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अच्छे दिनों का भ्रम

1971 के चुनावों में गरीबी हटाओ से जीत, 1975 में आपातकाल में अनुशासित पर्व से तानाशाही राज और अब 2014 में अच्छे दिनों के नारों से नेता को सफलता तो मिली और एकछत्र राज करने का सुख भी मिला पर जल्दी ही जनता को लगा कि वह कहीं ठगी गई है. 1971 में गरीबी हटाओ का नारा गरीब हटाओ में बदल गया और अब अच्छे दिनों का मतलब हो गया कि पैट्रोल टमाटर से भी सस्ता हो गया है.

नारों के बलबूते चुनाव जीतना आसान है पर सही शासन करना बहुत मुश्किल होता है. शासन में हर फैसला नारों के हिसाब से नहीं किया जा सकता. नरेंद्र मोदी को सैकड़ों ऐसे निर्णय लेने पड़ रहे हैं जिन का अच्छे दिनों से कोई संबंध नहीं है. बजट में बुलैट ट्रेन या सरदार पटेल की मूर्ति से अच्छे दिनों का कोई संबंध नहीं. नरेंद्र मोदी की ब्राजील यात्रा का जनता के अच्छे दिनों से कोई रिश्ता नहीं.

नरेंद्र मोदी ने नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा की तो अच्छे दिन उन के हो रहे हों तो हों, जनता के तो नहीं हो सकते क्योंकि पूजापाठ का लाभ हस्तांतरित नहीं हो सकता. नरेंद्र मोदी ने मंत्रालयों के सचिवों से मिल कर मंत्रियों के पर काट दिए हों और सचिवों के अच्छे दिन ला दिए हों पर क्या वे जनता को तुरंत अच्छे दिन ट्रकों में भर कर भेज सकते हैं? नहीं, यह असंभव है.

नरेंद्र मोदी सरकार ने राज्यपालों को बदला है तो कांगे्रसी नेताओं का राजपाट गया और भाजपाई नेताओं के अच्छे दिन आ गए राजमहलों में रहने के. पर जनता को क्या मिला? वैसे भी अच्छे दिनों की तो आहट भी नहीं होती. दिन अगर अच्छे आते भी हैं तो जनता उसे अपनी खुद की उपलब्धि समझती है. बिहार के युवा को मुंबई में अच्छी नौकरी मिल जाए तो वह सरकार को शाबाशी नहीं देगा. जयपुर में मैट्रो बन जाए तो श्रेय सरकार को नहीं जाता. दिल्ली में कुछ जनता के दबाव के कारण, कुछ कौमनवैल्थ खेलों के कारण और कुछ 10 साल मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित के कारण सड़कें, फ्लाईओवर, बागबगीचे बने पर कौन किसे धन्यवाद देता है.

हर राज्य में काम करने वाले को बुरी तरह हर बार उस की मेहनत पर पानी फेर दिया जाता है. अरविंद केजरीवाल के 49 दिन के राज की प्रशंसा करने वाली आम जनता को तो छोड़ें, उन की अपनी पार्टी में कोई नहीं है. जिस सोशल मीडिया के रौकेट पर चढ़ कर नरेंद्र मोदी जीते थे उस में अब अच्छे दिनों के चुटकुलों के सैटेलाइट जम कर घूम रहे हैं. नारों का असर उतना ही रहता है जितना यज्ञहवनों से होने वाली तथाकथित शुद्धि का.

भारत भूमि युगे युगे

मुलायम का अमर प्रेम

राजनीति में प्राथमिकताएं और आस्थाएं कितनी तेजी से बदलती हैं, इस की ताजा मिसाल अमर सिंह हैं जो बीते दिनों खुद को समाजवादी नहीं, मुलायमवादी कह बैठे. लोकसभा चुनाव में कहीं ठौर नहीं मिला तो वे अजित सिंह के खेमे में चले गए और ससम्मान उन्हें भी ले डूबे.

उत्तर प्रदेश की बिगड़ी कानूनव्यवस्था के कारण मुलायम सिंह इन दिनों परेशानियों से घिरे हुए हैं. रहीसही कसर वरिष्ठ मंत्री आजम खां जबतब रूठ कर पूरी कर देते हैं. अब जबकि मुलायम का अमर प्रेम फिर से जाग उठा है तो आजम और बिदकेंगे. वैसे इस प्रेम कहानी में मुलायम की सिरदर्दी बढ़ने वाली है. आने वाला वक्त ही बताएगा कि अमर सिंह मुलायम की सिरदर्दी को कम करने के लिए कौन सी दवा देंगे.

अब वो बात कहां

चुनावों में बड़ा मजा आता है. जयजयकार होती है, फूलमालाएं डलती हैं, नारे लगते हैं, जनता अपने कामधाम छोड़ उम्मीदवारों के स्वागतसत्कार में लगी रहती है. कुल मिला कर वक्त अच्छे से कटता है.

आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल इसी अतीत को याद करते हुए दिल्ली में चुनाव की मांग पर अड़ गए हैं. उन्हें यह उम्मीद है कि फिर जीतेंगे, कुरसी मिलेगी और इस दफा उसे छोड़ने की गलती नहीं करेंगे. अब यह दीगर बात है कि ‘आप’ और केजरीवाल का कद और पूछपरख घट रही है. उम्मीद रखना उन का हक और गलतफहमी दोनों हैं. अब गेंद दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के पाले में है और चुनाव का मसला अदालत की फाइल में कैद है.

मजबूरी के भाईभाई

लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार हाजीपुर में मंच साझा करते हुए पुरानी हिंदी फिल्मों के कुंभ में बिछड़े भाइयों की तरह मिले तो आम लोगों को समझ यही आया कि मजबूरी दरअसल क्या होती है. 20 साल बाद इन धुरंधरों को ज्ञान प्राप्त हुआ कि देश सांप्रदायिक हाथों में इन की नादानियों के चलते चला गया है. जनता की समझ का इस में कोई योगदान नहीं जो बगैर सोचेसमझे वोट डाल आती है.

इस महागठबंधन को, जिस में वजूद और जमीन खोती कांग्रेस भी शामिल है, बतौर प्रयोग पूरे देश में लागू करने की कवायद की जा रही है कि तमाम धर्मनिरपेक्ष दलों को भाजपा के खिलाफ एक हो जाना चाहिए. सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के बाबत मायावती और मुलायम सिंह यादव से आग्रह किया गया कि वे भी मतभेद व मनभेद को भुला कर बिहार फार्मूले का अनुसरण करें और देखें कि बहुत से शून्य मिल कर कोई पूर्णांक बना सकते हैं या नहीं. दुर्गति भुगतनी ही है तो क्यों न सामूहिक रूप से भुगती जाए.

मतिभ्रम का शिकार कौन

रतन टाटा देश ही नहीं दुनिया के ख्यातिनाम हैं. उद्योग ही उन की दिनचर्या, आहार, व्यायाम और निद्रा है. ऐसे में उन का यह कहना कि पश्चिम बंगाल में औद्योगिक विकास कहीं नहीं दिख रहा है, माने तो रखता है. हालांकि रतन टाटा विकास का पैमाना नहीं हैं पर आधार तो हैं.

पश्चिम बंगाल के वित्तमंत्री अमित मित्रा को यह बयान रास नहीं आया, इसलिए पलटवार में उन्होंने रतन टाटा को बूढ़ा और मतिभ्रम का शिकार बता डाला. अगर जवाब में वे औद्योगिक विकास के उदाहरण और आंकड़े गिनाते तो बात में वजन रहता. लगता ऐसा है कि नैनो का कड़वा घूंट अभी गले में ही अटका है.

रिकौर्ड ऊंचाई से उतरा शेयर बाजार

अगस्त की शुरुआत में शेयर बाजार में जबरदस्त गिरावट देखने को मिली. सप्ताह के आखिरी और माह के पहले दिन बौंबे शेयर बाजार का सूचकांक 414 अंक गिर गया. जुलाई के आखिरी कारोबारी दिन सूचकांक 193 अंक गिर कर 26 हजार अंक से नीचे उतरा. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी 119 अंक गिरा, जो 11 जुलाई के बाद सब से बड़ी गिरावट रही.

वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि जुलाई माह में उन की बिक्री 2 अंकों (डबल डिजिट) पर पहुंची है. इस के बावजूद रुपया भी अगस्त की शुरुआत में 4 माह के निचले स्तर पर पहुंचा है. एक सप्ताह के दौरान उस अवधि में रुपया 63 पैसे गिरा है जो इस साल की 24 जनवरी के बाद की सब से बड़ी गिरावट है. 25 जुलाई को सूचकांक लगातार 8 सत्र की बढ़त के बीच रिकौर्ड ऊंचाई पर पहुंचा लेकिन कारोबार समाप्त होने पर 145 अंक लुढ़क कर बंद हुआ.

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने वैश्विक बाजार में जोखिम की संभावना जताई है. इस से बीएसई का सूचकांक 24 अंक गिर गया और रुपया 61 पैसे कमजोर पड़ गया. यह 24 जनवरी के बाद एक दिन की सब से बड़ी गिरावट है.

भारतीय चिकित्सा पर्यटन का दुनिया में डंका

भारत चिकित्सा क्षेत्र में धीरेधीरे बादशाहत हासिल करने की तरफ बढ़ रहा है. दुनियाभर से लोग इलाज कराने के लिए भारत का रुख कर रहे हैं. अमेरिका के साथ ही ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में इलाज के लिए भारत आने वाले लोगों की संख्या  में इजाफा हो रहा है.

चिकित्सा पर्यटन से हमारी आमदनी में लगातार इजाफा हो रहा है. चिकित्सा पर्यटन के लिहाज से भारत दुनिया के 5 शीर्ष देशों में शुमार है. पीएचडी चैंबर्स मैडिकल्स तथा वैलनैस टूरिज्म की रिपोर्ट के अनुसार, 2012 में दुनिया के विभिन्न देशों से 1 लाख 66 हजार लोग भारत में अपनी बीमारी के इलाज के लिए आए. चिकित्सा क्षेत्र में अच्छे और अत्यधिक कुशल चिकित्सकों, अच्छी सुविधाओं से युक्त अस्पतालों व इलाज पर कम लागत आने की वजह से दुनियाभर के लोग भारत में इलाज के लिए आ रहे हैं. यह रफ्तार तेजी से बढ़ रही है. अनुमान है कि अगले 4 साल यानी 2018 तक चिकित्सा पर्यटन से देश के खजाने में विदेशी नागरिकों से करीब 37 हजार करोड़ रुपए की आमदनी होगी.

सरकार भी इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए उसी तत्परता से काम कर रही है. उस का मकसद आयुर्वेद तथा योग से इलाज की पद्धति को भी लोकप्रिय बनाना है और इस के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ की मदद ली जा रही है. भारत सरकार का आयुष विभाग इस मौके का पूरा लाभ उठाने की फिराक में है और स्वास्थ्य मंत्रालय भी उस की पूरी मदद करने को तैयार है. देखना यह है कि इस प्रकार का लाभ हम कितनी शिद्दत के साथ उठा सकते हैं.

निर्वासित जीवन कब तक

उदार लोकतंत्र का बुनियादी फर्ज है कि वह किसी भी मनुष्य को बिना कोई भेदभाव किए मूलभूत सुविधाओं को आसानी से मुहैया कराए, अपने देश के नागरिकों की ही नहीं, दुनिया के किसी भी निवासी की मौलिक स्वतंत्रता पर किसी तरह का अंकुश न लगाए और अधिकतम जन समुदाय का अधिकतम कल्याण किए जाने का उस का लक्ष्य हो. निर्वासित जिंदगी बिता रही बंगलादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन के वीजा मामले में भारत की देरी और रवैए से विश्व में अच्छा संदेश नहीं गया. लोकतंत्र समर्थकों और प्रगतिशील नागरिकों ने इस मामले में हैरानी जताई है.

विश्व के सब से बड़े लोकतंत्र भारत में वीजा मियाद बढ़ाने के लिए निर्वासित  तस्लीमा नसरीन को काफी परेशान होना पड़ा. केंद्रीय गृहमंत्री से मिल कर भारत में रहने की भीख मांगनी पड़ी. सरकार ने पहले तो रैजिडैंट वीजा मियाद बढ़ाने की तस्लीमा की गुजारिश पर काफी दिनों तक कोई कार्यवाही ही नहीं की और फिर राहत भी दी तो टूरिस्ट वीजा के नाम पर 2 माह और रहने की मोहलत दी. नानुकुर और एहसान जताने जैसे रवैए के बाद 1 साल की वीजा अवधि बढ़ाई गई है.

1994 से निर्वासन में रह रहीं तस्लीमा ने कुछ समय पहले रैजिडैंट वीजा के नवीनीकरण के लिए आवेदन किया था. उन की वीजा अवधि 17 अगस्त को खत्म हो रही थी. तस्लीमा ने यह आशंका जताई थी कि अगर वीजा अवधि नहीं बढ़ाई गई तो वे ब्रिटेन से लौट नहीं पाएंगी जहां वे औक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक व्याख्यान देने जा रही हैं. उन्होंने 26 जुलाई को लिखा कि सरकार को आवेदन किए हुए 1 महीना हो गया है लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं आया. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

फतवे से बेपरवा

तस्लीमा नसरीन बंगलादेशी लेखिका हैं जो अपने देश के मुसलिम कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं. उन्होंने धर्म की बुराइयों को उजागर कर महिलाओं के लिए प्रगतिशीलता की हिमायत की थी. 1993 में ‘लज्जा’ नामक उपन्यास के जरिए तस्लीमा ने मजहबी ठेकेदारों की खबर ली थी. इस बात से चिढे़ कट्टरपंथियों ने उन की मौत का फतवा जारी किया लेकिन उन्होंने उस फतवे की परवा नहीं की.

बंगलादेश समेत कई देशों में उन की किताब पर प्रतिबंध लगा दिया गया. कई देशों में उन्होंने शरण लेने की कोशिश की लेकिन मुसलिम कट्टरपंथियों के डर से कुछ देशों ने उन्हें अपने यहां रखने से इनकार कर दिया. इस समय तस्लीमा स्वीडन की नागरिक हैं और अमेरिका का ग्रीन कार्ड भी उन के पास है लेकिन वे भारत में रहना पसंद करती हैं. 2010 में वे भारत लौट आईं. तब से वे यहां निर्वासित जीवन बिता रही हैं.

तस्लीमा खुद को दुनिया का नागरिक मानती हैं. भारत देश उन्हें सब से अच्छा लगता है. भारत में उन्हें पश्चिम बंगाल से ज्यादा लगाव है. उन का कहना है कि भारत ही वह अकेली जगह है जहां वे अपनी पहचान के साथ जी सकती हैं. उन का कहना है कि लोगों को अपने निवास की जगह चुनने की आजादी होनी चाहिए.

तस्लीमा ने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए बहुत कुछ खो दिया. अपना भरापूरा परिवार, दांपत्य जीवन, नौकरी सबकुछ दांव पर लगा दिया. देशनिकाला उन के दुखों की इंतहा थी. 62 वर्षीया तस्लीमा पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) के मयमनसिंह शहर में जन्मीं और बाद में यहीं के मैडिकल कालेज से स्नातक करने के बाद सरकारी डाक्टर बनीं. 1994 तक उन का जीवन ठीक चलता रहा. स्कूली दिनों से ही वे लेखन करने लगी थीं.

भारत असल में दक्षिण एशिया का बड़ा लोकतांत्रिक देश है, इसलिए उस का यह दायित्व बनता है कि वह क्षेत्र में लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर पूरी शिद्दत के साथ अमल कर के न केवल उन देशों के लिए आदर्र्श पेश करे जहां धर्म जैसे संकीर्ण मसलों पर आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया गया है, बल्कि विश्व को भी दिखाए कि वह विशुद्घ एक धर्मनिरपेक्ष और मजबूत लोकतांत्रिक मुल्क है. लोकतंत्र की लज्जा रखने का दायित्व चुनी हुई सरकारों का होना चाहिए. लोकतंत्र में धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, क्षेत्र का कोई भेद नहीं होता.

इस से पहले भारत ने सलमान रुश्दी को भी शरण देने से इनकार कर दिया था जबकि रुश्दी भारतीय मूल के ही हैं. इस बात से उन्हें गहरा आघात लगा था. उस वक्त केंद्र में कांग्रेस की राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार थी जो मुसलिमों की हिमायती कहलाने का दंभ भरती रही और कांग्रेस को अपने मुसलिम वोटबैंक के बिदकने के खतरे के चलते हर भारतीय मूल के नागरिक को लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर देने में जरा भी लज्जा नहीं आई. देश में भाजपा सरकार आने के बाद बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों में इस बात की आशंका बनी हुई है कि उन के अच्छे दिन अब गायब होने वाले हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा. मोदी सरकार उस की आलोचना करने वालों पर शायद शिकंजा कसने लगेगी?

कई प्रगतिशील लेखक अब आशंकित हैं कि कब कोई भगवा ब्रिगेड किसी लेखक, कलाकार पर हमला कर दे. लेखन को प्रतिबंधित करा दे. दरअसल, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकारों को बहुत आवश्यक समझा और इस दिशा में कदम भी उठाए गए लेकिन मानव अधिकार समर्थकों और मजहबी तानाशाहियों के बीच लंबी जद्दोजेहद चली आ रही है. विश्व के कुछ ही देशों में लोकतंत्र है जहां नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की पैरवी की जाती है. ऐसे देश हैं जहां मजहबी शासन और मजहब के नियमकायदे लागू हैं. मजहब व्यक्ति की आजादी और मौलिक हकों का समर्थक कभी नहीं रहा.

अरब देशों में लोकतंत्र नहीं है. मानव अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. नतीजा यह है कि एक ही मजहब के लोग आपस में लड़मर रहे हैं. फलस्तीनइसराईल का युद्ध अरसे से जारी है. सभी अरब देशों की अर्थव्यवस्था केवल पैट्रोल के अधीन है. वे कुछ कामधाम नहीं करते.

यह कैसा लोकतंत्र?

मानवाधिकारों की रक्षा करना लोकतांत्रिक सरकारों का मूल कर्तव्य है. अब तो समूचा विश्व एक गांव सा बन चुका है. सभी देशों के नागरिकों को अपनी मरजी के मुताबिक रहने, रोजगार करने की आजादी होनी चाहिए. लोकतंत्र, किसी भी अन्य शासन प्रणाली की तुलना में, लोगों की तरक्की, स्वतंत्रता में सर्वाधिक योगदान देता है. यही विकल्प की मुख्य चाबी है.

नागरिकों के बोलने, चलने के अधिकार पर किसी तरह की कोई आंच न आए, अगर अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले होते हैं, व्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ती है व समाज आजादी को ले कर सशंकित रहता है तो ऐसे समाज को सच्चा लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता. ऐसे में भारत और अरब देशों में फर्क क्या रह जाएगा.

भारत सरकार को उदार लोकतंत्र होने की आदर्श मिसाल पेश करते हुए तस्लीमा को 1 साल का वीजा एक्सटैंशन नहीं बल्कि स्थायी नागरिकता दे देनी चाहिए. भारतीय संविधान तो लोकतंत्र के लिए ही प्रतिबद्ध है. तस्लीमा को कहीं भी रहने की लोकतांत्रिक आजादी है.

गरुड़ पुराण कोरा अंधविश्वास

भारतीय वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष अनुसंधान में इतनी उन्नति कर ली है कि आज अमेरिका जैसा देश इस का लोहा मानता है. वहीं, दूसरी तरफ देश का समाज अंतरिक्ष संबंधी अंधविश्वासों में उलझ कर अपना एक पैर गोबर में ही रखना चाहता है. हमारा समाज सदियों से अंधविश्वासों की बेडि़यों में जकड़ा है. इस समाज को पथभ्रष्ट करने वाली धार्मिक पोथियों में ‘गरुड़ पुराण’ का नाम सब से ऊपर है.

गरुड़ पुराण एक कर्मकांड शास्त्र है जिस में आम आदमी को मौत का भय दिखा कर तरहतरह के अंधविश्वासों व दान जैसी मिथ्या बातों में उलझाने का प्रयत्न किया गया है. यह विडंबना ही है कि सदियों बाद भी समाज ने गरुड़ पुराण में वर्णित मृत्यु संबंधी कर्मकांडों का त्याग नहीं किया है. परिवारों में आज भी मृत्यु हो जाने पर गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है और पुत्र सिर मुंडवा कर आयुपर्यंत दानपुण्य के नाम पर लुटता है.

गरुड़ पुराण में 16 अध्याय हैं. हर अध्याय में मृत्यु के बाद मनुष्य की कथित यमलोक यात्रा का हास्यास्पद विवरण है. आरंभ के अध्यायों में ‘पाप’ विशेष की यातना, यातना देने के तरीकों, देवीदेवताओं, पुजारियों व पुरुषों के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है. जबकि अंतिम अध्यायों में तरहतरह का दान करने की सलाह दे कर पापों से मुक्ति प्राप्त करने की बात कही है.

आम धारणा है कि मनुष्यों को कथित यमदूत उन के पापों की सजा देते हैं लेकिन गरुड़ पुराण के अंतिम अध्यायों से तो यही जाहिर होता है कि मनुष्य पाप कर के यदि गरुड़ पुराण में वर्णित तरीके से दान करे तो वह पापों से मुक्त हो जाता है.

अंधविश्वास कैसेकैसे

गरुड़ पुराण में कहा गया है कि पापियों के प्राण गुदा जैसी नीचे की जननेंद्रियों से और पुण्य करने वाले व्यक्तियों के प्राण ऊपर के अंगों से निकलते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य की मौत श्वसन तंत्र फेल हो जाने से ही होती है.

गरुड़ पुराण के प्रथम अध्याय के अनुसार, मृत्यु के बाद मनुष्य का कद एक अंगूठे के आकार जितना रह जाता है और उस को यमलोक की यात्रा करवाने के लिए निकले दूत भयानक होते हैं. पुस्तक के प्रथम अध्याय में कहा गया है कि यमदूत अंगूठे के आकार के मृत व्यक्ति को घसीटते हैं, जहरीले सांपों से डसवाते हैं, तेज कांटों से बेधते हैं, शेर व बाघ जैसे हिंसक जानवरों के सामने आहार के रूप में परोसते हैं. आग में जलाते हैं, कुत्तों से कटवाते व बिच्छुओं से डसवाते हैं.

यहां प्रश्न उठता है कि इतनी यातनाएं देने के बाद भी अंगूठे के आकार का मनुष्य जीवित कैसे रह सकता है? और क्या विशालकाय यमदूतों को अंगूठे के आकार के व्यक्ति को घसीटने की जरूरत पड़ सकती है?

सजाएं यहीं समाप्त नहीं होतीं. इतने छोटे आकार के व्यक्ति को छुरी की धार पर चलाया जाता है. अंधेरे कुओं में फेंका जाता है. जोंकोंभरे कीचड़ में फेंक कर जोंकों से कटवाया जाता है. उसे आग में गिराया जाता है. तपती रेत पर चलाया जाता है. उस पर आग, पत्थरों, हथियारों, गरम पानी व खून की वर्षा भी की जाती है. अंगूठे के आकार के व्यक्ति को वैतरणी नदी जिस का किनारा हड्डियों से जोड़ा गया है व जिस में रक्त, मांस व मवाद का कीचड़ भरा है, में डुबोया जाता है.

उस के बाद यमदूत उसे समयसमय पर भारी मुगदरों से भी पीटते हैं. मृतक की नाक व कानों में छेद कर के उसे घसीटते हैं और शरीर पर लोहे का भार लाद कर भी चलवाते हैं. इस तरह की कई कथित यातनाएं मृतक को दी जाती हैं. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वह मरता नहीं. इस वैज्ञानिक युग में इस तरह की बातें अविश्वसनीय व हास्यास्पद नहीं हैं तो और क्या हैं?

गरुड़ पुराण में कई बातें परस्पर मेल नहीं खातीं. मसलन, प्रथम अध्याय के 37वें श्लोक में कहा गया है कि यमलोक तक के मार्ग में कहीं वृक्षों की छाया व विश्राम का स्थल नहीं है जबकि इसी अध्याय के 44वें श्लोक में मृतक को यमदूतों सहित एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम करने की बात कही गई है.

दूसरे अध्याय के 77वें श्लोक में कहा गया है कि शौतादय नाम के कथित नगर में हिमालय से 100 गुणा अधिक सर्दी पड़ती है. जब हिमालय, जहां का तापमान शून्य से नीचे रहता है, में ही कोई मानव बस्ती नहीं है तो वहां से 100 गुणा अधिक सर्दी वाली जगह पर एक नगर कैसे बस सकता है? शून्य से नीचे के तापमान में खून जमना आरंभ हो जाता है. जहां शून्य से नीचे 100 डिगरी या उस से अधिक ठंडा तापमान होगा वहां से तो यमदूत भी जीवित नहीं गुजर सकते.

गरुड़ पुराण के चौथे अध्याय में तीर्थों, ग्रंथों व पुराणों पर विश्वास न करने वाले, नास्तिक व दान न देने वाले व्यक्तियों को पापी कहा गया है. मृत्यु के बाद उन को नरक भुगतना पड़ता है.

चौथे अध्याय के अनुसार, गुड़, चीनी, शहद, मिठाई, घी, दूध, नमक व चमड़ा बेचना पाप है. 5वें अध्याय के मुताबिक गर्भ नष्ट करने वाला डाक्टर म्लेच्छ जाति में जन्म लेता है तथा सदा रोगों से पीडि़त रहता है. इसी अध्याय के 5वें श्लोक के अनुसार, जो व्यक्ति अकेला ही किसी स्वादिष्ठ वस्तु को खाता है उसे गलगंड रोग हो जाता है. श्राद्ध में अपवित्र अन्न दान में देने वाले को कुष्ठ रोग हो जाता है. पुस्तकें चुराने वाला जन्म से ही अंधा व पानी चुराने वाला पपीहे के रूप में जन्म लेता है. क्या इन बातों पर विश्वास किया जा सकता है?

सामाजिक बुराइयों का पक्ष

गरुड़ पुराण में जातिप्रथा व सतीप्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों का विरोध करने के स्थान पर खुलेआम इन का समर्थन किया गया है. इस पुस्तक के प्रथम अध्याय के 40वें श्लोक में पति की मृत्यु पर सती न होने वाली पत्नियों को नरक भोगने की

सजा देने की बात कही गई है. 10वें अध्याय के श्लोक संख्या 34 से 40 तक सतीप्रथा के महत्त्व पर प्रकाश डाल कर विधवाओं के लिए सती होने के तरीके सुझाए गए हैं.

इसी अध्याय के श्लोक संख्या 45 के अनुसार, पति के मरने पर जब तक स्त्री अपने पति के साथ सती नहीं होती तब तक उस का मृत पति उस के शरीर से अलग नहीं होता. श्लोक 47 के मुताबिक, सती होने वाली पत्नी को स्वर्गलोक प्राप्त होता है. श्लोक संख्या 53 के अनुसार, पति के साथ सती न होने वाली पत्नियों को विरह की आग में जलने की यातना दी जाती है. देश के राजस्थान जैसे राज्यों में आज भी सतीप्रथा की बात होती रहती है. इस प्रथा को गरुड़ पुराण जैसे धार्मिक ग्रंथ ही बढ़ावा देते हैं जिन पर अंकुश लगाया जाना चाहिए.

इस अंधविश्वास पुराण के चौथे अध्याय की श्लोक संख्या 21 के अनुसार, वेद के अक्षरों को पढ़ने वाले व गाय का दूध पीने वाले शूद्रों को यमराज द्वारा रक्त व मवाद की नदी वैतरणी में डुबोने की सजा दी जाती है. 7वें अध्याय के 12वें श्लोक के अनुसार, मनुष्य को छोटी जाति की कन्याओं से दूर रहना चाहिए क्योंकि केवल सवर्ण पुरुषमहिलाओं के मिलने से उत्पन्न पुत्र ही दान के माध्यम से पुरखों को स्वर्ग पहुंचा सकता है.

गरुड़ पुराण में ब्राह्मण समुदाय को सब से ऊंचा माना गया है. छठे अध्याय के 36वें श्लोक में ब्राह्मण समुदाय को सब से ऊंचा माना गया है. एक प्रकार से यह पुस्तक इस समुदाय के हितों को ध्यान में रख कर ही लिखी गई है.

दान पर जोर

पहले अध्याय के 42वें श्लोक के अनुसार, मनुष्य की मृत्यु के समय किया गया दान मृतक व्यक्ति खाता है. 50वें श्लोक के अनुसार, 10 दिन तक पिंडदान करने से मृतक के शरीर के विभिन्न अंग बनते हैं.

मृतक की यमलोक की पूरी यात्रा के दौरान तरहतरह के भय दिखा कर उस के परिजनों को कुछ न कुछ दान करने की सलाह दी गई है. दूसरे अध्याय के 67वें श्लोक में कहा गया है कि जो मनुष्य दान नहीं करता वह वैतरणी नदी में डूब जाता है.

चौथे अध्याय के 17वें श्लोक के मुताबिक, दान देते हुए व्यक्ति को रोकने वाला भी मवाद की ही नदी में गिरता है. 5वें अध्याय में लिखा है कि यदि आप से जीवन में भूलवश कई पाप हो भी गए हैं तो चिंता न करें. इस से बचने का उपाय 8वें अध्याय के 67वें श्लोक में मौजूद है. काली या लाल गाय के सींगों को सोने व पैरों को चांदी का आवरण चढ़ा कर यदि उसे काले कपड़े से ढक कर तांबे के पात्र, सोने से निर्मित यमराज की मूर्ति को कपास सहित दान करें तो समझिए आप की नैया पार लग गई. आप को वैतरणी पार कराने विशेष दूत आएंगे.

दानपुण्य लेने वालों का वर्गविशेष जो ‘चार्ज’ नाम से जाना जाता है. मृतक के हाथ से दान ग्रहण करता है. आम लोगों का मानना है कि इस से मृतक के पाप धुलते हैं जबकि सचाई यह है कि इस से केवल दान ग्रहण करने वाले का ही कल्याण होता है. इसलिए ऐसे पुराण व ग्रंथ, जिन के माध्यम से समाज का एक वर्गविशेष दूसरे वर्गों के हितों पर कुठाराघात कर, अंधविश्वासों के बल पर समाज को भयभीत कर के अपने हित साधे, निश्चित रूप से सामाजिक उन्नति में बाधा हैं.

भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विज्ञान के क्षेत्र में की जा रही प्रगति तभी सार्थक साबित हो सकती है जब देश का समाज गरुड़ पुराण जैसे अंधविश्वास उत्पन्न करने वाले पुराणों व इन का पाठ कर के उसे भयभीत करने वाले धर्म के ठेकेदारों का बहिष्कार करे.

नेताओं का स्टाइल फंडा

धुआंधार भाषणों के अलावा नरेंद्र मोदी अपनी एक खास स्टाइल और पोशाक के चलते भी काफी शोहरत हासिल कर चुके हैं. चुनाव प्रचार के दौरान जनता का ध्यान खींचने में दूसरे नेताओं, खासतौर से अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के राहुल गांधी के मुकाबले ज्यादा कामयाब रहे थे. आधी बांह का कुरता और उस के ऊपर नेहरूकट जैकेट उन पर खूब फबी थी. कई दफा उन्होंने चूड़ीदार पाजामा भी पहना. लोकसभा चुनाव के दौरान ही एक सर्वे में 76 फीसदी लोगों ने मोदी को सब से स्टाइलिश नेता माना था. यह कहने में भी लोग हिचकिचाए नहीं थे कि वे ड्रैस के कारण उम्र से कम दिखते हैं.

बदल रहे हैं नेता

आजादी के बाद अधिकांश नेताओं की पसंदीदा पोशाक धोती, कुरता और जैकेट हुआ करती थी, सिर्फ पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे दोचार विदेश में पढ़े नेता ही पैंट, शर्ट या सूट पहनते थे. इसलिए वे अलग चमकते भी थे.

धीरेधीरे धोती की जगह पाजामे और पैंट ने ले ली पर नेता कुरते का मोह नहीं छोड़ पाए. पुराने नेताओं के पास 4-6 जोड़ी कपड़े हुआ करते थे पर आजकल के नेताओं की अलमारियों में सैकड़ों जोड़ी पोशाकें होती हैं. कभी केवल भाषणों की वजह से पहचाने जाने वाले नेता अब फैशन और ड्रैस की वजह से भी सुर्खियों में रहने लगे हैं. जनता भी चाहती है कि नेता स्मार्ट और स्टाइलिश कपड़े पहनने वाला हो और अलग दिखे, खासतौर से प्रधानमंत्री, क्योंकि उस पर दुनिया भर की निगाहें होती हैं. 

नरेंद्र मोदी अकसर दाएं हाथ में घड़ी पहनते हैं और उन के टेलर विपिन चौहान की मानें तो वे एक दफा कह चुके हैं कि मैं अपनी आंखों, आवाज और कपड़ों से समझौता नहीं कर सकता. प्रधानमंत्री बनने के बाद अब वे और सजग हो चले हैं और इस बात का भी खयाल रखते हैं कि पोशाक भारतीय हो लेकिन उस में इंटरनैशनल लुक भी हो. साल 2014 में ब्राजील दौरे के दौरान मोदी अलग अंदाज में दिखे थे. कुरतेपाजामे की जगह वे सूट में नजर आए थे जिसे अहमदाबाद की जेड ब्लू कंपनी ने डिजाइन किया था. सूट पहनने के पीछे मोदी की मंशा शायद यही थी कि विदेश जाएं तो ऐसे दिखें भी कि लोग यह समझ जाएं कि सब से बडे़ लोकतांत्रिक देश की अगुआई करने वाला हर रंग में खुद को रंगना जानता है.

और भी हैं उदाहरण

स्टाइलिश नेताओं में दूसरा बड़ा नाम कांगे्रस के ज्योतिरादित्य सिंधिया का लिया जाता है जो अपने पिता माधवराव की तरह ही खास अंदाज में दिखते हैं. सिंधिया की पसंदीदा ड्रैस चूड़ीदार पाजामा, सफेद झकास कुरता और नेहरूकट जैकेट है. इन कपड़ों के साथ वे काले रंग के जूते पहनते हैं. ग्वालियर राजघराने का वैभव तो ज्योतिरादित्य के चेहरे से झलकता ही है पर तरहतरह के बेशकीमती चश्मे भी उन के पास हैं. उन के एक नजदीकी ग्वालियर के पत्रकार की मानें तो चश्मों के अलावा उन के पास कलाई घडि़यों और रिस्ट बैंड का भी भंडार है.

कांगे्रस के ही राहुल गांधी हालांकि कभी अपनी ड्रैस और स्टाइल की वजह से चर्चित नहीं हुए पर सभाओं में वे अकसर सफेद कुरतापाजामा या फिर जींस की पैंट के ऊपर ढीला कुरता पहन कर जाते हैं और दाढ़ी हलकी बढ़ी रखते हैं. लंदन के एक नामी स्टोर्स से कपड़ों की खरीदारी करने वाले राहुल गांधी के पास प्रिंटैड शर्ट और सूट भी इफरात में हैं लेकिन उन्हें वे कभीकभार ही पहनते हैं.

राहुल के मुकाबले उन की मां सोनिया गांधी पहनावे के कारण ज्यादा लोगों का ध्यान खींचती हैं. जनसभाओं में वे साड़ी के अलावा कभीकभी सूट भी पहनती हैं. हैंडलूम के अलावा मध्य प्रदेश की मशहूर चंदेरी साड़ी हो या ओडिशा की संबलपुरी साड़ी, इन से सोनिया गांधी की अलमारियां भरी पड़ी हैं. अकसर हाई हील की सैंडल और चप्पल पहनने वाली सोनिया कभीकभी बंद गले का ब्लाउज भी पहने दिखती हैं जो उन्हें और खास बनाता है.

सुषमा स्वराज का स्टाइल भी औरतों को भाता है. वे साड़ी के ऊपर कोटि (जैकेट) पहनती हैं तो खूब जंचती हैं जिस पर माथे पर लगी बड़ी बिंदी बरबस ही लोगों का ध्यान खींचती है.

उलट इस के पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने सख्त तेवरों के मुकाबले कपड़े बेहद सादे पहनती हैं. राजनीतिक सफर की शुरुआत में वे खुद अपनी साडि़यां डिजाइन करती थीं और आज भी बगैर इस्त्री की साडि़यां पहन कर ही विधानसभा और जनता के बीच पहुंचती हैं. उन का यह सादगीभरा पहनावा, पश्चिम बंगाल में फैशन बनता जा रहा है. वे अकसर सफेद या हलकी नीली साड़ी पहनती हैं.

ममता जैसा ही हाल बसपा प्रमुख मायावती का है जिन्होंने कभी तड़कभड़क वाले पहनावे में यकीन नहीं किया और सादगी को ही फैशन बना डाला. मायावती के सलवार सूट दूर से ही सस्ते दिखते हैं. वे दुपट्टे को शाल की तरह इस तरह पहनती हैं कि वह घुटनों तक लटकता नजर आता है.

फिल्म एक्ट्रैस हेमा मालिनी अब मथुरा से भाजपा की सांसद भी हैं, नेतागीरी करते हुए वे अपने कपड़ों का खास खयाल रखती हैं. चुनाव प्रचार के दौरान वे सिल्क और कांजीवरम की साडि़यों में नजर आई थीं. खास बात यह है कि वे ड्रैस से मेल खाती ज्वैलरी पहनती हैं. साडि़यों और गहनों के मामले में तमिलनाडु की सीएम जे जयललिता किसी से पीछे नहीं.

स्टाइलिश नेताओं में एक अहम नाम भाजपा के नवजोत सिंह सिद्धू का भी है. सिद्धू उन गिनेचुने नेताओं में से हैं जो परंपरागत भारतीय कपड़ों के बजाय पैंटशर्ट पहनते हैं. पगड़ी के रंग से मैच करती टाई उन्हें स्टाइलिश बनाती है. जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की भी गिनती फैशनेबल और स्टाइलिश नेताओं में होती है. चूड़ीदार पाजामे पर वे अकसर सिल्क का कुरता पहनते हैं और नेहरूकट जैकेट उन की भी पसंदीदा पोशाक है.

कांग्रेस के सचिन पायलट भी अपने अलग लुक के लिए जाने जाते हैं. वजह, वे अकसर सहूलियत वाली परंपरागत ड्रैस पैंटशर्ट पहनते हैं. नेता दिखने के लिए वे भी सभाओं में जैकेट पहने रहते हैं. एक खास किस्म का चश्मा भी सचिन पहनते हैं. वे मान भी चुके हैं कि पैंटशर्ट्स का खास कलैक्शन उन के पास है.

स्टाइल के माने

हर एक नेता चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान उस की तरफ जाए, इसलिए तेजी से उन का रुझान फैशन, स्टाइल और ड्रैस की तरफ बढ़ रहा है. यह जरूरी नहीं कि यही शोहरत की वजह हो पर और नेताओं से हट कर पहचान तो होती ही है. राजीव गांधी अपने बंद गले के सूट के चलते खूब पसंद किए गए थे, तो दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव का कुरतापाजामा भी लोगों ने सराहा.

वहीं, कई नेता ऐसे भी हैं जो प्रसिद्ध होते हुए भी ड्रैस और स्टाइल में मात खा गए. इन में सब से बड़ा नाम ‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल और उन के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कपड़े और पहनावे पर तवज्जुह नहीं देते.

केवल अपने देश के ही नहीं, बल्कि कई विदेशी नेता भी अपनी ड्रैस, फैशन और स्टाइल की वजह से पहचाने जाते रहे हैं. इन में क्यूबा के कम्युनिस्ट नेता फिदेल कास्त्रो एक अहम नाम है जो अकसर खिलाडि़यों वाला ट्रैक सूट पहनते थे. चीन के पूर्व राष्ट्रपति माओत्से तुंग भी अपने सफारी सूट के कारण लोकप्रिय हुए थे. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन का सूट भी काफी चर्चाओं में रहा था. इन दिनों अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के नेता रिक सालोरूम का स्वेटर भी सुर्खियों में है.

भारत में स्टाइलिश नेताओं की तादाद काफी कम है. वजह, नेता छोटे शहरों में पैदा होते हैं जिन की नजर में खादी का कुरतापाजामा और जैकेट ही नेता की पहचान होती है. पैंटशर्ट पहन जनता के बीच जाने से छोटा नेता भी परहेज करता है. नरेंद्र मोदी के मेकओवर से इस सोच में कितना बदलाव आएगा यह देखना दिलचस्पी की बात होगी.

सांप्रदायिकता की आग में झुलसता उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश में 2012 के बाद से सांप्रदायिक तनाव, लड़ाईझगडे़ और दंगों का जो सिलसिला चल रहा है वह 2 साल के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रहा. प्रदेश में 2012 में सांप्रदायिक तनाव की 134 घटनाएं घटी थीं. 2013 में 247 घटनाओं में 77 लोग मरे और 360 लोग घायल हुए. 2014 में घटी अब तक 56 घटनाओं में 15 लोग मारे गए.

2013 में पूरे देश में कुल 823 घटनाएं घटीं. इन में 133 लोग मरे और 2269 लोग घायल हुए. उन में सब से अधिक घटनाएं उत्तर प्रदेश में घटीं. उस साल देश का सब से बड़ा दंगा उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर जिले में हुआ. परेशानी की बात यह है कि बहुत सारी कोशिशों के बाद भी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव खत्म नहीं हो पा रहा है. छोटीछोटी घटनाएं कब दंगे का रूप ले लेती हैं, पता ही नहीं चलता है. इस का सब से अधिक प्रभाव प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में पड़ रहा है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश सब से संपन्न व खुशहाल क्षेत्र माना जाता था. दलित, पिछड़ों और किसानों के राजनीतिक समीकरण ने देश और प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने का काम किया था. पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत जैसे नेता इसी क्षेत्र से आंदोलन शुरू कर के देश के पटल पर छा गए थे. यहां अलगअलग धर्म और जातियों के लोग मिलजुल कर खेतों में काम करते थे. इस वजह से यह देश के सब से संपन्न खेती वाले इलाकों में आता था. अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहचान बदल चुकी है. यहां सांप्रदायिक गोलबंदी शुरू हो चुकी है. ऐसे में राजनीतिक दलों को भी मजा आ रहा है. हर दल दूसरे दल पर सांप्रदायिकता के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगा रहा है. जरूरत इस बात की है कि जनता खुद ऐसे तत्त्वों को सबक सिखाने का काम करे.

केंद्रीय खुफिया एजेंसी आईबी ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश पुलिस को चौकन्ना रहने के लिए कहा है. आईबी ने उत्तर प्रदेश को भेजी अपनी जानकारी में कहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धर्म परिवर्तन, महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों और अपहरण को ले कर घट रही घटनाओं को शरारती तत्त्व सांप्रदायिक रंग दे सकते हैं. आईबी ने पुलिस को ऐसे मामलों से सही तरीके से निबटने और इलाके में पुलिस बल बढ़ाने की बात कही है. आईबी ने यह जानकारी उस समय भेजी है जब मेरठ के खरखौंदा इलाके में एक युवती के साथ बलात्कार, अपहरण और धर्मपरिवर्तन का मामला गरम है.

खरखौंदा का धर्मपरिवर्तन कांड

मेरठ के खरखौंदा में रहने वाली लड़की गरीब परिवार की थी. वह पढ़ने में होशियार थी. घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए उस ने मसजिद में चलने वाले स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया. यहीं उस के संबंध कलीम नामक युवक से बन गए जिस से उस को गर्भधारण हो गया. परेशानी की बात यह थी कि गर्भ बच्चेदानी के बजाय फैलोपियन ट्यूब में ठहर गया जिस को मैडिकल की भाषा में एक्टोपिक प्रैग्नैंसी कहते हैं.  एक्टोपिक प्रैग्नैंसी में गर्भ ठहरने से पेट में दर्द होने लगता है. गर्भ के बढ़ने से फैलोपियन ट्यूब के फटने का खतरा रहता है. जब इस युवती को पेट में दर्द शुरू हुआ तो कलीम उसे ले कर लाला लाजपत राय मैमोरियल अस्पताल, मेरठ गया. अस्पताल में उस ने महिला डाक्टर सुनीता को परचा और अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट दिखाई. इस के बाद 23 जुलाई को लड़की का औपरेशन किया गया. 29 जुलाई को लड़की अपने घर वापस आई. इस के बाद 31 जुलाई को उस के अपहरण और धर्मपरिवर्तन की बात सामने आई. 

इस बात को ले कर पुलिस के अलगअलग बयान आ रहे हैं जिस के कारण मामला उलझ गया है. मेरठ ही नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूसरे शहरों में भी गांव की गरीब लड़कियों को बहलाफुसला कर फंसाने के तमाम मामले बिखरे पड़े हैं. ऐसे में इस तरह की अफवाहों को रंग देने में समय नहीं लगता.  पुलिस अगर समय पर सही ढंग से बिना किसी भेदभाव के छानबीन करे और दोषियों को सजा दे तो ऐसी अफवाहों को रोका जा सकता है.

मेरठ की ही तरह सहारनपुर में गुरुद्वारा और मसजिद की जमीन के विवाद में भड़के दंगे ने सहारनपुर की फिजा को नुकसान पहुंचाने का काम किया है.

कांठ में लाउडस्पीकर की गांठ

धार्मिक झगड़ों की कोई बड़ी वजह नहीं होती. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के कांठ इलाके में आने वाले गांव अकबरपुर चैदरी के नयागांव मजरा में भी यही हुआ. यह गांव पीस पार्टी के विधायक अनीसुर्रहमान के चुनावी क्षेत्र में है. वे समाजवादी पार्टी के भी करीबी माने जाते हैं. यहां हिंदू और मुसलिम मिलीजुली आबादी के रूप में रहते हैं. हिंदुओं में बड़ी संख्या जाटव जाति के लोगों की है जो दलित वर्ग से आते हैं. यहां के शिवमंदिर में शिवरात्रि के त्यौहार पर लाउडस्पीकर लगा कर पूजा की जाती थी. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं ने मंदिर को लाउडस्पीकर दान में दिया़ इस के बाद रोज पूजा के समय लाउडस्पीकर बजने लगा. इस बात का विरोध दूसरे वर्ग के लोगों ने किया. उन का तर्क था कि मसजिद में होने वाली अजान के समय मंदिर का लाउडस्पीकर बजने से अजान में खलल पड़ता है.

इस बात को ले कर दोनों पक्षों में तनाव बढ़ गया. बीच का रास्ता यह तय हुआ कि जब तक रमजान का महीना चल रहा है, मंदिर पर लाउडस्पीकर न बजाया जाए. 3 अगस्त के बाद लाउडस्पीकर फिर से लगा लिया जाए. कु छ लोग इस बात को ले कर सहमत थे तो कुछ लोग इस के विरोध में थे. उन का मानना था कि जब एक पक्ष लाउडस्पीकर लगा सकता है तो दूसरा क्यों नहीं? मामला नहीं सुलझा तो 20 जून को थाना कांठ में सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने के लिए अपराध संख्या 84/14 के अधीन धारा 153, 120 बी के तहत 10 लोगों के खिलाफ मुकदमा कायम कर दिया गया. जिला प्रशासन ने मंदिर से लाउडस्पीकर हटाने के लिए पुलिस बल का प्रयोग किया. विरोध में वहां के भाजपा सांसद ने 4 जुलाई को महापंचायत बुला ली.

प्रशासन ने धारा 144 लगा कर जब महापंचायत को रोकने का काम किया तो भाजपा के 3 सांसद नेपाल सिंह, सतपाल सैनी और भंवर सिंह तंवर व विधायक संगीत सोम विरोध में उतर आए. बाद में हरिद्वारमुरादाबाद रेल मार्ग जाम कर रहे लोगों ने पुलिस और प्रशासन के लोगों पर पथराव शुरू कर दिया जिस में कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए. पथराव करने आए लोगों ने अपने चेहरे पर कपड़ा बांध रखा था जिस से उन को पहचाना न जा सके. झगड़े में हुई पत्थरबाजी में मुरादाबाद के डीएम चंद्रकांत को गंभीर चोट लगी. उन की एक आंख की रोशनी चली गई.

लापरवा प्रशासन

मुराबादबाद के एसएसपी धर्मवीर सिंह कहते हैं, ‘‘भाजपा ने ठाकुरद्वारा विधान- सभा सीट पर होने वाले उपचुनावों को सामने रख कर तनाव फैलाने का काम किया है.’’ एसएसपी के इस बयान का भाजपा ने खुलेरूप में विरोध किया. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेई कहते हैं, ‘‘एसएसपी का यह बयान समाजवादी पार्टी के नेता सा बयान है. उन का काम जिले में तनाव को रोकना था. वे एकतरफा कार्यवाही कर रहे हैं, जिस के चलते क्षेत्र के लोग सरकार और प्रशासन दोनों का विरोध कर रहे हैं.’’ लोकसभा चुनावों में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली उस से एक संदेश यह चला गया कि सांप्रदायिक तनाव और झगड़ों के चलते यह जीत मिली है. ऐसे में कुछ नेता 2017 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए ऐसे तनाव को बढ़ाने में लगे हैं. 

दरअसल, घटना कहीं भी घट सकती है, तनाव हो सकता है लेकिन दंगा तभी भड़कता है जब उस में राजनीति लिप्त कर दी जाती है, खासकर वोट की राजनीति. वहीं, कुछ चेहरे संप्रदाय विशेष का मसीहा बनने की फिराक में तनाव को दंगे का रूप देने से बाज नहीं आते. समय रहते अगर दंगों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो सामाजिक विद्रोह की चिंगारी सुलगती रहेगी.

सीसैट : भाषाई भेदभाव के खिलाफ आक्रोश

पटना से ले कर दिल्ली तक और देहरादून से ले कर इंदौर तक हिंदीभाषी छात्र गुस्से में हैं और आरपार की लड़ाई का मूड बना चुके हैं. इन छात्रों ने सरकार को साफ चेतावनी दी है कि सिविल सर्विसेज एग्जाम से सीसैट को हर हाल में खत्म करना होगा. कहने का मतलब यह कि हिंदीभाषियों और तमाम दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के माध्यम से सिविल सर्विसेज एग्जाम देने वाले

छात्र अब किसी भी कीमत पर सीसैट को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं. आखिर छात्र सीसैट से इतने खफा क्यों हैं?

दरअसल, साल 2011 में संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी ने अपनी प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम के अंतर्गत कौमन सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टैस्ट यानी सीसैट पैटर्न जोड़ा. इसे वाई के अलघ समिति की सिफारिशों के मद्देनजर संघ लोक सेवा आयोग ने जोड़ा था. इसे 2014 में पूरी तरह से लागू करना था. वास्तव में इस की सिफारिश का कारण यह माना गया था कि तेजी से बदलती परिस्थितियों में रट कर 5 प्रश्न हल करने की प्रणाली, जटिल प्रशासनिक जरूरतों के लिए योग्य प्रतिभाओं को छांट पाने में कामयाब नहीं हो पा रही थी. इसलिए सीसैट को लाया गया. मतलब यह कि इसे परीक्षार्थियों की कुशलता परखने के औजार के रूप में शामिल किया गया.

प्रारंभिक परीक्षा में जोड़े गए सीसैट पैटर्न का उद्देश्य यह था कि इस के जरिए उन विद्यार्थियों का चयन हो सके जिन में सहज प्रशासनिक क्षमता हो. लेकिन माना जा रहा है कि इस से हिंदी और दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों को कोई फायदा नहीं हो रहा, उलटे उन का बहुत नुकसान हो रहा है.

सीसैट पैटर्न के तहत यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा में 400 अंकों के 2 पेपर होते हैं. इन में से 200 अंकों का पेपर सामान्य अध्ययन का होता है और 200 अंकों का सीसैट होता है. 2 साल के अनुभवों के बाद पाया गया है कि इस के चलते जहां कुछ खास शैक्षिक पृष्ठभूमि के लोगों के लिए यह परीक्षा बिलकुल आसान हो गई है, वहीं कुछ दूसरों के लिए यह पहले के मुकाबले अब काफी मुश्किल हो गई है. वास्तव में इस पैटर्न के चलते गैर अंगरेजी माध्यम वाले प्रतियोगियों के लिए प्रारंभिक परीक्षा पास करना लगातार काफी मुश्किल हो गया है. सीसैट लागू होने के बाद से अभ्यर्थी, खासकर ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले छात्र, गणित व रीजनिंग के सवालों से खासे परेशान नजर आ रहे हैं.

आयोग की दादागीरी

हालांकि शुरू में यानी 2011 में जब इसे पहली बार लागू किया गया था तब इतनी परेशानी नहीं हुई थी लेकिन बाद में साल दर साल सीसैट परीक्षा में गणित और रीजनिंग के जैसेजैसे सवाल बढ़े, मानविकी के छात्रों का बंटाधार होने लगा. पिछली बार यानी 2013 में सामान्य अध्ययन द्वितीय प्रश्नपत्र (सीसैट) में हिंदी कौंप्रिहैंशन के 23, अंगरेजी कौंप्रिहैंशन के 8, निर्णयन के 6, गणित के 15 व रीजनिंग के 28 सवाल पूछे गए. इस पैटर्न के चलते सामान्य अध्ययन के प्रथम प्रश्नपत्र में भी व्यावहारिक विज्ञान, अर्थशास्त्र और भूगोल के सवालों ने परीक्षार्थियों के लिए मुसीबत पैदा की. फिर भी परीक्षार्थियों के मुताबिक, पहला प्रश्नपत्र औसतन आसान और व्यावहारिक था.

पहली पाली में हुई इस परीक्षा में 2 घंटे में वस्तुनिष्ठ प्रकृति के 100 प्रश्न हल करने थे. हर प्रश्न के सही उत्तर के लिए 2 अंक मिलने थे, जबकि गलत उत्तर के लिए एकतिहाई अंक कटने थे. लेकिन सामान्य अध्ययन के द्वितीय प्रश्नपत्र में 200 अंक के 80 सवाल पूछे गए. इन सवालों में 40 सवाल कौंप्रिहैंशन के थे. वास्तव में फोकस किया जाए तो अंतिम रूप से फसाद की जड़ यही 40 कौंप्रिहैंशन के सवाल हैं. सीसैट इसी जगह पर आ कर भारतीय भाषाओं के छात्रों के लिए खलनायक बन जाता है.

गैर अंगरेजी माध्यम वाले परीक्षार्थियों का आरोप है कि सीसैट पैटर्न पर पूछे जाने वाले सवाल मूलरूप से अंगरेजी में बनाए जाते हैं. हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं में इन का इतना घटिया अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है कि ये सवाल एक बार पढ़ने से तो समझ ही नहीं आते, जबकि कई बार पढ़ कर समझने से काफी वक्त जाया हो जाता है. एक तरह से उन के कहने का मतलब यह है कि सारी जड़ अंगरेजी है.

हिंदी और दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के छात्र मानते हैं कि सीसैट परीक्षा अंगरेजी माध्यम में इंजीनियरिंग और मैनेजमैंट की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए बहुत ज्यादा अनुकूल है. उन के मुताबिक, भारतीय भाषाओं में दिए गए अनुवाद न सिर्फ काफी जटिल होते हैं बल्कि बोधगम्य भी नहीं होते. इस के साथ ही आयोग की यह दादागीरी भी देखिए कि वह स्पष्ट रूप से मानता है कि अंगरेजी के प्रश्न ही अंतिम रूप से मानक हैं अर्थात किसी तरह की त्रुटि की स्थिति में अंगरेजी में लिखा हुआ ही मान्य होगा. कहने का मतलब आप आयोग को उस की किसी गलती के लिए घेर भी नहीं सकते. सीसैट का विरोध करने वालों का कहना है कि इस से हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में सफल छात्रों की संख्या में काफी गिरावट आई है.

इस में दोराय नहीं है कि ये तमाम आरोप तकनीकी दृष्टि से बिलकुल सही हैं. इन्हें तथ्यों के रूप में भी देखा जा सकता है. मसलन, 2013 की सिविल सेवा परीक्षा में सफल हिंदी माध्यम के छात्रों का प्रतिशत मात्र 2.3 रहा जबकि 2003 से 2010 के बीच ऐसे छात्रों का प्रतिशत हमेशा 10 से ज्यादा रहा था. 2009 में तो यह प्रतिशत 25.4 तक चला गया था. 2013 की परीक्षा में कामयाब हुए 1,122 छात्रों में सिर्फ 26 हिंदी माध्यम के थे. इन के साथ अगर सभी भारतीय भाषाओं के माध्यम वाले छात्रों की संख्या जोड़ लें तो वह भी सिर्फ 80 है.

समान अवसर का अभाव

इन आंकड़ों के आईने में अंगरेजी के दबदबे को स्वत: देखा जा सकता है. भारतीय भाषाओं के लिए यह आंकड़ा तब और भयावह हो जाता है जब यह पता चलता है कि सीसैट से पहले मुख्य परीक्षा में बैठने वाले छात्रों में हिंदी और अन्य भारतीय

भाषाओं के छात्रों का प्रतिशत 40 से ज्यादा होता था, जबकि सीसैट के बाद इस में बहुत भारी गिरावट आई है. पिछले 3 वर्षों में यह 10 से 15 फीसदी तक आ गिरा है.

ऐसा नहीं है कि केवल असफल छात्र ही सीसैट को खलनायक बनाने पर तुले हों. यूपीएससी की अपनी आंतरिक मशीनरी भी कहीं न कहीं इस बात को स्वीकार कर रही है. निगवेकर समिति ने भी इस पैटर्न की आलोचना की है. यूपीएससी द्वारा गठित निगवेकर समिति ने 2012 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सीसैट परीक्षा पैटर्न शहरी क्षेत्र में अंगरेजी माध्यम के छात्रों को फायदा पहुंचा रहा है.

इस संदर्भ में निगवेकर समिति की तो आलोचनात्मक टिप्पणी हुई ही है, लाल बहादुर शास्त्री अकादमी भी इस मामले में ऐसी ही टिप्पणी दे चुकी है. सवाल है इस समस्या को अगर कुछ देर के लिए हम सैद्धांतिक और वैचारिक या सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से न देखें, सिर्फ तकनीकी रूप से देखें तो यह किस तरह से गैर अंगरेजी माध्यम वाले छात्रों को परेशान करती है? वास्तव में यूपीएससी के परीक्षा परिणामों का जो इतिहास रहा है, उस में हम देखते रहे हैं कि सामान्यतया 60 प्रतिशत नंबर लाने वाले परीक्षार्थी टौप कर जाते हैं.

नए पैटर्न के चलते अंगरेजी माध्यम के छात्र इंगलिश कौंप्रिहैंशन के 9 प्रश्नों में हिंदी वालों से कम से कम 3 सवाल ज्यादा बना लेते हैं और वह भी उन के मुकाबले 5 मिनट कम समय में. वास्तव में इंजीनियरिंग, पीओ, एसएससी, मैनेजमैंट जैसी पृष्ठभूमि के प्रतियोगी, मानविकी के विद्यार्थियों की तुलना में गणित एवं शक्ति परीक्षा के 32 सवालों का कम से कम 10 मिनट कम समय में उत्तर निकाल लेते हैं. इस के चलते वे मानविकी वालों के मुकाबले 4-5 सवाल से ज्यादा हल कर लेते हैं. वास्तव में इस में भाषा से ज्यादा प्रबंधन, अभियांत्रिकी जैसी पृष्ठभूमि के परीक्षार्थियों की तेज गति से पढ़ने की आदत का उन्हें फायदा मिलता है.

कौंप्रिहैंशन सैक्शन

इस पैटर्न के चलते सब से बड़ा फर्क पैदा करता है, प्रश्नपत्र का कौंप्रिहैंशन सैक्शन. कौंप्रिहैंशन का हिंदीरूप चूंकि अनूदित होता है, इसलिए यह मूल से भी कहीं ज्यादा जटिल हो जाता है. लेकिन गे्रजुएट मैनेजमैंट ऐडमिशन टैस्ट (जीमैट), इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट (आईआईएम) एवं दूसरी प्रबंधन परीक्षाओं की तैयारी किए छात्र व छात्राएं कौंप्रिहैंशन में काफी तीव्र एवं सटीक होते हैं, क्योंकि उन्होंने पूर्व में इस की अच्छी तैयारी की होती है. चूंकि ये तमाम छात्र अमूमन अंगरेजी माध्यम के होते हैं इसलिए इसी माध्यम के खाते में ज्यादा सफलता आती है.

यही नहीं, यूपीएससी की तैयारी करने वाले छात्रों में एक तबका ऐसा भी है जो पूर्व की ऐसी परीक्षाओं की तैयारी की बदौलत ही इस में 80 से 90 प्रतिशत तक नंबर ले आता है. जबकि दूसरी तरफ ऐसे भी छात्र हैं जो कभी साक्षात्कार तक पहुंच गए थे, मगर पिछले 3 सालों से प्रारंभिक परीक्षा भी नहीं पास कर पाए हैं. इस का कारण है कि प्रारंभिक परीक्षा का कट औफ मार्क्स लगातार बढ़ रहा है, जो इस तरह की परीक्षा के विशेषज्ञों के अलावा अन्य लोगों के लिए लगभग असाध्य है. इस के उलट, मुख्य परीक्षा का प्राप्तांक पिछले 3 वर्षों से लगातार गिरते हुए कम से कम 20 प्रतिशत नीचे आ गया है.

वैसे भारतीय भाषाओं के साथ अंगरेजी माध्यम का यह कोई पहला आतंक नहीं है. इस के पहले भी ऐसा प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष तौर पर होता रहा है. चूंकि यूपीएससी की वास्तविक परीक्षा लिखित और साक्षात्कार की परीक्षा है, इसलिए इस में शामिल होने वाले प्रतिभागियों की भीड़ की छंटनी के लिए प्रारंभिक परीक्षा को अब यह रूप दे दिया गया है. वैसे पहले भी यह इसी काम के लिए थी लेकिन अब इसे और धारदार तरीके से सीसैट अंजाम दे रहा है.

पहले भी देखा गया है कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा पास करने वाले छात्रों से बहुधा अंगरेजी में साक्षात्कार लिया जाता रहा है. इस को ले कर भी बहुत बार आपत्तियां दर्ज हुई हैं. यह अकारण नहीं है कि यूपीएससी के इतिहास में कोई भी हिंदीभाषी परीक्षार्थी नंबर वन रैंक में नहीं आया है.

2013 के परीक्षाफल से तो लगता है कि आने वाले समय में मानविकी और इस में भी खासकर देशीभाषा के लोग यूपीएससी की परीक्षा वैसे ही पास कर पाएंगे जैसे कि अंगरेजी शासन के दौरान कुछ ही भारतीय यदाकदा आ जाया करते थे.

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