मुलायम का अमर प्रेम

राजनीति में प्राथमिकताएं और आस्थाएं कितनी तेजी से बदलती हैं, इस की ताजा मिसाल अमर सिंह हैं जो बीते दिनों खुद को समाजवादी नहीं, मुलायमवादी कह बैठे. लोकसभा चुनाव में कहीं ठौर नहीं मिला तो वे अजित सिंह के खेमे में चले गए और ससम्मान उन्हें भी ले डूबे.

उत्तर प्रदेश की बिगड़ी कानूनव्यवस्था के कारण मुलायम सिंह इन दिनों परेशानियों से घिरे हुए हैं. रहीसही कसर वरिष्ठ मंत्री आजम खां जबतब रूठ कर पूरी कर देते हैं. अब जबकि मुलायम का अमर प्रेम फिर से जाग उठा है तो आजम और बिदकेंगे. वैसे इस प्रेम कहानी में मुलायम की सिरदर्दी बढ़ने वाली है. आने वाला वक्त ही बताएगा कि अमर सिंह मुलायम की सिरदर्दी को कम करने के लिए कौन सी दवा देंगे.

अब वो बात कहां

चुनावों में बड़ा मजा आता है. जयजयकार होती है, फूलमालाएं डलती हैं, नारे लगते हैं, जनता अपने कामधाम छोड़ उम्मीदवारों के स्वागतसत्कार में लगी रहती है. कुल मिला कर वक्त अच्छे से कटता है.

आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल इसी अतीत को याद करते हुए दिल्ली में चुनाव की मांग पर अड़ गए हैं. उन्हें यह उम्मीद है कि फिर जीतेंगे, कुरसी मिलेगी और इस दफा उसे छोड़ने की गलती नहीं करेंगे. अब यह दीगर बात है कि ‘आप’ और केजरीवाल का कद और पूछपरख घट रही है. उम्मीद रखना उन का हक और गलतफहमी दोनों हैं. अब गेंद दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के पाले में है और चुनाव का मसला अदालत की फाइल में कैद है.

मजबूरी के भाईभाई

लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार हाजीपुर में मंच साझा करते हुए पुरानी हिंदी फिल्मों के कुंभ में बिछड़े भाइयों की तरह मिले तो आम लोगों को समझ यही आया कि मजबूरी दरअसल क्या होती है. 20 साल बाद इन धुरंधरों को ज्ञान प्राप्त हुआ कि देश सांप्रदायिक हाथों में इन की नादानियों के चलते चला गया है. जनता की समझ का इस में कोई योगदान नहीं जो बगैर सोचेसमझे वोट डाल आती है.

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