केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा मदरसों के आधुनिकीकरण का मुद्दा हर दिन एक नई बहस का दरवाजा खोल रहा है. कभी कहा जा रहा है कि इस का मकसद मदरसों के गंतव्य पर प्रहार करना है तो कहीं चर्चा है कि इस के द्वारा सरकार मदरसों को अपने अधीन लाना चाहती है. फिलहाल इस की कोई स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं आई है. आम धारणा यही है कि इस के द्वारा सरकार मदरसा पाठ्यक्रम में आधुनिक कोर्स जैसे विज्ञान, गणित, अंगरेजी और कंप्यूटर आदि को शामिल करना चाहती है. वास्तव में सरकार ने यह बयान दे कर एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है.

एक तो यह कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या मदरसा आधुनिकीकरण के खिलाफ है यानी वह आधुनिक शिक्षा हासिल नहीं करती जो उन के पिछड़ेपन का बड़ा कारण है, दूसरा यह कि सरकार मदरसा पाठ्यक्रम में सुधार करना चाहती है जिस की मांग धार्मिक ताकतों की ओर से लगातार की जाती रही है.

जहां तक मुसलिम मदरसों का मामला है इस में बहुत थोड़ी तादाद में बच्चे जाते हैं. इस का कोई सर्वे नहीं किया गया है. सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में देश में मुसलमानों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति पर यह निष्कर्ष निकाला कि 96 फीसदी मुसलिम बच्चे तो आधुनिक शिक्षा ग्रहण करते हैं, मात्र 4 फीसदी मुसलिम बच्चे मदरसे में जाते हैं, उन्हें आधुनिक शिक्षा दी जाए. वैसे यह योजना सच्चर रिपोर्ट से पहले 90 के दशक में सरकार ने शुरू की थी. इस के तहत अब तक सिर्फ कुछ मदरसों में आधुनिक विषयों को पढ़ाया जा रहा है जिन का वेतन केंद्र सरकार की मदरसा आधुनिकीकरण योजना द्वारा दिया जाता है. लेकिन कईकई महीने इन मदरसों के शिक्षकों को वेतन नहीं मिलता है. इस से सरकार की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है.

एक बड़ी समस्या यह है कि सरकार मदरसा आधुनिकीकरण की तो बात करती है और जिन मदरसों में उस ने आधुनिक शिक्षा का प्रबंध किया है उन में से किसी मदरसे को मौडल मदरसा नहीं बनाया है कि जिसे एक मौडल के रूप में दूसरे मदरसों के सामने पेश किया जा सके.

ज्ञान को धर्म के आधार पर बांटा

जमीअत उलेमा हिंद के सचिव व प्रवक्ता मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी कहते हैं कि जो मदरसे सरकार के अधीन हैं उन का हाल यह है कि वहां बुखारी और तिरमिजी जैसी हदीस की किताबें पढ़ाने वाला कोई नहीं है. ऐसी सूरत में मदरसे का मकसद ही खत्म हो जाएगा. वैसे प्रधानमंत्री के 15-सूत्रीय कार्यक्रम, जो अल्पसंख्यकों के विकास और उन की उन्नति हेतु हैं, में मदरसा आधुनिकीकरण शामिल है.

मदरसों से इसलाम की शिक्षादीक्षा एवं विशेषज्ञता हासिल की जाती है और इस संदर्भ में शिक्षा का विभाजन यानी आधुनिक और दीनी शिक्षा को अलग करने की इसलाम में कोई अवधारणा नहीं है लेकिन ऐसा हो गया है कि ज्ञान को धर्म के आधार पर बांट दिया गया है. आधुनिक शिक्षा हासिल करने वाले दीनी यानी मदरसा शिक्षा हासिल करने वालों को कम समझते हैं तो दीनी शिक्षा हासिल करने वाले आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वालों की मानवीयता को संदेह से देखते हैं. दोनों के बीच का विरोधाभास, स्थिति को और भी जटिल बना देता है. इस परिपेक्ष्य में जब कभी मदरसा आधुनिकीकरण की बात आती है तो मदरसे वाले इस का खुल कर विरोध करते हैं.

जहां तक मदरसा पाठ्यक्रम में समय के अनुसार बदलाव करने की बात है तो यह मुद्दा समयसमय पर उठता रहा है लेकिन मदरसा प्रबंधकों की ओर से कोई ऐसी पहल सामने नहीं आई जिसे सरकार के मदरसा आधुनिकीकरण के जवाब में पेश किया जा सके. इसी आधार पर यह कहा जाता है कि इस विरोध के पीछे मदरसों का अपना हित है और वे नहीं चाहते हैं कि सरकार मदरसों में हस्तक्षेप कर उन के एकछत्र राज्य को खत्म करे. सरकार के अधीन आने का मतलब है हिसाबकिताब पूरा रखना और समय पर उसे सरकार के सामने प्रस्तुत करना.

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कुछ मदरसों को छोड़ कर ज्यादातर मदरसों में शिक्षकों का शोषण होता है और उन्हें बहुत कम वेतन मिलता है जबकि इन मदरसों की आमदनी किसी भी तरह से कम नहीं है. सारा मामला मोहतमिम के हाथ में होता है. वही उस मदरसे का मालिक होता है. यदि कोई शिक्षक उस के अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलता है तो उसे बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगाई जाती.

शिक्षकों का शोषण

एक बच्चे के सिलसिले में दिल्ली स्थित जाफराबाद के एक मदरसे में जाने का मौका मिला. यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि कुरआन हिफज (कंठस्थ) करने वाले बच्चे जिस कमरे में रह रहे थे, वहां पंखा नहीं था, गरमी के कारण वहां खड़े रहना मुश्किल था. इस बाबत जब मदरसे के जिम्मेदार से पूछा गया तो उन्होंने इस की जिम्मेदारी एक शिक्षक पर डालते हुए कहा कि उन्होंने बताया ही नहीं और मेरे सामने ही उन को डांटने लगे. जब हम लोग मदरसे से बाहर निकल कर सड़क पर आ गए तो उस बच्चे ने बताया कि इस में शिक्षक की गलती नहीं है. उन्होंने कई बार मेरे सामने मोहतमिम से कहा लेकिन वे एक कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते हैं और जब कभी कोई शिकायत ले कर आता है तो सारा आरोप शिक्षक पर मढ़ देते हैं.

बताया जाता है कि इस के पीछे एक षड्यंत्र होता है. मोहतमिम नहीं चाहता कि कोई शिक्षक लगातार उस के मदरसे में पढ़ाए. इस के लिए उसे मात्र 10 महीने ही वेतन दिया जाता है. इस से वह शिक्षक भी खुद भाग जाता है और मोहतमिम को भी आसानी से उस से छुटकारा मिल जाता है. राज्यों में जो मदरसा बोर्ड हैं और जो मदरसे उन बोर्डों से मान्यताप्राप्त हैं, उन बोर्डों का हाल भी इन मोहतमिम से अच्छा नहीं है. बिना घूस दिए वेतन की राशि पास कराना असंभव है.

प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, बिहार मदरसा बोर्ड से लगभग 3,500 मदरसे जुड़े हैं जिन में से लगभग 1,100 शिक्षकों को छठे वेतन आयोग के लिहाज से वेतन मिल रहा है जबकि 205 मदरसा शिक्षकों को 5 से 8 हजार रुपए ही वेतन दिया जाता है. इसी तरह उत्तर प्रदेश में 375, पश्चिम बंगाल में 321 और असम के 60 मदरसों को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता मिलती है. आंध्र प्रदेश में ऐसे मदरसों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. मदरसा आधुनिकीकरण का विरोध करने वालों का तर्क है कि अगर हम सरकार से लाभान्वित होंगे तो हमें पाठ्यक्रम में तबदीली के लिए भी तैयार होना पड़ेगा, इसलिए इस से बचना चाहिए. लेकिन कुछ मुसलिम बुद्धिजीवियों और इसलामी शिक्षा में दक्षता रखने वालों का मानना है कि पाठ्यक्रम में तबदीली करते हुए उसे तर्क आधारित बनाया जाना चाहिए.

तर्कहीन सोच

यहां पर मोहम्मद अब्दुल हफीज के उस लेख का जिक्र करना गलत न होगा जिस में उन्होंने लिखा कि एक अवसर पर देश के एक बड़े मदरसे से शिक्षाप्राप्त आलिमेदीन से मुलाकात की. बातचीत में भारत के उलेमा के साथ पाकिस्तान के उलेमा का भी जिक्र आया. इस पर मैं ने प्रतिष्ठित आलिमेदीन, जिन्होंने कुरआन की व्याख्या की है, का नाम लिया तो उन्होंने तुरंत यह कहते हुए उस नाम को निरस्त कर दिया कि यह व्याख्या गलत है. जब हम ने यह जानना चाहा कि उस में क्या गलत है? क्या आप ने कभी उस का अध्ययन किया है तो उस पर उन्होंने कहा कि बुजुर्गों ने उसे गलत बताया है, इसलिए गलत कह रहे हैं. हम ने कभी उस का अध्ययन नहीं किया. यह वह मानसिकता है जिस से मदरसों की शिक्षा व्यवस्था को भलीभांति समझा जा सकता है कि किसी चीज के सही और गलत होने के लिए क्या तर्क दिए जाते हैं. शायद यही कारण है कि अब मुसलिम बुद्धिजीवी इस हक में हैं कि मदरसा पाठ्यक्रम में संशोधन कर एकरूपता लाई जाए.

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