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बरसों बाद

 
बरसों बाद
जो लहरा के आया
एक तरंगित प्यार का झोंका
एक अटूट सिलसिला
और मदहोश-बेकल गुनगुनाती हवा
 
बरसों बाद
सुकून के गलियारे और रौनक 
पुकार उठे हैं
तुम्हारी बांहों की अलौकिक सुगंध
और मेरी लजीली आंखों की मिचौनी
 
बरसों बाद
फिर गुनगुनाती हैं
सुरमई शाम की अठखेलियां
खिलखिलाने की शोखियां
और आप के बेहिजाब बालों की मादकता
 
बरसों बाद
आई है पुरवाई
प्रणय-बेला सी
अब तो रहें आप ही आप
और रहे सिर्फ आप का प्यार.
प्रमोद सिंघल
 

संस्कार व नैतिकता के माने क्या हैं

संस्कार का अर्थ है शुद्धीकरण की प्रक्रिया यानी संस्कार द्वारा व्यक्ति को शुद्ध करना. हिंदू धर्म में कुल 16 संस्कार हैं जो जीवनपर्यंत चलते हैं और उन्हें बड़े आदरभाव से लिया जाता है. भले ही पितापुत्र, मांबेटी, भाईबहन अशिष्ट व अभद्र हों लेकिन दूसरों को नीचा दिखाने के लिए असंस्कारी कहने में जरा भी संकोच नहीं करते, उलटे ऐसा कह कर बड़े गर्व से अपना सिर ऊपर उठा लेते हैं. 

शुद्धीकरण जितना हमारे देश में होता है उतना दुनिया के किसी देश में नहीं होता. इस के बाद भी हम दुनिया से पिछडे़ हुए हैं. साफसफाई से ले कर चरित्र व नैतिकता के मामले तक, हम आकंठ कालिख पुते हैं. हमारे यहां नाबालिग बच्ची से बलात्कार होते हैं. कमाऊ बेटा बाप को भूखों मारता है. दहेज के लिए महिलाओं को प्रताडि़त किया जाता है. मठों और आश्रमों में शिष्याओं का शारीरिक शोषण होता है व हत्या तक कर दी जाती है. नारायण दत्त तिवारी जैसे अति बुजुर्ग इंसान महिलाओं के साथ नग्न अवस्था में विचरते देखे जाते हैं. खुद को संत कहने वाले आसाराम और उस के बेटे नारायण साईं जैसे लोग महिलाओं का यौनशोषण करते हैं. समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो सिद्ध करते हैं कि ‘संस्कार’ शब्द  सिर्फ नाम का है.

पश्चिम वाले बुरे क्यों

पश्चिम के तौरतरीकों को हम हेय दृष्टि से देखते हैं और खुद को उन से श्रेष्ठ समझते हैं, जबकि शादी के नाम पर हम लड़की वालों से रुपया मांगते हैं. कितने शर्म की बात है कि हमारे देश में लड़का बेचा जाता है. दूसरे शब्दों में, लड़की को जितनी बेहतर सुखसुविधा चाहिए उतनी ही कीमत दे कर लड़का खरीदा जाता है. जिस पर वधू को जलाने का कुकृत्य भी होता है. क्या विवाह संस्कार संपन्न कराने वाले पुरोहित के काम में खोट होता है? वे कैसा शुद्धीकरण कराते हैं कि पति, पत्नी से दहेज न लाने के एवज में मारतापीटता व जलाता है, क्या यही शुद्धीकरण है?

आज कोई भी लड़का अपने मांबाप की सेवा नहीं करना चाहता. पश्चिम तो इसे संस्कारों के रूप में नहीं देखता पर हम देखते हैं. आएदिन बुजुर्गों की उपेक्षा, तिरस्कार के मामले हम अपने आसपास देखते व सुनते हैं. महिलाओं के सम्मान के लिए बड़ीबड़ी बातें की जाती हैं, उन के हक के लिए योजनाएं बनाई जाती हैं पर होता क्या है? जवान महिलाओं को तो छोडि़ए, अधेड़ औरतों को भी अश्लील नजरों से देखा जाता है. भीड़भाड़ हो या औफिस की नजदीकियां, संस्कारी पुरुष कोई मौका नहीं चूकते. कोशिश रहती है कि महिला का बदन छू लें, तब न वह मां नजर आती है और न ही बहन. सिर्फ संस्कारों में सिखाया जाता है कि हर औरत मां और बहन है. पश्चिम में तो ऐसा नहीं सिखाया जाता. वहां छेड़खानी का स्तर क्या है? पर अपने यहां 60 साल का पुरुष यदि 30 साल की महिला पर फिदा है और उस से शादी करना चाहता है तो इसे भी लोग संस्कारों से जोड़ कर देखेंगे व अधेड़ को लताड़ेंगे.

मोहम्मद गोरी ने कई बार भारत पर आक्रमण किया और हर बार हारा. पर जब एक बार जीता तो अपने दुश्मन पृथ्वीराज चौहान को छोड़ने की गलती न की. इसे भी हम संस्कारों से जोड़ कर देखते हैं. मोहम्मद गोरी को निर्दयी व पृथ्वीराज को उदार कहते हैं. उदारता का कारण भी हमारे श्रेष्ठ संस्कार रहे. हम कभी नहीं स्वीकारते कि मोहम्मद गोरी शासकों से ज्यादा कूटनीतिज्ञ, दूरदर्शी व बहादुर था. उस ने मौके को व्यर्थ न जाने दिया. वहीं, पृथ्वीराज ने कई मौके पाए, पर हर बार उसे छोड़ने की बेवकूफी की.

क्या यही हैं संस्कार

हम अपनी कायरता को संस्कारों से जोड़ कर देखते हैं. औरंगजेब ने तमाम हिंदू मंदिरों को तोड़ा तथा हिंदुओं को लज्जित होने के लिए थोड़ा अवशेष छोड़ दिया (काशी विश्वनाथ मंदिर) क्योंकि उस के पास शक्ति थी. वहीं, कायरों की भांति हम कुछ न कर सके, तो इसे संस्कारों की वजह मानते हैं, यानी औरंगजेब के संस्कार निम्न कोटि के थे, हमारे उच्च कोटि के. उस ने तोड़ा, यह उस के संस्कार, हम बचाव के लिए एक चाकू भी न उठा सके तो यह हमारे संस्कार. यह नहीं कहते कि हमारे संस्कारों ने हमें बुजदिल, कायर, डरपोक व गुलामों की तरह जीने का रास्ता दिखाया.

एक नाटक के दृश्य में एक महिला का बलात्कार होता है. महिला भय से भागती है, बलात्कारी उस का पीछा करता है. पुरुषदर्शक पूरी तन्मयता से यह दृश्य देखते हैं. उन्हें लड़की से नहीं, बलात्कारी से सहानुभूति है. दर्शक चाहते हैं जितना जल्दी हो बलात्कारी उस का बलात्कार करे ताकि महिला के बापरदा अंगों का तबीयत से रसास्वाद लिया जा सके. ‘पकड़पकड़, भागने न पाए’ एक शोर उभरा. एक अमेरिकी युवती, जो नाट्यशास्त्र में शोध के लिए उस शहर में आती है, उक्त दृश्य से उपजे दर्शकों की प्रतिक्रिया देख कर सन्न रह जाती है. हताशा व निराशा के भाव उस की आंखों में साफ झलक रहे थे. ‘क्या यहां के लोग ऐसे हैं? हमारे देश में यदि ऐसा होता तो लोग बलात्कारी को मार डालने की सोचते,’ हमारे संस्कार कैसे हैं. संस्कारों के नाम पर सैक्स को जितना दबाया गया, वह उतना ही विकृत रूप ले कर हमारे समाज में आ गया.

मुखौटे के पीछे छिपा चेहरा

नाबालिग बच्ची से बलात्कार व हत्या के ज्यादातर मामलों में परिचित ही लिप्त होते हैं. इस का दोष भी हम पश्चिम की अपसंस्कृति पर मढ़ते हैं. तब तो यह कहा जा सकता है कि जितने भी संस्कार हैं, सब ढोंग हैं. उन में इतनी शक्ति नहीं कि वे पश्चिम की अपसंस्कृति से हमें बचा सकें. फिर उसे ढोने से क्या फायदा? क्या जरूरत है ऐसे संस्कारों को गिनाने की जो समाज का सिर्फ नाम का शुद्धीकरण करें. सिर्फ मुखौटे के सहारे दुनिया के सामने विश्वगुरु बनने का हमारा यही चरित्र है? इन्हीं संस्कारों के जरिए हम विश्वगुरु बनने का ख्वाब देख रहे हैं. 

मनुस्मृति के अनुसार, स्त्री व पशु के कोई संस्कार नहीं होते. जाहिर है स्त्री को पशु की श्रेणी में रखा गया है जबकि स्त्री के गर्भ से ही पुरुष का प्रादुर्भाव होता है. स्त्री के अंश से पैदा पुरुष संस्कार लायक है, वहीं स्त्री दुत्कारने लायक? इसे विडंबना ही कहेंगे कि जहां एक ओर स्त्री को सृजनकर्ता का दरजा प्राप्त है वहीं मनु ने उसे निकृष्ट प्राणी माना है.

परोपकार की भावना

मानवीय आपदा हो या मानवाधिकार, सब से पहले पश्चिम ही सामने आता है. कोढि़यों की सेवा हो या दुखियों की मदद, ईसाई मिशनरियां ही उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं. दूसरी तरफ हम छूना तो दूर, घृणा से मुख मोड़ लेते हैं. यही हमारे संस्कार हैं जिन का होहल्ला मचा कर हम ‘आर्यपुरुष’ बनते हैं. पाखंड हमारे खून में है. जन्म से ले कर मृत्यु तक के 16 संस्कारों का सिर्फ नगाड़ा बजाते हैं, जो ढोंग के अलावा कुछ नहीं. देखा जाए तो सब से ज्यादा अशुद्ध हम भारतीय हैं. जिस नारी के गर्भ से निकलते हैं, जगतगुरु शंकराचार्य उसे नरक का द्वार कहते हैं. 

बालक को पालपोस कर बड़ा करने वाली जननी के साथ ऐसा बरताव? गंगाजल को माथे से लगा कर मां के रूप में पूजते हैं, वहीं दूसरी तरफ गंगा में मलमूत्र विसर्जित करते हैं. वृद्ध मांबाप को बिना अन्नजल मारते हैं, पितृपक्ष में चील- कौओं को अन्नजल देते हैं. यही संस्कार हैं हमारे. इन्हीं की दुहाई देते हैं हम.

पशु हम से श्रेष्ठ हैं, उन में बलात्कार जैसी घटना नहीं होती. एक हमारा समाज है, जहां तमाम संस्कारों के बाद भी पुरुष जातियों में शुद्ध रक्त संचारित नहीं हो पाता. फिर ऐसे संस्कारों से क्या फायदा? क्यों हम संस्कारों के नाम पर नौटंकी करते हैं तथा पंडेपुजारियों की जेबें भरते हैं. जो संस्कार हमारे भीतर इंसानियत की एक चिंगारी न पैदा कर सकें उन्हें दफन कर देना ही ठीक रहेगा. ऐसा कर के सही माने में हमारी आंखों से पाखंड का परदा हटेगा और सच्ची शुद्धता होगी.

ब्रैस्ट कैंसर: इलाज कराएं

आधुनिकता के इस दौर में भी शर्म के चलते और जागरूकता की कमी की वजह से महिलाओं द्वारा ब्रैस्ट कैंसर की बीमारी छिपाना उन के लिए जानलेवा साबित हो रही है. बै्रस्ट कैंसर न बने जानलेवा, इस के लिए किन खास बातों का रखें ध्यान, पढि़ए इस लेख में.
 
स्तन कैंसर एक जानलेवा बीमारी तो है लेकिन इस के बारे में अफवाह और गलत बातें ज्यादा फैली हुई हैं. लाज और शर्म की वजह से महिलाएं इस बीमारी को छिपाए रहती हैं, जो उन के लिए जानलेवा बन जाती है. हैल्थ को ले कर जागरूकता की कमी की वजह से महिलाएं ब्रैस्ट कैंसर समेत कई तरह की बीमारियों के जाल में फंसती रही हैं. जानकारी की कमी की वजह से ही ब्रैस्ट कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है. विश्व में लंग्स कैंसर के बाद ब्रैस्ट कैंसर ही दूसरा सब से आम कैंसर बन चुका है. हर 22 में से 1 महिला को स्तन कैंसर होने की आशंका होती है.
विकसित देशों की तुलना में भारत में जागरूकता की काफी कमी है. ब्रैस्ट कैंसर समेत बाकी कैंसरों के इलाज की तकनीक तो काफी तेजी से विकसित हो रही है लेकिन अगर समय रहते इस का इलाज शुरू नहीं किया गया तो मरीज की जान बचाना मुमकिन नहीं हो पाता है. ब्रैस्ट कैंसर की शिकार 60 फीसदी महिलाएं कैंसर की आखिरी स्टेज में जांच कराने के लिए डाक्टर के पास पहुंचती हैं, जिस से उन का इलाज नहीं हो पाता है. कैंसर का दर्द आखिरी स्टेज में ही होता है, इसलिए शरीर में होने वाले किसी भी बदलाव या गांठ की अनदेखी जानलेवा साबित हो सकती है.
पटना के महावीर कैंसर संस्थान के निदेशक और ब्रैस्ट कैंसर फाउंडेशन (इंडिया) के राष्ट्रीय सचिव डा. जितेंद्र सिंह कहते हैं कि बे्रस्ट में होने वाली हर गांठ या गिल्टी कैंसर नहीं होती है. ब्रैस्ट में होने वाली किसी भी तरह की सूजन या गिल्टी को ज्यादातर महिलाएं कैंसर समझ लेती हैं और मानसिक तनाव में घिर जाती हैं. हर गिल्टी की जांच जरूर करा लेनी चाहिए. गिल्टी को औपरेशन के जरिए निकाला जा सकता है. कैंसर से बचने की कोई गारंटी नहीं है, लेकिन इस के प्रति सचेत रह कर इस के खतरे को कम किया जा सकता है.
 
जागरूक होने की जरूरत
पिछले दिनों पटना में ब्रैस्ट कैंसर पर आयोजित सेमिनार में देश और विदेश के 150 कैंसर स्पैशलिस्ट जुटे. सभी की यही राय थी कि कैंसर के 80 फीसदी मामले देर से इलाज के लिए पहुंचते हैं. यदि शुरुआती स्टेज में इस का पता चल जाए और सही इलाज शुरू कर दिया जाए तो इसे पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है. ब्रैस्ट कैंसर ऐसा रोग है जिसे ठीक किया जा सकता है, इस के लिए बडे़ पैमाने पर जागरूकता मुहिम चलाने की दरकार है.
कैंसर स्पैशलिस्ट डा. मनीषा सिंह बताती हैं कि ब्रैस्ट कैंसर को ले कर महिलाओं को खुद ही सचेत रहना होगा. ज्यादातर औरतें लाजशर्म की वजह से स्तन में पनपी गांठ को छिपाए रहती हैं. अपने पति को भी नहीं बताती हैं. अनपढ़ ही नहीं पढ़ीलिखी महिलाएं भी इसे छिपाती हैं. स्तन कैंसर का शुरुआती स्टेज में पता चलना बहुत जरूरी है, तभी मरीज की जान बचाई जा सकती है. 
पिछले 15 सालों में दुनियाभर में स्तन कैंसर के मामले में तेजी से इजाफा हुआ है. शहरी महिलाएं इस की चपेट में ज्यादा आ रही हैं. शहरी महिलाओं में ज्यादा उम्र में विवाह, देर से बच्चे पैदा होने, कम बच्चे होने, बच्चे को स्तनपान नहीं कराना, मोटापा, जंकफूड खाना, शराब और तंबाकू लेना, फलों का कम सेवन, हार्मोनल ट्रीटमैंट लेना, हायर सोशियो स्टेटस आदि बै्रस्ट कैंसर की बड़ी वजहें हैं. डाक्टरों की राय है कि हर महीने पीरियड के 15 दिनों के बाद अपने बै्रस्ट की जांच कर लेनी चाहिए, यदि उस में कोई बदलाव, गांठ या कहीं दर्द आदि हो या किसी भी तरह का शक हो तो तुरंत डाक्टर से सलाह लेनी जरूरी है. महिलाओं को बै्रस्ट हाइजीन पर भी खास ध्यान देने की जरूरत है.
 
समयसमय पर जांच जरूरी
बहरहाल, यह बात सभी को मालूम होनी चाहिए कि कैंसर जैनेटिक होता है. अगर परिवार में किसी को कैंसर हुआ हो तो दूसरे सदस्यों को सतर्क रहना चाहिए और समयसमय पर इस की जांच कराते रहना चाहिए. कैंसर के इलाज में 7 लाख रुपए से भी ज्यादा का खर्च आता है. इस खर्च को काफी कम करने की जरूरत है. इसलिए कैंसर के प्रति सचेत रह कर इस जानलेवा बीमारी और इस के इलाज के खर्च से बचा जा सकता है. -प्रतिनिधि द्य

मल्टीटास्कर बनें पर रखें ध्यान

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में मल्टीटास्कर होना सफलता का मानदंड बनता जा रहा है. लेकिन मल्टीटास्किंग के भी हैं कई साइड इफैक्ट्स. बिना साइडइफैक्ट्स के कैसे बनें मल्टीटास्कर, जानकारी दे रही हैं सोमा घोष.

एक कंपनी में कार्यरत 25 वर्षीया नम्रता अपनी भूलने की आदत से  परेशान है. उसे हर वक्त डर लगा रहता है कि कहीं वह बौस के दिए किसी निर्देश को भूल तो नहीं रही, जिस से उस की नौकरी को खतरा हो. डाक्टरों का कहना है कि मैमोरी लौस की वजह कई हैं, जैसे उम्र का बढ़ना, बचपन में कोई चोट लगना, पैदाइशी कोई समस्या होना, थाइरायड की बीमारी या कोई दूसरा डिफैक्ट लेकिन आजकल 25 से 45 वर्ष के लोगों में भी मैमोरी लौस के लक्षण दिखाई देने लगे हैं. इस की वजह यह है कि लोग अपने मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं कर पा रहे हैं. आजकल अधिकतर लोग गैजेट्स के सहारे किसी भी बात को याद रखने के आदी हो चुके हैं. कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जिन्हें अपना मोबाइल नंबर तक याद नहीं रहता.

इस बारे में मुंबई की काउंसलर राशिदा कपाडि़या कहती हैं कि आजकल के बच्चों को भी तरहतरह के गैजेट्स मिलने लगे हैं. दरअसल, बचपन से ही मातापिता बच्चों को नएनए मोबाइल, आईपौड या गेम खरीद कर दे देते हैं. बच्चों को उन्हें इस्तेमाल करते देख कर वे खुश भी होते हैं. इस तरह उन बच्चों को एकसाथ बहुत सारे काम करने की आदत पड़ जाती है. वे मोबाइल या कंप्यूटर पर गेम खेलते हैं, साथ ही गाना सुनते हैं.

ऐसे बच्चों को समय का ध्यान नहीं रहता. उन की मां उन्हें खाना परोसती हैं तो वे खाने का स्वाद जाने बिना ही खाते हैं. उन से बाद में पूछा जाए कि उन्होंने क्या खाया है तो वे बताने में असमर्थ होते हैं. भूलने की बीमारी यहीं से शुरू हो जाती है. बच्चे पहले अपनी पढ़ाई भूलते हैं बाद में किसी निर्देश को. एक बात वे समझ नहीं पाते कि किसी बात को याद रखने के लिए एकाग्रता जरूरी है. अगर आप मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं करेंगे तो आप की स्मरणशक्ति धीरेधीरे कम होने लगेगी.

वैदिक्योर वैलनैस क्लीनिक के प्रमुख डा. अनिल पारिख कहते हैं कि ब्रेन के कार्य करते वक्त हमारी पांचों ज्ञानेंद्रियां बाहरी सूचनाओं को ग्रहण करती हैं जो संवेदनाओं के रूप में मस्तिष्क में स्टोर होती रहती हैं. हर सैकंड में 150 से 200 संवेदनाएं आती हैं. लेकिन अगर आप संवेदना ग्रहण करते वक्त बहुत सारे काम एकसाथ कर रहे हैं तो वे संवेदनाएं अंतर्मन पर अंकित नहीं हो पातीं और जब मस्तिष्क से हम उस सूचना को मांगते हैं तो वह फाइल वहां से डिलीट हुई होती है. यानी हमारा मस्तिष्क एक कंप्यूटर की तरह काम करता है. करप्ट फाइल आप को वापस मिल नहीं सकती. इसलिए पढ़तेलिखते वक्त एकाग्रता और विभाग की फिटनैस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है.

गौरतलब है कि अगर आप का दिमाग मल्टीटास्कर के लिए तैयार नहीं है और आप एकसाथ कई काम कर रहे हैं तो आप कुछ बातें भूल सकते हैं. इस बारे में फोर्टिस हौस्पिटल, मुंबई की न्यूरोलौजिस्ट डा. प्रवीना शाह बताती हैं कि आज के युवाओं में मल्टीटास्कर्स होने की होड़ है. यह अच्छा है लेकिन कई बार वे इस में इतना उलझ जाते हैं कि वे कन्फ्यूज्ड हो जाते हैं. अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं और तनावग्रस्त हो जाते हैं. साथ ही, उन्हें भूलने की आदत लग जाती है.

दरअसल, बचपन से ही उन में एकाग्रता को बढ़ाना चाहिए ताकि वे बाद में अपने कार्यक्षेत्र में तरक्की कर सकें. इस के अलावा आजकल युवाओं में फास्ट फूड के सेवन करने का भी के्रज है. वे बैलेंस्ड डाइट नहीं ले रहे. ऐसे में जिस्म में विटामिन बी-12 और विटामिन डी का स्तर कम हो जाता है. नतीजतन, मैमोरी लौस की समस्या पैदा होने लगती है. इन विटामिनों की कमी से वे कई बातें भूलने लगते हैं. समय रहते इस का निदान जरूरी है. वरना न्यूरो संबंधी कोई दूसरी बीमारी भी पनप सकती है.

भूलने से बचें

आप मल्टीटास्कर बनें और भूलने का रोग न लगे, इस के लिए इन बातों का ध्यान रखें :

द्य      किसी भी निर्देश को बारबार मन में याद करें इस से आप उस बात को हफ्तेभर तक याद रख पाएंगे.

द्य      किसी डायरी या कागज पर लिख लेना सब से अच्छा तरीका है. पैन और पेपर को ‘ऐक्सटर्नल मैमोरी डिवाइस’ भी कहा जाता है.

द्य      दिमाग को क्लियर रखें, इस के लिए आप नाक से 3 बार गहरी सांस ले कर छोड़ें और अपने मसल्स को ढीला रखें. इस श्वसन प्रक्रिया से आप का माइंड क्लियर हो जाएगा और आप जो भी बात चाहें, याद रख सकते हैं.

द्य      मस्तिष्क को ऊर्जा प्रदान करने के लिए हमेशा संतुलित आहार लें जिस में प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट आवश्यक है. मछली, सूखे मेवे, बादाम आदि सभी मस्तिष्क में गति पैदा करते हैं.

द्य      हमेशा तरल पदार्थों का सेवन करें.

द्य      शारीरिक व्यायाम जरूरी है ताकि खून का बहाव मस्तिष्क में अधिक हो और ब्रेन को पर्याप्त मात्रा में औक्सीजन मिले.

द्य      एक समय में एक बात पर ध्यान केंद्रित करें और उसे अच्छी तरह समझने का प्रयास करें.

द्य      किसी भी प्रकार के ‘टौक्सिन’ के सेवन से बचें. ये थोड़े समय के लिए आप की एकाग्रता को बढ़ा सकते हैं, पर इन का नकारात्मक प्रभाव अधिक पड़ता है.

बहरहाल, वर्तमान पीढ़ी का मल्टीटास्कर बनना अच्छी बात है और आज की जरूरत भी. लेकिन वहीं इस पीढ़ी की किसी बात या निर्देश को याद रखने की कूवत कम होना चिंताजनक भी है. सो, मस्तिष्क को हैल्दी, सक्रिय और ताकतवर बनाए रखने की दरकार है. ऐसे में उपरोक्त बातों को ध्यान में रख कर कोई भी इंसान अपनी याददाश्त को बेहतर कर सकता है.   

मस्तिष्क को ऊर्जा प्रदान करने के लिए हमेशा संतुलित आहार लें ताकि आप की याददाश्त रहे चुस्तदुरुस्त.

आर्थिक मंदी है तो लौट चलें गांव की ओर

गांव में कहावत है कि खेती करने वाला कभी भूखा नहीं मरता. यह कहावत अत्यंत सीमित महत्त्वाकांक्षा का प्रतीक हो सकती है. इस से यह भी अर्थ लगाया जा सकता है कि आदमी सिर्फ खाने के लिए ही जीता है. पहले यह सब ठीक था क्योंकि उस समय हर आदमी की सीमित महत्त्वाकांक्षा थी और इस से बाहर निकलने के अवसर भी कम थे. आदमी सादगीपसंद था और समाज में छोटे व बड़े का स्पष्ट फर्क उस के रहनसहन से दिखाई पड़ता था. धीरेधीरे स्थिति बदली है और हर आदमी स्वयं को बड़े लोगों की कतार में देखने की महत्त्वाकांक्षा पालने लगा. यह अच्छी प्रवृत्ति है लेकिन इस के दुष्परिणाम भी इस तरह से सामने आए.

कई लोगों ने स्वयं का गलत आकलन शुरू कर दिया. वे स्वयं को बड़ा आदमी महसूस करने लगे और बड़े आदमी जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए उलटेसीधे रास्ते अपनाने लगे. कुछ ऐसे रास्ते से पैसा कमा कर बड़े बन गए लेकिन उन की मानसिकता तो वही रही. उन में कोई बदलाव नहीं आया. फूहड़ता जस की तस रही. इस के अलावा कुछ लोग योग्य थे लेकिन उन के समक्ष अवसर नहीं आए और इस वजह से उन की हताशा बढ़ने लगी. लिहाजा, उन्होंने गांव छोड़ कर बरतन मांजने या छोटामोटा कार्य करने के लिए शहर को चुना और गांव से मुंह मोड़ लिया. शहरों में उस ने संकट ही झेले लेकिन शहर में नौकरी करता रहा और इसी में वह स्वयं को सम्मानित महसूस करता रहा. उसे गांव जाना अच्छा नहीं लगा. लेकिन अब गांव जाने की मजबूरियां सामने आ ही गई हैं.

देश की प्रमुख रेटिंग एजेंसी क्रिसिल रिसर्च ने हाल में एक शोध रिपोर्ट पेश की है जिस में कहा गया है कि अगले 7 सालों में देश में रोजगार के अवसर घटेंगे और 1.2 करोड़ लोगों को शहर छोड़ कर छोटेमोटे रोजगार की तलाश में गांव का रुख करना पड़ेगा. शोध में कहा गया है कि वर्ष 2019 तक गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर वर्तमान 5.2 करोड़ से घट कर 3.8 करोड़ ही रह जाएंगे. रोजगार का यह अवसर सभी क्षेत्रों में घटेगा और इस की वजह आर्थिक मंदी होगी.

मंदी का नतीजा होगा कि लोग छोटेमोटे रोजगार की तलाश में गांव का रुख करेंगे और कम मूल्य पर खेतीबारी के काम में जुट जाएंगे. यह सरकार की नाकामी का ही परिणाम होगा. यदि शहरों में ढांचागत विकास बढ़ाने के साथसाथ गांव में खेती को बढ़ावा देने और उस में कुशल लोगों को सम्मान के साथ रोजगार के अवसर दिए जाते तो यह स्थिति सामने नहीं आती. कृषि सदाबहार कार्य है और कृषि को यदि देश के उन्नत रोजगार के अवसर के रूप में विकसित किया जाता तो देश की बड़ी आबादी को रोजगार के लिए गांव छोड़ कर भटकना नहीं पड़ता. खेती के काम को सफेद कौलर जौब की तरह नहीं बनाया गया. इसे सम्मान का काम बनाया जाता तो आर्थिक मंदी का संकट पैदा ही न होता. जरूरत गांव की तरफ देखने की है, कृषि को महत्त्व देने और कृषक को उस के उत्पाद के बदले उचित मूल्य के साथ ही उचित सम्मान देने की भी है. जिस दिन गांव बदलेंगे, देश बदल जाएगा और आर्थिक तरक्की का स्थाई आधार हमारे सामने होगा.                            

एटीएम सेवा के बदले पैसे बटोरना है लूट

औल टाइम मनी यानी एटीएम की सुविधा उपभोक्ता के लिए अब जी का जंजाल बन रही है. सरकार ने बेंगलुरु में एटीएम पर एक महिला के साथ हाल में हुए जानलेवा हमले की घटना के बाद सभी बैंकों को एटीएम में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने की सलाह दी है. बैंक सरकार की इस सलाह पर परेशान हैं.

बैंकों का मानना है कि जिस तेजी से ग्राहक की सुविधा के लिए एटीएम खोले जा रहे हैं उस स्तर पर सुरक्षा के बंदोबस्त वे नहीं कर सकते. इस के लिए उन्हें बहुत खर्च करना पड़ेगा और यह खर्च वे एटीएम सेवा के बदले शुल्क ले कर ही कवर कर सकते हैं. रिजर्व बैंकको इस पर एतराज नहीं है.

केंद्रीय बैंक ने कह दिया है कि वाणिज्यिक बैंक एटीएम सेवा के बदले ग्राहकों से शुल्क ले सकते हैं. इस का मतलब यह हुआ कि आम ग्राहक जिस एटीएम का इस्तेमाल करेगा उस के बदले बैंक शुल्क लेगा. इस से बैंकों की आमदनी बढ़ेगी लेकिन यह संदिग्ध है कि बैंक पैसे ले कर भी हर एटीएम पर सुरक्षाकर्मी तैनात करेगा. इस की भी कोई गारंटी नहीं है कि जहां बैंक लूटे जाते हैं वहां एक गार्ड इतना कारगर हो कि बेंगलुरु जैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी. वहीं, बैंक यदि एटीएम पर शुल्क लेते हैं तो आम आदमी के साथ यह धोखा है. बैंकों ने एटीएम देते समय यह नहीं कहा था कि इस के इस्तेमाल पर शुल्क लिया जाएगा. अगर यह विकल्प होता बड़ी संख्या में लोग शायद इस का इस्तेमाल नहीं करने का विकल्प लेते. अब स्थिति बदलती है तो यह लूट या सरकारी धंधा कहलाएगा.

एटीएम आज हर आदमी की जरूरत बन गया है. हर आदमी के पास एटीएम कार्ड है और जरूरत पड़ने पर वह छोटीमोटी रकम के लिए इसी का इस्तेमाल कर रहा है. एक तरह से एटीएम पौकेट मनी की जगह ले चुका है. आम जरूरत की वस्तु बन चुके एटीएम के प्रयोग के बदले शुल्क लेना अन्याय है. शुल्क ही लेना है तो बड़े लेनदेन वालों से लिया जाना चाहिए. आम आदमी मुश्किल से पैसा बचाता है और बैंक में रख कर एटीएम के जरिए अपनी जरूरत की छोटी पूंजी निकालता है. ऐसे में उस से शुल्क वसूलना ठीक नहीं है.

 

विज्ञापन पर भारी न पड़ जाए औनलाइन खरीदारी

औनलाइन खरीदारी एक नया विकल्प बन कर सामने आया है. इस विकल्प ने विक्रेताओं को तो मालामाल बना ही दिया है, के्रताओं के समक्ष भी अच्छे विकल्प खड़े कर दिए हैं. अपना सामान बेचने के लिए अब तक सिर्फ विज्ञापनों का ही सहारा लिया जाता था लेकिन अब उस सामान को आप ग्राहकों के सामने औनलाइन पेश कर सकते हैं. और ग्राहक सिर्फ एक फोन कौल के जरिए भी उक्त सामान को खरीद सकता है.

पत्रपत्रिकाओं या दूसरे संचार माध्यमों के जरिए सामान को ज्यादा से ज्यादा खरीदारों तक पहुंचाने की विज्ञापन की परंपरा इस से खतरे में पड़ती नजर आ रही है. यह ठीक है कि विज्ञापन के बिना किसी भी उत्पाद की बिक्री काफी कठिन होती है और बाजार बनाने के लिए विज्ञापन आवश्यक है लेकिन इधर कई उत्पाद सीधे टीवी पर बेचे जा रहे हैं और टीवी हर घर की, चौपाल की आवश्यक वस्तु है. टीवी पर सामान दिखता है और और्डर मिलते ही आप के द्वार पर मनपसंद वस्तु पहुंच जाती है.

औनलाइन खरीदारी का आलम यह है कि इस में 85 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. यह खुलासा वाणिज्य और उद्योग मंडल यानी एसोचैम ने एक अध्ययन में किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि औनलाइन खरीदारी के दायरे में सभी वस्तुएं आ रही हैं. घरेलू सामान के अलावा आभूषण, प्रसाधन, बच्चों के खिलौने, रसोई का सामान, टीवी, घड़ी, मोबाइल, परफ्यूम और यहां तक कि किताबें भी औनलाइन खरीदी जा रही हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 4-5 सालों में औनलाइन खरीदारी के बाजार में बड़ा उछाल आया है और पिछले साल यह बाजार 16 अरब डौलर के आसपास था जिस के अगले 8-10 सालों में 60 अरब डौलर के करीब पहुंचने की संभावना है.

यह नया बाजार है और इस में लोगों की दिलचस्पी तेजी से बढ़ रही है. इस बाजार की बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाजार में औनलाइन सामान बेचने की टीवी चैनलों में जैसे होड़ मची हुई है. प्राइम टाइम को छोड़ कर कई चैनलों ने अपने घंटे औनलाइन बिक्री के लिए समर्पित कर दिए हैं. कुछ चैनल तो सिर्फ यही काम कर रहे हैं और चौबीसों घंटे वे सामान ही बेचते नजर आ रहे हैं. खरीदार भी इन चैनलों पर बराबर नजर रखते हैं और उन्हें जो भी पसंद आता है उस का तुरंत और्डर देते हैं. यह नया जमाना है और बदलते समाज में इस तरह के बदलाव स्वाभाविक हैं और इस के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ना भी स्वाभाविक है. इस तरह के आंदोलन से कई परंपराएं टूट जाती हैं और नई परंपराएं शुरू होती हैं. देखना यह है कि यह बाजार कब तक लोगों को आकर्षित करता है.

 

शेयर बाजार ने सुस्ती से किया नए साल का स्वागत

शेयर बाजार में नए साल पर उदासी का माहौल रहा. दुनिया जब नए साल के जश्न में थी और उस की खुमारी में नए उत्साह व नए सपने के साथ काम करने के लिए लोग घर से निकले तो बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई में मायूसी का आलम दिखा. उम्मीद यह थी कि नए साल पर बाजार में नया उत्साह देखने को मिलेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

दरअसल, बाजार पिछले वर्ष के आखिरी दिनों से ही मंदी की चपेट में था. नए साल में पूरे 5 सत्र तक बाजार में गिरावट का रुख रहा. वर्ष 2014 की शुरुआत में शेयर बाजार में 5 दिन तक लगातार जारी रही गिरावट को थामने के लिए सरकार की तरफ से भी कोई प्रयास नहीं किया गया. आर्थिक मंदी को बढ़ावा देने वाले नएनए आंकड़े सामने आते रहे जिन का निवेशकों पर नकारात्मक असर देखने को मिला.

इस दौरान सेवा क्षेत्र का आंकड़ा आया और देश में दिसंबर में लगातार छठे माह भी सेवा क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई. इस बीच राजनीतिक अस्थिरता का भी माहौल बना रहा. दिल्ली में सरकार बनी और इस के राजनीतिक माने बाजार में अपने हिसाब से लगाए गए. प्रधानमंत्री ने भी 10 साल में तीसरी बार प्रैस कौन्फ्रैंस करने की घोषणा की जिस के कारण बाजार में असमंजस की स्थिति थी. प्रधानमंत्री के इस्तीफा देने की अटकलें भी थीं. राजनीतिक स्तर की इस अस्थिरता का असर बाजार पर रहा.

उधर, एशियाई बाजारों में भी गिरावट का ही दौर रहा लेकिन 8 जनवरी को बाजार में विदेशी बाजारों से अच्छे संकेत मिलने के बाद थोड़ी राहत मिली और सूचकांक मामूली तेजी पर बंद हुआ.

 

नकली नोट और फर्जी स्टांप का काला साम्राज्य

बिहार में नकली नोट, फर्जी स्टांप व फर्जी स्टांप पेपर्स के धंधे से जुड़े कई खिलाड़ी तेलगी को मात देते दिख रहे हैं. हालिया छापे में बरामद नकली नोट और करोड़ों के स्टांप  व स्टांप पेपर्स संकेत दे रहे हैं कि राज्य में गैरकानूनी धंधे का काला साम्राज्य खड़ा हो रहा है. पेश है बीरेंद्र बरियार की रिपोर्ट.
‘लगता है रंजीतवा ने नोट छापने का मशीन लगा लिया है? कौन काम करता है कि एतना रुपय्या कमा रहा है? गांव वालों पर अंधाधुंध पैसा लुटाता है और गांव में बड़का मकान कैसे बना रहा है?’ रंजीत के गांव वाले उस की शाहखर्ची देख मजाकमजाक में कहते रहते थे कि लगता है उस ने नोट छापने की मशीन लगा रखी है, पर यह मजाक तब सच साबित हो गया जब नकली नोट और स्टांप व स्टांप पेपर्स छापने व बेचने के आरोप में रंजीत को पुलिस ने दबोच लिया और उस की 2 प्रिंटिंग मशीनों का पता चला. उस ने सच में नोट छापने की मशीन लगा रखी थी.
पटना के न्यू बाइपास रोड से सटे खेमनीचक गांव के एक घर में लगाई गई पिं्रटिंग प्रैस में नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स और भारतीय नोट के साथ विदेशी नोट छापने का काम चलता था. लगातार 24 घंटे तक चली छापेमारी में प्रैस समेत 100 करोड़ रुपए के नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स, रुपए, डाक टिकट, पोस्टल और्डर, एनएससी आदि बरामद किए गए. इन में अमेरिका, इंगलैंड और अरब देशों की करीब 10 लाख रुपए की नकली करैंसी थी.
जाली स्टांप व स्टांप पेपर्स के धंधे का नया खिलाड़ी 40 साल का रंजीत नकली स्टांप व स्टांप पेपर्स के साथसाथ नकली नोट भी छापने लगा था. इतने पर भी उस का मन नहीं भरा तो वह अमेरिका, इंगलैंड, नेपाल और अरब देशों की करैंसी छापना चालू कर करोड़पति से अरबपति बनने की राह पर चल पड़ा.
इस धंधे में रंजीत नकली स्टांप पेपर्स का इंटरनैशनल धंधेबाज अब्दुल करीम तेलगी का भी उस्ताद निकला. मुंबई और कोलकाता को जालसाजी का मुख्य अड्डा बनाने वाले तेलगी ने देश की इकोनौमी को करीब 20 हजार करोड़ रुपए का चूना लगाया था. कर्नाटक मूल के उस शख्स
ने देश में नकली स्टांप पेपर्स का ऐसा साम्राज्य खड़ा कर लिया था कि उस के चेलेचपाटे आज भी उस के काले धंधे के जाल को फैलाने में लग कर करोड़ोंअरबों रुपयों के वारेन्यारे कर रहे हैं.
बचपन के दिनों में ठेले पर सब्जी और टे्रनों में फल बेचने वाले तेलगी ने अपने शातिर दिमाग से नकली स्टांप पेपर्स का धंधा चालू किया और देखते ही देखते 20 हजार करोड़ रुपए का स्टांप पेपर्स घोटाला कर डाला था. उस का नैटवर्क देश के 12 राज्यों में फैला हुआ था. इन मामलों में उस पर कुल 47 मुकदमे चले जिन में से 12 महाराष्ट्र में ही थे. वर्ष 2011 में अदालत ने उसे 10 साल की कैद की सजा सुनाई थी पर जेल में ही एड्स की बीमारी होने से उस की मौत हो गई.
रंजीत के गांव वालों की मानें तो 5 साल पहले तक वह गांव में लफंगई करता फिरता था और शराब पी कर इधरउधर बेहोश पड़ा रहता था. 3-4 साल पहले वह अकसर पटना आनेजाने लगा था. कुछ समय बाद ही वह बड़ी और महंगी गाडि़यों में घूमने लगा. दिनभर गांव में रहता था, पर रात को किसी होटल में चला जाता. होटल में गांव के दोस्तों को खूब खिलातापिलाता था. कुछ दिन ऐशमौज करने के बाद गांव से चला जाता.
पटना के एसएसपी मनु महाराज ने बताया कि खेमनीचक में छपते नकली स्टांप, स्टांप पेपर और नोटों के पीछे एक बड़ा गिरोह सक्रिय था. वहां से बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल व झारखंड में जुडिशियल और नौन जुडिशियल स्टांपों को भेजा जाता था.
इस इंटरस्टेट गिरोह का सरगना रंजीत कुमार है. रंजीत समेत 16 जालसाजों को पुलिस ने दबोचा. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के खजनी थाना के उसरी गांव के रहने वाले रंजीत ने पटना के हनुमाननगर महल्ले के अभय अपार्टमैंट के फ्लैट नंबर 204 में अपना अड्डा बना रखा था. वहीं से वह नकली स्टांप, स्टांप पेपर और नोट का काला धंधा चलाता था. इस के अलावा पत्रकार नगर के रघुहरि अपार्टमैंट के फ्लैट नंबर 504 को रंजीत ने नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स और नोटों का गोदाम बना रखा था.
वर्ष 2011 में भी नकली स्टांप के एक मामले में पुलिस ने रंजीत को पटना के गर्दनीबाग महल्ला से गिरफ्तार किया था. उस समय भी उस के पास से करोड़ों रुपए के नकली स्टांप और रुपए बरामद किए गए थे. 9 महीने तक जेल में रहने के बाद उसे जमानत मिली थी. जेल से बाहर निकलते ही वह फिर से अपने पुराने धंधे में लग गया था. रंजीत के साथ पकड़ा गया अर्जुन सिंह भी इस धंधे का पुराना और मंजा हुआ खिलाड़ी है. इस मामले में वह कई दफे जेल जा चुका है. इस के अलावा पुलिस के हत्थे चढ़ा हेमकांत चौधरी उर्फ झाजी गिरोह का पुराना मैंबर है और नकली स्टांप पेपर बेचने के आरोप में 3 वर्षों तक जेल की हवा खा चुका है.
रंजीत के गिरोह के द्वारा हर महीने करीब 50 करोड़ रुपए के नकली नोट, स्टांप, स्टांप पेपर्स, डाक टिकट आदि की सप्लाई की जाती थी. इस से सरकारी राजस्व को 1 वर्ष में 600 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा था. स्टांप वैंडरों की मिलीभगत से नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स का धंधा फलफूल रहा था. नकली स्टांप व स्टांप पेपर्स छापने वालों और बेचने वाले वैंडरों के बीच 50-50 फीसदी कमाई का हिसाब होता है.
गौरतलब है कि नकली स्टांप पेपर्स की लगातार मिल रही शिकायतों के मद्देनजर, पटना पुलिस ने ‘औपरेशन डीएससी’ यानी औपरेशन डुप्लीकेट स्टांप ऐंड करैंसी शुरू किया था. 29 दिनों की मशक्कत के बाद आखिरकार पुलिस को भारी कामयाबी मिली. छापामारी में 2 पिं्रटिंग प्रैस, 2 कंप्यूटर सैट, 3 स्कैनर, 3 पिं्रटर, 12 मोबाइल फोन, 5 से 20 हजार रुपए तक के नकली स्टांप, एनएससी और डाक टिकट, 50 व 10 रुपए के नकली नोटों का अंबार, 10 से 20 हजार रुपए तक के नौन जुडिशियल स्टांप पेपर, 5 से 500 रुपए तक के कोर्ट फी स्टांप, वैलफेयर स्टांप टिकट, दर्जनों नकली बैंक चैक बुक, प्रिंटिंग ब्लौक, पेपर कटिंग मशीन, पिं्रटिंग इंक, स्टांप और टिकट पिं्रट करने वाली डाई आदि पुलिस ने बरामद किए हैं.
ज्ञात हो कि पिछले 3 वर्षों के दौरान पटना में नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स और नकली नोट का धंधा करने वालों का नैटवर्क बड़ी तेजी से फैला है.

जीवन की मुसकान

मैं पोस्ट औफिस गई थी. मुझे पत्रों के लिफाफे पर ऐड्रैस लिखने थे. मैं ने हर लिफाफे पर ऐड्रैस लिखा, टिकट लगाया और वहां से चल पड़ी. लिफाफे पोस्ट बौक्स में डाल कर एटीएम से पैसे निकालने गई. तब ध्यान आया, मेरा पर्स तो पोस्ट औफिस की बैंच पर रह गया.
मैं वापस पोस्ट औफिस पहुंची. इधरउधर देखा तो लाइन में खड़े लोगों ने बताया, ‘‘दीदी, आप का पर्स चाय वाले लड़के को मिला था. उस ने पोस्टमास्टर साहब को दे दिया.’’
मैं पोस्टमास्टर साहब के पास पहुंची तो उन्होंने पर्स दे दिया. मैं ने तब उस चाय वाले लड़के को ढूंढ़ा, उस को पास बुला कर इनाम देना चाहा तो उस ने पैसे या इनाम लेने से इनकार कर दिया और बोला, ‘‘यह तो मेरा फर्ज था.’’ और दौड़ता चला गया. 
इंदुमती पंडया, राजकोट (गुज.)
 
बात पुरानी है. सुबह 5 बजे मेरे पति फैक्टरी के काम के लिए जीप से रामपुर से बरेली जा रहे थे. जीप ड्राइवर चला रहा था. रास्ते में एक ट्रक से जीप का ऐक्सिडैंट हो गया जिस में ड्राइवर तो उछल कर नीचे गिर गया व बेहोश हो गया, मेरे पति लुढ़क कर स्टीयरिंग के बीच में फंस गए. जीप पिचक गई.
वहां पर सिर्फ एक ढाबा था जिसे  4 भाई चलाते थे. उन्होंने जीप की बौडी कटवा कर मेरे पति को बाहर निकाला. मेरे पति के दाहिने हाथ व पैर की काफी हड्डियां टूट गई थीं. बेहोश होने से पहले उन्होंने बरेली का पता, जिन से मिलना था, बता दिया. 
उन लोगों ने मेरे पति को बरेली तक छोड़ा. आज मैं सोचती हूं कि अगर वे चारों भाई मेरे पति की मदद नहीं करते तो वे शायद आज दुनिया में न होते.
आशा गुप्ता, जयपुर (राज.)
 
मेरे पति को अपने व्यापार के सिलसिले में दुर्गापुर जाना था. चूंकि उन का जाना बेहद जरूरी था, इसलिए ड्राइवर नहीं मिला तो वे स्वयं ही कार चला कर जाने को तैयार हो गए.
हावड़ा से लगभग 40-45 किलोमीटर गए होंगे कि 80-90 की गति से चल रही उन की कार का अगला दाहिना चक्का फट गया और कार सड़क के बीच के डिवाइडर से टकरा गई. वे सामने के विंडग्लास को तोड़ते हुए डिवाइडर की दूसरी तरफ छिटक कर दूर जा गिरे.
स्थानीय 2-3 युवकों ने मेरे पति को उठाया. गाड़ी के अंदर से उन के जरूरी कागजातों का बैग और मोबाइल फोन भी ला कर दिया. उन लड़कों ने मेरे पति को आननफानन हावड़ा के एक अस्पताल में दाखिल करवा दिया और हमें सूचना दी. आज भी, जब मैं उन लड़कों के बारे में सोचती हूं, तो श्रद्धा से मेरा सिर झुक जाता है.
अर्चना अग्रहरि, हावड़ा (प.बं.) 
 
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