैप करते ही आपकी तमाम जानकारी चोरी कर ली जाए और आपको बड़ा नुकसान हो जाए. बड़ी संख्या में लोग इस तरह के अपराध का शिकार भी हो चुके हैं.

ऐसे में यह जानना जरूरी है कि पीओएस मशीनों और टर्मिनल से भुगतान करते समय कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए.

1. टर्मिनल आकार

हाल ही में क्रेडिट कार्ड टर्मिनल बनाने वाली कंपनी Ingenico ने एक गाइडलाइन जारी की है. इसमें बताया गया है कि यदि टर्मिनल आकार में सामान्य से थोड़ा भी बड़ा नजर आए तो समझ जाएं कि आपके कार्ड में कुछ गलती है.

2. सामान्य टर्मिनल

सामान्य टर्मिनल में कार्ड का कुछ हिस्सा बाहर नजर आता है, और यदि पूरा कार्ड ही अंदर चला जाए तो समझें कि धोखाधड़ी की साजिश हो रही है.

3. टर्मिनल बटन

कार्ड स्वैप करते समय यदि टर्मिनल के बटन हाईलाइट नहीं हो रहे हैं तो भी सावधान रहने की जरूरत है.

4. पीओएस मशीन

पीओएस मशीन से भुगतान करते समय सावधान रहें कि आपका कार्ड लेकर सेल्सपर्सन आपसे दूर न जाए. हो सकता है कि वह आपसे नजर बचाकर कार्ड की डिटेल्स चोरी करने की कोशिश कर रहा हो.

5. चिप-इनेबल्ड कार्ड रीडर्स

ऐसे रिटेलर के यहां से शॉपिंग करें, जिनके यहां चिप-इनेबल्ड कार्ड रीडर्स हैं. यदि इसको अनिवार्य किया जाता है तो धोखाधड़ी को रोका जा सकेगा.

6. ब्लैंक रिसिप्ट

पीओएस मशीन से निकलने वाली ब्लैंक रिसिप्ट पर कभी साइन न करें. इससे भी किसी तरह की जानकारी चोरी की आशंका होती है तो तुरंत अपने बैंक से संपर्क करें.

कैप्टन कूल तैयार करेंगे गोल्ड मैडलिस्ट

भारतीय क्रिकेट के दिग्गज खिलाड़ी और ‘कैप्टन कूल’ के नाम से मशहूर महेंद्र सिंह धोनी मैदान पर चौके-छक्के लगाने के बाद अब चौक-छक्के लगाने वाले और गोल्ड मैडल जीतने वाले खिलाड़ियों को तैयार करेंगे. धोनी ने अपने कई साल पुराने सपने को जमीन पर उतारने के लिए कमर कस ली है. वह झारखंड की राजधनी रांची में इंटरनेशनल लेवल की स्पोटर्स यूनिवर्सिटी खोलने की तैयारियों में लग गए हैं. इस संबंध में उन्होंने एक विस्तृत प्रस्ताव तैयार कर झारखंड सरकार को सौंप दिया है. खास बात यह है कि राज्य सरकार में इसमें बढ़-चढ़ कर दिलचस्पी दिखने लगी है.

अपने खत्म होते क्रिकेट कैरियर को देखते हुए धोनी ने स्पोटर्स यूनिवर्सिटी खोलने के साथ-साथ स्पोटर्स शू बनाने की फैक्ट्री लगाने की भी कवायद में लग गए हैं. टवेंटी-टवेंटी, वन डे और टेस्ट क्रिकेट की कप्तानी छोड़ने के बाद ‘हेलीकौप्टर शाट’ लगाने के लिए मशहूर धोनी ने अब कारोबार में बड़ा शाट लगाने की कोशिशों में लगे हुए हैं. क्रिकेटर से कारोबारी बनने के धोनी की राह को झारखंड सरकार आसान बनाने में लग गई है. पिछले 20 मार्च को रांची के हरमू इलाके में धोनी के घर पर उद्योग और खेल विभाग के अफसरों को जुटान हुआ था. सभी ने धोनी के प्रस्ताव पर चरचा की और हर मुमकिन मदद करने का भरोसा दिलाया. राज्य के मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव ने इस प्रस्ताव को पहले ही हरी झंडी दे दी है.

स्पोटर्स यूनिवर्सिटी बना कर धोनी खिलाड़ियों को इंटरनेशनल लेवल की ट्रेनिंग देना चाहते हैं. वहां हर खेल के खिलाड़ियों को तराशने का काम होगा. धोनी का सपना है कि उनके यूनिवर्सिटी में खिलाड़ियों को इस तरह से तराशा जाए जो हर ओलंपिक में कम से कम 10 गोल्ड मेडेल जीत सके. क्रिकेट के साथ हौकी, बैडमिंटन, फुटबौल, लौन टेनिस, टेबल टेनिस, कुश्ती, तैराकी, जिमनास्टिक से लेकर कबड्डी जैसे खेलों की भी ट्रेनिंग दी जाएगी. धोनी कई बार यह कहते रहे हैं कि इंटरनेशनल लेवल की ट्रेनिंग नहीं मिल पाने की वजह से ओलंपिंक और कई इंटरनेशनल लेवल की खेल प्रतियोगिताओं में भारत के खिलाड़ी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं.

साल 2009 में पद्मश्री और साल 2008 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजे जा चुके धोनी ने स्पोटर्स यूनिवर्सिटी के लिए झारखंड सरकार से 175 एकड़ जमीन की मांग की है. उद्योग विभाग ने रांची के खूंटी इलाके के आसपास की जमीन धोनी को दिखाई है.

खेल यूनिवर्सिटी के काम-काज के तौर-तरीकों को देखने और समझने के लिए धोनी पिछले दिनों क्रिकेटर बीरेंद्र सहवाग के खेल अकादमी गए थे. हरियाणा के झज्जर में सहवाग की खेल अकादमी है. धोनी ने पूरा एक दिन खेल अकादमी में गुजारा. इसके बाद उन्होंने सहवाग इंटरनेशनल स्कूल का भी मुआयना किया. धोनी के करीबी बताते हैं कि वह पिछले 3-4 सालों से स्पोटर्स यूनिवर्सिटी खोलने के बारे में सोच रहे थे, पर क्रिकेट की व्यस्ताओं की वजह से उन्हें समय नहीं मिल पा रहा था. पिछले कुछ सालों के दौरान वह चीन, अमेरिका, कोरिया आदि के कई स्पोटर्स यूनिवर्सिटी का मुआयना करते रहे हैं.

70 टेस्ट मैच में 4876, 285 वन डे मैच में 9250, 74 ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच में 1157 और फर्स्ट क्लास के 131 मैचों में 7038 रन बनाने वाले धोनी का जन्म 7 जुलाई 1981 को रांची में ही हुआ था. सचिन तेंदुलकर को अपना गुरू मानने वाले धोनी अमिताभ बच्चन और लता मंगेशकर के फैन हैं. साल 2004 में भारतीय  क्रिकेट टीम में शामिल होने के बाद धोनी आपनी आक्रमक वैटिंग और उम्दा विकेटकीपिंग के दम पर देखते-देखते ही विश्व क्रिकेट पर छा गए. अब स्पोटर्स यूनिवर्सिटी तैयार कर वह इंटरनेशनल लेवल के खिलाड़ी तैयार करेंगे. उम्मीद ही नहीं पूरा भरोसा है कि धोनी भारतीय खिलाड़ियों में गोल्ड मैडल जीतने का जज्बा और कूबत पैदा कर सकेंगे और ओलंपिंक खेलों में भारत के गोल्ड मैडल जीतने का टोटा खत्म हो सकेगा!

करोड़ों के नाटक, हजारों के टिकट और शो हाउसफुल

के आसिफ ने जब 1960 में 'मुगल-ए-आजम' फिल्म बनाई तब उसका बजट 1.5 करोड़ था. रिचर्ड एटनबरा की फिल्म गांधी का बजट 2.2 करोड़ अमरीकी डॉलर था. अभी कुछ हफ्ते पहले रिलीज हुई हॉलीवुड की फिल्म 'ब्यूटी एंड द बीस्ट' का बजट 16 करोड़ अमरीकी डॉलर था. इन तीनों फिल्मों में एक समानता है. ये तीनों विषय मंच पर म्यूज़िकल नाटक के रूप में प्रस्तुत हो चुके हैं. इन म्यूजिकल नाटकों का बजट एक करोड़ से लेकर करीबन 3.5 करोड़ तक पहुंचा है. जो नाटक इतने बड़े बजट में बने हैं उनके टिकट भी महंगे बिके. 'मुगल-ए-आजम' के टिकट 500 से शुरू हो कर 7,500 रुपए तक बिके. और इसके सारे शो हाउसफुल हुए हैं.

हेड-लाइव एंटरटेनमेंट डिज्नी इंडिया और 'ब्यूटी एंड द बीस्ट' नाटक के निर्देशक विक्रांथ पवार का कहना है, "इतने बड़े नाटक को बनाने का प्रॉसेस जटिल होता है. इस प्रोडक्शन में एक साथ 80 लोग मंच पर परफॉर्म कर रहे थे. पूरे शो के लिए 200 लोग काम कर रहे थे. लाइव एंटरटेनमेंट के विकल्प वैसे भी कम हैं और लोग उन्हें देखना पसंद करते हैं."

अभिनेता बोमन इरानी 'गांधी-द म्यूजिकल' के साथे जुड़े हैं. उनका कहना है, "लोग न्यूयॉर्क में ब्रॉड-वे देखने के लिए अगर पैसा खर्च करते हैं तो अपने देश के बड़े प्रोडक्शन्स क्यों नहीं देखेंगे? पश्चिम से तुलना करें तो हमारे यहां तो ऐसे बड़े म्यूजिकल्स के लिए जगहों के विकल्प भी कम हैं. ऐसे में तीन बड़े म्यूजिकल बनना कतई छोटी बात नहीं है. भारतीय विषयों और संगीत से बनते ये म्यूजिकल्स दर्शक पसंद कर रहे हैं."

नीपा जोशीपुरा को जब 'मुगल-ए-आजम' नाटक देखना था तब टिकट की कीमत देख सोच में तो पड़ी थीं, लेकिन आखिरकार उन्होंने टिकट खरीद ही लिया. उन्होंने कहा, "ऐसे नाटक बार-बार नहीं आते. संगीत, नृत्य और नाट्य तीनों का इतना अच्छा मेल देखना है तो फिर पैसों के बारे में क्यूं सोचना! आप पूरा समय उस विषय के माहौल में रहते हैं. प्रोडक्शन में कहीं समझौता नहीं किया गया. मुझे ये 'लार्जर दैन लाइफ' अनुभव लगा." सिली पॉइंट प्रोडक्शन के 'गांधी द म्यूजिकल' में 15 नए गाने हैं और क्रू को मिला कर 60 लोग इसे प्रस्तुत करते हैं.

एक फोटो के चलते एक्ट्रेस बन गई गांव की ये लड़की

बॉलीवुड एक्ट्रेस और मॉडल सारा गुरपाल एक कार्यक्रम के सिलसिले में चंडीगढ़ पहुंचीं. इस दौरान उन्होंने मॉडलिंग में आने के पीछे की कहानी शेयर की. बताया कैसे हरियाणा के रतिया गांव की लड़की एक फोटोग्राफर के चलते मॉडल बनी और फिर एक्ट्रेस. बॉलीवुड मूवी 'ड्रामा क्वीन' एक्ट्रेस सारा ने बताया कि एक बार वो कॉलेज परफॉर्मेंस की तैयारी में स्टेज के पीछे बिजी थी, तभी फोटोग्राफर ने लाइट चेक करने के लिए बुलाया. इस दौरान सारा की कुछ फोटोज खींची, जो बेहतरीन थीं. फिर उन्होंने फोटोग्राफर के कहने पर अपना फोटोशूट कराया. इस इंसीडेंट के बाद से सारा को कॉन्फिडेंस आया और उन्होंने ब्यूटी कॉन्टेस्ट में अप्लाई किया और विनर भी बनीं. बाद में सारा 2012 में मिस चंडीगढ़ भी बनीं.

फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई खत्म कर सारा ने सबसे पहले कॉमर्शियल्स और पंजाबी वीडियोज में काम करना स्टार्ट किया. इंडियन क्लासिकल डांस सीखने के दौरान वो यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ इंडियन थिएटर का भी हिस्सा रहीं. अपने 6 साल के करियर में ब्यूटी कॉन्टेस्ट जीतने के बाद उन्होंने ने अब तक कई म्यूजिक वीडियोज, कॉमर्शियल्स और एक्टिंग शूट में काम किया है.

सारा ने कहा कि मैं खुद को एक आर्टिस्ट के तौर पर देखती हूं न कि किसी मॉडल के रूप में. मैंने खुद को किसी एक जोनर में नहीं बांधा क्योंकि मुझे लगता है कि एक आर्टिस्ट को वर्सेटाइल होना चाहिए. उसे हर वो चीज करनी चाहिए जो उसका मन करता है. उन्होंने कहा कि मॉडलिंग और एक्टिंग दोनों ही फील्ड एक दूसरे से अलग हैं. काम करने के तरीके से लेकर बाकी सभी चीजों में. जैसे प्रोफेशनलिज्म, लोगों का बर्ताव, काम करने के तौर-तरीके और नजरिए तक का फर्क मिला. मॉडलिंग में कई बार न चाहते हुए भी कुछ ऐसी चीजें करनी पड़ जाती हैं जिनके बारे में सोचा नहीं होता. वहीं एंटरटेनमेंट की दुनिया में ऐसा नहीं है. अगर आप पॉजिटिव हैं.

पति परदेस में तो डर काहे का: भाग 2

इस बीच वह शरारती देवर सोनू को बुला लेती थी. स्कूल से आने के बाद दिव्या कभी चाची के घर आ जाती तो कभी अपने घर रह कर काम में मां का हाथ बंटाती. कभीकभी वह अपनी सहेलियों को ले कर मोना के घर आ जाती और उसे भी अपने साथ खिलाती. मोना पूरी तरह सोनू के प्यार में डूब चुकी थी. वह चाहती थी कि दिन ही नहीं बल्कि पूरी रात सोनू के साथ गुजारे.

शाम ढल चुकी थी. अंधेरे ने चारों ओर पंख पसारने शुरू कर दिए थे. दिव्या को उस की मां मंजू ने कहा, ‘‘जब चाची के पास जाए तो किताबें साथ ले जाना, वहीं पढ़ लेना.’’ दिव्या ने ऐसा ही किया.

दिव्या चाची के घर पहुंची तो दरवाजे के किवाड़ भिड़े हुए थे. वह धक्का मार कर अंदर चली गई. अंदर जब चाची दिखाई नहीं दी तो वह कमरे में चली गई. कमरे में अंदर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गई. वहां बेड पर सोनू और मोना निर्वस्त्र एकदूसरे से लिपटे पड़े थे. दिव्या इतनी भी अनजान नहीं थी कि कुछ समझ न सके. वह सब कुछ समझ कर बोली, ‘‘चाची, यह क्या गंदा काम कर रही हो?’’

दिव्या की आवाज सुनते ही सोनू पलंग से अपने कपड़े उठा कर बाहर भाग गया. मोना भी उठ कर साड़ी पहनने लगी. फिर मोना ने दिव्या को बांहों में भरते हुए पूछा, ‘‘दिव्या, तुम ने जो भी देखा, किसी से कहोगी तो नहीं?’’

‘‘जब चाचा घर वापस आएंगे तो उन्हें सब बता दूंगी.’’

‘‘तुम तो मेरी सहेली हो. नहीं तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी.’’ मोना ने दिव्या को बहलाना चाहा, लेकिन दिव्या ने खुद को मोना से अलग करते हुए कहा, ‘‘तुम गंदी हो, मेरी सहेली कैसे हो सकती हो?’’

‘‘मैं कान पकड़ती हूं, अब ऐसा गंदा काम नहीं करूंगी.’’ मोना ने कान पकड़ते हुए नाटकीय अंदाज में कहा.

‘‘कसम खाओ.’’ दिव्या बोली.

‘‘मैं अपनी सहेली की कसम खा कर कहती हूं बस.’’

‘‘चलो खेलते हैं.’’ इस सब को भूल कर दिव्या के बाल मन ने कहा तो मोना ने दिव्या को अपनी बांहों में भर कर चूम लिया, ‘‘कितनी प्यारी हो तुम.’’

26 दिसंबर, 2016 की अलसुबह गांव के कुछ लोगों ने गांव के ही गजेंद्र के खेत में 14 वर्षीय दिव्या की गर्दन कटी लाश पड़ी देखी तो गांव भर में शोर मच गया. आननफानन में यह खबर दिव्या के पिता ओमप्रकाश तक भी पहुंच गई. उस के घर में कोहराम मच गया. परिवार के सभी लोग रोतेबिलखते, जिन में मोना भी थी घटनास्थल पर जा पहुंचे. बेटी की लाश देख कर दिव्या की मां का तो रोरो कर बुरा हाल हो गया. किसी ने इस घटना की सूचना थाना गोंडा पुलिस को दे दी.

सूचना मिलते ही गोंडा थानाप्रभारी सुभाष यादव पुलिस टीम के साथ गांव पींजरी के लिए रवाना हो गए. तब तक घटनास्थल पर गांव के सैकड़ों लोग एकत्र हो चुके थे. थानाप्रभारी ने भीड़ को अलग हटा कर लाश देखी. तत्पश्चात उन्होंने इस हत्या की सूचना अपने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भी दे दी और प्रारंभिक काररवाई में लग गए.

थोड़ी देर में एसपी ग्रामीण संकल्प शर्मा और क्षेत्राधिकारी पंकज श्रीवास्तव भी पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर जा पहुंचे. लाश के मुआयने से पता चला कि दिव्या की हत्या उस खेत में नहीं की गई थी, क्योंकि लाश को वहां तक घसीट कर लाने के निशान साफ नजर आ रहे थे. मृत दिव्या के शरीर पर चाकुओं के कई घाव मौजूद थे.

जब जांच की गई तो जहां लाश पड़ी थी, वहां से 300 मीटर दूर पुलिस को डालचंद के खेत में हत्या करने के प्रमाण मिल गए. ढालचंद के खेत में लाल चूडि़यों के टुकड़े, कान का एक टौप्स, एक जोड़ी लेडीज चप्पल के साथ खून के निशान भी मिले.

जांच चल ही रही थी कि डौग एक्वायड के अलावा फोरेंसिक विभाग के प्रभारी के.के. मौर्य भी अपनी टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए.

घटनास्थल से बरामद कान के टौप्स और चप्पलें मृतका दिव्या की ही थीं. जबकि लाल चूडि़यों के टुकड़े उस के नहीं थे. इस से यह बात साफ हो गई कि दिव्या की हत्या में कोई औरत भी शामिल थी. डौग टीम में आई स्निफर डौग गुड्डी लाश और हत्यास्थल को सूंघने के बाद सीधी दिव्या के घर तक जा पहुंची. इस से अंदेशा हुआ कि दिव्या की हत्या में घर का कोई व्यक्ति शामिल रहा होगा.

पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में पंचनामा भर कर दिव्या की लाश को पोस्टमार्टम के लिए अलीगढ़ भिजवा दिया गया. पूछताछ में दिव्या के परिवार से किसी की दुश्मनी की बात सामने नहीं आई. अब सवाल यह था कि दिव्या की हत्या किसने और

किस मकसद के तहत की थी.

हत्या का यह मुकदमा उसी दिन थाना गोंडा में अज्ञात के खिलाफ भादंवि की धारा 302 के अंतर्गत दर्ज हो गया. पोस्टमार्टम के बाद उसी शाम दिव्या का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

दूसरे दिन थानाप्रभारी ने महिला सिपाहियों के साथ पींजरी गांव जा कर व्यापक तरीके से पूछताछ की. दिव्या की तीनों चाचियों से भी पूछताछ की गई. सुभाष यादव अपने स्तर पर पहले दिन ही दिव्या की हत्या की वजह के तथ्य जुटा चुके थे. बस मजबूत साक्ष्य हासिल कर के हत्यारों को पकड़ना बाकी था.

दिव्या की सब से छोटी चाची मोना से जब चूडि़यों के बारे में सवाल किया गया तो उस ने बताया कि वह चूड़ी नहीं पहनती, लेकिन जब तलाशी ली गई तो उस के बेड के पीछे से लाल चूडि़यां बरामद हो गईं, जो घटनास्थल पर मिले चूडि़यों के टुकड़ों से पूरी तरह मेल खा रही थीं. सुभाष यादव का इशारा पाते ही महिला पुलिस ने मोना को पकड़ कर जीप में बैठा लिया. पुलिस उसे थाने ले आई.

थाने में थानाप्रभारी सुभाष यादव को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी. मोना ने हत्या का पूरा सच खुद ही बयां कर दिया. सच सामने आते ही बिना देर किए गांव जा कर मोना के प्रेमी सोनू को भी गिरफ्तार कर लिया गया.

सोनू के अलावा नगला मोनी के रहने वाले मनीष को भी धर दबोचा गया. दोनों को थाने ला कर पूछताछ के बाद हवालात में डाल दिया गया. दिव्या हत्याकांड के खुलासे की सूचना एसपी ग्रामीण संकल्प शर्मा और सीओ इगलास पंकज श्रीवास्तव को दे दी गई.

दोनों अधिकारियों ने थाना गोंडा पहुंच कर थानाप्रभारी सुभाष यादव को शाबासी देने के साथ अभियुक्तों से खुद भी पूछताछ की.

पूछताछ में मोना के साथ उस के प्रेमी सोनू व उस के दोस्त ने जो कुछ बताया वह कुछ इस तरह था-

दिव्या ने सोनू को मोना के साथ शारीरिक संबंध बनाते देख लिया था. उस ने चाचा के घर लौटने पर उसे सब कुछ सचसच बता देने की बात भी कही थी. उस समय बात खत्म जरूर हो गई थी. फिर भी डर यही था कि बाल बुद्धि की दिव्या ने अगर यह बात जयकिंदर को बता दी तो उस का क्या हश्र होगा, इसी से चिंतित मोना व सोनू ने योजना बनाई कि जयकिंदर के आने से पहले दिव्या की हत्या कर दी जाए.

दिव्या हर रोज मोना के साथ ही सोती थी और अलसुबह चाची के साथ दौड़ लगाने जाती थी. कभीकभी वह दौड़ने के लिए वहीं रुक जाती थीं. जब कि मोना अकेली लौट आती थी. दिव्या को दौड़ का शौक था, ये बात घर के सभी लोग जानते थे. इसी लिए हत्या में मोना का हाथ होने की संभावना नहीं मानी जाएगी, यह सोच कर मोना ने सोनू के साथ योजना बना डाली, जिस में सोनू ने दूसरे गांव के रहने वाले अपने दोस्त मनीष को भी शामिल कर लिया.

26 दिसंबर को सोनू व मनीष पहले ही वहां पहुंच गए. मोना दिव्या को ले कर जब डालचंद के खेत के पास पहुंची तो घात में बैठे सोनू और मनीष ने दिव्या को दबोच कर चाकुओं से वार करने शुरू कर दिए. दिव्या ने बचने के लिए मोना का हाथ पकड़ा, जिस से उस के हाथ से 2 चूडि़यां टूट कर वहां गिर गईं. हत्यारे उसे खींच कर खेत में ले गए, जहां गर्दन काट कर उस की हत्या कर डाली. इसी छीनाझपटी में दिव्या के कान का एक टौप्स भी गिर गया था और चप्पलें भी पैरों से निकल गई थीं.

दिव्या की हत्या के बाद ये लोग लाश को खींचते हुए लगभग 300 मीटर दूर गजेंद्र के खेत में ले गए. इस के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए.

हत्यारा कितना भी चतुर हो फिर भी कोई न कोई सुबूत छोड़ ही जाता है. जो पुलिस के लिए जांच की अहम कड़ी बन जाता है. ऐसा ही साक्ष्य मोना की चूडि़यां बनीं, जिस ने पूरे केस का परदाफाश कर दिया.

युवाओं के सपने चूर करती अमेरिकी वीजा नीति

अमेरिका की प्रस्तावित नई वीजा नीति से दुनियाभर में खलबली मची हुई है. इस से अमेरिका में रह रहे एच1बी वीजा धारकों की नौकरी पर संकट तो है ही, वहां जाने का सपना देखने वाले युवा और उन के मांबाप भी खासे निराश हैं. एच1बी नीति का विश्वभर में विरोध हो रहा है. अमेरिकी कंपनियां और उन के प्रमुख, जो ज्यादातर गैरअमेरिकी हैं, विरोध कर रहे हैं. खासतौर से सिलीकौन वैली में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं. सिलीकौन वैली की 130 कंपनियां ट्रंप के फैसले का खुल कर विरोध कर रही हैं. ये कंपनियां दुनियाभर से जुड़ी हुई हैं. वहां काम करने वाले लाखों लोग अलगअलग देशों के नागरिक हैं. उन में खुद के भविष्य को ले कर कई तरह की शंकाएं हैं. हालांकि यह साफ है कि अगर सभी आप्रवासियों पर सख्ती की जाती है तो सिलीकौन वैली ही नहीं, पूरे अमेरिका का कारोबारी संतुलन बिगड़ जाएगा.

इस से उन कंपनियों में दिक्कत होगी जो भारतीय आईटी पेशेवरों को आउटसोर्सिंग करती हैं. कई विदेशी कंपनियां भारतीय कंपनियों से अपने यहां काम का अनुबंध करती हैं. इस के तहत कई भारतीय कंपनियां हर साल हजारों लोगों को अमेरिका में काम करने के लिए भेजती हैं. आप्रवासन नीति पर विवाद के बीच अमेरिका की 97 कंपनियों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ मुकदमा ठोक दिया है. इन में एपल, गूगल, माइक्रोसौफ्ट भी शामिल हैं. इन में से अधिकतर कंपनियां आप्रवासियों ने खड़ी की हैं. उन्होंने अदालत में दावा किया कि राष्ट्रपति का आदेश संविधान के खिलाफ है. आंकड़ों का हवाला दे कर कहा गया है कि अगर इन कंपनियों को मुश्किल होती है तो अमेरिकी इकौनोमी को 23 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है.

कई देश ट्रंप प्रशासन के आगे वीजा नीति न बदलने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं. भारत भी अमेरिका में रह रहे अपने व्यापारियों के माध्यम से दबाव बना रहा है कि जैसेतैसे मामला वापस ले लिया जाए या उदारता बरती जाए. भारत के पक्ष में लौबिंग करने वाले एक समूह नैसकौम के नेतृत्व में भारतीय कंपनियों के बड़े अधिकारी इस मसले को ट्रंप प्रशासन के सामने उठाना चाह रहे हैं. नई वीजा नीति से भारत सब से अधिक चिंतित है. 150 अरब डौलर का घरेलू आईटी उद्योग संकटों से घिर रहा है. भारत के लाखों लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं. तय है वहां काम  कर रहे भारतीय पेशेवरों पर खासा प्रभाव पड़ेगा. इस से टाटा कंसल्टैंसी लिमिटेड यानी टीसीएल, विप्रो, इन्फोसिस जैसी भारतीय आईटी कंपनियां भी प्रभावित होंगी. आईटी विशेषज्ञ यह मान कर चल रहे हैं कि यह नीति अमल में आती है तो यह बड़ी मुसीबत के समान होगी. अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका दुनिया को श्रेष्ठ आविष्कारक देने वाला देश नहीं रह जाएगा.

यह सच है कि दुनियाभर की प्रतिभाएं अमेरिका जाना चाहती हैं. वर्ष 2011 में आप्रवासन सुधार समूह ‘पार्टनरशिप फौर अ न्यू अमेरिकन इकोनौमी’ ने पाया कि फौर्च्यून 500 की सूची में शामिल कंपनियों में 40 प्रतिशत की स्थापना आप्रवासियों ने की. अमेरिका में 87 निजी अमेरिकन स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की कीमत 68 अरब डौलर या इस से अधिक है. कहा जाता है कि यहां आधे से अधिक स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की स्थापना करने वाले एक या उस से अधिक लोग प्रवासी थे, उन के 71 प्रतिशत एक्जीक्यूटिव पद पर नियुक्त थे. गूगल, माइक्रोसोफ्ट जैसी कंपनियों के प्रमुख भारतीय हैं जो अपनी योग्यता व कुशलता से न सिर्फ इन कंपनियों को चला रहे हैं, इन के जरिए तकनीक की दुनिया में एक नए युग की शुरुआत भी कर चुके हैं.

इन कंपनियों ने हजारों जौब उत्पन्न किए हैं और पिछले दशक में इन्होंने न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी से निकाला बल्कि अरबों डौलर कमाई कर के उसे मजबूत भी बनाया. ये वही कंपनियां हैं जिन के संस्थापक दुनिया के अलगअलग देशों के नागरिक हैं.

क्या है एच1बी वीजा

एच1बी वीजा अमेरिकी कंपनियों को अपने यहां विदेशी कुशल और योग्य पेशेवरों को नियुक्त करने की इजाजत देता है. अगर वहां समुचित जौब हो और स्थानीय प्रतिभाएं पर्याप्त न हों तो नियोक्ता विदेशी कामगारों को नियुक्ति दे सकते हैं. 1990 में तत्कालीन राष्ट्रपति जौर्ज डब्लू बुश ने विदेशी पेशेवरों के लिए इस विशेष वीजा की व्यवस्था की थी. आमतौर पर किसी खास कार्य में कुशल लोगों के लिए यह 3 साल के लिए दिया जाता है. एच1बी वीजा केवल आईटी, तकनीकी पेशेवरों के लिए नहीं है, बल्कि किसी भी तरह के कुशल पेशेवर के लिए होता है. 2015 में एच1बी वीजा सोशल साइंस, आर्ट्स, कानून, चिकित्सा समेत 18 पेशों के लिए दिया गया. अमेरिकी सरकार हर साल इस के तहत 85 हजार वीजा जारी करती आई है. कहा जा रहा है कि फर्स्ट लेडी मेलानिया ट्रंप भी अमेरिका में मौडल के रूप में स्लोवेनिया से एच1बी वीजा के तहत आई थीं.

प्रस्तावित आव्रजन नीति

ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी युवाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश जारी किया और सिलीकौन वैली के डैमोके्रट जोए लोफग्रेन द्वारा संसद में हाई स्किल्ड इंटिग्रिटी ऐंड फेरयनैस ऐक्ट-2017 पेश किया गया. इस के तहत इन वीजाधारकों का वेतन लगभग दोगुना करने का प्रस्ताव है. अभी एच1बी वीजा पर बुलाए जाने वाले कर्मचारियों को कंपनियां कम से कम 60 हजार डौलर का भुगतान करती हैं. विधेयक के ज्यों का त्यों पारित होने के बाद यह वेतन बढ़ कर 1 लाख 30 हजार डौलर हो जाएगा. विधेयक में कहा गया है, ‘‘अब समय आ गया है कि हमारी आव्रजन प्रणाली अमेरिकी कर्मचारियों के हित में काम करना शुरू कर दे.’’ दरअसल, अब अमेरिका में यह भावना फैलने लगी थी कि विदेशी छात्र स्थानीय आबादी का रोजगार खा रहे हैं. ट्रंप इसी सोच का फायदा उठा कर सत्ता में पहुंच गए. उन्होंने चुनावी सभाओं में अमेरिकी युवाओं से विदेशियों की जगह उन के रोजगार को प्राथमिकता देने का वादा किया था.

वास्तव में भारतीय आईटी कंपनियां अमेरिका में जौब भी दे रही हैं और वहां की अर्थव्यवस्था में योगदान भी कर रही हैं. भारतीय आईटी कंपनियों से अमेरिका में 4 लाख डायरैक्ट तथा इनडायरैक्ट जौब मिल रहे हैं. वहीं, अमेरिकी इकोनौमी में 5 बिलियन डौलर बतौर टैक्स चुकाया जा रहा है. भारत से हर साल एच1बी वीजा तथा एल-1 वीजा फीस के रूप में अमेरिका को 1 बिलियन डौलर की आमदनी हो रही है. अमेरिका पिछले साल जनवरी 2016 में एच1बी और एल-1 वीजा फीस बढ़ा चुका है. एच1बी वीजा की फीस 2 हजार डौलर से 6 हजार डौलर और एल-1 वीजा की फीस 4,500 डौलर कर दी गई थी. हाल के वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने यह नियम बना लिया कि विदेशों से प्रतिवर्ष केवल एक लाख छात्र ही ब्रिटेन आ सकते हैं. उस ने वीजा की शर्तें बहुत कठोर कर दीं. लगभग इसी समय अमेरिका ने उदारवादी शर्तों पर स्कौलरशिप दे कर भारतीय छात्रों को आकर्षित किया. वहां पार्टटाइम काम कर के शिक्षा का खर्च जुटाना भी आसान था. अनेक भारतीय छात्र,  जिन्होंने अमेरिका में शिक्षा प्राप्त की थी, वहीं बस गए. अमेरिकी संपन्न जनता को भी सस्ती दरों पर प्रशिक्षित भारतीय छात्र मिल जाते थे जो अच्छी अंगरेजी बोल लेते थे और कठिन परिश्रम से नहीं चूकते थे.

एच1बी वीजा नीति को ले कर भारतीय आईटी कंपनियों में नाराजगी है. उन का तर्क है कि आउटसोर्सिंग सिर्फ उन के या भारत के लिए फायदेमंद नहीं है बल्कि यह उन कंपनियों व देशों के लिए भी लाभदायक है जो आउटसोर्सिंग कर रहे हैं. ए कानून से भारतीय युवा उम्मीदों को गहरा आघात लगेगा. सालों से जो भारतीय मांबाप अपने बच्चों को अमेरिका भेजने का सपना देख रहे हैं, उन पर तुषारापात हो गया है. इस का असर दिखने भी लगा है. आईटी कंपनियां कैंपस में नौकरियां देने नहीं जा रही हैं. भारत के प्रमुख इंजीनियरिंग और बिजनैस स्कूलों के कैंपस प्लेसमैंट पर अमेरिका के कड़े वीजा नियमों का असर देखा जा रहा है. जनवरी से देश के प्रमुख आईआईएम और आईआईटी शिक्षण संस्थानों समेत प्रमुख कालेजों में प्लेसमैंट प्रक्रिया शुरू हुई पर उस में वीजा नीति का असर देखा जा रहा है.    

प्रतिभा पलायन क्यों?

सवाल यह है कि भारतीय विदेश में नौकरी करने को अधिक लालायित क्यों है? असल में इस के पीछे सामाजिक और राजनीतिक कारण प्रमुख हैं. लाखों युवा और उन के मांबाप अमेरिका में जौब का सपना देखते हैं. बच्चा 8वीं क्लास में होता है तभी से वह और उस के परिवार वाले तैयारी में जुट जाते हैं.  इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट व अन्य डिगरियों पर लाखों रुपए खर्र्च कर मांबाप बच्चों के बेहतर भविष्य का तानाबाना बुनने में कसर नहीं छोड़ते. आईआईटी, मैनेजमैंट में पढ़ाने वाले शिक्षक भी बच्चों के दिमाग में विदेश का ख्वाब जगाते रहते हैं. इन विषयों का सिलेबस ही विदेशी नौकरी के लायक होता है.

वहीं, मांबाप के लिए विदेश में रह कर नौकरी करने का एक अलग ही स्टेटस है. इस से परिवार की सामाजिक हैसियत ऊंची मानी जाती है. विदेश में नौकरी कर रहे युवक के विवाह के लिए ऊंची बोली लगती है. परिवार, नातेरिश्तेदारी में गर्व के साथ कहा जाता है कि हमारे बेटेभतीजे विदेश में रहते हैं. इस से सामान्य परिवार से हट कर एक खास रुतबा कायम हो जाता है. 60 के दशक में पहले अमीर परिवारों के भारतीय छात्र अधिकतर ब्रिटेन जाते थे. वहां के विश्वविद्यालय बहुत प्रतिष्ठित थे. कुछ विश्वविद्यालयों में यह प्रावधान था कि छात्र कैंपस से बाहर जा कर पार्टटाइम नौकरी कर सकते थे जिस से पढ़ाई का खर्च निकल सके पर धीरेधीरे ब्रिटिश सरकार ने पार्टटाइम काम कर के पढ़ाई की इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना शुरू कर दिया. फिर ब्रिटेन में

यह धारणा बनने लगी कि ये लोग स्थानीय लोगों का रोजगार छीन रहे हैं. लेकिन भारतीय आईटी इंडस्ट्री का मानना है कि अमेरिका में आईटी टैलेंट की बेहद कमी है. भारतीयों को इस का खूब फायदा मिला.

बदहाल सरकारी नीतियां

विदेशों में पलायन की एक प्रमुख वजह भारत की सरकारी नीतियां हैं. भारतीय प्रतिभाओं का  पलायन सरकारी निकम्मेपन, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार की वजह से हुआ. सरकार उन्हें पर्याप्त साधनसुविधाएं, वेतन नहीं दे सकी. सरकार ब्रेनड्रेन रोकना ही नहीं चाहती. इस के लिए कानून बनाया जा सकता है पर हमारे नेताओं को डर है कि इस से जो रिश्वत मिलती है वह बंद हो जाएगी. अमेरिका जैसे देश में युवाओं को अच्छा वेतन, सुविधाएं मिल रही हैं. वे वापस लौटना नहीं चाहते. कई युवा तो परिवार के साथ वहीं रह रहे हैं और ग्रीनकार्ड के लिए प्रयासरत हैं. कई स्थायी तौर पर बस चुके हैं.

सब से बड़ी बात है वहां धार्मिक बंदिशें नहीं हैं. भारतीय दकियानूसी सोच के चंगुल से दूर वहां खुलापन, उदारता और स्वतंत्रता का वातावरण है. दरअसल, किसी भी देश के नागरिक को दुनिया में कहीं भी पढ़नेलिखने, रोजगार पाने का हक होना चाहिए. प्रकृति ने इस के लिए कहीं, कोई बाड़ नहीं खड़ी की. आनेजाने के नियमकायदे तो देशों ने बनाए हैं पर यह हर व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है. बंदिशें लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ हैं. इस से अमेरिका ही नहीं, दूसरे देशों की आर्थिक दशा पर भी असर पड़ेगा. तकनीक, तरक्की अवरुद्ध होगी.

इस तरह की रोकटोक से कोई नया आविष्कार न होने पाएगा. दुनिया अपने में सिकुड़ जाएगी. कोलंबस, वास्कोडिगामा अगर सीमाएं लांघ कर बाहर न निकलते तो क्या दुनिया एकदूसरे से जुड़ पाती. शिक्षा, ज्ञान, तकनीक, जानकारी, नए अनुसंधान फैलाने से ही मानव का विकास होगा, नहीं तो दुनिया कुएं का मेढक बन कर रह जाएगी. विकास से वंचित करना विश्व के साथ क्या अन्याय नहीं होगा.                   

अलग धार्मिक पहचान के मारे आप्रवासी

अमेरिका के कैंसास शहर में 22 फरवरी को 2 भारतीय इंजीनियरों को गोली मार दी गई. इस में हैदराबाद के श्रीनिवास कुचीवोतला की मौत हो गई और वारंगल के आलोक मदसाणी घायल हैं. गोली एक पूर्व अमेरिकी नौसैनिक ने मारी और वह गोलियां चलाते हुए कह रहा था कि आतंकियो, मेरे देश से निकल जाओ. इसे नस्ली हमला माना जा रहा है. नशे में धुत हमलावर एडम पुरिंटन की दोनों भारतीय इंजीनियरों से नस्लीय मुद्दे पर बहस हुई थी.

इसी बीच, 27 फरवरी को खबर आई कि व्हाइट हाउस में हिजाब पहन कर नौकरी करने वाली रूमाना अहमद ने नौकरी छोड़ दी. 2011 से व्हाइट हाउस में काम करने वाली रूमाना राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की सदस्य थीं. वैस्ट विंग में हिजाब पहनने वाली वे एकमात्र महिला थीं.खबर में यह तो साफ नहीं है कि रूमाना अहमद ने नौकरी क्यों छोड़ी लेकिन उन की बातों से स्पष्ट है कि अलग धार्मिक पहचान की वजह से उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा. वे बुर्का पहनना नहीं छोड़ना चाहती थीं. तभी उन्होंने कहा कि बराक ओबामा के समय में उन्हें कोई परेशानी नहीं थी.

भारतीय संगठन ने अमेरिका में रह रहे भारतीयों के लिए जो एडवाइजरी जारी की है उस में अपनी स्थानीय भाषा न बोलने की सलाह तो दी गई है पर यह नहीं कहा गया कि वे अपनी धार्मिक पहचान छोड़ कर ‘जैसा देश, वैसा भेष’ के हिसाब से रहें.

आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्लीय हिंसा 115 प्रतिशत बढ़ी है. ट्रंप की जीत के 10 दिनों के भीतर ही हेट क्राइम के 867 मामले दर्ज हो चुके थे. वहां आएदिन मुसलमानों, अश्वेतों, भारतीय हिंदुओं व सिखों के साथ धार्मिक, नस्लीय भेदभाव व हिंसा होनी तो आम बात है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्ली घटनाओं में तेजी आई है. 11 फरवरी को सौफ्टवेयर इंजीनियर वम्शी रेड्डी की कैलिफोर्निया में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. जनवरी में गुजरात के हर्षद पटेल की वर्जीनिया में गोली मार कर जान ले ली गई थी.

सब से ज्यादा हमले मुसलमानों पर हो रहे हैं. काउंसिल औफ अमेरिकन इसलामिक रिलेशंस के अनुसार, पिछले साल करीब 400 हेट क्राइम दर्ज हुए थे जबकि ट्रंप के सत्ता में आने के बाद 2 महीने में ही 175 मामले सामने आ चुके हैं.ये घटनाएं तो हाल की हैं. असल में अमेरिका की बुनियाद ही धर्म आधारित है. ब्रिटिश उपनिवेश में रहते हुए वहां ब्रिटेन ने क्रिश्चियनिटी को प्रश्रय दिया पर ईसाइयों में यहां शुरू से ही प्रोटेस्टेंटों और कैथोलिकों के बीच भेदभाव, हिंसा चली. धार्मिक आधार पर कालोनियां बनीं. बाद में हिटलर के यूरोप से यहूदी शरणार्थियों के साथ भेदभाव चला.

1918 में यहूदी विरोधी भावना का ज्वार उमड़ा और फैडरल सरकार ने यूरोप से माइग्रेंट्स पर अंकुश लगाना शुरू किया. अमेरिका में उपनिवेश काल से ही यहूदियों के साथ भेदभाव बढ़ता गया. 1950 तक यहूदियों को कंट्री क्लबों, कालेजों, डाक्टरी पेशे पर प्रतिबंध और कई राज्यों में तो राजनीतिक दलों के दफ्तरों में प्रवेश पर भी रोक लगा दी गई थी. 1920 में इमिग्रेशन कोटे तय होने लगे. अमेरिका में यहूदी हेट क्राइम में दूसरे स्थान पर होते थे. अब हालात बदल रहे हैं. माइग्रेंट धर्मों की तादाद दिनोंदिन बढ़ रही थी. अमेरिका में 1600 से अधिक हेट क्राइम ग्रुप हैं. सब से बड़ा गु्रप राजधानी वाशिंगटन में है जिस का नाम फैडरेशन औफ अमेरिकन इमिग्रेशन रिफौर्म है. यह संगठन आप्रवासियों के खिलाफ अभियान चलाता है. इस की गतिविधियां बेहद खतरनाक बताई जाती हैं. सोशल मीडिया पर भी इस का हेट अभियान जारी रहता है. यह मुसलमानों, हिंदू, सिख अल्पसंख्यक आप्रवासियों और समलैंगिकों के खिलाफ भड़काऊ सामग्री डालता रहता है.

आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका 15,000 से अधिक धर्मों की धर्मशाला है और करीब 36,000 धार्मिक केंद्रों का डेरा है.अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 के बाद मुसलमानों के प्रति 1,600 प्रतिशत हेट क्राइम बढ़ गया. नई मसजिदों के खिलाफ आंदोलन के बावजूद 2000 में यहां 1,209 मसजिदें थीं जो 2010 में बढ़ कर 2,106 हो गईं. इन मसजिदों में ईद व अन्य मौकों पर करीब 20 लाख, 60 हजार मुसलमान नियमित तौर पर जाते हैं. अमेरिका में 70 लाख से अधिक मुसलिम हैं.

अमेरिकी चरित्र के बारे में 2 बातें प्रसिद्ध हैं. एक, वह ‘कंट्री औफ माइग्रैंट्स’ और दूसरा, ‘कंट्री औफ अनमैच्ड रिलीजियंस डायवर्सिटी’ कहलाता है. इन दोनों विशेषताओं के कारण वहां एक धार्मिक युद्ध जारी रहता है. इस के बीच कुछ बुद्धिजीवी हैं जो धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को प्रश्रय देने की मुहिम छेड़े रहते हैं. पिछले 3-4 दशकों में भारत से अमेरिका में हिंदू, सिख और मुसलिम लोगों की बढ़ोतरी हुई. अन्य देशों से भी मुसलमान अधिक गए. ये लोग अपनेअपने धर्म की पोटली साथ ले गए. वहां मंदिर, गुरुद्वारे, मसजिदें, चर्च बना लिए. वहां रह रहे करीब 5 लाख सिखों के यहां बड़े शहरों में कईकई गुरुद्वारे हैं. ये गुरुद्वारे भी ऊंचीनीची जाति में बंटे हुए हैं उसी तरह जिस तरह वहां ईसाइयों में गोरेकाले, प्रोटेस्टेंटकैथोलिकों के अलगअलग चर्च बने हुए हैं.

हिंदुओं के 450 से अधिक बड़े मंदिर बने हुए हैं. बड़ेबड़े आश्रम और मठ भी हैं. इन में स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इंटरनैशनल सोसायटी फौर कृष्णा कांशसनैस, चिन्मय आश्रम, वेदांत सोसायटी, तीर्थपीठम, स्वामी नारायण टैंपल, नीम करोली बाबा, इस्कान, शिव मुरुगन टैंपल, जगद्गुरु कृपालु महाराज, राधामाधव धाम, पराशक्ति टैंपल, सोमेश्वर टैंपल जैसे भव्य स्थल हैं. इन मंदिरों में विष्णु, गणेश, शिव, हनुमान, देवीमां और तरहतरह के दूसरे देवीदेवताओं की दुकानें हैं. सवाल है कि आखिर किसी को धार्मिक पहचान की जरूरत क्या है? सांस्कृतिक पहचान के नाम पर धर्म की नफरत को बढ़ावा दिया जाता है.    

असल में नस्ली भेदभाव, हिंसा का कारण है. विदेश में जा कर लोग अपनी अलग धार्मिक पहचान रखना चाहते हैं. पूजापाठ, पहनावा, रहनसहन धार्मिक होता है. हिंदू पंडे अगर तिलक, चोटी, धोती रखेंगे तो दूसरे धर्म वालों की हंसी के साथ नफरत का शिकार होंगे ही. सिख पगड़ी, दाढ़ी और मुसलमान टोपी, दाढ़ी रखेंगे तो टीकाटिप्पणी झेलनी पड़ेगी ही. पलट कर जवाब देंगे तो मारपीट होगी. फिर शिकायत करते हैं कि उन के साथ नस्ली भेदभाव होता है, हिंसा होती है.

इस भेदभाव की वजह अमेरिका में बड़ी तादाद में फैले हुए धर्मस्थल हैं. हजारों मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे, चर्च बने हुए हैं. भारतीय लोग वहां इन धर्मस्थलों को बनाने में तन, मन और धन से भरपूर सहयोग देते हैं. चीनियों, जापानियों, दक्षिण कोरियाई लोगों के साथ न के बराबर भेदभाव व हिंसा होती है क्योंकि वे किसी धर्म के पिछलग्गू नहीं हैं. वे विदेशों में रह कर उन्हीं लोगों के साथ हिलमिल कर मनोरंजन का आनंद लेते हैं. उन की अपनी चीनी संस्कृति भी है पर उस में धर्म नहीं है. उन की संस्कृति में मनोरंजन है जिस में दूसरे देशों के लोग भी हंसीखुशी आनंद उठाते हैं.

अदब और तहजीब की नगरी लखनऊ

‘लखनऊ हम पे फिदा और हम फिदाए लखनऊ’ कुछ ऐसा है लखनऊ. केवल पर्यटक इस शहर पर फिदा नहीं होते, यह शहर भी पर्यटकों पर फिदा हो जाता है. लखनऊ  का नाम आते ही अदब और तहजीब की एक रवायत सी महसूस होने लगती है. नवाबी और आधुनिक दौर की कला व संस्कृति का अद्भुत नमूना यहां आज भी देखने को मिलता है. अब नवाब तो लखनऊ में रहे नहीं पर बातचीत का मधुर और तहजीबभरा लहजा आज भी सुनने को मिलता है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ घूमने के लिहाज से  ऐतिहासिक जगह है. नवाबी शासनकाल और अंगरेजी शासनकाल में बनी यहां की इमारतें वास्तुकला का बेजोड़ नमूना हैं. 1775 से 1875 तक लखनऊ अवध राज्य की राजधानी था. नवाबीकाल में अदब और तहजीब का विकास हुआ. लखनऊ की रंगीनियों और शानोशौकत के किस्से भी खूब चटखारे ले कर सुने व सुनाए जाते हैं.

लखनऊ में पश्चिमी खाने से ले कर देशी खाने तक का निराला स्वाद लिया जा सकता है. यहां पर बहुत तेजी के साथ बड़े रेस्तरां और मिठाइयों की दुकानें खुली हैं. मधुरिमा और छप्पन भोग इन में से बेहद खास हैं. यहां पर लखनवी अंदाज की मिठाइयां जैसे इमरती, मलाईपान, और लड्डू खूब लुभाती हैं. खाने के लिए चाट, समोसे, कचौड़ी, पूरी और कुल्फी का आनंद लिया जा सकता है. टुंडे कबाब के यहां कबाब और बिरयानी का स्वाद लिया जा सकता है. फलों में लखनऊ दशहरी आम और मिठाई में गुलाब रेवड़ी के लिए भी मशहूर है.

हजरतगंज बाजार बहुत ही मशहूर है. इस के अलावा अमीनाबाद, चौक, आलमबाग, महानगर और गोमती नगर के बाजार भी बहुत अच्छे हैं. लखनऊ की चिकनकारी की पूरी दुनिया दीवानी है. लखनऊ की खरीदारी में सब से अच्छी बात यह है कि यहां हर बजट में सामान मिल जाता है. ऐसे में कम बजट में भी जरूरत की सामग्री मिल जाती है. अब तो यहां पर बहुत सारे शौपिंग मौल हैं जहां हर ब्रैंड उपलब्ध हैं. मनोरंजन के लिए सिंगल स्क्रीन सिनेमा के साथ ही साथ मल्टीपलैक्स में भी फिल्में देखी जा सकती हैं.

घूमने के हिसाब से ड्रीम वर्ल्ड एम्यूजमैंट पार्क, आनंदी और ड्रीम वर्ल्ड वाटर पार्क, ड्रीम वैली, जनेश्वर मिश्र पार्क, लोहिया पार्क, चिड़ियाघर जैसी जगहें भी हैं, जो पर्यटकों को प्रकृति का सुखद एहसास कराती हैं. अंबेडकर पार्क और कांशीराम पार्कआधुनिक कला के बड़े उदाहरण हैं. ये लखनऊ को अलग दुनिया में ले जाते हैं. गोमती रिवर फ्रंट अपनी तरह का अलग निर्माण है जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का सब से बड़ा केंद्र है. दूसरे शहरों के मुकाबले लखनऊ में ट्रांसपोर्ट सस्ता है. आटो रिक्शा, साइकिल रिक्शा, बैटरी रिक्शा, टैक्सी, कैब, सिटी बस और अब लखनऊ मैट्रो भी आवागमन की सुविधा को बढ़ाने को तैयार हैं. पर्यटकों के रुकने के हिसाब से देखें तो लखनऊ में पांचसितारा होटलों से ले कर छोटे बजट के तमाम होटल हैं. ये चारबाग रेलवेस्टेशन और मुख्य बाजारों के आसपास ही बने हैं. अमौसी हवाईअड्डा मुख्य शहर से 12 किलोमीटर ही दूर है. चारबाग में ही प्रमुख बसअड्डा है. अब साधारण बसों के साथ ही साथ एसी सुविधा वाली बसें भी समयसमय पर उपलब्ध हैं. ऐसे में लखनऊ से किसी भी प्रमुख पर्यटक शहर तक पहुंचा जा सकता है.

घूमने की जगहें

लखनऊ घूमने जो भी आता है वह सब से पहले बड़ा इमामबाड़ा (भुलभुलैया) जरूर देखना चाहता है. यह लखनऊ की सब से मशहूर इमारत है. चारबाग रेलवेस्टेशन से लगभग 6 किलोमीटर दूर बना इमामबाड़ा वास्तुकला का अद्भुत नजारा है. बड़ा इमामबाड़ा और छोटे इमामबाड़ा के बीच के रास्ते में कई ऐतिहासिक इमारतें हैं. इन को पिक्चर गैलरी, घड़ी मीनार और रूमी दरवाजा के नाम से जाना जाता है. इन सब जगहों पर जाने के लिए टिकट बड़े इमामबाड़े से ही एकसाथ मिल जाता है. इमामबाड़े से थोड़ी ही दूर पर शहीद स्मारक बना हुआ है.

लखनऊ का चिड़ियाघर बहुत ही आकर्षक बना हुआ है. जानवरों और पक्षियों के अलावा सापों व मछलियों के रहने के लिए उन के अलगअलग घर बने हुए हैं. बच्चों को घुमाने के लिए छोटी रेलगाड़ी का इंतजाम किया गया है. यहां एक राज्य संग्रहालय भी है जिस में ऐतिहासिक सामानों को संग्रहित किया गया है. लखनऊ को बागों और पार्कों का शहर भी कहा जाता है. बोटैनिकल गार्डन में गुलाब सहित तमाम दूसरे पौधों की कई किस्में देखने को मिल जाती हैं. इस के अलावा हाथी पार्क, गौतम बुद्धा पार्क, नदिया किनारे पार्क, पिकनिक स्पौट, लोहिया पार्क और डा. अंबेडकर पार्क भी घूमने के लिहाज से अच्छी जगहें हैं.

अमीनाबाद में इमरती और पूरीकचौड़ी अमीनाबाद लखनऊ का सब से मशहूर बाजार है. यहां पर्यटक किफायती खरीदारी कर सकता है. अमीनाबाद की चाट, कुल्फी के साथ इमरती और पूरीकचौड़ी मशहूर हैं. मधुरिमा मिठाई शौप में देशी घी की इमरती और पूरीसब्जी सब से ज्यादा पसंद की जाती हैं.

छप्पनभोग का जलेबा और चाट : चाट खाने वालों को लखनऊ बहुत पसंद आता है. यहां के सदर बाजार का छप्पन भोग का जलेबा, कुल्फी और चाट बहुत मशहूर है.

बास्केट चाट और बाजपेयी की पूरीकचौड़ी :  लखनऊ के मशहूर हजरतगंज में रौयल कैफे और मोती मिलन में बास्केट चाट और बाजपेयी की पूरीकचौड़ी का मजा लिया जा सकता है.

संगमनगरी इलाहाबाद

इलाहाबाद उत्तर प्रदेश का ऐतिहासिक नगर है. इस का जिक्र मशहूर चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रावृत्तांत में भी मिलता है. उस समय इस को प्रयाग के नाम से जाना जाता था. यह शहर गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम पर बसा है. यहां एक रेतीला मैदान है जहां पर कुंभ का मेला लगता है. इलाहाबाद में कई ऐतिहासिक इमारतें बनी हैं.

इन में से कुछ का निर्माण मुगलकाल में हुआ तो कुछ का निर्माण अंगरेजी शासनकाल में किया गया था. संगमतट पर बना अकबर का किला ऐतिहासिक इमारत है. इस किले में भूमिगत पातालपुरी मंदिर और प्राचीन अक्षय वट हैं. किले के सामने एक अशोक स्तंभ भी बना है. इस के बारे में कहा जाता है कि लौर्ड कर्जन द्वारा कहीं और से ला कर इस को यहां पर स्थापित किया गया था. किले में जोधाबाई का रंगमहल भी बना हुआ है.

इलाहाबाद में संगम के पास घूमते समय पंडों और पुजारियों से सावधान रहने की जरूरत होती है. ये पर्यटकों से संगम दर्शन के बहाने गंगा के बीच में ले जा कर उन से मनमाना चढ़ावा चढ़ाने को कहते हैं.

खुसरो बाग बड़ेबड़े पत्थरों की चारदीवारी से घिरा मुगलकाल की अद्भुत कला का नमूना है. लकड़ी के विशाल दरवाजे वाला खुसरो बाग जहांगीर के पुत्र खुसरो द्वारा बनवाया गया था. इस में अमरूद और आंवले के पेड़ों का  बगीचा है. खुसरो और उस की बहन सुलतानुन्निसा की कब्रों पर बना ऊंचा मकबरा भी मुगलकालीन स्थापत्यकला का अद्भुत नमूना है.

आजाद पार्क को कंपनी बाग के नाम से भी जाना जाता है. फूलों से सजा यह पार्क देखने लायक है. पार्क में लगी मखमली घास बैठने वालों को आरामदायक लगती है. आनंद भवन इलाहाबाद की जानीमानी इमारत है. यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पैतृक आवास था. इस को अब एक संग्रहालय का रूप दे दिया गया है. इस में एक भव्य तारामंडल बना हुआ है. इस इमारत को गांधीनेहरू परिवार की स्मृतियों की धरोहर के रूप में देखा जाता है.

घाटों और साड़ियों का शहर वाराणसी

बनारस की साड़ियों जितनी मशहूर है बनारस की कचौड़ी गली. बनारस में कचौड़ी नाश्ते में सब से अधिक पसंद की जाती है. देश में बहुत ऐसे शहर हैं जिन के नाम से साड़ियां मशहूर हैं. वाराणसी ऐसा ही शहर है. यहां की बनारसी साड़ियां पूरी दुनिया में मशहूर हैं. हर तरह के बजट में ये साड़ियां मिलती हैं. साड़ियों के साथ ही साथ वाराणसी की पहचान गंगा के किनारे बने बहुत सारे घाट भी हैं. सुबह के समय सूर्य की किरणें जब नदी के जल पर पड़ती हैं तो घाटों की शोभा देखते ही बनती है. वाराणसी की सुबह मशहूर है, इसलिए उत्तर प्रदेश में शामेअवध यानी लखनऊ के साथसाथ सुबहेबनारस भी मशहूर है. अर्द्धचंद्राकार गंगा के किनारे लगभग 80 घाट बने हुए हैं. यह शहर वरुणा और अस्सी नदियों के बीच बसा हुआ है, इसलिए इस को वाराणसेय कहा जाता था. जो बाद में वाराणसी हो गया. अस्सी और वरुणा नदियां तो अब यहां नहीं दिखतीं लेकिन इन की यादें यहां रहने वालों के दिलों में बसी हुई हैं.

वाराणसी भी कला, संस्कृति और शिक्षा का केंद्र है. संगीत इस शहर को विरासत में मिला हुआ है. शास्त्रीय संगीत के बड़े कलाकार यहीं के रहने वाले हैं. काशी हिंदू विश्वविद्यालय और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए विदेशों से भी छात्र आते हैं. पंडोंपुजारियों का आतंक यहां भी कायम है. पर्यटकों को इन से बचने की जरूरत है.

बनारस की कचौड़ी गली

बनारस आएं और यहां की कचौड़ी गली न जाएं, यह हो नहीं सकता. कचौड़ी गली विश्वनाथ मंदिर और मणिकर्णिका घाट के बीच पड़ती है. काफी समय पहले यह वैसी ही थी जैसे दिल्ली में परांठे वाली गली है. पहले यहां पर 40 से 50 कचौड़ी की दुकानें होती थीं. अब कचौड़ी गली में केवल 4 से 5 दुकानें ही बची हैं. यहां कचौड़ी के साथसाथ क्राफ्ट और बनारसी साड़ियों की दुकानें खुल गई हैं. इस के बाद भी कचौड़ी गली बहुत मशहूर है. यहीं पास के गणपति गैस्ट हाउस के शंभूनाथ त्रिपाठी कहते हैं, ‘‘देशी पर्यटक ही नहीं, विदेशी पर्यटक भी कचौड़ी गली के प्रशंसक हैं.’’

कत्थक आर्टिस्ट गुजंन शुक्ला कहते हैं, ‘‘कचौड़ी गली से जुड़ी कई और गलियां हैं. कुंज गली में बनारसी साड़ी के साथ कचौड़ी भी बिकती है. इस में राम भंडार, बाबूलाल और भरतशाह की कचौड़ी की दुकानें हैं.’’ अब कचौड़ी के साथ ही साथ यहां की आलू की टिक्की, पानी के बताशे और टमाटर चाट मशहूर हैं. कचौड़ी बनारस का सब से पंसद किया जाने वाला नाश्ता है. ऐसे में हर पर्यटक को यहां की कचौड़ी गली पसंद आती है.

अदभुत हैं अजंता-एलोरा की गुफाएं

अजंता-एलोरा की गुफाओं की यात्रा एक शानदार अनुभव है. यदि आप कलाप्रेमी हैं और पुरातनकाल की ऐतिहासिक धरोहरों व कलाकृतियों के प्रशंसक हैं तो अजंता-एलोरा आप के लिए एक बहुत अच्छा पर्यटन स्थल है. इन गुफाओं को 1983 में वर्ल्ड हैरिटेज की सूची में शामिल किया जा चुका है. यहां की गुफाओं में की गई नायाब चित्रकारी व मूर्तिकला अपनेआप में अद्वितीय है.

औरंगाबाद से तकरीबन 2 घंटे की ड्राइव में टैक्सी से अजंता की गुफाओं तक पहुंचा जा सकता है. विश्वप्रसिद्ध अजंता-एलोरा की चित्रकारी व गुफाएं कलाप्रेमियों के

लिए हमेशा से ही आकर्षण का प्रमुख केंद्र रही हैं. विशालकाय चट्टानें, हरियाली, सुंदर मूर्तियां और यहां बहने वाली वाघोरा नदी यहां की खूबसूरती में चारचांद लगाती हैं.

अजंता में छोटीबड़ी 32 प्राचीन गुफाएं हैं. 2,000 साल पुरानी अजंता की गुफाओं के द्वार को बहुत ही खूबसूरती से सजाया हुआ है. घोड़े की नाल के आकार में निर्मित ये गुफाएं अत्यंत ही प्राचीन व ऐतिहासिक महत्त्व की हैं. खूबसूरत चित्रों और भव्य मूर्तियों के अलावा यहां सीलिंग पर बने चित्र अजंता की गुफाओं को एक नया सौंदर्यबोध देते हैं. इन शानदार कलाकृतियों को बनाने में कौन सी तकनीक इस्तेमाल की गई होगी, यह अभी तक रहस्य बना हुआ है. इस पहेली को सुलझाने के लिए विश्वभर के लोग यहां आते हैं.

वाघोरा नदी यहां की खूबसूरती में और चारचांद लगा देती है. कहा जाता है कि गुफाओं की खोज आर्मी औफिसर जौन स्मिथ व उन के दल ने 1819 में की थी. वे यहां शिकार करने आए थे. तभी उन्हें कतारबद्ध 29 गुफाएं नजर आईं. इस के बाद ही ये गुफाएं पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गईं. यहां की सुंदर चित्रकारी व मूर्तियां कलाप्रेमियों के लिए अनमोल तोहफा हैं.

हथौड़े और छेनी की सहायता से तराशी गई ये मूर्तियां अपनेआप में अप्रतिम सुंदरता समेटे हैं. गुफाएं देखने के लिए आप को कई बार सीढि़यां चढ़नी और उतरनी होंगी. इस के लिए आप को स्वास्थ्य की दृष्टि से फिट रहना होगा. हर गुफा के पास एक बोर्ड लगा है जिस पर हिंदी व अंगरेजी में गुफा की संख्या और संबंधित जानकारी लिखी हुई है. चित्रों की उम्र तीव्र प्रकाश के कारण कम हो रही थी, इसलिए गुफाओं में 4 से 5 लक्स की रोशनी ही होती है यानी टिमटिमाती मोमबत्ती जैसी रोशनी. किसी भी चित्र की खूबसूरती का पूरा एहसास होने के लिए 40 से 50 लक्स तीव्रता वाली रोशनी की जरूरत होती है.

एलोरा की गुफाएं

औरंगाबाद से लगभग 30 किलोमीटर दूर एलोरा की गुफाएं हैं. एलोरा में 34 गुफाएं हैं. ये गुफाएं बसाल्टिक की पहाड़ी के किनारेकिनारे बनी हुई हैं.

महत्त्वपूर्ण बातें

–       मुंबई, पुणे, अहमदाबाद, नासिक, इंदौर, धूले, जलगांव आदि शहरों से औरंगाबाद के लिए बस सुविधा उपलब्ध है. सोमवार का दिन छोड़ कर आप कभी भी अजंता-एलोरा जा सकते हैं. औरंगाबाद रेलवेस्टेशन से दिल्ली व मुंबई के लिए ट्रेन सुविधा है. औरंगाबाद रेलवेस्टेशन के पास महाराष्ट्र पर्यटन विभाग का होटल है.

–       अगर गरमी के मौसम में जा रहे हैं तो सुबह जल्दी पहुंच जाएं, साथ में पानी, हैट और सन ग्लासेज ले जाना न भूलें. वैसे, यहां की यात्रा करने का सब से अच्छा समय नवंबर से फरवरी का है.

–       गुफाओं तक पहुंचने के लिए आप को कुछ चढ़ाई वाला रास्ता तय करना पड़ेगा, बाद में रास्ता सरल और सुगम है. इसलिए इस दौरान आरामदायक जूते पहनें.

–       बंदरों से सावधान रहें.

–       यूनेस्को की इस विरासत स्थल को पूरी तरह देखने के लिए आप को 3-4 घंटे की आवश्यकता होगी. पूरे दिन का यह ट्रिप आप को निराश नहीं करेगा.

–       भोजन के लिए एमटीडीसी के रेस्तरां काफी अच्छे हैं.

–       टिकट एरिया के पास मंडराने वाले फेरीवालों से बच कर रहें, वे परेशान करते रहते हैं.

जरूरी बातें

–       ऐसे गाइडों से बच कर रहें जो अपनी जानपहचान वाली उन दुकानों पर ले जाते हैं जहां उन का कमीशन बंधा होता है. उन दुकानों पर खरीदारी का सामान महंगा होता है.

–       बुजुर्गों के लिए यहां जाना थोड़ा थकानभरा हो सकता है. इसलिए वे स्वस्थ हों तभी वहां जाएं. यहां जाने का सब से बेहतरीन समय सर्दी का है.

–       सुबह जल्दी से जल्दी गुफाओं तक पहुंच जाएं और शाम को 4 बजे तक वापस औरंगाबाद पहुंच जाएं ताकि आप बीबी का मकबरा, पंचकी और सिद्धार्थ गार्डन व चिड़ियाघर जैसे स्थलों का भी आनंद ले सकें.

इन्हें भी आजमाइए

– यात्रा करते समय हमेशा अपने साथ हैंड सैनीटाइजर जरूर रखें. यात्रा करने के दौरान बाल औयली नजर आने लगते हैं, ऐसे में इन्हें तरोताजा करने के लिए ड्राई शैंपू जरूर रखें. ड्राई शैंपू बालों की जड़ों पर लगाएं ताकि वे आसानी से आप के सिर के तेल को सोख सकें. इस से यात्रा के दौरान भी बाल तरोताजा दिखेंगे.

– एयरोप्लेन या ट्रेन के बाथरूम की सीमित जगह में हम आसानी से क्रीम मेकअप का उपयोग कर सकते हैं. यदि आप पाउडर मेकअप करते हों तो वह आसानी से दिख जाता है. लेकिन क्रीम मेकअप करते हैं तो यह आप के चेहरे के लिए निश्चित ही फायदेमंद होगा.

– किसी अनजान शहर में घूमने जा रहे हैं तो होटल पहले से ही बुक करा लें. वरना कई बार इस काम में आधा दिनों भी लग जाता है. आजकल जहां हम किसी स्थान को घूमने के लिए 1-2 दिनों से अधिक नहीं दे पाते, वहां इस काम में समय व्यर्थ करना बेमानी है.

– ट्रिप पर जाने से पहले ही सौंदर्य प्रसाधन खरीद कर रख लें. ऐसे उत्पाद खरीदें जो छोटे आकार के हों और जिन्हें आप आसानी से अपने हैंडबैग में रख सकें.

– घूमनेफिरने का कार्यक्रम बहुत कसा हुआ न हो. भले ही 1-2 जगह कम देखें लेकिन भागादौड़ी या आपाधापी बिलकुल नहीं होनी चाहिए.

बच्चों के मुख से

गरमी की छुट्टियों में मैं अपने पीहर जबलपुर गई हुई थी. वहां मेरी 5 वर्षीया भतीजी देशना अपनी हाजिरजवाबी से सब का मन बहलाए रखती. एक दिन नाश्ते में हम सब चायनीज स्प्रिंग रोल खा रहे थे. मेरे भाई ने देशना को बुलाते हुए कहा कि आ कर स्प्रिंग रोल खा लो. वह ठुमकती हुई आई और ध्यान से देखती हुई बोली, ‘‘क्या इन में स्ंिप्रग लगी हुई है? ये मेरे पेट में उछलेंगे, इसलिए मैं नहीं खाती.’’

उस की भोली बातें सुन कर हम सब ठहाका लगा कर हंस पड़े.

वंदना कासलीवाल

*

मेरी परिचिता का 7 वर्षीय पुत्र मेहुल बहुत चंचल व शरारती है, लेकिन पढ़ने में तेज भी है. इस वर्ष वह परीक्षा में हमेशा की तरह प्रथम नहीं आया तो मुझे आश्चर्य हुआ. मुलाकात होने पर मैं ने उस से प्यार से कहा, ‘‘मेहुल, तुम स्कूल के सामने रहते हो, इसलिए तुम्हारा रिजल्ट अच्छा आना चाहिए.’’ तब उस ने बड़े भोलेपन से कहा, ‘‘हां, लेकिन मेरे घर के सामने मेरा नहीं, लड़कियों का स्कूल है.’’ यह सुन कर मैं हंस पड़ी. 

गीता गुप्त

*

मैं अपनी 7 वर्षीया पुत्री अनुष्का को पढ़ा रहा था. वह सभी सवालों के सटीक जवाब दे रही थी. उस के कोर्स का कोई ऐसा प्रश्न नहीं था जो उसे न आता हो. मैं ने पास बैठी अपनी पत्नी से कहा, ‘‘क्या पढ़ाएं इसे? इसे तो सब आता है.’’

पत्नी ने कहा, ‘‘इस को कुछ ऐक्स्ट्रा पढ़ाओ.’’

इतने में बेटी ने तुरंत कहा, ‘‘मम्मी, मुझे तो ऐक्स्ट्रा भी आता है. बोलूं- ई एक्स टी आर ए.’’

हम सभी उस की मासूमियत पर हंस पड़े.     

सतीश व्यास

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हमारे पड़ोसी परिवार की 4 वर्षीया बेटी सोनम बहुत नटखट है. एक दिन उस की मम्मी ने अपने लंबे बाल कटवा कर काफी छोटे करवा लिए. मैं ने सोनम से पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हें कटे बालों वाली अपनी मम्मी कैसी लगती हैं?’’

सोनम तपाक से बोली, ‘‘आंटी, मम्मी मौम बन गईं.’’ उस की हाजिरजवाबी से हम सब हंसे बिना नहीं रह सके. 

निर्मल कांता गुप्ता

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