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भोपाल के नवाब की जायदाद सैफ ने उलझाया विवाद

पारिवारिक बंटवारा जज्बाजी तौर पर तो तकलीफदेह होता ही है लेकिन वक्त रहते न हो तो जायदाद के लिहाज से भी नुकसानदेह साबित होने लगता है जैसा कि भोपाल रियासत के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खान के वारिसों के बीच हो रहा है.  तकरीबन 1 हजार करोड़ रुपए की जायदाद के बंटवारे को ले कर मामला फिर अधर में लटक गया है और ऐसा लग भी नहीं रहा कि यह जल्द सुलझ पाएगा.

 इस दफा तीसरी पीढ़ी के वारिसों के अहं, महत्त्वाकांक्षाएं, पूर्वाग्रह, जिद और लालच आड़े आ रहे हैं. मौजूदा जायदाद के 7 वारिसों में से कोई भी समझौता करने के मूड में नहीं दिख रहा. सो, गेंद अब अदालत और सरकार के पाले में है. इस लड़ाई से नवाब मंसूर अली खान उर्फ नवाब पटौदी की बेगम आयशा सुल्तान यानी अपने जमाने की मशहूर फिल्म ऐक्ट्रैस शर्मिला टैगोर की अदालत के बाहर समझौता कर जायदाद बांट लेने की कोशिशों को तगड़ा झटका लगा है और इस दफा यह झटका देने वाले कोई और नहीं उन के ही बेटे बौलीवुड के कामयाब अभिनेता सैफ अली खान हैं, वरना वे अपनी मंशा में कामयाब होती दिख रही थीं.

क्या है फसाद

भोपाल रियासत की त्रासदी या खूबी यह रही है कि यहां अधिकांश वक्त बेगमें काबिज रहीं जो कोई हर्ज की बात न थी पर अब जिस तरह बंटवारे का मसौदा और मामला उलझ रहा है उसे देख लगता है कि पुरुष बेहतर तरीके से बंटवारे को अंजाम दे सकते हैं, फिर चाहे वे मध्यवर्गीय परिवारों के हों, रियासतों के हों या रजवाड़ों के.

1926 में भोपाल के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खान ने रियासत संभाली थी.  हमीदुल्लाह के चूंकि कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी मंझली बेटी साजिदा सुल्तान को शासक नियुक्त कर दिया था. कायदे से यह जिम्मेदारी उन की बड़ी बेटी आबिदा सुल्तान को मिलती पर वे शादी करने के बाद अपने बेटे शहरयार के साथ पाकिस्तान जा कर बस गईं. छोटी बेटी राबिया सुल्तान भी अपनी ससुराल में चली गईं.

साजिदा बेगम की शादी पटौदी राजघराने के नवाब इफ्तिखार अली खान के साथ हुई थी. इन दोनों के 3 संतानें हुईं जिन में सब से बड़े थे मंसूर अली खान पटौदी, जिन्हें टाइगर के नाम से भी जाना जाता है. वे अपने जमाने के मशहूर क्रिकेटर थे और सिने तारिका शर्मिला टैगोर से प्यार कर बैठे और शादी हुई तो शर्मिला ने धर्म के साथ नाम भी बदल कर आयशा सुल्तान रख लिया.

साजिदा और इफ्तिखार की 2 बेटियों यानी मंसूर अली की दोनों बहनों सालेहा सुल्तान और सबीहा सुल्तान की शादी हैदराबाद में हुई थी.  बेटा होने के कारण मंसूर अली खान घोषित तौर पर नवाब मान लिए गए पर तब देश आजाद हो चुका था और राजेरजवाड़ों के दिन लदने लगे थे. सरकार ने दबाव बना कर रियासतों का विलीनीकरण करना शुरू कर दिया था जो उस वक्त के हालात को देखते जरूरी भी था.

आमतौर पर बेटियां पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए कानून का सहारा कम ही लेती थीं. भोपाल रियासत के मामले में भी यही होता लेकिन विवाद की शुरुआत एक छोटे से अहं और असुरक्षा को ले कर हुई. मंसूर अली खान की छोटी बहन सबीहा अपने पति मीर अर्जुमंद अली के साथ साल 2002 में रुकने के लिए भोपाल स्थित अपने घर यानी फ्लैग स्टाफ हाउस पहुंचीं तो उन्हें यह कह कर मुलाजिमों ने चलता कर दिया कि यह नवाब मंसूर अली खान का घर है जो उन्हें उन की मां साजिदा दे कर गई थीं.

यह मालिकाना हक जता कर बहनों को टरकाने की नाकाम कोशिश थी.  इस से पहले सबीहा ने कभी जायदाद को ले कर भाई से किसी तरह का विवाद या फसाद खड़ा नहीं किया था लेकिन सालेहा जरूर मंसूर अली खान को जायदाद की बाबत नोटिस देती रही थीं.

जाहिर है फ्लैग स्टाफ हाउस, जिसे अहमदाबाद पैलेस के नाम से भी जाना जाता है, से यों चलता कर देने से सबीहा ने खुद को बेइज्जत महसूस किया और सीधे अदालत में मामला दायर कर दिया. इस पर मंसूर अली ने थोड़ी समझदारी दिखाते यह व्यवस्था कर दी कि अगर बहनों को फ्लैग स्टाफ हाउस में रुकना ही है तो वे अपने खानेपीने और मुलाजिमों का खर्च खुद उठाएं. यानी मंसूर अली उन भाइयों में से नहीं थे जो अपनी बहनों, बहनोइयों और भांजे, भांजियों के आने पर खुश होते हैं और उन का स्वागतसत्कार करते हैं. उलटे, वे तो बहनों को नसीहत दे रहे थे कि मां के मकान में ठहरो तो खानेपीने के और दीगर खर्चे खुद उठाओ.

यह बात सबीहा और सालेहा दोनों को नागवार गुजरी और उन्होंने अदालत से गुजारिश की कि उन्हें फ्लैग स्टाफ हाउस का संयुक्त स्वामी घोषित किया और माना जाए. यह वाद हालांकि सबीहा ने दायर किया था लेकिन इस का फायदा सालेहा को भी मिला. अक्तूबर 2005 में जिला अदालत ने सबीहा के पक्ष में फैसला दिया जिस का फायदा सालेहा को भी मिला.  जल्द ही उन का बेटा फैज बिन जंग सामान ले कर फ्लैग स्टाफ हाउस में जा कर रहने लगा.

कानूनी पचड़े में रियासत

हैरत की बात यह रही कि अपने स्वभाव के विपरीत जाते मंसूर अली खान ने भांजे का स्वागत किया और बहनों समेत उन के बच्चों के लिए भी कमरे आरक्षित कर दिए. एक दफा ऐसा लगा कि भाई व बहनों के बीच अब कड़वाहट खत्म हो रही है पर मामला उलट निकला. हुआ यह था कि मंसूर अली खान ने गुपचुप तरीके से फ्लैग स्टाफ हाउस का सौदा 64 करोड़ रुपए में कर दिया था.  सौदे की भनक लगते ही सबीहा फिर भड़क उठीं और इस दफा उन्होंने भाई के साथसाथ सालेहा को भी पक्षकार बना डाला.

इन दोनों ने ही सबीहा के नोटिसों का कोई जवाब नहीं दिया तो मामला और उलझ गया. हमीदुल्लाह के एक भाई औबेदुल्ला खान ने भी जायदाद पर हक जताते हुए खुद को वारिस बताया. फिर तो वारिसों की बाढ़ सी आ गई. हर कोई अदालत जा कर खुद को नवाब भोपाल की जायदाद का हिस्सेदार बताने लगा. इन में बेगम साजिदा की बहन यानी मंसूर अली खान की खाला राबिया सुल्तान की संतानें भी हैं.

दर्जनभर मुकदमे अभी भी अदालतों में चल रहे हैं. हालांकि साजिदा बेगम की संतानों के अलावा किसी का हिस्सा कानूनी तौर पर नहीं बनता है लेकिन दिक्कत यह है कि अब साजिदा के ही बेटेबेटी और उन की भी संतानें बंटवारे को ले कर अपनीअपनी मरजी और ख्वाहिशें थोप रही हैं जिस से बंटावारे का बंटाधार हो चुका है.

समझदारी शर्मिला की

नवाब मंसूर अली खान की मौत के बाद शर्मिला टैगोर ने समझदारी दिखाते हुए भोपाल की जायदाद को ले कर सुलह की पेशकश ननदों से की तो बीती अप्रैल के महीने में बात बनती नजर आई.

समझदारी के अलावा सुलह के लिए जिस शांत दिमाग और सब्र की जरूरत होती है वह शर्मिला में है, इसलिए उन्होंने बाकायदा अपनी ननदों को भोपाल बुलाया और खुद अपनी तरफ से पहल की. अब तक सबीहा और सालेहा को भी समझ आ गया था कि बेवजह की अदालती लड़ाई से किसी को कुछ हासिल नहीं होना. दूसरे, उन का बैरविवाद या अहं जो भी था वह भाई मंसूर अली खान से था, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं.

अरसे बाद शर्मिला की पहल पर नवाब खानदान के सभी सदस्य अप्रैल के तीसरे हफ्ते में फ्लैग स्टाफ हाउस में इकट्ठा हुए और बंटवारे पर बातचीत की. बातचीत का पहला दौर पुरानी कड़वाहटों से लबरेज रहा जिस में यह चर्चा भी हुई कि सैफ अली खान की पत्नी करीना कपूर ने क्यों इसलाम कुबूल नहीं किया और उस ने कैसे सैफ अली की पहली पत्नी अमृता सिंह के बच्चों को बहलाफुसला लिया है.

इन बातों के कोई माने या ताल्लुक बंटवारे से नहीं हैं, न ही यह अधिकृत है. आमतौर पर होता यह है कि जब भी नवाबों या राजघरानों के सदस्य मिलबैठ कर सुलह की कोशिश करते हैं तो उन के मुलाजिम, जिन में ड्राइवर, रसोइए, घरेलू नौकर और माली भी शामिल रहते हैं, अपने मन से टुकड़ोंटुकड़ों में सुनी गई बातों में नमकमिर्च लगा कर उन्हें चटपटा बना कर मीडिया के सामने परोस देते हैं.

इस मामले में भी यही हुआ पर शर्मिला बंटवारे को ले कर संजीदा थीं, इसलिए उन्होंने मुकम्मल सब्र रखा और बातचीत जारी रखी. तुम ने यह किया था, उस ने यह कहा था, यह गलत था जैसी बातों पर उन्होंने तवज्जुह नहीं दी और सभी की भड़ास निकल जाने दी. इस का फायदा यह हुआ कि सभी वारिस अदालत के बाहर समझौता कर बंटवारे पर राजी हो गए और 16 अप्रैल को छोटेमोटे सामानों का बंटवारा भी हो गया. उन में फानूस, पेंटिंग्स, क्रौकरी, स्टैच्यू, कालीन, पलंग और दूसरे फर्नीचर सहित चांदी के बरतन भी शामिल थे.

सैफ ने अड़ाई टांग

बंटवारे का फार्मूला क्या था, यह तो नवाब परिवार के सदस्यों ने दीवारों के बाहर नहीं जाने दिया पर अंदाजा यह लगाया गया कि शरीयत के मुताबिक, मंसूर अली खान के वारिसों को कुल जायदाद का 50 फीसदी और दोनों बहनों को 25-25 फीसदी मिलना तय हुआ है. पर इस फार्मूले की अहम शर्त यह थी कि फ्लैग स्टाफ हाउस भी मंसूर अली खान के किए सौदे के मुताबिक बेच दिया जाएगा. यही शर्मिला चाहती थीं क्योंकि मुंबई के खरीदार, जिन के नाम अभी उजागर नहीं हुए हैं, सौदे के बाबत दबाव बना रहे थे.

लेकिन 26 अप्रैल को सैफ अली खान ने मां के किएधरे पर यह कहते पानी फेर दिया कि वे फ्लैग स्टाफ हाउस नहीं बेचना चाहते और बाकी वारिसों यानी बूआओं को उन के हिस्से की कीमत देने के लिए तैयार हैं. इस से लगता है कि सैफ खरीदारों से संपर्क कर चुके थे.

सैफ अली के इस कदम के पीछे उन की बड़ी बूआ सालेहा खान का भी हाथ है और पत्नी करीना कपूर का भी, जो तकरीबन 10 एकड़ में फैली इस इमारत में शानदार होटल खोलना चाहती हैं और पति को इस बाबत अपनी इच्छा से अवगत करा कर राजी भी कर चुकी हैं. निर्देशक प्रकाश झा की एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में करीना भोपाल आई थीं तब पहली नजर में ही उन्हें अपने ससुराल की यह कोठी फ्लैग स्टाफ हाउस भा गई थी और इस का व्यावसायिक उपयोग करने का मन उन्होंने बना लिया था. इस के उलट, दूसरी तरफ सालेहा की मंशा आज के भाव में इस कोठी को बेचने की लग रही है जिस से ज्यादा पैसा मिले.  आज के हिसाब से इस की कीमत 200 करोड़ रुपए से भी ज्यादा आंकी जाती है.

सच कुछ भी हो पर इस विवाद से किसी का भला नहीं हो रहा है. शर्मिला टैगोर की पहल का असर इतना भर हुआ कि छोटेमोटे सामान का बंटवारा हो गया. अपने हिस्से में आया सामान उन्होंने बांध कर सुरक्षित रख दिया और ननदों ने जो चाहा था उन्हें दे दिया.

अब क्या होगा

जायदाद बंटवारे के इस विवाद को 3 पीढि़यों ने भुगता है पर कोई नतीजा कुछ नहीं निकला. जैसे ही सैफ अली ने फ्लैग स्टाफ हाउस बेचने पर एतराज जताया तो प्रदर्शनकारी संगठन भी इकट्ठा हो कर हायहाय करने लगे.

29 अप्रैल को जब शर्मिला टैगोर अपने हिस्से का सामान बंधवा रही थीं तब सहारा सामाजिक संगठन समिति ने बंटवारे के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया.  इस पर शर्मिला घबरा गईं और पुलिस को बुला लिया. इस संस्था के मुखिया मेराज खान मस्तान का कहना है कि नवाब भोपाल की कई निशानियां भोपाल शहर की ऐतिहासिक धरोहर हैं, इन्हें न तो बेचा जाना चाहिए न ही बाहर जाने देना चाहिए.

ऐसा हुआ भी. 30 अप्रैल को ही दायर एक याचिका पर जबलपुर हाइकोर्ट की डबल बैंच के चीफ जस्टिस एम खानविलकर व जस्टिस के के द्विवेदी ने बंटवारे पर रोक लगाने के आदेश जारी कर दिए. साफतौर पर हालफिलहाल हाईकोर्ट इस दलील से सहमत है कि जमीनों के अलावा पुरातत्त्व महत्त्व की वस्तुएं न बेची जाएं.

विवाद को हवा मिली तो 22 मई को मुंबई से शत्रु संपत्ति संचालनालय की टीम भी भोपाल आ कर नवाब हमीदुल्लाह की जमीनजायदाद खंगालने में जुट गई. यह टीम बेवजह नहीं आई थी. दरअसल, नवाब खानदान के ही किसी सदस्य ने ही मुंबई में या मुंबई जा कर दरख्वास्त लगाई थी. यह टीम निष्कांत और शत्रु संपत्तियों की जांच करेगी.

आजादी के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 के बाद से 7 मई, 1954 तक जो जायदादें लावारिस रह गई थीं उन्हें निष्कांत और 1954 के बाद की लावारिस पड़ी संपत्तियों को शत्रु संपत्ति कहा जाता है.  यहां दिलचस्प बात यह है कि बंटवारे के वक्त जो लोग भारत छोड़ कर पाकिस्तान चले गए पर उन की जमीनें भारत में ही छूट गईं, उन जमीनों को निष्कांत संपत्ति माना गया. और जो लोग पाकिस्तान छोड़ कर भारत आए उन्हें ये जमीनें यानी निष्कांत संपत्तियां एक तरह से एवज में दी गईं.

बेवजह की कवायद

अब इस संचालनालय को नवाब भोपाल की कुछ और जायदादों का पता चल रहा है. जाहिर है इस के वारिस भी वही लोग होंगे जो अभी झगड़ रहे हैं लेकिन इस काम में बड़ी खामियां और पेचीदगियां भी हैं. मसलन, आजादी के बाद से अब तक का रिकौर्ड खंगाला जाएगा कि कब कौन सी जमीन किस के नाम और कहां दर्ज थी, दर्ज थी भी कि नहीं.

बंटवारा विवाद से परे देखें तो यह बेवजह की कवायद है. जो लोग नवाबों और राजाओं की लावारिस जमीनों पर सालों से रह रहे हैं उन्हें अब बेदखल करना या परेशान करना उन के साथ ज्यादती होगी. नवाबी काल में जो जमीन किसी की नहीं होती थी वह स्वत: ही नवाब की हो जाती थी. यही अब लोकतंत्र में हो रहा है. तो दोनों में फर्क क्या कि जो जमीन किसी की नहीं वह सरकारी हो जाती रही है.

बहरहाल, मामला उलझता दिख रहा है. ऐसे में पेशियां होती रहेंगी और किसी के हाथ कुछ न लगेगा. नवाब खानदान के सभी सदस्य काफी रईस हैं. सभी बंटवारे में अपनेअपने स्वार्थ और अहं अड़ा रहे हैं सिवा शर्मिला टैगोर के, जिन्हें अपनी कोशिश पर पानी फिरते देख, मायूस हो कर, खाली हाथ जाना पड़ा. उन के बेटे सैफ अली खान के पास भी करोड़ों की जायदाद है और बहू करीना कपूर खान तो अरबों की मालकिन हैं ही.

फिर क्या होगा, यह सवाल अब दिलचस्प होता जा रहा है जिस का सार यह है कि अब अगली पीढ़ी भी यह मुकदमा लड़ेगी और नवाब खानदान के मुंहलगे लोग मलाई चाटेंगे. इन खुशामदियों की हर मुमकिन कोशिश यह रहती हैकि बंटवारा न हो. अगर हुआ तो उन्हें बैठेबिठाए की खीरपूरी मिलनी बंद हो जाएगी.

भोपाल रियासत की 1 हजार करोड़ रुपए की जायदाद पर दर्जनभर मुकदमे विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं. बेगम साजिदा सुल्तान की मौत के 20 साल बाद भी जायदाद का बंटवारा नहीं हो सका है. अब इकलौती तरकीब मंसूर अली खान के वारिसों और बहनों सालेहा व सबीहा के बीच यह बची है कि वे एक बार फिर अदालत के बाहर समझौता करें और एकसाथ अदालत में पेश हो कर समझौते पर कानूनी ठप्पा लगवाएं. वरना जैसा होता है कि तीसरी पीढ़ी के बीच बैर बेवजह बढ़ेगा जिस से किसी को कोई फायदा नहीं. पर ऐसा तभी मुमकिन होगा जब ये ‘नवाब’ अपनी ठसक छोड़ते हुए जायदाद की कीमत और अहमियत समझें.  इस बाबत उन्हें भड़काने वाले और गुमराह करने वालों की कमी नहीं, मगर समझाने वालों का जरूर टोटा है.

इस से साबित यह भी होता है कि पैतृक संपत्ति का बंटवारा अगर वक्त रहते न हो तो रिश्तों में खटास तो डालता ही है, साथ ही, बेवजह अदालतों के भी चक्कर कटवाता है जिस से किसी को फायदा नहीं होता.

यह है जायदाद

भोपाल नवाब की सही जायदाद का अंदाजा तो किसी को नहीं पर इस की देखरेख के लिए बनी एजेंसी औकाफ ए शाही, जिस की मुखिया इन दिनों मंसूर अली खान और शर्मिला टैगोर की बेटी सोहा अली खान हैं, के मुताबिक फ्लैग स्टाफ हाउस के अलावा नवाब की कोई 400 एकड़ जमीन भोपाल में है.

भोपाल के नजदीक रायसेन की दरगाह भी नवाब की है. और उस से लगी जमीन भी नवाब की है. इस के अलावा पुराने भोपाल के पौश इलाके भारत टाकीज के सामने की बेशकीमती 4 एकड़ जमीन भी नवाब की है. सीहोर में भी नवाब की जमीनें हैं और भोपाल से ही सटे इसलाम नगर में भी हैं. अंदाजा है कि सोनेचांदी का बंटवारा 16 अप्रैल, 2014 में शर्मिला टैगोर और मंसूर अली खान की बहनों के बीच रजामंदी से हो गया है.

भोपाल की जमीन में से अधिकांश को सरकार अधिगृहीत कर चुकी है पर उस का मुआवजा अभी तक नहीं मिला है.  इस बाबत भी नवाब के वारिस कोई पहल नहीं कर रहे. दूसरी तरफ, राज्य सरकार भी यह सोचती हुई खामोश है कि वह मुआवजा किसकिस को दे, पहले नवाब खानदान बंटवारा तो कर ले. यानी जमीन अधिग्रहण के वक्त विवाद नहीं देखे गए थे पर मुआवजा देने के नाम पर देखे जा रहे हैं. इस की वजह नवाब के वारिसों में फूट होना ही है.

बदायूं बलात्कार कांड : धूमिल होती देश की अस्मत

भारत का शुमार विश्व के सब से तेजी से विकसित होने वाले देशों में है. ऊंची इमारतें, सड़कें और सड़क पर दौड़ती महंगी गाडि़यां ही विकास की निशानी नहीं हैं, विकास का सही अर्थ है समाज के हर तबके का विकास हो, उस का सम्मान हो और हर तबके की पूरी सुरक्षा हो.

देश के एक सूबे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के कटरा सआदतगंज में घटी घटना देश के चेहरे से विकास के मुखौटे को नोच कर अलग फेंक देती है. इस गांव में रहने वाली 2 नाबालिग लड़कियों के साथ गैंगरेप कर के उन का गला दबा कर पेड़ पर टांग दिया जाता है. पूरे मसले पर जिस तरह से जातीयता खुल कर सामने आई उस से साफ पता चलता है कि रूढि़यों और धार्मिक आडंबरों में फंसा यह देश आज भी अनपढ़ ही है.

पुराने धार्मिक ग्रंथों में बलात्कार या धोखे से संबंध बनाने की घटनाओं को देखें तो दोष औरत को ही दिया जाता था. अहल्या और गौतम ऋषि की कहानी कुछ ऐसी ही है. इंद्र ने अहल्या के पति गौतम ऋषि का छद्म रूप धर अहल्या कोधोखे में रख कर उस के साथ अनैतिक संबंध बनाए. यह बात जब अहल्या के पति गौतम ऋषि को पता चली तो उन्होंने सारा दोष अहल्या के मत्थे ही मढ़ दिया. उस को श्राप दे कर पत्थर की मूर्ति बना दिया. आज भी बलात्कार की शिकार महिला को ही दोषी माना जाता है. जबकि बलात्कार करने में पूरा दोष पुरुष का होता है. लिहाजा, दोष औरत के सिर मढ़ने की प्रवृत्ति के चलते बहुत सारी औरतें सचाई नहीं बतातीं. औरतों के खिलाफ अपराध करने वालों के हौसले बढ़ते हैं.

बदायूं की घटना में अपराध करने वालों का हौसला इसीलिए बढ़ा क्योंकि औरतें लंबे समय से वहां इस तरह के उत्पीड़न झेलती रही हैं.

ऐसी घटनाओं से देश की इज्जत पूरे विश्व के सामने धूल में मिल जाती है. बदायूं की घटना पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा कि भारतीय समाज को ‘लड़के तो लड़के हैं’ वाली सोच छोड़ देनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने भारत को महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामलों में नाइजीरिया और पाकिस्तान के बराबर ला खड़ा किया है.

कुछ दिन पहले समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने मुंबई बलात्कार कांड को ले कर चुनावी भाषण में कहा था, ‘लड़के तो लड़के हैं. छोटीमोटी गलतियां हो जाती हैं. इस का मतलब यह नहीं कि उन को फांसी की सजा दी जाए.’ संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने इस बयान को सामने रखते हुए कहा कि देश के विकास में आधी आबादी का प्रमुख हाथ होता है. ऐसे में उस को नजरअंदाज कर के आगे नहीं बढ़ा जा सक ता है. 

उत्तर प्रदेश एसटीएफ यानी स्पैशल टास्क फोर्स के आईजी आशीष गुप्ता ने कहा, ‘‘उत्तर प्रदेश में दुराचार की रोज 10 घटनाएं घट रही हैं. जनसंख्या के हिसाब से देखें तो यह संख्या कम है.’’ आशीष गुप्ता ने दुराचार की सामाजिक वजहों पर चर्चा करते हुए आगे कहा कि ऐसे मामलों में 60 से 65 फीसदी घटनाएं शौच जाते समय होती हैं. गांव के घरों में शौचालय का न होना एक बड़ी परेशानी है. आशीष गुप्ता की यह बात सच हो सकती है. शर्म की बात यह है कि आजादी के इतने दिन बीत जाने के बाद भी गांव में घरों में शौचालय बनाने को प्रमुखता नहीं दी गई. जब देश में ऐसे हालात हों तो उसे विकसित राष्ट्र की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?

उत्तर प्रदेश में पिछले 20 सालों से ज्यादातर बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी की ही सरकारें रही हैं जो दलित और पिछड़ी जातियों की बेहतरी का दावा करती हैं. इस के बाद भी इन जातियों की हालत क्या है, यह बदायूं की घटना में साफ दिखाई देती है. इन सरकारों ने दलित और पिछड़ों को शौचालय तक देने लायक काम नहीं किया. 10 हजार की आबादी वाले कटरा सआदतगंजके एक भी घर में शौचालय नहीं है.2 लड़कियों के साथ बलात्कार और हत्या के बाद अब इस गांव में शौचालय बनाने की मुहिम चल पड़ी है. आग लगने पर कुआं खोदने वाले ऐसे काम प्रशासन पहले भी करता रहा है.  

जाति पर सफाई

बदायूं से 25 किलोमीटर दूर कटरा सआदतगंज गांव उसहैत थाने के अंतर्गत आता है. यहां की ज्यादातर आबादी दलित, पिछड़ी, अनुसूचित जनजाति की है. यहां की रहने वाली लड़कियां स्कूल कम ही जाती हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि यहां लड़कियां या औरतें पूरी तरह से अपने को असुरक्षित महसूस करती हैं. अकेली किसी लड़की या औरत का, रात तो क्या दिन में भी, बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं होता. गांव के आदमी इतने दबंग हैं कि राह चलती औरत पर किसी भी तरह की टिप्पणी कर देते हैं. औरत पर संबंध बनाने के लिए तरहतरह के दबाव डाले जाते हैं. औरतों को जबरन उठा लिया जाता है और 2-3 दिनों बाद छोड़ दिया जाता है. खेत में काम करने गई औरत के साथ जोरजबरदस्ती किया जाना आम बात है. दबंगों के डर से औरतें थाना पुलिस में शिकायत नहीं करतीं. अगर कोई औरत ऐसा करे भी तो पुलिस उस की सुनती नहीं है. पुलिस कई बार तो पीडि़ता को ही मुकदमे में फंसा देती है. ऐसे में दबंगों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं.

कटरा सआदतगंज गांव में पैदा हुई रानी (बदला हुआ नाम) की मां का देहांत 3 साल पहले हो चुका था. पिता ने दूसरी शादी कर ली थी. रानी की दादी उस का पालनपोषण कर रही थी. रानी स्कूल पढ़ने जाती थी. पढ़ने और घर के कामकाज में होशियार होने के कारण उस की सौतेली मां भी उस को पसंद करने लगी थी. रानी सरस्वती ज्ञान मंदिर में पढ़ने जाती थी. उस की चचेरी बहन भी उसी के साथ पढ़ने जाती थी.

रानी के पिता किसान हैं. रानी खूब पढ़ कर अपने परिवार का सहारा बनना चाहती थी. उस के पिता उसे बेटी से ज्यादा बेटा मानते थे. उन को लगता था कि बड़ी हो कर वह उन का सहारा बनेगी. जब घर के लोग खेतों में काम करने के लिए चले जाते तो वह घर में खाना बनाती, सब के कपड़े धोती और पानी भरती थी. इस के बाद भी वह अपनी पढ़ाई में होशियार थी. 

 27 मई, 2014 की शाम बुधवार के दिन रानी अपनी चचेरी बहन के साथ शौच के लिए घर से बाहर गई. 15 साल की रानी की बहन उस से केवल 1 साल छोटी (14 साल की) थी. देर शाम तक दोनों वापस घर नहीं आईं तो रानी की सौतेली मां उस के पिता के साथ गांव में उन को ढूंढ़ने के लिए निकली. दोनों बेटियां नहीं मिलीं तो ये लोग थाने गए. पुलिस ने उन को वापस भगा दिया. पुलिस ने कहा कि 2 घंटे के बाद आना. रोतेकलपते उस परिवार की रात बीत गई. अगले दिन सुबह ये लोग पुलिस के पास गए. पुलिस के रूखे व्यवहार को देखते ये लोग फरियाद करने के लिए बदायूं जाने की तैयारी में लग गए. इस बीच, पुलिस ने गाली देते हुए कहा, ‘जाओ देखो, किसी पेड़ पर लटकी मिल जाएंगी दोनों’.

उधर, गांव की एक औरत दूध लेने के लिए जा रही थी तो गांव के बाहर आमों के बाग में आम के एक पेड़ पर दोनों लड़कियों को लटकते देखा. वह भाग कर आती है और गांव में इस बारे में बताती है. पुलिस मौके पर पहुंच कर मामले को रफादफा करने की कोशिश करती है लेकिन गांव के लोग पुलिस को पेड़ से लाश उतारने नहीं देते हैं.

हत्या और बलात्कार की शिकार ये लड़कियां ओबीसी यानी अति पिछड़ी जातियों की शाक्य बिरादरी में आती थीं. यह बिरादरी सामाजिक और आर्थिक हालात में दलित जातियों जैसी ही होती है. कमजोर जाति की होने के कारण पुलिस ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया. घटना की जानकारी जब बदायूं से बाहर निकल कर आती है तो पूरे समाज में गुस्सा फैल जाता है. राजनीतिक दल भी सक्रिय हो जाते हैं. बसपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के बदायूं जाने के बाद दलित उत्पीड़न की बात सामने आती है. केंद्र सरकार इस बात पर आपत्ति जाहिर करती है कि मुकदमे में दलित उत्पीड़न की धारा को क्यों शामिल नहीं किया गया? प्रदेश सरकार ने तब बताया कि हादसे की शिकार लड़कियां दलित नहीं, ओबीसी जाति की हैं. 

पुलिसिया करतूत का खुलासा

पुलिस ने गुनाहगारों के साथ मिल कर न केवल गुनाह को अंजाम दिया बल्कि अपराध को छिपाने का भी काम किया. इस को ले कर प्रदेश की पुलिस कठघरे में है. बदायूं की इस घटना ने दिल्ली में हुए निर्भया कांड की याद दिला दी. केवल देशभर के मीडिया ने ही इस घटना को प्रमुखता से नहीं छापा बल्कि  बीबीसी, न्यूयार्क टाइम्स और डेलीमेल जैसे बड़े विदेशीमीडिया ने इस घटना को प्रमुखता से जगह दी. हर घटना की तरह सत्तापक्ष में बैठी अखिलेश सरकार ने दबाव में आ कर पुलिस के अफसरों को इधरउधर करना शुरू किया. बदायूं कोई ऐसावैसा जिला भी नहीं है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव यहां से सांसद चुने गए. लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को जो 5 सीटें मिली हैं उन में बदायूं भी एक है. इस के बाद भी यहां के हालात ऐसे हैं.

बदायूं के कटरी क्षेत्र में गुंडई, दबंगई और बदमाशों का बोलबाला है. यहां कभी अपहरण एक उद्योग की तरह चलता था. यहां गंगा और रामगंगा नदी की कटरी में 9 ऐसे थाने हैं जहां पर अपराध का बोलबाला है. कटरा सआदतगंज कांड के बाद यह क्षेत्र सब की नजर में आ गया है. समाजवादी पार्टी के लिए बदायूं सब से प्रमुख जिला है. इस वजह से जिले के22 थानों में से 11 थानों में यादव बिरादरी के थानेदार तैनात हैं. कटरी क्षेत्र में आने वाले 9 थानों में से 6 में एक ही जाति के पुलिसदारोगा तैनात हैं. यहां पर घटना के समय गंगा सिंह यादव तैनात थे. अब उन की जगह पर विजय गौतम को तैनात किया गया है. 

?पूर्व आईपीएस अधिकारी और दलित चिंतक एस आर दारापुरी कहते हैं, ‘‘गांव में आज भी सामंती सोच कायम है. पुराने सामंतों की जगह नए सामंत पैदा हो चुके हैं जो पुरानी व्यवस्था को अपने प्रभाव से चलाना चाहते हैं. यही वजह है कि गांवों में घटने वाली ऐसी घटनाओं में दलित समाज और कमजोर तबके की औरतों को निशाना बनाया जाता है. पुलिस जाति और प्रभाव देख कर काम करती है. इस के लिए पुलिस का जातिकरण और राजनीतिकरण दोनों ही जिम्मेदार हैं. थाने पर पुलिस का व्यवहार सभी तबकों के लिए समान नहीं है. शिकायत दर्ज करने से पहले उस की जाति को पूछा जाना इस बात का प्रमाण है कि कमजोर तबके के साथ जातिगत व्यवहार किया जाता है. पुलिस को और अधिक संवेदनशील बनाने की जरूरत है. इस के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बताए गए पुलिस सुधारों को लागू करने की जरूरत है.’’

कैसे बदलेंगे हालात

वास्तविकता यह है कि समाज में आज भी कमजोर तबके  के हालात नहीं बदले हैं. उस की बहुओं और बेटियों को अपनी जागीर समझने कीकोशिश की जाती है. बदायूं की दोनों लड़कियां जाति से पिछड़ी जरूर थीं पर उन के हालात दलित जैसे ही थे. इसी कारण पुलिस ने समय पर उन की बात नहीं सुनी. अखिलेश सरकार मसले को समझे बगैर जिस तरह के कदम उठा रही है उस से किसी तरह के सामाजिक बदलाव की उम्मीद नजर नहीं आ रही. और जब तक सामाजिक बदलाव नहीं होगा, ऐसी घटनाओं से देश का सिर शर्म से झुकता रहेगा.

कर्मठता की अहमियत

कर्मठता, परिश्रम, उत्साह, साहस प्रकृति में चारों ओर बिखरे हैं. हर जीव या जीवित वस्तु अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अद्भुत कर्मठता व साहस दिखाती है. सैकड़ों किस्म की तितलियों के रंग आसपास के माहौल जैसे होते हैं ताकि वे उन में छिप कर शत्रु से बच सकें. पेड़पौधे धूप पाने के लिए टेढ़ेसीधे बढ़ते हैं और पानी व मिनरल पाने के लिए अपनी जड़ों को नीचे और नीचे ले जाते हैं. प्रकृति में जो भी जीवित है वह संघर्ष करता रहता है.

यही मानव के साथ है. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने 2014 के चुनावों में साबित कर दिया कि एक ऐसी विचारधारा, जिस के अनुयायी जनता के मात्र 10-12 प्रतिशत हैं, पर आधारित होने पर भी वे कर्मठता से, परिश्रम से, एकजुटता से, प्रतिबद्धता से 31 प्रतिशत वोट पा कर जीत सकते हैं.

जब यूनानी, हूण, शाक, फारसी, मुगल, अंगरेज, पुर्तगाली, फ्रांसीसी भारत आए थे, उन की तादाद मुट्ठी भर थी. लेकिन अपनी कर्मठता से, अपनी गहरी सोच से, प्रकृति के गुणों से सीख कर उन्होंने न केवल भारत में पैर जमाए, यहां राज भी किया. यहां के बहुसंख्यक लोग, जिन के पास न साधनों की कमी थी, न हथियारों की, इन लोगों के हाथों शिकस्त खाते रहे क्योंकि वे कर्मठ न थे. वे प्रकृति की दया पर जीना चाहते थे. कांगे्रस ने गांधी के नेतृत्व में उस समय की सक्षम अंगरेज सरकार के सामने कर्मठता की राह अपनाई और बिना हथियारों के ही उन्हें देश से निकल जाने को मजबूर कर दिया. उस के बाद कांगे्रस का रंगरूप बदलने लगा. उस ने ‘जो मिल गया उस पर मौज करो’ की संस्कृति अपना ली. न देश के लिए कुछ करना, न अपने सिद्धांतों के लिए. नतीजा यह हुआ कि 1967 तक वह लड़खड़ाने लगी.

बीचबीच में कर्मठ नेता आए तबतब वह संभली भी पर इस बार ज्यादा कर्मठ, परिश्रमी, उत्साही लोगों ने उस को ऐसी पटकनी दी कि शायद वह कभी न उठ सके. जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा होता है. कोई भी अपनी कर्मठता को नहीं छोड़ सकता. अगर छोड़ेगा तो शिकस्त खाएगा. प्रकृति का नियम है कि सदा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहो या फिर गुलामी करो. यदि सफल बनना है तो कर्मठता कभी न छोड़ो. अगर सुरक्षित भविष्य चाहिए तो होश संभालते ही कर्मठता का पाठ सीखो. अगर 2 घंटे पढ़ने से काम चल जाता है तो भी 6 घंटे पढ़ो. घर के कामों को बोझ न समझो, उन्हें कर्मठता की टे्रनिंग समझो. घर को पेंट करने के काम को चुनौती समझ कर हाथ में लो. मां या पिता का हाथ बंटा कर अपने को हीन नहीं, श्रेष्ठ समझो. जो करोगे वह सिखाएगा, आने वाले कल के लिए तैयार करेगा.

कर्मठता इंसान को स्वस्थ बनाती है. चेहरे पर आत्मविश्वास की छाप छोड़ती है. कर्मठ ही कक्षा में सब से ज्यादा पूछा जाता है. दूसरों के काम करना अपनी कर्मठता की परीक्षा लेना है. पेड़ अपने किसी लक्ष्य को ले कर ऊंचा नहीं होता. उसे अपने को बचाना है, दूसरों के मुकाबले ज्यादा टिकना है इसलिए और ऊंचा होता है और जड़ें फैलाता है. इसी तरह अपने को ऊंचा करना, अपनी पहुंच फैलाना हरेक की जरूरत है.

जो मातापिता की दया पर जीना चाहते हैं उन के कुछ साल तो सही गुजरते हैं पर बाद में दशकों उन्हें पिसना पड़ता है. अगर अभाव न भी हो तो यह साफ होता है कि उन के वश में कुछ करना नहीं है. वे आत्ममुग्ध हो सकते हैं पर आत्मविश्वासी नहीं. वे बड़बोले होते हैं, कर्मठ नहीं. आप को खुद तय करना है कि क्या करना है.

मजबूत विपक्ष की दरकार

चुनावी आंकड़ों ने साफ कर दिया है कि इस देश में अब सत्ताविरोधी दल चाहिए तो 2 से ज्यादा पार्टियां नहीं चल सकतीं. अगर एक ही चुनाव क्षेत्र से 3-4 मजबूत पार्टियां लड़ेंगी तो बिना बहुमत वाला भी जीत सकता है. भारतीय जनता पार्टी ठीक उसी तरह से इस बार सत्ता में आई है जैसे पहले कांगे्रस आती रही है, वोटों के बंटवारे के कारण.

वैसे भी बहुपार्टी सिस्टम वोटरों के साथ भी अन्याय है. चुनाव अब किसी विचारधारा को श्रेष्ठ या निकृष्ट घोषित करने के लिए नहीं होते. चुनाव सरकार चलाने के लिए होते हैं ताकि अफसरशाही तानाशाही में न बदल जाए. चुनावों में जीतने वाली पार्टी मनमानी करना चाहेगी या कर सकती है, यह प्राय: संभव नहीं होता. भारी बहुमत यानी 90-95 प्रतिशत सीटें जीतने वाले देशों में भी शासक दल विरोधियों का सामना करते रहते हैं.

दिक्कत तब होती है जब विचारधारा और कुशल प्रशासक में से चुनना पड़े. सोनिया गांधी की पार्टी के नेतृत्व वाली साझा सरकार की बुरी गत इसलिए हुई कि वह कुशल प्रशासक साबित नहीं हो रही थी. नरेंद्र मोदी ने अपने को बेहतर प्रशासक के रूप में प्रस्तुत किया जबकि सोनिया नीतियों व विचारों की ही बात करती रहीं. सोनिया ही नहीं, अन्य दल भी असल में विचारों को ले कर चले और पिट गए, चाहे विचार जाति को ले कर थे या धर्मनिरपेक्षता को.

जनता को सही प्रशासक चुनने का अवसर देने के लिए जरूरी है कि विपक्षी दल अब एक हो जाएं. जिन्हें भाजपा पसंद है वे उस में शामिल हो जाएं और बाकी अपनी प्रशासन नीतियों के सहारे एक नई पार्टी को जन्म दें. अब क्या खाएं, कैसे शादी करें, किस की पूजा करें, किन रस्मों की पोल खोलें, किस आदर्श की मूर्ति लगाएं जैसे विषय चुनावों के लिए नहीं रह गए. इन्हें किताबों, भाषणों, अखबारों और टीवी चर्चाओं तक ही रखा जाए.

यदि भाजपा का पर्याय तैयार करना है तो कांगे्रस, नैशनल कौन्फ्रैंस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोकदल व अन्य दलों को एकसाथ काम करने की आदत डालनी होगी. भाजपा सही काम तभी करेगी जब उसे मालूम हो कि उस की नकेल खींची जा सकती है. जनता के प्रति जिम्मेदारी अब कांगे्रस और दूसरे दलों की बढ़ गई है. पार्टियों के मुखिया अपनी पार्टियों को अब पारिवारिक कंपनियों की तरह नहीं चला सकते. अगर चलाएंगे तो उन की पार्टी के बिखरने में देर नहीं लगेगी.

प्रधानमंत्री का सचिवों से संपर्क

नरेंद्र मोदी ने मंत्रियों के बिना मंत्रालयों के सचिवों को बुला कर मंत्रालयों के काम की समीक्षा का काम शुरू कर के प्रारंभ से ही बता दिया है कि वे प्रशासन को चुस्त रखना चाहते हैं और उस पर अपनी पूरी पकड़ भी बनाए रखना चाहते हैं. अब तक विभागों के सचिव अपने मंत्री को जवाब दिया करते थे या प्रमुख सचिव तक अपनी बात पहुंचाते थे. पिछली सरकार ने पेचीदा मामलों के लिए मंत्रियों के समूह गठित कर रखे थे जिन का काम अपरोक्ष रूप से मंत्रियों के काम की जानकारी लेना और गड़बड़ होने पर ब्रेक लगा देना था.

सचिवों से जवाब तलब करना अच्छा है. अब तक अपने विभागों के शहंशाह बने ये सचिव अब सीधे उस प्रधानमंत्री की आंखों में आ गए हैं जिसे जनता ने भारी बहुमत से जिताया है और मंत्री जिस की कृपा पर हैं. देश की दुर्गति के पीछे सचिवों की बढ़ती ताकत रही है जिन्हें केवल अपने हितों से मतलब रहता था. वे लोग आसानी से मंत्री को पटखनी दे सकते थे और अकसर मंत्री उन के सामने गिड़गिड़ाते थे.

सरकार को ढंग से चलाना आज देश की पहली आवश्यकता है. वर्षों से सरकार चल रही थी, ऐसा कोई सुबूत कहीं नहीं है. वह तो धकेली जा रही थी और मंत्री, सचिव व सारी नौकरशाही मजे से जनता के कंधों पर झूल रही थी. सचिवों के नेतृत्व में नौकरशाही दिनबदिन खूंखार, निकम्मी और भ्रष्ट होती जा रही थी. हर सचिव के बारे में 100-200 करोड़ रुपए बना लेने की बातें गलियारों में गूंजती थीं, चाहे वे सच हों या न हों.

नेताओं के कामों को ये सचिव नष्ट कर देने में माहिर थे. नेता एक छूट दिलाते तो सचिव और नौकरशाह तरहतरह के नियमकानून बना कर नेता की योजना की धज्जियां उड़ा देते थे.

नरेंद्र मोदी इस सचिवशाही को काबू कर उस को सही दिशा पर चला सके तो देश के लिए भला होगा. मंत्रीगण इस काम को खुद कतई नहीं कर सकते क्योंकि जैसे ही किसी सचिव की ताकत कम होने लगती या उस से पूछताछ होती, वह प्रमुख सचिव के जरिए प्रधानमंत्री के कान भर आता कि मंत्री तो अपनी राजनीतिक पहचान बनाने में लग गया है.

नरेंद्र मोदी का यह कदम मंत्री पदों का लालच भी खत्म कर देगा. मंत्री अब अपने समर्थकों को जमीनें, ठेके, विदेश यात्राएं, कमेटियों में नियुक्तियां कराना तो दूर, 2 प्याले चाय भी न पिला सकेगा क्योंकि उस के काम की खोजखबर सीधे प्रधानमंत्री सचिव से खुल्लमखुल्ला लेंगे. प्रशासनिक गलियारों में फुसफुसाहट नहीं साफगोई से बातें होंगी क्योंकि प्रधानमंत्री की नीतियों के शायद मिनट्स रखे जाएंगे.

प्रधानमंत्री, मंत्री का कद छोटा कर रहे हैं पर पिछली सरकार में जिस तरह मंत्रियों ने मनमानी की थी उस के मद्देनजर यह लाजमी भी था.

सरकार की सकारात्मक शुरुआत

नरेंद्र मोदी की भारी जीत से देश का एक वर्ग थोड़ा चिंतित है कि कहीं नरेंद्र मोदी देश को किसी कट्टरवादी मोड़ पर न ले जाएं पर शुरू के पहले महीने की गतिविधि से उन्होंने यह संदेश दिया है कि वे सरकार चलाने में गंभीर हैं, भारतीय जनता पार्टी के अपेक्षित एजेंडे में नहीं. नरेंद्र मोदी को जनता से जो समर्थन मिला है वह विकास व अच्छे प्रशासन के नाम पर मिला है, हिंदू संस्कृति की पुनर्स्थापना के नाम पर नहीं.

नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को शपथग्रहण में बुला कर यह संकेत दे दिया है कि उन की सरकार न तो पाकिस्तान से दोदो हाथ कर के अपना वोटबैंक पक्का करना चाहती है और न ही यह चाहती है कि पाकिस्तान भारत के लोगों में धर्म के नाम पर फूट फैलाए. आने वालों में श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे भी थे जिन से तमिलनाडु के लोग श्रीलंका में तमिल संहार के लिए खार खाए बैठे हैं पर उन के विरोध की नरेंद्र मोदी ने अनसुनी कर के अपनी स्वतंत्रता का स्पष्ट प्रदर्शन किया है.

प्रधानमंत्री पद है ही ऐसा जिस पर बैठा व्यक्ति अपनी धार्मिक, आर्थिक, संस्कारी, सामाजिक अवधारणाओं को भूल जाता है. मुख्यमंत्री पद पर इतनी जिम्मेदारी नहीं होती पर प्रधानमंत्री के निर्णय दूरगामी प्रभाव दिखा सकते हैं.

इंदिरा गांधी ने 1977 और 1981 के बीच पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरावाले को छिपा समर्थन दिया था पर 1981 में फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने उसे मरवाया, इनाम नहीं दिया. यह बात दूसरी है कि औपरेशन ब्लू स्टार के कारण वे खुद जान से चली गईं.

भारत को आज ऐसे शासन की जरूरत है जिस में नागरिक भयमुक्त हो कर काम कर सके और इस बार चुनावों में यह नारा केवल भारतीय जनता पार्टी ने दिया था. यह जरूरी भी है. आज देश का नागरिक संकटों से घिरा है, डरा है. यह डर आतंकवाद का कम, सरकारवाद का ज्यादा है. कब, कौन सा इंस्पैक्टर आ कर हमला कर दे, पता नहीं. हर नागरिक सैकड़ों कानूनों के घेरों में है. करों की भरमार है. हर काम में सैकड़ों फौर्म भरने होते हैं, सैकड़ों प्रमाणपत्र चाहिए होते हैं. ऐसा लगता है कि सरकार अपने किसी नागरिक पर भरोसा नहीं करती.

जनता इस भय से मुक्त होना चाहती है कि उस की जमीन, उस की झोंपड़ी, उस का खेत, उस का व्यवसाय, उस की नौकरी उस की ही है, कोई ले नहीं जाएगा. नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में एक भी हठधर्मी चेहरा न होने का अर्थ है कि नरेंद्र मोदी जनता के इस दर्द के मर्म को समझ रहे हैं और वे उदार, समझदार व अनुभवी लोगों को ही साथ ले कर चलना चाहते हैं. नरेंद्र मोदी के पहले 30 दिन सुहावने रहे हैं और यह सुखदायक बात है.

आप के पत्र

अग्रलेख ‘राजनीति का जातीय गणित’ (मई/द्वितीय) की यथार्थ पड़ताल पढ़ी. बेशक हम स्वयं को राष्ट्रवादी कहे जाने के लिए कितना ही ‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाईभाई’ का राग अलापते हों मगर जब भी बात ‘हित’ की आती है तो हम न केवल समाज, राज्य या राष्ट्र में बल्कि अपने स्वयं के वंश (परिवार) तक में इस बुरी तरह बंट जाते हैं कि खून के रिश्तों को तिलांजलि देने तक से नहीं सकुचाते.

दोष मात्र राजनीतिज्ञों का ही नहीं है बल्कि हम तथाकथित देश के जागरूक मतदाताओं/देशवासियों का भी है कि भाईभाई का गला काटने से भी नहीं कतराते. हम मात्र अपने ही परिवार या फिर वर्ग, धर्म, समुदाय के नाम पर इतनी बुरी तरह विभाजित हो जाते हैं कि चोर, लुटेरे, खूनी, हत्यारे, ईमानदार, बेईमान, पापी, परमार्थी या अपराधी तत्त्वों की पहचान तक भूल जाते हैं. ऐसे में दोष किसी और को देने से क्या फायदा.

देश में क्या अनुसूचित जाति/जनजाति, दहेजउत्पीड़न, महिला सशक्तीकरण, भ्रष्टाचार उन्मूलन आदि से संबंधित कायदेकानून नहीं हैं? दरअसल, ईमानदारी से उन्हें लागू नहीं किया जाता. ऐसे में राजनीतिज्ञ ‘बंदर’ समान आपस में ही लड़तेमरतों की मानसिकता का फायदा उठाएं भी क्यों नहीं? लेकिन इस बार आम चुनावों में जिस तरह मतदाताओं ने धर्म, वर्ग, समुदाय को नजरअंदाज कर मतदान किया है वह शायद अच्छे लक्षणों/दिनों को ही इंगित कर रहा है.

टी सी डी गाडेगावलिया, करोलबाग (न.दि.)

 

आप के पत्र

मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘रिटायर्ड आदमी’ के संदर्भ में कहना चाहूंगा कि सर्विस एक यात्रा है, तो रिटायरमैंट एक तीर्थयात्रा है. सेवानिवृत्ति के बाद जीवन फिर नए अंदाज में प्रारंभ करें. समाज, मानवसेवा के क्षेत्र में अपना योगदान करने पर विचार करें.

राधाकृष्ण सहारिया, जबलपुर (म.प्र.) द्य

 

आप के पत्र

फुजूलखर्च

मैं कई वर्षों से ‘सरिता’ की नियमित पाठिका हूं. आप की पत्रिका के माध्यमसे मैं देश में शादियों के दौरान होरहे फुजूल खर्चों की ओर ध्यानखींचना चाहती हूं. पटाखे, खानेपीने, कपड़ेगहनों में हम लाखों रुपए खर्च कर देते हैं.यदि इस खर्च का एक प्रतिशत भी किसी गरीब बच्चे की पढ़ाई में लगाएं, तो पैसे का सदुपयोग होगा. बैंडबाजे, खानेपीने में पैसा बरबाद करने के बजाय किसी गरीब की शादी में पैसा लगाने से नवदंपती के जीवन की शुरुआत किसी की दुआओं से होगी. 

रानी भागचंदानी, पुणे (महाराष्ट्र)

 

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